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नामवर का आना, नामवर मेला

Posted On 1:32 pm by विनीत कुमार | 8 comments


अपने बाहर के साथियों को जब बताया कि 29 तारीख को हमारे यहां नामवर सिंह आ रहे हैं, हिन्दी साहित्य का इतिहास और पुनर्लेखन की समस्याएं पर बोलेंगे। तुमलोग भी आओ न सुनने, मजा आएगा। शाम वाले आयोजनों में तो खूब सुना होगा नामवर को लेकिन सुबह वाले की बात ही कुछ और ही होती है। लगेगा कि जेएनयू में क्लास करने आए हैं। एक साथी ने इतना सब सुनकर बिना लाग-लपेट के सीधे बोला- अरे अब क्या सुनना नामवरजी को । वो तो अब फुके हुए पटाखे और चुके हुए तीर हो चुके हैं, अब वो नया क्या बोलेंगे। मैं समझ गया कि साथी की दिलचस्पी नयी चीजों में है, पुरानी चीजें अगर मतलब की भी हो तो उससे इन्हें गुरेज है। मैंने जोर-जबरदस्ती नहीं की।
अपने यहां कोई भी सेमिनार या कार्यक्रम होता है तो मैं चाहता हूं अपने जानकार लोग ज्यादा से ज्यादा लोग आएं। ऐसा नहीं है कि हमें आयोजक या विभाग भीड़ जुटाने के अलग से कुछ पैसे देते हैं. लोगों को बुलाने के पीछे दो-तीन ठोस कारण है। जेएनयू वाले को इसलिए बुलाना चाहता हूं उनकी धारणा बनी हुई है कि डीयू के लोग साहित्य को सिर्फ परीक्षा पास होने और नौकरी पाने के लिए पढ़ते हैं। रचनात्मकता और सामाजिक सरोकार से उनका कोई वास्ता नहीं होता। अब उनको कौन समझाए कि जेएनयू ने भला कौन-सा साहित्यकार पैदा कर दिया है। हां तो कार्यक्रमों में आकर उन्हें लगे कि यहां भी हलचल है, यहां भी कुछ होता रहता है।जो दोस्त दूसरे विषयों में हैं उन्हें इसलिए आने कहता हूं कि आजकल मैं देख रहा हूं कि हिन्दी सेमिनार में भी कुछ लोग अंग्रेजी में बोलनेवाले आ जाते हैं या फिर खुद हिन्दीवाले भी अंग्रेजी के कुछ वैल्यू लोडेड शब्द बोल जाते हैं । ये हमारे लिए गर्व करने की चीज होती है कि चलो भाई लोग अपडेट हो रहे हैं। मजा तो सबसे ज्यादा तब आता है जब कोई बंदा अंग्रेजी से एम.ए. कर रहा है लेकिन बैग्ग्राउंड हिन्दी है और पोस्टस्ट्रक्चरलिज्म को अपने क्लास में समझ नहीं पाता है और हमारे मास्टर साहब लोग हिन्दी में कायदे से समझा देते हैं और वो कहता है कि अरे यार, हिन्दी में भी ये सब पढ़ना होता है। मैं सीना तानकर कहता हूं कि साले ये डॉ नगेन्द्र का विभाग अब नहीं है कि सिरफ रीति और पंत ही चलेगा यहां तो अब मीडिया, सिलेमा, मार्क्सवाद और लोहिया सब कुछ है। और अगर इंगलिश में नहीं पार पा रहे हो तो हिन्दी में आ जाओ, एम्.फिल का सिलेबस एक ही है, तुमको लगेगा कि इंगलिश ही पढ़ रहे हैं,बाकी परीक्षा में खाली हिन्दी में लिखना पड़ेगा।
कुछ दोस्त मेरे बहुत ही फ्रस्टू हैं। खाली लेडिस से बतियाने के चक्कर में डीयू के किसी कोर्स में एडमीशन ले लेते हैं औऱ फिर रास्ते से भटक जाते हैं। उसकी बदहाली हमसे देखी नहीं जाती, इसलिए भी मैं उनको हिन्दी वाले प्रोग्राम में बुलाता हूं कि थोड़ी देर देख-सुन लेगा तो राहत मिल जाएगी , बाकी तो उसके एप्रोच और लेडिस के नसीब पर है।
यानि कुल मिलाकर मेरी लगातार कोशिश रहती है कि किसी तरह हिन्दी विभाग के प्रति लोगों का नजरिया बदले। उन्हें महसूस हो कि और विभागों की तरह ये विभाग भी यूनिवर्सिटी का एक जरुरी हिस्सा है। इसने भी समय और जरुरत के हिसाब से अपने को बदला है। खैर,
तो नामवर सिंह हमारे यहां आए, समय से थोड़ा पहले ही। और उनको देखने भी भारी संख्या में लोग आए। देखने इसलिए कह रहा हूं क्योंकि कई तो हिन्दी के नए बच्चे थे जिसने नामवर को नजदीक से देखा नहीं था और कुछ बुजुर्ग किस्म के लोग जिन्हें थोड़ी डाह है कि अस्सी का हो गया है आदमी फिर भी इतना मेन्टेन कैसे है। चलो चलकर देखा जाए। कुछ इसलिए कि घर जलने पर नामवर के चेहरे की रौनक बनी है या फिर जाती रही है। कुछ बुजुर्ग इसलिए भी आए थे कि हमलोगों के सामने रौब जमा सकें कि हमरे साथ ही पढ़ता था नामवर। शुरु से ही होशियार था हिन्दी पढ़ने में और इतना बोलने पर हम ये सोचें कि नामवर के साथ के हैं, कुछ माल मिल जाएगा और उन्हें बिना मारा-मारी के चाय मिल जाएगी।
अच्छा ये तो बात हुई बुजुर्गों की, अब जरा ये पूछें कि इतनी भारी मात्रा में लौंडे कैसे जुट गए तो कई लोग इस बदनीयती से आए थे कि नामवर कुछ बोले और हम खुरपेंच करें, खैर वे कर तो कुछ नहीं पाए लेकिन भीड़ जरुर बढ़ा गए। कुछ ने कहा कि गाइड ने कहा था कि जरुर आना सो आ गए। जेएनयू वाले इसलिए आए थे कि बाहर निकलकर जोर-जोर से बोल सकें कि जेएनयू आखिर जेएनयू है भाई, हमलोगों ने नामवर सिंह से वाकायदा पढ़ा है, आपलोगों की तरह शीतल प्रसाद नहीं लिया है।
हमें कुछ ज्यादा उम्र की लेडिस भी दिखी, जिनकी सिल्क साडियों से फिनाइल की गोली की स्मेल आ रही थी, लगता है मौके पर ही निकालती हैं इसे। खूब सज-धजकर आई थी, मैं खुश हो रहा था कि अगर अपन को लेक्चररशिप मिली तो इनके साथ बैठकर लंच करने का मौका मिलेगा।
भीड़ इतनी खचाखच थी कि बच्चों को जमीन पर भी जगह नहीं मिल पायी, एक-दो को देखा कि दिवार पर ही नोटबुक टिकाकर कुछ लिख रहे हैं। बाकी जमीन पर बैठे मार अंधाधुन नामवर जो कुछ भी बोल रहे हैं, नोट कर रहे हैं कि भइया यही स्पीड बनी रही तो गाइड तो हाथों-हाथ लेगा। समझेगा कि जब यहां ये हाल है जो जब रिसर्च करने लगेगा जब तो स्पीड और बढ़ जाएगी सो लगा पड़ा था।
लेकिन कहिए कुछ, सारे मास्टर साहब को एक साथ देखकर वाकई बहुत अच्छा लग रहा था। सबको एक साथ देखना नसीब की बात हैं, सही में ऐतिहासिक क्षण था कल का कार्यक्रम।
मैं भी गया तो था नामवरजी को सुनने और आंखिन एटेंडेंस बनाने, आंखिन एटेंडेंस नहीं समझा आपने। भाई जब गाइड आपको देख ले और नमस्ते कहने पर मुस्कराकर जबाव दे दे कि चलो इसे भी लगाव है साहित्य से तब उसे आंखिन एटेंडेंस कहते हैं। लेकिन भीड़ देखकर लगा कि इससे अपने मतलब का माल निकल आएगा, सो दौड़कर तिमारपुर वाले सरजी से कैमरा ले आया कि आज भीड़ की कुछ फोटो ले लूं ब्लॉग के काम आएगा।....काम की बातें तो यार-दोस्त नोट कर ही रहे होंगे।.....
खैर, जो हो जितनी भारी भीड़ जुटी थी उससे ये तो साफ हो गया था कि नामवर आखिर नामवर हैं और अगर विभाग ढंग के कार्यक्रम कराए तो सुननेवालों की कमी नहीं, मेला लग जाएगा, मेला। जी हां मेला लगा जाएगा जैसे कल लगा था।
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जेएनयू पर पोस्ट लिखने के बाद पहली बार जाना हुआ जेएनयू। मन तो बिल्कुल भी नहीं था लेकिन दोस्तों के बार-बार बुलाने और इस उत्सुकता से कि देखें क्या राय बनी है लोगों को मेरे बारे में, मैं चला गया। मुझे चलते समय इस बात का भी डर था कि चुनावी महौल है वहां, हमें खूब पकाया जाएगा, जहां कुछ बोला कि जो हमारे मित्र हैं तुरंत सावरकर की किताब लेकर चढ़ जाएंगे मेरे उपर कि आपलोगों तो साफ ही देशद्रोही आदमी हैं, आपको तो अधिकार ही नहीं है भारत की पवित्र भूमि पर रहने और पीएच.डी. करने का । लेकिन ये भी कन्फर्म है कि वो हमारा शारीरिक नुकसान कभी नहीं पहुंचाएंगे, जब बहुत बहस होने लगेगी तो साफ कहेंगे कि- छोड़िए न महाराज नौकरी लीजिए और अपना-अपना घंटा हिलाने दीजिए लोगों को हमें क्या करना है विचारधारा पेलकर।
अबकी तो हद हो गयी, लोग पहले से ही तैयार थे, मूड में थे कि ढ़ंग से लेनी है इस बार इनकी। ऐसी लो कि ये हाय-हाय करके बोलने लगें कि आप हमसे कुछ खा-पी लीजिए लेकिन ऐसे कुत्तों की तरह मत झोला कीजिए। कुछ के लिए मैं रिहर्सल इनपुट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता हूं कि लगाओ खूब लेफ्ट पर आरोप, गरियाओ दमभर लेफ्टिस्ट नेताओं को औऱ देखों कि ये क्या-क्या काउंटर सवाल करते हैं, उस हिसाब से अपने को तैयार कर लेंगे। मैंने भी पैतरा बदल लिया, वो गरियाते जाते और मैं थोड़े-बहुत फेरबदल के साथ कहता कि आपका कहना बिल्कुल सही है,बस थोड़ी भाषा सुधार लें लगे कि आप जेएनयू से पीएच.डी. कर रहे हैं। बाकी आप बात लॉजिकली कर रहे हैं। मित्र को बड़ा झटका लगा। बोले, महाराज आपका लेफ्ट से मोहभंग तो नहीं हो गया है आप मेरी हर बातों का समर्थन कर रहे हैं,पहले तो आप एकदम से लड़ जाते थे। वैसे आप समय रहते ठीक ही किए। इस बार आपके यहां लेफ्ट वालों की हालत ठीक नहीं हैं। मेरे राइटिस्ट हो जाने की गलतफहमी मित्र को वैसे ही हो गयी जैसे एम.फिल्. में मेरी एक दोस्त को लेफ्टिस्ट हो जाने की हुई थी। तब उसने कहा था कि ली मेरेडेयिन के सामने मिलते हैं हमलोग,अगले सप्ताह। जैसे मेरे मित्र ने कहा इस बार कि चलिए अब तो झंडेवालान में अक्सर मिलना होगा अपना। एम.फिल् में लेफ्टिस्ट होने का केस ये था कि दूसरे पेपर में हमलोगों को दुनिया के प्रमुख विचारधाराओं के बारे में पढ़ना होता था जिसमें मार्क्सवाद भी शामिल था। उस दोस्त से मैंने कुछ किताबें ली थी पढ़ने के लिए और वो बार-बार कहती रख लो मैं दूसरी खरीद लूंगी और मैं उसके पैसे दे दिया करता। धीरे-धीरे वो पार्टी के पैम्पलेट्स भी देने लगी और कहती इससे भी तुम्हें आइडिया मिलेगा। मैं भी सब पढ़ जाता। अब उसे यकीन होने लग गया था कि मैं जल्द ही कार्ड होल्डर हो जाउंगा। यानि मार्क्स पढ़ने पर आप मार्क्सवादी हो जाएंगे और उसका सीधे-सीधे विरोध नहीं करने पर आप राइटिस्ट, ये समझ पूरी तरह विकसित हो चुकी है। सो मेरी साथी और मेरे मित्र ने ऐसे ही मुझे डील किया। लेकिन मित्र के दिमाग में अब भी दुविधा बनी हुई थी, सो लिटमस पेपर की तरह गाइड वाला मुद्दा फिर से छेड़ दिया और मैं एकदम से भड़क गया। मित्र को समझ आने लगा था कि ये बदले नहीं हैं अभी तक, कुढ़ कर बोले अच्छा आप ब्लॉग लिखने लगे हैं न तो सोचते हैं कि चुप रहकर जितना मसाला मिल जाए ले लो, बहसे में अपनी बात लाना नहीं चाहते।
एक दूसरा जूनियर उत्साहित होकर नया ज्ञानोदय विवाद की किताबी शक्ल युवा विरोध का नया वरक लाया औऱ मोहल्ला की स्तुति करते हुए एकदम से बोला- आपलोग बहुत अच्छा कर रहे हैं भइया। इ मैगजीन छापने वाले लोग सोचते हैं कि कुछो छाप दो कोय कुछ बोलेगा ही नहीं, इ पते नहीं है कि हिन्दी समाज बहरा भले हो जाए गूंगा कभी नहीं होगा, कोय न कोय तो बोलेगा ही। आप कहां रह गए थे जब विवाद चल रहा था, आप भी कुछ ठोक देते। आप डरते हैं का कि बढ़िया-बढ़िया मैगजीन में नहीं छपेंगे तो इन्टल नहीं बन पाएंगे, हैं न। मैंने कहा- नहीं भाई जब ये विवाद चल रहा था मैं हिन्दी टाइपिंग सीख रहा था और जब सीख लिया तब तक विवाद किताबी शक्ल में आ चुका था। कोई बात नहीं भैय्या आपको कहीं छपने-छूपने की जरुरत नहीं है, आप ब्लॉग पर ही लेते रहिए।
एक भाईजी से अपनी बहुत शेयरिंग होती रही है। बनारस की लंका से लेकर जेएनयू के पारथसारथी हिल तक की लीला। अबकी बार उन्होंने कहा कि गुरु अब तो तुमको कुछ बताने में भी बहुत डर लगता है, पता नहीं कहां क्या लिख दो, बहुत कुछ है बताने को हिन्दी समाज और यहां के बारे में लेकिन लोग डॉट करने लगेंगे कि मैंने ही ये सब जानकारियां दी है।
कुल मिलाकर कहानी ये है साथी कि ब्लॉगर अपनी पहचान लोगों के बीच उसी तरह से बना रहा है जो रुतवा किसी जमाने में मट्टीमार पैंट पहनकर पत्रकारिता करने वाले लोगों की हुआ करती थी। यों समझ लो कि व्यवसाय और मैंनेजमेंट की शर्तों पर चलनेवाली पत्रकारिता के बीच ब्लॉग लेखन एक सच के रुप में, एक ताकत के रुप में अपनी पहचान बना रहा है। तो इसी बात पर जिस ब्लॉगर के घर में मिठाई के नाम पर जो कुछ भी है खा लो और कुछ नहीं है तो भइया चीनी से तो मुंह मीठा कर ही सकते हो।....
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एक बत्तख हिन्दी में एमए

Posted On 10:25 pm by विनीत कुमार | 3 comments

पोस्ट का शीर्षक पढ़कर आपको थोड़ा अजीब लगेगा लेकिन पूरी पोस्ट पढ़ने के बाद आपको दूसरा और इससे बेहतर शीर्षक ढ़ूढने में बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी। अच्छा शीर्षक ढूंढने पर इनामी खत जल्द ही भेजा जाएगा।
घर से वापस हॉस्टल लौटनेवालों का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, आने के पहले बाकायदा फोन करके कहते हैं, स्टेशन पर लेने आ जाउं। और अगर हमारे हिसाब से ( पहले पूछ लेते हैं सामान वजनी है कि नहीं,मतलब माल है कि नहीं) मामला फिट बैठ जाता है तो लेने चले भी जाते हैं। हमारा जोर बिहार और हरियाणा वालों पर ज्यादा होता है। बिहार के लोग खाने का जो आइटम लाते हैं मां बताती है कि हमारे पूर्वज भी वो सब बनाया करते थे, अब मॉड भाभी के आ जाने से बिहारी प्रजाति के सारे आइटम लुप्त होते चले गए और हरियाणा वाले शुद्ध भैंस की घी लाते हैं, शुद्ध घी बोलने में थोड़ी दुविधा है, क्या हरियाणा में मिलावट नहीं है। आए दिन खबर हर कीमत पर वाले घी में डिटरजेंट की मिलावट वाली कहानी सुनाते रहते हैं लेकिन शुक्र है कि अब तक भैंस में कोई मिलावट नहीं है। छोडिए, दोनों राज्यों के अलावे एक बंदे का हमलोग बेसब्री से इंतजार करते हैं, अब ये मत पूछिएगा कि वो कहां के हैं आपको एनथ्रोपॉलाजी पर से विश्वास उठ जाएगा। आपको गुस्सा भी आएगा कि स्साले हमार हिंया क्यों पैदा लिए और डर भी लगेगा कि अगर अपने राज्य में ऐसी ब्रीड पैदा होती रही फिर जीडीपी बढ़ने से रही। कुल मिलाकर अगर मैं आपको उसकी पवित्र भूमि बता दूं तो ब्लॉग दुनिया में चिंता फैल जाएगी। ये नपुंसकता से भी खराब पछताने वाली चीज है।हम उनसे खाने-पीने की चीजों के कारण घर से आने का इंतजार नहीं करते बल्कि वजह कुछ और है।
आपको साहित्य की थोड़ी भी समझ है तो एक चर्चित नाम है मस्तराम। सीनियरों से शिक्षा मिली है कि कामायनी और प्रियप्रवास को समझने के सौन्दर्यबोध इसी से पढ़कर विकसित होंगे। शुरु में तो मैं राजकमल प्रकाशन, दरियागंज चला गया खोजने। साहित्य का स्टूडेंट रहा हूं, इतना पता था कि हिन्दी की अच्छी किताबें वहीं मिलती है। लेकिन अब मैं सोचता हूं कि तब मैंने एक अच्छा काम किया था कि दूकान का नाम पूछने से पहले किताब का नाम पूछता था और तब कहता था कि राजकमल में मिल जाएगी न मस्तराम की किताब। मनचलों ने बताया कि हां हां जाओ तो। सीधे कांउटर पर न जाकर दूकान के बाहर जो पार्सल के लिए किताबें पैक करते हैं, उनसे पूछा-भइया मस्तराम की किताबें यहीं मिलेगी। वो बंदा मुझे थोड़ी देर तक घूरता रहा, मानो अंदाजा लगा रहा हो कि हुलिए से तो संस्कारी जान पड़ता है फिर कुसंगति में कैसे फंस गया और जब हमनें अपना परिचय दिया तो अफसोस करते हुए बताया कि मस्तराम जैसी घटिया किताबों से दूर ही रहना। उसके लाख उपदेश देने के बाद भी मेरे मन में किताब पढ़ने की इच्छा बन चुकी थी। इसी बीच हुआ ये कि हमारे एक दोस्त(जिसकी चर्चा आगे जारी रहेगी) के दोस्त का बीए में ठीक नंबर नहीं आए, ठीक क्या जी आप फेल ही समझें। उसने पढ़ाई छोड़कर किताब की दूकान कर ली। अच्छा भी है कि पढ़ न सको तो कम से कम पढ़ने के साधन बेचो। लेकिन मेरे दोस्त ने बताया कि कभी भी उसकी दूकान पर स्कूल और कॉलेज में पढ़नेवालों की भीड़ नहीं रही। हमेशा अध्दधा, पौआ खरीदने वाले लोग आते हैं, बाद में बताया कि वो ज्यादातर एमआर सीरिज ( मस्तराम) बेचा करता है। उसी के घर से आने का इंतजार हमलोग बेसब्री से किया करते।
वो मस्तराम की किताबें अपने दोस्त के यहां से सफर काटने के लिए लाता है लेकिन हमलोग का भी ज्ञान बढ़ जाता है। उसके आने पर हमलोगों ने इस मूर्धन्य साहित्यकार का सामूहिक पाठ किया है।
दो तरह के लोग इस विधान में शामिल होते हैं। एक तो वेलोग जो गर्व से कहते हैं कि हां हम मस्तराम को पढ़ते हैं क्योंकि अपने जोशीजी को भी कसप और हमजाद की कच्ची सामग्री यहीं से मिली और दुसरे वेलोग जो अपनी छवि पर मर मिटने वाले लोग हैं। प्याज लहसुन की तरह इसे और आकाशीजल को हाथ नहीं लगाते। लेकिन सबसे ज्यादा कुंठा और किताब में ही लेडिस स्पर्श का सुख पाने की चाहत भी इन्हीं में हैं। हमारी तरफ ऐसे देखेंगे, मां-बाप का हवाला देंगे कि क्या करने आए थे और क्या कर रहे हो। फिर अधीर होकर पूछेंगे कि अच्छा आप बताइए कि जब आप घर से दिल्ली के लिए निकल रहे थे तो मां ने क्या कहा था। मैं तुरंत जबाब देता- मेरी मां ने कहा कि जा बेटा दिल्ली, दिल्ली पर मुगलों ने बहुत दिनों तक राज किया अब जाकर हिन्दू राष्ट्र की नींव रख आ। हिन्दू समाज को संगठित कर। और तब पीछे से ठहाके शुरु हो जाते और एक दो अमृतवाणी भी कि साला चुतियापा करने से बाज नहीं आएगा, बैठ यहां। फिर उसे भाई लोग मिलकर मस्तराम को जोर-जोर से बोल-बोलकर पढ़ने कहते. ये काज ऐसा ही होता जैसे प्रेमचंद की कथाओं में ब्राह्मण को मांस खिलाने की कोशिशे रहती हैं। वो पढ़ने लगता लेकिन एक दो लइन पढ़कर बोलता कि इसमें मस्ती का स्पेलिंग ठीक नहीं है। मस्ती की जगह मस्ठी लिखा है और बेडरुम को बोडरुम लिख दिया है, लड़की को लरकी लिखा है, सच पूछो तो इससे सौन्दर्यबोध मरता है वो भाव ही नहीं आ पाते जो लेखक प्रेषित करना चाहता है। पीछे से फिर लोग गरियाते बैठ साला, न पढे तो दिक्कत और पढ़े तो फजीहत। प्रूफ रीडिंग करता है। तुम साले हिन्दीवालों के साथ यही परेशानी है। सब बत्तख हिन्दी में ही एमए करने चला आया है, फिर मेरी तरफ देखकर बोला तुम्हें कुछ नहीं बोल रहे हैं तुम्हारा ऑप्शन मीडिया है न।........
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हिन्दी विभाग में हंगामा

Posted On 10:22 am by विनीत कुमार | 3 comments

अगर कान में मैल भर जाए तो इसे निकालने के लिए आवाज की जरुरत होती है। राजनीति में डॉक्टरी कर रहे डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों का कुछ ऐसा ही कहना है। कान में मैल भर गया है हिन्दी विभाग के लोगों को और आवाज करके साफ करने का जिम्मा उठाया है डीयू के स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने। ये अलग बात है कि डीयू स्टूडेंट यूनियन यानि डूसू अपनी साख धीरे-धीरे खोती जा रही है। आज कॉलेज या फिर हॉस्टल से जुड़ा कोई भी मसला हो, प्रशासन तो प्रशासन स्टूडेंट भी नहीं चाहते कि डूसू के लोग उसमें शामिल हों। आप हाल ही लड़कियों के साथ छेड़छाड़ वाले मामले में देख सकते हैं कि कैसे उसे इससे बिल्कुल दूर रखा गया। यानि स्टूडेंट के लिए बनी यूनियन से स्टूडेंट बचना चाहते हैं। बाबजूद इसके हर उस मामले में डूसू शामिल होना चाहता है जिसमें उसे लगता है अपन को रातोंरात चमकने की गुंजाइश है। एक तरह से कहें तो डूसू का एकमात्र काम रह गया है, मुद्दा गरम करना, उसे राजनीति रंग देना और पेशेवर नेताओं के अंदाज में मीडिया के सामने बयानबाजी करना।
इसका ताजा उदाहरण कल दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग में मची तोड़-फोड़ है।
कुछ लड़के अचानक विभाग की ऑफिस में घुसते हैं, लोगों से एकाध सवाल करते हैं और फिर चीज़ों को उठाना-पटककर फेंकना शुरु कर देते हैं। शीशे चटकतें हैं, कम्प्यूटर उलटकर नीचे आ जाता है, कुर्सियां उलट जाती हैं और फिर देखते ही देखते एक दहशत का महौल बन जाता है।....और विभाग के ऑफिस में ताला लटक जाता है और इस तरह विभाग के लोगों की कानों में जमी मैल की परत को हटाने का काम सम्पन्न होता है।
आपको याद होगा कि कुछ दिन पहले मैंने एक पोस्ट लिखी थी, पढ्रे मीडिया हुए बर्बाद। ये बात हमनें डीयू, हिन्दी विभाग से मीडिया कोर्स कर रहे स्टूडेंट को लेकर कही थी और हमने लॉजिकली बताया था कि किस तरह यहां से मीडिया की पढ़ाई करना उनके हित में नहीं है। इस बाबत लोगों की प्रतिक्रिया भी आयी थी, हमने पोल भी कराया था। लेकिन इसी बात को डीयू स्टूडेंट यूनियन के लोगों ने दूसरे तरीके से उठाया.....सीधे विभाग में आए और भारी तोड़-फोड़ मचाया। उनका दावा है कि सारे मीडिया पढ़ने वाले छात्र उनके साथ हैं। होंगे क्यों नहीं भइया कल को उन्हें भी बार-बालाओं को गुडगांव से लाकर स्टूडियो में स्टोरी शूट करनी है और इस्क्सूसिव बोलकर चलानी है।..अभ्यास यहीं हो जाए तो क्या बुरा है।
हिन्दी विभाग और पत्रकारिता कोर्स को लेकर मुद्दा गरमाया हुआ है और इसे लेकर कैंपस के भीतर अच्छी खासी राजनीति भी हो सकती है और हो भी रही है। मीडिया के भीतर भी इस बात को लेकर भारी समर्थन मिलने की गुंजाइश हो सकती है कि सही बात है भइया कि अगर चैनल को स्टिंग ऑपरेशन करानेवाला बंदा चाहिए तो फिर उसे मुक्तिबोध क्यों पढ़ा रहे हो। छात्रों की भी अपनी बात हो सकती है कि हमें मीडिया के नाम पर जिस तरह की सुविधा मिलनी चाहिए, वो सुविधा नहीं मिल रही है। लेकिन दो सबसे बड़े सवाल यहां तब भी रह जाते हैं कि विरोध का जो रवैया अपनाया जा रहा है, वाकई वो मीडिया पढ़ रहे स्टूडेंट के माकूल है। उन्हें असुविधा और सिस्टम के खिलाफ अपनी आवाज जरुर उठानी चाहिए, अपनी बात रखने का उन्हें पूरा हक है लेकिन अभिव्यक्ति का ये तरीका ......जरा सोचें।
दूसरी बात जैसा कि डीयू के स्टूडेंट पॉलिटिक्स के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यहां पॉलिटिक्स का सीधा संबंध राजनीति में करियर बनाने से है। तो हर चार-पांच दिन में यूनिवर्सिटी के भीतर तोड़-फोड़ मचाना उनके करियर का हिस्सा है और आनेवाले समय में राजनीतिक पार्टियां क्या इसी विहॉफ पर टिकट देगी कि उसने कितनी तोड़-फोड़ मचायी है। डूसू के लोगों के उपर से अगर यूनियन का बिल्ला हटा दें तो पहचान के नाम पर जो बचता है वो एक दबंग, गुंडा और सरफिरे से ज्यादा कुछ भी नहीं है।
और देश भर के हिन्दी विभाग को नए सिरे से सोचना होगा कि कोर्स शुरु करने के पहले वे साफ कर दें कि पत्रकारिता के नाम पर वे कौन और किस तरह की पीढ़ी तैयार करना चाहते हैं, पत्रकारिता को क्या वे साहित्य का ही एक हिस्सा मानते हैं और उसे उसी रुप में पढ़ाना चाहते हैं या फिर चैनलों और मीडिया हाउ में जाने के लिए बेताब लोंगों के हिसाब से मीडिया को पढाना चाहते हैं। मीडिया की जो शक्ल हमारे सामने है उसमें सिर्फ साहित्य सा रचनात्मकता नहीं है, मैनेजमेंट भी है, संचार भी है, आर्ट भी है और प्रोफेशनलिज्म भी। अगर पढ़ानेवालों का ध्यान इन ठोस और जरुरी बातों की तरफ जाए तो टकराव की स्थिति जरुर थोड़ी कम होगी।
अच्छा, पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए अभ्यास करने का ये कितना अच्छा मौका हो सकता है कि वे सिस्टम में रहकर सिस्टम को कैसे दुरुस्त कर सकते हैं, उनके खिलाफ बड़े ही सधे और धारदार तरीके से लिख सकते हैं। जो पढ़ाई वे पढ़ रहे हैं उसका इससे बेहतर इस्तेमाल और क्या हो सकता है कि वे इन सार मुद्दों पर सम्पादक को लगातार लिखें, बजाए इससे कि फर्जी स्टिंग और न्यूज बनाने की कलाबाजी के चक्कर में अपने को बर्बाद करें।
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अंग्रेजी में लद्धड हैं मोदी

Posted On 2:42 pm by विनीत कुमार | 2 comments

एक ठीक-ठाक समझदार आदमी जब बाजार जाता है तो वही खरीद कर लाता है जिसकी उसे जरुररत होती है। जरुरत है आलू की तो चीकू नहीं खरीदता। लेकिन मीडिया में समझदार आदमी भी गच्चा खा जाता है जैसे अभी दो दिन पहले गच्चा खा गए अपने डेविल्स एडवोकेट के तेजतर्रार एंकर करन थापर।
करन पिछले नौ-दस महीने से देश के सबसे सफल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी(गुजरात) का इंटरव्यू लेने की कसरत में जुटे थे। दिसम्बर-जनवरी से ही मान-मनौअल चल रहा था कि दे दीजिए, आपसे ये नहीं पूछेंगे, वो ही पूछेंगे और अंत में मोदी रावण जलाने के दो दिन पहले सीएनएन आइबीएन की स्क्रीन पर अवतरित हुए। लेकिन करन के नौ-दस महीने की तैयारी पर मोदी ने साढ़े चार मिनट में मट्ठा घोल दिया, चार मिनट बोलने पर ही पानी की तलब हुई और पानी पीकर एकदम से बोले...न, अपनी दोस्ती बनी रहे, बस। करन पूछ रहे थे गुजरात के लिए आपने जनता से माफी मांगी. मोदी ने कहा हां. करन ने कहा एक बार फिर दुहराएंगे...मोदी का जबाब था हमें जो भी कहना था उसी समय बोल दिया। मतलब साफ था कि चैनल को जितनी मर्जी हो उतनी बार लूप चलाए, रीटेक ले, नेता आदमी स्टेटमेंट बार-बार नहीं दोहराता, बदल भले दे। मोदी ने भी वैसा ही किया।....करन कहते रह गए......मोदीजी, मोदीजी, लेकिन बिदक चुके मोदी को और रथ पर चढ़ चुके आडवाणी को भला कौन रोक सकता है, सो वे नहीं रुके।
अब देखिए, चैनल को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इस इक्सक्यूलिसीव इंटरव्यू के लिए, लाखों का खर्चा आया होगा, कैमरायूनिट, गाडी भाड़ा वगैरह...वगैरह। लेकिन न्यूज के नाम पर साढे चार मिनट का मटेरियल, जिसमें 20-25 सेकेंड मोदीजी के पानी पीने में ही चला गया। तो क्या बाकी के समय में स्क्रीन को ब्लैक जाने दे। ऐसे कैसे हो सकता है, पैसा लगा है भइया, टीआरपी का मामला है, अब जो है उसी से मसाला निकालना है भाई...सो मसाला निकल भी आया।शाम को सीएनएन के भतीजे IBN7 पर आ गया मसाला डंके की चोट पर। अरे खबर हर कीमत पर जब बोला है तो दर्शकों से चीट थोडे ही करनी है और फिर इसको लगा डाला तो लाइफ झिंगा ला ला.... लगाकर जो बैठे हैं उनकी झंड थोडे ही करनी है। सो सीएनएन की तुरही IBN7 पर डंके में कन्वर्ट हो गयी, जिसमें दो कौडी का माल नहीं था उसे हॉट रेसेपी बना दिया, भइया इसे कहते हैं मीडिया की अक्लमंदी। एंकर और भुक्तभोगी करन लग गए लाइव ।

अविनाश भाई ने लिखा मोहल्ला पर कि क्यों असहज हुए मोदी। यही सवाल एंकर ने करन से पूछा तो करन ने बताया कि हो सकता है मोदी अंग्रेजी के कारण ऐसा हो गए। एफ.एम पर एक एड आता है...अंग्रेजी तो आती है लेकिन साले झिझक मार जाती है। यहां उल्टा हो गया। झिझक तो नहीं है लेकिन एक घड़ी के लिए करन को जरुर लगा होगा कि इंटरव्यू से बढ़िया रहता साक्षातकार करवाना. बंदा भाषा को लेकर लसक तो नहीं जाता, कहां तो न्यूज बनाने आए थे कि गुजरात दंगा नहीं जेनोसाइड, मोदी उस दौरान तटस्थ नहीं थे....वगैरह.. लेकिन न्यूज क्या बनीअंग्रेजी में लद्धड हैं मोदी। क्या करोगे, अब इसी को खपाओ।कुछ पानी पीने पर भी बात हो सकती है कि जब भी आप परेशानी महसूस करने लगें, मोदीजी की तरह बिना हिचक के मांगकर पानी पिएं, राहत मिलेगी. अंग्रेजी चैनलों को नसीहत मिलेगी कि भइया कसम खाकर मत बैठो कि सब इंगलिस में ही पूछेंगे और दिखाएंगै, मेन मुद्दा है मसाला का कि जैसे मिल जाए। यहां हिन्दी प्रेमियों को थोड़ा खुश होने का भी स्पेस है कि वे इंगलिसवालों को हिन्दी की तरफ लौटने के लिए मजबूर कर सकते ।
अच्छा, मीडिया में ये पहली दफा नहीं हुआ है कि गए थे, बाल सेट करवाने, चेहरा चमकाने और आए माथा मुड़ाकर।तुर्कमान गेट पर एक बंदा गया था शिक्षा जगत में चल रहे सेक्स रैकेट का खुलासा करने और आतंकवादी का ठप्पा लगवा लिया, फर्जीगिरी में फंस गया। न्यूज लेने गया था, आपही न्यूज बन गया। चैनल हेड को कहना पड़ गया कि हमारे रिपोर्टर ने हमें डार्क में रखा। अब चैनल की कमिटमेंट के मुताबिक- खबर हमारी फैसला आपका, जनता सोच रही है कि जिस चैनल का रिपोर्टर अपने बॉस को डार्क में रख रहा है वो चैनल तो पूरे देश को और हमको भी डार्क में रखेगा। लो भाई गए थे जिप दि ट्रूथ करने अपनी जिप और जुबान बंद करनी पड़
यही हाल हुआ देश के सबसे तेज चैनल के साथ। चैनल लालूजी से सिर्फ इतना जानना चाह रहा है कि आपने भारी घाटे की रेल को मुनाफे की रेल यानि लालू की रेल में कैसे कन्वर्ट कर दिया। चैनल को इसी पर खेलना था..तो उल्टे लालू ने पूछ दिया कि ढंडा में इ बच्चा सबको काहे बैठाए हो और डीयू कैम्पस के सबसे इन्टल बंदो से पूछ डाला, आने के लिए चैनल ने पइसा दिया है का। इ लो न्यूज कहां से कहां पहुंच गयी। इसको कहते हैं कि खाटी दही की हांडी में चूहे का मुत देना।...सो वही होता रहता है।लेकिन इतनी मेहनत से जमायी दही को फेंक तो नहीं देंगे, कढ़ी के काम आएगी।...तो न्यूज का बड़ा हिस्सा कढ़ी है..झालदार, मसालेदार। अच्छा, घर में कुछ उल्टा-पुल्टा खरीद लाए और दानी किस्म के नहीं हैं, फ्रीज नहीं है तो माल सड़ जाएगा। खबरों की दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं जाता, सड़ता नहीं है क्योंकि यहां खाने और पचाने वालों की आबादी करोडों में है।...
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दिल्ली यूनिवर्सिटी के हेल्थ सेंटर के सामने भारी भीड़। देखकर अच्छा लगा कि चलो सरकारी विज्ञापन का असर हुआ है, लोग पोलियो का टीका और एचआईवी की जांच कराने आए हैं। लेकिन मन में दुविधा भी कि अचानक इतने लोग जागरुक कैसे हो गए। नजदीक जाकर देखा तो एक भी बच्चा टीका लेने की उम्र का नहीं था और न ही कोई युवा साथी और स्त्रियां जिसे देखकर लगे कि वे अपनी जांच कराने आए हैं। चारो तरफ से लोग घिरे हैं और बीच में कुछ हलचल जारी है। पता किया तो मालूम हुआ कि रात में माता जागरण है, अभी इसलिए रामकचौड़ी बांटा जा रहा है। दिल्ली आकर रामकचौड़ी का इतिहास जानने की इच्छा बराबर बनी रही है कि राम कचौडी राम ने वनवास जाने से पहले खाया था या फिर वनवास से लौटकर। इस कचौडी को कहीं माता सीता ने वनवास में ही तो नही बनाया था, रावण के आने के पहले। लेकिन यहां ये सवाल पूछना ठीक नहीं था,मार हो सकती थी, दंगा भड़कने का खतरा था। क्योंकि भीड़ में दो ही तरह के लोग शामिल थे, एक जिसे कि किसी पंडित ने बताया कि मजबूरों को रामकचौड़ी खिलाओ,पाप कटेगा और दूसरे वे लोग जिनका दोपहरे के खाने दस रुपये बच जाते और इस बीच अगर मैं कुछ करता तो दोनों भड़क जाते क्योंकि हिन्दुस्तान में भूख और पाप से मुक्ति सबसे बड़ा मुद्दा है। और जहां यहां अंगूठा डाला तो फिर खैर नहीं। ये भी डर था कि जहां मुद्दा छेड़ा कि कम्मीटेड रामभक्त कलेम न करने लगे कि यहीं थी सीता रसोई और यहीं पर बनी थी देश की पहली राम कचौडी, अब कौन लड़े इनसे जब सरकार पार पा ही नहीं रही हो तो फिर अपना कहां बस है। लेकिन मन में सवाल भी कि पूरी दिल्ली छोड़कर इसे सबसे सही जगह हमारी यूनिवर्सिटी ही लगी।
मैं जब रांची, झारखंड में था तो अपने कॉलेज के साथियों के साथ छठ पूजा के दिनों में बोरा और खाली डिब्बा लेकर रोड़ के दोनों ओर खड़े हो जाते, डैम में सूर्य को अर्घ्य देकर लौटते और हमारे बोरे और डिब्बों में प्रसाद के तौर पर ठेकुआ डालते जाते। पन्द्रह- बीस दिनों तक वही हमारा नाश्ता होता। मेरे साथ कई इसाई और आदिवासी साथी भी होते जो सालोंभर हिन्दुओं के कर्मकांड को खूब गरियाते, मूर्ति पूजा का विरोध करते और इस गरज से भी कि मैं चिढ़ जाउंगा लेकिन उनके साथ जब मैं भी गरियाने लगता तो आमीन..आमीन बोलकर चले जाते। प्रसाद जमा करने का ये तरीका चार साल तक चला। लड़कियां हमें बड़े प्यार से प्रसाद देती कि जेबेरियन होकर हमसे प्रसाद मांग रहे हैं।
लेकिन दिल्ली में तो नजारा ही कुछ और है, ऐसे पब्लिक प्लेस में खड़े होकर मांगना, कोई सोच भी कैसे सकता है। मेरा बार-बार मन हो रहा था कि लग जाउं लाइन में लेकिन हर दो मिनट पर पहचान का दिख जाता, अंत में सोचा देखे तो देख ले अपन तो आज खाएंगे ही रामकचौड़ी।
फिर डर लगा अपने मीडिया साथियों से कि आकर बाइट लेंगे, पूछेंगे कि कैसा लग रहा है रामकचौडी खाने में। अच्छा ये बताइए, आप रिसर्चर लोग सिर्फ यहीं खाते हैं या फिर पेशेवर लंगर, आई मीन कितने साल का अनुभव है। और तब फिर अपने दर्शकों से कहती .....तो आप देख रहे हैं कि डीयू में लगे इस लंगर में न केवल मजबूर लोग शामिल हैं बल्कि रिसर्चर भी खूब मजे ले रहे हैं। कई दुविधाएं लेकिन निबट लेंगे सबसे और इनकी तो मैं ब्लॉग लिखकर भड़ास निकाल लूंगा।... लग गया लाइन में । पीछे से आवाज आई क्यों भाई पैसा मिलना शुरु नहीं हुआ है , अरे डॉक्टर साहब गाइड का नाम डूबाइएगा क्या, यही बचा था करने के लिए पढ़-लिखकर चुतियापा। एक ने कहा, कल ही दू गो लक्स के गंजी लिए हैं, कटोरा फ्री दिया है, आके ले जाइएगा। अपने एक साथी ने कहा स्साला इंटल बन रहा है। देखा एक रिक्शेवाले की नजर मेरे उपर लगातार बनी है, सोच रहा होगा कि भागा हुआ सिरफिरा है, आंखों में चमक आती जा रही थी उसकी कि इत्तला करने पर सरकार जरुर इनाम देगी।....सब झेल गया
लेकिन अचानक अपनी मॉडल गीतांजलि की याद आ गयी और सोचा कि कल को लेक्चरर की इंटरव्यू के लिए गया और जहां मुझे देखते ही गुरुजी के विरोधी खेमेवाले मास्टर साहब ने चिल्ला दिया कि बहाली लेक्चरर की होनी है या पागल की, तब तो अपनी बत्ती लग गयी। धीरे से दोना लिया, टप्परवेयर की टिफिन निकाली, उसमें रामकचौड़ी डाली और स्पिक मैके की कैंटिन में हर्बल टी के साथ लेकर बैठ गया...मन में यही सोच रहा था कि थैंक गॉड, अपने झारखंडी साथी ने नहीं देखा नहीं तो उसे जाकर बताता कि विनीत तो भीख मांगकर अपना काम चलाता है, कर्जा में डूबा है, सारे पैसे चुकाने में चले जाते। यूजीसी नेट के लिए अभी दस दिन से ही तो आने लगी है अपने पास....
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नेता तो हूं नहीं कि सफाई देता फिरुं फिर भी लेडिस पर लगातार लिखने से यदि हमारे ब्लॉगर साथी को तकलीफ हुई है तो माफ करें, यकीन मानिए मेरा विरोध न तो मीडिया से है, पहले भी कहा था अब भी कह रह रहा हूं कि क्या पता फिर से यहीं लौटना पड़े और न ही लड़कियों और स्त्री-समाज को लेकर मन में कोई दुर्भावना। मैं तो हिन्दी के बीच के सडांध पर भी लगातार लिख रहा हूं और वहां कोई लेडिस नहीं हैं। मैं तो बस मीडिया के बदलते चरित्र पर चिंता जाहिर कर रहा हूं जैसा कि आप सब कर रहे हैं, हां इतना जरुर हुआ है कि नया-नया लौटा हूं तो बेबाकी ज्यादा है। अब आगे पढिए

अपने तीन-चार पोस्ट में मैंने लगातार लेडिस के उपर लिखा, कमेंट्स भी आए कि सही जा रहे हो गुरु लेकिन कल जो एक कमेंट्स आया उस पर मैं नये सिरे से विचार करने लगा। हमारी साथी neelima sukhija arora ने कहा

क्या विनीत जी,आप तो हाथ क्या पैर मुंह सब कुछ धोकर लेडिस लोग के पीछे पड़ गए। अरे भाई आप जिस मीडिया के दर्शन करके सरकारी दामाद बन कर लौटे हैं, वो मीडिया मीडियोकर लोगों के लिए हैं। हम आप जैसे लोगों के लिए बिलकुल नहीं जो कि हर हाल में खुश रहने वाले हैं। मैं लगातार आपके बलॉग को पढ़ रही हैं अरे लेडिस लोग से कौनो गलती हुई गवा है क्या, काहे उनको मीडिया से बाहर कराने के पीछे पड़े हैं। जानते हैं ना मीडिया में इ सब जेन्टलमेन ही हैं जिन्होंने लड़कियों को यह बतायाहै कि हमारे साथ रहोगी तो ऐश करोगी। कम मेहनत मं बहुत आगे तक जाओगी। तब हमारे जैसे लोगों को कहां भेजिएगा जो इन बातों पर अपनी नौकरी को लात मार आते हैं। फिर भी मीडिया में जमें हैं , बस इतना ही तो है कि थोड़ा पैसा कम मिलता है, काम भी करना पड़ता है, तो भैया इसीलिए तो मीडिया में आए हैं ना। मीडिया से इतनी खुश्की अच्छी नहीं , सब जगह सब लोग एक से नहीं

नीलिमा ने मेरे पोस्ट का जो मतलब निकाला वो ये कि--

- मैं लेडिस के पीछे जान धोकर पीछे पड़ गया हूं, मैं उन्हें मीडिया से बाहर निकलवाकर दम लूंगा।

-मैं मीडिया का कुछ ज्यादा ही विरोध कर रहा हूं।

- मैं जहां का अनुभव आपसे शेयर कर रहा हूं वो मीडिया नहीं मीडियोकर की दुनिया है, मीडिया में अच्छे लोग भी हैं और अपनी शर्तों पर काम कर रहे हैं। मेरा ध्यान उन लोगों की तरफ नहीं है।

- मैं मीडिया का दर्शन करके लौटा हूं और अब सरकारी दामाद गया।

लगे हाथ साथी अरविंद चतुर्वेदी ने भी समझा दिया -

इतना ही कहूंगा कि भैया ज्यादा चिढो मत लेडीस के नाम पे. पंचों उंगलियां बराबर नही ना होती

मेरे अब तक के पूरे पोस्ट में कभी भी लड़की, महिला या स्त्री शब्द का प्रयोग नहीं है और न ही लेडिज का। क्योंकि मुझे हमेशा लगा कि ऐसा करके लिखने से मीडिया में काम कर रही हमारी सारी साथियों पर व्यंग्य होगा और फिर सब को एक तरह से कैसे मान लिया जाए।अरविन्दजी ने ठीक ही कहा कि पांचों उगलियां एक जैसे नहीं होते और फिर होने की जरुरत भी क्या है। चैनल के भीतर जो बिना बहुत मेहनत किए,रिपोर्टिंग में रगड़े, रातोंरात चमकना चाहती हैं उसके लिए अक्सर हमलोग एंकर आइटम शब्द का प्रयोग किया करते और ये शब्द भी मुझे अपनी एक साथी ने ही बताया। यहां उसे मैंने लेडिस कहा, आइटम शब्द पर मुझे आपत्ति रही है।

मेरी कई दोस्त IIMC की अच्छी खासी स्टूडेंट रही है लेकिन नीलिमा आप जो बात कर रही हैं न लात मारनेवाली और बने रहने वाली हमारी उस दोस्त ने वैसा ही कुछ किया। लेकिन अभी नयी-नयी आयी थी इस फील्ड में , काम करना चाहती थी,घर में जबाब भी तो देना पड़ता है कि इतनी मोटी फीस देकर भी बेकार हो गयी, कुछ उसकी आर्थिक मजबूरी भी थी। उस लड़की को भाई लोगों ने सीखने के नाम पर पांच महीने तक फीड पर बिठाया। लगातार रोज आठ से दस घंटे तक सिर्फ टेप बदलने का काम। कई बार हमलोगों के पास आई, रोयी और चैनल बदलने के लिए छटपटाती रही, हमलोगों के साथ की कई लड़कियां रिपोर्टर बनती जा रही थी और फीड पर बैठी वो लड़की छीजती चली जा रही थी। यही हाल अंग्रेजी से एम.ए कर IIMC से मास कॉम करके आयी एक दूसरी साथी की थी। उस लड़की का काम लोगों का सिर्फ फोन रिसीव करना था, तीन महीने उसने वही किया और हमेशा कहती, दोस्त मैं क्या सोचकर मीडिया मे आयी थी और क्या कर रही हूं और वो सब भी सीखने के नाम पर,बहुत थोड़े पैसे पर। इसलिए लेडिस-लेडिस बोलकर मैंने एक खास किस्म की मानसिकता वाली लड़कियों की छवि समझने की कोशिश की है और अरविंद भाई मुझे उनसे कभी परेशानी नहीं रही क्योंकि अपने को रगड़ने के लिए ही इस फील्ड में आया था, भीतर आत्मविश्वास था कि अगर ये मेरी क्षमता नहीं समझेंगे तो कोई और परख लेगा, दम तक रगड़ो अपने को।साथी नीलिमा मुझे कभी भी दुख इस बात का नहीं रहा कि हमसे बहुत कम काम करके ये लेडिस आगे बढ़ रही है, बल्कि लगातार इस बात का अफसोस रहा कि लड़की जो मेहनत करके अपना एक पोजीशन बनाना चाह रही है, उसके लिए ये लेडिस कितना खतरा पैदा कर रही है, जिसने कभी कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी और जिसकी स्टोरी को बॉस हमें टाइपराइटर की तरह टाइप करने के लिए पकड़ा जाता, जिस लेडिस की योग्यता पर पूरी क्लास कोसती रही, हमलोग समझाते रहे कि कुछ पढ़ लो मैडम, अब हमारा काम रह गया था उसकी स्टोरी को टाइप करना, आप सोच सकती हैं कैसा लगता होगा हम सबको ऐसा करना। समझ लो रोज-रोज मरने जैसा होता था ये

आप यकीन मानिए मीडिया क्या किसी भी फील्ड में लड़कियों को ज्यादा स्पेस या अवसर देने के नाम पर सिर्फ बाजार मिला है, समाज नहीं. हमारी लड़ाई उसे सामाजिक हैसियत दिलाने के लिए जारी है। एक ऐसी लड़की के लिए लगातार संघर्ष जो चाहती है कि सिर्फ और सिर्फ अपनी योग्यता के दम पर कुछ हासिल करे, लड़की होने पर नहीं और आपका कमेंट्स पढ़कर हौसला और मजबूत हुआ है कि काफी हद तक इसकी गुंजाइश भी है। नहीं तो चैनल के भीतर तो मानसिकता तेजी से पनप रही है कि अगर कोई लड़की डेस्क से रिपोर्टिंग में और रिपोर्टिंग से एंकरिंग में आ जाती है तो कानाफूसी शुरु हो जाती है। माफ कीजिएगा ऐसा लेडिस के ही कारण हुआ

कल ही देखिए न, एक लेडिस ने एसएमएस किया जिससे मेरी बातचीत लम्बे समय से बंद थी, इन्टर्नशिप के दौरान ही हम साथियों के साथ कम बॉस लेबल के साथ उठना-बैठना ज्यादा था। बहुत अधिक मीडिया की समझ भी नहीं लेकिन हां मीडिया की( आज के हिसाब से) तमाम उंचाइयों को लांघने की लगातार कोशिश। उसने बताया कि मेरा 1.30 का बुलेटिन देखो। वो जिस चैनल में काम कर रही थी सरकार ने फर्जी स्टिंग ऑपरेशन और फर्जी नाम के आरोप में एक महीने के लिए प्रसारण पर रोक लगा दी थी। मैंने चैनल का नाम पूछा कि कहां देखूं। उसने बताया कि चैनल फिर से शुरु हो गया है और वो एंकरिंग करने लगी है। इस बीच एक-दो साथियों से बातचीत हुई और मैंने जिक्र किया कि क्या कर रही हो तुमलोग, देखो वो तो एंकर बन गई। देखिए बिना कोई लाग-लपेट के एक लड़की की टिप्पणी थी ......विनीत तुमसे कुछ छिपा थोड़े ही है, हमें नहीं बनना है एंकर। नीलिमाजी हम इसी मानसिकता को ध्वस्त करने के लिए लेडिस पर लगातार चोट कर रहे हैं।.....
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लेडिस देखकर दे ही देगा

Posted On 8:37 am by विनीत कुमार | 4 comments

मीडिया लाइन में लेडिस का चक्कर बहुत होता है। भाई लोग बताते हैं कि अगर इससे निपट लिए गुरु तो इस्टेवलिश होने में कौनो दिक्कत नहीं है। लंगोट के कच्चे आदमी के लिए तो ये फील्ड है ही नहीं, लेकिन हां मीडियागिरी छोड़कर कुछ और करने आएं हैं तब तो भइया सही लाइन पकड़े हो। जब तक इन्टर्न या ट्रेनी हैं हमउम्रवाली लेडिस के साथ भावुक रहिए कि जाने दे यार जैसा बॉस बोलते हैं वैसा कर, एक बार बॉस को तेरी तलब लग गई, मेरा मतलब है तुम्हारा काम अच्छा चल निकला तो फिर नचाना, थोड़ी बड़ी है तो मैम, मैम बोलकर आगे पीछे कर लो, कभी तो मतलब की बात हो जाएगी, और बहुत बड़ी है तुमसे और ओल्ड इज गोल्ड संप्रदाय से आते हो तब तो भइया मौज है, टिफिन भी खिलाती है। और अगर दो-तीन साल रह गए तो फिर बॉस हो गए। मीडिया में डेजिग्नेशन, सैलरी और पोजीशन खर-पतवार की तरह तेजी से बढ़ते हैं। उस समय लेडिस लोग को बताओ कि बाइट कैसे लेते हैं और स्क्रिप्ट कैसे लिखते हैं और फिर....। वैसे भी मीडिया हिन्दी विभाग तो है नहीं कि एक बार लेडिस का हाथ तुमसे छू जाए तो घर जाकर चश्मागोला साबुन से पांच बार हाथ धोए या फिर दो-चार बार हंस बोल दिए तो दीदी बोलने पर मजबूर कर दे। अपना तो अनुभव रहा है कि जब भी किसी हिन्दीवाली लेडिस को थोड़ा टाइम दिया हूं, दो-तीन दिन बाद ही बोलने लगती है कि कल डगमगपुर से लड़केवाले देखने आ रहे हैं। मतलब साफ होता है, बेरोजगार हो, जाकर बाबूजी से हाथ मांग नहीं सकते तो फिर इस तरह हमारे साथ कटा क्यों रहे हो। मीडिया में तो किसी न किसी लेबल पर आधे से ज्यादा लेडिस असंतुष्ट मिल जाएगी और वहीं भिड़ाओ अपना मामला। लेकिन इस बात का फंड़ा हमेशा क्लियर रखें कि कभी विपत स्थिति आ जाए और निकाल दिए जाएं तो कहां जाओगे। क्योंकि महीने दो महीने में ये बात सुनने में आ ही जाती है कि फलां को फलां चैनल से निकाल दिया गया,वजह वही लंगोट का कच्चापन।
ये लंगोट का कच्चापन वाला मामला बहुत सीरियस है, इस पर बात होनी चाहिए। एक बात का दावा करता हूं कि अगर आप नहीं हो ऐसे तो भी बॉस लोग एक्सपर्ट कर देंगे। उनको तो डर होगा कि जिस लेडिस को इसके साथ लगाए हैं कहीं लेडिस इसी से लसक न जाए इसलिए उसके सामने बार-बार कहेंगे कि बच्चा है, बहुत इनोसेंट है। भइया खुश मत होना, वो तुम्हारा पत्ता साफ करने में लगे हैं, सीधा कहकर तुम्हारे स्मार्टनेस पर कालिख पोत रहे हैं। लेकिन सीखने-समझने का मौका यहीं से मिलेगा।
जरा सीखिए कुछ हमारे अनुभव से।
2007 का बजट। हमारे बॉस ने भेजा एक बॉस के साथ फिक्की ऑडिटोरियम। रास्ते में मैंने पूछा, सर वहां जाकर हमें काम क्या करना होगा, वैसे भीतर से खुश भी था कि पहली बार बिजनेस और इकॉनामी से जुड़े बड़ी हस्तियों से मिलने का मौका मिलेगा।....वहां जाकर हमें करना बस इतना था कि लिस्ट के हिसाब से गेस्ट को लाकर अपने चैनल सेट पर बिठाना था।.....अभी दो-चार बार ही ऐसा किया था कि एक इंग्लिश चैनल की लेडिस बॉस के पास आई, सुंदर थी, थी क्या अभी भी टीवी पर दिखती है और सच बोले तो हिन्दी चैनल में काम करने वाले को इंग्लिश चैनल की कोई भी लडिस बेकार नहीं लगती और कुछ-कुछ बोली। मैं सिर्फ इतना समझ पाया कि मेरे जैसा कोई इन्टर्न उनके साथ नहीं है, उनके पास नहीं है सो वो परेशान है। बॉस ने कहा....यार जो गेस्ट अपने यहां से जाए उसे सीधा मैडम के पास ले आओ और सुनो मैडम के आसपास ही रहना। मैडम ने मुस्कराते हुए पूछा और तुम्हारा काम। बॉस ने कहा अरे, सब हो जाएगा, लेडिस हो साथ चला जाएगा।...
कथा संख्या- दो
अब मैं इन्टर्न नहीं रह गया था, किसी दूसरे चैनल में रिपोर्टिंग पर जाने लगा था। एक सुसाइड केस में उत्तमनगर जाना हुआ। जोश था कि जिस स्टोरी के लिए जाता, लगता अबकी ब्रेंकिंग तो मैं ही करूंगा। सो सबसे पहले पहुंच गया, खूब ध्यान से सब कुछ कवर किया। धीरे-धीरे बाकी चैनल आ गए। हकीकत जैसी खबर वैसी के साथ एक लेडिस थी, पहले तो लगा स्टोरी कवर करने आयी है लेकिन उसके हाव-भाव से लगा कि बॉस के साथ आयी है, इन्टर्न है, समझने आयी है कि कैसे स्टोरी कवर की जाती है, लेट हो गयी थी। जिस बात को वर्तमान काल की क्रिया लगाकर पूछ रही थी अब वो भूतकाल क्रिया में होना चाहिए था। बॉस ने कहा था कि सबगकुछ नोट कर लो। मुझे काम करते हुए देखा तो लगा कि फास्ट है और इनोसेंट भी। इनोसेंट का मतलब तो आप समझ ही रहे होंगे। सो मेरे पास उस लेडिस को भेज दिया कि जाओ सबकुछ नोट कर लो। उसका बॉस जानता था कि लेडिस है ,दे ही देगा.......
अब लेडिस से कटाने की लत ऐसी पड़ी है कि वापस रिसर्च में आकर कोई जी लगाकर बोलती है तो लगता है बुढ़ा गया हूं।
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टीवी में फोटो भी तो आएगा सर

Posted On 10:32 am by विनीत कुमार | 12 comments

उधर से एक लेडिस का फोन आया- हैलो...मैं न्यूज चैनल से बोल रही हूं। आप विनीत हैं न, ये नंबर मुझे आपके एक दोस्त से मिला । दरअसल हमलोग एक टॉक शो करवाने जा रहे हैं....आप ऑडिएंस के तौर पर आ सकते हैं। मैं भी मुलायम होते हुए पूछा, कब आना है। लेडिस को लगा मामला बन गया है, मेरे सवाल का जबाब दिए बगैर दूसरी बात छेड़ दी। आप हॉस्टल में रहते हैं तो मैंने अपने बॉस को बता दिया है कि आप कम से कम दस और लोगों को लाएंगे। मैं भी थोड़ा खेलने का मन बना लिया जो कि मैं मीडिया के मामले में कभी नहीं करता...कुछ भी है तो अपना ही मोहल्ला, क्या पता फिर से लौटने की मजबूरी बन आए।...लेकिन मैंने पूछा, मैडम आने पर क्या-क्या मिलेगा। बोली डिनर पैकेट मिलेगा और आने- जाने के लिए अगर आप दस के साथ आएंगे तो तवेरा गाड़ी। मेरे मन में अपने रिसर्चर दोस्तों के लिए गाली याद आयी कि ले बेटा, देख अपनी औकात। कहते हो अपन क्रीमीलेयर से वीलांग करते हैं और ये मैडम अपनी औकात बंगाली मार्केट के सडियल डिनर पैकेट से ज्यादा नहीं लगा रही है। और तवेरा से लाने ले जाने की बात कर रही है। और लड़ो बस पास के लिए और जाओ 621 में लटककर आरकेपुरम। मैंने पहले ही कहा था कि सालों सरकार अपन को रिसर्च करने के लिए ठीकठाक पैसे दे रही है, मैडम से भी ज्यादा, उतने पैसे के लिए मैडम को पता नहीं कितने लेबल के बॉसों से मीटिंग करनी पड़ जाए, हुलिया सुधार लो लेकिन, तुमलोग नहीं माने। अब भुगतो, अपनी औकात बस इतनी है कि चैनल की पीली नंबर प्लेटवाली गाडी में जाएं, उनके स्टूडियो की शोभा बढाएं, हमारे जाने से स्टूडियो भरा-भरा लगे, एकाध सवाल करें जिसे लेकर एंकर खेल जाए और दमभर फ्लैश चलाए कि देश के रिसर्चर ऐसा सोचते हैं, ये है डीयू, जेएनयू के लोगों की राय। इतना होने पर मैं तुरंत फ्लैशबैक में चला गया। अपने इन्टर्नशिप के दौरान जब भी भीड़ की जरुरत होती थी अपने दोस्तों को बुला लेता, तब मेरे दोस्त इस वीहाफ पर आ जाते कि विनीत अगर ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाएगा तो हो सकता है, चैनल वाले उसे वहीं रख लें, अक्सर आ जाया करते थे बुलाने पर। लेकिन बाद में मैंने महसूस किया कि चैनल के भीतर मेरी पहचान एक ऐसे इन्टर्न के रुप मे हो रही है जो कि भीड़ जुटाने का काम करता है और वो भी ऐसी-वैसी भीड़ नहीं, सब अपने सबजेक्ट के टॉपर और परसुइंग पीएचडी। मेरे और किसी काम की चर्चा नहीं होती। इधर दोस्त भी मुझसे कटने लगे, शुरु-शुरु में तो उन्हें वो सब अच्छा लगता लेकिन उन्हें खुन्नस दो बातों पर आयी थी। एक तो सवाल वे जो पूछना चाहते थे, उसकी बजाए पर्ची पर पहले से लिखा सवाल उन्हें पकड़ा दिया गया था, उन्हें धक्का लगा कि सवाल पूछने के लिए ही तो हम रिसर्चर पैदा किए गए हैं, सवाल चाहे गाइड से हो, प्रशासन से या फिर सरकार से और यहां हमारे इस अधिकार को ही हमसे छीन लिया जा रहा है।..औऱ दूसरी बात कि ले गए थे बोलकर नेशनल चैनल के लिए लेकिन जब मौका आया तो नेशनल पर एयर होस्टेस का कोर्स कर रही लेडिसों को बिठा दिया और अपन दोस्तों को एनसीआर के लिए रोक लिया। यहां भी स्टेटस को लेकर तमाचा। खैर, छ: बजे का पैक किया डिनर खराब हो चुका था और मेरे सारे साथी बहुत ही भूखे थे। मुझे बहुत ही तकलीफ हुई और सबको माल रोड में लाकर पराठे खिलाए।......
ये सब होने पर मुझे लालूजी का प्रसंग याद आ गया। रेल बजट के लिए सारे चैनल अपना सेट लगाए थे और रेल बजट या फिर लालू की रेल लाइव के लिए भीड़ जुटायी गयी थी। खाने की भी व्यवस्था थी, ऑडिएंस के लिए। लालू सभी चैनलों को बारी-बारी से टाइम दे रहे थे।...अब बारी देश के सबसे तेज चैनल पर आने की थी। लालूजी आकर बैठे और बैठे हुए बंदों की तरफ इशारा करते हुए पूछा...
इ ठंड़ा में बच्चा लोग को काहे बैठाए हुए हो...जाओ सब अपन-अपन घर। तुमलोग को इ चैनलवाला पैसा दिया है का।...फिर पूछा -कुछ खाने-पीने का मिला की नहीं। तभी उनकी नजर एक ऐसे बंदे पर पड़ी जो इससे पहले जिस चैनल पर लालू बोल रहे थे वहां भी बैठा था। लालू एकदम से बोले- तू तो हूंआ भी बैठे थे। मैंने अंदाजा लगाया कि खाना वहां का अच्छा था इसलिए वहां बैठ गया था और दोस्ती निभानी यहां थी सो यहां भी बैठ गया। यानि मीडिया के साथ-साथ दर्शक भी अपना चरित्र बदल रहा है। लालू ने कैम्पस के सबसे टॉप कॉलेजों की औकात बता दी थी और इधर मैडम ने हमारी जो मेरे कहने पर कि खाना-वाना तो बाद की बात है मैडम फिर भी लगातार बोले जा रही थी कि-- टीवी पर फोटो भी तो आएगा सर।.....
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आओ ब्रेकिंग देंगे

Posted On 10:32 am by विनीत कुमार | 2 comments

इंडिया टीवी की रिपोर्टर बड़ी तेजी से दिल्ली विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में घुसती है और साथ में कैमरामैन फटाफट शॉट लेने शुरु कर देता है। कैमरामैन फ्रेम बना रहा है उन किताबों का जो कि जमीन पर बिखरे पड़े हैं। कुछ पुरानी किताबें कुछ नयी किताबें। पीछे से दो चार लड़के चिल्लाते हुए आते हैं और जो रिसर्चर और स्टूडेंट कम्प्यूटर पर काम कर रहे होते हैं उन्हें जबरदस्ती हाथ पकड़कर उठा रहे हैं और कह रहे हैं, आपलोग बाहर जाइए...जल्दी, भगाए जानेवाले में एक मैं भी था, बाहर तो मुझे भी जाना ही था लेकिन बिना कारण जाने बाहर जाना ठीक नहीं समझा, रिपोर्टर की ओर बढा, हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे अब तक अमूमन आम मेंला, फूड विलेज और इसी तरह की सॉफ्ट स्टोरी पर काम किया करती थी लेकिन अब चैनल बदलने के साथ मिजाज भी बदल गया। उसे ये तो पता था कि मैं भी डीयू से पढ़ा हूं लेकिन अभी यहां रिसर्च कर रहा हूं ये बात मालूम नहीं थी सो बताने लगी- यहां के रिसर्चर का बहुत ही बुरा हाल हैं , उनपर बहुत ही अत्याचार होता हैं, इनकी कई तरह की मांगे हैं जिसपर प्रशासन ध्यान नहीं दे रही है.....बगैरह-बगैरह। लाइब्रेरी की बदहाली को बताने के लिए तब तक कैमरामैन ने खूब सारे शॉट्स बना लिए थे।
रिपोर्टर से बात करते देख लाइब्रेरियन मेरे पास आए और कहने लगे।....सर इन किताबों की जो फोटो ले रहे हैं ये मेम्बर द्वारा लौटाई गई किताबें हैं और दरअसल ये चाहते हैं कि रिसर्चर के लिए भी चुनाव हो इसलिए ऐसा कर रहे हैं। महाशय की सारी बातें रिपोर्टर से ठीक उलट थी जबकि और अपने साथी रिसर्चर से बात की तो उनकी बातों मे और रिपोर्टर की बातों में कोई फर्क नहीं था। तो ये मान लिया जाए कि रिसर्चर सही थे और उस सच का साथ देने आयी थी इंडिया टीवी की रिपोर्टर।
इस पूरे मामले में मेरी आपत्ति सिर्फ इस बात पर थी कि आपको इस बात की इजाजत किसने दे दी कि आप चालीस-पचास काम कर रहे लोगों को डिस्टर्ब करके उनके हित में ख़बर दिखाएं और उन भाई साहब को किसने मंत्र दिया कि जिसके लिए काम कर रहे हो उसी को काम के बीच से हाथ पकड़कर बाहर खींचो। मैंने रिपोर्टर से कहा, लाईब्रेरी के लोगों से भी तो बात कर लो, मेरा मतलब है बाइट ले लो, गलत-सही तो बाद में होगा लेकिन एकतरफा स्टोरी तो चलेगी नहीं।.....बात आई गई हो गई और मैडम बाहर आकर देख लेंगें टाइप के लोगों को कवर करने में जुट गयी।....इधर जिन लोगों को काम करते उठाया गया था वे बहुत नाराज थे, सारे कम्प्यूटर के तार खींच दिए गए थे।....बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि ऐसा करके चाहेंगे कि हम चुनाव होने पर वोट दें तो ऐसा कभी नहीं होगा। एक ने कहा जरा-सा भी मीडिया सेंस नहीं है जो चैनल सांप-संपेरा दिखाकर लोगों को बरगलाने का काम करता है, उसकी रिपोर्टर को भाई साहब बरगला कर ले आए कि आ जाओ ब्रेकिंग न्यूज मिलेगी....पता नहीं किसी ने ये भी कहा हो कि हम अपने उपर पेट्रोल डालेंगे और आप कवर करके अर्जुन सिंह पर दबाव बनाना।
सब चमकना चाहते हैं, सब बहुत जल्दी चमकना चाहते हैं। रिपोर्टर रोतोंरात चमकना चाहती है सेंट्रल लाइब्रेरी पर कच्ची-पक्की स्टोरी चलाकर बिना होमवर्क किए, बिना ये जाने कि सेंट्रल लाइब्रेरी का मेन गेट पिछले तीन-चार महीने से बंद क्यों है, वो चिल्लाता हुआ बंदा रातोंरात पब्लिक फेस वैल्यू पैदा करना चाहता है, विधान-सभा जाना चाहता है। काम कर रहा रिसर्चर किसी भी बात पर प्रशासन का विरोध नहीं करता क्योंकि उसे चमकने की जल्दी नहीं है और कल को उसे सिस्टम के भीतर ही आना है।.....इसलिए अपने-अपने ढ़ंग से शोर-शराबा और हंगामा सब पैदा करते हैं.
कल रविवार को जनसत्ता में एक खबर छापी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों में काफी गुस्सा है लेकिन संवाददाता ने ये नहीं बताया कि कौन से शोधार्थियों में गुस्सा है जो काम के बीच उठाए गए थे उनमें या फिर जो पकड़-पकड़कर उठा रहे थे उनमें। लेकिन आगे जिस तरह की मांगों की चर्चा की गई उससे ये साफ हो जाता है कि हाथ पकड़नेवालों का गुस्साना अब भी जारी है और भगाए गए लोगों में अब गुस्सा कहां अब वे घर में ही पढ़ते हैं, एक-दो ने तो अपना कम्प्यूटर खरीद लिया है, वे तो सिस्टम के लिए बने हैं फिर विरोध कैसा।
मैडम खोज रही होगी कोई धांसू स्टोरी और किसी ने फिर फोन करके बुलाया होगा कि आ जाओ ब्रेंकिंग देंगे।वैसे भी प्रकाश बनकर चमकने की ललक तो अभी छूटी नहीं, सैंकडों मिल जाएंगे।....
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जेएनयू का हिन्दी प्लैनेट

Posted On 12:35 am by विनीत कुमार | 3 comments

जहां पहुंचकर आवारा हवाएं भी शांत हो जाए और परेड करने लगे-

डॉ. नगेन्द्र ना जी ना जी
नामवर सिंह हां जी हां जी
दिनकर,बच्चन ना जी ना जी
धूमिल, मुक्तिबोध सिर्फ वही सिर्फ वही
रीतिकाल का माने
कूड़ा कूडा
उत्तर आधुनिकता
भांड है भांड है
पॉपुलर कल्चर वाला
बाजारवादी, पूंजीपतियों का गुलाम है
भक्तिकाल और कबीरवाले
महान हैं, ज्ञानी है
रिसर्च का माने खोजो पांडुलिपि
रिसर्चर का माने
सबसे हटकर.......तो आप समझ जाइए कि आप जेएनयू भारतीय भाषा केन्द्र के ठीक सामने खड़े हैं।.....और उस पर भी दीवारों से आवाजें आनी शुरु हो जाए कि-- आ गए बेटा इ रामविलास बाबू ने हमरे साथ न्याय नहीं किए, अभी भी आत्मा भटकती रहती है। अब आ गए हो तो कोई बढ़िया वाद(ism) से जोड़-जाड़कर हमरे उपर पीएच.डी. कर डालो..राहत मिल जाई।... सुना है इ बार बहुत जोग आदमी हेड बने हैं, हमरे नाम से टॉपिक पास होने में कौनो दिक्कत नहीं होने देंगे। बताओ हमरे मुकाबले भारतेन्दु को खड़ा कर दिए। वैसे गोपालगंज वाले मास्टर साहब भी ठीके थे लेकिन उनके साथ परेशानी रही कि स्थापिते कवियन को फिर से स्थापित करने लग गए। हमरे तरफ ध्यान ही नहीं दिए। खैर छोडो, इ सब बात पर बेसी ध्यान मत दो।..
तो समझिए कि आप हिन्दी-विभाग के सामने खड़े हैं ।
ये अपने ढंग का अलग प्लैनेट है। वैसे देश का कोई भी हिन्दी विभाग आपको अलग ही प्लैनेट लगेगा क्योंकि उपर से जब आदमियों की डिलीवरी होती है तो उसमें मेन्शन होता है कि दो सौ पीस हिन्दीवाले भेज रहे हैं, ध्यान से सप्लाय करना और हां उसमें से जेएनयू के लिए कौन-कौन से हैं कोने में पर्ची में लिख देना।...
मान लीजिए आप भी हिन्दी से ही एम.फिल्. या पीएच.डी कर रहे हैं, कायदे से आपको वो सारी बातें समझ में आनी चाहिए जिसके बारे वे बात कर रहे हैं लेकिन आपको समझ नहीं आएगी और आप अपने को बहुत ही गिरा हुआ, रिसर्चर के नाम पर चंपक समझेंगे, आपको ये एहसास करा देंगे कि आपसे बेहतर तो गंगा ढाबा पर चाय देनेवाला छोटू है, अभी जाकर पूछो कि प्रियप्रवास में वर्ग-संघर्ष कहां है बता देगा। अगर आपका जेआएफ है तब तो आप देशद्रोही हैं, आप सरकार का पैसा उड़ा रहे हैं क्योंकि आपको इतना भी नहीं पता कि कबीर की रचनाओं में भारतीय संविधान की अनुगूंज कहां-कहां हैं और कैसे अंबेडकर को भारतीय गणराज्य के लिए संविधान लिखने और लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम करने की प्रेरणा कबीर वाणी से मिली। आपको ये भी नहीं पता कि हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेन्दु नहीं कोई और हैं।वहां जाते ही चारो ओर से प्रश्नों की झड़ी लगा दी जाएगी और तब आपको सही अर्थों में सत्य का ज्ञान होगा।
सबसे पहले तो ये कि आपको पता है ,अपने ओम थानवी जी ने आचार्य शुक्ल को हिन्दूवादी बताने कि कोशिश की है। हिन्दी की मायापुरी पत्रिका समयांतर ने डीयू के मास्टरों को धो डाला है, आपके गाइड पर तो सीधा चोट है और वो भी नहीं बचे हैं जो साहित्य के जरिए मानव-मुक्ति का रास्ता खोज रहे थे और उनको भी तो लपेट लिया जो बेचारे चाहते हैं कि कामकाजी लेडिस भी कुछ पढ़-लिख जाएं। अच्छा इ बताइए नया ज्ञानोदय वाले मामले में आपको क्या लगा। कालियाजी को लगा कि पत्रिका का सर्कुलेशन बढ़ाकर तीर मार लेंगे। उनको क्या पता कि हिन्दी समाज में उंगुली करनेवालों की कमी नहीं है और सच पूछिए तो जिसको उंगली करने का अभ्यास नहीं है वो हिन्दी के नाम पर दिन काट रहा है। चले युवा रचनाकारों को प्रमोट करने उनको पता ही नहीं है कि यहां पैंतालीस साल के शूगर का मरीज भी युवा है।
अच्छा आपके डीयू से एक लेडिस आई है, उसका वहां एमए में 55 प्रतिशत नहीं बना था उसको आप जानते हैं आजकल तो खूब....खैर जाने दीजिए लेकिन वहां भी यही सब था तबे तो लसक गई....लेकिन है कन्टाप गुरु।
फुटनोट जरुरी है-
एक लाइन में कहूं तो हिन्दी से जुड़े तमाम मुद्दों का स्टिंग ऑपरेशन जेएनयू में ही होता है।
लीजिए इतनी बातें हो गई लेकिन असली मुद्दे की तरफ तो ध्यान ही नहीं गया। आपके रिसर्च का टॉपिक और गाइड। मेरे एक मित्र हैं उन्हें साथी बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन उनके हार्डवेयर में ही प्रॉब्लम है नहीं बन पाए। खैर, वे अपने टॉपिक और काम को लेकर खुशफहमी के शिकार हैं वैसे शिकार तो हर हिन्दी में रिसर्च करनेवाला बंदा होता है, उसे लगता है कि वो जब राजनीतिक मुद्दों और आर्थिक मसलों से जोड़कर काम करेगा तो मनमोहन अंकल की सरकार हिल जाएगी और दद्दा अटलजी राय देंगे कि जब इतनी मेहनत किए ही हो तो फिर अंग्रेजी में काम को छपवाना। अपना एक एनआरआई स्वयंसेवक है, उसका प्रेस का ही काम है। और फिर देश में ही क्यों अंतर्राष्ट्रीय हल्कों में भी हलचल हो कि जो बंदा न्यूक्लियर डील पर जनता को बरगला रहा है उसकी इकॉनामी इतनी लचर है कि एक हिन्दीवाला भी धो-पोछकर बराबर कर दिया। जो लोग दलित-विमर्श पर काम कर रहे हैं उनकी खुशफहमी विकासवादी तरीके की है। उनका विश्वास है कि उनके काम को बहनजी हाथोंहाथ ले लेगी..ठाकुर हैं इसलिए कुछ पोरशन यूपी बोर्ड में भी लग जाएगा और साल होते-होते कांशीराम साहित्य रत्न पुरस्कार। बजाते रहें बोधा, ठाकुर और राजेश जोशी पर काम करनेवाले। जिस विषय का सत्ता से कोई तालमेल ही नहीं उसका फ्यूचर क्या कच्चू होगा।
हां तो हमारे उस मित्र का तर्क है कि जिस पर उन्होंने एम.फिल्. किया उन्हें उसी साल साहित्य अकादमी मिला। ये अलग बात है कि महीने-दो महीने के भीतर वे चल बसे। अब मित्र पीएच.डी. के लिए मारामारी कर रहे हैं....जिसपर काम करेंगे उनको हिन्दी में पहला बुकर मिलेगा और उसके जस से मित्र के लिए साहित्य आकादमी तो रखा हुआ है। लेकिन मुझे मौजूदा एक अच्छे साहित्कार खोने का डर बराबर बना रहता है।
हां तो बात हो रही थी टॉपिक और गाइड की। अगर मेरे जैसे रिसर्चर जो कि हिन्दी का माल खाकर भी डकार मीडिया की लेनी चाहता है, से पाला पड़ गया और टॉपिक पर बात छिड़ गयी तो नजारा देखने लायक होता है। दरभंगा का आम जो अभी काटने ही वाले थे, खास मेरे लिए उसे जेएनयू की सबसे बदसूरत लेडिस( उनके मुताबिक, हमें तो सब अच्छी लगती है) या फिर एम.ए. में चोट देनेवाली लेडिस को दे देंगे लेकिन हमें नहीं या तो उठाकर अलमारी में रख देंगे लेकिन हमें नहीं।
बात शुरु होगी टॉपिक से लेकिन गरियाना शुरु करेंगे गाइड को। और आप तो जानते ही हैं कि रिसर्चर के लिए गाइड का मामला कुछ उसी तरह का होता है जैसे अपने यूपी-बिहार में मां-बहन को लेकर। कहां हैं आप दिल्ली में तो जब तक दिनभर में दस बार मां की बहन की नहीं बोला तो लगता ही नहीं कि दिनभर कोई क्रिएटिव वर्क हुआ है लेकिन अपने यहां तो खून-खराबा हो जाता है। अपना बीपी लो होने के बावजूद सुलग ही जाती है। पहले वे कहेंगे महाराज, आप बाजा पर काम कर रहे हैं, ये भी कोई टॉपिक है, कुछ ढंग का काम कीजिए। आप अपना तर्क देंगे कि इसने हिन्दी को कैसे बदला है..थोड़ा लॉजिकल तरीके से समझाने की कोशिश करेंगे लेकिन लॉजिक प्रिय जेएनयू के दुराग्रही होने का आभास आपको होता चला जाएगा, वो आपकी एक नहीं सुनेंगे। फिर मुद्दा उछलकर गाइड पर आ जाएगा। उनका सीधा कहना होगा कि अजी आपके गाइड तो साहित्य और हिन्दी के नाम पर चुटकुला करते हैं। कहते हैं कि हिन्दी की दिशा बाजार तय होगी। सुन लीजिए अपने जानते हिन्दी को हम कोठे पर बैठने नहीं देंगे और कभी बता दीजिएगा कि उत्तर-आधुनिकता के विरोध में मोर्चा खुल गया है, कई ऐसी बाते जिसका जबाब वे हमसे नहीं हमारे गाइड से चाहते हैं...धीरे-धीरे वे सनक जाते हैं और तब मैं कहता हूं-
बंद कीजिए ये प्रलाप आपसे लड़ने नहीं आया था और न ही अपने गाइड की विद्वता का सर्टिफिकेट लेने और अगर देंगे भी तो दरियागंज में सौ-पचास में निलामी कर देंगे। आप महान, आपका परिवेश महान, आपका टॉपिक महान लेकिन नहीं कहूंगा कि आपका भविष्य भी महान... क्योंकि नौकरी खोजने आप उधर ही आएंगे और यही हाल रहा तो ...........खैर
मैं चलने को होता हूं, रात में गंगा ढाबा पर बैठकर भसर करने का बहुत मन होता है लेकिन गाइड के मुद्दे पर आंखे छलछला जाती है कि जो आदमी उनकी इज्जत नहीं करता उसके यहां का पानी भी नहीं पीना। बस तक छोड़ने दो-तीन लोग आते हैं मैं मना करता हूं, वे नहीं मानते। रास्ते भर वे अपने को कोसते हैं, आपस में बातें करते हैं कि...कितने शौक से आते हैं ये जेएनयू में ।कहते हैं यहां आकर अपना-सा लगता है लेकिन कभी भी अच्छे मन से नहीं जाते। मैं भी मन ही मन जोड़-घटाव करता हूं कि हिन्दी के नाम पर हम कुछ ज्यादा नहीं कर देते। स्टैड पर एक कनफेशन का दौर चलता है। बस आ जाती है...जेएनयू के साथी और मित्र पूछते हैं, अभी जेआरएफ का पैसा मिलना तो शुरु नहीं हुआ है न। पर्स से जेएनयू का आईडी कार्ड अलग करते हैं और बस पास थमा देते हैं, ये कहते हुए कि यहां अपना ब्लू लाइन में भी पास चलता है। और सुनिए ये जंग अभी खत्म नहीं हुआ, अबकी डीयू में आकर लतिआएंगे। मैं सीट पर बैठ जाता हूं और खिड़की से सिर निकालकर चिल्लाता हूं......
साहित्य के नाम पर ज्यादा सीरियस मत होना साथी......सीरियस होकर लिखने-पढ़ने से सरकार कोई अलग से कंटीजेन्सी नहीं देती और हां अबकी बार दरभंगा का आम अलमारी में रखा तो बनारस वाली लेडिस को बता दूंगा कि आप फ्रस्टू हैं........
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भइया तो अभी तक हमने बात की थी कि कैसे विद्या भवन में देश और संस्कृति को लेकर समझदारी बढ़ाने के नाम पर एक पेपर का पैटर्न कुछ इस तरह तैयार किया गया है जिसके जरिए पत्रकारिता को हिन्दूवादी शक्ल में ढालने की कोशिश होती है। अपने लगभग एक साल के मीडिया करियर में कभी भी इस तरह के ज्ञान की जरुरत महसूस नहीं हुई और न ही मुझे लगा कि संस्कृति के नाम पर वेदों की संख्या रटी जाए। अब आगे........
कल्चरल हैरीटेज ऑफ इंडिया की क्लास सिर्फ शनिवार को हुआ करती थी जिसमें कि एटेंडेंस अनिवार्य था। भावी पत्रकार बताते हैं कि ये सिससिला अब भी बरकरार है। वैसे भी इस तरह की क्लासेज के लिए एक दिन ही पर्याप्त होता। एटेंडेंस की मार से क्लास में खचाखच भीड़ होती और मुझे लगता कि गौरवशाली आर्य संस्कृति का उद्धार करने के लिए हमें तैयार किया जा रहा है। इन सब मामलों में मैं शुरु से ही उपयोगितावादी किस्म का आदमी रहा हूं। सो एकदिन मास्टर साहब से बोल दिया कि- सर जब इतना सबकुछ कराते ही हो तो क्लास के बाद कुछ बंटवा क्यों नहीं देते...कुछ मुंह मीठा करा दिया करो। तब से मास्टर मुझे ताड़ता रहता और क्लास में एकाध सवाल जरुर मुझसे पूछता। सवाल पूछता कि किसी पांच उपनिषदों का महत्व बताओ। पांच क्या मुझे अपने लिए एक भी उपनिषद् काम के नहीं लगते और मैं चुप मार जाता। उस समय वे लेडिसों की तरफ ऐसे ताकते मानो उनका मखौल उड़ा रहे हों कि ये है तुम्हारी पसंद, ऐसा लद्धड कि जिसको अपनी संसकृति का एबीसी भी नहीं आता। लेकिन लेडिस कहां टूटूने वाली थी।
सबेस्टियन की एड की क्लास मुझे छोड़ और किसे समझ आती थी। दरअसल जितना मैं अपने इस कोर्स को लेकर कन्प्यूज्ड था उतना ही बंदा अपनी क्लास को लेकर। इसलिए अंग्रेजी में वो जो कुछ भी बांचता उसका हिन्दी तर्जुमा मैं टीवी विज्ञापनों से जोड़कर समझा देता और लेडिस लोग यू नो आई मीन लगाकर बहस नहीं करती। मेरे सर्किल में जितनी भी लेडिस थी उसमें अमूमन सब सुंदर ही थी। अंग्रेजी में कुछ के हाथ एमसीडी स्कूल या फिर बिहार बोर्ड के कारण तंग थे। कुछ की अंग्रेजी काफी अच्छी थी लेकिन वो अंग्रेजी कॉफी हाउस, रिक्शेवाले का भाड़ा काटने और छिछोरे किस्म के लौंडों को सटकाने के समय ही काम आते। क्लास में आते ही अंग्रेजी में उनका टावर काम नहीं करता औऱ नेटवर्क पूरी तरह गोल। ऐसे में अपनी खूब चलती। तो ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे जो भी कह लें पत्रकार होने की उम्मीद बढ़ती जा रही थी। कोर्स पूरे होनेवाले थे। अच्छा, आजकल मार्केट में अधपके आइटम की डिमांड ज्यादा है इसलिए ठीक इसी समय - ले लीजिए न सर, देख लीजिए न सर, हो जाएगा न सर वाली लाइफ स्टाइल में इन्ट्री कर गया।
इग्जाम भी नजदीक आ रहे थे और देखते ही देखते गुलजार भवन मुर्दा सराय बन गया, लोगों ने आना बंद कर दिया था।
....अब सबसे मुलाकात सिर्फ इग्जामिनेशन हॉल में ही होते।मेरे सारे पेपर बहुत ही अच्छे जा रहे थे। आर्टस से था सो ज्यादा दिमाग नहीं लगाता। खूब जमकर लिखता, आत्मविश्वास से लवरेज होकर। दिमाग में बस यही होता कि किसी सवाल के उपर जितना कुछ आता है सब लिख डालो मास्टर को जो-जो पसंद आएगा,छांटकर नंबर दे देगा।
अब रह गया था सिर्फ एक पेपर विद्या भवन का सबसे फेवरेट पेपर। कल्चरल हैरि....। और दिन होता क्या था कि बंदे लोग और खासकर लेडिस इग्जाम के पांच मिनट पहले तक किताबों पर ऐसे नजर गड़ाती जैसे कुछ दिन पहले अपनी मॉडल गीतांजलि दिल्ली की सड़कों पर गड़ाती नजर आयी थी। लेकिन इस पेपर में नजारा कुछ बदला-बदला सा लगा। लोग-बाग खुल्ला घूम रहे थे, पेपर के बाद क्या करेंगे इस पर हांक रहे थे। एक लेडिस जो मुझ पर अक्सर झिड़कती रही और जिसपर मैं जान छिड़कता रहा, आज आपही आकर बोलती है, पेपर के बाद आज मैं तुम्हें कॉफी पिलांउगी, साथ में टोमैटो टैंगो लेज भी। मैडमजी हम तो सिर्फ आपकी कम्पनी से निहाल हो जाते आप तो माल भी खर्चेंगे। धन्य है बाबा कामदेव की माया।
चलिए, ये भी पेपर अपने निर्धारित समय से शुरु हो गया। सवाल थे, वही सब जो सब पढ़ाए गए थे या यों कहिए जो संस्कार डाले गए थे। वेदों को लेकर, रामायण के कौनसे पात्र आपको सबसे अच्छे लगते हैं, और क्यों। महापुरुषों पर टिप्पणियां जिसके उपर मैंने ऐसे लिखा कि वे इतने महान क्यों हैं कि ये हमारी परीक्षा में सवाल के रुप में अवतरित हुए। मैं तो खूब दबाकर लिख रहा था, कुछ तो चिढ़ से कि -कर चेक बेटा मेरी कॉपी, कॉपी की वजन देखकर नंबर देगा औऱ कुछ अपनी लत भी है बहुत लिखने की। एम.ए फर्स्ट इयर में कम लिखता था लेकिन जब सबको कॉपी लेते देखा तो लूज मोशन शुरु हो गया था, हर पांच मिनट पर आवाज आती सर शीट। दूसरे साल मैंने पढ़ने से ज्यादा लिखने पर जोर दिया और परीक्षा की कॉपी को उगलदान बना डाला। यही लत बरकरार थी।
मुझे आधे घंटे तक ध्यान नहीं था, बाद में जब खुसुर-फुसुर हल्ले में कन्वर्ट हो गया तो देखा लोग आपस में बातें कर रहे हैं। कोई भवन की अमूल्य किताब निकाल रहा है। मास्टर मिमियाकर कह रहा है मत करो ऐसा भाई लेकिन मॉड लेडिस के सामने वो भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया, फिर तो महौल परीक्षा से ज्यादा ऐसा था कि कौन देखकर सबसे बढ़िया लिख सकता है। मैं लेडिस देखकर अच्छा बोल सकता हूं लेकिन किताब देखकर लिख नहीं सकता। बस दनानद लिखता जा रहा था। मास्टर ने दरवाजा बंद कर दिया था और खुद बाहर खड़े हो गए थे कि कोई आए तो बंदों को इत्तला कर दें। एकबार मेरे पास आए और बोले कोई परेशानी है तो तुम भी देख लो। मैंने कहा डिस्टर्ब न करें जनसत्ता के पाठक से ऐसी बात। हिकारत भरी नजरों से उन्हें देखा लगभग गरियाते हुए और वे इस अंदाज में कि ये ते झागवाला है।
पेपर खत्म हो गए थे, सारे लोग इत्मीनान से बाहर गप्पे लड़ा रहे थे, गजब का आत्मसंतोष दिखा सबों के चेहरों पर। एक- दो बंदा मेरी तरफ देखकर तड़प रहा था जैसे घर में टीवी पर हरीशचंद्र सीरियल आने पर चैनल बदलने के लिए तड़प उठता है, बदलो इस चैनल को.....अभी तुरंत। कॉफी पिलानेवाली लेडिस दिल्ली एनसीआर( है एक बंदा) के साथ मोमो खा रही थी। विद्या भवन इस पेपर के जरिए लोगों को हिन्दूवादी पत्रकार तो नहीं बना पाया लेकिन अपने धरोहर का बेहतर इस्तेमाल करना सिखा गया जो कि ज्यादा जरुरी है।लोगों ने फोन करके बताया कि विनीत अपना रिजल्ट आ गया है लेकिन चार महीने बाद भी जब रिजल्ट लाने की सोचता हूं तो पता नहीं क्यों मितली सी आने लगती है।
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पहले हिन्दू तब पत्रकार

Posted On 1:20 am by विनीत कुमार | 5 comments

हममें से कई पत्रकार साथी ऐसे हैं जिन्होंने लाख-दो लाख मोटी फीस देकर, प्रशिक्षु पत्रकार का बिल्ला लटकाकर, दिनभर ब्लैक कॉफी पीकर और डिसकशन के नाम लड़कियों के साथ लिव इन रिलेशनशिप और मदरहुड फीलिंग वीफोर मैरेज जैसे स्टार्टर मुद्दों पर बात करके मीडिया कोर्स नहीं किया है। हम तो दुविधा की जिंदगी जीनेवाले जीव रहे। शुरु से दिमाग में लाल बत्ती रही या फिर जेआरएफ निकालकर सरकारी दामाद बनने की ललक । लेकिन दिमाग में ये भी डर बना रहा कि भइया इन दोनों में से कुछ भी नसीब नहीं हुआ तो क्या करोगे। लेडिस और ब्लैक कॉफी तो दिमाग में आते ही नहीं थे।...इस लिहाज से मीडिया लाइन हमारे लिए मुगलसराय जंक्शन की तरह रहा है जहां से सभी जगह के लिए ट्रेनें और रास्ते खुलते हैं।....सो सेफ्टी के लिहाज से, फ्रसटेशन से बचने के लिए और कुछ दिन और बाबूजी को टालने के नाते हम जैसे कई लोगों ने मीडिया में हाथ आजमाया होगा और आज कई सफल पत्रकार भी बन गए होंगे या हैं।.....चूंकि अब मीडिया में भी पहलेवाली बात तो रह नहीं गई है कि तिवारीजी, मिश्राजी या झाजी को फोन लगाया और देखते-देखते हो गए पत्रकार। अब तो मीडिया भी मैंनेजमेंट की तरह है, जहां कुछ भी बेचने के पहले बेचने का कोर्स करना पड़ता है और कोई आपके कहने पर क्यों खरीदे इसे ढ़ग से समझना पड़ता है भले ही कोर्स करने के बाद आप एक कंघी भी बेचने लायक न बन पाएं।... तिवारीजी और झाजी का सोर्स तो कोर्स के बाद ही चलेगी।....तो यही सब सोचकर हम दुविधाजीवी, सुविधा के लिए बेचैन मीडिया में आजमाने चल दिए।.....तो भाई जिसमें कुछ कर गुजरने की ललक हो और आगे बढ़ने की तमन्ना उसके उपर मुसीबतों का पहाड़ आ जाए कुछ खास फर्क नहीं पड़ता है फिर नौकरी के लिए और पत्रकार होने के लिए कोर्स औरनॉलेज क्या चीज है...सो हम भी लग गए कोर्स करने की फिराक में ।पता चला दिल्ली में विद्या भवन नाम का कोई इंस्टीच्यूट है जो कि खास हम जैसे दुविधाजीवी लोगों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। इस इंस्टीच्यूट की खास बात है कि आप अगर थोड़ा भी समझदार किस्म के इंसान हैं तो आपका यहां एडमीशन होना तय है। मैं तो कहना चाहता था कि यहां खर-पतवार किसी का भी हो सकता है। लेकिन इस मामले में विद्या भवन समझदार है। यहां इंट्रेंस अंग्रेजी में है।इसलिए समझदारी का मतलब अंग्रेजी के 26सों वर्णों की जानकारी और पहचान से है। हम जैसे हिन्दीवालों के लिए तो ये इंस्टीच्यूट गंगा का काम करता है। हिन्दीवालों के बीच शेखी बघारने में बनता है कि अंग्रेजी में मीडिया का इंट्रेंस पास किया हैं। जिंदगी भर का दाग कि अंग्रेजी में लद्धड होगा तभी हिन्दी पढ़ रहा छुड़ा देता है। अपने तरफ भी मान बढ़ेगा कि झारखंड, बिहार के देहाती भुच्च इलाके से मैट्रिक पास करने के बावजूद भी दिल्ली में इंग्लिश मीडियम में परीक्षा पास किया है। अगर मेरी मां की तरह ही आपकी मां भी है तो एक बड़ा धार्मिक विधान करा देगी। बाबूजी को अपने नक्कारे बेटे पर एक बार फिर गर्व होगा( फिर इसलिए कि मैट्रिक में भी एक बार हुआ था, और नक्कारा इसलिए कि टॉप करने के बावजूद इंजीनियरिंग, मेडिकल में न जाकर आर्टस पढ़कर पैसे बर्बाद किए) और वो भी इंटरमीडिएट पढानेवाले प्रोफेसर को बताएंगे कि मेरा लड़का टीवी पर आएगा।....इतने पर तो कोर्स करने के लिए 15-16 हजार रुपये मिल ही जाएंगे।....थोड़ा टाल-विटाल हो तो अपनी अकड़ बढ़ा लो, बस एक साल दम मारिए, साल होते-होते सीएनएन, एनडी24*7 का चेक दूंगा..बाबूजी जबतक किसका चेक देगा,नोट करने में लगे होंगे तब तक अपनी भावुक मां को भिड़ा दो...ये कहने के लिए कि कितना पुन परताप से तो लड़का इंग्लिश की परीक्षा में पास किया है और फिर ठीक ही होगा न रिपोर्टर बनेगा तो इ गैसवाला बहुत फजहत करता है...डरेगा..सुनकर कि। फिर भी परेशानी हो तो ब्याही दीदी से मांग लो। इतना होने पर घरेलू लोन तो मिल ही जाएगा यार।.....मुझे पता है आप कर लोगे।चलो भाई एडमीशन तो हो गया। डीयू से विद्या भवन तक मेट्रो से साथ जाने के लिए एक लेडिस भी मिल गई। है तो लड़की लेकिन बहुत मैच्योर है इसलिए लेडिस कहना ज्यादा सही रहेगा।....अब बात पढ़ाई-लिखाई और कोर्स की। आपको यहां मीडिया पढ़कर मीडिया हाउस में काम करने के लिए तैयार नहीं किया जाएगा...बल्कि मीडिया एथिक्स पर लेक्चर पेलने और आज की मीडिया को गरियाने के लिए तैयार किया जाएगा। और सबसे मजेदार बात तो ये कि आप यहां कोर्स चाहे जो भी करो, एक पेपर सबके लिए कॉमन है- कल्चरर हेरिटेज ऑफ इंडिया। भवन का मानना है कि हमारी कोशिश है कि यहां के बच्चे जब यहां से निकले तो न सिर्फ एक पत्रकार बनकर बल्कि देश का एक बेहतर नागरिक बनकर भी। और इसके लिए जरुरी है कि उसे अपने देश की संस्कृति और पहचान को लेकर अच्छी समझ हो। बात भी सही है। लेकिन भवन के लिए पत्रकार होना और अच्छी समझ का होना दो अलग-अलग चीजें हैं। अपने देश के बारे में इतिहास, भूगोल, आर्थिक नीतियों, रानीतिक फैसलों, संविधान और समीतियों-संगठनों के बारे में जो कुछ भी हम जानते हैं,,,हो सकता है इससे हमारी जानकारी बढ़ती हो लेकिन इससे हमारे भीतर भारतीय होने का गर्व भी पैदा होता है इसकी गारंटी नहीं है।.....इसलिए भवन भारत की संस्कृति का पुनर्पाठ कराता है जिसमें वेदों, पुराणों की संख्या और उसके महत्व से लेकर राष्ट्र यानि कि हिन्दू राष्ट्र को आगे ले जाने में किस-किस वीर-वांकुरों का योगदान रहा इसे विस्तार से बताता है। विद्या भवन की ये कोशिश होती है कि इस पेपर के माध्यम से मीडिया पढ़ रहे लोगों को इतनी शिक्षा जरुर दे दी जाए जिससे कि जब वे पत्रकार के रुप में आगे काम करें तो एटमी करार पर, गुजरात पर, राष्ट्रवाद पर और विदर्भ के किसानों पर उसी तरीके से सोच सकें, लिख सकें और फैसले ले सकें जिस तरह से नागपुर कार्यालय या फिर भोपाल की बैठक में शामिल लोग लेते हैं।मुझे अपनी मां का हो-हल्ला याद आता है जब मेरे इसाई संस्था( संत जेवियर कॉलेज,रांची) में नाम लिखाने पर मचाया था कि अब लोग इसे पकड़कर इसाई बना देंगे और पता नहीं क्या-क्या खिलाएंगे और मेरा बेटा लंगोट का थोड़ा भी कच्चा निकला तो लेडिस लोग इसको फांस लेगी। तब पढ़ाई की गुणवत्ता के अलावे मां की मान्यताओं को ध्वस्त करने के लिए घर से भागा था।....ये सब सोचकर पूरे साल तक मन कसैला होता रहा खासकर उस पेपर के पीरियड में कि मां टाइप की जिद से पीछा छूटेगा भी कि नहीं। क्योंकि देखिए न आपके बाकी के पेपरों में क्या होगा इसका तो कोई माई-बाप नहीं है लेकिन इस पेपर के लिए बाक़ायदा भवन की ओर से एक किताब दी जाती है जो कि परीक्षा के लिहाज से बहुत ही उपयोगी है। अब इस पेपर और किताब को पढ़कर वहां कोर्स कर रहा बंदा विद्या भवन की पैटर्न पर तैयार हो पाता है कि नहीं इसे जानना बहुत ही जरुरी और रोचक होगा। ये अलग से एक पोस्ट की मांग करता है। इसलिए ये सफर आगे भी जारी रहेगा।.....कल फिर बात होगी और कैसे बोल पड़े वहां के एक मास्टर साहब इस अंदाज में कि ....ये तो झागवाला है //////
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बाबा मानी तीन केले

Posted On 3:15 am by विनीत कुमार | 6 comments

दिल्ली यूनिवर्सिटी से किसी भी रुप में सरोकार है या रहा होगा तो आपने बाबा शब्द जरुर सुना होगा। अपने तरफ पापा के बाबूजी के लिए बाबा शब्द का प्रयोग करते हैं या फिर बूढ़े-बुजुर्गों के लिए। लेकिन कैम्पस में बाबा का मानी कुछ और ही होते हैं।जब मैं शुरु-शुरु डीयू में आया तो हॉस्टल सहित दूसरी चीजों को लेकर बहुत परेशानी हुई। लोगों ने समझाया कि बाबा के पास जाओ, अपनी तकलीफ बताओ...जरुर मदद करेंगे। भगवान पर रत्ती भर भरोसा है नहीं, तब भी नहीं था सो टाल गया और तकलीफें झेलता रहा। झारखंड से था इसलिए मुझसे मिले बिना ही लोगों ने धारणा बना ली थी कि जरुर बोक्का होगा या फिर दिल का बहुत साफ। करियर के लिहाज से ये दोनों चीजें बहुत खतरनाक है..हमसे गए-गुजरों को हॉस्टल मिल गया और मैं बजाता रह गया। तभी एक दिन मेरे एक क्लासमेट ने मुझे एक आदमी से मिलाया जो कि आदमी होने की योग्यता खो चुका था। उनकी तरफ मुंह करके और मेरी तरफ इशारा करके बताया कि विनीत है और झारखंड से आया है। बातचीत में वो बंदा बार-बार झारखंड पर विशेष जोर दे रहा था और आदमी की बातचीत से लग रहा था कि उसे बिहार से विशेष लगाव है। अंत में मैंने जोड़ा कि सर घर तो बाबूजी ने झारखंड में बनवा लिया है लेकिन मैं हूं तो बिहार का ही। राशन कार्ड भी बिहार का ही है। मुस्कराते हुए आदमी ने कहा...स्साला बत्तख ही रह गए इसीलिए तो हम तुमको अपने में मिक्स नहीं होने देते पहीले सीधे काहे नहीं बोल दिए की हमहुं बिहारी है....सोचोगे कि अपने को बिहारियों से अलग रखें और दिखें और हेल-मेल से काम भी बन जाए। चलो भागो यहां से। बाद में पता चला कि ये किसी हॉस्टल के बाबा हैं और बाकी हॉस्टलों के बाबाओं ने आपसी सहमति और आस्था से सुपर बाबा मान लिया है।सुपर बाबा यानि कहीं भी टांग डालने की कूबत। आप धर्म के हिसाब से निरंकारी बाबा समझ लें क्योंकि इनकी लीला फिक्स नहीं है। ये अगर पढ़ते हैं हिन्दू कॉलेज में तो रामजस वाले पूछने आ जाते हैं कि अबकी इलेक्शन में किसको बैठाना है उठाने का काम तो बाबा करेंगे ही। मार हुआ है कोठारी हॉस्टल में तो इनके हॉस्टल के इनके अपने स्वयंसेवक स्थिति पर काबू पाने के लिए पहुंच जाएंगे। मैंने कई बार अपनी आंखों से देखा है कि दिल्ली पुलिस भी इनके हिसाब से फैसले लेती है या फिर कई बार इनके बीच में पड़ने से समझौता हुआ है। दिल्ली पुलिस को भी बाबा का प्रताप और पहुंच की खबर होती है भले ही उसे अपने एस.एच.ओ. के बारे में पता न रहे कि वो किस बैच का है या फिर बोर्ड कब पास किया है।हॉस्टल की लिस्ट निकले और वो बिना बाबा की मर्जी के...अगर आप ऐसा सोचते हैं जैसा कि कभी ऑथिरिटी ने सोचने की कोशिश की थी तो समझिए आपको डीयू से फिर से ग्रेजुएशन करने की जरुरत है। ये सब बचकाना हरकत वे ही वार्डन कर जाते थे जिन्होंने पहले कभी डीयू का मुंह नहीं देखा। पैसे की तंगी, कमजोर अंग्रेजी, आत्मविश्वास की कमी या फिर कम पर्सेंटेज के कारण यहां पढ़ नहीं पाए लेकिन बाद में सरकार की अखिल भारतीय नीति के तहत पढ़ाने आ गए। पहले वाली कमजोरी आपको अभी भी इनमें जब-तब दिख जाएगी. लेकिन इनकी दिली इच्छा रहती है कि ये कुछ ऐसा कर जाएं कि डीयू से ग्रेजुएट हुए स्टूडेंट को ये बताना नहीं पड़े कि - पहिचान कौन।.....बाबा ने कई बार इनको भी तरीके से पटकनी दी है, एक-दो बार तो नौकरी पर बन आई है। अच्छा बाबा का आहार-विहार भी सबसे अलग होता था, जब तीन-तेरह करने के बाद मुझे हॉस्टल मिल गया तो मैं तो कभी इनके सामने पड़ना ही नहीं चाहता, साइड से क़ट लेता, लेकिन लोग औऱ हमारे खाने बनाने वाले उस्ताद जी बताया करते कि रात में उनके कमरे में सबकुछ ले जाकर बाबा की इच्छा के मुताबिक खाना बनाना पड़ता है। बाकियों से अलग- एकदम डिफरेंट।अब यहां बहुत अधिक लिस्ट बढाने की जरुरत है कि बाबा क्या-क्या किया करते थे या फिर ये बताने की जरुरत है कि उनका भौतिक स्वरुप कैसा होता था। एकेडमिक परफॉरमेंस कैसा होता था....ये सब पूछकर हमसे क्लर्की न करवाएं। उनके कार्यों और प्रवृत्तियों के आधार पर आप ग्राफिक्स तैयार कर लें।समय बदला, छात्र राजनीति कमजोर हुई, देशभर में स्टूडेंट पॉलिटिक्स पर नकेल कसा जाने लगा उसकी लगातार नकारात्मक छवि पेश की जाने लगी और ये मान लिया जाने लगा कि स्टूडेंट ये सब छोड़कर अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे, राजनीति उसकी पर्सनालिटी का हिस्सा नहीं है। पढ़ाई-लिखाई करे मतलब अपने को बाजार के हिसाब से तैयार करे। आनेवाले समय में सरकार का एक बेहतर नागरिक बनें, बढ़िया करदाता बने। इसका सीधा असर आप डीयू की पॉलिटिक्स में देख सकते हैं। छात्र चुनाव तो यहां बंद नहीं हुए हैं लेकिन चुनाव का जो रंग-ढंग है वो सेठों और बड़ी पार्टियों के लिए सट्टे की चीज बनकर रह गई है। आप देखेंगे कि सालभर में राजनीतिक पार्टियां डीयू के मसले में रुचि नहीं लेती लेकिन चुनाव की शक्ल विधान- सभा के चुनाव से भी ज्यादा भव्य हो गया है।.....यही कारण है कि अब कोई कॉलेज या स्टूडेंट अपने ढ़ंग से मुद्दे को उठाता है तो डूसू को उससे दूर ही रखता है। ताजा उदाहरण इन्द्रप्रस्थ कॉलेज को लें । खैर.......ये सब हो जाने से बाबा की स्थिति में लगातार गिरावट आई है। ऑथिरिटी को डर नहीं है कि स्टूडेंट विरोध करेंगे, डूसू अपने साथ है। अब बाबा की स्थिति ये है कि या तो वो डूसू का पालतू हो जा या फिर अपने वजूद को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष करे जो कि आज की तारीख में बड़ ही मुश्किल काम है.।जो बाबा अपने वजूद बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है वो बाबागिरी के नाम पर
कमरे में गेस्ट रख ले रहा है, गेस्ट के आने पर बिना कूपन कटाए खाना खिला सकता है या फिर बहुत हुआ तो हम जैसे आम हॉस्टलरों के हटकर एक की जगह तीन केले खा सकता है इससे ज्यादा कुछ कर लेना अब उसके बूते की बात नहीं है।....तो अब हैं ये डीयू के बाबा और इनकी माली हालत.....
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लौटे हैं कटा के......

Posted On 12:40 pm by विनीत कुमार | 8 comments

गए थे भाई लोग
पॉलिटिक्स, प्यार छोड़ के
लौटे हैं झारखंड से
अपनी अब कटा के
आए दिन इंजतार के
आए दिन इंतजार के ।।
भाई....ये हिन्दी वालों को अचानक क्या हो गया था, कोई फोन करके क्रीम कलर या फिर आसमानी रंग की शर्ट खरीदने की बात कर रहा रहा था तो कोई फोन करके पूछ रहा है की कम दाम में बढ़िया जूते कहां मिलेंगे तो कोई कह रहा है भाई रे सिर्फ दो घंटे के लिए चलो न मेरे साथ बाजार, कुछ शॉपिंग करनी है। मैंने सोचा कि सरकार ने रिसर्चर का हुलिया सुधारने मतलब कि वो लगे कि रिसर्च कर रहा है के लिए जो वजीफा देना शुरु किया है ये उसी का जोश है कि कोई शर्ट खरीदनी चाह रहा है तो कोई जूते। जो बंदा बुध बाजार से पचास रुपये में आध दर्जन चड्डी खरीदता है वो पूछ रहा है कि जॉकी का ऑरिजिनल माल कहां मिलेगा। जो एक ही मोजे को उलटकर पहनता है आज उसे नाइकी के मोजे लेने हैं। एक बंदे को डार्क कलर की बनियान इसलिए पसंद है क्योंकि ये गंदा कम होता है, आज एक जोड़ी सफेद बनियान चाहिए।......मेरे एक साथी है बीएचयू से, पैदाइशी पवित्र भूमि कहां है पता नहीं, और न जानना जरुरी है क्योंकि अब वे बनारस की फक्कड संस्कृति में आकंठ डूब चुके हैं। हमें गरियाते हैं कि आप भोगी आदमी हैं हिन्दी के नाम पर बिलटउआ शोधार्थी हैं आप बढिया-बढिया विदेशी ब्रांडेड कपड़ा पहनकर हिन्दी के भिखमंगई लुक को तहस-नहस करने में लगे हैं....हमसे पूछ रहे थे कि कौन-सा रेडीमेड पैंट अच्छा रहेगा लुई फिलिप कि ऐरो।.....
सबको राय दिया भइया कपड़ा-लत्ता खरीदना इतनी हड़बड़ी की चीज नहीं है काहे एकदम से ऐसे पैसा उड़ाने में लगे हो...सरकार ने हुलिया सुधारने के लिए पैसे दिए हैं लेकिन विवेक बेच कर थोडे ही हुलिया सुधरेगा। किसी ने कुछ नहीं कहा और न ही बताया कि बात क्या है।....एक दो से पूछा कि आप तो सरकार के पहले से ही दामाद हैं। दो साल पहले से ही जेआरएफ उठा रहे हैं तो फिर ये अचानक देह की सर्विसिंग माने जूता से लेकर चड्डी तक बदलने का इरादा अब क्यों आ गया। आप तो प्रोपर्टी जुटाने( किताब) वाले जीव है तो फिर ये भोग-विलास के चक्कर में कहां से पड़ गए। भाई साहब थोड़ी देर चुप रहे और फिर एकदम से झटका मारकर बोले चैनल में आप रोज सज-संवर कर किसके लिए जाते थे....उम्मीद बंधेगी तो आपका भी अंदाज बदल जाएगा। मैंने मन ही मन थुकियाते हुए बोला....बत्तख साला...जिन्दगी भर दीदी-दीदी और दिल्ली आकर मैडम से उपर तो उठ नहीं सका और अब वृद्धा पेंशन मिल रहा है तो जवानी सूझी है। ऐय्याशी का एबीसी नहीं जानता है और आज अंदाज समझा रहा है। भाई साहब हमारे जेएनयू वाले तो और घाघ निकले, बाजार में साथ ऐसे घूम रहे थे कि जैसे सबको मॉरिशस या फिर जर्मनी से पढ़ाने का ऑफर आया है। बीच-बीच में मजाक करता तो चुप मार जाते। मैं मन ही मन अपने को कोसता तू यही बैठे-बैठे ब्लॉग लिखता रह और ग्लोबल होने के सपने देख और ये सब साल-दो साल बाद एनआरआई का ठप्पा लेकर घूमेंगे।....खैर चांद देखकर बल्लीमारान दौडंने की वजह किसी ने मुझे नहीं बताई।
करीब सात-आठ दिन बाद जब सब मैं भूल-भाल गया तो फिर फोन आने शुरु हुए। एक ने पूछा यार सुना है कि तुम्हारा झारखंड बहुत सुंदर है। मैंने कहा हां भाई मेरा झारखंड तो वाकई बहुत सुंदर है लेकिन कुछ दिनों के लिए वो मधु कोडा का झारखंड हो गया है इसलिए अब पता नहीं कितना सुंदर है। लेकिन ये अचानक झारखंड प्रेम कैसे उमड़ पड़ा भाई। जबाव मिला बस ऐसे ही जाना चाहता हूं..बता न कौन-कौन सी ट्रेन जाती है। तब भी मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आया लेकिन बाद में एक-दो फोन आए और वे पूछ रहे थे कि विनीतजी आप कब जा रहे हैं झारखंड या फिर आप किस ट्रेन से जा रहे हैं। वो भी सब जगह से हार गए और हमारे सीनियर्स की बतायी कहानी से डर गए तब अंत में मुझे फोन किया कि साथ लेंगे। एक- दो अंकल चिप्स में गाइड मिल जाएगा इसलिए। मेरे सीनियर ने उन्हें बताया था कि वहां लूटपाट का तरीका थोड़ा आदिम है। चोर अंगूठी छिनता नहीं बल्कि हाथ काटकर झोले में रख लेता है और फाका (एकांत) में जाकर अंगूठी निकालकर हाथ फेंक देता है। एक-दो भावुक साथी( साथी जिसे बनाने में कॉलेज का हाथ रहा कि एक ही सेशन और क्लास में एडमीशन दिया) जिसपर कुदरत थोड़ा और टाइम और कच्चा माल देता तो लेडिस होते....फोन करके कहा..क्या विनीत विश भी नहीं करोगे, तुम्हारा तो वैसे भी हो जाएगा, हमलोगों का इलाका थोड़ा अल्टर पड़ जाता है.....मुश्किल है यार लेकिन विश तो कर दो। लोग बताते हैं कि इस बाजारवाद और कनज्यूमर कल्चर के दौर में बत्तीस दांत के बनिए का कहा भी खूब फलता है। इतना सब हो जाने पर तरीके से समझ में आया कि भाई लोग झारखंड के लिए लेक्चरर बनने जा रहे हैं।
नोट- मैं भी झारखंड में रहकर हिन्दी पढा-लिखा हूं और अगर लेक्चरर होने के लिए अगर ये बड़ी शर्त है....मुझे पता नहीं और न ही सरकार की और से कोई घोषणा हुई है तो मेरे लिए तो एक सीट फिक्स थी...लेकिन मैंने फार्म ही नहीं भरा....एक तो बहुत बाद में पता चला और दूसरी बात जो कि उससे भी बड़ी वजह है वो ये कि आपको वहां हिन्दी पढ़ाने के लिए हिन्दी का अनुवाद करना पड़ेगा।..ये परेशानी मेरे कॉलेज के टीचर अक्सर झेला करते थे और हमलोग कसम खाते कि न भाई...हिन्दी पढ़ाना बड़ा टफ काम है। सो मैं फार्म भरा ही नहीं और वहां गया ही नहीं।.....और हमारे सारे भाई इस अखिल भारतीय जोर-आजमाइश रैली में झारखंड कूच कर गए।

टेलीफोनिक टॉक उर्फ हौसला बढ़ाओ साथी
फोन पर भाई लोग नाम बता रहे हैं मुझसे जानना चाह रहे हैं कि ये सारे महाशय किस-किस क्षेत्र के एक्सपर्ट हैं माने कविता, कहानी, उपन्यास, साहित्यिक चुटकुला, साहित्यक पॉलिटिकल स्टंटः आगे से साहित्यक नहीं लगा रहा हूं लम्बा हो जाएगा आप मन में ही जोड़ लें, मसखरई, ऋतु- रंग आदि-आदि। मैंने फोन पर ही बताया कि ये डीयू, जेएनयू वाला एक्सपर्ट वाला फंडा वहां के मामले में भी मत पेलो। वहां के लोग हिन्दी की सेवा नहीं साधना करते हैं इसलिए तमाम विधाओं पर समान अधिकार होता है, किसी भी विषय पर प्रश्न पूछने की काबिलीयत रखते हैं। और ऐसा पूछकर हमारे पूर्वज गुरुओं का अपमान मत करो।....जो भी पूछा जाए उसे श्रद्धा से समझो और सुनो ये लॉजिक-वॉजिक डीयू के अढॉक पोस्ट के लिए बचा के रखो। इसकी खपत दिल्ली में आकर होगी। बार-बार फोन करके पूछते हो तो लगता है कहीं न कहीं तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो....अगर परेशानी हो रही है तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए था न कि कहां जा रहे हो। अब गए हो तो वहां की शर्तों पर इंटरव्यू दो और अब आकर ही बात करना, पैसे बचाओ....अभी रिजल्ट आने तक जेब पर थोड़ा कंट्रोल रखो।
इतनी नसीहतें देने के बावजूद एक जूनियर ने मिस कॉल दिया और कहा कि सर दिल्ली आने पर दस जूते मार लीजिएगा और बिल से दुगुने पैसे ले लीजिएगा लेकिन मेरी बात सुन लीजिए प्लीज। गुस्सा तो बहुत आया, बोला जब तुमलोग मुझे इतना जरुरी आदमी समझते हो तो पैरवी करते आना कि हमारे एक सीनियर को जन सम्पर्क विभाग में रख लीजिए....चलो बोलो।
जूनियर ने सुनाया इंटरव्यू का अनुभव यानि
कॉन्फीडेंस के चिथड़े होने की स्टोरी
एक्पर्ट- किस विषय पर काम है
जूनियर- जी फिल्म पर
एक्पर्ट- ये क्या सब पर काम कराते हैं डीयू, जेएनयू के लोग
जूनियर- मन में, बेकार लिया ये टॉपिक, नशा चढा था उत्तर-आधुनिक बनने का
हिन्दी में रहकर भी डिफरेंट दिखने का
एक्पर्ट- देवदास देखे हो
जूनियर- जी
एक्सपर्ट- किसकी रचना है इ देवदास
(एक्सपर्ट मन ही मन याद कर रहा है किसकी रचना है....)
जूनियर- जी शरतचंद्र
एक्सपर्ट- पुरानेवाले में और नएवाले देवदास फिल्म में क्या फर्क है।
जूनियर- जी प्रस्तुति और अभिनय को लेकर फर्क है
एक्सपर्ट- तुमको नहीं लगता है कि जो बात रचना में है वो बात फिल्म में नहीं है
जूनियर- मुझे लगता है ऐसा माध्यम में बदलाव के कारण हुआ है और इतनी छूट तो मिलनी चाहिए
एक्सपर्ट- फिल्म को ही शोध के लिए क्यों चुना
जूनियर- मुझे लगाता है कि भारत जैसे देश में सिनेमा सबसे ज्यादा पॉपुलर माध्यम है और इसे सामाजिक बदलाव के लिए काम में लाया जा सकता है,आगे मैं इसी दिशा में काम करना चाहता हूं।
एक्सपर्ट- ये फ्लैश-बैक क्या होता है।
जूनियर- जब इंसान बहुत तकलीफ में हो, बहुत खुश हो या फिर उसकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत बदल जाती है और उसके पहले की स्थिति को दिखाने के लिए जिस टेकनिक का इस्तेमाल किया जाता है उसे फ्लैश- बैक कहते हैं
एक्सपर्ट- राम की शक्तिपूजा पढ़े हो..उसमें फ्लैशबैगक कहां है।
जूनियर- जी माता कहती थी मुझे राजीवनयन या फिर याद आया उपवन विदेह का
एक्सपर्ट-पूरी पंक्ति सुनाओ
जूनियर- जी पूरी पंक्ति तो याद नहीं है, बहुत पहले पढ़ी थी
एक्सपर्ट- अच्छा टीक है जाओ।
नोट- जूनियर को एक्सपर्ट का नाम नहीं पता। इससे पता चलता है कि या तो जूनियर को साहित्यिक हलकों की समझ नहीं है या फिर साहित्य की दुनिया में लद्दड है।
.....एक्सपर्ट तो फिर भी एक्सपर्ट है।
इस तरह से जितने लोग उतने तरह के उनके अनुभव। अब सारे के सारे लौट आए हैं झारखंड की वादियों से। जो कुछ रुक गए हैं उनको सर्कुलर रोड या फिर सेक्टर-2 धुर्वा में कुछ जरुरी काम है, कुछ का अपना घर पड़ता है....भांजे-भतीजियों के साथ रावण को जलाकर लौटेंगे और दो-चार बंदों को अपनी कजिन जो कि इंटरव्यू के दौरान बने हैं उन्हें तोरपा, लोहरदग्गा या गुमला छोड़ने जाना है।
सर्वसम्मति से जो सब बोले
- इंटरव्यू में तो फाड दिए गुरु वो भी सोचेगा कि बेटा किससे पाला पडा है, एक्सपर्ट का तो बार-बार होंठ सूख रहा था

- मजाक है डीयू, जेएनयू से पढ़े लड़को से सवाल-जबाव करना, ऐसा पटखनिया दिए कि चारो-कोना चित्त
-भाई हमको तो साफ बोला एक्सपर्ट कि समकालीनता को लेकर आपके जो विचार हैं उसपर कोई किताब लिखकर साहित्य पर कुछ उपकार क्यों नहीं कर देते हैं।
- भाई वहां जाकर हमको लगा कि हम भी कुछ चीज हैं, यहां तो दिल्ली में गाइड एक चैप्टर चेक करने पर इतना दौड़ाता है कि डिप्रेशन से उबरनें में हफ्ता लग जाता है।
कुल मिलाकर सैंकड़ों शेखी के किस्से और हिन्दी, झारखंड और एक्सपर्ट को लेकर सैंकडों
धारणाओं की निर्मिति।
लेकिन इन सबके बावजूद एक सामान्य धारणा रिजल्ट का इंतजार करते हुए इनकी बनी है वो ये कि
अगर सबकुछ सही रहा, टैलेंट पर जोर रहा और घूस-घास नहीं चली तो मेरा होने से कोई नहीं रोक सकता। करीब ढाई सौ लोग किसी न किसी माध्यम से ऐसा बता चुके हैं जबकि सरकार ने हिन्दी की 90 के आसपास सीटों की घोषणा की है ।....
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एक प्रवचन = एक हजार माया

Posted On 10:49 pm by विनीत कुमार | 8 comments

मेरी ये पोस्ट पढ़ने के पहले आप वादा करें कि हिन्दीवालों के लिए आगे से आप दो शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करेंगे। एक तो ये कि फलां आदमी फलां कॉलेज में हिन्दी पढ़ाता है, इससे उनका सहित पूरे हिन्दी समाज का अपमान होता है और दूसरा ये कि उसे हिन्दी पढ़ाने के इतने पैसे मिलते हैं। काम और रुपया- पैसे का हिन्दी समाज शुरु से विरोधी रहा है। और अगर आप इसका प्रयोग उनके लिए करते हैं तो इससे उनका अपमान होता है।....काम में सभी तरह का काम आता है...पढ़ाने से लेकर भोग-विलास वगैरह...वगैरह। और रुपया -पैसा में...ये तो बताना नहीं पड़ेगा।....तो आप सोचेंगे कि भई जब हिन्दीवालों के खाते में महीने-महीने और विषयों के मास्टरों की तरह रुपया आता है तो उसे रुपया न कहें तो और क्या कहें। अच्छा सारे हिन्दीवालें औरों की तरह तैयार होकर टिफिन लेकर घर से रोज निकल जाते हैं तो उसे काम पर जाना न कहें तो और क्या कहें। तो सुनिए हिन्दी में रुपया को माया कहते हैं, ठगनी कहते हैं और काम को सेवा। हिन्दीवाले हिन्दी पढ़ाते नहीं उसकी सेवा करते हैं। और चूंकि सेवा और संवेदना का भाव इतना अधिक होता है कि वे अपने सहकर्मियों और तेजतर्रार छात्रों को इस माया में पड़ने नहीं देते। सारी माया अपने उपर ले लेते हैं और ये माया चाहे जितनी भी लीला करें इनके दोस्त-यार और छात्र तो बर्बाद होने से बच जाएंगे।......चलिए अब आगे बढ़ें।

मैंने चैनल को अलविदा कहने का मन बनाया तो मेरे दिमाग में बार-बार एक ही सवाल आया कि कहां तो चला था खूब-रुपया पैसा कमाने...गाड़ी-फ्लैट खरीदने जो कि मेरे बाकी दोस्त भी सोचा करते हैं। लेडिस मित्र भी कहा करती कि तुम नहीं समझते हो यार दिल्ली में अपना फ्लैट होगा तो कम से पति का धौंस तो नहीं चलेगा। खैर जाने दीजिए इन सब बातों को।...मुद्दे पर आते हैं।...जब दुबारा हिन्दी की दुनिया में लौटने का मन बनाया तो सोचा इसके पहले ये पता कर लेना जरुरी है कि घर, फ्लैट और एसी कमरा हिन्दी में आकर नसीब हो चाहे नहीं...कम से कम होनेवाली पत्नी की डिलिवरी एसी हॉस्पीटल में करवा पाउंगा कि नहीं। मरने के पहले दादी ने वचन दिया था कि काशीजी में क्रियाकर्म करना और पत्नी बनने से पहले एक लेडिस ने वचन मांगा है कि वादा करो कि हमारे बच्चे और टीवी रिपोर्टरों की तरह एसी में पलेंगें-बढ़ेंगे। मैं सोचता हूं कि पले-बढ़े भले ही न कम से कम पैदा तो एसी में हो ले। जिस आवोहवा में पहली बार सांस लेगा उसका एहसास जिंदगी भर रहेगा। मैं भी सीना तानकर कह सकूंगा कि एसी का बच्चा है मामूली नहीं है जी और पत्नी, अगर सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो हो जाएगी, वो भी लोहराकोचा जाए तो अपने पीहर में महौल बना सके कि एसी में पैदा हुआ है न गर्मी एकदम से बर्दास्त नहीं होती।....यही सब सोचकर पता लगाने लगा कि आखिर हिन्दी समाज में रहकर देश और समाज सहित अपने बाल-बच्चों को कितना कुछ दे पाउंगा। मीडिया में काम करते हुए थोड़ा प्रोफेशनल और कांन्फीडेंट तो हो ही गया था....सो सोचा कि ऐसे दो-तीन प्रोफेसरों और हिन्दी के मास्टरों से मिल लिया जाए जो सबसे ज्यादा अभी हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और जाहिर सबसे ज्यादा माया अपने उपर ले रहे हैं। मैंने सीधे-सीधे पूछा...सर हमें भी हिन्दी की खूब सेवा करनी है और ज्यादा से ज्यादा माया अपने उपर लेनी है ताकि बाकी का हिन्दी समाज इत्मीनान रहे। पहले तो उन्होंने मुझे समझाया जैसे चैनल वाले समझाते रहे कि क्या यहां अपने को बर्बाद कर रहे हो जाओ...अच्छा भला रिसर्च करो....वैसे ही इनलोगों ने समझाया कि क्या जिन्दगी हलाल करने पर तुले हो ...ये सेवा-वेवा हमारे लिए छोडो, जाओ मीडिया मे माल कमाओ, तुम जैसे होनहार बच्चों की वहां बहुत जरुरत है। मैं भी अड गया ...गुरुजी माल-वाल तो ठीक है लेकिन इज्जत और संस्कार भी तो एक चीज है और फिर आप ही तो कहा करते थे कि तुम ऑर्डर पर बने जीव हो..खासतौर पर हिन्दी के लिए।....अंत में उन्होंने हामी भर दी और सेवा और माया के अंतर्संबंधों (Interrelationship) को समझाया।


हिन्दी की सेवा के लिए मासिक माया- 20000-22000 माया,
शुरुआती दौर में सेवा का मौका- 16 से 18 दिन पांच घंटे
राजनीतिक सक्रियता मिलाकर
सुझाव - मीडिया से हो अखबार से जुड़ जाओ महीने में कम से कम 4 लेख- 2000 माया
महीने में 2 साहित्यिक लेख- 1000 माया
सुझाव- चैनल में जुगाड़ लगाओ महीने में 2-3 टॉक शो में गेस्ट- 5000 माया
सुझाव- एक्सट्रा क्लास पर जोर दो महीने में 3-4 क्लास- 1000 माया
दिल की बात- लेडिस कॉलेज मिल जाए तो एक्सट्रा क्लासेज ज्यादा मिलेंगे
सुझाव- गेस्ट फैक्ल्टी बनो
दिल की बात- मीडिया से हूं,कुकुरमुत्ते की तरह पत्रकार बनाने के कारखाने खुल रहे हैं
सप्ताह में चार दिन सेवा- 2000 माया
सुझाव- इन्टल बनो व्याख्यान दो
महीने में दो व्याख्यान- 1500- 2000 माया
राह खर्च अलग से
सुझाव- दो- चार किताब लिख डालो
दिल की बात- अगले साल ब्लॉग ही छपवा दूंगा
सुझाव- बदला-बदली स्कीम, माने दोस्तों को अपने कॉलेजों में बुलाओ और उन्हें कहो कि वे तुम्हें बुलाएं। आपसे में पीठ ठोको, लॉबी मजबूत होगी, मार्केट बढेगा
सुझाव- कभी-कभी यूपी, बिहार भी हो आओ
दिल की बात- एक सेमेस्टर 2-3 बार, प्रतिमाह के हिसाब से 4000 माया
सुझाव-आयोजकों से एसी 3 की टिकट लो स्लीपर में जाओ, जवान हो यार।
जरा टोटल कर लो भइया बाकी कुछ खुद भी जेनरेट कर लेना
टोटल - 22000+2000+1000+5000+1000+2000+2000+2000+4000+1000( रॉयल्टी का ) = 41000 माया

फुट नोट- ये तो शुरुआती दौर है जैसे-जैसे बाजार बनेगा वैसे-वैसे सेवा और माया में उत्तरोतर वृद्धि होगी-
-आजकल एनआरआई लोग हिन्दी पढ़ने लगे हैं तो विदेश गमन का भी योग बनेगा।
- धनी घर की सुकन्या जो कि शादी के लिए पढ़ना चाहती है उससे भी इम्पोर्टेड उपहार
- हिन्दी श्रद्धा और सेवा स्थली है, हरियाणा के छात्र घी देते रहेंगे
कुल मिलाकर यहां भी मामला घाटे का नहीं है....और जो थोड़ा बहुत कॉम्प्लेक्स हिन्दी में होने का रहेगा उसे तुम्हारे बाल-बच्चे रिवॉक और नाइकी पहनकर, अंग्रेजी बोलकर पूरी कर देंगे।समझे बच्चा, इसलिए ठान लो कि हमें जिंदगी भर हिन्दी की सेवा करनी है।
ड्राफ़्ट
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पढ़े मीडिया, हुए बर्बाद

Posted On 9:08 pm by विनीत कुमार | 8 comments

आज से करीब तीन दिन पहले डीयू में हिन्दी विभाग के अन्तर्गत पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़को पर उतर आए। उनका कहना है कि मीडिया के नाम पर उन्हें जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है, वो ठीक नहीं है। हिन्दी साहित्य पढ़कर आए लोग ही इसे पढ़ा रहे हैं। इसके अलावे इसे पढ़ाने और समझाने के लिए जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरुरत होती है वो भी नदारद है। ये तो निश्चित तौर पर विचार करने वाली बात है कि कोई बंदा साल भर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पढ़ाए और कभी किसी समाचार चैनल का मुंह ही नहीं देखा हो।....ये तो वही बात हो गई जैसे जिंदगी भर ईश्वर की सत्ता पर प्रवचन देनेवाले बाबाजी कभी खुद ईश्वर को नहीं देख पाए। ऐसे में पत्रकारिता या मीडिया को पढाना, मीडिया के नाम पर पाखंड है। साहित्य को लम्बे समय तक पढ़ते हुए और मीडिया में काम करते हुए मैंने अनुभव किया कि अपनी संरचना और काम करने के तरीके के कारण मीडिया और साहित्य दो अलग-अलग चीजें हैं और आप दोनों को पढने और पढाने के लिए एक ही तरीका नहीं अपना सकते। दोनों के विश्लेषण के लिए आपको अलग-अलग टूल्स अपनाने होंगे। इसलिए अपने ब्लॉग में भी हमनें दोनों के लिए अलग-अलग खाता खोल रखा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए बुद्धू बक्सा और हिन्दी के लिए हिन्दी का टंटा। डीयू के हिन्दी विभाग में भी हिन्दी को पॉपुलर, कमाऊ और रोजगारपरक विषय बनाने की नीयत से जब पत्रकारिता को पढ़ने-पढ़ाने के लिए शामिल किया गया तो अक्सर मैं अफसोस जताया करता था कि इससे आनेवाले हिन्दी के छात्रों का बंटाधार हो जाएगा। अबतक बिहारी, मतिराम या प्रगतिशीलता के नाम पर नागार्जुन और मुक्तिबोध को पढ़ाने वाले गुरुजी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए समाचार निर्माण की प्रक्रिया पढ़ाएंगे।....वो भी पत्रकारिता की किताबों को पढ़कर। जिनके पास किसी भी समाचार चैनल या एजेंसी में एक भी दिन काम करने का अनुभव नहीं है। ऐसे में कबीर और टीआरपी के बीच डूबते-उतरते वे क्या पढ़ाएंगे या अबतक क्या पढ़ा रहे हैं, इसका विश्लेषण बहुत जरुरी है। इन गुरुओं के लिए कभी कोई वर्कशॉप नहीं हुआ और न ही पढ़ाने के लिए कहीं से कोई ट्रेनिंग ही ली। मेरे कहने का ये बिल्कुल मतलब नहीं है कि हिन्दी के लोग मीडिया पढ़ा नहीं सकते। मैं तो सिर्फ ये जोड़ना चाहता हूं कि अगर हिन्दी साहित्य पढ़कर कोई बंदा सीधे आज के स्टूडेंट को मीडिया पढ़ाना चाहता है तो बेहतर हो कि इससे पहले कोई वर्कशॉप में जाए। इससे उनकी गलतफहमी दूर हो जाएगी कि मीडिया सिर्फ शब्दों का खेल है।
हिन्दी साहित्य पढ़कर मीडिया पढ़ाने में होता ये है कि एक तो गुरुओं को ये पता ही नहीं होता कि टेलीविजन के लिए लिखने में कितना बड़ा फर्क होता है। साहित्य के ठीक उलट इसे देखने वाले अलग-अलग मिजाज के लोग होते हैं।...आप शब्दों से अच्छे-अच्छे भाव पैदा करना चाहते हैं लेकिन आप जो कुछ भी कह रहे हैं वो लोगों को समझ ही नहीं आ रहा। सबसे जरुरी बात है कि वैसे किसी भी चीज के उपर लिखना या बहस करना और बात है और एक न्यूज की शक्ल में समय, बाजार और स्पेस के दबाव में लिखना बिल्कुल दूसरी बात है। इन सब चीजों की जानकारी ये हिन्दी वाले गुरु जी नहीं देते क्योंकि इन्होंने खुद कभी भी इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया। कुल मिलाकर इन गुरुओं को आज की मीडिया और उसकी वर्किंग कल्चर के बारे में कोई समझ नहीं है। वे साहित्य की तरह ही टेलीविजन को डील कर देते हैं। बहुत हुआ तो अखबारी पत्रकारिता के हिसाब से न्यूज चैनलों के लिए समाचार लिखने की प्रक्रिया समझा देते हैं। इस तरह पत्रकारिता के नाम पर हर साल एक ऐसी फौज खड़ी हो रही है जो अपने को हिन्दी वाले से अलग बताकर पत्रकारिता की पढ़ाई की है, वे हिन्दी विभाग से जुड़कर भी नागार्जुन या मुक्तिबोध के बारे में बात करने की स्थिति में नहीं हैं और न ही मीडिया की समझ उस ढ़ंग की है जिससे कि यहां से निकलकर सीधे किसी चैनल में काम कर सकें। ये हिन्दी सहित इन स्टूडेंट के लिए खतरनाक स्थिति है। ऐसे में अगर डीयू में इस पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़कों पर उतर आते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।....आप मीडिया में भी इथिक्स के नाम पर साहित्य झोंकते चले जाएंगे तो विरोध तो होगा ही...क्योंकि इस तरह के कोर्स को लाने के पहले आपने ही इसे रोजगारपरक होने की बात की थी और अब आप ही दोहरा चरित्र अपना रहे हैं। इसलिए और पौध बर्बाद हो इससे पहले गुरुजी कोई ठोस निर्णय लें...वरना विरोध का स्वर और तेज होगा।
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