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सुशील कुमार सिंह की बेबसाइट गॉशिप अड्डा को ब्लॉग कहने और इस आधार पर उन्हें ब्लॉगर कहने के लिए माफी। ये तो और भी अच्छी बात है कि इसे मान्यता प्राप्त है। लेकिन इन सबके बीच फिर वही सवाल कि क्या ब्लॉगर को पत्रकार कहा जा सकता है। और इसके साथ ही कि क्या वेब पत्रकारिता को मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता में शामिल किया जा सकता है।

पिछली पोस्ट की टिप्पणियों से एक बात तो सामने आयी कि वेब पत्रकाकिता में किसी न किसी रुप में व्यावसायिकता का रंग चढ़ चुका है। यहां लोग अपने फायदे
के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। ( blog aur web site me abhi fark hai.web site swanta sukhai ki bajai der saber munafe ke liye suru ki jata hai jaise akhbar.)- ambrish kumar के लिहाज से ब्लॉग स्वांत सुखाय के लिए लिखा जा रहा है। यानि ये एक इनोसेंट रचना प्रक्रिया है जबकि वेब पत्रकारिता में धन कमाने की लालसा बनी हुई है। कुछ लोग ब्लॉग में
भी इसी नीयत से आते है।

कुछेक एक वेबसाईट ने तो अपने लेखों के लिंक देने के लिये ही ब्लाग बना लिये हैं.- मैथिली गुप्त

इन दोनों टिप्पणियों से साफ है कि वेबसाइट की तुलना ब्लॉग से नहीं की जा सकती। इसी तरह जो
लोग ब्लॉग के लिए लिख रहे हैं उन्हें वेब के लिए लिखनेवालों की पांत में नहीं बैठाया जा सकता।

ब्लागर ब्लागर होते हैं और पत्रकार पत्रकार. दोनों अलग अलग हैं. आजकल सारी दुनियां में ब्लागर अधिक विश्वसनीय माने जारहे हैं. - मैथिली गुप्त

उपर की दोनों टिप्पणियों से ब्लॉगर और पत्रकार चाहे वो वेब पत्रकार हों या फिर मेनस्ट्रीम के पत्रकार, दोनों के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी गयी है। जाहिर है ये जो टिप्पणियां की गयी है उसमें आज की पत्रकारिता के चरित्र को भी एक हद तक शामिल कर लिया गया है। पत्रकार से ज्यादा ब्लॉगर विश्वसनीय हैं। संभव है ये ज्यादा खरी-खरी औऱ धारधार लिखते हैं। उनमें बात कहने के आधार पर मैलोड्रामा नहीं होता। सपाटबयानी की ताकत के साथ जो ब्लॉगिंग चल रही है, वही आगे आनेवाले समय में इसे पहचान देगी। पिछली पोस्ट की टिप्पणियों के आधार पर मैंने ब्लॉग का यही अर्थ लगाया।


लेकिन यहां पर मैं अंवरीश कुमार की बात को फिर से दोहराना चाहूंगा कि वाकई ब्लॉग में उतनी ही सहजता है, उतनी ही मासूमियत है जितनी कि उम्मीद वो कर रहे हैं। उनके ऐसा मानने के
क्रम में हम जैसे हजारों मामूली ब्लॉगर शामिल हैं तब तो मैं भी एक हद तक इस बात को ज्यों का त्यों मानने को तैयार हूं लेकिन जैसे ही ये बात सिलेब्रेटी और समाज के प्रभावी लोगों के पाले में जाती है, तब इस बात को पचा पाना मुशिकल हो जाता है।

मेरी पोस्ट पर बात करते हुए हालांकि एक-दो लोगों ने बात की भी कि- संभव है ब्लॉग पर किसी भी बात का दबाव नहीं है इसलिए लोग अपनी मर्जी से और अपने मन की बात खुलर लिख ले रहे हैं, लेकिन ब्लॉगर को मेनस्ट्रीम
की मीडिया के आगे खड़ा करने का कोई तुक ही नहीं बनता। मेनस्ट्रीम की मीडिया में विज्ञापन, मार्केटिंग और दुनियाभर की चीजों के बीच संतुलन बनाना होता है। ऐसे में कोई ब्लॉग की ताकत यहां रखे तो और बात है। जहां तक बात वेब पत्रकारिता की है
तो ये तो बर्चुअल मीडिया है, इसे रीयल मीडिया के सामने खड़ा करने का कोईम मतलब ही नहीं बनता है। रीयल और वर्चुअल की भी एक अलग ही बहस है। इसके लिए फिर एक अलग पोस्ट की जरुरत होगी.लेकिन फिलहाल इतना ही समझता हूं कि जिस वेब औऱ
ब्लॉग को वर्चुअल कहकर उसकी ताकत और क्षमता को कमतर करके देखा जा रहा है, सच्चाई ये हैं कि उसके बढ़ते संजाल के की वजह से मेनस्ट्रीम की मीडिया के बीच भी खदबदाहट है। अगर वेब वर्चुअल ही है तो फिर हरेक चैनल वेबसाइट लांच करते ही क्यों
दुनियाभर के विज्ञापनों के साथ इससे हमें रुबरु कराते हैं। आप मानिए या न मानिए वेब और ब्लॉग की उम्र भले ही कम हो लेकिन मेनसट्रीम की मीडिया इस पर एक हद तक आश्रित होने लगी है। दीपावली के अगले दिन बाकी अखबारों के साथ ही दि टाईम्स ऑफ़ इंडिया के भी ऑफिस बंद रहे। जनसत्ता और दूसरे अखबारों ने एक छोटे से बॉक्स में लिखा- कार्यालय बंद रहने के कारण कल हम आप तक नहीं पहुंच सकेंगे। हमारी मुलाकात परसों होगी। लेकिन दि टाइम्स ने लिखा- ताजातरीन खबरों के लिए आप हमारे वेबसाइट जा सकते हैं।
पूरी बहस में, ब्लॉगर अपने को पत्रकार कहलाना नहीं चाहते, ब्लॉगर ही कहलाना चाहते हैं। आप इसे पत्रकारिता को लेकर लोगों के बीच की विश्वसनीयता पर एक बार नए सिरे से विचार कर सकते हैं। दिन-रात सिटिजन जर्नलिज्म की ढोल पीटनेवाले चैनलों के वाबजूद भी वो ब्लॉगर ही बने रहना चाहते हैं, भावुक और संवेदनशील ही बने रहना चाहते हैं। कईयों के लिए ये बात बेचैन करनेवाली तो जरुर है, बेहतर हो कि खांचे में न फिट होनेवालों की तादात दिन-दोगुनी रात-चौगुनी बढ़ती रहे।


nadeem की एक शिकायत की मैं गिने-चुने ब्लॉग पर जाकर ही अपनी राय बना लेता हूं। सच तो ये है कि जिसे सिर्फ ब्लॉग पढ़ना है तो गिने-चुने क्या एक ही ब्लॉग पर जाकर राय बना ले लेकिन जिसे पढ़ने के बाद कुछ लिखने के लिए हिम्मत जुटानी हो, उसके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता। बात रह गयी भावना और संवेदना कि तो वाकई अव ये ब्लॉग की मुख्य प्रवृत्ति नहीं रह गयी है।

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क्या ब्लॉगिंग को वेब पत्रकारिता कहा जा सकता है ? गॉशिप अड्डा के ब्लॉगर सुशील कुमार सिहं के लिए जब मैंने वेब पत्रकार शब्द का प्रयोग किया तो यही सवाल लोगों ने हमसे पूछा। इसके साथ ही एक और भी सवाल को जोड़कर देखें कि ब्लॉग जो कि वर्चुअल मीडियम है, उसकी विश्वसनीयता कितनी है।
ब्लॉगिंग के शुरुआती दौर में आप इसे पत्रकारिता तो किसी भी हाल में नहीं कह सकते थे। इसके लिए लोगों ने इंटरनेट डायरी लेखन शब्द गढ़ लिया था। शुरुआती दौर में अधिकांश ब्लॉगर अपने निजी अनुभव और एक खास तरह की भावुकता हमारे सामने आते रहे हैं. कई बार तो पढ़कर लगता कि- कोई नहीं मिला है बोलने बतियाने के लिए तो हमारे पास आ गए हैं। पोस्ट पढ़कर ही लगता, कि इन्हें अदद एक शेयर करनेवाले की तलाश है, एक कंधे की खोज है, जिसपर अपना सिर टिकाकर अपने दिल की बात कह सकें, खुद को हल्का कर सकें।
लेकिन इसके बाद बहुत जल्द ही जिसे कि मैंने अपने एक लेख में ब्लॉगजगत का दूसरा दौर कहा है, वहां लोग अपने लेखन को लेकर ज्यादा कॉन्शस होते चले गए। इसकी एक बड़ी वजह थी कि ब्लॉग की बढ़ती लोकप्रियता के साथ-साथ रीडर उनकी लिखी बातों की अच्छी-खासी नोटिस लेने लग गए। और सिर्फ रीडर ही नहीं, मेनस्ट्रीम की मीडिया भी उनके बारे में कुछ-कुछ लिखने छापने लग गए। कुछ चैनलों ने इन पर स्टोरी की। यानि ब्लॉग जिसे कि अब तक अभिव्यक्ति का कोना भर माना जाता रहा, धीरे-धीरे वो आकाश का रुप लेने लग गया। इसलिए अब लोग भी बहुत ही स्ट्रैटिजिकली लिखने लग गए। जाने-अनजाने ऐसी दो-तीन घटनाएं हो गयीं कि जिसमें ब्लॉग का असर साफ दिखाई देने लगा। इसलिए लोगों में एक भरोसा भी जमा कि यहां पर लिखने से भी कुछ हलचल हो सकती है। कोई चाहे तो कह सकता है कि जैसे-जैसे हलचल पैदा करने के लिए, चाहे वो साकारात्मक हो या फिर नाकारात्मक, ब्लॉग लिख जाने लगे, वैसे-वैसे इसकी स्वाभाविकता खत्म होती चली गयी।
लेकिन यह भी सच है कि ब्लॉगिंग कोई इंसानी दुनिया से बाहर की चीज नहीं है कि उसमें रोजमर्रा के जीवन शामिल नहीं होते। और वही हुआ। शुरुआती दौर में जिस ब्लॉग पर जी भरकर भावनाओं के तोते उड़ाए गए, सिनिकल होकर छोटी-छोटी बातों पर कीबोर्ड तानते रहे, अब वही धीरे-धीरे व्यावहारिक होता चला गया, यथार्थपरक होता चला गया। इतना अधिक यथार्थपरक की एटॉमिक डील से लेकर आतंकवाद तक पर जमकर लिखा जाने लगा। उन सब चीजों पर, बातों पर लिखा जाने लगा, जिसे कि अब तक इसलिए छोड़ा जाता रहा कि अरे, इस पर तो अखबारों में बात होती ही रहती है, चैनल तो दिनभर इस पर स्टोरी किया ही करते हैं. ब्लॉग में इसे दोहराया जाना जरुरी नहीं है।
मेनस्ट्रीम की मीडिया में जिन मुद्दों पर बात की जाती, उसे फिर से ब्लॉग पर लाने का मतलब कभी-कभी तो ये रहा कि जो लोग इस बात को मिस्स कर गए होगें, उन्हें यहां से जानकारी मिल जाएगी, ये काम अभी भी हो रहा है। लेकिन इससे आगे भी दो बड़ी वजह है-

एक तो ये कि मुद्दे को लेकर मीडिया का क्या रवैया रहा, किस अखबार और चैनल ने उसे किस रुप में देखा, इस पर बात हो सके। यानि मीडिया के साथ जोड़कर मुद्दों का विश्ललेषण। इसे आप चाहें तो मेनस्ट्रीम की मीडिया से आगे की चीज कह सकते हैं। दूसरा कि स्वयं मेनस्ट्रीम की मीडिया ने ब्लॉग को न्यूज माध्यम के रुप में स्वीकार कर लिया। कई अखबारों ने इससे उठाकर छापना शुरु कर दिया। मतलब ये कि ब्लॉग मेनस्ट्रीम की मीडिया के लिए पूरक भी बना और एक हद तक उसके आगे की चीज भी। पहले के पोस्टों के मुकाबले आप अभी के पोस्टों पर गौर करें, आपको अंदाजा लग जाएगा कि कितना बड़ा फर्क आया है। ये अलग बात है कि शुरुआती दौर में कोई भी व्यक्ति ब्लॉग की पुरानी परिभाषा के आधार पर भावुक और बहुत ही पर्सनल किस्म की बातों को लिखता है, लेकिन बहुत जल्द ही उसे यहां का मंजर देखकर समझ में आ जाता है कि- मामला बस इतना भर नहीं है।
आगे भी जारी...
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न्यूज चैनलों या फिर मेनस्ट्रीम की मीडिया पर होनेवाले हमले को लोकतंत्र पर हमला बताया जाना आम बात है। यह अलग बात है कि अधिकांश चैनल और मीडिया संस्थान अपने को लोकतंत्र से जोड़ने का अधिकार खो चुके हैं। अगर उनके हिसाब से लोकतंत्र का अर्थ अगर ज्यादा से ज्यादा लोगों की भीड़ भर है, तब तो कोई बात नहीं लेकिन अपने को लोकतंत्र से जोड़े रखने के लिए मेनस्ट्रीम की मीडिया को अभी भी भारी मशक्कत करनी पड़ेगी। लोकतंत्र के साथ अपने को जोड़ने का अधिकार मीडिया को तभी है जबकि वो समझदारी पैदा करने का काम करे। अगर उसके पास खुद की इतनी क्षमता नहीं है तो कम से कम जो सरकारी, गैर सरकारी, स्वयंसेवी संस्थाओं और व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास चल रहे हैं उसे मजबूत करने का काम करे।

मेनस्ट्रीम की मीडिया से एक सीधा सवाल है कि क्या सिर्फ एक मुहावरा भर गढ़ लेने से कि मीडिया पर हमले का मतलब है लोकतंत्र पर हमला, मीडिया के स्वर को दबाने का मतलब है, लोकतंत्र का गला घोटने की कोशिश, लोकतंत्र को हमेशा के लिए बचाए रखना संभव है।....और वो भी तब जब वो खुद लालाओं के हाथ की कठपुतली और बाजारपरस्ती के आगे हथियार डाले बैठे हैं। इसी के साथ एक और सवाल सामने है कि वो लोकतंत्र के नाम पर क्या बचाना चाहते हैं। लोकतंत्र के भीतर किसे बचाना चाहते हैं। क्या वो वही लोकतंत्र बचाना चाहते हैं जिसका प्रावधान हमारे संविधान में है या फिर इसी क्रम में कोई दूसरा लोकतंत्र जो कि देश के भीतर तेजी से पनप रहा है, उसे बचाने की बात कर रहे हैं। जब तक मेनस्ट्रीम की मीडिया इन बातों को एक आम पाठक या ऑडिएंस के सामने साफ नहीं कर देते, तब तक लोततंत्र के नाम पर मीडिया को बचाए जाने की अपील एक धोखा है, एक प्रवंचना है।

यह बात सही है कि मेनस्ट्रीम की मीडिया किसी न किसी रुप में लोगों से जुड़े सवालों को आवाज देती है। लेकिन यहां पर यह समझना बहुत जरुरी है कि केवल और केवल मेनस्ट्रीम की मीडिया ही नहीं है जो कि ऐसा करती है। इसके अलावे भी दर्जनों एजेंसियां औऱ हजारों व्यक्तिगत प्रयास हैं जो कि लोकतंत्र को जिंदा रखने का काम करते हैं। अगर मेनस्ट्रीम की मीडिया की नीयत साफ है कि उसे हर हालत में लोकतंत्र को जिंदा रखना है तो फिर उन्हें इन सबों को सहयोग करना चाहिए, उनके छोट-छोटे प्रयासों को मजबूत करना चाहिए। लेकिन क्या वाकई में ऐसा ही हो रहा है। क्या सचमुच मेनस्ट्रीम की मीडिया लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए बेचैन है।

परसों मीडिया खबर ने एक मेल भेजा जिसमें बताया कि वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाया गया है। पुलिस उन्हें लगातार परेशान कर रही है। ईमानदारी से अपनी आवाज उठानेवालों को पुलिस द्वारा परेशान किया जाना कोई नई बात नहीं है। अगर आप पुराने पत्रकारों और सुधार की दिशा में काम करनेवाले लोगों के बारे में पढ़े तो आपको इस बात की लम्बी फेहरिस्त मिल जाएगी। लेकिन नयी बात ये है कि ये सारा काम एचटी मीडया जैसे एक बड़े मीडिया समूह के शीर्ष पर बैठे कुछ मठाधीशों द्वारा किया जा रहा है। उनके कहने पर ही पुलिस बेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को लगातार परेशान कर रही है।

इन मठादीशों से अगर सवाल किए जाएं कि आप कौन से लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए ऐसा कर रहे हैं तो शायद वो सही से जबाब न देने पाएं लेकिन सच्चाई यही है कि वो बी किसी न किसी लोकतंत्र की रक्षा जरुर कर रहे हैं, भले ही साइज में वो अबी बहुत ही छोटा है और उम्र के लिहाज से बहुत ही मासूम। लेकिन यह संविधान के लोकतंत्र पर भारी पड़ रहा है। यह उसे बदलने की फिराक में है। बदलने का ये जिम्मा ऐसे ही समूहों के शीर्ष पर बैठनेवाले लोगों के हाथ में है।

इस पूरे प्रकरण में सुशील कुमार सिंह का दोष सिर्फ इतना भर है कि उन्होंने एचटी की संपादकीय गड़बड़ी पर उंगली रख दी और वो इन्हें बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। आप चाहें तो कह सकते हैं कि इतना बड़ा समूह संजय के इस प्रयास को जिसे कि साकारात्मक रुप में लिया जाना चाहिए था, नहीं पचा पा रहा है, तब वो बाकी मोर्चों पर, जहां उनकी अपनी मर्जी चलती होगी, क्या करते होगें।


फिलहाल आनेवाले समय में बेब पर अपनी आवाज उठानेवालों की सुरक्षा और परस्पर सहयोग के लिहाज से दिल्ली में वेब पत्रकार संघर्ष समिति का गठन किया गया है। जो मेनस्ट्रीम की मीडिया के द्वारा विस्तार दिए जानेवाले लोकतंत्र का विरोध करते हुए संविधान द्वारा प्रस्तावित लोकतंत्र की बहाली में अपनी ओर से प्रयास करेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये समिति आनेवाले समय में साकारात्मक विस्तार लेगी और बाकी की समितियों की तरह छोटी-मोटी मांगों और पूर्ति के बीच उलझकर नहीं रह जाएगी। इसका व्यापक दायरा होगा और सही अर्थों में प्रतिरोध के स्वर जिंदा रह सकेंगे।


मीडिया ख़बर की ओर से भेजी गयी मेल-

वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने के खिलाफ
वेब पत्रकार संघर्ष समिति की मुहिम
एचटी मीडिया में शीर्ष पदों पर बैठे कुछ मठाधीशों के इशारे पर वेब पत्रकार सुशील कुमार सिंह को फर्जी मुकदमें में फंसाने और पुलिस द्वारा परेशान किए जाने के खिलाफ वेब मीडिया से जुड़े लोगों ने दिल्ली में एक आपात बैठक की।आगे की ख़बर पढने के लिए यहाँ क्लिक करें http://mediakhabar.com/media-khabar-webjournalism.html

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दूरदर्शन के कुछ सीरियलों की बात छोड़ दें तो निजी मनोरंजन चैनल मुस्लिम समाज और उनकी संस्कृति को नजरअंदाज ही करते आए हैं। लगभग सभी मनोरंजन चैनलों पर कम से कम चार-पांच सीरियल चल रहे होते हैं, उनमें से एक भी ऐसा सीरियल नहीं है जिसकी पटकथा मुस्लिम परिवार, उसकी संस्कृति और उनके रिवाजों पर आधारित हो।

अगर ऑडिएंस रिसर्च के हिसाब से बात करें तो तुरत-फुरत एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संभव है मुस्लिम औऱतें सीरियल नहीं देखा करती हैं। मीडिया की स्थापित दलील की जब ऑडिएंस हैं ही नहीं तो दिखाएंगे किसके लिए, ये काम में लाया जा सकता है। लेकिन इस लचर दलील में एक दिक्कत है-

हिन्दू रीति-रिवाजों और संस्कृति पर आधारित सीरियलों को देश की मुस्लिम महिलाएं भी देखती हैं। क्योंकि सास भी कभी बहू थी की लोकप्रियता हिन्दुस्तान के अलावे इस्लामिक देशों में भी रही। इससे एक बात तो साफ है कि ऑडिएंस सीरियलों को सिर्फ अपने रीति-रिवाजों भर के होने के कारण नहीं देखती, उसके अलावे भी उसमें कई ऐसे एलीमेंट हैं जिसकी वजह से सीरियल की लोकप्रियता बनती है। जिन लोगों के लिए टेलीविजन के सीरियल सिर्फ फैशन और कन्ज्यूमर कल्चर को बढ़ावा देने का मामला है वो चाहें तो खुश हो सकते हैं कि एक हद के बाद ऑडिएंस इन सब चीजों के अलावे और भी बहुत कुछ देखना-सुनना चाहती है।

जो टेलीविजन की समीक्षा समाजशास्त्रीय आधारों पर करते हैं उनके हिसाब से बाकी चीजों के साथ-साथ मुस्लिम आधारित कथानकों को नहीं चुनना प्रोड्यूसरों का तंग नजरिया लग सकता है।

आप हिन्दी के सारे मनोरंजन चैनलों पर एक नजर डालकर देखें। सीरियलों के मामले में इसकी संख्या पचास से उपर हैं। इसमें पांच से दस सीरियल ऐसे हैं जिसे कि कोई भी किसी न किसी रुप में जरुर जानता है। या तो उनके पात्रों की वजह से या तो कथानक की वजह से या फिर उनसे जुड़े लोगों के सीरियल के अलावे बाकी क्षेत्रों में सक्रिय होने की वजह से। लेकिन आप देखेंगे कि कहीं कोई मुस्लिम चरित्र नहीं है। ऐसी कोई घटना या एपिसोड नहीं है जिसमें कि उनकी संस्कृति या उनकी उपस्थिति को टेलीविजन में शामिल किया जा सके। संभव है कि असल जिंदगी में कई कलाकार मुस्लिम रहे हों लेकिन सीरियल के स्तर पर वो सिरे से गायब हैं। अगर टेलीविजन को वोट और रोटी पर सबका अधिकार वाले फार्मूले से देखें तो यह सरासर गलत है। कल तक की तो यही स्थिति रही।

लेकिन एनडीटीवी इमैजिन ने इस पैटर्न को तोड़ा है। चांद के पार चलो का ताना-बाना मुस्लिम संस्कृति के इर्द-गिर्द बुना गया है। जिसमें भाषाई प्रयोग से लेकर उनके रीति-रिवाज तक को बड़े ही संवेदनशील तरीके से शामिल किया गया है। अगर आप ये कह भी दें कि- अजी सब टीआरपी का खेल हैं, जहां से माल मिलेगा, टीवी उधर की बात करेगा। तो भी एक बात तो माननी ही होगी कि- सीरियल के इतने बड़े-बड़े दिग्गज इन्डस्ट्री में पड़े हुए हैं, दुनियाभर के कथानकों पर सीरियल बनाते रहें लेकिन हिन्दू परिवारों के बीच ही क्यों घूमते रहे। जिस तरह से सरकारी कलेंडरों में उत्सव मनाने और शोक जाहिर करने के दिन पहले से तय होते हैं उसी तरह से इन सीरियलों में हिन्दुओं के लिए उत्सव और घटनाओं को लेकर शोक मनाने के एपिसोड पहले से निर्धारित क्यों कर दिए जाते रहे। सवाल-जबाब करने लग जाइए तो प्रोड्यूसरों को बात करना मुश्किल पड़ जाएगा।॥

ये बात हमें भी पता है कि एनडी भी जिस रुप में चांद के पार चलो की कहानी को आगे बढ़ा रहा है वो सास-बहू सीरियलों से बहुत आगे की चीज नहीं है। वो भी मुस्लिम संस्कृति और रीति-रिवाजों के नाम पर फिक्सेशन का काम करता जाएगा। जैसा कि अब तक के चैनल और सीरियलों में होता आया है। लेकिन इन सबके बावजूद एक बड़ी सच्चाई है कि जो भी चीजें टेलीविजन पर आती हैं, एक बार रिवाइव तो जरुर हो जाती है। इसकी बारीकियों पर धीरे-धीरे बात होती रहेगी।

फिलहाल भारतीय दर्शकों को इतना तो पता चले कि जिस देश में करवा चौथ औऱ लक्ष्मी पूजा मनाए जाते हैं, उसी देश में ईद भी मनायी जाती है। जिस देश में लड़कियां रिश्तों में उलझती चली जाती है उसी देश में रेहाना अपने मन की सुनती है। जिस देश में बात-बात में मंदिर जाया जाता है, भगवान के आगे मत्था टेका जाता है, उसी देश में मजार भी है, जहां एक ही नूर के बंदे गाए जाते हैं। और फिर भारी-भरकमों करोड़ों रुपयों से लदी-फदी ज्वेलरी के आगे कोई महज चमकीले सितारों( प्लास्टिक के) से जड़े दुपट्टे ओढ़कर भी चांद जैसी खूबसूरत हो सकती है, कम पैसे में भी फैशन संभव है। गरीबों की डिक्शनरी से फैशन गायब नहीं होने चाहिए, ये कोशिश अगर एनडी कर रहा है तो बेजा क्या है।

बाकी बातों को छोड़ दे तो फैशन के स्तर पर ही सही, बहुत ही चालू और सतही ढ़ंग से ही सही, सास-बहू की ऑडिएंस को एक अलग टेस्ट और नयी फ्लेवर तो जरुर मिल रहें हैं। और फिर इश्क कौन इंसा नहीं करता, यहां अगर उसके इजहार का तरीका बिल्कुल ही अलग है, तो ऑडिएंस तो हाथों-हाथ लेगी ही।

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स्त्रियां वरमाला के समय एक बार झुक जाती है तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो जिंदगी भर पुरुषों के आगे झुकती चली जाए। अब वो जमाना गया कि पुरुष उसे जो कहे, जैसा कहे, वो मानती चली जाए। उसकी अपनी भी इच्छाएं हैं, अपनी भी मर्जी है। जिस घर में मेरी बेटी की एक छोटी सी इच्छा पूरी नहीं हो सकती, उस घर में मेरी बेटी कभी वापस नहीं जाएगी। ये घोषणा थी, आठ साल से चले आ रहे टेलीविजन सीरियल कहानी घर -घर की के अंतिम एपिसोड में पार्वती भाभी( साक्षी तंवर) की।


पार्वती की इस घोषणा से एकबारगी तो मुझे ऐसा लगा कि एकता कपूर आठ साल के भटकाव की भरपाई को इस अंतिम एपिसोड में करना चाहती है। लोकप्रियता के साथ-साथ सास-बहू आधारित सीरियलों की जितनी आलोचना हुई है, संभव है उसे ध्यान में रखकर एकता कपूर ने ऐसा किया हो औऱ ऑडिएंस के सामने एक प्रगतिशील मूल्य छोड़ना चाह रही हो। शायद तभी पार्वती भाभी जिसने की लाख परेशानियों के बावजूद भी अपने परिवार को टूटने नहीं दिया। परिवार को बचाए रखने के लिए एक स्त्री को जलाती रही, स्त्रीत्व जिसमें कि त्याग, अवमानना, परिहास, प्रताड़ना और न जाने कितने कष्ट शामिल रहे, सबको झेलती चली गयी। इस आठ साल में वो पागल हुई, उसे बार -बार इलेक्ट्रिक शॉक दिया गया लेकिन अंतिम एपिसोड तक परिवार तक आते-आते परिवार को बिखरने से बचा लिया। आठ साल पहले जिस दिवाली से कहानी घर-घर की शुरुआत हुई थी, आठ साल बाद उसी दिवाली से इसका अंत भी हुआ। पहले से कहीं बेहतर स्थिति में, भरपूरा। ऐसा तो रामायण में भी नहीं हुआ था। वहां भी दशरथ और अयोध्या के कुछ जरुरी पात्र मर-खप गए थे। इस अर्थ में कहानी घर-घर की, रामायण से भी ज्यादा सुखांत रहा। ये अलग बात है कि जब पार्वती जब ओम के साथ दिवाली के दिए जला रही थी, तब पूरी दिल्ली में रावण को जलाकर लौटने की थकान मिटी नहीं थी। न्यूज चैनल इस दौरान अभी तक हादसे में ही बझे-फंसे थे। पार्वती ने ये काम एडवांस में किया था। खैर, प्रगति को अंकुर ने दिवाली पर क्राइसिस होने की वजह से नेकलेस देने से मना कर दिया था। प्रगति के दिवाली के दिन अचानक से अपने ससुराल छोड़कर आ जाने के बाद पार्वती लगातार बोले जा रही थी। एक स्त्री के पक्ष में, उसके अधिकारों और इच्छाओं को ट्रेस करते हुए, उसके लिए तर्क देते हुए। उसके सारे वक्तव्यों से साफ झलक रहा था कि इस एपिसोड के लिए एकता कपूर ने स्त्री अधिकार संगठनों पर ठीक-ठाक रिसर्च किया है। पार्वती का कहना था कि पहले स्त्री की इच्छा है और उसके बाद रिश्ते हैं।

तभी घर के एक-एक सदस्य पार्वती की उसी बात को दोहराने लगे, जिसे उसने आट साल तक चलनेवाले इन एपिसोडों के दौरान दोहराया था। ओम ने कहा- अगर पैसे औऱ इच्छाओं से ही संबंध मजबूत होने होते, तब तो पार्वती हमारे रिश्ते टूट जाने चाहिए थे, लेकिन हुआ ये कि हमारे संबंध पहले से और ज्यादा मजबूत हुए और इसके सामने पैसा छोटा पड़ गया। पार्वती ने दोहराया- परिवार को बचाने के लिए हमने जो बातें पहले की थी, आज उसका कोई महत्व नहीं है। लेकिन घर के एक-एक सदस्य पार्वती के परिवार के लिए गलने, छीजने और बर्दाश्त करने की बात दोहराते हुए।

अंत में समझ में आया कि एकता कपूर ने आठ साल के भीतर जो कुछ भी दिखाया और भारतीय परिवार के जिन मूल्यों को सहेजने की बात की, दरअसल उसे डिफेंड करने का ये तरीका था। सीधे-सीधे पार्वती अगर कहती कि घर के लिए स्त्रियों का मिट जाना ही उसकी नियति है तो ये उपदेश-सा लगता औऱ शायद इसे लोग मानते भी नहीं। लेकिन जैसे ही घर के एक-एक सदस्य पार्वती की कही हुई बातें दोहराने लगे जिसमें कि अभी की पीढ़ी भी शामिल रही तो असर कुछ ज्यादा ही जमानेवाली बात हो गयी। हमारे सामने यह सिद्ध कर दिया गया कि आठ साल से जिन मूल्यों को सहेजने की बात की जा रही थी, वो महज पुरानी पीढ़ी की अपील भर नहीं थी, बल्कि नई पीढ़ी ने भ इसे हूबहू अपना लिया है।

एपिसोड खत्म होने के बात देशभर के ऑडिएंस के वाक्सपॉप दिखाए गए जिसमें सबों ने कहा कि उन्हें पार्वती बहुत पसंद आयी। वो बहुत सही बात कर रही थी, रिश्ते ही नहीं रहेंगे तो फिर बाकी की चीजों का क्या करना। अब क्या था, कहानी घर-घर की पर ऑडिएंस की भी मुहर लग गयी थी।

जाते-जाते पार्वती की आंखों के कोर भीग गए। उसने रुआंसे स्वर में कहा- आट साल से आप मुझे देखते रहे, मेरा इंतजार करते रहे, सच पूछिए तो जाने का मन नहीं कर रहा। लेकिन जाना होगा। आपका मुझे खूब प्यार मिला।। मुझे भरोसा है कि आपके मन में मैं हमेशा रहूंगी।.......

हमेशा रहूंगी यानि रिश्तो के लिए तिल-तिल छीजनेवाली एक स्त्री, यही मूल्य है यही संस्कृति है।
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दीपावली के दो-तीन दिन पहले मां हाथ में सूप, बटरी और चाबी लेकर पूरे घर में उसे पटक-पटककर बजाती थी। मां कहती कि इससे घर का दलिद्दर यानि कंगाली भाग जाती है और घर में लक्ष्मी के आने का मामला शत-प्रतिशत तय हो जाता है। जब मैं छोटा था तो मैं भी अलग से हाथ में सूप और चाबी लेकर मां के पीछे-पीछ बजाता। इस दौरान कोई घर में आया होता तो कहता, देखो चाची के साथ-साथ घर की छोटी बहुरिया भी कंगाली भगाने में लगी हुई है। लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता गया, मां के साथ बाकी चीजों के छूटने के साथ ही ये सारी चीजें भी छूटती चली गयीं। बड़ा होने पर तो मैं यहां तक कहने लगा था कि- ये सब ढोंग क्यों करती हो। रात में बजाती हो और मैं डिस्टर्ब हो जाता हूं। कंगाली भगाने के मां के इस तरीके पर मुझे रत्तीभर भी भरोसा नहीं होता। क्योंकि इसी दीपावली में मैं जब भी कुछ लाने कहता- पापा टाल जाते. कहने लगते- अच्छा बताओ, इसकी एकदम से अभी जरुरत है। और अगर एक ही साथ तीन-चार चीजें लाने कहता तो उसमें ऑप्षन दे देते- सबसे जरुरी सामान कौन-सी है. मैं पापा के जाने पर झल्लाकर कहता-तुम दिन दिनों से कंगाली भगा रही हो और फिर भी मेरे लिए घर में लक्ष्मी आ ही नहीं रही है. बोर्ड के बाद घर छूटा और एक खास रकम के साथ आजादी मिल गयी कि इतने पैसे भेजा जाएगा। अब इसमें तुम चाहो तो किताबें खरीदो, कमरे का किराया दो या फिर ऐश करो। यकीन मानिए, अगर किसी को इस तरह की आजादी मिलती है तो वो ज्यादा बंधा-बंधा महसूस करता है। वो कतर-ब्योंत की कला में इतना माहिर हो जाता है कि बिना पचास बार सोचे कुछ भी खरीद नहीं पाता। ये अलग बात है कि उसमें बचत के संस्कार आ जाते हैं लेकिन साथ में जो कइंयापन आ जाता है उससे वो जीवन भर मुक्त नहीं हो पाता। पैसे रहने पर भी वो उसे खर्च करने में पचास बार सोचता है।

मेरे दिल्ली रहने पर मां मेरे लिए सबकुछ करती है। अलग से पूजा-पाठ करती है और पता चल जाए कि इन दिनों मैं बीमार चल रहा हूं तो पूजा की अवधि बढ़ा देती है लेकिन मेरे हॉस्टल के कमरे में आकर दलिद्दर और कंगाली भगाने का काम नहीं कर पाती। मैंने कभी भी कंगाली भगाने का काम नहीं किया है। परेशान होने पर भी पूजा-पाठ और अगरबत्ती नहीं जलाया। मां के हिसाब से यही वजह है कि हर साल दीपावली के पहले मेरे सामानों की चोरी हो जाती है। अबकी बार मां ने विजयादश्मी के समय ही कहा था- अबकी बार सूप पर चाबी पटककर जरुर बजाना। मां को बताया कि दिल्ली में सूप कहां से लाउं। और फिर तुम तो जानती ही हो कि मैं इन सब चीजों में विश्वास नहीं करता। मां बोली- नय मानते हो तो मत मानो, ऐसे बोलोगे तो भइया जा रहा है, एक सूप भेज देती हूं। मैंने कहा-नहीं, रहने दो। गिनकर तो पैसे मिलते हैं और जिंदगी भर ऐसे ही गिनकर मिलेंगे, अब इसमें क्या दलिद्दर भगाना औऱ लक्ष्मी को बुलाना, येसब काम घर में ही करो, जब लाख-दो लाख की जरुरत होगी तो तुम्हीं से मांग लूंगा। मां बेमन से बोली- जो जी में आए करो।

तीन दिनों के प्रयास के बाद भी जब नतीजा कुछ भी नहीं निकला, तब अंत में जाकर मैंने मां को बताया। मेरी तबीयत जानने के लिए रोज फोन किया करती है। मैंने कहा- मां तबीयत तो ठीक हो गयी लेकिन इस साल फिर धक्का लगा है। मैं बीमार था, सो मेरी हालत देखकर नीरज मुझे अपने कमरे पर इंदिरा विहार ले गया। मेरी हालत कुछ ज्यादा ठीक नहीं थी, सो देखने एक-दो और दोस्त आ गए। हम चार थे और दो बजे तक बातचीत करते रहे। सुबह सब आठ-साढे आठ बजे सोकर उठे। देखा-हम सबों के मोबाइल गायब हैं। आधे घंटे ध्यान आया- अरे मेरी तो घड़ी भी गायब है। बाकियों के नकदी और आइडी येसब सब। रात में हमलोगों को स्प्रे करके एक गुट ने तीस-पैंतीस हजार का चूना लगा दिया था। मेरा करीब नौ हजार का नुकसान हो गया है। यही वही स्विस घड़ी है जिसे मैंने कइंयापन को तोड़ने के लिए खरीदी थी। बताओ मां लक्ष्मी के आने के पहले ही दलिद्दर धम-मदाडा़ हो जाता है।नीरज की मां फोन पर लगातार कह रही थी- हम तुमको बोले थे कि नवरात्र में ढोड़ी में तेल डाल लेना, ग्रह-गोचर कटेगा, तुम नहीं माने। मेरी मां कह रही थी- सबकुछ जानने-सुनने पर भी उपाय नहीं करते हो तो क्या होगा. फिर आस्था और भगवान पर सात मिनट पर बोलती रही। ये भी कहा कि- मृत्युंजय पंडिजी से पूछकर बताएंगे, क्या हुआ. अंत में कहा-जाने दो, जान तो बचा....ऐसा-ऐसा घड़ी और मोबाइल केतना आता है, केतना जाता है।

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चैनल में मेरे साथ काम करनेवाले मेरे दोस्त अक्सर कहा करते- तुम्हें जितनी सैलरी मिलती है, लगता है उसके आधे पैसे से तुम तो काजू ही खा जाते हो। लड़कियां व्यंग्य में कहती- अरे बड़े लोग बड़ी बात। हम तो घास-फूस खाकर बड़े हुए हैं। एक-दो लड़कियों का मुंह बंद करने के लिए मैं उसे चने की माफिक काजू खिलाया करता। अक्सर कहता- डबल-डबल शिप्ट किया करती हो, ठीक से खाया-पीया करो, नहीं तो ऐसे कैसे चलेगा। अभी तो पूरी जिंदगी पड़ी है। ऐसी भूमिका बनाने के बाद कहता-लो काजू खाओ। टप्परवेयर का डिब्बा उसके सामने खोल देता और वो मूढ़ी-भूजे की तरह काजू खाती।

पहले मेरा घर अधिक जाना होता था। किसी न किसी बहाने घर जाने की ताक में लगा रहता। दीदी की शादी होनेवाली थी। सो वो भी एक अच्छा बहाना होता। कभी लड़का देखने, कभी फाइनल करने, कभी शॉपिंग कराने..... फिर भइया लोगों का भी दिल्ली अक्सर आना होता रहता. इधर वो कम आने लगे हैं और अगर आते भी हैं तो पहले दिन मेरे यहां नहीं आते। पहले वो अपना काम कर लेते हैं, फिर चार-पांच दिनों के बाद मेरे पास आते हैं। इससे उनके आने पर भी किसी के घर से आने का एहसास नहीं होता। आने के पहले मां पूछती है कि- क्या-क्या भेज दूं. मैं कहता हूं, कुछ नहीं, भइया कहां-कहां लेकर भटकते फिरेंगे, सीधे तो मेरे पास आते नहीं है.नहीं तो पहले जब भी मैं जाता या फिर घर से कोई आता तो ढेर सारे सामान लेकर आता। जिसमें काजू की मात्रा सबसे अधिक होती।

मैं जिस दिन घर से निकलने को होता, उसके पहले की रात दीदी मेरी दीदी जिसकी शादी भी जमशेदपुर ही हुई है, मेरे यहां आ जाती. साथ में वो दुनियाभर का सामान लेकर आती। कॉम्प्लॉन से लेकर सर्फ एक्सल तक। मैं कहता, ये सब क्यों ले आती हो, दिल्ली में सब मिलता है। उसका सीधा जबाब होता- अरे घर में पड़ा था ले आयी औऱ फिर तुम जाते ही सामान खरीदे लगोगे। काजू के दो बड़े-बड़े पैकेट तो ऐसे लाती जैसे कि यह मेरे लिए शगुन है. दीदी के यहां इन्ही सब चीजों का बिजनेस है। दीदी के आने के पहले मां सामान की पैकिंग कर चुकी होती. सारे सामान के साथ वो भी काजू देती। घर के किचन में खुशी को खिलाने के लिए जो काजू भाभी मंगाती है, वो सारा का सारा एक पॉलीथीन में बांधकर दे देती. मैं पूछता- और खुशी। तो सीधा कहती- घर में इतना तो आदमी है, कोई ले आएगा।

सारा सामान लेकर मैं दुकान पहुंचता हूं। बड़े भैय्या तो घर से ही साथ में होते हैं लेकिन छोटे भैय्या और पापा वहीं होते हैं। वहां जाने पर पापा एक सवाल करते हैं। चड्डी-बनियान तो है न। फिर हां कहने पर भी तीन-तीन निकालकर दे देते. अब मुझे भी ऐसी लत लगी है कि हजार रुपये की शर्ट खरीदने के बाद भी दिल्ली में चड्डी-बनियान मंहगी लगती है. इसी बीच देखता हूं कि बड़े भैय्या उधर से दो काजू के पैकेट लेकर आ रहे हैं. मैं कहने लगता हूं. दीदी ने भी दिए हैं, मां ने भी दिए हैं। आप खुशी के लिए लेते जाइए। भइया हंसकर कहते हैं-खुशी के तो यहां पापा है, बाबा हैं, चाचा है, कोई भी ला देगा। तुम्हारा वहां कौन है। लेते जाओ।

कुल मिलाकर सबों की को कोशिश यही होती है कि दिल्ली में इसे कम से कम नकदी पैसे खर्च करने पड़े.इधर मैं करीब दस-बारह दिनों से बीमार पड़ा रहा। कमजोरी इतनी अधिक की उठने पर चक्कर आने लगे। राकेश सर आए और मुझे जबरदस्ती अपने घर ले गए। तीन-चार दिनों तक घर का खाना खाया तो थोड़ी ताकत आयी। डॉक्टर सहित सबों ने राय दी कि जमकर खाया-पिया करो। दूध लो, फल लो,जूस पियो औऱ हां काजू-किशमिश खाया करो। जिन लोगों को पता है कि मैं गाय-गोरु की तरह फल धसोड़ता हूं, उनका कहना था कि इतना फल खाने पर भी कैसे कमजोर हो गए।

परसों शाम मेरा एक दोस्त आया और कहने लगा- अब थोड़ी दूसरी थेरेपी अपनाओ। चलो कमलानगर घूमकर आते हैं, इधर-उधर ताकोगे तो हरियाली आ जाएगी। वहीं से काजू-किशमिश वगैरह खरीद लेना। बड़ी हिम्मत करके वहां गया.जाड़े के दिनों में दिल्ली में ड्राइफ्रूट्स की बाढ़ आ जाती है। अभी तो दिवाली में भी लोग एक-दूसरे को गिफ्ट करते हैं। मैं एक दूकान पर पहुंचा औऱ सबों के दाम पूछने लगा. लाइफ में पहली बार काजू खरीदने का मन बन रहा था और पहली बार मैं इसकी कीमत जान पाया। दूकानदार ने मात्र ५५० रुपये किलो बताया। सब्जीवाले सब्जियों के दाम पाव में बताते हैं लेकिन ये किलो में बता रहा था।

दाम सुनकर मुझे कई चीजें एक साथ याद आ गयी। चैनल में लड़कियों को काजू खिलाने से लेकर दीदी, मां और भैय्या के काजू देने तक। साथ ही दिमाग में बायलॉजी के सारे विटामिन् याद आ गए औऱ समझा कि अंकुरित अनाज और चने से भी बहुत ताकत मिलती है। अबकी बार में पहले से बोल्ड था और बिना किसी भी चीज का दाम पूछे सीधे कहा- एक किलो चना, एक किलो मूंग, एक किलो, मूंगफली और २५० ग्राम किशमिश पैक कर देना. पैकेट लेकर बाहर निकला, सारी चीजें मेरी हैसियत के हिसाब से थी।


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कल देर रात तक बड़े ही अनमने ढंग से चैनल को बदलता रहा। प्राइम टाइम के कार्यक्रमों की रिकार्डिंग पूरी हो चुकी थी. अब मैं अपने मन मुताबिक टीवी देखना चाह रहा था। तभी डीडी नेशनल पर अमीन सयानी की आवाज सुनकर चौंक गया और रुक भी गया.दूरदर्शन के मामले में कई बार ऐसा होता है कि विजुअल्स तो दूरदर्शन के आते हैं लेकिन ऑडियो एफएम रेनवो के आने लगते हैं. आप दूरदर्शन की खिंचाई करने के मूड में नहीं हैं तो आप टीवी देखते हुए रेडियो का मजा ले सकते हैं. मैं तो ऐसे में टीवी भी चालू रखता हूं और रेडियो भी जोर से चला देता हूं, ताकि मिलान कर सकूं कि किससे ज्यादा सुरीली आवाज आ रही है। लेकिन कल रात दूरदर्शन पर सचमुच में अमीन सयानी बोल रहे थे।
और फिर अमीन सयानी ही नहीं, vivid bharti की पहली उदघोषिका शौकत आज़मी, तबस्सुम जो तरन्नुम कार्यक्रम लेकर आती थी, जयमाला के उदघोषक और भी पुराने-पुराने लोग. करीब आधे घंटे तक विविध भारती से जुड़े पुराने लोग दूरदर्शन पर बारी-बारी से आते रहे और रेडियो को लेकर अपने अनुभव बताते रहे.
आज मीडिया में हम जिस परफेक्शन और प्रोफेशनलिज्म की बात करते हैं, इन सारे पुराने लोगों में ये सारी चीजें होते हुए भी माध्यम को लेकर भावुकता साफ झलक रही थी। वो रेडियो में बिताए गए क्षण को महज नौकरी के रुप में नहीं याद कर रहे थे बल्कि रेडियो के बदलाव के पीछे की एक-एक कहानी को बयां कर रहे थे. इसी क्रम में उन सारे लोगों को भी याद करते जाते जिन्होने उन्हें लगातार ब्रश अप करने का काम किया। आज तो एक मीडियाकर्मी अपने जीवनकाल में इतना बैनर बदलता है कि उसे शायद ही याद हो कि किससे क्या सीखा और किसके कहने पर कौन-सी शैली अपनायी। इन सारे लोगों में रेडियो से जुड़ी यादें बरकरार थी.
शौकत आज़मी ने बताया कि एक बार मीटिंग में उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि- गाने के साथ-साथ लेखक का नाम, फिल्म का नाम, संगीतकार का नाम आदि जाएगा। नरेन्द्र शर्मा ने कहा- आगे से ऐसा ही होगा और उसके बाद से आज तक आकाशवाणी में यही फार्मेट चल रहा है। शौकत की शिकायत थी कि आज जो कुछ भी एफएम पर चल रहा है, सब बकवास है, उन्हें न तो बोलने आता है और न ही कार्यक्रम को पेश करने का शउर ही मालूम है। इसी बात को तबस्सुम ने दोहराया कि जिस तरह से हिन्दी फिल्मों में तकनीक के स्तर पर तो खूब तरक्की हो रही है लेकिन कंटेट के स्तर पर वो पिछड़ता चला जा रहा है, यही हाल आज के एफएम का है। इनके पास मैटर की कमी है। गाने के बारे में कहूं तो एक शेर याद आता है कि-
अजब मंजर आने लगे हैं
जो गानेवाले थे, चिल्लाने लगे हैं
तबस्सुम और शौकत की बातों में एक हद तक अतिशयता है। कभी-कभी हम अतीत को बेहतर साबित करने के चक्कर में वर्तमान को ज्यादा घटिया से घटिया साबित करने में लग जाते हैं. ऐसा करने से वस्तुनिष्ठता खत्म होती है. लेकिन इनकी बातों से एक एंगिल तो जरुर सामने आता है कि बिंदास अभिव्यक्ति के नाम पर एफएम में जो कुछ भी चल रहा है, भाषाई स्तर पर वो कितना सही है, इस पर बात की जानी चाहिए.जितने भी लोग रेडियो पर बात कर रहे थे उनमें सबका जोर इस बात पर था कि हम जो कुछ भी आडिएंस के लिए प्रसारित कर रहे हैं उसका सीधा संबंध उसके मन से है, दिल से है. वो हमें बिल्कुल उसी अर्थ में लेते हैं. इसे आप रेडियो की ताकत कह लीजिए या फिर लोगों का भरोसा लेकिन सच तो यही है कि रेडियो लोगों के मन का मीत रहा है।विजयालक्ष्मी सिन्हा जिन्होंने पोस्टल से चालीस स्टेशनों में फीड भेजने के बजाय सेटेलाइट से भेजने की बात रखी थी, कहा- झुमरी तिलैया को झुमरी तिलैया बनाने में आकाशवाणी का बहुत बड़ा हाथ है. आज सब उसे जानते हैं. एकबार जब मैं उधर से गुजर रही थी तो लोगों ने बताया, यही है, झुमरी तिलैया. मैं सोचने लगी, इतनी छोटी सी जगह और इतने सारे खत यहां से आते हैं।
ब्रेक में जाने से पहले विविध भारती के सिग्नेचर ट्यून बजते और रात के ग्यारह बजे पापा कि आवाज कानों में गूंज जाती- दिनभर बजा-बजाकर बाजा को एकदम से खराब ही कर देगा। इसको होस कहां है कि इसमें बैटरी भी खर्चा होता है।

कमल शर्मा बोलते-बोलते भावुक हो गए। करगिल के दौरान जब फौजी भाइयों के लिए जयमाला कार्यक्रम पेश करते थे तो फौजियों की तरफ से खूब फोन आते. सबका यही कहना होता कि- यहां आपके अलावे किसी भी स्टेशन की आवाज नहीं आती. आपको सुनना अच्छा लगता है और हमारा हौसला बढ़ता है। फिर वो इसी के जरिए अपने घर के लिए संदेश भी भेजते। तब मैं महसूस करता कि एसी स्टूडियो में बैठकर एंकरिंग करना कितना आसान होता है और देश के लिए ये जो कुछ भी कर रहे हैं, वो कितना mushkil है। कार्यक्रम पेश करने के बाद न जाने कितनी बार मैं रोया हूं।

न चाहते हुए भी पता नहीं क्यों तबस्सुम की बात पर आंखों के कोर भींग गए. एक बार मैं खान मार्केट में सब्जी खरीद रही थी। मै बुर्के में थी. सब्जीवाले से मैं टमाटर, आलू और बाकी सब्जियों के दाम पूछ रही थी। मैं लगातार बोले जा रही थी और दुकानदार इधर-उधर कुछ खोज रहा था. मैंने पूछा- क्या खोज रहे हो, भाई? उसने जबाब दिया- लगता है मेरा रेडियो अभी भी खुला पड़ा है। शब्दों को लेकर लोगों के बीच इतना गहरा असर.तबस्सुम की बाइट यहीं पर आकर खत्म हो जाती है. मैं सोचता हूं, लाख ढोल पीटने के बाद भी क्या एफएम यह असर पैदा कर पाया है, एकबार आप भी सोचिएगा।
अमीन सयानी की सारी बातों का निचोड़ था कि संचार के लिए मैं पांच स को अनिवार्य मानता हूं। स- सही, सत्य,स्पष्ट,सरल और सुंदर. सुंदर बनानै के लिए उन्होंने कहा कि थोड़ी बहुत नोक-झोंक, खींचतान और ड्रामेबाजी की जाए तो प्रस्तुति में मजा आ जाए. मेरे हिसाब से चारों का तो पता नहीं लेकिन इंडिया टीवी जैसे चैनल ने आप्त वचन के रुप में ग्रहण किया है।

नोट- दूरदर्शन द्वारा प्रस्तुत गोल्डन बॉयस ऑफ इंडियाः विविध भारती, रेडियो को लेकर एक बार फिर से भावुक कर देता है। लेकिन जानकारी के लिहाज से यह दुर्लभ प्रस्तुति है. दूरदर्शन ने जिन फुटेज का इस्तेमाल किया है,मीडिया के छात्र अगर उसे देख भर लेते हैं तो बहुत सारी बातें समझ में आ जाएगी। मीडिया से जुड़े लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा. आप कोई भी चाहें तो मैं इसकी सीडी दे सकता हूं। वैसे बहुत जल्द ही सराय में इसकी एक प्रति भेंट करुंगा, आप वहां से भी ले सकते हैं।
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