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मीडिया के भरोसे जीते लोग

Posted On 9:11 am by विनीत कुमार | 5 comments

शाम के करीब चार बजे मेरे बिस्तर पर पड़े अखबारों को पलटते हुए वो एकदम से चौंक गया। इतना कुछ हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। आपने देखी थी खबर। कब हुआ येसब. फिर जानने के लिए बेचैन हो उठा कि अभी वहां का क्या हाल है। मैंने पूछा-तुम्हें सचमुच पता नहीं है कि कल रात क्या हुआ मुंबई में। उसने फिर दोहराया- नहीं बिल्कुल भी नहीं। मैंने बस इतना कहा- आश्चर्य है।
वो भीतर से बहुत ही परेशान महसूस कर रहा था और इस बात पर बार-बार अपसोस जता रहा था कि उसे येसब कैसे कुछ पता नहीं है। तुरंत उसने मुंबई में न्यूज चैनलों में काम कर रहे अपने दोस्तों को फोन किया- सब ठीक तो है न, सेफ हो न,लगे होगे रातभर से न्यूजरुम में। उधर से जबरदस्ती उत्साहित होते हुए आवाज आयी- हां यार,सब मस्त है, अपनी बता, दिल्ली में दिल्लगी हो रही है न, कब खुशखबरी सुना रहा है. अंत में भाभीजी का हाल पूछते हुए उसने कहा-चलो फिर बात करते हैं,. वो जल्दी से जल्दी टीवी देखना चाह रहा था। मेरे पास बहुत ही जल्दीबाजी में आया था. एत किताब लेनी थी बस। मैं उसे इस बात का लोभ देकर कमरे तक ले आया कि कपड़े बदलकर आज रात तुम्हारे पास चलूंगा और खाना बनाउंगा।
लेकिन इस जल्दबाजी में भी वो करीब पन्द्रह मिनट तक न्यूज चैनलों से चिपका रहा। फिर बताना शुरु किया- दरअसल हुआ ये कि आज अखबारवाले ने पेपर दिया ही नहीं। रात को नौ बजे जब एफएम रैनवो समाचार सुना तब ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। बाद में भी रेडियो सुनता रहा लेकिन कहीं से किसी भी चीज का आभास नहीं हुआ. मैंने फिर कहा-लेकिन यार, शाम के चार बज रहे हैं, घटना के हुए करीब 18 घंटे। इस बीच तुम यूनिवर्सिटी घूम आए। इसके पहले ऑटो में बैठकर आए। कहीं किसी ने कोई बात नहीं की. उसने कहा नहीं.

फोन की बात मैं नहीं कर सकता था क्योंकि अगर यही आतंकवादी हमले दिल्ली में होते तो लोग फोनकर पूछते- सेफ हो न तुम। लेकिन मुंबई में होने के कारण किसी ने इस संबंध में कोई बात नहीं की। यही कहानी शायद मेरे इस दोस्त के साथ भी हुआ होगा। ऐसे फोन करनेवालों की संख्या बहुत कम गयी है जो सीधे-सीधे सरोकार न होने पर भी बातचीत के लिहाज से फोन करते हैं। इसलिए घटना के करीब दिनभर बीत जाने पर भी अगर मेरे इस दोस्त को कोई जानकारी नहीं तो ये आश्चर्य की बात तो जरुर है लेकिन विश्वास करनेवाली बात है कि आज अगर आप किसी न किसी मीडिया से नहीं जुड़े हैं तो बहुत ही मुश्किल और लगभग असंभव है कि आपको किसी व्यक्ति के माध्यम से किसी घटना की जानकारी मिले। ग्लोबलाइजेशन के विरोध और समर्थन में खड़े लोगों ने लोकल, ग्लोबल से जुड़े कई मुहावरे तो जुटा लिए हैं लेकिन समाज के इस ढ़ांचे पर बिल्कुल चुप हैं। मीडिया में भारी पूंजी के निवेश औऱ इसके मुनाफे का रोजगार साबित करनेवाले मीडिया आलोचकों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है लेकिन वो भी इस बात पर चुप हैं कि व्यक्ति खुद भी एक माध्यम है। इसे किस रुप में संचार के प्रति सक्रिय बनाया जा सकता है. अब व्यक्ति ने आपस में डिस्कशन , बहस और शेयर करने कम कर दिए हैं। संभव है कि कुछ लोग इस बात के लिए भी मीडिया के बढ़ते प्रभाव और उसके नए रुपों को ही इसके लिए जिम्मेवार ठहराएं। मीडिया ने ही लोगों को अपने उपर इतना अधिक निर्भर होने की आदत डाल दी है कि व्यक्ति के भीतर अपने स्तर पर संचार करने की इच्छा मरने लगी है। चौक-चौराहे पर खड़े होकर किसी बात को जानने से बेहतर वो कमरे में इंटरनेट, टीवी फिर अखबारों के जरिए सूचनाओं में विश्वास करने लगा है।
लेकिन यकीन मानिए दिन-रात मीडिया को पानी पी-पीकर कोसनेवाले आलोचकों ने मैनुअली संचार की सक्रियता बढ़ाने के क्रम में कोई काम नहीं किया। छोटे स्तर पर सूचना तंत्र कैसे विकसित की जाए, इस संबंध में कोई मॉडल पेश नहीं कर पाए। सारा काम स्वयंसेवी संस्थाओं के भरोसे छोड़कर छुट्टी कर लिए. यही कारण है कि हम जब भी वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं तो हमें सिर्फ गांव के अनपढ़ लोग ही ध्यान में आते हैं, देश का वही कोना याद आता है जहां मीडिया की पहुंच नहीं है। हम शहर के स्तर पर भी वैकल्पक मीडिया या फिर व्यक्ति के स्तर पर संचार की जरुरत है, इसपर कभी बात ही नहीं करते। मीडिया कहने-पढ़ने और इसके बारे में बात करने का मतलब सिर्फ अखबार, चैनल और इंटरनेट के बारे में ही बात करना है। यहां तक आकर हमारी जरुरतें खत्म हो जाती है और जहां तक मामला मेरे दोस्त के कुछ भी न जान पानेका है तो इसे शहर का स्वभाव बोलकर छुट्टी पा लिया जा सकता है। कमलेश्वर की कहानी- दिल्ली में एक मौत से कितना आगे पीछे हो पाएं हैं हम और मीडिया को कोसते हुए सूचना का वैकल्पिक रुप कितना विकसित कर पाए हैं हम। सवाल एक नहीं कई हैं, सवाल ही सवाल है।
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अंग्रेजी सहित देश के किसी भी न्यूज चैनलों के पास सुबह के सवा नौ बजे तक होटल ओबराय, होटल ताज और नारीमन हाउस के भीतर क्या हो रहा है, इसकी न तो खबर थी औ न ही कोई फुटेज। ले देकर सभी चैनलों के पास ताज होटल के उपर से उड़ते धुएं की फुटेज और दि टाइम्स ऑफ इंडिया के ऑफिस की खिड़की से ली गई एक हमलावर की तस्वीर थी। सारे चैनल इसी को लाल गोला बना-बनाकर चला रहे थे. सबों के पास लगभग एक से फुटेज थे। बहुत कोशिश करने पर इक्का-दुक्का चैनल उन खिड़कियों को जूम इन करके दिखाता जहां सुरक्षाकर्मी तैनात थे। बाकी वही सुनसान सड़के, पुलिस की गाडियां बेस्ट बसें और चैनल की गाडियां. इस आतंकवादी हमले में इस बार किसी भी चैनल ने खून से लथपथ तस्वीरें नहीं दिखायी।...

तभी इंडिया टीवी के फोन की घंटी बजती है। मुंबई से उस आतंकवादी का फोन था जिसने कि इस घटना का अंजाम दिया था। वो और उसके साथी ताज या ओबरॉय होटल के भीतर ही थे. वो इंडिया टीवी से बात करना चाह रहे थे। जबकि बाकी चैनलों ने बताया कि इन आतंवादियों ने अपनी तरफ से कोई अभी तक मांग नहीं रखी है। एक चैनल के एंकर ने अपने रिपोर्टर से सवाल भी किया कि ये तो और भी खतरनाक स्थिति है जबकि आतंकवादी कोई मांग न रखे. रिपोर्टर ने कहा- बिल्कुल सही कह रहे हैं आप. चैनल उस सरकार की अपील को दोहरा रहे थे जिसें ऐसा कहा गया था कि- मीडिया ऐसा कुछ भी न दिखाए जिससे कि आतंवादियों को ऑपरेशन के बारे में जानकारी मिल जाए.

लेकिन इंडिया टीवी का अवतारी चरित्र सामने आया। यहां आतंकवादी ने साफ कहा कि उनकी मांग है कि देश में जितने भी मुजाहिउद्दीन से जुड़े लोगों को पकड़ा गया है सरकार उन्हें तुरंत छोड़ दे, मुसलमानों को परेशान करना बंद कर दे। इंडिया टीवी के एंकर ने सवाल किया कि- आप भी इसी देश के हैं, आप बेकसूर लोगों को क्यों मार रहे हैं, इसमें आप के भी भाई हो सकते हैं. आतंकवादी ने जबाब दिया। मुझे इस देश से प्यार है. लेकिन जब लोग मेरी ही भाइयों को, मेरी ही बहू-बेटियों पर अत्याचार कर रहे थे तब क्यों नहीं सोचा कि ये सब गलत है। बाबरी मस्जिद गिराते समय क्यों नहीं सोचा कि वो गलत कर रहे हैं। ये बात उन्हें अभी ही क्यों याद आयी।

ये सब बातें हो ही रही थी कि इसी बीच इंडिया टीवी ने एक्सपर्ट जुटा लिए। बाबा रामदेव से लेकर फतेहपुर मस्जिद के इमाम और इस्लाम के दूसरे भी विद्वान इंडिया टीवी पर अपनी बात करने लगे। इनमें से एक ने कहा कि- ऐसा करके वो सिर्फ बेकसूरों को नहीं मार रहे बल्कि इस्लाम को मार रहे हैं। दूसरे ने साफ कर दिया कि- मैं भी देश में घूमता रहता हूं, मुझे भी पता है कि कहां के लोग किस तरह से, किस भाषा में बात करते हैं। ये आतंकवादी जो कुछ भी बोल रहे हैं, दरअसल वो हैदराबाद के है ही नहीं। ये सारी बातें बना कर बोल रहे हैं। दस-बारह जुमले सीख लिए हैं उन्हें बोल दे रहे हैं, बाकी चीजें बोल नहीं पा रहे। उनके हिसाब से या तो ये हैदराबाद के नहीं हैं या फिर....हम सोचें तो इंडिया टीवी पर फ्लैश आने शुरु हो गए- अपील का असर

आतंकवादियों ने की इंडिया टीवी से बातचीत

इंडिया टीवी के पास आतंवादियों के हैं मो। नंबर

आतंवादी देख रहे हैं इंडिया टीवी।

जितने एक्सपर्ट से इस मामले में राय ली जाती उतनी बार आतंकवादी और इंडिया टीवी के बीच हुई बातचीत को दोहराया जाता. डेढ़-घंटे पहले हुई बातचीत को भी लाइव बोलकर चलाया जाता रहा। बाद में इसकी एडिटिंग कुछ इस तरह से हुई कि सवाल-जबाब का क्रम भी चैनल के हिसाब से बदल गया। इन सबके बीच सीएनएन, टाइम्स नाउ और कुछ दूसरे हिन्दी चैनल घायल लोगों की बात कर रहे थे. एक हिन्दी चैनल ये भी बता रहा था कि बेस्ट बसों का इस्तेमाल भी जरुरत पड़ने पर एम्बुलेंस के रुप में किया जा सकता है। कुछ चैनल आतंकवाद के इतिहास से ९ बटा ११ जैसे मुहावरे खोजने में लगे थे।



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करीब चार साल की एक बच्ची है इच्छा। उस बच्ची का समाज से सीधा सवाल है कि लोग उसे क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने उससे बनते हैं जिसे लोग छोड़ देते हैं। यह वही बच्ची है जिसने कभी तीन वक्त का खाना नहीं खाया, जिसके जीवन में झक-झक सफेद रंग कभी नहीं आया, कभी बाल वाली गुडिया नहीं मिली और न ही कभी उसने रंग-बिरंगे फ्रांक पहने। उसके जिवन में बस एक ही रंग है मटमैला। दुनिया में होते होंगे दुनियाभर के रंग और सॉफ्टवेयर से जुड़े लोग आए दिन कम्प्यूटर की मदद से बना रहे होंगे कई नए रंग लेकिन इच्छा के पास सभी चीजें आकर एक ही रंग का हो जाता है मटमैला। एक ऐसा रंग जिसे मेरी मां मैलपच्चू रंग कहती है। वो रंग जिसमें दुनियाभर की गंदगी को पचा लेने की ताकत होती है। आप उस रंग के कपड़े को चाहे कितना भी गंदा क्यों न करो उसके रंग में कोई फर्क नहीं आता। कुछ ऐसे ही रंग हैं जो कि इच्छा की जिंदगी के चारो ओर फैले हैं।

इच्छा की जिंदगी की जिंदगी बदलती है। उसे अब बालवाली गुड़िया मिलती है। वो भी बहुत बड़ी। इतनी बड़ी कि एक बार में उसे संभाल नहीं पाती और एक नहीं दो-दो। एक फ्राक भी बिल्कुल हरा। मां के शब्दों में एकदम से कचूर हरा। अगर आप ताजे पत्ते को मसल दें तो वैसा ही रंग होगा. एक जोड़ी सफेद जोड़ी जूते भी। इच्छा के वो सारे सपने पूरे होते हैं जिसे देखने में उसने अपनी उम्र का अच्छा-खासा समय लगा दिया। अब वो खुश है।

लेकिन इससे पहले कि इन सारी चीजों को लेकर वो अपने दोस्तों के बीच धौस जमाती कि उसके पूरे हुए सपने पर बस्ती के बच्चे सेंध लगा जाते हैं। जूते दिखाती कि आगे से उन जूतों के बीच से उंगली निकाल देता है। हरे फ्रांक का पिछला हिस्सा, फैशन है या फिर रिजेक्टेड और दोनों बालवाली गुड़िया। ये वो गुड़िया है जो इच्छा के सपने में अक्सर आया करती रही या फिर किसी मनचले बच्चे की हिकारत की शिकार गुडिया जिसके बाल के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन पता नहीं पेट ही फाड़ डाले या फिर उसे अंदरुनी चोट पहुंचाने की कोशिशक की है। इच्छा के पूरे होते सपने दोस्तों के बीच तहस-नहस हो जाते हैं। इच्छा फिर सवाल दोहराती है, लोग क्यों कहते हैं कि तुम्हारे सपने लोगों के छोड़ दी गयी चीजों से पूरे होते हैं।

यह कलर्स चैनल पर जल्द ही शुरु होनेवाले सीरियल उतरन का प्रोमो है। सीरियल ने समाज की जूठन समझी जानेवाली जमात में इच्छा जैसे चरित्र को गढ़ा है, बचपन, अभाव, सपने, समझदारी और जीवन सच्चाई को एक-दूसरे से नत्थी करके दिखाने की कोशिश में है।

इस समझदारी के साथ कि आनेवाले समय में टेलीविजन कोई भी क्रांति करने नहीं जा रहा या फिर करोड़ो रुपये लगाकर समाज के हाशिए पर के लोगों को नायक बनाने नहीं जा रहा, इतनाभर मानने में कोई परेशानी नहीं है कि टेलीविजन सीरियलों का चरित्र इधर एक साल में तेजी से बदल रहा है। अब तक हाइप्रोफाइल के लोगों को आधार बनाकर सीरियल प्रोड्यूस करने की बाढ़ सी रही। अगर कोई इन सीरियलों को लेकर कोई मजाक करना चाहे तो कह सकता है कि एक सीरियल को बनाने के लिए क्या-क्या चाहिए, दो तीन बड़े फार्म हाउस, दो-तीन फैशन डिजाइनर और गहनों-कपड़ों में लदी-फदी डेढ़ से दो दर्जन बिसूरनेवाली महिलाएं। अब जबकि सीरियल का ट्रेंड तेजी से बदल रहा है। इस मामले में मैलोड्रामा ही सही, टेलीविजन ने फिर से आम आदमी के लिहाज से पटकथा का दामन पकड़ा है. उतरन उसी की एक कड़ी है.आगे भी जारी ........
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ओह माइ गॉड, दो लड़कों के बीच के प्रेम को देखने के लिए इतनी मारामारी, एक मिनट भी बर्दाश्त नहीं कर सकते लोग। बत्रा सिनेमा में घुसने के क्रम में जब मैंने ये लाइन कही तो मेरे आगे की तीन लड़कियां ठहाके मारकर हंसने लग गयी। वो पीछे मुड़कर देखना चाहती थी कि कौन बंदा है जो इतनी बेबाकी से अपनी बात कह रहा है। लेकिन जब तक वो मुड़ती, मेरी जगह प्रबुद्ध आ गया था और सारी क्रेडिट उसी के खाते चली गयी। मेले-ठेले, भीड़भाड़ इलाके में और खासकर जहां मामला इंटरटेन्मेंट का हो, मेरी तरह हजारों लोग हैं जो कुछ न कुछ कमेंट किया करते हैं। मां कहा करती है कि लड़कियों को देखते ही लड़के बौडा यानि बौरा जाते हैं. लेकिन यहां मैं येसब इसलिए कर रहा था कि कहीं मेरी नाजुक चप्पल इसे रेलम-पेल में शहीद न हो जाए।

बत्रा में नंबर के हिसाब से सीटिंग अरेंजमेंट नहीं है, जिसको जहां सीट मिले, लपक लो। अब संयोग देखिए कि वो तीनों लड़कियां मेरी ही लाइन में बैठी। उनलोगों को इस बात का एहसास हो कि उनके बगल में जो लोग बैठे हैं, क्रिएटिव किस्म के लोग हैं, सिर्फ सिनेमा देखने की नीयत से नहीं आए हैं, यहां से जाकर ब्लॉग लिखेंगे, दूसरा अखबार में लिख मारेगा और तीसरा तो यूथ और सिनेमा पर रिसर्च आर्टिकल की तैयारी में जुटा है, प्रबुद्ध ने कहा- जानते हैं विनीतजी, कुछ लोग इसलिए आपाधापी मचा रहे थे कि कहीं पोलियोवाला विज्ञापन छूट न जाए। पोल्टू दा ने कहा और औरतें तो इसलिए मारामारी कर रही थी कि वो अंदर जाकर जल्दी से अपने पति को नागिनवाला विज्ञापन दिखा सके और कहे कि- चुनो किसको चुनना है, हमें या फिर शराब को। वो लोग पति का आंख खोलने के लिए मारामारी कर रही थी। इन सबके बीच मैं अपने को थोड़ा कॉन्शनट्रेट करने में लगा था। इन तीनों लड़कियों सहित आजू-बाजू के लोगों की प्रतिक्रिया सुनना चाहता था।

फिल्म में जैसे ही नेहा यानि प्रियंका चोपड़ा ने अभिषेक और जॉन इब्राहिम से पूछा कि- इतने दिनों तक तुमलोग एक ही कमरे में रहे, तुमलोगों के बीच...मेरा मतलब है कि कभी...। तभी तीनों में से एक लड़की ने कहा- हाउ चीप। कोई लड़की कैसे किसी लड़के से ऐसा पूछ सकती है। कोहनी मारते हुए दूसरे से पूछा-बता न, तू पूछ लेगी। उनलोगों को जब लगा कि हम उनकी बातों को गौर से सुन रहे हैं तो कुछ ज्यादा जोर से ही बाते करने लगी। अब वो बातें कम और हमारे सामने क्योशचनआयर ज्यादा फेंक रही थी। प्रबुद्ध ने जबाब दागा- इसमें नया क्या है, हमारे हॉस्टल में तो कईयों की गर्लफ्रैंड कहती है और ठहाके लगाती है- पहले ही बता दो, पार्टनर के साथ कुछ चक्कर-वक्कर तो नहीं है। पता चला, एक सेमेस्टर बर्बाद भी किए और फिर तुम मासूम साबित हो जाओ.

दोनों के किस लेने और पासपोर्ट के लिए ऐज ए कपल अप्लाय करने पर पीछे से एक लड़के ने कहा- अब लड़कियों को आएगा मजा। बहुत भाव खाती रही है अब तक। देखिएगा, बहुत जल्द ही सब लड़कियों का नेहवा वाला हाल होगा। हठ्ठा-कठ्ठा लड़का दोस्त तो बन जाएगा लेकिन बस देखने भर का, उसके लेके कोई सपना नहीं देख सकती है। हम पहले ही कहे थे आपको मर्द,मर्द होता है, बैठा नहीं रहेगा लड़कियों के भरोसे। देख नहीं रहे हैं, कैसे दोनों फ्री माइंड से अपना काम कर रहे हैं और नेहवा है कि लसफसा रही है। एक ने समर्थन किया- बाबा, आप तो बेकार में यूपीएसी के पीछ पड़े हैं, गांव का खेत बेचिए और दोस्ताना एक्स बोलके फिल्म बनाइए।

पब्लिक कमेंट्स की वजह से फिल्म की लाइन साफ-साफ सुनना मुश्किल होने लग गया था। फिल्म को समझने के लिए एकबार और देखने की जरुरत थी। पोल्टू दा लगातार कह रहे थे, तुमलोगों को पहले ही कहा- उपर देखते हैं लेकिन विनीतजी कहते है- अरे वहां कुछ नहीं मिलेगा। मसाला खोजने के चक्कर में इनको डीक्लास में घुसते एक मिनट भी नहीं लगता। तभी पीछे से फिर आवाज आयी-

गूगल बाबा, इ दोनों हीरो जो कर रहा है न किराया पर घर लेने के लिए, वो हमारे गांव में भी खूब होता है। इसको हमलोग मरउअल-मरअउल खेलना कहते हैं। बाकी गांव में कोई स्वीकार नहीं करता कि ऐसा हमलोग करते हैं। इ दोनों सही में असली मर्द है, करेजा ठोककर कह रहा है कि हां- हम गे हैं। अब करे जिसको जो करना है.

धीरे से एक ने कहा- आपको ये सब बात यहां नहीं करनी चाहिए, सामने आपकी भौजी लोग बैठी है, सुनेगी तो क्या सोचेगी। बन्दे ने तपाक से कहा- क्या सोचेगी, जब एतना ही आंख के कोर में पानी रहा तो घर में रहती, सीडी मंगाके देखती। सोचेगी कि लड़को से बराबरी भी करें और कुछ सुनना भी न पड़े तो ऐसे कैसे होगा। बाकी देखिएगा- धीरे-धीरे जो लोग हैं ,स्वीकार करने लगेंगे कि वो गे हैं. फिलिम का समाज पर असर तो होता ही है।

सुबह एनडीटीवी इंडिया की रिपोर्ट है कि मुंबई में दोस्ताना फिल्म की एक स्पेशल शो आयोजित की गयी और फिल्म की वजह से लोगों में हौसला बढ़ा है। हरीश अय्यर इसके पहले अपनी बहन को कभी नहीं बताया कि वो गे हैं। लेकिन फिल्म आने के बाद जैसे ही बताया तो उसकी बहन ने पूछा कि- आप कौन से गे हो अभिषेक की तरह या फिर जॉन की तरह। एक महिला की बाइट थी कि- मेरा बेटा अमेरिका मे रहता है और वो गे है. स्क्रीन पर सबके सामने एक्सेप्ट करती है। निर्माता तरुण मनसुखानी का मानना है कि फिल्म के कारण लोगों का नजरिया बदला है। उम्मीद कीजिए कि अगर कोई ओसामा पर फिल्म बनाये तो उसका हृदय परिवर्तन हो और वो किसी चैनल पर आत्मसमर्पण करता दिख जाए।

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आनंदी, जगदीसिया सहित दर्जनों टीवी के बाल कलाकार पिछले चार-पांच दिनों से हमसे हाथ जोड़कर माफी मांग रहे हैं। वो बार-बार कह रहे हैं कि बहुत जल्द ही हम आपको नए एपीसोड दिखाएंगे। नीचे स्क्रीन पर कैप्शन आ रहा होता है कि- क्यों आपके मनपसंदीदा कार्यक्रमों के नए एपिसोड नहीं दिखाए जा रहे हैं। दोनों चीजों को एक-दूसरे से जोड़कर देखें तो लगेगा कि इसके लिए जूनियर आर्टिस्ट ही पूरी तरह जिम्मेवार हैं जो कि अपनी मांगों को लेकर अडे हुए हैं। ये बाल कलाकार चैनल द्वारा लिखकर दी गयी स्क्रिप्ट का मतलब भी समझते होंगे। और अगर समझते भी हैं तो उनके पास इतनी समझ नहीं बन पायी है कि वो सही और गलत को अलगा सकें। रियलिटी शो, सोप ओपेरा सहित विज्ञापनों में आपको ऐसी कई बातें बच्चों के जुबान से सुनने को मिल जाएगी जिसे सुनकर आप एकदम से कहेंगे- जानते-समझते कुछ नहीं जो चैनलवालों ने बोलने के लिए कहा-बस बक दिया। ये बच्चे तो शुरु से ही एक बर्फ के गोले में ही बहक जाते हैं और अब जब उन्हें लाखों में रकम मिलने लगे हैं तो क्यों न बोले। पांच से छः साल का बच्चा हमारे आपके जैसे नौजवान लड़के-लड़कियों को अफेयर के टिप्स देते नजर आ जाएंगे। ये सिलेब्रेटी बच्चे हैं। ये पेज थ्री के बच्चे हैं। आज ही दि टाइम्स ऑफ इंडिया ने ऐसे बच्चों की आमदनी का ठीक-ठाक अनुमान लगाया है। हम उसके पर्सनल लाइफ के बारे में जानना चाहते हैं। सात साल की आयु में भी स्ट्रगल के किस्से सुनना चाहते है। ये बच्चे अभी से ही बाइट देने में सिद्धस्थ हो गए हैं, अभी से ही इनकी विपरीत लिंगों के प्रति कमेस्ट्री बनने लगी है।ये मीडिया के बच्चे हैं.


धूल में लोटते हुए, रुपये-दो रुपये का फोकना( बलून) के लिए तीन-चार थप्पड़ खाने के बाद देश में लाखों बच्चे चीखते हैं, चिल्लाते हैं और अपनी मां को धमकी देते हैं कि- और मारोगी तो घर छोड़कर भाग जाएंगे। संभव है ये बच्चे नहीं जानते कि घर छोड़कर भागना क्या होता है। हजारों लड़के बच्चे सम्पन्न और रईसजादों के बच्चों को चॉकोबार खाते हुए देखकर अपने फुन्नू( लिंग) को मरोड़ते हुए चुपचाप खड़े रहते हैं। लड़कियां दिऔटे पर से दो रुपये चुराती है और बैनाथ साहू के यहां से लाल रीबन लेकर आती है। अभी वो मनमुताबिक फूल बना ही रही होता है कि पीछे से धांय-धांय उसकी मां धौल जमाती है। लगातार चिल्लाती है कि-कलमुंही रक्ख कर गए थे कि बिरजूआ के लिए संकटमोचन लाएंगे, दो दिन से पेट धोइना हो गया है और इसको सिंगार-पटार सूझा है। हजारों लड़कियां मार खाकर बिना बाल बांधे जिसे की हम मधुमक्खी का छत्ता कहते हैं, लिए देश में घूम रही है। ये नेहरु के बच्चे हैं।जी हां, चाचा नेहरु के बच्चे।


बाल दिवस के मौके पर हम अपनी इसी मोटी समझ को लेकर स्टोरी बनाने में भिड़ जाते। मीडिया के भीतर जो हम जैसे लोग हैं, जो बात-बात में आम आदमी पर उतर आते हैं, जो समझते हैं कि घठ्ठे पड़े लोगों को स्क्रीन पर लाने से उनके दुख दूर हो जाएंगे, उन्हें ऐसे मौकों पर भजनपुरा, पुरानी दिल्ली, मुनिरका के पीछे की जुग्गी जैसे इलाकों में भेजा जाता। हमें वहां के बच्चों के बाल-दिवस को खोजना होता। हम उनके बीच ज्यादा से ज्यादा बदहाली देखने की कोशिश करते, उन्हें ज्यादा से ज्यादा विद्रुप दिखाने की कोशिश करते। इतना विद्रुप कि जिसे देखकर आज के समाज को संवेदना से ज्यादा घृणा का भाव पैदा हो। औऱ फिर सोफे पर बैठे अपने बच्चे को पुचकारने लग जाएं- उसके मुलायम गालों में खो जाएं। बदहाल बच्चे को खोजने की तिकड़म हम ऑफिस से निकलने के साथ ही शुरु कर देते। और इंडिया गेट के पास कोई न कोई बच्चा कुछ बेचते हुए, रिरियाते हुए मिल ही जाता। हम वहीं से शुरु हो जाते। इनकी बदहाली को दूर करने में दुनियाभर के एनजीओ लगे हैं। इस दिन हमें उनकी भी पीठ ठोकनी होती। हम वहां भी जाते और बॉस के बताए एनजीओ और उनके लोगों को स्टोरी में शामिल कर लेते। हम बच्चों के कपड़े का एक ही रंग दिखाते-मटमैला और अगर लाल-पीले रंग दिखाने होते तो उसके पहले एनजीओ के बैनर जरुर दिखाते जो कि इनके जीवन में रंग भरने का काम करते. हमारी स्टोरी बनती, कभी चलती और कभी नहीं भी चलती। लेकिन हम नेहरु के बच्चों पर जरुर स्टोरी बनाते।




दूसरी तरफ आइ मीन यू नो कल्चर की लड़कियां और कुछ लड़के भी होते। जो टीवी और सिनेमा में काम कर रहे बच्चों पर स्टोरी बनाते। उन्हें अक्सर फील्ड में जाने की जरुरत नहीं पड़ती। नेट पर से दुनियाभर की चीजें खोज लेते। रियलिटी शो और फिल्मों के फुटेज लाइब्रेरी से मिल जाते। तारे जमीं पर और लिटिल चैम्पस इनमें खूब मददगार साबित होते। फिर देशभर के लिटिल चैम्पस( सारेगम के अलावे) को लाइन अप करने की कोशिश की जाती। अगर तीन-चार भी मिल गए तो इनका काम हो गया. पहले तो लाइनअप करने की बड़ी हाय-तौबा मचती थी, सारे चैनल लाइव ही लेना चाहते। लेकिन अब तो चैम्पस की संख्या इतनी अधिक हो गयी है कि सबको कोई न कोई हाथ लग ही जाता है. इसके साथ ही चैनलों की म्यूचुअल अंडर्स्टैंडिंग भी पहले से बढ़ी है. काम बन जाता औऱ शाम होते-होते चैनल के स्क्रीन चमचमा उठते।उन चैम्पस से उनके टीवी सफर के बारे में पूछा जाता। अलग-अलग ब्यूरो में बैठे चैम्पस से एक-दूसरे के अफेयर के बारे में पूछा जाता। कोई चैम्पस ओवर स्मार्ट होता, दिनरात गाने में लगा रहता और बताता कि मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता हूं. किसी भी एंकर को इतनी हिम्मत या समझ नहीं होती कि वो उससे पूछे कि वो दिनभर में कितने घंटे की पढ़ाई करते हैं। उल्टे ऐसा कहने से उनकी तारीफों के पुल बांधने लग जाते। तब हमें नेहरु के बच्चों पर की गयी स्टोरी बहुत ही फीकी लगने लग जाती। ऑफिस के भीतर ऐसा महौल बनता कि उन बदरंग बच्चों की तरह हम और हमारी स्टोरी भी बदरंग हो जाती। हम आइएमसीसी से आए लोगों के साथ अफसोस जताते- इन बच्चों का कुछ नहीं सकता, ये बदरंग ही रहेंगे। पीछे से एक-दो लड़कियां चिल्लाती- अबे अपनी सोच, ऐसा ही स्टोरी करेगा तो तेरा भी कुछ नहीं होगा।..एक काम कर तू ऐसे चैनल खोज जहां नेहरु के बच्चों की सुध ली जाती है।
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चुनाव आयोग की अपील कम विज्ञापन इन दिनों लगभग सारे अखबारों में छाया हुआ है- वोट कीजिए, पप्पू बनने से बचिए। आयोग ने पप्पू कान्ट डांस स्साला का रचनात्मक उपयोग करने की कोशिश की है औऱ इसी क्रम में लड़कियों को भी पप्पू बना दिया है। हिन्दी एक दैनिक अखबार में एक लड़की की तस्वीर है। उसे जींस, टॉप में दिखाया गया है। लुकवाइज वो मॉड है जो कि आमतौर पर दिल्ली की लड़कियां होती है। तस्वीर में रेखाएं खींचकर बताया गया है कि देखिए वो किस तरह शहरी है लेकिन तस्वीर से ये भी जाहिर होता है कि वो वोट नहीं कर रही. उसे मतदान में कोई दिलचल्पी नहीं है। विज्ञापन का कहना है- पप्पू लड़की मत बनिए।
दरअसल पप्पू की तरह ही कॉलाकियल फार्म में लल्लू, गदहा, उल्लू, चंपू औऱ ऐसे सैकड़ों शब्द हैं जो कि वेवकूफ या फिर डल टाइप के लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। कहीं-कहीं ऐसे लोगों को बोतल, ढक्कन,पगलेट, फुद्दू या चिरकुट भी कहा जाता है। आप से मूर्ख या डल के लिए पर्याय ही मान लीजिए। इन विशेषणों का प्रयोग अलग-अलग इलाकों में बदल जाता है। बिहार, झारखंड सहित उत्तर बिहार में बुडबक शब्द का प्रयोग आम है जिसका इस्तेमाल करते अक्सर लालू प्रसाद दिख जाते हैं। उनकी मिमिकरी करते हुए राजू श्रीवास्तव ने इसे और अधिक पॉपुलर बनाया। इस तरह के शब्दों के पीछे कोई समाजशास्त्रीय अवधारणा काम करती है, कोई चाहे तो कोई शोध कर सकता है। लेकिन इतना तो तय है कि ये न तो किसी व्याकरणिक नियमों के तहत निर्मित शब्द है और न ही इसके पीछे कोई बहुत अधिक प्रयास होता है। कई शब्द तो ऐसे हैं कि बस बोलते-बोलते कॉमन हो जाते हैं और फिर उसे सिनेमा और मीडिया अपना लेते हैं।
व्याकरण के लिहाज से भाषा-प्रयोग की बात करनेवाले लोगों के लिए ये दौर बहुत ही खतरनाक है। क्योंकि न तो इसके हिसाब से भाषा -प्रयोग किए जा रहे हैं और न ही व्याकरण को लेकर कोई काम ही हो रहा है। बहुत दूर मत जाइए, जो लोग भाषा या फिर हिन्दी साहित्य में हैं, उसकी पढ़ाई या फिर शोध कर रहे हैं, उनके यहां भी व्याकरण या फिर भाषा-प्रयोग के नियमों से संबंधित कोई किताब मिल जाए तो गनीमत है। आम बोलचाल की भाषा का जो तर्क है वो सब जगह धडल्ले से लागू है। कई बार तो बहुत ही मामूली कोशिश के बाद परिष्कृत शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन ऐसा करने की कोशि बहुत ही कम होती है.
भाषा को कबाड़ा करने का ठीकरा ले देकर हम मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों पर फोड देते हैं। लेकिन आप देखिए कि भाषा के प्रयोग, निर्माण और उसे एक बेहतर रुप देने के लिए सरकार के पास करोडों रुपये का इन्फ्रास्ट्रक्चर है, एक प्रोजेक्ट पर लाखों रुपये खर्च होते हैं लेकिन जो लोग वोट देने नहीं जाते, उनके लिए एक सही शब्द नहीं ढूंढ पाए। एक नाम को बाजार और विज्ञापन की तर्ज पर पप्पू बना दिया जिसमें लड़कियों को भी शामिल कर लिया है।
आयोग के पास इसके लिए खूबसूरत तर्क है कि जिस तरह पप्पू( जाने न जाने तू फिल्म का पप्पू) के पास दुनिया भर की चीजें हैं लेकिन वो डांस नहीं सकता, इसलिए वो पप्पू है। उसी तरह हमने सोचा कि जो लोग पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, जिनके पास पैसा है वो ही वोट करने नहीं जाते। इसलिए हमने सोचा कि क्यों न इनके लिए पप्पू शब्द का इस्तेमाल किया जाए।
मतलब ये कि अगर सरकारी विभाग को भी इसी तरह से शब्दों के प्रयोग करने हैं तो भाषा संबंधी द९ेश के सारे विभाग में ताला लगाकर, मंत्रालय को निरस्त करके सारे कर्मचारियों को एफएम के अलग-अलग स्टेशनों को सुनने का काम दे देना चाहिए क्योंकि भाषा को लेकर क्रिएटिविटी में इसके आगे कुछ भी नहीं।
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दीपक चौरसिया की कचहरी जो भी कहूंगा सच कहूंगा में अबकी बार पेशगी हुई स्मृति इरानी यानि घर-घर की तुलसी की। कहते हैं न कि डब्बे से हींग खत्म हो जाता है लेकिन उसकी खुशबू लम्बे समय तक रहती है। टीआरपी को लेकर क्योंकि सास भी कभी बहू तो बुरी तरह पिट गया लेकिन अब न्यूज चैनल है कि एक समय टीवी ऑडिएंस पर राज करनेवाली तुलसी को लेकर अपनी टीआरपी बढ़ाने में जुटे हैं। वो उससे किरदार के बारे में, बालीजी फिल्मस के बारे में, एकता कपूर के बारे में औऔर इसके साथ ही उसकी पर्सनल जिंदगी के बारे में पूछते हैं। न्यूज चैनल की पूरी कोशिश है कि आठ साल से सिर आंखों पर लिए जानेवाली तुलसी को ऑडिएंस इतनी जल्दी न भुला दे। चैनल को इस बात की भनक लग गयी है कि अब ऑडिएंस पर बालिका वधू का रंग चढ़ना शुरु हो गया है और इसके मुकाबले वो तुलसी को भूलने लग गए हैं।...तो भी भागते भूत की लंगोट ही सही। अब जबकि तुलसी और पार्वती जैसी बहुओं ने सात-आठ साल राज किया है तो उसके भीतर से कुछ तो निकाला जाए जो कि बालिका वधू को पटखनी दे सके। स्टार न्यूज तो ऐसा और भी चाहेगा क्योंकि ये इसके सिस्टर चैनल स्टार प्लस पर आता रहा। प्राइम टाइम में दीपक चौरसिया की कचहरी में स्मृति की पेशगी इसी स्ट्रैटजी का हिस्सा है।

न्यूज चैनलों के साथ एक बड़ी सुविधा है कि वो जो और जिस तरह के सवाल तुलसी, पार्वती या काकुली से कर सकते हैं उस तरह के सवाल आनंदी यानि छोटी बहू से नहीं कर सकते। मसलन वो आनंदी से नहीं पूछ सकते कि सीरियल खत्म होने के बाद आप किस राजनीतिक पार्टियों के लिए कैम्पेन करेंगे। सीरियल करते वक्त अपने पति और बच्चों के साथ कैसे एडजेस्ट किया। फैमिली और सेट दोनों को एक साथ मैनेज करना कितना मुश्किल रहा होगा। अब इंडिया टीवी की बात छोड़ दीजिए। उसके लिए पहले से सवाल बना है कि आनंदी पहली बार आपको जींस पहनकर कैसा लगा। कल दिनभर प्रोमो चलाया कि आज बालिका वधू पहली बार पहनेगी जींस। खैर,
दीपक चौरसिया ने बहुत ही मुलायम होकर स्मृति से दुनियाभर के सवाल किए। दुनिया जहां के सवाल। उसके बारे में , कैसे उसे तुलसी का रोल मिला से लेकर कैसे एकता और उसके बीच दरार आए। तुलसी बहुत ही संभलकर जबाब देती और जिस बात का जबाब नहीं देना होता, मुस्कराने लग जाती। वो एकता के लिए किसी भी तरह के उल्टे-सीधे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहती। इसलिए जिस अंदाज में स्मृति बात करती, उसके शब्द दीपक चौरसिया शुद दे देते और कहते- ये मैं कह रहा हूं। लेकिन इतने मुलायम तरह से सवाल-जबाब में दीपक चैरसिया को बहुत मजा नहीं आ रहा था। उनके मिजाज से ये लेडिसाना माहौल बन गया था। वो चाह रहे थे कि कोई गहमा-गहमी हो। समृति कोई ऐसी बात करे, जिसे कि दो-चार घंटे फ्लैश चलाया जाए। ऑडिएंस को बताया जाए कि ये है देश की आदर्श बहू की आपबीती। लेकिन यहां पर भी तुलसी वैसे ही वैलेंस बनाती रही, जैसे कि वो क्योंकि में बनाए रखा था।
स्मृति का कहना बिल्कुल साफ था कि मैं तुलसी बनकर भले ही लोगों की आंखो में आंसू भर देती थीलेकिन मैं नहीं चाहती कि लोग मेरी पर्सनल प्रॉब्लम को सुनकर भावुक हो जाएं। मैंने बहुत स्ट्रगल किए हैं लेकिन इसे कभी भी स्क्रीन पर आने नहीं दिए। स्मृति के पर्सनल इश्यू टीवी के बाहर है। न्यूज चैनल इसी टीवी के बाहर की चीज को फिर से टीवी पर लाने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन तुलसी तो तुलसी है वो क्यों ऐसा होने देती। वो जानती है कि उसी एक-एक बात बाइट है।

इसलिए अंत में जब दीपक चौरसिया ने अपने मिजाज औऱ मतलब की बात के लिए स्मृति के लिए पूछा- आप जिस पार्टी से जुड़ी है, उसमें तो आए-दिन उठापटक चलते रहते हैं, कोई किसी की टांग खींच रहा है तो कोई किसी को गिराने में लगा है। आप ये सब कैसे मैनेज करेंगी। मतलब ये कि क्या तुलसी राजनीति में टिक पाएगी। स्मृति का बहुत ही मैच्योर जबाब था- राजनीति से ज्यादा राजनीति टीवी में राजनीत होती है। अगर इस टीवी में entertainment सहित न्यूज चैनलों को भी शामिल कर लें तो वाकई स्मृति ने बहुत ही अंदर की बात कह दी थी जिसे कि दीपक चौरसिया सहित देश का कोई भी पत्रकार जिसकी दुकान जम गयी है कि कोई उसके अंदर की बात जाने। स्मृति मीडिया के मोटे तिरपाल में आम ऑडिएंस को भीतर झांकने के लिए एक छेद बनाकर चली गयी।...
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कथादेश के नबम्बर अंक में रवीन्द्र त्रिपाठी ने अशोक वाजपेयी के नाम एक खुला पत्र लिखा है। वही अपने वाजपेयीजी जो साहित्य की लॉन में राजनीति, समाजशास्त्र और इसी तरह दूसरे डिसीप्लीन के खोंमचे लगाने से लोगों को मना करते हैं। वो नहीं चाहते कि जो साहित्य टहलने या टेनिस खेलने की जगह है वहां लोग राजनीति, समाज, शोषण और हाय रे देखो वो मरा, वो गया कि हांक लगाते फिरे। रवीन्द्र त्रिपाठी ने इनसे एक कला चैनल खोलने या फिर इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है।


रवीन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि- वाजपेयीजी, मैं नहीं जानता कि आप टेलीविजन के बारे में क्या निजी विचार रखते हैं। वाजपेयीजी, आमतौर पर हिन्दी के जिन बुद्धिजीवियों से मेरा बौद्धिक आदान-प्रदान का संबंध रहा है उनमें से ज्यादातर टेलीविजन के बारे में गंभीर राय नहीं रखते। दुर्भाग्य से ऐसा इसलिए हुआ है कि निजी टेलीविजन चैनलों की आपसी होड़ ने उसे सनसनीपूर्ण अतिरेक का पर्याय सा बना दिया है। फिर भी यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि टेलीविजन की संभावनाएं अभी पूरी तरह तलाशी नहीं गयी है।....

आगे रवीन्द्र त्रिपाठी की बात रखूं इसके पहले अपनी तरफ से जोड़ता हूं कि हिन्दी का बौद्धिक समाज न केवल टेलीविजन के प्रति गंभीर राय रखते हैं बल्कि जो इसकी आलोचना और इसके विमर्श में लगे हैं, उन्हें भी हल्के ढंग से लेते हैं। संभव है ऐसा इसलिए भी है कि आलोचना करनेवाले भी टीवी पर स्टीरियोटाइप से बात करते हैं अगर गंभीरता से बात करने की कोशिश करते हैं तो मार्क्स को इस कदर लादने पर आमादा हो जाते हैं कि दस-बीस पन्ने के बाद टीवी गायब हो जाता है औऱ सारी बहस पूंजी, उत्पादन और उसका समाज पर पड़नेवाले प्रभाव पर आकर टिक जाती है। बहुत हुआ तो एडोर्नो की कल्चर इन्डस्ट्री के आजू-बाजू फेरे लगाकर दम मार लेते हैं। वो साठ के बाद या फिर दूरदर्शन के आगे बढ़ ही नहीं पाते। बढ़िया चैनल के नाम पर वो दूरदर्शन को रख देते हैं. नतीजा ये होता है कि अंत तक आते-आते ये साबित कर देते हैं कि निजी हाथों टीवी की साकारात्मक छवि पेश की ही नहीं जा सकती.और दुर्भाग्य तो ये है कि कई बुद्धिजीवी टीवी को बिना देखे-समझे ही दुत्कारने लगते हैं। अकड़कर कहते हैं, मैं तो कभी टीवी देखता ही नहीं। उनकी सारी समझ टीवी क दरकिनार करके विकसित हुई है। संभवतः यही वजह है कि हन्दी समाज- ने अभी तक टीवी में बड़ी संभावना की खोज नहीं की है। वो अभी भी स्त्रीन पर आने के बजाय जोड़-तोड़ से किताब छपवाने में भरोसा रखते हैं। ये जानते हुए भी कि जिसके लिए वो किताब लसिख रहे हैं, शायद ही व इस किताब को पढ़ पाएगा य फिर उसकी हैसियत होगी कि वो इसे खरीद सके।

आगे उन्होंने कहा- मैं इस ओर आपका और साथ ही बैद्धिक समुदाय की भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि हिन्दी में कलाओं के संबंधित एक टेलीविजन चैनल की जरुरत है और ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मिलकर सामूहिक रुप से एक कला चैनल की शुरुआत करें तो उससे कलाओं का भी लाभ होगा और सहृदयता का विस्तार भी।

रवीन्द्र त्रिपाठी ने जो अनुरोध किया है वो आम कलाप्रेमियो, दर्शकों और कला, साहित्य और संस्कृति को लेकर भला सोचनेवालों के लिए डेमोक्रेटिक है। अगर वाजपेयीजी सहित दूसरे लोग भी इस दिशा में प्रयास करते हैं और चैनल खुल जाता है तो वाकई हम जैसे घसीट-घसीटकर, बशर्मी से लिफ्ट मांगकर मंडी हाउस, आइआइसी और हैबिटेट सेंटर जानवाले लोगों को बहुत ही राहत मिलेगी। वहां जाकर फैब इंडिया में लदे-फदे लोगों को देकर कॉम्प्लेक्स पालने से मुक्ति मिलेगी। पहले इन्ट्री टिकट ले लें या फिर इसे छोड़कर केबलवाले का बिल भर दें, इस दुविधा से राहत मिलेगी। और वैसे भी हमारे जैसे देशभर में करोड़ों दर्शक बैठे हैं जो भीड़-भाड़ में जाने के बजाय सबकुछ टीवी पर ही देख लेने की जोड़-तोड़ में लगे होते हैं। और फिर फ्री इन्ट्री होने पर भी कहां संभव है कूद-कूदकर हौजखास औऱ लोदी रोड जाना। आने-जाने में ही सौ-डेढ़ सौ ढीला। जितना का बउआ नहीं उससे ज्यादा का झुनझुना। अब कहने को कईंया कह लीजिए लेकिन सच बात है कि कला और संस्कृति के नाम पर जो माहौल बन रहा है उसमें आदमी चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता। दुनियाभर के सांस्कृतिक संस्थान इस अर्थ में विस्तार और अभिरुचि पैदा करने के बजाय क्लास पैदा करने में लगे हैं जिसे देखकर ही लगेगा कि वो इस ऐसे-वैसे को शामिल होने ही नहीं देना चाहते. इसलिए

चैनल की सोच के स्तर पर रवीन्द्र त्रिपाठी की बात जितनी व्यावहारिक है, प्रैक्टिस के लेबल पर उतनी ही परेशानी पैदा करनेवाली। इस मामले में उनका हिन्दी समाज के प्रति ज्ञान कच्चा है। अब जब चैनल खुल जाएंगे तो फिर मठाधीशी का क्या होगा। सभाओं में जो अकड़ बनती है उसका क्या होगा। औऱ किसने कह दिया कि इन संगोष्ठियों, प्रदर्शनियों में लोग कलाप्रेम की वजह से जाते हैं। एक नजर मारिए तो कि जो भी आयोजन होते हैं उसका वाकई उद्देश्य होता है कि कला का विस्तार होता है। आपको क्या लगता है कि चैनल खोलने के पहले बौद्धिक टोली इस एंगिल से विचार नहीं करेगी। रवीन्द्रजी आप तो उन्हें अपने ही पैर पर कुल्हाडी मारकर पालकी बनाने क अनुरोध कर रहे हैं...दधीचि का सपना आया था क्या। ऐसा कुछ नहीं होनेवाला।.. हिन्दी४ समाज ज्यादा से ज्यादा मैनुअल मीट में विश्वास रखता है, आप है कि उन्हें वर्चुअल होने की राय दे रहे हैं। हां कोई निजी कम्पनी चैनल खोले तो जमा लेगा।
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हंस के ताजा अंक में मुकेश कुमार ने अपने लेख मीडिया की भट्ठी में आतंकवाद में ब्लॉग को मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा माना है। मुकेश कुमार का ये कोई अपना मुहावरा नहीं है। इसे उन्होंने पहले ही संदर्भ देकर स्पष्ट कर दिया है। कमलेश्वर के संपादन में गंगा नाम से एक पत्रिका निकलती थी जिसमें गंगा स्नान बोलकर एक स्तंभ हुआ करता था। उस स्तंभ में मीडिया की पोल-पट्टी खोली जाती थी। मुकेश कुमार ने वही से ये मुहावरा थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ ब्लॉग के लिए इस्तेमाल किया है।

हालांकि मुकेश ने ये बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि ये मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है तो भी इन्हें भी अभिव्यक्ति मिले तो अच्छा है। ऐसा कहते हुए उन्हें इस बात की भी आशंका जताई है कि संभव है कि बहुत से लोगों को इस ब्लॉग की कुछ सामग्री व्यक्तिगत कुंठाओं का उगलदान लगे, क्योंकि कई बार भाषा का संयम नदारद हो जाता है। इस बात की चर्चा हम बहुत पहले ही कर चुके हैं। सुशील कुमार सिंह के मामले में इसे हमने कई टिप्पणीकारों की बातों को साथ जोड़ते हुए देखा है। इसे फिलहाल खींचने की जरुरत नहीं है।
यहां हम इस बात पर विचार करें कि क्या मुकेश कुमार के एक मुहावरे से कि ब्लॉग मीडिया की गटर गंगा का हिस्सा है से इस बात को स्टैब्लिश करने की कोशिश है कि ब्लॉग में मीडिया की गटर का ही एक बडा़ हिस्सा उडेला जा रहा है या फिर इसमें कुछ अलग किस्म की बातें भी है। ये गटर की सामग्री न होकर अलग किस्म की रचनात्मकता है। अविनास ने इस सवाल का जबाब कथादेश के अगस्त ०८ अंक में कुछ हद तक दिया है। जब मैंने इस सवाल को लगातार उठाया कि न्यूज चैनल के बड़े दिग्गज ब्लॉगिंग क्यों करते हैं। इसके पहले रवीश कुमार ने भी सामयिक मीमांसा में छपे लेख-हिन्दी ब्लॉगिंगः दूसरी अभिव्यक्ति की खोज में अपनी बात रखते हुए कहा-पूरी घटना को मिनट-दो मिनट में समेटना होता है। खबरों के लिए देशभर में घूमते रहना होता है। इस क्रम में कई चीजें होती हैं जिसका कि इस्तेमाल हम नहीं कर पाते। संभव है ये समय या फिर बाकी चीजों के दबाब के कारण होता हो। लेकिन इस बची हुई चीजों का इस्तेमाल ब्लॉग करते हुए हो जाता है। यानि ब्लॉग में वो हिस्सा भी सामने आता है जो कि मेनस्ट्रीम की मीडिया में आने से रह जाता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि चैनल या अखबार को जिस मुद्दे पर स्टोरी देनी होती है, उसे कवर करने के दौरान उसकी प्रकृति से बिल्कुल अलग किस्म की बात दिमाग में आती है, ब्लॉग में उसे शामिल कर लिया जाता है। इस बात से रवीश कुमार की बात को जोड़कर देखें तो मीडिया में काम करते हुए बी कई चीजों को सामने न ला पाने की छटपटाहट पत्रकार को ब्लॉग की ओर मुड़ने को विवश करती है। इसी क्रम में ऐसा भी होता है कि पत्रकार की व्यक्तिगत परेशानी भी यहां पर टांक ली जाती है।

इसलिए मीडिया के विरोध में गटर की गंगा सुनने में अच्छा लगने के बिना पर ब्लॉग को इसका हिस्सा मान लेना बहुत मुफीद नहीं है। मुझे नहीं लगता कि जिस लापरवाही के साथ गटर में चीजें फेंकी जाती है, उसी लापरवाही से कोई ब्लॉगर और वो अगर पत्रकार है तो उसे ब्लॉग पर फेंकता है। वो उसे सद्इच्छा से, स्ट्रैटजी से या फिर भीतर की बेचैनी के साथ पहले संजोता है, उसे ढोते चलता है और तब हमारे-आपके सामने रखता है. इसलिए गटर का मुहावरा सुनने में अच्छा लगते हुए भी संदर्भ और प्रयोग के लिहाज से फिट नहीं बैठता. लेकिन इसमें अच्छा बात है कि मुकेश कुमार ने ऐसा प्रयोग करते हुए भी इसकी होने औऱ विकसित करने की अनिवार्यता का पक्ष लिया है।
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हिन्दी समाज में जो लोग शुद्ध साहित्य का दीया जलाए बैठे हैं उन्हें संजय कुंदन का ये प्रयोग जरुर परेशान कर सकता है। जो रचनात्मकता के नाम पर ब्लॉगिंग को छूहतर माध्यम मानते हैं उन्हें मुंह बिचकाने के लिए अच्छा मौका मिल जाएगा कि माना कि जिंदगी की उठापटक के बीच जब कोई इंसान परेशान होता है तो उसे लगता है कि उसके भीतर जो कुछ भी चल रहा है उसे वो दुनिया के सामने रख दे। इससे ये भले ही साबित नहीं करना चाहता कि वो दुनिया का सबसे परेशान औऱ अलग किस्म का आदमी है तो भी अपनी बात करके मन हल्का जरुर करना चाहता है। लेकिन इसका मतलब थोडे है कि आदमी कुछ भी करने लग जाए। कुछ भी मतलब कुछ भी और किसी भी विधा में लिखने लग जाए और वो भी जब मामला साहित्य का हो। हिन्दी में इतनी सारी विधाएं हैं, उसे छोड़कर उपन्यास के पात्र को ब्लॉग में धकेलने की क्या जरुरत पड़ गयी।

टूटने के बाद संजय कुंदन का पहला उपन्यास है जो इसी महीने नया ज्ञानोदय में उपन्यास शृंखला के अन्तर्गत प्रकाशित हुआ है। उपन्यास में एक पात्र है अप्पू। अप्पू के बाबूजी रमेश के साथ-साथ उसका भाई अजय औऱ यहां तक की मां विमला भी जीवन में भौतिक चीजों और सुख-सुविधाओं को अनिवार्य मानती है। संभव है हममें से बहुतों के परिवारवाले ऐसा नहीं मानते हों लेकिन अप्पू और हम सबके लिए कॉमन बात है परिवेश। परिवेश चाहे अप्पू का हो या फिर हम जैसे मध्यवर्गीय समाज के लोगों का जो कि रोज भाग्य पर एफर्ट की लकीरें चिसते रहते हैं, सब एक ही है। सबका परिवेश मानता है कि जीवन में सफल कहलाने में भौतिक सम्पन्नता भी शामिल है, बल्कि यों कहें कि आज कोई भी इंसान इसके बिना सफल कहलाने की योग्यता नहीं रखता। इसलिए हम और आप चाहते और न चाहते हुए भी इसके लिए रोजमर्रा की जिंदगी में हो-हल्ला मचाते नजर आते हैं। संजय कुंदन के उपन्यास में भी ये हरकत बदस्तूर जारी है। उपन्यास का हरेक पात्र और ज्यादा और ज्यादा की लत का शिकार और दूसरों को धकिआते हुए बढ़ने का अभ्यस्त नजर आता है। अप्पू यानि रमेश बाबू का छोटा लड़का इसका अपवाद है।

अप्पू को हमेशा लगता है कि जिंदगी में ये भोग-विलास और ऐश्वर्य की चीजें मायने नहीं रखती। वो रेपटाइल कल्चर से हटकर कुछ अलग सोचता है, अलग करना चाहता है। वो वह सबकुछ नहीं करना चाहता जो कि उसका बड़ा भाई अजय औऱ पिता रमेश बाबू करते हैं। एक लाइन में कहें तो वो सफल होने के बजाय सार्थक होना चाहता है। आज के इस पैटर्न सी ढल चुकी जिदगी में अगर कोई भी इंसान इस तरह से सोचता है, दिल्ली जैसे शहर में पढ़कर पटना लौटने की बात करता है तो उसे स्वाभाविक कहना मुश्किल होगा। इसलिए उसके एसएमएस भेजे जाने पर कि वो घर छोड़कर जा रहा है, विमला परेशान हो जाती है। उसे कुंडली की बात याद आती है कि बड़ा होकर अप्पू साधू होगा। वो भीतर से सिहर जाती है।

इधर अप्पू पूरे उपन्यास में इन्ही सब बातों को लेकर परेशान रहता है। उसे समझ नहीं आता कि वो क्या करे। लेकिन जब उपन्यास का सिर्फ ढाई पेज बचता है तो उसे एक उपाय सूझती है। पहले तो वो एक फाइल बनाता है औऱ उसके भीतर वो सारी बातें लिखता है जो उसके दिमाग में चक्कर काट रही होती है। लिखकर वो हल्का महसूस करता है लेकिन तभी सोचता है कि वो इसका क्या करे। उसकी खपत कहां हो। पुराने हिन्दी उपन्यासों के पात्रों की तरह वो प्रकाशकों और संपादकों के चक्कर काटने के बजाय ब्लॉग बनाता है। संजय कुंदन ने यहीं पर आकर उपन्यास में ब्लॉग का एक नया संदर्भ पैदा किया है, ब्लॉग की परिभाषा का एक रचनात्मक प्रयोग किया है।. और यहीं पर संभव है कि हिन्दी के प्रचलित विधाओं के प्रेमी खुन्नस खा जाएं।

वो इस बात पर झल्ला सकते हैं कि- ऐसे कैसे चलेगा। हिन्दी में जब पहले से ही कविता, उपन्यास, कहानी या फिर डायरी लिखने की महान परंपरा रही है तो फिर कोई ब्लॉग कैसे लिख सकता है। कहनेवाले शायद ये भी कहें कि इसे आप जबरदस्ती ठूंसा हुआ ही माने, सब प्रायोजित है। एक घड़ी के लिए वो कांप भी सकते हैं कि तो क्या आनेवाले समय में महान वृतांत के अंत की तरह कागजों पर भावुक होने का दौर भी खत्म हो जाएगा। उस पीढ़ी का अंत हो जाएगा जो फर्रे का फर्रा लिखकर कॉफी हाउस या फिर मंडी हाउस के आसपास हमारी चिरौरी करते रहे।.....शायद कोई कोशिश भी करें, नहीं ऐसा नहीं होने पाएं।

लेकिन इन्हीं सबके बीच जो लोग दिन-रात काम के बीच नेट से चिपके हैं, उन्हें ये बात बहुत ही स्वाभाविक लगेगी कि अप्पू ने ब्लॉग ही क्यों बनाया औऱ वो भी हम नाकामयाब के नाम से। इन्हें पता है कि शिल्पी, कौशल, विनीत सहित दुनियाभर के लोगों के कमेंट्स उसे कितना राहत देते हैं। जो लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं, उन्हें पता है कि ब्लॉगरों ने टिप्पणीकारों के बूते लिखना शुरु कर दिया है। अगर चार-पांच दिन न लिखो तो फोन करके पूछते हैं- आपकी तबीयत तो ठीक है न।

संजय कुंदन ने अप्पू के ब्लॉग हम नाकामयाब का आगे क्या हुआ नहीं बताया। जाहिर है ये उपन्यास के लिए अनिवार्य न रहा हो। लेकिन ब्लॉग के उत्साह में कोई कह सकता है कि जब दुनियाभर के लोग अप्पू के ब्लॉग पर टिप्पणी करने लगे होंगे तो आत्महत्या की वेबसाइट खंगालनेवाले अप्पू को ब्लॉग के बहाने जिंदगी के प्रति मोह पैदा हो गया होगा। हम तो उम्मीद लगाए बैठे हैं कि आगे कोई कहानी या उपन्यास हो जिसके पात्र ब्लॉग के बहाने जीना शुरु कर दे, ब्लॉगिंग करते-करते जिंदगी जीत जाए।...

संजय कुंदन का पूरा उपन्यास टूटने के बाद के लिए क्लिक करें-
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टाइम्स नाउ अंग्रेजी न्यूज चैनल है। लेकिन फैशन फिल्म में इसकी रिपोर्टर हिन्दी में खबर देती नजर आयी। पेज थ्री के हिसाब से और चैनल के हिसाब से भी हिन्दी भाषा का प्रयोग अटपटा लगता है। मैं ये नहीं कह रहा कि पेजथ्री के लोग हिन्दी नहीं बोलते. अंग्रेजी चैनलों में कभी-कभार देखा है कि अगर कोई गांव-देहात का बंदा अंग्रेजी नहीं बोल पा रहा होता है तो रिपोर्टर या फिर एंकर उससे हिन्दी में ही बात करने पर उतर आते हैं। लेकिन यहां तो वैसी कोई बात नहीं थी। इससे पहले कार्पोरेट फिल्म में भी टाइम्स नाउ ही मीडिया पार्टनर है। वहां भी कहानी का ढांचा कुछ इस तरह से है कि बार-बार रिपोर्टिंग करने की जरुरत पड़ती है और टाइम्स नाउ की रिपोर्टर फील्ड से रिपोर्टिंग करती है। लेकिन उस फिल्म में कभी भी हिन्दी में कुछ भी नहीं बोलती। वो वहां पर अंग्रेजी चैनल की सार्थकता और ब्रांड को पूरी तरह सार्थक करती नजर आती है। बत्रा में मेरे साथ गया पोल्टू दा ने तभी कहा था- कुछ बी कह लो, एकदम से फील्ड में खड़े होकर धड़ाधड़ अंग्रेजी में बोलते जाना मामूली बात नहीं है. आपसे, हमसे कहे कोई ऐसा करने तो दुइए लाइन में फिस्स हो जाएंगे।हिन्दी के कट्टर प्रेमियों के लिए ये सीन जरुर थपड़ी बजाने का हो सकता है। चाहे तो वो अकड़ सकते हैं कि अंग्रेजी चैनल खोलो चाहे फ्रैंच चैनल, भारत में अगर रहना होगा तो हिन्दी में ही कहना होगा। इन प्रेमियों के लिए पूरी फिल्म का पैसा इसी में सध जाएगा कि अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर ने हिन्दी में पूरी रिपोर्टिंग की है। अब आया न उंट पहाड के नीचे। आजकल देख रहा हूं कि हरेक फिल्म में चालीस से पैंतालिस फीसदी बात अंग्रेजी में ही करते हैं। पैसा दिए हैं हिन्दी सिनेमा के लिए और जबरदस्ती दिखा रहा है अंग्रेजी और वो भी खाली बोली-बात ही। सीन तो सब हिन्दी सिनेमा का ही है। उसमें काहे नहीं दरियादिली दिखा रहे है।


हिन्दी के कट्टर प्रेमियों के लिए ये सीन जरुर थपड़ी बजाने का हो सकता है। चाहे तो वो अकड़ सकते हैं कि अंग्रेजी चैनल खोलो चाहे फ्रैंच चैनल, भारत में अगर रहना होगा तो हिन्दी में ही कहना होगा। इन प्रेमियों के लिए पूरी फिल्म का पैसा इसी में सध जाएगा कि अंग्रेजी चैनल की रिपोर्टर ने हिन्दी में पूरी रिपोर्टिंग की है। अब आया न उंट पहाड के नीचे। आजकल देख रहा हूं कि हरेक फिल्म में चालीस से पैंतालिस फीसदी बात अंग्रेजी में ही करते हैं। पैसा दिए हैं हिन्दी सिनेमा के लिए और जबरदस्ती दिखा रहा है अंग्रेजी और वो भी खाली बोली-बात ही। सीन तो सब हिन्दी सिनेमा का ही है। उसमें काहे नहीं दरियादिली दिखा रहे है।
मधुर भंडारकर के जो फैन हैं और जिन्हें लगता है कि जिस तरह से अमोल पालेकर ने आम आदमी के दर्द को समझा है, उसी तरह से भंडारकर आम आडिएंस के दर्द को समझा है। वो काबिल आदमी है, उसको देश के लोगों की नब्ज पता है। वो जानते हैं कि बात-बात में अंग्रेजी झोकने से हमारी आडिएंस लसफसा जाती है। सिर्फ भाषा के कारण ही पूरे फिल्म का मजा नहीं ले पाती है। बहुत सोच-समझकर रिपोर्टर से हिन्दी में बोलवाए हैं। रैपिडेक्स से अंगरेजी ठीक करके एसएससी का एलडीसी निकाला जा सकता है, फिल्मवाली अंग्रेजी समझने के लिए शुरु से ही ध्यान देना होता है। अंग्रेजी के संस्कार शुरु से ही होने जरुरी है। भंडारकर ने ऐसे ही अठारह महीने नहीं चक्कर काटे हैं इस फिल्म के लिए। इस पर भी रिसर्च किया होगा। यही है बढ़िया फिल्म बनानेवालों की समझदारी।

जो लोग बाजार के भरोस हिन्दी की तरक्की का ताल ठोकते हैं उसके लिए फैशन फिल्म एक रेफरेंस की तरह काम आएगा। वो लोगों को आसानी से बता सकते हैं कि- अजी जब फैश जैसी पेज थ्री फल्मों के लिए भंडारकर को हिन्दी में रिपोर्टिंग करानी पड़ गयी तो अब आगे की बात कौन करे। जान लीजिए, ऐसा करके भंडारकर साहेब ने हिन्दी पर कोई एहसान नहीं कर दिया है। ये उनकी मजबूरी है, बाजार की मजबूरी है कि बिना काउंटर में हिन्दी का माल डाले आप टिक नहीं सकते। अभी देखते जाइए न, कहां-कहां हिन्दी अपना पैर पसारती है। जो लोग कह रहे हैं कि हिन्दी का भविष्य संकट में है, उनको आंख खोल देगा,ये सब। अजी जिस हिन्दी में बात करने में हिन्दी के चैनलवालों को स्क्रीन के बाहर बोलने में शर्म आती रही है, जिस हिन्दी को बोलने से अंग्रेजी चैनलवालों की जीभ पर गोबर की स्मेल रेंगने लग जाती रही, आज वो करोडो़ पब्लिक के सामने हिन्दी में बात कर रहे हैं। इसको कहते हैं, औकता में आ जाना। अभी देखते रहिए, आगे-आगे होता है क्या।

अब दिमाग लगानेवालों की कमी तो है नहीं। फिल्म खतम होने के बाद पोल्टू दो ने एकदम से कहा- मामू बनाया है भंडारकर ने तुम हिन्दीवालों को। कार्पोरेट में काहे नहीं हिन्दी में रिपोर्टिंग करवाई। वहां भी तो अंग्रेजी चैनल ही था. उसको पता है कि कार्पोरेट फिल्म जो भी देखने आएगा, वो एलीट किस्म का आदमी होगा और एलीट लोगों को अंगंरेजी आए नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है. वहां क्लास की बात थी. भंडारकर को ये भी पता था कि- फैशन फिल्म सिर्फ वही लोग देखने नहीं आएंगे, हो सकता है वो कम ही आएं. फैशन देखने वो भी लोग आएंगो जो दू रुपया के सेनुर-टिकली और पचास रुपये के लहटी,शंखा-पोला और तीन सौ रुपये आर्टिफिशियल गहनों से फैशन कर लेती है। वो लौंडा सब भी आएगा जो बुध बाजार में भी औकात के भीतर लेटेस्ट फैशन कर लेने का दम रखता है। हैसियत देखकर अंग्रेजी के बजाय हिन्दी बोलवाया है भंडारकर ने। तुम सबको मामू बनाया है, मामू।...
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आम ऑडिएंस के पास ऐसा कोई भी साधन नहीं है जिससे की वो खबरों को लेकर किए जानेवाले manipulation को समझ सके। चैनल किस तरह शब्दों को इधर-उधर करके, उस पर मोंटाज और क्रोमा लगाकर पूरे अर्थ को बदल देते हैं,उसे समझ पाना आसान नहीं है। ले-देकर ऑडिएंस, यहां तक कि मीडिया समीक्षकों की झोली में भी एक ही दो शब्द है जिसे कि किसी भी टीवी चैनल या प्रोग्राम का विश्लेषण करने के लि फिट कर देते हैं- एक तो सीधे-सीधे ये कहना कि- अजी कुछ नहीं, सब टीआरपी का खेल है और दूसरा कि सब लंपटई पर उतर आए हैं।

निजी हिन्दी चैनलों को प्रभाव में आए पन्द्रह-सोलह साल होने जा रहे है। इतने कम समय में लोगों पर इसका जितना जबरदस्त असर हुआ है, उसके मुकाबले विश्लेषण के स्तर पर न के बराबर ही काम हुए हैं। मीडिया विश्लेषण के नाम पर कोई पद्धति का विकास होने के बजाय स्टीरियोटाइप राइटिंग ही अधिक हुई है। यह भी एक बड़ी वजह है कि आज तेजी से गिरते चैनलों के स्तर पर बात करने पर कोई भी चैनल मीडिया विश्लेषकों की बात को तबज्जो नहीं देते। शुरुआती दौर से ही चैनलों को पूंजी का माध्यम, मानवीय संवेदना के अंत होने की घोषणा का असर और वैल्यू लोडेड शब्दों के प्रयोग और चैनल को लगातार साहित्य के साथ जोड़कर देखने की छटपटाहट ने कुछ लोगों को मीडिया विश्लेषक तो जरुर बना दिए। वो साहित्यिक हल्कों के बीच हिट तो हो गए, अपनी पैठ तो बना ली। वो इस बात के लिए जाने जाने लगे कि बंदा चैनल और मीडिया में भी जनपक्षधरता की बात को पकड़े हुए तो है लेकिन ये विश्लेषक भी इस बात को चैनल के सामने नहीं रख पाए कि पूंजी औऱ बाजार के खेल के बीच भी कैसे सामाजिक सरोकार के माध्यम विकसित किए जा सकते हैं, इस बारे में कोई समझ नहीं दे पाए। अपने व्यावहारिक जीवन में उन्हें भी पता है कि काम सिर्फ महान आख्यानों और संवेदना को थामे रहने से नहीं चलता लेकिन मीडिया विश्लेषण के लिए इसे पकड़े रहना, मीडियाकर्मियों और चैनल के लोगों के लिए अप्रासंगिक बना देता है।
अगर साफ- साफ कहें तो मीडिया विश्लेषकों की बाजार,अर्तव्यवस्था, पूंजी की उपलब्धता और इन सबकी अनिवार्यता के बीच चैनल या मीडिया के चलने की बात को न समझ पाना ही उनके द्वारा किए जा रहे विश्लेषण की नाकामी का नतीजा है। मेरी तरह और कोई भी जो कि मीडिया विश्लेषण को बतौर करियर बनाने पर विचार कर रहा है, उसके मन में एक सवाल सबसे पहले आता है औऱ आने भी चाहिए कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर जो कुछ भी लिख-पढ़ रहे हैं, उसकी प्रासंगिकता क्या है। मीडिया पर लगातार उंगली रखकर, उसे हमेशा पटखनी देने की नीयत से जिस भाषा का हम इस्तेमाल कर रहे हैं, उसका असर कितना है।
संभव है मेरे लिखे और विश्लेषण की खपत कॉलेज के उन स्टूडेंट के बीच हो जाए जो हिन्दी विभाग में रहते हुए भी एक पेपर सेफसाइड के रुप में मीडिया ले लेते हैं कि कहीं कुछ नहीं होगा तो मीडिया लाइन में ही घुस लेंगे। उनके बीच अपनी पॉपुलरिटी बढ़ जाए और वो हमारे लेखों की फोटोकॉपी कराकर पढ़ने लगें। हमारे विश्लेषण का इससे ज्यादा कोई उपयोग है, फिलहाल मेरे जेहन में नहीं आता. इस आधार पर अगर ये मान लें कि हम तो आनेवाली पीढ़ी के लिए लिख रहे हैं, हम उनके बीच मीडिया की एक स्पष्ट समझ देना चाहते हैं। तो अब जरा अपने लिखे की उपयोगिता की जांच उनके हिसाब से कर लें.

कोर्स सहित मीडिया में काम करते हुए मैं करीब ढ़ाई साल तक मीडिया से सीधे-सीधे जुड़ा रहा। एमए में भी चार पेपर मीडिया की पढ़ाई की। इसलिए आप एक साल और जोड़ ले, यानि करीब तीन साल. इस दौरान मुझे कभी नहीं लगा कि हिन्दी मीडिया की किताबों में जानकारी के नाम पर जो चीजें उपलब्ध कराया है, वो किसी काम की है. जैसे हमारी लिखी बातें आनेवाली पीढ़ी के लिए किसी काम की नहीं हो सकती है, ठीक उसी तरह मुझे उपलब्ध किताबों को देखकर लगा। मसलन टीआपी के नाम पर विश्लेषक दुनियाभर की बातें झाड देंगे लेकिन किसी ने नहीं बताया कि ये कॉन्सेप्ट कैसे आया, किस तरह ये काम करता है और इसका असर मीडिया कंटेंट पर किस तरह से होता है। मीडिया की समझ के नाम पर वैचारिकी झोंकने से स्टडेंट का कितना भला होता है,, इसेक बारे में स्टूडेंट बेहतर बता सकता है। यकीन मानिए अगर ढंग से पांच मीडिया के स्टूडेंट मीडिया विश्लेषकों के सामने बैठ जाएं और अपनी जरुरत और कोर्स की उपयोगिता पर बात करने लग जाएं तो विश्लेषकों को अपने को गैरजरुरी होने का एहसास होते देर नहीं लगेगी।

अब विश्लेषकों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वो साफ-साफ घोषणा करें कि हम मीडिया विश्लेषण के नाम पर सिर्फ मास्टरी नहीं कर रहे हैं. हम सिर्फ उनके लिए लेख और किताबें नहीं लिख रहे हैं जो साल दो-साल बाद बीस-पच्चीस हजार रुपये कमाने के चक्कर में लगे हैं। हम एक ऐसी पीढ़ी गढना चाहते हैं जो मीडिया की नकेल कस सके, चैनलों की थेथरई पर लगाम लगा सके. खबर के नाम पर जो चैनल अंड-बंड दिखा रहे हैं उनको भय हो कि आनेवाले समय में दिक्कत हो सकती है। लेकिन सवाल तो अभी भी रह जाता है कि मीडया की नकेल कसनेवाली पीढ़ी तैयार करने के लिए मीडिया संस्थानों, विभागों में और रिसर्च सेंटरों में जो कुछ, जैसा भी चल रहा है उसे उसी तरह चलने दिया जाए. किताब के नाम पर जो हुमचनेवाले विचार झोंके जा रहे हैं, उसे जारी रखा जाए या फिर इसके अलावे या इसे छोड़कर कुछ अलग से भी करने की जरुरत है ?
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न्यूज २४ पर दो दिल आते हैं। एकदम गाढे लाल टेस रंग में। इनकी साइज धीरे-धीरे बढ़ती है और फिर सफेद से लिखा दिखाई देने लग जाता है- आइ लव यू राहुल। इसी तरह दूसरे दिल पर लिखा दिखाई देता है- आई लव यू मोनिका। चैनल बताता है कि बिग बॉस के भीतर राहुल और मोनिका में बहुत कुछ चल रहा है। दूसरे चैनलों पर तो ये भी चर्चा जारी है कि बिग बॉस से लौटने के बाद शायद राहुल और मोनिका कोई बड़ा फैसला लें।

हमारी दिलचस्पी न तो राहुल और मोनिका के बीच जो कुछ भी चल रहा है उसमें है, न तो उनके बिग बॉस से बाहर आकर बड़े फैसले लेने का इंतजार है और न हमें इस बात की चिंता सताए जा रही है कि राहुल और मोनिका के बीच ये सब क्या और क्यों चल रहा है। जिन्हें चिंता हुई, जिन्हें लगा कि किसी रियलिटी शो में दोनों को इस तरह से दिखाए जाने पर भारतीय संस्कृति पर चोट पहुंचती है, घर के लोगों के संस्कार पर बुरा असर पड़ता है, उन्होंने विरोध किया। जिन्हें इस प्रोग्राम के जरिए टीआरपी बटोरनी थी और अभी भी है, उन्होंने दिखाया कि- अबू सलेम को याद आ रहा है पुराना प्रेम, जेल में मांगा अबू सलेम ने टीवी, मोनिका का दीदार करना चाहता है अबू सलेम, बिग बॉस देखना चाहता है अबू सलेम। यकीन मानिए हमारी दिलचस्पी इनमें से किसी भी चीज में नहीं है।

हमारी दिलचस्पी सिर्फ इस बात में है कि जो घटनाएं( अगर रियलिटी शो और उनकी बातों को घटना मानें तो) हो रही हैं, उसे न्यूज चैनलों में किस रुप में पेश किया जा रहा है। बिग बॉस में मोनिका और राहुल के भीतर जो कुछ भी चल रहा है, वो लोगों का मन लगाए रखने के लिए किया जा रहा है, संभव है टीआरपी के लिए नुस्खे के रुप में काम आ रहे हों, इसी नुस्खे में एक और जोड़ी- डायना और आशुतोष की जोड़ी तैयार कर दी गयी है। क्योंकि चैनल को ये पता है कि ऑडिएंस बिना कमेस्ट्री देखे बिना मानने वाली नहीं है। लेकिन इन सारी बातों को न्यूज चैनल खबर की शक्ल देने पर आमादा हैं। आप प्राइम टाइम के ठीक पहले देखिए, कई बार तो प्राइम टाइम में भी कि- जो चीजें, जो बातें और जो स्टंट मनोरंजन प्रधाम चैनल के जरिए मनोरंजन, मैलोड्रामा और टीआरपी जेनरेट करने के लिए किए गए हैं, उसे खबर के तौर पर चैनल पेश करते हैं। समझ और समाचार देने के साथ-साथ मनोरंजन कराने का जिम्मा न्यूज चैनलों ने अपने आप ले लिया है। खैर, ये सबकुछ न्यूज चैनलों की अपनी पॉलिसी हो सकती है और सरकारी नीतियों की बात है कि वो न्यूज के नाम पर क्या-क्या प्रसारित करने का अधिकार देती है।

यहां मैं चैनल के आधार पर ही मानकर चल रहा हूं कि- आइ लव यू राहुल और आइ लव यू मोनिका खबर है। न्यूज चैनल के लिए भी, ऑडिएंस के लिए भी,साथ ही बॉलीवुड इन्डस्ट्री के लिए भी और अगर न्यूज चैनलों ने इसके तार अभी तक अबू सलेम से जोड़ रखे हैं तो अंडरवर्ल्ड के लिए भी। वाकई ये बड़ी खबर है।

चाहे भले ही यह सबकुछ फेक हो, लेकिन बिग बॉस के भीतर दोनों के बीच जो कुछ भी चल रहा है उस पर सभी चैनलों ने मिलकर अब तक पचासों स्टोरी बना दी होगी। कलर्स पर भी लोग अपने-अपने ढंग से प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं। एहसान कुरैशी ने तो दोनों पर राइम्स बनाने शुरु कर दिए हैं। एक बार पहले बाहर आ चुकी मोनिका को इस मामले में दुनियाभर की सफाई भी देनी पड़ी है। इन सबके बीच मेरे दिमाग में सिर्फ एक ही सवाल उठ रहा था- कि क्या वाकई में मोनिका ने राहुल को आइ लव यू कहा है।

चैनल के हिसाब से अगर सिर्फ राहुल कहता है- मोनिका आइ लव यू तो कोई बड़ी खबर नहीं है। बड़ी खबर तब है जबकि मोनिका भी ऐसा ही कहे। न्यूज २४ ने मोंटाज बनाए उसमें ऐसा लिखा। इफेक्ट के लिए चैनल के बैक्ग्राउंड में जो केरोमा और मोंटाज बनाए जाते हैं कि कोई चाहे तो उस पर अलग से रिसर्च कर सकता है। खबर को लेकर स्टोरी आइडिया, काफी कुछ इसी से साफ हो जाता है। खबरों की तरह इसमें भी आए दिन कलाकारी और फैब्रिकेशन जारी है। इसे देखकर मैं बिग बॉस के ऑरिजिनल शॉट्स देखने के लिए परेशान हो गया।

संयोग से भटकते-भटकते जब मैं कलर्स पर पहुंचा, साढ़े बारह बजे तक देखता रहा। बिग बॉस के रिपीटेड एपीसोड आ रहे थे। दीवाली धमाका स्पेशल भी उसी में था। जब भी ब्रेक होता, उस शॉट्स के फुटेज दिखाए जाते जिसमें राहुल मोनिका से कहता है- बोलो- आइ, मोनिका दोहराती है आइ, बोलो लव, मोनिका दोहराती है लव, आगे राहुल कहता है- राहुल। अबकि बार मोनिका कुछ बोले इसके पहले ही ब्रेक हो जाता है. ऐसा मैंने कम से कम दस बार देखा और इंतजार करता रहा कि मोनिका क्या बोलती है। यही है ऑडिएंस की क्योरियोसिटी जिसे कि चैनल खूब समझता है।अंत में करीब सवा बारह या कुछ इसी के आसपास वो शॉट पूरा दिखाया जाता है। बिग बॉस के मिनट्स के हिसाब से ये रात के आठ बजकर पच्चीस मिनट का समय है। आइ लव यू के बाद जैसे ही राहुल, राहुल दोहराने कहता है, मोनिका दोहराने के बजाय कहती है- सुधर जाओ।॥

अब साफ हो गया था कि मोनिका ने कहीं भी नहीं कहा- आइ लव यू राहुल। यानि चैनल अपनी तरफ से चला रहा था- आई लव यू राहुल। इसे कहते हैं, थोड़े से बड़े अंडे की साइज देखकर, डायनासोर पर डॉक्यूमेंट्री बना डालना। चैनल भी खबरों के साथ यही सबकुछ कर रहे हैं ?
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तो भई, अपने मैथिली गुप्तजी इस बात के पुरजोर समर्थन में लगे हैं कि आनेवाला समय वेबपत्रकारिता का है। बाकी की सारी पत्रकारिता पतझड़ के पत्ते की तरह झड़ते चले जाएंगे। अभी जो बी लोग प्रिंट माध्यम से खबरों को जान रहे हैं, वो या तो तकनीक के मामले में असमर्थ हैं या फिर उनकी अभी भी पुरानी आदत गई नहीं है। मैथिलीजी अब मैं भी कई लोगों को लैपटॉप पर कुछ न कुछ लेटकर पढते हुए देख रहा हूं। थोड़ा वजनी तो होता है लेकिन पन्ने बदलने की झंझट से मुक्ति मिल जाती है। खैर,
एक सवाल औऱ कि जो भी ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। इस पूरे बातचीत में मेनस्ट्रीम की तरफ से मुझसे ये भी सवाल किया गया कि- जो लोग भी नेट पर लिख रहे हैं, चाहे वो ब्लॉग के जरिए हो या फिर वेब पर, उनकी ऑथेंटिसिटी कितनी है। वेब से जुड़े लोग, जिनका कि अपना डोमेन है, उन्हें तो फिर भी आसानी से पकड़ा जा सकता है। लेकिन जो ब्लॉगिंग कर रहे हैं उनको लेकर दिक्कत है। अब कोई कठपिंगलजी को ही लीजिए न। या फिर सुशील कुमार सिंह को ही, मान्यता प्राप्त होने के बाद भी वो अपने नाम से नहीं लिख रहे। ऐसे में उनकी बातों को कितना ऑथेंटिंक मान सकते हैं।
दूसरी बात सुशीलजी तो वेब के जरिए पत्रकारिता कर भी नहीं रहे हैं, वो तो गप्प कर रहे हैं। न्यूज रुम का गप्प। फिल्म सिटी के कमजोर गुमटियों पर बड़ी-बड़ी बातों को लेकर किया जा रहा औपचारिर गप्प। इसे कोई कैसे पत्रकारिता कह सकता है। यानि इसी तरह निजी अनुभवों को टांकने और वेब पर लिखने को हम जर्नलिज्म कगैसे कह सकते हैं। इसमें बहुत गुंजाइश है कि कोई अपनी पर्सनल खुन्नस निकालने के लिए किसी चैनल या मीडिया समूह को टांगने में लग जाए. क्या इसे सिर्फ इसलिए जर्नलिज्म कहा जाए कि ये सार्वजनिक कर दिया जाता है।अगर कंटेट को लेकर ही विभाजन करनी है तो ब्लॉग के एक बड़े हिस्से को फिक्शन के खाते में डाला जा सकता है, कुछ को संस्मरण, कुछ को रिपोर्ताज और कुछ को रिपोर्टिंग. हालांकि इस तरह का विभाजन उचित नहीं है और मेरे सहित कई और लोगों को भी इस बात को लेकर परेशानी हो सकती है। तो भी इसमें जर्नलिज्म के एलीमेंट को अलग करने के लिए एक घड़ी को ऐसा किया जा सकता है। आप देखेंगे कि ब्लॉग का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसे आप जर्नलिज्म कह सकते हैं। उसमें मेनस्ट्रीम की तरह की प्रस्तुति है, वो सूचनात्मक हैं, कोई पर्सनल और भावुक किस्म की बातें नहीं. कई बार तो मेनस्ट्रीम की मीडिया उसे ज्यों का त्यों इस्तेमाल कर लेती है।
जिन लोगों को ब्लॉग में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने के साथ-साथ मेनस्ट्रीम की मीडिया में जर्नलिज्म के एलीमेंट खोजने की इच्छा है वो इस बात पर दावा कर सकते हैं कि- चैनल जो दिखा रहे हैं, चाहे वो धर्म के नाम पर हो, पब्लिक व्आइस के नाम पर हो, उसकी कितनी ऑथेंटिसिटी है। इस आधार पर साफ कहा जा सकता है, पहले अपने गिरेबां में झांककर देखें, ब्लॉगिंग में जर्नलिज्म के एलीमेंट कितने हैं, ये बात में बाद में पता कर लिया जाएगा। अब जो लोग ब्लगिंग में मेनस्ट्रीम की मीडिया के मुकाबले ज्यादा सच्चाई और ऑथेंटिसिटी का दावा कर रहे हैं, जाहिर है उनका आधार फिक्शन आधारित ब्लॉग नहीं है। ये वो ब्लॉग हैं जो सीधे-सीधे सामयिकता और देश-दुनिया की घटनाओं से जुड़े हैं। इसलिए ब्लॉग के भीतर की ऑथेंटिसिटी घोषित करने का मसला नहीं है, बल्कि महसूस करने और छानबीन करने का मसला है. मुझे नहीं लगता कि कोई अपने ब्लॉग पर अदिकारों के हनन की बात, शोषण और अन्याय की बात लिख रहा है तो वो गप्प कर रहा है या फिर फिक्शन लिख रहा है। औऱ अगर किसी को फर्जी कथा लिखने में रचनात्मकता दिखाई देती है तो कानूनी डंडे न भी पड़े तो भी सामाजिक दबाब जरुर पड़ेंगे और किसी भी समझदार इंसान को इसकी चिंता जरुरू होती है. इसलिए ऐसा गप्प जिसका कि वास्तविकता से सीधा संबंध हो, ऐसा करनेवाला ब्लॉगर जरुर सोचेगा और सोचना भी चाहिए.


लेकिन फिर वही बात, कि अगर न सोचे तो. तो इस थेथरई और जब्बडपने का क्या इलाज है. इस इलाज को लेकर आप ऐसे ही सोचिए जैसे आप इंडिया टीवी के बारे में सोच रहे हैं। नहीं सोच रहे हैं तो आज न कल सोचना शुरु तो करेंगे ही। उसी खेप में आप उन ब्लॉगरों के बारे में भी सोच लीजिएगा कि कोई खबर के नाम पर गप्प कर रहा है, पर्सनल खुन्नस निकाल रहा है तो उसका क्या करें. इलाज निकल आएगा, खुशी की बात है, अपनी उम्मीद भी बंधी है कि यहां तो एक से एक सोशल साइंटिस्ट बैठे हैं।
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