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तुम मत पहना करो स्कर्ट

Posted On 11:51 pm by विनीत कुमार | 6 comments

...तो तुम्हें स्कर्ट में लड़कियां पसंद नहीं है
-पसंद है लेकिन दूसरी लड़कियां, तुम तो सलवार कमीज में पसंद हो।
मुझे सलवार सूट क्यों दिया, तुम्हें क्या लगता है मैं सिर्फ यही पहन सकती हूं
मुझे लगता है लड़कियां सिर्फ दुपट्टे में ही अच्छी लगती है,
वाई द वे मैं तुम्हारे बारे में कुछ गलत नहीं सोचता
और जो स्कर्ट पहनती है उसके में
उसके बारे में कुछ सोचता ही नहीं...
.......जो लोग इश्क और अफेयर के साथ डॉक्टरी प्रैक्टिस या फिर ऑफिस जाना पसंद करते हैं उन्हें स्टार प्लस का दिल मिल गए सीरियल अच्छा लगता होगा। ये संवाद उसी का है। डॉक्टर अरमान और डॉ.नीदिमा के बीच का संवाद। डॉ.अरमान ने नीदिमा को गिफ्ट में सलवार सूट दिया है और साथ में तर्क भी दिया है कि स्कर्ट में लड़कियां अच्छी नहीं लगती है और लगती है भी तो दूसरी वो नहीं। क्यों भई, नीदिमा देखने में वलगर या मोटी तो नहीं कि स्कर्ट में और बेकार लगे। तो क्या अरमान का ड्रेस सेंस नीदिमा के शरीर के हिसाब से न होकर एक मानसिकता से डेवलप हुआ है।
अरमान, नीदिमा के बारे में कुछ भी गलत नहीं सोचता, वो तो उससे प्यार करता है, अभी तक तो निर्देशक ने प्लेटॉनिक ही दिखाया। मतलब ये कि आप जिससे प्यार करें वो ज्यादा उघड़ी न दिखे, ढंकी-ढंकी सी लोगों के बीच। लेकिन जिससे आप प्यार नहीं करते वो। वो खुली रहे चलेगा। यहां तो अरमान ने कह दिया कि वो औरों के बारे में सोचता ही नहीं है। सवाल यहां पर ये है कि वो नीदिमा के बारे में जिस तरह से सोचता है क्या वो खुद नीदिमा के हक में है।...आप इसे पुरुष मानसिकता और सींकचों में बांध देने की कवायद के रुप में नहीं देख रहे।
डॉ.नीदिमा और डॉ. अरमान या फिर उनके जैसे देश में लाखों लोग एक खुले वातावरण में काम कर रहे हैं। दिन की शिफ्ट, रात की शिफ्ट, सबका एक ही ध्येय है आगे बढ़ना। इसके लिए वर्जनाएं भी बाधक है, टूटे तो टूटे। आप कह सकते हैं सो कॉल्ड ओपन कल्चर। लेकिन इस खुले वातावरण में पुरुष का तंग नजरिया एकदम से सामने आ जाता है।
.... ऐसा क्यों होता है कि आप और हम जिसे चाहने लगते हैं उसे ज्यादा से ज्यादा सेफ देखने के चक्कर में उसे बांधने लग जाते हैं। पता ही नहीं चल पाता कि सुरक्षा और वर्चस्व के तार कैसे आपस में एक दूसरे से उलझ जाते हैं और जिसके बीच तमाम खुलेपन के बीच एक सामंती और पुरुषवादी विचार का आदमी बीच में खड़ा होता है। ये तो सिर्फ ऑफिस की बात है जहां डॉ.अरमान, नीदिमा की ड्रेस और बातचीत के ढ़ंग पर राय दे रहा है और अगर बात चौबीसो घंटे और आगे जाकर एक दूसरे की जिंदगी में शामिल होने की बात हो तो पता नहीं किन-किन बातों को लेकर डॉ.अरमान का नजरिया सामने आएगा। फिलहाल तो एपिसोड को आगे जाना है, जिसमें कई टर्न आएंगे लेकिन इसी बात को अगर अभी हाल ही में आई फिल्म दिल दोस्ती एटसेट्रा से जोड़कर देखें तो कहानी यूं बनती है-
संजय मिश्रा दिल्ली के कॉलेज में पढ़ने के वाबजूद अपनी गर्लफ्रैंड को फैशन शो में भाग लेने और बिकनी पहनने की इजाजत नहीं देता क्योंकि वो इसे अपनी पत्नी के रुप में देखता है। वो बिहार या फिर दूसरे राज्यों के उस मूल्य ( जड़ता भी समझे) को थोपना चाहता है कि बहू की तरह रहे, ढंकी-ढंकी। संजय मिश्रा की गर्लफ्रैंड उसे इसी मानसिकता के कारण छोड़ देती है।
टेलीविजन की दुनिया में जबरदस्त क्रांति आ जाने के बाद भी ये तकनीकी ही क्रांति ज्यादा लगता है। सामाजिक स्तर पर इंडियन सोप ओपेरा ने अभी भी प्रोग्रेसिव एप्रोच को नहीं अपनाया है। जब तब पुरुषों द्वारा एक लड़की को सुरक्षा के नाम पर पहनाया गया लबादा मसक जाता है और उससे पुरुष वर्चस्व का घिनौना चेहरा सामने आ जाता है। कभी कभी तो ये भी लगने लगता है कि टेलीविजन कहीं फिर से इस सोच को स्थापित तो नहीं करना चाहता।.... दिल मिल गए में तो मामला कुछ ऐसा ही बनता है। हम लड़कियों को अपेन मन मुताबिक कपड़े पहनना भी बर्दाश्त नहीं कर सकते।
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जनसत्ता में भी हैं कमीने लोग

Posted On 10:27 pm by विनीत कुमार | 5 comments

अखबारों में छपने के लिए तेल लगाने पड़ते हैं, मुझे पता है। लेकिन जनसत्ता के बारे में मेरी राय कुछ अलग रही थी। मेरे सारे मास्टर साहब लोग उसी में छपते हैं और सारे के सारे लगभग प्रगतिशील हैं, सो मैंने सोचा कि वो तो तेल लगाते नहीं होगें। यही सब सोचकर मैंने भी एक लेख भेजने की गलती कर दी। लेकिन लेक भेजते समय मैं ये भूल गया कि मैं एक पाठक की हैसियत से लिख रहा हूं जबकि मास्टरजी स्थापित लोग हैं। और अपने इस हैसियत के हिसाब से जनसत्ता की ओर से जो जबाब मिला, जरा उस पर गौर करें-
नामवर सिंह से मुझे भी दिक्कत है कि अकेले उस आदमी ने नरक मचा रखा है तो क्या उसकी हत्या कर दें। क्यों छपना चाहते हैं और क्यों लिखना चाहते हैं उसके विरोध में। आपके अकेले लिखने से क्या बिगड़ जाएगा नामवर सिंह का। अगर वाकई आप चाहते हैं कि नामवर सिंह न बोलें तो आप सा-आठ लोगों को जुटाइए और उसके खिलाफ मोर्चा खोल दीजिए कि अब आगे से इसे बुलाना ही नहीं है और तब हम भी आपका साथ देंगे।
( सूर्यनाथ त्रिपाठी, जनसत्ता की सलाह)

ये सलाह तो उस आदमी ने तब दी जब उसकी बात सुनने के बाद मेरे मन में अजीब ढ़ंग की बेचैनी हो गयी थी और मैंने दुबारा फोन करके कहा कि- आप छापें अथवा न छापें लेकिन मेरी बात सुनिए और मुझे बहुत अफसोस है कि जनसत्ता अखबार के लिए काम करने वाले शख्स से यह सब सुन रहा हूं। इसके पहले कि कहानी कुछ और ही है।
24 जनवरी को मैंने नामवर सिंह से असहमति का आलेख जिसे कि मैंने अपने ब्लॉग पर भी पोस्ट किया था, नामवर सिंह से घोर असहमति को प्रिंट के लिहाज से थोड़ा और दुरुस्त करके जनसत्ता के लि फैक्स कर दिया। फैक्स करने के बाद फोन किया श्रीश चंद्र मिश्र को, उन्होंने कहा कि लाइन पर रहे मैं देख कर बता रहा हूं। करीब साढ़े चार मिनट तक लाइन पर रहा। देखकर बताया कि आ तो गया है लेकिन तीसरा पेज साफ नहीं है आप एक बार फिर फैक्स कर दें। मैंने फिर फैक्स किया। फिर फोन करके बताया कि फैक्स कर दिया तो उन्होंने कहा ठीक है।
एक दिन बाद मैंने फोन करके पूछा कि सर इसका स्टेटस पता करने के लिए क्या करना होगा। उन्होंने नंबर दिया जिस पर फोन करने पर दुबारा जबाब मिला कि प्रिंट साफ नहीं है आप ऐसा करें कि कूरियर कर दें। मैंने उसे फिर कूरियर किया। ऑफिस में बताया कि आपको जिन्होंने कूरियर करने कहा था वो शायद अरविंद रहे होंगे। कल मैंने फिर फोन किया कि सर मैंने एक लेख भेजी थी। अबकि दूसरे व्यक्ति थे सूर्यनाथ त्रिपाठी, उन्होने कहा अभी तक तो मिला नहीं, चलिए देखता हूं। चार घंटे बाद फिर फोन किया तो बताया कि अभी-अभी आया है। लेकिन ये छपने लायक नहीं है. मैंने पूछा क्यों. तो उनका जबाब कुछ इस तरह से था-
आपने नामवर सिंह पर पर्सनल अटैक किया है। ऐसा हम नहीं छापते। आपने देखा है जनसत्ता में कभी इस तरह का छापते हुए। आपने इसे दुनिया मेरे आगे नाम से दिया है, इसमे तो कभी ऐसा लेख गया ही नहीं। मैंने कहा सर कोई बात नहीं, हमने तो लेख दिया आप देख लीजिए। उन्होंने साफ कहा कि छपेगा तो नहीं लेकिन रख लेता हूं। ये तो सीधे-सीधे किसी के उपर पर्सनली अटैक करना हुआ। मैंने उनसे बात करने की कोशिश की- सर मैं पाठक हूं, नामवर सिंह का श्रोता, मुझे उनके रवैये से असहमति हुई सो लिख दिया और मैं कोई पहली बार तो लिक नहीं रहा इस तरह से.
करीब सात साल से जनसत्ता पढ़ता आ रहा हूं और आन समझता रहा कि जनसत्ता पढ़ता हूं। ये तो भ्रम तब टूटी जब चैनलों और मीडिया हाउस के इंटरव्यू में पूछे जाने पर कि कौन सा अखबार पढ़ते हो और जनसत्ता बताता तो लोग मुस्कराते और उपहास उड़ाते। फिर भी हिन्दी से हूं और जनसत्ता मे हिन्दी कलह के लिए ठीक-ठाक स्पेस है, सो बिना राजनीति में शामिल हुए, किसी पर कीचड़ उछाले बिना सबकी खबर मिल जाती है, इसलिए खरीदता रहा। मैंने उन्हें इस बात का भी हवाला दिया कि सर ये बड़े-बड़े लोग लेख के नाम पर यही सब कलह तो लिखते हैं, राजनीत और साहित्य के नाम पर कोरा बकवाद। उइनका कहना था कि वो तो सिर्फ संडे को न. कुल मिलाकर बात यही रही कि उका कहना था कि नामवर से इस तरह से लिखना पर्सनल अटैक है।
मैं पूरी तरह हिल गया, नहीं छपने के कारण नहीं बल्कि त्रिपाठीजी के इस घटिया लॉजिक से। सो दुबारा फोन किया जिसमें उन्होंने सलाह दिया कि आप नामवर के विरोध में मोर्चा खोल दें और मैं भी शामिल होता हूं। मैं कहता रहा कि मैं पैसिव ऑडिएंस नहीं हूं, जो नहीं पचेगा, उस पर लिखूंगा हीं। लेकिन त्रिपाठीजी की बात समझें तो आप लिखिए मत नामवर सिंह के नाम पर राजनीति कीजिए मोर्चा खोलकर।.....अंत में आवाज कट गई औ जब दुबारा फोन मिलाया तो रवीन्द्र नाम के व्यक्ति ने फोन उठाया और कहा कि त्रिपाठीजी तो कैंटीन चले गए। मतलब किसी पाठक से दो मिनट बहस करने के लायक नहीं।
मैं रात से सुबह के चार बजे तक इस मुद्दे पर सोचता रहा कि मठाधीशी की तो हद है
और काफी कुछ सोचता रहा. साढे पाच बजे अखबार दे गया और सच बताउँ जनसत्ता देखकर मन किया कि राजू से कहूं कि कल से मत लाना जनसत्ता जैसी शिक्षा त्रिपाठीजी ने हमें देने की कोशिश की फिर रुक गया हल ये नहीं ।
अब मेरा बड़ा मन कर रहा है कि एक दिन जनसत्ता के ऑफिस में जाउं और पूछू- क्या सर आप सारे लेखको को यही राय देते हैं कि लिखो मत, सीधे मैंदान में उतर आओ जैसा कि हमें त्रिपाठीजी ने दिया है।
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टीवी एंकर को पत्रकार से जमूरे बनने में समय नहीं लगता और न ही देश के टैलेंट को बंदर-बंदरिया बनाकर नचाने में। लगभग सारे न्यूज चैनलों ने लत पाल लिया है कि मौका चाहे जो भी हो, रियलिटी शो में शामिल बच्चों को अपने स्टूडियो में ले आओ और फिर शुरु कर दो वही सब करना जो मीका और राखी को बुला कर करते हो।
आप इन बच्चों की बातों को जरा गौर से सुनिए आपको कहीं से नहीं लगेगा कि अब ये बच्चे रह गए हैं, उम्र के पहले ही इतने मैच्योर हो गए हैं कि जब असल में मैच्योर होने की उम्र आएगी तो जानने-समझने के लिए कुछ बचेगा ही नहीं। सारेगम के हॉस्ट आदित्य ने आठ साल की लड़की के अच्छा गाने पर अपनी गर्लफ्रैंड मान लिया है और एंकर इसे मजे से पूछती है कि तुम्हें क्या लगता है। बच्ची का जबाब है, इस बारे में आप आदि से ही बात करें। इधर उसी उम्र के एक बच्चे को रिचा भा गई है जो कि उम्र में 15-16 साल बढ़ी होगी। संयोग से आइबीएन 7 की इस एंकर का भी नाम रिचा है तो वो अपने बारे में भी पूछ लेती है कि मेरे बारे में क्या ख्याल है, मैं ऋचा कि वो ऋचा। बच्चे का जबाब है दोनो। लीजिए अब समझिए और समझाइए परस्त्री और एक के रहते दूसरी नहीं वाला फंड़ा।
मैं ये नहीं कह रहा कि इन चैनलों ने ही इन्हें इस तरह की बातें और जबाब देने को कहा होगा लेकिन इस ओर मानसिकता बनाने में चैनलों का कम हाथ नहीं है। अब बताइए आपको क्या जरुरत पड़ गयी है कि आप आठ साल के बच्चे से ये पूछें कि कौन गर्लफ्रैंड मैं या वो वाली ऋचा। कभी आपके दिमाग ये बात आती है कि इसका इस कोमल मन पर क्या असर होगा। आपको तो बस बकते रहना है और आधे घंटे के लिए बुलाए हो तो उसे दुह लेना है। कभी नहीं पूछते कि तुम इतना आगे आ गए अपने उम्र के लोगों के बारे में क्या सोचते हो और उनके लिए क्या कुछ करना चाहते हो।
मैं जब भी स्कूल के बच्चों से खासकर दिल्ली के बच्चों से मिलता हूं तो आठ साल, दस साल के बच्चों की उलझनों को सुनकर परेशान हो जाता हूं। थोड़ी देर तो अपनी पढ़ाई-लिखाई की बात करता है लेकिन जब मैं उससे खुलने लगता हूं तो बताता है कि कैसे उसकी कोई गर्लफ्रैंड नहीं होने पर और बच्चे उसका मजाक उड़ाते हैं। मतलब बच्चे की कोई गर्लफ्रैंड नहीं है तो उसकी कोई पर्सनालिटी ही नहीं है। दस साल का एक बच्चा, मेयो कॉलेज, अजमेर में पढ़ता है। रोते हुए बताने लगा कि सब खत्म हो गया भइया, मेरा तो ब्रेकअप हो गया। बताइए दस साल, बारह साल में बच्चे ब्रेकअप को झेल रहे हैं और उनमें जिंदगी के प्रति एक अजीब ढ़ंग का असंतोष है। एक ने कहा क्या होगा अब पढ़कर और नंबर लाकर, जिसके लिए पढ़ता रहा साली वो ही दगा दे गई।इसी उम्र में डिप्रेशन, जिंदगी के प्रति अरुचि। कितनी खतरनाक स्थिति है।
सारे चैनल टैलेंट हंट के दौरान स्टेज पर अफेयर को खूब खाद-पानी देते हैं और अपने हीमेश जी एक बंदे को प्यार के लिए प्रमोट करते हैं, उसके प्यार की खातिर वोट मांगते हैं। क्यों भाई, क्या साबित करना चाहते हो आप। कभी ब्च्चों के उपर इसका सोशियोलॉजिकल स्टडी किया कि आपके इस छद्म कल्चर को बढ़ावा देने से बच्चों पर क्या असर पड़ता है। इसी बीच जब कोई बच्चा सोसाइड कर ले तो फिर न्यूज चैनलवाले विशेषज्ञों की पूरी पैनल बिठा देगें। कभी अपने उपर भी रिसर्च कर लो।
अच्छी बात है कि आप देश भर में भटक-भटककर बच्चों को खोजते हो, उसे ट्रेंड करते हो लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं कि टीवी की दुनिया में घुसते ही वो बच्चा रह ही न जाए, उसका बचपन ही चला जाए। और इधर जो बच्चे टीवी से बाहर हैं वो अपने को किसी लायक समझे ही नहीं। उसके दिमाग में बस एक ही बात चलती रहे कि चुन लिए जाते तो खूब सारी गर्लफ्रैंड मिलती और फिर ऐश......। पढ़ने से क्या मिल जाएगा, इस कॉन्सेप्ट को इतनी बरहमी से मत बढ़ाओ, आपको कोई अधिकार नहीं है कि आप देश के इन नौनिहालों का भविष्य इतना डार्क बना दें।
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जरा बच के, मां-बहन भी पढ़तीं हैं ब्लॉग पढ़कर मेरे एक डॉक्टर साथी डॉ. रुपेश श्रीवास्तव ने तुरंत पोस्ट डाला कि आप राय-सलाह मत दिया करें और फिर भड़ास यानि दिमागी उल्टी का वैज्ञानिक विश्लेषण किया-
उल्टी करने वाले पर आप शर्त नहीं लगा सकते कि उसमें दुर्गंध न हो । एक चिकित्सक होने के नाते बता देना चाहूंगा अन्यथा न लें ,माता जी और बहन जी को भी कहें कि अगर किसी को गरियाना चाहती हों तो भड़ास पर आकर गरिया लें मन हल्का हो जाने से तमाम मनोशारीरिक व्याधियों से बचाव हो जाता है ;ध्यान दीजिए कि यह भी एक विचार रेचन का अभ्यास है ,"कैथार्सिस" जैसा ही या फिर ’हास्य योग’ जैसा
लेकिन मेरी बात को उन्होंने सुझाव या ज्ञान समझ लिया जबकि था ये व्यंग्य। मैं उनसे ज्यादा बड़ा कमिटेड भड़ासी हूं, ये बताने के लिए पोस्ट पेश कर रहा हूं-
हिन्दी में जब ये कवि ने लिखा कि-
स्त्री के निचले हिस्से में
फूलबगान
बाकी सब जगह शमशान।।।

तो उस समय के आलोचकों ने उन्हें खूब गरिआया, लात-जूते मारे और बाद तक गरियाने के लिए अपने मठों के आलोचक के नाम पर लूम्पेन छोड़ गए। अभी भी ऐसे लूम्पेन उनकी कविता या उन जैसे कवियों की कविता पर नाक-भौं सिकोड़ते नजर आ जाएंगे. लेकिन दो साल पहले मेरे एक सीनियर ने बड़ी हिम्मत करके इन पर रिसर्च किया और बाद में जब किताब लिखी तो पहली ही लाइन लिखी कि- राजकमल चौधरी जीनियस कवि हैं। दमदमी माई ( अपने हिन्दू कॉलेज की देवी जो वेलेंटाइन डे के दिन प्रकट होती है और उस दिन प्रसाद में लहसुन और कंडोम बांटे जाते हैं) की कृपा से किरोड़ीमल कॉलेज में पक्की नौकरी बतौर लेक्चरर लग गए। किताब के लोकार्पण के समय उन्होंने कहा भी कि जब वो काम कर रहे थे तो लोग उनके कैरेक्टर को लेकर सवाल किए जा रहे थे मानो इस कवि पर काम करने लिए भ्रष्ट होना जरुरी है, एक-दो ने तो पूछा भी था कि कभी जाते-वाते हो कि नहीं। लेकिन इधर देख रहा हूं कि ऐसी भाषा लिखनेवालों की संख्या और रिडर्स की मांग बढ़ रही है। राही मासूम रजा ने तो पहले ही कह दिया कि अगर मेरे चरित्र गाली बोलेगे, बकेंगे तो मैं गाली लिखूंगा और देखिए बड़े आराम से हरामी शब्द लिखते हैं। तो क्या मान लें कि अब भाषा के स्तर पर समाज भ्रष्ट होता जा रहा है. अगर मुझे ऐसा लिखने के लिए, दंगा करवाने के लिए कोई पार्टी या संगठन पैसे देती तो सोचता भी, फिलहाल अपने खर्चे पर वही लिखूंगा, जो तथ्यों के आधार पर तर्क बनते हैं।
पहली बात तो ये कि अगर हमने कहीं गाली लिख दिया या फिर पेल दिया तो लोग उसे सीधे हमारे चरित्र से जोड़कर देखने लग जाते हैं। अगर अच्छे शब्दों और संस्कृत को माई-बाप मानकर हिन्दी बोलने वाले लोगों से देश का भला होना होता तो पिर मंदिरों में कांड और महिलाओं के साथ बाबाओं की जबरदस्ती तो होती ही नहीं और अपने आइबीएन 7 वाले भाईजी लोग परेशानी से बच जाते। अगर ऐसा है तो हर रेपिस्ट की अलग भाषा होती होगी और संस्कृत बोलने वाला या फिर उसके नजदीक की हिन्दी बोलने वाला बंदा कभी रेप ही नहीं करता। इसलिए ये मान लेना कि ले ली के बजाय आस्वादन किया बोलने से समाज का पाप कमेगा, बेकार बात है और बॉस ने ड़ंड़ा कर दिया बोलने से हम भ्रष्ट हो गए, बहुत ही तंग नजरिया है।
ऐसा वे सोचते हैं जो सालों से वही पोथा लेकर बैठे रहे अपनी मठ बनाने में और अब बचाने में लगे रहे और जब भाषा उनके हाथ से छूटती चली गई तो शुद्धता के नाम पर हो-हल्ला मचा रहे हैं। ये भाषा के नाम पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। कईयों की तो ऐसी हिन्दी सुनकर ही उनके कमीने होने की बू आने लगती है।
और सवाल गालियों फिर तथाकथित अश्लील होने की है तो ये हमारी दिमागी हालत पर निर्भर करता है।
मेरी एक दोस्त अपने बॉस पर गुस्सा होने पर कहा करती है, मैं तो उसकी मां...... दूंगी, अब बताइए संभव है। कॉलेज की एक दोस्त जब हमलोग कहते मार्च ऑन तो वो पीछे से कहती वीसी की मां चो..। और कहती हल्का लगता है विनीत, ऐसा करने से।
मेरे रुम पार्टनर ने मेरे न चाहने पर भी तीन महीने तक एक गेस्ट को रखा और मैं परेशान होता रहा। लेकिन जब भी वो मुझे दिखता मन ही मन धीरे से कहता- साला भोसड़ी के और तत्काल राहत मिलती। इसलिए अब भाषा पर जो काम हो रहे हैं और उससे जो काम लिया जा रहा है उसमें शब्दों के अर्थ लेने से ज्यादा जरुरी है उन शब्दों को लेकर मानसिक प्रभावों पर चर्चा करना, लोग गाली लिखने वालों के लिए भी जगह बना रहे हैं, दे रहे तो इसलिए कि वे उनका कमिटमेंट देख रहे हैं उनके लिखने से उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर रहे और इस अर्थ में आज का समाज पहले से ज्यादा समझदार हुआ है और ज्यादा बेहतर व्यक्त कर रहा है। जिस लड़की की आवाज को मठाधीशों ने जमाने से दबाए रखा, आज वो अपने बॉस को चूतिया, कमीना, रॉस्कल और हरामी बोलती है तो वाकई अच्छा लगता है, मैं तो इसे भाषा में एक नए ढ़ग का सौन्दर्यशास्त्र देखता हूं।इसलिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम करते-करते अपने बारे में ही कहता है कि मैं तो बड़ा ही चूतिया आदमी हूं और जब कोई मेरे बारे में कहता है कि बड़ा ही हरामी ब्लॉगर है तो अच्छा लगता है कि पब्लिक को मेरी इमानदारी पर शक नहीं है, मैं बेबाक लिख रहा हूं।
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भाई हमने तो अपना मामला नोट्स से हटाकर यूआरएल लिंक तक पहुंचा दिया। पहले जो जूनियर्स नोट्स या किताब मांगते थे अब वे मेरे ब्लॉग का लिंक पूछते हैं, धीर-धीरे ब्लॉग की दुकान जम रही है।
परसों ही एक जूनियर मेरे ब्लॉग का लिंक लिखकर ले गई और आज मिलने पर बताया कि अच्छा लिखते हैं सर आप। मैंने तो मम्मी को भी दिखाया। मैं मन ही मन खुश हो रहा था कि अच्छा है दिल्ली की आंटी लोग जो कि मां के बहुत दूर होने की वजह से मां ही लगती है, इम्प्रेस होगी और कभी खाने पर बुला लिया तो एक पोस्ट की मेहनत तो सध जाएगी, सो पूरे ध्यान से उसकी बात सुन रहा था। लेकिन आगे उसने जो कुछ कहा उससे मेरे सपने तो टूटे ही, आगे के दिनों के लिए चिंता भी होने लगी। जूनियर का कहना था कि सर मैं अपनी मम्मा को आपका ब्लॉग पढ़ा रही थी कि अचानक एक लाइन आ गयी। आपने लिखा था कि- हिन्दी की ही क्यों लेने लगते हो। मम्मा ने कहा ऐसा लिखना ठीक नहीं है, ऐसे नहीं लिखना चाहिए और फिर उठकर वहां से चली गई। मैं समझ गया कि आंटी ने इस शब्द को अश्लील समझा।
इधर वीचैनल को लगातार देख रहा हूं। उस पर एक कैंपस शो के लिए एड आती है जिसमें लाइन है- किसकी फटेगी। आंटी इसका अर्थ भी उसी हिसाब से लगा सकती है और चैनल को अश्लील कह सकती है। मुझे याद है मैं अपने कॉलेज के दिनों में खूब एक्टिव रहा करता था- क्या डिवेट, क्या प्ले। करता भी और कराता भी और हांफते हुए अपनी मैम के पास पहुंचता और मैम पूछती कि क्या हुआ तो अचानक मेरे मुंह से निकल जाता मैंम सब तेल हो गया या फिर मेरे दोस्त राहुल ने स्पांसर्स का केला कर दिया और मैम मेरे कहने का मतलब समझ जाती।
एफएम में आए दिन आपको ऐसे शब्द सुनने को मिल जाएंगे। तीन-चार दिनपहले ही तो रेडएफएम पर बज रहा था जब इंडिया ने पर्थ में परचम फैलाया था- मैं भज्जी, आपका हरभजन सिंह रेड एफएम 93.5 बजाते रहो, किसकी पता नहीं। अब तक तो यही समझ रहे थे किरेड एफएम बजाते रहना है, अभ समझ रहे हैं कि आस्ट्रेलिया जैसी जीम को बजाते रहना है और फिर धीरे-धीरे एक मुहावरा बन जाता है कि यार उसकी तो बजा कर रख दूंगा। मेरा दोस्त कहा करता है उसकी तो मैंने रेड लगा दी, हम मतलब समझ जाते हैं लेकिन कभी भी अश्लील अर्थ की तरफ नहीं जाते।
पॉपुलर मीडिया में शब्दों की तह तक जाने की बात नही होती, लोग संदर्भ के हिसाब से उसका मतलब समझ लेते हैं, खुलापन सिर्फ जीने के स्तर पर नहीं आया है। व्हीस्पर का एड देखिए हर लड़की एक दूसरे के कन में दाम घटने की बात करती है बावजूद इसके हम सुन लेते हैं और फिर सुनेगें नहीं तो बिकेगा कैसे।
आंटी के मेरी पोस्ट को देखने पर उठकर जाना पड़ा और मैं सोचने लगा कि वाकई कैंपस में बोली जानेवाली इस भाषा पर विचार करने की जरुरत है। ये भाषा के स्तर पर संस्कारी होने का मामला है, अच्छा बच्चा होने का आग्रह है या फिर बदलती बिंदास हिन्दी को नहीं बर्दास्त कर पाने का हादसा। फिलहाल लड़की ने मेरा हौसला बढ़ाया कि सर आप लिखिए- मैंने तो मम्मा को बताया कि हिन्दी में लोग अब ऐसे ही लिखते हैं।
अपने ब्लॉगर साथियों से तो इतना ही कहूंगा कि भाई लोग आपलोग जो इतना धुंआधार गालियां लिखते हो, जरा चेत जाओ। पहले चेक कर लो कि ये मां-बहन के पढ़ने लायक है भी या नहीं।
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यूपी और बिहार के भायजी लोग आपको देश के किसी भी हिस्से में शादी करने-कराने का शौक है करो, आपको कोई नहीं रोकेगा लेकिन टेलीविजन पर तो सिर्फ पंजाबियों की शादी होगी। और बहुत हुआ तो राजस्थानियों और मारवाडियों की। ऐसा कहके मैं कोई जातीय विभाजन की बात नहीं कर रहा बल्कि सोप ओपेरा की एक बड़ी सच्चाई की ओर इशारा करना चाह रहा हूं।
पिछले दो दिनों में मैंने सात शादियां देखी, टेलीविजन पर और अंत में समापन किया शादी की तैयारी और क्लिनिक ऑल क्लियर के मंडप यानि शाब्बा शाब्बा से। ये एनडीटीवी का एक रियलिटी शो है जिसमें जो बचेगा वो मंडप पर बैठेगा और जो निकल जाएगा वो कन्या दान करने के लिए बैठेगा। पूरे प्रोग्राम का गेट बिल्कुल शादी की तैयारियों जैसी है। यहां तक कि यहां आकर आपको नंबर मिलेंगे वो मार्कर भी दूल्हा-दूल्हन की रिप्लिका है। मैं शाब्बा शाब्बा का मतलब नहीं जानता लेकिन इतना समझ गया कि हर ब्रेक के पहले और बाद में शाब्बा-शाब्बा बोलना है।
इसी तरह आप दूसरे स्टफ में भी देख सकते हैं-शादियां होती है तो लड़का एकदम से पंजाबी गेटअप में, लोग-बाग मारवाडियों वाली चुनरी और साफा बांधे तैयार। आप कोई भी शादी देखें आपको सिर्फ तीन ही राज्य याद आएंगे। पंजाब, गुजरात और बहुत हुआ तो राजस्थान। क्यों बिहार और यूपी के लोग शादी नहीं करते या फिर नागालैंड, बंगाल और असम के लोग शादी नहीं करते। ऐसा नहीं है। करते हैं भई लेकिन इन राज्यों के हिसाब से शादी दिखाए जाने का क्या तुक बनता है। एक तो वजह आप बता सकते हैं जो कि चड़्ढा-चोपड़ा के सिनेमा के लिए भी कहते हैं कि पैसा उनका लगा तो क्या दिखाएंगे उनके कल्चर को. एक वजह आप ये भी कह सकते हैं कि भाई साहब टेलीविजन का ध्यान गांवों के लोगों को अपनी ओर खींचने का नहीं है, उतने पैसे में ही इन्हें विदेशों में ब्रॉडकॉस्ट करने की लाइसेंस मिल जाएगी। एनआरआई देखेंगे और मोटा माल इन्वेस्ट करेंगे। इस बात में दम है क्योंकि ये चैनल भारत की संस्कृति को अगर सचमुच में है तो इस रुप में पेश करते हैं कि उसे कोई एनआरआई ही पचा सकता है। यहां पीड़ा अफेयर के टूटने पर होती है, आंसू पति रोहन के किसी और की बांह में देख लेने से होती है और 7 साल की निक्की का भी व्ऑय फ्रैंड है।
इधर मैं दो-तीन सालों से देख रहा हूं कि यूपी और बिहार का कोई भी दोस्त शादी करता है तो सूट पसंद करने नहीं ले जाता उसका जोर शेरवानी पर होता है और वो भी डिजाइनर या भड़काउ। एक वुटिक की भाभी मुझे जानती है, लहंगे पर कम कर देती है सो एक-दो दोस्त भी गई है। वो भी शादी में साडी नहीं पहनना चाहती। बिहार-यूपी में लोग शादी के वक्त तसर सिल्क का कुर्ता या इधर शर्ट- पैंट पहनते आए हैं लेकिन अब शेरवानी का चलन बढ़ा है। गमछा तो समझिए गायब ही हो गया। पांच साल की बच्ची फ्रांक छोड़कर लंहगा खोजती है। ये तो बात सिर्फ पहनने की हुई।
बिहार में बड़े से बड़े घरों में शादी में आलू- परवल की सब्जी और मिठाई के नाम पर बूंदिया, गुलाबजामुन या फिर रसगुल्ला हुआ करता था. अब जाइए आइसक्रीम से लेकर पेस्ट्री तक मिल जाएंगें। एक वजह तो हो सकती है कि दिल्ली में रहने का असर है लेकिन ठेठ बिहार में पंजाबी पॉप का क्या मतलब बनता है, आप इसे सही-गलत के हिसाब से न लें। इसे ऐसे समझें कि हरेक प्रांत के कल्चर और लाइफ स्टाइल वहां मौजूद साधनों के हिसाब से निर्मित होते हैं. जो चीज जहां ज्यादा होती है वो वहां की संस्कृति का हिस्सा बन जाती है लेकिन इधर आप देखेंगे कि जो चीज है उसे नकारकर जद्दोजहद करके सामान जुटा रहे हैं. लोहरदग्गा में लाल साग छोड़कर कोलकाता से सरसों का साग आ रहा है और सात-आठ बनिए की दुकान पर मक्के का आंटा खोजा जा रहा है।
आप इस बात को मानिए, भारतीय दर्शक कन्फ्यूज्ड है और देखा-देखी करने के गुण जन्मजात मिले हैं। आप जो टीवी पर दिखा रहे हैं उसके हिसाब से वही कल्चर है और वैसी ही शादी करने में बडप्पन है जबकि बिहार के लोग भी अपने ढंग से शादी करते आए हैं। इसलिए अगर आप लंहगा, शेरवानी और पनीर की खपत के लिए पूरे टेलीविजन पर एक कल्चर यानि एनआरआई कल्चर थोपना चाह रहे हैं, जिसका रिपीटेशन इतना अधिक है कि मुझे सारी रश्में याद हो गयी हैं तो और बात है लेकिन शादियां, बिहार, बंगाल और असम के भी लोग करते हैं और वो भी एक कम्प्लीट कल्चर के तहत।.....
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नामवर सिंह से घोर असहमति

Posted On 9:51 pm by विनीत कुमार | 9 comments


मेरे लिए ये दूसरा मौका था जब नामवर सिंह ने कहा कि मैं रचना तो पढ़कर नहीं आया सो मैं इस पर बात नहीं कर सकूंगा। हो सकता है नामवरजी ने इधर नई विधा विकसित कर ली हो कि जिस रचना पर बोलने जाना है उसे पढ़कर ही मत जाओ और पहले ही ये बात श्रोताओं के सामने साफ कर दो। हिन्दी के कार्यक्रमों में कम ही जाना होता है इसलिए इस बारे में ज्यादा अनुभव नहीं है। रचना पढ़कर नहीं आते और ये मंच से कहते भी हैं तो एक घड़ी को लगता है कि आदमी में इतनी ईमानदारी तो है कि सीधे-सीधे एक्सेप्ट कर रहा है, मन में आदर का भाव पैदा होता है लेकिन आगे जो कुछ भी कहते हैं उससे लगता है कि ये आदमी साफ-साफ एक स्ट्रैटजी के तहत ऐसा करता या कहता है। क्योंकि हर बार आगे कह जाते हैं कि कुछ आलोचकों में ये प्रतिभा होती है कि वे बिना रचना पढ़े घंटे-आध घंटे तक बोल जाते हैं, मुझमें ये प्रतिभा नहीं है। माफ कीजिएगा नामवरजी मैंने अपने जानते डीयू के हिन्दी विभाग या फिर सराय में ऐसे लोगों को व्याख्यान देते हुए नहीं सुना है जो कि बिना पढ़े-लिखे चले आते हैं। ये अलग बात है कि वे आपके जैसे विद्वान नहीं होते। इसलिए बार-बार आप जो ये बात कह जाते हैं उसका कोई कॉन्टेक्सट ही नहीं बैठता। आप भी पढ़कर नहीं आते और बोलते तो हैं ही. लेकिन उन लोगों पर पहले ही कोड़े बरसाकर आप उनसे अपने को अलग कर लेते हैं। ये अपने ढ़ंग की हेजेमनी है, अपने को बेहतर समझने का बोध। आप हमेशा ये मान कर चलते हैं कि मैं रचना न पढ़कर भी जो कुछ बोलूंगा वो रचना पढ़कर बोलने वालों से भारी पड़ जाएगा।
दूसरी बात जो मुझे लगती है कि आप इसलिए भी रचना पढ़कर नहीं आने की बात करते हैं क्योंकि आपकी ये स्ट्रैटजी होती है कि ऐसा करने से आपको जो मन आए बोलने की छूट मिल जाएगी और हिन्दी समाज तो मान ही रहा है आपको हिन्दी की दुनिया का अमिताभ बच्चन। लेकिन आप उसी गंदी हरकत के शिकार हैं जिसका कि अक्सर हिन्दी के स्टूडेंट होते हैं। पूछा कुछ भी जाए वो वही लिखेगा जो वो लिखना चाहता है। उसके दिमाग में होता है कि मास्टर छांटकर नंबर दे ही देगा।
ये सही बात है कि आपका कद इतना तो है कि आप कुछ भी बोलेंगे सुर्खियों में आ जाएगा या कुछ नहीं भी बोलेंगे सिर्फ आ ही जाएंगे तो आपकी तस्वीर लगेगी और बाकी बातें रिपोर्टर्स अपने हिसाब से कर लेगा। चैनल वाले विजुअल्स आपके दिखाएंगे और वक्तव्य आपसे छोटे( मेरे हिसाब से कोई छोटा नहीं) लोगों के या फिर वीओ चला देगा। हिन्दी मीडिया तो आपके लिए इतना तो कर ही सकता है।
नामवरजी आपको नहीं लगता कि अपने पहले ही लाइन में आप रचना पर बातचीत करने से निकल जाते हैं। कल ही आपने क्या किया- नाम पर अड़ गए कि बहरुपिया शहर नाम ही भ्रामक है, गुमराह करने वाला है। उसके बाद आप सराय और अंकुर के नाम की समीक्षा करने लग गए। पता नहीं आपको ये सब अटपटा क्यों नहीं लगा। आप जब बोल रहे थे तो कहीं से नहीं लग रहा था कि आप रचना पर बात करने आए हैं. ये मैं सिर्फ हिन्दी में ही देखता हूं कि यहां डिस्कशन या वक्तव्य के नाम पर भाषणबाजी होती है और बाहर लोग वाह नामवर वाह नामवर करके निकलते हैं गोया आपने अंदर आलोचना नहीं कविता पाठ किया हो। ये पहली दफा मेरे साथ हुआ कि मैं आपकी अधूरी बात के बीच ही निकल गया। क्योंकि मुझे लगने लगा कि आपने ये ट्रैंड बना लिया है कि पाठ पर बात करने के समय ऐसा ही करना है। अच्छा अगर आप विजी रहा करते हैं तो फिर इस बडप्पन से कैसे घोषणा कर दी कि अब तक तो इस किताब को देखा नहीं था लेकिन आज पूरी किताब पढ़कर ही सोउंगा। ताली पिटवाने की कला के तो हम पहले से ही कायल हैं। लेकिन जमाना बदला है गुरुदेव अब लोग कंटेंट भी खोजने लगे हैं और उसके नाम पर आपने सिर्फ इतना ही कहा लेखकों से कि राजभाषा या फिर शुद्ध हिन्दी में मत लिखने लग जाना। आज कौन नहीं जानता कि रॉ में लिखना ज्यादा सही होता है। अस्मिता विमर्श पूरी तरह इसी राइटिंग पर टिका है। आपने नया क्या कह दिया।
हम आपसे सिर्फ इतना ही कहना चाहते हैं कि हिन्दी में सबसे श्रेष्ठ हैं और रहेंगे भी क्योंकि उमर भी कोई चीज होती है। लेकिन आप इस बात को मानिए कि अब बोलने की शैली पर मंत्रमुग्ध होनेवाली ऑडिएंस की संख्या घटी है वो कंटेंट भी चाहती है, जिसके लिए आप जब तब लोगों को निराश कर देते हैं।
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कल के कार्यक्रमों की रुपरेखा इस प्रकार थी-
'बहुरूपिया शहर'के 20 लेखकों को पुरस्कार महोदय,आपको यह जानकर हर्ष होगा कि राजकमल प्रकाशन द्वारा (अंकुर ःसोसायटी फॉर आल्टर्नेटिव्ज़ इन एजुकेशन तथा सराय, सीएसडीएस की साझीदारी में) प्रकाशित पुस्तक 'बहुरूपिया शहर' के सभी 20 लेखक को कृष्णा सोबती ने अपनी पहलक़दमी पर पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है।'बहुरूपिया शहर' के लेखक वे 'युवा लेखक' नहीं हैं जिन्हें आप आम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ते हैं, ज़िन्दगी की पाठशाला में सीधे ज़िन्दगी से सीखने-पढ़ने वाले ये वे लोग हैं जिन्होंने क़लम को शौक़ नहीं, ज़रूरत के तौर पर पकड़ा है। इसलिए हमारी विशिष्टतम कलमकार कृष्णा सोबती ने इस पर एकदम नए ढंग से प्रतिक्रिया की और यह निर्णय लिया। कार्यक्रम 21 जनवरी, 2008 को शाम 4:30 बजे, सराय, सीएसडीएस29 राजपुर रोड, दिल्ली-54 में आयोजितकिया जाएगा।अध्यक्षता : डॉ. नामवर सिंहवक्ता : श्री अपूर्वानन्द( नोट : कार्यक्रम स्थान सिविल लाइंस मेट्रो स्टेशन के समीप हैं।)आप सादर आमन्त्रित हैं।भवदीयअशोक महेश्वरी(प्रबन्धक निदेशक) दिनांक : 16 जनवरी, 2008 --
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रामायण की कथा टीवी पर शुरु होते ही हमारे घर में झाडू की खपत बहुत बढ़ गयी थी। मां खोजती रहती लेकिन कभी मिलती नहीं। हम सारे भाई-बहन तीर बनाते और स्कूल से आते ही अपना नाम भूलकर रामायण के पात्र बन जाते। एक दूसरे के मिजाज के हिसाब से पाट बंटता। तभी हमने जाना था कि आंख के इलाज के लिए अपने शहर में अलग से एक हॉस्पीटल है। मेरे एक पड़ोसी दोस्त नीरज की आंख में झाडू की सीक चुभ गयी थी और उसका वहां इलाज चल रहा था। मां का कहना एकदम साफ था कि उसने रावण बनकर भगवान राम पर तीर चलाया इसलिए ऐसा हुआ और हम बच्चों को हिदायत देती- रामायण खेलना लेकिन रावण फैमिली का पाट मत लेना भले ही बानर बनना पड़ जाए।
हमारे घर में टीवी भी नहीं थी। दूसरे के घर देखने जाते। लेकिन जहां हम जाते वहां के लोग रामायण खत्म होते ही हमें बाजार से कुछ लाने भेज देते और दीदी को घर के छोटे-मोटे कामों में फंसा लेते। कुछ नहीं हुआ तो बच्चे के साथ खेलने का काम। बात पापा तक गयी और हमलोगों को खूब डांटा कि -कोई जरुरत नहीं है रामायण देखने की, मर नहीं जाओगे नहीं देखने से। मैं घर में छोटा था और कमजोर भी लेकिन थोड़ा विरोधी किस्म का। चट से स्कूल बैग लाया और एक किताब निकालकर दिखाया कि देखिए रामायण अपने कोर्स में है और टीवी से बात सही तरीके से समझ में आती है। फिर हडकाते हुए बोला- अगर आप टीवी नहीं खरीदते तो हममें से कोई भाई-बहन दूकान में आपका खाना पहुंचाने नहीं जाएंगे। घर में टीवी आ गयी। और मेरे जैसे कई लोग उस बड़े घर में टीवी देखकर त्रस्त हो चुके थे हमारे यहां आने लगे। पूरा कमरा भर जाता और खत्म होने पर ऑडिएंस को रामभक्त जानकर मां चाय पिलाती। रविवार नौ से दस तक सड़को पर कोई दिखाई नहीं देता. उस समय लोगों के रविवार की रुटिन रामायण से तय होती थी। ये जीवन-शैली और कल्चरल कॉन्टेस्ट का हिस्सा हुआ करता था।
बीस साल बाद एनडीटीवी इमैजिन आज फिर रामायण लेकर आ रहा है। रात के साढ़े नौ बजे ऑन एयर होगा। सारे चैनलों का स्लग है-लौट आए राम। न्यूज चैनलों पर स्पेशल भी चल रहा है । एनडीवी का दावा है कि राम का नाम लेते ही अरुण गोविल का जो चेहरा याद आ जाता है उसे यह रामायण रिप्लेस करेगा.
लेकिन हमलोग साहित्य लिखने-पढ़ने वाले जब भी किसी रचना पर बात करते हैं जैसा कि रामायण भी हमारे लिए एक टेक्स्ट ही है तो उसे समझने का एक तरीका ये भी अपनाते हैं कि रचना चाहे कितनी भी पुरानी क्यों न हो समकालीनता के सवालों और चुनौतियों को वो किस रुप में देखता-समझता है. इस बीस साल में कितना कुछ बदला है- बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया, हिन्दुओं का एक तपका जिसकी संख्या दुर्भाग्य से अधिक है ने जश्न मनाया। अक्षरधाम पर हमले हुए और फिर बनारस पर भी हमला। रामभक्तों ( देश में एक पार्टी हैं जिनके पास नापने की मशीन है कि कौन रामभक्त है) को बुरा लगा। जय श्री राम पर एक ग्रुप का पेटेंट हो गया। इधर रामसेतु परियोजना को लेकर हंगामा हुआ। चैनल की भाषा में कहें तो- दहक उठा देश। वीजेपी के राजनीति के कटोरे में फिर सरकार ने मुद्दा डाल दिया और अब इसी बूते सत्ता में आने की बात होने लगी है।इन सबके बीच श्रीलंका सरकार ने रिसर्च की सीडी जारी की है औऱ रावण के पांच हवाई अड्डों सहित पचास ऐसे ठिकानों को खोज निकाला है जिसके संदर्भ रामकथा से जुड़ते हैं और दर्शकों या फिर रामभक्तों के लिए मतलब के हो सकते हैं। अपने प्रसूनजी समय पर खोद-खोदकर जानकारों से पूछते रहे कि- आपको नहीं लगता कि ये सिर्फ टूरिस्ट को बढ़ावा देने के लिए किया जा रहा है, आस्था को बाजार में कन्वर्ट किया जा रहा था। वीएचपी के बंदे का जबाब था ऐसा करके श्रीलंका सरकार ने हमारे दावे को मजबूत किया है कि राम का अस्तित्व था। बाकी बाजार के लिए तो राम से जुडी कोई भी चीज तर माल तो है ही, एकदम कमाउ आइटम।
इधर गणेश- ओ माई फ्रैंड गणेशा हो गए और हनुमान सीबीएससीइ के कोर्स की पढ़ाई करने स्कूल जाने लगे हैं, हमारी तरह होमवर्क करने लगे हैं, पहले की तरह चमत्कारी न होकर मानवीय होते जा रहे हैं और सॉफ्ट भी, कोई कॉन्वेंट का अदना बच्चा उन्हें हड़का सकता है।
सेज है, दो महीने में बजट आनेवाला है, लखटकिया आ गयी है, परमाणु करार का मसला है। रावण के हवाई अड्डे जब श्रीलंका में रावण के हवाई अड्डे हैं तो अपने यहां तो कम से कम राम के पोर्च या गैराज होंगे ही इस पर खोज होना है। एनडीटीवी को लेफ्ट का चैनल मानकर राइट विंग के लोग जब-तब हमले करते रहते हैं। मतलब काफी कुछ आज से बीस साल पहले से अलग है और इन सबके बीच एनडी के राम आ रहे हैं तो ये समझा जाए कि पहले की रामायण कि पहले रामायण देखो फिर काम पर जाओ और अब कि पहले काम कर लो तब रामायण देखो फिर से एक कल्चरल कॉन्टेक्स्ट पैदा करेगा। फिलहाल विज्ञापन को देखते हुए आज के दिन को राष्ट्रीय रामायण दिवस मानने में कोई फजीहत तो नहीं क्योंकि बाजार में तो सब कुछ पॉलिटकिली करेक्ट है जैसे एनडी का रामायण दिखाना।
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गर्व से कहो, नहीं जानते हिन्दी

Posted On 10:04 am by विनीत कुमार | 7 comments

संघनक का मतलब है सनग्लास, व्ऑय फ्रैंड, कैलकुलेटर या फिर फैक्स मशीन और दूरभाष यंत्र का मतलब होता है स्पीड पोस्ट, लेटर य़ा फिर ट्रैफिक।
हिन्दी का ज्ञान बढाने के लिए चैनल [ v] पर एक प्रोग्राम आता है- वीआईक्यू। वीजे लोगों से किसी हिन्दी शब्द का मतलब पूछता है जैसे लौहपथगामिनी और जिसमें ज्यादातर लोग सुनकर ठहाके लगाते हैं, लड़कियां व्हॉट बोलती है, मुंह बनाती है या फिर उपर जैसा लिखा है, उस तरह कुछ भी बोल जाती है। लड़के भी ऐसा ही करते हैं। इस तीन से चार मिनट के कार्यक्रम में आपको अंदाजा लग जाएगा कि चैनल किसी भी तरह से लोगों का हिन्दी के प्रति ज्ञान नहीं बढ़ा रहा या बढ़ाना चाह रहा है बल्कि हिन्दी के नाम पर ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर रहा है जिसे कि हिन्दी बोलने वाले भी लोग इस्तेमाल नहीं करते। अब आप ही बताइए न, हममें से कितने लोग सिगरेट को धूम्रदंडिका बोलते हैं। किसी के नहीं बताने पर वीजे उसका अर्थ बताता है।
अच्छा हिन्दी का मतलब नहीं जानने पर किसी को संकोच, शर्म या फिर उदासी नहीं आती कि वे भारत में रहकर हिन्दी नहीं जानते। इसे वे स्टेटस के तौर पर लेते हैं कि उन्हें हिन्दी नहीं आती। यू नो आई मीन बोलकर उनका काम चल जाएगा। तंगी के दिनों में मैंने कॉन्वेंट के कई स्टूडेंट को हिन्दी की ट्यूशन दी है। पहले ही दिन उसकी मां या फिर खुद वो बड़े ही गर्व से बताता कि हिन्दी में थोड़ वीक है लेकिन बाकी के पेपर में तो....जीनियस। मतलब ऐसे समझाए जाते कि बाकी पेपर में जीनियस होने या फिर कुछ कर गुजरने के लिए हिन्दी में वीक होना जरुरी है।
मिडिल क्लास या फिर लोअर मिडिल क्लास में जाइए और आप पूछें कि आपका लड़का किस क्लास में है तो पहले बताएंगें, इंगलिस मीडियम में है और फिर क्लास। मैं कोई एमपी सरकार का आदमी नहीं हूं कि हिन्दी, संस्कृत और साथ में सरस्वती वंदना आप पर लाद दूं लेकिन इस मानसिकता को बढ़ावा देना कि अगर आप हिन्दी नहीं जानते तो आप हाई सोसाइटी से विलांग करते हैं और इससे आपके मिडिल क्लास में होने की सारी विडम्बनाएं खत्म हो जाएगी, सरासर गलत है। आप बोलिए न अंग्रेजी, कौन मना कर रहा है, मत बोलिए हिन्दी। लेकिन हिन्दी ज्ञान के नाम पर आप हिन्दी की ही लेने पर क्यों तुले हैं। आपकी औकात है तो फिर वीटीवी या फिर एमटीवी को अंग्रेजी में चला क्यों नहीं लेते। अपने को शहरी और इलिट बताने के लिए ये जरुरी है क्या कि आप हिन्दी के टिपिकल शब्द खोज कर लाएं जो कि प्रैक्टिस में भी नहीं है और इमेज बनाएं कि ऐसी होती है हिन्दी, हार्ड, कोई समझ ही नहीं पाएगा आपकी बात और फिर कोड़े बरसाने शुरु कर दें। ये तरीका ठीक नहीं है। आप हिन्दी भाषा के प्रसार के लिए कुछ कर नहीं कर सकते तो रहम करके उसकी गलत छवि बनाने का खेल न करें।
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जिनकी पैदाइश दिल्ली में नही हुई जो देहलाइट नहीं है, पढाई या फिर नौकरी बजाने दिल्ली आ पहुंचे हैं, उनके कंधे पर हमेशा दो गठरी होती है. एक गठरी जहां से बंदा आया है वहां की और एक दिल्ली की। जब वो दिल्ली में होता है तब अपने डगमगपुर या मिर्जापुर की गठरी खोलता है और बात-बात में दिल्ली के लोगों को बताता है कि- अजी यहां क्या मिलेगा, खजूर की ताडी पीनी हो तो कभी मिर्जापुर की ताड़ी का टेस्ट लीजिए, दिल्ली में कहां मयस्सर होगा। और मूंगफली कभी देखी है, डगमगपुर की मूंगफली- य... बड़े-बड़े दाने, दिल्ली में कहां नसीब होगा जी। और जब बंदा अपने गांव जाता है तो दिल्ली की गठरी खुलती है- अरे भाई साहब दिल्ली की बात ही कुछ और है। चौबीसो घंटे पानी, बिजली। अगर आप यूनिवर्सिटी एरिया में है तब तो समझिए मौज है, वहां तो जी लोग रात में ही घूमते हैं, लड़कियां भी साथ में घूमती है। यहां के जैसा नहीं की सांझ के 6 बजे से ही भूत लोटने लगे।
ये बात मैंने इसलिए छेड़ी है क्योंकि कल रात जेएनयू में था। मेरे कई दोस्त बतौर लेक्चरर झारखंड जा रहे हैं। वे राज्य के अलग-अलग हिस्सों में साहित्य का विस्तार करेंगे। किसी की पलामू पोस्टिंग हुई है, किसी की लोहरदग्गा और किसी की तोरपा में। उन्हें पता है वहां भी सांझ के 6 बजे से ही भूत लोटने लगेंगे। लेकिन नौकरी की मारामारी में दिल्ली के बूते सरकारी नौकरी कैसे छोड़ दे। इसलिए अभी से ही दिल्ली की खराबी और कस्बाई जीवन की अच्छाइयों को गिनाना शुरु कर दिया। एक ने कहा दिल्ली में मां-बहन सेफ नहीं है। एक का कहना था आए दिन रोड़ एक्सिडेंट। एक भावुक साथी ने कहा, यार यहां के लोग हमारी फीलिंग्स को समझते ही नहीं है। अच्छा है लोहरद्ग्गा में कम से कम लोग सही ढंग से इज्जत तो देंगे। दो-तीन लड़को को ठोक-पीटकर नेट निकलवा दिया तो इलाके में अपना नाम बज जाएगा। बीएचयू वाले भाई साहब का साफ मानना था कि अगर दिल्ली में आपका अफेयर नहीं है तो ऐसा कुछ नहीं है कि जिसके लिए यहां लगी नौकरी छोड़ी जाए। मेरे बचपन का साथी राहुल तो एकदम से समझिए संन्यास ही ले लिया। बहुत हो गया भाई, एक्डी मैक्डी । अब तो बस कायदे से साहित्य-सेवा करनी है। चार बज गए, रात भर बातचीत होती रही। थोड़ी देर पहले सबको विदा करके आया हूं। ट्रेन खुलते ही सबने चिल्लाया- अरे दोस्त, अब तुम्हारी दिल्ली, तुम ही संवारो औऱ हां शीलाजी को कहना राजधानी में चौकसी बढ़ाए, बहुत लीला- कीर्तन होता रहता है।
बाय.....
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लिंकित मनः अब बिक्री के लिए

Posted On 4:23 am by विनीत कुमार | 17 comments

वर्ल्ड बुक फेयर में हूं। दिल्ली, प्रगति मैंदान के हॉल न. 6 के ठीक सामने। एरो लगा है- हिन्दी के नए साहित्य के लिए यहां पधारे। मैं सीधे हॉल के अंदर पहुंचता हूं।
देखता हूं कि कहीं कोई किताब की स्टॉल नहीं है, न वाणी, न राजकमल, न ज्ञानपीठ और न ही किताबघर। लेकिन मजे की बात कि लगभग सारे स्टॉल पर भीड़ खचाखच भरी है। खरीदारी के लिए मार हो रही है। मैं अकचका जाता हूं, भईया जब कहीं कोई किताब नहीं तो लोग खरीद क्या रहे हैं।
सारे स्टॉल पर पांच-छः डेस्कटॉप या फिर किसी-किसी पर लैपटॉप लगे हैं और प्रिंटर से धड़ाधड़ कागज निकल रहे हैं। दुकानदार कागज गिनकर ग्राहक को दे रहा है और ग्राहक बिल पेमेंट कर रहे हैं।
सारे स्टॉल पर एकदम नए लेकिन जाने-पहचाने लगभग दोस्तों के अपने नाम।
एक स्टॉल के बोर्ड पर लिखा है- मसीजीवी का खुराफाती मन, यहां पढ़ें।
मोहल्ला का चिकचिक औऱ आपका कोना, इन्ट्री लें। नोटपैड का लिखित वर्जन। फुरसतिया का सम्पूर्ण पाठ, यहां से लें। लिंकित मन हो गया है अब किताबी दुनिया में शामिल। रविरतलामी अब चार खंडों में। एक स्टॉल पर गाना बज रहा है, एक भड़ासी, दो भड़ासी, तीन भड़ासी, चार। और अलांउस हो रहा है कीमत सिरफ 60 रुपये, साठ रुपये, साठ रुपये। कस्बा- पढ़ने को मन करता है, यहां से लें। रेडियोनामा की सारी बातें, कीमत 1600 रुपये, डाकखर्च सहित। बिहार का मंजर, हफ्तावार में। अगड़म-बगड़म खरीदें आसान किस्तों पर। इस तरह से अलग-अलग स्टॉलों पर अलग- अलग आकर्षण और ग्राहकों के फायदे का वायदा।
सबसे पहले मैं मसीजवी स्टॉल पर गया और प्रकाशक के मालिक ही मिल गए, अपने विजेन्द्र सर, ब्राउसर लिया और पूछा, सर ये स्टॉल वाले ने तो बहुत पैसे लिए होंगे। उनका जबाब था नहीं रे बचवा, सरकार ने सब्सिडी दी है। 230 रुपये नकद, पासपोर्ट साइज फोटो, आइडी की फोटो कॉपी और अंडरटेकिंग कि आप लिखिए कि आप जीते जी अपना प्रकाशन बंद नहीं करेंगे। तुम इतना तेज बनते हो, पता नहीं चला तुमको, नहीं लगाए अपना स्टॉल, रुको कहीं कुछ देखता हूं।
उसके बाद पहुंचा मोहल्ला जहां से मेरी भी कुछ रचनाएं छपती है। देखा वहां सुंदर-सुंदर रिपोर्टर प्रकाशक की बाइट ले रहे हैं। मोहल्ला के स्टॉल पर धीरे-धीरे बज रहा है-
मोरे बलमा मोरी चोलिया मसक गयी
रेडियो में मेरी रुचि है सो यूनूस भाई और इरफान का स्टॉल एक ही साथ था, शायद मुरीदों को भटकना न पड़े, पहुंचा वहां भी। वहां से लोग सीडी खरीद रहे थे, पुराने रेडियो नाटकों और गानों के। पीछे से पुराने विज्ञापनों की आवाज आ रही थी- मुन्ना जा जरा पान की दुकान से नमक तो ले आ। यूनूस भाई ने मना करने पर भी एक सीडी पकड़ा दी। पैसे के लिए पूछा तो बोले, पराया समझते हैं आप हमें।
हफ्तावार के स्टॉल पर एक नोटिस लगी थी कि आप यहां से जो कुछ भी ले जाएंगे, उसके पैसे बिहार की बदहाली को कम करने के लिए वहां भेज दिया जाएगा। लोग पूछ रहे थे अगर आगे भी डोनेट करना चाहे तो क्या करना होगा।
नीलिमा के ब्लॉग पर साफ लिखा था, रचनाओं की असली कीमत है कि वो सही पाठकों तक पहुंचे, बाकी कोई दाम नहीं।
एक स्टॉल पर कुछ ट्रेनिंग चल रही थी- कुछ बोलने की। कुछ क्या गाली देने की ट्रेनिंग जी, गाली देने की। किऑस्क पर साफ लिखा आ रहा था-
क्या आप दिल्ली में नए हैं
आपको यहां झिझक होती है
कंडक्टर आपकी बात नहीं सुनता
लाइफ में कुछ करना चाहते हैं तो
यहां आइए आपको सिखाते हैं गाली। गाली से परहेज कैसा। कांनफिडेंस आएगा भाई। ये जितेन्द्र भाई का प्रकाशन है।
नोटपैड पर टॉक शो चल रहा था। सवाल स्त्रियों के और जबाब मृणाल पांडे के। जानिए अपने अधिकारों को किरण बेदी से।
आपके घर में बेसन, घी, चीनी, मैदा और गैस भी है तो फिर क्यों जाएं आफिस भूखे। दस मिनट में गरमागरम नाश्ता तैयार। लीजिए टिप्स निशामधुलिका के।
बोल हल्ला वाले स्टॉल पर देश के चार बड़े मीडियाकर्मी बैठे थे और नए पत्रकारों को बता रहे थे कि कैसे मालिकों को खुश करके भी समाज सेवा करें।
सब पर वैसी ही भीड़ और हर बंदे के हाथ में प्रकाशकों की थैली और माल भी।
लेकिन हैरत हुई भड़ास के स्टॉल पर लिखा था-
सिरफ काम का माल ले जाएं।
देखा वहां कुछ ज्यादा ही भीड़ है। खासकर नए पत्रकारों की या फिर जो मीडिया कोर्स कर रहे हैं- उनकी। वे एक सीडी लेकर आ रहे हैं- जिसपर कंपनी की पंचलाइन लिखी है- सारा माल इसमें। स्टॉल पर जाकर पूछा कि इस सीड़ी में क्या है भईया. तो बताया कि सर इसमें मीडिया के सारे बाबाओं के पर्सनल मोबाइल नं है और उनके चूतियापे का काला चिठ्ठा, उनके सफल होने के राज और कैसे बने खालिस पत्रकार. बहुत काम का है ले लीजिए सर। मैंने कहा मैं लेकर क्या करुंगा, हां अगले मेले में एक सीडी मैं भी दूंगा तुम्हे. सेल्समैन मुस्कराया, समझ गए सर।
अलग-अलग रंगों, कार्यक्रमों और हिन्दी की नयी रंगत को देखकर मन खुश हो गया। लगा अपनी हिन्दी भी कुछ काम की है भाई। लोटने लगा तो कई जगहों पर लिखा देखा-
गाहे- बगाहे का भसर यहां उपलब्ध है।।
शा न अजीब सपना लेकिन हकीकत के बहुत नजदीक
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प्राइम टाइम में ब्लॉग चर्चा

Posted On 12:26 pm by विनीत कुमार | 8 comments

मेनस्ट्रीम की मीडिया में भी ब्लॉग को लेकर चर्चा शुरु हो गई है। वैसे तो अखबारों या फिर पत्रिकाओं में समय-समय पर ब्लॉग से जुड़े मुद्दे छपते रहे हैं लेकिन आज एनडीटीवी 24*7 ने इस पर एक घंटे का बाकायदा शो किया। प्राइम टाइम में वी द पीपुल में बरखा दत्त ने ब्लॉग के अलग- अलग मसलों पर लोगों से सवाल किए, एक्सपर्ट कमेंट्स लिए और कुछ ब्लॉगरों से बातचीत भी की। इस बातचीत में अपने हिन्दी के ब्लॉगर रवीश कुमार भी शामिल थे। प्राइम टाइम में ब्लॉग पर चर्चा किया जाना ब्लॉग दुनिया के लिए वाकई एक बड़ी खबर है। आप समझते सकते हैं कि मेनस्ट्रीम की मीडिया भी हमारे इस काम को सीरियसली समझना चाहती है और उसे भी इस बात का एहसास होने लगा है कि आनेवाले समय में ब्लॉगर भी जर्नलिज्म के ट्रेंड को प्रभीवित कर सकता है। ब्लॉगिंग करनेवालों के लिए ये एक सुखद स्थिति है।
पूरे एक घंटे को अलग- अलग सिग्मेंट में बांटा गया और हरेक सिंगमेंट ब्लॉग के अलग-अलग पहलुओं पर आधारित थे। इसके साथ ही लीगल एक्सपर्ट के साथ-साथ साइकियाट्रिस्ट और ब्लॉग वर्क्स के फाउँड़र को भी एक्सपर्ट कमेंट्स देने के लिए बुलाया गया। ये दोनों बाते इस बात की ओऱ इशारा करती है कि मेनस्ट्रीम की मीडिया जहां ब्लॉग के तमाम पहलुओं के साथ-साथ इसके सोशल और साइको इफेक्ट को भी समझना चाहती है। चैनल का इस बात पर भी जोर रहा कि ब्लॉग को लेकर क्रेडिविलिटी कितनी है और कितना भरोसा किया जा सकता है ब्लॉगरों की बातों का। इन सबके बीच कानूनी पेंच कहां-कहां फंस सकते हैं। हम जैसे दर्शकों के लिए ये पूरा शो इन्फार्मेटिव तो रहा ही इसके अलावे चैनल को भी इस बात का अंदाजा लगा कि किस तरह के दिल-दिमाग को लेकर लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं और क्या वाकई आनेवाले समय में ब्लॉग समाज के अलग-अलग स्तरों पर जमें हायरारकी को चैलेंज करेगा और मेनस्ट्रीम की मीडिया को प्रभावित कर सकेगा।
बातचीत के क्रम में ये बात और साफ हो गया है कि ब्लॉग क्या कुछ कर पाएगा ये बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम ब्लॉगिंग को किस रुप में लेते हैं। अगर हमारा ईशारा इस बात की ओर है कि ब्लॉगिंग से सामाजिक हालातों को कुछ हद तक बदला जा सकता है या फिर उस स्तर पर समझा जा सकता है, जिस पर जाकर मेनस्ट्रीम की मीडिया नहीं सोच पाती।( ऐसा भले ही प्रोफेशन के दबाब या फिर अन्य कारणों से हुआ हो।) लेकिन अगर हम ब्लॉगिंग को जस्ट फॉर फन के तौर पर ले रहे हैं तब तो ये अपनी बातों को शेयर करने का माध्यम भर होगा, सही अर्थों में कोई सोशल टूल या फिर अल्टरनेटिव मास मीडिया नहीं। ब्लॉग को पर्सनल या फिर पब्लिक डोमेन के रुप में समझने वाली बात इसी से जुड़ी है। जो कि अंग्रेजी ब्लॉग और हिन्दी ब्लॉग को कटेंट पर बात करने के क्रम में और भी साफ हो गया।
शो में चार अंग्रेजी के ब्लॉगर थे और हिन्दी के एक। जाहिर है ये अंग्रेजी चैनल और शो है इसलिए ऐसा हुआ और रवीश कुमार ने तो दिन की पोस्ट में कहा भी कि उन्होंने एनडीटीवी में होने का लाभ उठाया। लेकिन पोस्ट पढ़कर इतना भरोसा हो आया था कि ये हिंदी ब्लॉग के प्रतिनिधि के रुप में अपनी बात रखेंगे और ऐसा हुआ भी।
अंग्रेजी के तीन ब्लॉगरों ने जिस कंटेंट पर बात की वो सेक्स और रिलेशनशिप से जुड़े थे जबकि एक दूसरी ब्लॉगर झूमर अपने ब्लॉग में फेमिनिज्म से जुड़े मुद्दों पर पोस्ट लिखने की बात कर रही थी। भाषाई बदलाव के साथ-साथ कंटेंट यानि बात करने के मसले बदल जाते हैं, ये तो मानी हुई बात है और अंग्रेजी ब्लॉगरों की बातचीत से ये साबित भी हो रहा था कि उनके मुद्दे और ट्रीटमेंट का तरीका हिन्दी ब्लॉगरों से अलग है. रवीथ कुमार ने कहा भी वो ब्लॉग पर घर में फ्रीज आने की बात पर लिख रहे हैं और पाठक उस पर अपनी यादों को जोड़ रहा है। यानि ब्लॉग पर्सनल रह ही नहीं जाता। लोग उन्हें कमेंट्स करते हैं और उनकी बातों का विरोध भी करते हैं। वे इससे सीखते हैं और पहले से ज्यादा समझदार हो रहे हैं। एक अर्थ में हम कहें तो रवीश का इशारा इस बात पर रहा कि ब्लॉग ने उन्हें सोशल बनाया, दुनिया के बीच रोज बोलते रहने पर भी जिस अकेलेपन का बोध होता है, उसे कम करता है, वगैरह-वगैरह। यानि साइको इफेक्ट की जो बात करने के लिए एक्सपर्ट आए थे औऱ ब्लॉग के जरिए पहले से ज्यादा सोशल कन्सर्न रखने की बात कर रहे हैं, रवीश ने अपनी बात करके उन सबके लिए केस स्टडी दे दिया।
इन सब बातों के बीच एनोनिमस, ठेठ हिन्दी में कहे तो ब्लॉग के नाम पर टुच्चापन करने का मसला छाया रहा और इस बात का यही निकाला गया कि ब्लॉग को लेकर शेल्फ रेगुलेशन और इथिक्स को मानना ज्यादा जरुरी होगा, बजाय इसके कि सरकार या कोई दूसरी ऑथिरिटी इसमें कूद पड़े।
पूरे शो में बरखा मजे लेती नजर आयी और वादा किया कि वो भी अपना ब्लॉग बनाएगी, जाहिर है अंग्रेजी में ही।
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भसोडियों का स्टिंग ऑपरेशन

Posted On 12:35 am by विनीत कुमार | 5 comments

आपको पता है कवि लोग किसे देखकर सबसे ज्यादा खुश होते हैं। पैसा छोड़कर, वो तो पागल भी खुश होता है। हमारे कल्पनिया साथी कहेंगे फूल, पौधे, झरना या फिर स्त्री। अरे नहीं जी सब गलत। मैं बताता हूं- भीड़ देखकर कवि सबसे ज्यादा खुश होता है। भीड़ अगर मिल जाए तो बाकी फीकी। यू नो ड्राई-ड्राई।
हुआ यूं कि बहुत दिनों बाद कल यूनिवर्सिटी में भसर समाज बैठे भसोड़ी करने। भसर माने बिना मतलब की बात करने, खालिस मजा के लिए । ये अलग बात है कि उसमें कोई मतलब की बात निकल आए। तो मैंने सोचा कि इसमें क्यों न कुछ जेएनयू के मारे लोगों को भी शामिल कर लिया जाए, सो पहुंचे वो भी। एक भसोड़े की बात पर हमलोग अभी मन भर हंस भी नहीं पाए थे कि जेएनयू वाले भाई साहब ने कहा कि अजी हमें भी कुछ भसोड़ने दें, सो दे दिया. पहले वाले भाई साहब ने कहा कि मैं तो ऐसे साहित्यकारों, कहानीकारों को जानता हूं जो पेशे से तो अपने को प्रगतिशील मानते हैं लेकिन रोज सुबह-सुबह चटाई बिछाकर हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं, नियमित। हमने कहा, अजी अब स्टिंग मत करने लग जाइए। भसोड़ी करने आएं हैं मन भर कीजिए लेकिन कीचड़ कोडने का काम मत करिए. लेकिन बिना दूसरों की शिकायत किए और लिए-दिए बिना भसोड़ी कैसे संभव है, सो सिलसिला जारी रहा।
ये जेएनयू वाले भाई साहब अब डीयू की सेवा दे रहे हैं लेकिन अभी तक जेएनयू की यादें गयी नहीं है, सो सुनाने लगे।
अभी-अभी पढ़ा, शायद रवीश कुमार की पोस्ट पर किसी ब्लॉगर साथी ने टिप्पणी की थी कि- दस कवियों से ज्यादा अकेला माईकवाला माल ले जाता है। अब हम बोलें, तब भी हर आदमी कवि होने से ज्यादा कहलाने के लिए जान दिए जा रहा है। अच्छा कवि सम्मेलनों के बारे में ये बात भी फेमस है कि कई बार तो अंत में केवल माईक दरीवाला ही सुनने, सॉरी समेटने के लिए बचता है।
तो ये सब फीडबैक लेकर जेएनयू के बंदों ने एक बार कवि सम्मेलन करवाया। और ऐसे कवि को बुलाया जिसे पढ़ा जाता है, सुनता-बुनता कोई ज्यादा नहीं है। अब बंदा जो लानेवाला था, चाह रहा था कि खूब भीड़ जुटे। आखिर बात उसकी इज्जत पर आ गयी थी। सो सोचा कि कुछ न कुछ तो करना ही होगा। और वैसे भी जेएनयू का है कुछ न कुछ नहीं करेगा तो फिर सरवाइव कैसे करेगा। सरवाइव माने खाने-पहनने के लिए नहीं, जेएनयू वाला कहलाने के लिए। बंदे ने तरकीब भिड़ायी।
किया क्या कि उसने पोस्टर चिपकाया ये बोलकर कि पहले एक सिनेमा दिखाया जाएगा और उसके बाद कवि की कविता। उक्त दिन छोटे से हॉल में भीड़ ठसाठस। चूंटी रेंगने की जगह नहीं। कवि आया फिल्मवाले सेशन में ही औऱ चारो तरफ गौर से देखा। इतनी भीड़ कविता के लिए उसने अपनी लाइफ में कभी न देखी होगी। मारे खुशी के गदगद। मन बना लिया कि लानेवाले बंदे को कम से कम एडॉक में लगवा देगा। बार-बार पुलक रहा था और अचकननुमा कुर्ता ठीक कर रहा था। कवि के लिए जेएनयू का इंटल चारा और क्या चाहिए भला।
इधर माइक पर अनाउंस हुआ कि प्रोजक्टर खराब हो गया है, कुछ वक्त दीजिए और ऐसा करते हैं कि समय क्यों बर्बाद करें( आपका, अपना तो चलेगा) कविता ही सुन लिया जाए। कवि महोदय उत्साह के साथ शुरु हो गए। इधर दर्शक ( फिल्म के हिसाब से सोचें तो वैसे अभी के श्रोता) ने गरियाना शुरु कर दिया- स्साले बुलाया था सिनेमा दिखाने और अब यहां झंड कर रहा है। लेकिन करे तो क्या करे, भागने लायक जगह भी नहीं और फिर झाड़-झंखाड लांघ कर आएं है तो तो बिना देखे कैसे चले जाएं। कवि ने प्रोजेक्टर ठीक होने तक कविता सुनाई और दर्शक खत्म होने के बाद तक गरिआया।
कवि ने भीड़ की प्रशंसा में किसी पत्रिका में एक लेख लिखा कि उसकी कविता सुनने कितने लोग आए थे। और दावा करने लगे कि कौन कहता है कि जेएनयू में कविता के कद्रदान नहीं हैं भाई।
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आओ पीएम हाउस चलें

Posted On 10:43 pm by विनीत कुमार | 2 comments

मेरे सारे ब्लॉगर साथी
क्या आप सब लोग मेरे साथ पीएम हाउस चलेंगे। जो साथी दिल्ली से बाहर के हैं उनके आने-जाने के लिए हमसब मिलकर चंदा करेंगे। ज्यादा लोग एक साथ चलेंगे तो थोड़ा प्रेशर बनेगा। सोच रहा हूं कि वहां चलकर उनसे अपील की जाए कि वे भी हमारी तरह ब्लॉगर बनें।
ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि इधर 10 दिनों के भीतर कई ब्लॉगर साथियों से मिलना हुआ। किसी को भी पहले से नहीं जानता था। कुछ तो बड़े लोग थे ( उम्र या फिर पैसा आप जिस किसी भी रुप में समझे) । सबको बस उनके ब्लॉग के जरिए ही जाना। और एक दूसरे का परिचय भी सबने ब्लॉगर के रुप में ही कराया। बाकी कौन क्या करता है इससे बहुत अधिक मतलब भी नहीं था। अच्छा, चाय-पानी का पैसा देने में भी वे अपने-आप आगे आ गए क्योंकि वे पुराने यानि सीनियर ब्लॉगर हैं और मैं जाकर-आर्डर देने या फिर हरी चटनी के लिए बोल रहा था, क्योंकि इस मैंदान में अभी मैं फूच्चू ही हूं।
जो महसूस किया , वो ये कि एक ब्लॉगर-दूसरे ब्लॉगर को इस तरह से इंट्रोड्यूस नहीं कराता कि- इ भी झारखंड से ही हैं या ही इज फ्राम डीयू या फिर ही इज ऑल्सो इंट्रेस्टेड इन मीडिया चूतियाप्स...वगैरह, वगैरह। अब बताते हैं कि अरे ये वही है जिसने समय चैनल पर लिखा था, झारखंड में जो इंटरव्यू देने गए थे, उनकी ले ली थी। इससे जो संवाद का माहौल बनता है उसमें एक अलग तरह का फक्कडपन होता है, एकदम बिंदास मिजाज का गप्प-शप। अपने काशी का अस्सी वाले काशीनाथ सिंह की भाषा में कहें तो व्हाइट हाउस को निपटान घर समझने वाला कांन्फीडेंस। कम से कम मैंने तो ऐसा ही महसूस किया है कि कीपैड को एक-दूसरे के आगे ताना-तानी वाला अंदाज भले ही ब्लॉग पर चलता रहे लेकिन वो कभी कलम की जगह सुई न बनने पाती है। और कुछ हुआ हो चाहे नहीं लेकिन ऐसा होने से सोशल स्पेस तो जरुर बढ़ा है। अब कोई हमें ब्लॉगर होने के नाते अपने यहां डिनर पर बुला ले तो दोस्तों या फिर रिश्तेदारों के यहां जाने से पहले प्रायरिटी दूंगा। एक शब्द में कहूं तो ब्लॉगिंग करने से अपने मिजाज के लोग आसानी से मिल जाते हैं, बन जाते हैं और छनने भी लगती है।
यही सब सोचकर मैंने ये प्रस्ताव रखा है कि अगर अपने मनमोहन सिंह भी ब्लॉगर बन गए तो वो हमसे, सॉरी हम उनसे खुल जाएंगे। उन्हें भी लगेगा कि हंसी ठिठोली के लिए सिर्फ 10 जनपथ ही नहीं है और भी लोग हैं जिनके साथ बोला-बतिया जा सकता है और वो भी घर बैठे। अपने तरफ से थोड़ा करना ये होगा कि इंग्लिश में थोड़ी हाथ मजबूत करनी होगी जिसकी है उसे प्रैक्टिस में लानी होगी।
मेरा तो एक लोभ ये भी है कि अगर उन्होंने दिसम्बर और जनवरी जैसे महीने में ब्लागर्स मीट करा दिया तो डिनर में तरबूज भी खाने को मिलेंगे। मेरी उम्र की लड़कियां बिदांस मूड में जब उनके यहां जाती है तब तो पकड़वा देते हैं लेकिन हमलोग जाएं तो शायद बोले- छोड़ दो, नौजवान ब्लॉगर है और परेड में क्या पता ब्लॉगर के बैठने के लिए अलग से कोटा हो।
अच्छा, ऐसा नहीं है कि फायदा सिर्फ हम ब्लॉगरों को ही है, उन्हें भी तो है। बिना कोई वेतन के, बिना कोई पॉलिटिक्स किए, फिर गलती हो गई, पॉलिटिक्स की बात माने हुए उन्हें देश का बेस्ट ब्रेनी मिल जाएगा और समय-समय पर अपने कीमती सुझाव भी देगा। यहां पर भाजपा या फिर उनके दूसरे विरोधियों के खिलाफ लिखने-बोलने वालों की कमी थोड़े ही है। अगर मनमोहनजी को मेरी बात का भरोसा नहीं है तो अबकी 26 जनवरी का भाषण हममें से किसी भी ब्लॉगर से लिखवाकर देख लें। ड्राई रन ही सही। ऐसा धांसू होगा भाई कि भाषण के नाम पर हिन्दी की डिक्शनरी ठोकने वाले को भी कुछ ज्ञान मिलेगा।
यही सब बात सोचकर मैंने आपके सामने ये प्रस्ताव रखा है। कैसा लगा बताइगा और कब तक जबाब दे देंगे, काहे टिकट और रहने-खाने के इंतजाम में भी तो लगना होगा।
आकांक्षी
विनीत कुमार, ब्लॉगर
राजधानी, भारत
इंडिया
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जमाखोरी सीखाता एक विज्ञापन

Posted On 9:42 pm by विनीत कुमार | 2 comments

आजकल आपने देखा होगा टीवी पर कि एक बंदा एक या दो किलो प्याज खरीदने जाता है और अचानक उसे सत्य का ज्ञान हो जाने पर स्टोर की पूरी प्याज खरीदने लगता है। लोग उसे पहले तो थोड़ा अचरज से देखते हैं कि अच्छा भला आदमी कैरियर को ठेले के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है और एक भी प्याज नहीं रहने दे रहा। उस बंदे को भी पता है कि जितनी प्याज वो ले जा रहा है उसकी खपत बहुत जल्दी नहीं होने वाली और हम जैसे लोगों के लिए तो रखने की भी समस्या हो सकती है । लेकिन बंदे को जो सत्य का ज्ञान हो आया है उसका क्या करे।
आप पूछेंगे नहीं कि इस बंदे को सत्य का ज्ञान किसने दिया। मैं बताता हूं- वोडाफोन ने, वोडाफोन ने, वोडाफोन ने। वोडाफोन का कोई 31 रुपये का कार्ड है, शायद, दाम में थोड़ी गड़बड़ी हो सकती है। लेकिन बात ये है कि आप उसके इस्तेमाल करने पर जान सकते हैं कि कौन-सी चीजें सस्ती होनेवाली है और कौन- सी मंहगी। यानि कि वोडाफोन आपको बताएगा बाजार की हलचलें। है न आपका जेब का दोस्त। लेकिन फोन करके मेरी मां बता रही थी कि- इ बढ़िया बात थोडे है कि सरकार लोग कहता है जमाखोरी मत करो, जितने से काम चलता है उतना ही अपने घर या दूकान में सामान रखो और इ वोडफोन हमको जमाखोरी सीखा रहा है। टीवी देखके बड़ी मुश्किल से तो इ आदत छूटा था और अब फिर से लगा रहा है।
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ईमानदार हैं उदय प्रकाश

Posted On 3:35 am by विनीत कुमार | 1 comments

लेखक या साहित्यकार होने पर जिस किसी को भी सबसे अलग या फिर देवता किस्म के इंसान होने की खुशफहमी है, उन्हें लगता है कि वे औरों से हटकर हैं और उनकी धरती पर सप्लाय खास मकसद के लिए हुई उनको उदय प्रकाश की बात से परेशानी हो सकती है। उनकी बात उन्हें अनर्गल लग सकती है और ये भी हो सकता है कि उन्हें सेफ एक्टिविस्ट के रुप में समझा जाए जो क्रांति तो चाहता है लेकिन किसी भी तरह के पचड़े में पड़ना नहीं चाहता। लेकिन जिस भी लेखक या रचनाकार को थोड़ा सा भी इस बात का एहसास है कि वो और लोगों की तरह ही पहले एक नागरिक है और उस पर भी कानून के डंडे और कानून की फटकार चल सकती है वो उदय प्रकाश को एक ईमानदार लेखक माने बिना नहीं रह सकता। वो रचनाकार होने के पहले एक जिम्मेदार और व्यवहारिक आदमी भी है।
ये बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि आमतौर रचना में लेखक जो कुछ भी लिखता है उससे लोगों के बीच उसकी छवि बनती है कि चाहे जो कुछ भी हो जाए, वो अपने मन की लिखेगा, कभी समझौते नहीं करेगा और न ही रचना प्रक्रिया के दौरान किसी की सुनेगा। लेकिन उदय प्रकाश ने कल सराय में हम पाठकों का जबाब देने के क्रम में साफ कर दिया कि वो भी हमारी तरह एक इंसान ही है और उस पर भी सत्ता की सारे नियम और शर्तें लागू होती है। ऐसे में जरुरी है कि वो बच-बचाकर चले। अब यह अलग बात है कि बचने-बचाने के चक्कर में लेखन एक इन्नोसेंट एक्टिविटी नहीं रह जाती लेकिन ये भी तो है कि रचनाकार अपने को देवता या उसका दूत होने का ढोल भी नहीं पीट रहा। ये पहले से कहीं ज्यादा ईमानदार स्थिति है। नहीं तो अभी तक मैंने यही देखा है कि बड़े से बड़ा आलोचक या साहित्यकार अपने को महान या समाज सुधारक बताने में जिंदगी झोंकने की बात करता आया है। जबकि सच्चाई ये नहीं रही। बच-बचाकर या फिर सत्ता के मिजाज के हिसाब से लिखने की परंपरा का लम्बा इतिहास रहा है। लेकिन उदय प्रकाश ने जब उदाहरणों के माध्यम से ये समझाना शुरु किया औऱ देश-विदेश के कई रचनाकारों की यातनाओं के संदर्भ बताए तो बात समझ में आ गयी कि वो वेवजह सत्ता या राजनीति का चारा नहीं बनना चाहते।
और सही भी है कि हम पाठक तो चाहेंगे ही कि हमें अच्छी से अच्छी और कभी-कभी गुदगुदाने या रोमांचित कर देनेवाली रचना मिले लेकिन इसके एवज में लेखक को कितना कुछ झेलना पड़ सकता है इसकी चिंता हमें कहां है। अब लेखक शेखी न मारकर अपनी समझदारी के मुताबिक लिख रहा है तो इसमें गलत क्या है।
उदयजी से जब मैंने ये सवाल किया कि अगर आपकी रचना को बतौर समाज विज्ञान के रेफरेंस के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो फिर आपको परेशानी क्यों है। उन्होंने इस बात का जबाब बिना कोई लाग-लपेट के दिया। उनका कहना है कि राजनीति या फिर दूसरे संदर्भों में रचना का इस्तेमाल इस तरीके से होता कि रचना का मतलब नहीं रह जाता। अगर हम यह समझें कि रचना को किसी वादों या सिद्धांतों के तहत फिट करने की कोशिश भर होती है और अक्सर इसके लिए रचनाकार को झेलना पड़ता है। बात-बात में पॉलिटिकली करेक्ट होने की बात ढूंधने से संवेदना के स्वर दब जाते हैं, जबकि रचना मानवीयता की तलाश और उसकी स्थापना है। तस्लीमा का उदाहरण देते हुए उदय प्रकाश रचना या फिर रचनाकार को तमाशा नहीं बनने देना चाहते। उनके हिसाब से इस व्यावहारिक समझ को सुविधावादी नजरिया या फिर सुरक्षित मानसिकता का लेखन कदापि नहीं माना जा सकता।
ये उदय प्रकाश की स्थितियों के प्रति समझदारी हीं कहें कि वे हम पाठकों की वाहवही के चक्कर में अपने को हलाल नहीं होने देना चाहते। औऱ न ही उन मठों के सुर में सुर मिलाना चाहते हैं जो कि ये मानता आया है कि लेखन के नाम पर लेखक बड़ा ही महान काम कर रहा है और इस हिसाब से वो महान है।
उदय प्रकाश की ये ईमानदारी साहित्य के बाबाओँ को चुनौती देने के लिए काफी है और उनकी ये अदा कि हम किसी के कहने से हलाल नहीं हो जाएंगे हमें दिवाना कर जाती है।
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या तो अदरक, मूली बेचो या न्यूज

Posted On 10:27 pm by विनीत कुमार | 4 comments

न्यूज चैनलों में न्यूज के नाम पर आप औऱ हम जो कुछ भी देख रहे है, दरअसल वो न्यूज है ही नहीं। विश्वविद्यालय की भाषा में कहें तो कूड़ा है। एकाध चैनलों को छोड़ दिया जाए तो बाकी के चैनल न्यूज के नाम पर फकैती करते हैं। औऱ फिर आम दर्शकों से भी बात करें तो वो भी उब चुकी है, स्टिंग के नाम पर खबरों को झालदार बनाने के तरीके से। दूरदर्शन का मारा दर्शक जाए भी तो कहां जाए। अब जरुरी तो नहीं कि सबको बाबा के नाक में वनस्पति उगनेवाली स्टोरी में मजा आए और रुचि बनी रहे। और कुल मिलाकर देखें तो चैनल भी इस बात को तरीके से समझने लगी है कि हम जो कुछ भी दिखा रहे हैं, उसके प्रति दर्शकों की विश्वसनीयता कमती जा रही है। कम से कम थोड़े -पढ़े लिखे लोगों के बीच तो ये बात लागू होती ही है। इसलिए आप देखेंगे कि जब भी कोई नया चैनल लांच होता है तो उसमें दो बातें जरुर बताते हैं ।
पहला तो ये कि क्या-क्या न्यूज नहीं है और दूसरा कि क्या-क्या न्यूज है।अच्छा ये बतानेवाले कौन होते हैं। वही जो कल तक वो सब न्यूज के नाम पर दिखा रहे थे और असरदार, धारदार होने का ढोल भी पीट रहे थे। लेकिन जैसे ही उन्होंने चैनल बदला। बीबी- बच्चों की खातिर थोड़े और पैसे के लिए किसी और या नए चैनल में गए, सामाजिक जागरुकता या फिर न्यूज सेंस की बात अचानक याद हो आयी। वे रातोंरात खबरों की दुनिया के अवतारी पुरुष हो गए। ऐसे में आइएमएमसी या फिर जामिया मीलिया की पढाई कि मीडिया मिशन है, काम आ जाती है। और उन्हें ये सब बताने में अच्छा भी लगता है कि रोजी-रोजी के साथ हमारे सोशम कमिटमेंट भी है।
भले ही कोर्स खत्म होने या फिर चैनलों काम करते समय अध्यापकों को गरियाते हों कि बेकार में खूसट मास्टर मीडिया के नाम पर नैतिकता की घुट्टी पिलाता रहा, स्क्रिप्ट लिखना बता देता तो फायदा भी होता। लेकिन चैनल बदलते समय मास्टर साहब के उस एप्रोच को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते।
आप खुद ही देखिए न, लाइव इंडिया में कई वही पुराने चेहरे। सांप-सपेरे, भूत-प्रेत की स्टोरी बनानेवाले अभ्यस्त लोग औऱ यहां आकर बार-बार विज्ञापन- अनजिप दि ट्रूथ की। और तो और ये भी बता रहे हैं कि १८५७ में देश का अंग्रेजों के प्रति पहला विद्रोह, १९४७ में देश आजाद और २००७ में लाइव इंडिया। यानि लाइव इंडिया का आना एक ऐतिहासिक घटना है। और देश की आजादी के वे सारे मूल्य इसमें भी शामिल हैं।
इधर न्यूज २४ में देखिए। आधा से ज्यादा चेहरे आजतक के। ऐसे चैनल के जिसने अब तक दो ही दावे किए हैं- एक तो सबसे तेज होने की और दूसरा सर्वश्रेष्ठ होने की। अब जो भाई वहां से काम करके न्यूज २४ में आए, उनका कहना है कि नेताओं का हर बयान खबर नहीं होती जो कि कल तक हर नेता के बयान को खबर बनाते आए हैं। और भी अलग-अलग बीट के लिए अलग-अलग नारे। भाई साहब आपको पता है कि क्या खबर है और क्या खबर नहीं है तो फिर अब तक आप जनता को मामू बना रहे थे। अच्छा आजतक सबसे तेज होने के चक्कर में सबकुछ दिखाता है। आप जब ये कह रहे हैं कि सबकुछ खबर नहीं होती तो आप हमें ये बताना चाह रहे हैं कि आजतक में या फिर दूसरे चैनलों में फिलटरेशन का काम नहीं होता। यानि आप अपने को सबसे अलग बता रहे हैं औऱ दावा कर रहे हैं कि न्यूज इज बैक। ये हमारे साथ अक्सर हुआ करता है, जब भी बनियान खरीदने जाता हूं। दुकानदार का सवाल होता है कि आपको बनियान में सफेदी चाहिए या फिर आरामदायक। सफेदी के लिए रुपा और आराम के लिए कोठारी। देखिए बनियागिरी, दोनों का विज्ञापन और उसका काट एक साथ। आप हमें ये बता रहे हैं कि न्यूज चाहिए या फिर न्यूज के नाम पर कूड़ा।
अच्छी बात है आप सरस्वती जैसी लुप्त हुए न्यूज को फिर से वापस ला रहे हैं और बता रहे हैं कि असली न्यूज तो आप देख ही नहीं पा रहे हैं। लेकिन जनाब आप हमें ये बताएंगे कि आपका ये जो दावा है उसके पीछे कोई रिसर्च भी है या फिर पैकेज के चक्कर में संतवाणी दिए जा रहे हैं। साहब आप पढे-लिखे लोग हैं, अदरक, मूली की तरह चैनलों का विज्ञापन क्यों करते हैं। अगर आप ये मानकर चलें कि दर्शकों के पास भी थोड़ा दिमाग है तो इसमें आपको क्या भारी नुकसान हो जाएगा। अबतक के कुछ चैनल तो जनता की रही-सही मति-बुद्धि को हर ही ले रही है औऱ आप भी हमरे साथ वही कीजिएगा तो बढा हुआ पैकेज हक नहीं लगेगा।
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काहे बोला हिन्दी का मास्टर

Posted On 9:03 pm by विनीत कुमार | 1 comments

कुछ दिनों पहले मैंने एक लड़की की स्वेट शर्ट के उपर लिखा देखा था- रामजस कॉलेज, डिपार्टमेंट ऑफ हिन्दी। मुझे ये वाक्या वाकई बहुत अच्छा लगा और मैंने एक पोस्ट लिखी कि अब हिन्दी पढ़नेवालों को बताने में शर्म नहीं आती कि वे हिन्दी के स्टूडेंट हैं। और अब मैं ये मानकर चल रहा था कि हिन्दी में कुंठा या फिर हीनताबोध धीरे- धीरे खत्म होता जा रहा है। लेकिन इधर मास्टरों का नजारा देखकर कुछ अलग ही राय बन रही है।
हिन्दी मास्टरों को अंग्रेजी के अखबारों या पत्रिकाओं में छपते कई बार देखा है। और अच्छा लगता है कि देखो हिन्दी का मास्टर या मास्टरनी इंग्लिश में लिख रहे है। मुझे याद है, एक बार मैंने तहलका की साइट देखी तो देखा हमारे मास्टर साहब लगातार अंग्रेजी में लिख रहे हैं। कईयों को फोन करके बताया। अपने पांडेजी अक्सर कहा करते कि कुछ लोग हिन्दी के नहीं देवनागरी के मास्टर हैं, बीच-बीच में अंग्रेजी डालते हैं( देखिए, कथादेश॥ भूमंडलीकरण और भाषा, विशेषांक )। लेकिन सारे लेख को देखकर लगा कि नहीं खालिस इँग्लिश में भी लोग लिख रहे हैं।
इधर मैं लगातार देख रहा हूं कि अँग्रेजी में लिखने के बाद मास्टरजी लेखक परिचय के तौर पर अपने को सोशल एक्टिविस्ट, सोशल कमन्टेटर या फिर इसी तरह कुछ और बता रहे हैं। कभी उन्होंने नहीं लिखा कि वे हिन्दी विभाग में रीडर हैं। लिख दिया होता तो हम भी दूसरे स्ट्रीम के लोगों के सामने तानकर खड़े होते कि देखो हिन्दी के मास्टरों की क्वालिटी और फिर उस हिसाब से बंदा अंदाज लगा लेता कि कल को ये भी इंग्लिश में लिख सकेगा।
एक मास्टरनीजी की एक किताब पर कल नजर पड़ गयी। परिचय में लिखा था- रीडर, मीडिया एवं ट्रांसलेशन। ये कोर्स एमफिल् के लोगों के लिए एक साथ तैयार किया गया है। जाहिर है जब वो आयीं थीं तो ऐसा कोई भी कोर्स नहीं था। तब वो हिन्दी की रीडर ही रही होगी। समझ नहीं आता कि हिन्दी के अलावे किसी दूसरे मसले पर लिखने के बाद ये हिन्दी से जुड़े होने का परिचय क्यों नहीं देना चाहते। सवाल सिरफ पहचान बदलने की नहीं है।
सवाल ये भी है कि ऐसा करना उनके लिए जरुरी हो जाता है क्योंकि शायद वे हिन्दी से कुछ बड़ा काम कर रहे हैं जो कि हिन्दी के दूसरे मास्टर नहीं कर सकते। इसलिए वे अपने को हिन्दीवालों की पांत में अपने को खड़ा नहीं करना चाहते। वे देश के अलग-अलग मसलों पर लिख रहे हैं जो कि आमतौर पर हिन्दी के लोग नहीं करते। उतने एक्टिव नहीं है। ऐसा लिखने से ये फर्क साफ समझ में आ जाए, इसलिए भी ये जरुरी है। और अपने को अलग दिखाने की परम्परा कोई नई नहीं है। ये तो पहचान ही अलग बता रहे हैं। पहले के तो मास्टर जब लिखते या फिर कुछ बोलते तो मार संस्कृत के श्लोक पेलते जाते। बचपन यानि दसवीं-बारहवीं में तो मुझे लगता कि हिन्दी पढ़ने के लिए संस्कृत पर कमांड जरुरी है, जैसे आज लगता है कि एमबीए बिना इंग्लिश के हो ही नहीं सकती।
व्यकितगत रुप से मुझे ये बात बार-बार खटकती है कि जब आप ये कहते हो कि हिन्दी में भी अब सारे नए डिस्कोर्स शामिल हैं और काफी कुछ नया लिखा-पढ़ा जा रहा है तो फिर नया लिखने के बाद पहचान बदलने की अनिवार्यता क्यों महसूस करते हैं और फिर हम स्टूडेंट या फिर एकेडमिक्स के लिए पहले तो रीडर या लेक्चरर हो तब फिर और कुछ। मास्टरों में भी बच्चों वाली बीमारी है, पता नहीं ऐसा मानने को मेरा मन नहीं करता।


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रडुओं ने मनाया नया साल

Posted On 10:13 pm by विनीत कुमार | 0 comments

सुबह-सुबह दिसम्बर तक का बिल लिए अखबारवाले भइया खड़े हैं और मैं अपनी खुमारी में हूं। मेरे सारे अखबारों पर हाथ से लिखा है- हैप्पी न्यू ईयर। कमरे के बाहर सारे लड़के एक- दूसरे को नसीहतें दे रहे हैं, बच के भइया...सब जगह कांच है, पैर कट जाएगा। मग खोजता हूं, मुंह धोने के लिए। नहीं मिली । बाहर देखा तो लगा रात में किसी ने उसकी ले ली है, एकदम चिथड़ा। सोचा था नये साल में थोड़ा और आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करुंगा...यहां सुबह ही सुबह मग मांगनी पड़ गयी।
जब छोटा था और नहाने में अपने मनमोहन सिंह (किसी करार पर ) से भी ज्यादा टाइम लेता और बोलकर मुकर जाता तो मां कहती- आज नहीं नहाओगे तो सालभर पानी नहीं मिलेगा नहाने को। अब डरा हूं कि पूरा २००८ कहीं मांगने में ही न कट जाए।
मेस के सारे लोग बर्तन बटोरने में लगे हैं, कहीं कटोरी है तो कहीं चम्मच और कहीं पिचका हुआ ग्लास। पूरे हॉस्टल का ऐसा नजारा कि अगर किसी कमजोर चैनल को पाकिस्तान का विजुअल अभी तक नहीं मिला है तो यहां की फुटेज लेकर चला सकता है। बाकी टेप के लिए पहले बात करनी होगी।
माली महीनों से फ्लावर्स डे की तैयारी में जुटा है। पूरा नजारा देखकर बहुत दुखी है। शक्ल से लगा कि मैं पीता-पाता नहीं हूं तो मेरे पास आकर बोला कि- देखिए सर क्या हाल किया है रात में लोगों ने पीकर। आप ही बताइए, क्या नया साल ऐसे मनाते हैं। कई गमलों का सत्यानाश। फूल गमले से बाहर ऐसे गिर आए थे कि जैसे किसी ने बिना अपनी मर्जी के पेट गिराया है।
ब्रेकफास्ट की टेबल पर सिर्फ एक ही चर्चा। क्या ऐसे मनाते हैं लोग हैप्पी न्यू इयर। मेरे मुंह से उनके लिए सिरफ गाली निकल रही थी- स्साले चूतिए...दिनभर सारे चैनलों में देखा कि कैसे बड़े-बड़े लोग मनाते हैं न्यू इयर, फिर भी उत्पात मचाने से बाज नहीं आया और गाली हटाकर कहा कि- भाई जरा टीवी से कुछ सीख लो तो एक बंदा मेरे उपर ही उबल पड़ा-- चुप्प॥ इ बड़ा आदमी क्या सिरफ वृद्ध भिक्षु ( औल्ड मांक ) पीकर ही न्यू इयर मनाते हैं। आप ज्यादा जानते हैं हमसे। गए हैं कभी १ जनवरी के भोर में गुडगांव और जीटी करनाल रोड़। कैसे सब लेके पड़ा रहता है। हम रडुआ लोग बिना उसब के ऐसे ही मनाएंगे, नयू इयर। जो लोग गर्लफ्रैंडशुदा हैं वो तो साले मजे मे है ही, हमलोग को एक एसएमएस तक नहीं। सुबह से ही चैनलों से गुजर रहा हूं, ऐसी कोई खबर नहीं है। हां चैनल का एक बंदा स्टोरी कवर करने गया है गोवा...बता रहा था यहां आकर तो एंकर ने तो सारे लाज- सरमं धो दी है और कैमरामैन भी साला बहुत ठरकी है। बाकी इस मामले में कोई न्यूज नहीं है।
मोबाइल को सुबह से ही लूज मोशन शुरु हो गया है। एसएमएस की बार-बार उल्टी आ रही है। रात के सारे बासी फारवेडेड मैसेज आ रहे हैं और फोन पर रटा-रटाया वाक्य- हैप्पी न्यू इयर।
तो इस चिक- चिक और हील-हुज्जत के साथ बीती अपनी नयी साल की सुबह। मन बन रहा है रात में तो कुछ नहीं ही लिया अब सुबह देखता हूं कहीं जूस- वूस मिल जाए।
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ए गणपत..चल दारु ला

Posted On 10:45 am by विनीत कुमार | 5 comments

बस कुछ ही घंटों बाद नया साल आने वाला है। दिनभर चैनलों पर भटका हूं। सब सिने-सितारों के २००८ के सितारे देखकर अब खाने पर आया हूं। यहां भी मस्ती का आलम है। डिनर टेबल पर खाने की अनगिनत चीजें और बाहर लॉन में डीजे--- नगाड़ा, नगाड़ा बजा। ऐसे मौके पर जबकि पूरा देश एक ग्लोबल मोमेंट को सिलेब्रेट करने में जुटा है, देश के इंटल ऐसे मौके पर नंदीग्राम पर, तरियानी छपरा की बदहाली पर, सेज पर और २५०० के एक पैग को देश के गरीबों से जोड़कर कुछ लिखना-बिखना नहीं। ऐसे एक्सपर्ट को तो वैसे भी चैनलों ने छुट्टी दे ही दी है। आज खालिस मौज- मस्ती की बातें होंगी और कहां कितनी गिलासें फूटी, इसपर बात होगी। इंटल आज प्लीज अपनी आदतों से बाज आ जाओ।
मौज करो, मस्ती करो और हां हर बात पर बोलो- भाड में जाए।
विश यू
जो.....( सबके आगे लगाकर पढ़ें )
रिपोर्टरों को बाइट मिलें
पत्रकारों को दारु
हमारे मास्टर साहब को लिफाफा
और चमचों को मौका।
कम्पनी को मिले बाजार और
हीरोइनों को ब्रेक
फ्रस्टू को मिले राहत और
टूटे दिल के मजनू को फेबीकॉल की शीशी
सबको वो सब मिलें
जो वो नहीं चाहते
...बुरा मान गए, सॉरी
जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती
उससे भी कुछ अच्छा मिले।
राइटर को प्रकाशक और
ब्लॉगर को हिम्मत और ताकत
चंपू को मिले डील
और बॉस को मिले मौका हसीन।
सबको मिले, कुछ-कुछ
बाकी सबकुछ नहीं,॥
अगली बार भी नया साल
तो आएगा न.......
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