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नया ज्ञानोदय(मार्च) के लिए लेख लिखने के क्रम में मुझे एक बार फिर न्यूज चैनलों के उन पुराने फुटेज औऱ खबरों को खंगालना पड़ गया जिसमें सीरियलों की नई खेप को सामाजिक विकास का माध्यम बतालाया गया था। स्टार न्यूज, इ 24 और आजतक ने सीरियलों की इस नयी खेप पर बहुत सारी स्टोरी की है। सबमें ये बताने की कोशिश की है कि अब टीवी सीरियल के जरिए सामाजिक विकास का काम किया जा रहा है। हेडलाइन्स टुडे 14 नवम्बर बाल दिवस के दिन बालिका वधू का असर देखते हुए राजस्थान के उन इलाकों की कवरेज में जुटा रहा, जहां सरकारी प्रतिबंध के वाबजूद भी बाल-विवाह जारी है। कुल मिलाकर चैनलों द्वारा इस तरह के महौल बनाए गए कि एकबारगी हम भी सोचने लग गए कि क्या वाकई टीवी सीरियलों के जरिए सामाजिक विकास संभव है। http://teeveeplus.blogspot.com
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जरा ड्राइंग रुम से बाहर तो झांकिए, पूरा भारत आपका इंतजार कर रहा है। ये रवीश कुमार का विश्लेषण है, एनडीटीवी इंडिया का विश्लेषण है उस फिल्म को लेकर जिसे मेरे साथी ब्लॉगर भारतीय औऱ विदेशी के साथ जोड़कर देख रहे हैं। पोस्ट को देखकर एकबारगी तो मन में आया कि एक कमेंट दे मारुं कि क्या भारतीयता का सवाल आज भी हमारे लिए उतना ही महत्वपूण है जितना कि आज से चालीस-पचास साल पहले रहा है। अगर तिरंगे का होना ही एक बड़ा सच और शाश्वच सच है तब तो भारतीयता का चिरकाल तक जिंदा रहना तय है। पूरी पोस्ट के लिए क्लिक करें- http://teeveeplus.blogspot.com
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पंकज पचौरी का ये सवाल अभी पूरा ही होता कि टेलीविजन रियलिटी और बनावटी, देश और दुनिया के जाने-माने पत्रकार मार्क टली ने जबाब दिया-टेलीविजन की रियलिटी तमाशा है। रियलिटी शो में जो कुछ भी दिखाया जाता है उसमें कुछ भी रियल नहीं होता, सिर्फ तमाशा होता है। मार्क टली के इस विचार से नलिनी सिंह भी सहमत नजर आई और साफ कहा कि हल्की-फुल्की चीजें दिखाकर टेलीविजन किसी हद तक हमारा भला नहीं कर रहा। पंकज पचौरी की इस टिप्पणी पर कि चैनलों का हमेशा ये दावा होता है कि वो वही दिखा रहे हैं, जिसे कि देश की ऑडिएंस देखना चाहती है। पूरी पोस्ट के लिए क्लिक करें- http://teeveeplus.blogspot.com/
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चैनल के कई एंकर मौजूद थे और तभी एनडीटीवी की मैनेजिंग डायरेक्टर बरखा दत्त ने कहा- लगता है हमारी नौकरी खतरे में है, क्या आप मेरी नौकरी लेने जा रहे हो या फिर मैं आपकी। न्यूज चैनल के इतिहास में 26 मई 2005 बड़ा ही दिलचस्प दिन रहा है और स्ट्रैटजी के लिहाज से एक प्रयोग भी। बाद में इसकी आलोचना भी हुई लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए अब ये ट्रेंड-सा बन गया है।
26 मई प्राइम टाइम 8 बजे,एनडीटीवी इंडिया पर अभिषेक और रानी मुखर्जी बतौर एंकर आते हैं औऱ एनडीटीवी की ऑडिएंस के सामने पूरे आधे घंटे तक न्यूज बुलेटिन पेश करते हैं। बाकायदा इस अभिवादन के साथ कि- आठ बजे की खबरों में आपका स्वागत है। मैं हूं बंटी और मैं हूं बबली। इन दोनों ने अपना नाम न तो अभिषेक बच्चन लिया औऱ न ही रानी मुखर्जी। दोनों फिल्मी कैरेक्टर के तौर पर अपने को इन्ट्रोड्यूस करते हैं। इन दोनों का इस न्यूज चैनल पर आना फिल्म प्रोमोशन का एक हिस्सा भर था। चैनल के लिए ब्रांड पोजिशनिंग की रणनीति लेकिन इन दोनों ने आधे घंटे की पूरी बुलेटिन पढ़ी जिनमें सामान्य दिनों की तरह ही वो सारी खबरें थी। मनमोहन सरकार से भेल में विनिवेश के मसले पर वामपंथी पार्टियों का विरोध, दिल्ली में जामा मस्जिद की ऐतिहासिकता पर विवाद औऱ इसी तरह से उत्तर प्रदेश में एक सती से जुड़ी खबर। चैनल पर बार-बार फ्लैश होता रहा ये बंटी-बबली स्पेशल हैं और ऑडिएंस एसएमएस के जरिए अपनी राय दे सकते हैं। बाद में इन दोनों को खबर के तौर पर प्रयोग किया गया और रिपोर्टर द्वारा सवाल किए गए कि आपने ताजमहल को बेच दिया( फिल्म का प्लॉट) औऱ अब एनडीटीवी में एंकर बन गए, ये पूरा सफर कैसा रहा, कैसा लग रहा है आपको। फिल्म की घटना और चैनल की खबर का कॉकटेल कुछ इस तरह से पेश किया गया कि ऑडिएंस को खबर के नाम पर डिफरेंट देखने का अहसास हुआ।
इसमें कहीं भी अभिषेक औऱ रानी मुखर्जी का नाम नहीं लिया गया। रियलिटी औऱ फैंटेसी को पूरी तरह ब्लर्र किया गया।
इस मामले में राज नायक( सीइओ, एनडीटीवी) का कहना था कि हम उम्मीद करते हैं कि सिलेब्रेटी वैल्यू की वजह से एनडीटीवी को वो लोग भी देखेंगे जो कि एनडीटीवी नहीं देखते।
राज नायक की मानें तो देश की ऑडिएंस सिलेब्रेटी को चाहे किसी भी रुप में देखने को तैयार रहती है। सिलेब्रेटी कुछ भी करे, कहे देखने औऱ मानने को तैयार रहती है। ये बात आपको विज्ञापनों में तो साफ तौर पर दिखता ही है कि जहां सिलेब्रेटी इमेज ब्रांड इमेज में कन्वर्ट हो जाती है। पल्स पोलियो अभियान के लिए अमिताभ बच्चन औऱ टीवी की रोकथाम के विवेक ओबराय को शामिल किए जाने में भी दिखाई देता है। आप कह सकते हैं कि समाज में इन लोगों के कहने का असर होता है। असर होता है भी या नहीं लेकिन लोगों का अटेंशन तो बनता ही है, लोग गौरसे देखते हैं। इसलिए आप देखेंगे कि इन सिलेब्रेटी का प्रयोग न केबल चड्डी च्यवनप्राश, चॉकलेट औऱ पेनवॉम बेचने के लिए ही नहीं बल्कि सामाजिक संदेश देने के लिए किए जाते हैं। आप चाहे तो इनके प्रयोग की दो कैटेगरी बना सकते हैं- एक विज्ञापन के लिए औऱ दूसरा सामाजिक संदेश के लिए। लेकिन अब एक तीसरी कैटेगरी भी तेजी से विकसित हो रही है, खबर देने की, चैनल को स्टैब्लिश करने की। देश की ऑडिएंस को ये बताने की अगर शाहरुख न्यूज 24 देख सकते हैं तो फिर आप दूसरे चैनलों की खबर क्यों देखते हैं।
अभिषेक बच्चन जो कि बंटी और बबली के लिए एनडीटीवी इंडिया पर एकरिंग करते नजर आए, कल सीएनएन आइबीएन के न्यूज रुम में माइक लिए रिपोर्टिंग करते दिख गए। वो उस फ्रीज को दिखा रहे थे जिसमें बहुत सारे चाकलेट रखे थे। अभिषेक बता रहे थे कि राजदीप क्यों इतना मीठा बोलते हैं, ये है चॉकलेट का राज। थोड़ी देर के लिए एडिटिंग मशीन पर भी बैठे और कीबोर्ड के साथ छेड़छाड़ की। बाद में सोनम कपूर ने माइक उसके हाथ से ले ली और फिर उसके द्वारा रिपोर्टिंग शुरु की। फिल्म दिल्ली-6 का मीडिया पार्टनर नेटवर्क 18 ग्रुप है और कल प्राइम टाइम की खबर में अभिषेक और सोनम द्वारा जो रिपोर्टिंग की गयी वो फिल्म प्रोमोशन और चैनल को पॉपुलर बनाने की सट्रैटजी थी।
नलिन मेहता ने अपनी किताब इंडिया ऑन टेलीविजन में खबरों को इस रुप में पेश किए जाने और उनमें सिलेब्रेटी के शआमिल किए जाने के पीछे की रणनीति को एडवर्टिजमेंट और चैनल इकोनॉमी का हिस्सा बताया है। पूरा का पूरा एक चैप्टर ही है- CHAPTER-4 THE NEWS WITH BUNTY AND AND BABLI: ADVERTISING,RATINGS AND TELEVISION NEWS ECONOMY. इस पूरे चैप्टर में उन्होंने विस्तार से बताया है कि कैसे न्यूज इकोनॉमी के तहत चैनल आए दिन खबरों को नयी-नयी शक्ल में पेश करते हैं। हमारे लिए वो किसी भी फार्म में आए, खबर ही है लेकिन इसके बीच से हम विश्लेषण कर सकते हैं कि बाजार, रेटिंग औऱ मैनेजमेंट के बीच से होकर गुजरती खबरों का मिजाज कितनी तेजी से बदल रहा है।
फिलहाल मैंने सीएनएन के किसी भी अधिकारी से इस स्ट्रैटजी को लेकर कोई बयान नहीं सुना है। लेकिन चैनलों के भीतर जिस तरह से सिलेब्रेटी घुसकर खबर बनते हैं जो कि वाकई फिल्मी शूटिंग का हिस्सा नहीं है बल्कि खबर है, लोग चैनल से ज्यादा फेमिलियर होते जाते हैं। बाकी प्रोफेशन की तरह सिनेमा औऱ ऐसी खबरों के जरिए लोगों के जीवन में ये शामिल होता जाता है। नहीं तो अभी तक किसे पता होता था कि न्यूज रुम की शक्ल कैसी होती है। मैं तो ये भी कहूंगा कि एडीटिंग मशीन पर दिनभर फुटेज कतरते मेरे दोस्त जब बाहर आकर कहते हैं कि- बस बिता दिए दस घंटे हमने चुतियापा करते हुए,चांद के दर्द को दिखाने के लिए सोयी हुई मुमताज का दरवाजा खटखटा आए, अब वो भी कह सकेगा- इतना रद्दी प्रोफेशन भी नहीं है,पैकेज बनाना, अभिषेक ने उसमें ग्लैमर भरने का काम किया है। दूसरी तरफ जो लोग अब तक इंडिया टीवी औऱ आजतक से काम चला रहे थे वो भी मशक्कत करके सीएनएन देखेंगे- क्योंकि इस पर हीरो-हीरोईन रिपोर्टिंग करता है।
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फिल्मी पंडित( फिल्म क्रिटिक) या तो बॉक्स ऑफिस के हिसाब से फिल्मों की समीक्षा करते हैं या फिर इस हिसाब से कि फलां फिल्म पर ऑडिएंस रिएक्शन क्या होगा। नतीजा ये होता है कि पहले जिस फिल्म को बेकार कहा, बॉक्स ऑफिस के हिसाब से पिट जाने वाला बताया, वो फिल्म जब चल गयी तो अपनी बात बदल दी। रब ने बना दी जोड़ी के बेकार कहा और जब फिल्म चल गयी तो ऑडिएंस की समझ पर ही सवाल उठा दिए। फिल्मी पंडित फिलम की समीक्षा नहीं करते। फिल्म रीलिज होने के पहले हमसे दुनिया भर के सवाल पूछते हैं। वो सारे सवाल फिल्मों को बिना देखे करते हैं, उनमें एक तरह के एजेम्पशन होते हैं, पहले से बनी-बनायी धारणा होती है और उसी को सवाल के तौर पर रख देते हैं।( बीबीसी एक मुलाकात में संजीव श्रीवास्तव के साथ अनुराग कश्यप की बातचीत, रेडियो वन, १५ फरवरी २००९, १२.४८ बजे)।
संजीव श्रीवास्तव के इस सवाल पर कि आप फिल्म क्रिटिक को किस रुप में लेते हैं, अनुराग कश्यप ने साफ कहा- ये अच्छी बात है कि फिल्म क्रिटिक होनी चाहिए। लेकिन फिल्म क्रिटिक के नाम पर जो हो रहा है, क्या उसे फिल्म क्रिटिक कहा जा सकता है। ये हमारे यहां ही होता है कि फिल्मों को बॉक्स ऑफिस या फिर ऑडिएंस की पसंद के साथ बांध देते हैं। बाहर ऐसा नहीं होता।
अनुराग कश्यप फिल्मी समीक्षा को जिस तरह बॉक्स ऑफिस के साथ बांधने पर( ये मानते हुए कि इस लिहाज से फिल्मों पर बात होनी चाहिए लेकिन सिर्फ यही न हो) आपत्ति जताते हैं, कमोवेश यही हाल मीडिया की आलोचलना के संदर्भ में भी है। हम मीडिया की आलोचना टीआरपी जैसे चालू शब्दों को लेकर करते हैं। हमें पता ही नहीं चल पाता कि हम टीआरीपी जैसे सिस्टम की आलोचना कर रहे हैं या फिर मीडिया की। फर्ज कीजिए अगर टीआरपी जैसा भोकाल मीडिया से चला जाए तो आलोचना का आधार क्या होगा, क्या ये संभव है कि हम टीआरपी के बाहर जाकर भी मीडिया आलोचना के कुछ तर्क विकसित करें। समीक्षा के नाम पर सिर्फ बॉक्स ऑफिस को ध्यान में रखकर की गयी समीक्षा पर्याप्त नहीं है। ऐसे में तो बात सिर्फ मेनस्ट्रीम, फार्मूला बेस्ड और चालू मुहावरे से जड़ी फिल्मों की ही हो पाएगी, बाकी की फिल्मों का तो कोई सेंस ही नहीं रह जाएगा।
दूसरी स्थिति है कि ऑडिएंस के लिहाज से इन फिल्मों की समीक्षा की जाए। ऑडिएंस किसी फिल्म को किस रुप में लेती है या ले रही है। इसमें इस बात की गुंजाइश बढ़ती है कि ऐसी फिल्मों पर भी विचार किया जा सकेगा और किया भी जाता है जो कि बॉक्स ऑफिस के खेल से बाहर है। बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छा नहीं करने पर भी माइल स्टोन के तौर पर जानी जा सकती है। कहीं और न जाकर हम अनुराग कश्यप की फिल्म को ले सकते हैं- सत्या, नो स्मोकिंग, ब्लैक फ्राइडे। इसे आप ऐसे भी कह सकते हैं कि ऑडिएस आधारित समीक्षा का मतलब है सिनेमा के साथ सोशल इफेक्ट को जोड़कर देखना। लेकिन सोशल इफेक्ट इतना लिनियर और सिंगुलर वर्ड है क्या। आप जैसे ही सोशल इफेक्ट पर आते हैं आपको बिना देखे-समझे दर्जनों फिल्मों के प्रति विरोध झेलने पड़ जाते हैं, संस्कृति, परंपरा, नैतिकता औऱ भी न जाने क्या-क्या। यह सब कुछ ऑडिएंस रिएक्शन के नाम पर, सोशल इफेक्ट के नाम पर।.......आखिर मामला क्या है। अनुराग कश्यप के शब्दों को ही लें तो इश्यू को लोग बहुत कन्जर्वेटिव तरीके से लेते हैं। एक ने कहा- यार तुमने देव डी बड़ील गर फिल्म बना दी है। मैंने कहा- उसमें तो कुछ दिखाया भी नहीं। उन्होंने कहा- तुम लड़की को रजाई लेकर खेत भेजते हो, यहां तक तो चलो फिर भी ठीक है लेकिन, ये क्यों कि तुम्हारे बाल बहुत हैं, सबकुछ ध्यान में आने लगता है। अनुराग का कहना है कि ये जो व्लगरिटी है वो किसमें है, कहां है। सप्रेस्ड सेक्सुअलिटी पर जब स्त्रियां बात करने लगे, सोचने लगे तो पुरुषों को भारी परेशानी होने लगती है औऱ खुद मस्ती जैसी फिल्में देखेंगे। दोहरे चरित्र के साथ जीनेवाले होते हैं ऐसे पुरुष।
मामला क्या, अलग-अलग मसलों को लेकर नमूने पेश न भी करें तो एक बात साफ है कि सोशल इश्यू और कल्चर के नाम पर जो बातें की जाती है, चाहे वो सिनेमा के स्तर पर हो या फिर इवेंट के स्तर पर, बात करते वक्त सबों के दामन इतने छोटे कर लिए गए हैं कि जरा-सा कहीं कुछ धुआ नहीं कि हो गया दामन मैला। इस क्रम में यह भी देखना जरुरी नहीं समझा जाता कि जिस ऑडिएंस इफेक्ट की बात कर रहे हैं, वो किस हद तक बदल चुकी है या फिर वो ऑडिएंस औऱ सिटिजन अलग-अलग रुपों में अपनी पसंद-नापसंद रखती है। सिनेमा समीक्षा का एक बड़ा है हिस्सा इसी खांचे में कैद है।
इसलिए फिल्म की नयी समीक्षा पद्धति में सोशल रिएक्शन और इम्पैक्ट से ज्यादा जेनरॉ पर बात किया जाना अनिवार्य समझा जाने लगा है। सिनेमा को इस लिहाज से देखने में टिमॉती सैरी(2002) की किताब जेनरेशन मल्टीप्लेक्सः दि इमेजेज ऑफ इन कॉन्टेम्पररी अमेरिकन सिनेमा नयी समझ देती है। कैसे हम जेनरॉ, सोशल इफेक्ट, सिनेमा और सोशल इश्यू के साथ घालमेल करते हैं और दूसरी तरफ बदलाव की सारी उम्मीद इसी सिनेमा से लगा बैठते हैं।
सफाई- अनुराग कश्यप के बोल गए शब्द कुछ इधर-उधर हो गए हैं, लेकिन भाव वहीं है।
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लो विनीत भइया, बहुत पैसे बर्बाद किए हो अब तक, फ्री में जाकर पिलाना कॉफी अबकि बार। बाबू( अब मेरा दोस्त, जब से मैंने लेख लिखना शुरु किया, लगभग तभी से उसने टाइपिंग औऱ फोटो कॉपी करनी सीखी)। बाबू मुझे कपल कॉफी कूपन पकड़ा रहा था। मैंने बस इतना कहा-बाबू एक ही दो, एक तुम रख लो। उसने कहा,नहीं मेरे पास एक औऱ कपल है। बाबू कपल का मतलब एक या एक साथ समझ रहा था, वो कंपनी की भाषा समझ रहा था जबकि मैं कपल का मतलब दो समझ रहा था। मैंने कहा- नहीं बाबू, एक तो मैं जाउंगा नहीं और दूसरा गया भी तो अकेले, तो एक कूपन तो बर्बाद ही हो जाएगा न। बाबू ने फिर अरे भइया- आप तो ऐसे बात कर रहे हो, कि जैसे नौ जानते हो, छह नहीं जानते। कपल टिकट में आपको अकेले कैसे जाने दे देगा। और फिर तुम अकेले काहे जाओगे, ऐसे दुकान पर हर बार किसी न किसी के साथ आते हो और मौके पर जाना होगा तो अकेले। हद हो आप भी। मैंने फिर कहा- अरे बाबू टाइपिंग कराने तो कोई भी किसी के साथ आ सकती है लेकिन कॉफी पीने और वो भी चौदह को। चलो रखो, अपना कूपन और मुझे चलता करो। बाबू ने कहा- अब काट लो मेरा चुतिया, पूरे पटेल चेस्ट में तुम मेरी ही काट सकते हो। तुम हनुमानजी के आगे जाकर भी कसम खाओगे न कि कोई नहीं है तो वो भी नहीं मानेगा औऱ मान भी गया तो कहेगा- तो पांच साल तक कैंपस में रहकर कटा रहे थे।
कॉफी शब्द जैसे ही मेरे कानों में पड़ते हैं उसके स्वाद से पहले मैं एक पंचलाइन याद करता हूं- ए लॉट कैन हैपेन ओवर ए कॉफी। ए लॉट का मतलब क्या हो सकता है, कुछ भी हो सकता है लेकिन वो नहीं हुआ जिसके बारे में बाबू तकसीद कर रहा था। जल्दी में तो कई बार अधूरे कप को छोड़कर भागना पड़ा, कई बार ऑर्डर कैंसिल करानी पड़ी औऱ कई बार फिर कभी बोलकर मामले को टाल दिया गया। कंपनी ने जिस भरोसे के साथ ये पंचलाइन नत्थी की है, एक समय के बाद हम सबका भरोसा टूटने लगा था।
हम सब एक साथ लेकिन अलग-अलग चैनल में काम करने आए थे। कुछ का मामला पहले से बना हुआ था, सो चैनल में आकर गहरा रहा था। अटकलें और विमर्श के दौरान लोग समझाते कि विनीत तुम्हें इन सबके बीच के मामले को अफेयर से आगे की चीज समझनी चाहिए। अफेयर तो सेंट्रल बैंक से डिमांड ड्राफ्ट बनवाते समय ही हो गया था। ये सारे आइएमसीसी से आगे लोगों की बात करते। कईयों का मामला गहरा रहा था यहां आकर। अपनी सर्किल में ज्यादातर आइएमसीसी के लोग ही थे। कई मौके पर आजमाए हुए, एक-दो बार यूपीएससी की पीटी देकर पिटे हुए। मैं उनसे पूछता- तुम तो आइएमसीसी में थे, कुछ नहीं किया। पीछे से राणा कहता- अरे नहीं,ये वहां बुलेटिन बनाता था औऱ कुछ नहीं करता था। लेकिन तुम बताओ, विद्या भवन में तुम क्या करते रहे और चार साल डीयू में। मैं अपने उपर ही ठहाके लगाता- अरे मेरा तो ज्यादा समय एक लड़की को एंकर बनाने में ही लग गया। फिर चारों तऱफ से ठहाके।
आमतौर पर हुआ ये है कि जब कॉलेज में, इन्स्टीच्यूट में और यहां चैनल के भीतर जिस किसी का मामला नहीं जमा, उसने फटाक से नैतिकता का चोला ओढ़ लिया। तुमको क्या लगता है- वो जो जा रही है, नहीं मान जाएगी। हम ही घास नहीं देते हैं, हम जानते हैं, उसका भूगोल सही होते हुए भी इतिहास बहुत अच्छा नहीं है, एक साल पढ़े हैं बाबू, उसके साथ,खूब लीला-कीर्तन देख लिए हैं। अब कुछ नहीं।
पीछे से मैथिल कहता- मां-बाप यही सब करने भेजा है, तुमको पता नहीं है,यहां कितने बड़े-बड़े तोप आए, आज उसका भी गोयनका एवार्ड के लिए नाम रहता लेकिन वही- लंगोट का कच्चा, गए तेल लेने। मैं तो साफ कहता हूं भाई, मीडिया लैन में लंगोट पर लगाम जरुरी है, नहीं तो तीन में न तेरह में, डोलते रहोगे डेरा में। स्साला एक बार ट्रेनी का लेबल हटा कि दस लाख से कम कौन नगदी देगा रे। मैं कहता मैथिल-गाड़ी लेना तो चैनल की स्टीकर ऑरिजनल लगाना, सब फोटो कॉपी करके चिपकाया रहता है।
एंकर आइटम शब्द हमलोगों के बीच बहुत पॉपुलर था। इस शब्द का प्रयोग हम उन लड़कियों के लिए करते जो आयी तो हमारे साथ ही, पैसे भी उतने ही मिलते थे लेकिन वो प्रोड्यूसर लेबल से नीचे लोगों से बात ही नहीं करती। मुझे सीढ़ियों पर मिल जाती तो गाल छूते हुए कहती- और बच्चे,कभी-कभी हीरो, तेरा एफ-एम पर काम कैसा चल रहा है। वो आगे बढ़ जाती, मैं पुकारता- अरे सुनो तो सवाल किया तो जबाब भी तो सुन लो- बहुत बेकार चल रहा है, कुछ हेल्प कर दो। वो कहती- तुम मेरी काट रहे हो, मैं मान ही नहीं सकती कि अच्छा नहीं चल रहा होगा। अपने सर्किल के लोग कभी-कभी मुझे जात-बिरादरी से बाहर करने की बात करते। कहते-स्साला हट, तू मउगा है, लड़की से हंस-हंस के बतियाता है और हमारे सामने साध बनता है। मैं कहता मैं लड़कियों से कहा बतियाता हूं, वो तो एंकर आइटम है।
अपने सर्किल में दो-तीन लड़कियां भी थी। एंकर आइटम की शिकायत वो भी जमकर करती, वो भी उसके साथ आयी थी लेकिन ऑफ स्क्रीन और मेहनतवाला काम, अनसंग हीरो वाला काम। इन लड़कियों को ग्लैमर में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी या फिर वैसा कभी मौका नहीं मिला, इसलिए बॉस के बारे में वही राय रखती जो कि हम सब गुपचुप तरीके से रखते थे। हममें से ज्यादातर लोग चों-चों करनेवाले कपल को गरियाते। जाकर पूछते- चलोगी लंच करने और हममे से ही कोई लड़की,लड़के के आवाज में कहती- तुम जाओ, एक्स को आने दो, मैं आ जाउंगी।
व्यंग्य से हम सब हंसते और फिर अपने भीतर महान होने के एहसास से भर जाते। जब त मे चारो तरफ इश्क और अफेयर की बयार हो औऱ आप कुछ कर नहीं पा रहे हो तो बिना कुछ किए ही चरित्रवान,महान,मासूम और समझदार महसूस करने लग जाते हो। कभी-कभी निरीह और बेचारा भी।
लेकिन गाली देते हुए भी, एंकर आइटम बोलकर उन सबको सर्किल से बेदखल करते हुए हममें से ज्यादा भीतर ही भीतर इस बात से सहमत थे कि अगर अफेयर-इश्क मीडिया में रहकर नहीं किए तो समझे किसी भी फील्ड में नहीं कर सकते। इसलिए बिना किसी दिखावे और हो-हल्ला के सब अपने-अपने स्तर पर सक्रिय रहते।
हम सब नए थे, चैनल भी रिलांच होना था। इसलिए किसी का काम निर्धारित नहीं था। आज एडिटिंग पर तो कल इन्जस्टिंग पर। जिसको दिन में श को स बोलने पर रिपोर्टिंग में भेजने से मना कर दिया, रात में किसी के न मिलने पर आग लगने पर रिपोर्टिंग के लिए भेज दिया। कभी किसी को दस बजे दिन में बुलाया तो अगले दिन रात के दस बजे। सबकी जिंदगी तंबू बन चुकी थी। जो तीन दिन से लगातार एक समय, एक डेस्क पर आता वो पास काम कर रही लड़की से मिक्स होने की कोशिश करता, बात होने भी लग जाती। हमलोगों के पास सकुचाते हुए आता औऱ कहता- आजभर माफ करना, लंच साथ नहीं कर पाएंगे। कोई कहता- चार साल बाद किसी औरत जात के हाथ का खाना नसीब हुआ है, डकार लेता और हमें जलाता। एक ने कहा- अबे, कुछ लड़कियों को मैंने देखा है कि उपर से एटीट्यूड होता है लेकिन घर का काम भी अच्छा जानती है। बेजोड़ कढ़ी बनाती है। मैं कहता- जैसे कौन। वो कहता- तुम बेटा, पॉलिटिक्स करते हो। हमलोगों ने भी जात-बिरादरी बाहर वाला फंड़ा छोड़ दिया था। सब इस संभावना से लवरेज हो गए थे कि कोई भी बंड़ा या बंड़ी नहीं रह पाते। जिसका काम मुश्किल नजर आता, उसके फेवर में माहौल बनाते, रिवायटल टॉक करते। लेकिन इन सबका, कोई फायदा नहीं होता, हममें से किसी न किसी की शिफ्ट या डेस्क बदल जाती औऱ दो भावी पत्रकारों के सपने उजड़ जाते। अब वो स्क्रीप्ट लेकर अपने पास नहीं आती, उसको फोनो पर लगा दिया गया था, दिखती ही नहीं।
सब शिफ्ट खत्म होने पर बाहर आते। उदास औऱ उत्तेजित होकर। स्साला, भोंसड़ी के, प्रोड्यूसर ने अफेयर तक नहीं होने दिया। पैसा देते हो कम तो दो लेकिन इंसान के मन को तो भी समझो। स्साले सब न्यूज ब्रेक करेंगे। यहां सबकी शिफ्ट बदलकर चैनल को बूचड़खाना बना दिया है सो नहीं। लड़कियों की पेट गाली होती, वो आज का हरामी नहीं है, हमारे यहां गेस्ट क्लास लेने आता था चिरकुट। किसी का सुख इससे बर्दाश्त नहीं होता....ऐसे ही पत्नी से थोड़े ही तलाक हुआ है। आज भी मिलते हैं तो सब कहते हैं, स्साले ने अफेयर होने नहीं दिया। बाबू को कूपन लौटाते हुए मैंने फिर दोहराया- ए लॉट कैन हैपन ओवर ए कॉफी।..
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अभी थोड़ी देर पहले ही बैंग्लूर से सीमा सचदेव ने मेल के साथ, दक्षिण भारत (दैनिक समाचार पत्र) बैंग्लूर संस्करण की कटिंग भेजी है। बधाई देते हुए लिखा है कि कल आपने अपने ब्लॉग पर जो लिखा है-"ब्लॉग के जरिए बन सकती है न्यूज नेटवर्किंग" उसकी चर्चा इस अखबार में है। मैंने सोचा आपको बता दूं। इस मसले पर बातचीत बढ़ाई जाए, इसके पहले सीमा का बहुत-बहुत धन्यवाद।
इस अखबार ने ब्लॉग बाइट्स के तहत मेरी पोस्ट की चर्चा की है जिसमें मैंने आनेवाले समय में ब्लॉग के जरिए न्यूज नेटव्रकिंग खड़ी होने की बात की है। हलॉकि अखबार ने हूबहू मेरी पोस्ट नहीं छापी है,कुछ अपनी तरफ से भी फेरबदल किया है लेकिन दिलचस्प है कि जिस बात को मैं संभावना के तौर पर देख रहा हूं, उसे अखबार ने पुष्टि के तौर पर पेश किया है। अखबार की लाइन है- इस बात का प्रमाण भी काफी मिल रहा है कि मुख्यधारा की मीडिया ब्लॉगरों के पीछे चल रहा है।
ब्लॉग के शुरुआती दौर को याद करें तो ब्लॉगिंग कर रहे लोगों की जब अखबारों और मेनस्ट्रीम की मीडिया ने सुध लेने शुरु की तो इस बात की संभावना बनी कि आने वाले समय में ब्लॉग मेनस्ट्रीम मीडिया की तुरही बनकर रह जाएगा। अखबार में कुछ लोगों को ब्लॉग के उपर बात करने का मौका मिला। चर्चाकार ब्लॉग में चल रहे सामयिक संदर्भों, प्रासंगिकता और पसंद के हिसाब से ब्लॉगों और पोस्टों की चर्चा करने लगे। जिस किसी की पोस्ट छपती वो इसे अपने ब्लॉग पर लगाने लगे ( जैसा कि आज मैं भले ही पहली बार हो, कर रहा हूं)। कई लोगों को ब्लॉग के जरिए पहचान मिली और प्रिंट माध्यम में भी इनकी दखल बढ़ी। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं कि जितनी आसानी से प्रिंट में ब्लॉग कर रहे लोगों को पहचान मिली, संभवतः सीधे एप्रोच करने पर वक्त लग जाता। मैंने महसूस किया कि ब्लॉग को लेकर जो ज्यादा सीरियस हैं, लगातार लिखना चाहते हैं वो धीरे-धीरे प्रिंट माध्यमों की तरफ स्विच करते चले जाएंगे।
दूसरी स्थिति ये बनी कि लोगों ने अपने-अपने ब्लॉग को डॉट कॉम में बदल दिया और उसे उसी रुप में स्थापित करने में जुट गए। यहीं से ये साप होने लगा कि लोग ब्लॉगिंग सिर्फ और सिर्फ अपने अनुभव बांटने के लिए नहीं कर रहे हैं। इसके जरिए वो एक बड़ी उड़ान भरने की तैयारी में हैं। अभिव्यक्ति का नया आकाश, पहचान की एक नयी दुनिया और जाहिर है कुछ हद तक खर्चे पानी के लिए एक वैकल्पिक स्रोत। इन सबके लिए उन्होंने पूरी उर्जा के साथ काम करने शुरु कर दिए। मेनस्ट्रीम की मीडिया को नॉट एनफ बताने लगे और खबरों का विश्लेषण अपने तरीके से करने लगे। कुछ उन खबरों को भी जुटाने लगे जो कि अब तक खबर ही नहीं बन पाते। मीडिया संस्थानों के भीतर जो खबरों की भ्रूण हत्याएं होती रही, उसमें कमी आने लगी। अगर आप खबरों की हत्या औऱ उसके दबाए जाने के मसले पर बात करें तो मीडिया संस्थान भी एक जरुरी स्पॉट होगा। अब मीडिया के भीतर की खबरें तेजी से अंतर्जाल में आने लगे। खबरें बदलने लगी, खबरों का मिजाज बदलने लगा औऱ खबरों की वरीयता बदलने लगी।
एकबारगी तो ऐसा लगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया और ब्लॉग आपस में लड़ पड़ेगे, इन दोनों के बीच जमकर मार-काट होगी। इसकी वजह भी साफ रही। ब्लॉग ने मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़े लोगों के रवैये के प्रति जिस स्तर पर असहमति जतायी, वही ब्लॉगर के कीबोर्ड उनकी आंखों में चुभने लगे। देश और दुनिया के मसले पर साझा-साजा करते लेकिन जैसे ही मामला मीडिया का आता, उदासीन बन जाते।
तीसरी स्थिति ये भी बनी कि मीडिया के भीतर कई विभीषण पैदा हुए। संस्थानों के मेल इधर-उधर भेजने लग गए। उसे पब्लिक डोमेन में लाने की छटपटाहट बढ़ने लगी। इस मामले में उनकी सक्रियता इस हद तक बढ़ी कि पहचान की प्राथमिकता तक बदलती मालूम होने लगी- पहले वो ब्लॉगर हैं, तब पत्रकार। पेशे की शर्तों से मुक्त एक लिक्खाड़। ब्लॉग के भीतर ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसलिए यहां तक तो मामला साफ है कि आनेवाले समय में कुछ संस्थानों के भीतर पत्रकारिता कर रहे पत्रकार इस ब्लॉग के जरिए बननेवाले न्यूज नेटवर्क में खुलकर सामने आएंगे। संभव है इस नए मिजाज की नेटवर्किंग में भुला दिए गए पत्रकारों के तेवर फिर से प्रासंगिक हो उठे।...
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ब्लॉग को भले ही लोग अपनी मासूमियत बिखरेने और मन की बात कहने का माध्यम मानते आए हों लेकिन अब इसमें वैसा कुछ मामला बहुत अधिक रहा नहीं है। अधिकांश ब्लॉगर किसी किसी एजेंडे के तहत ब्लॉगिंग कर रहे हैं। ब्लॉग के भीतर एक नए वर्ग का उदय तेजी से हो रहा है जो पहले के वर्ग से बिल्कुल अलग है। ये वर्ग ब्लॉग के जरिए पत्रकारिता का काम कर रहा है। इसे खराब कहें या फिर अच्छा लेकिन सच बात तो यह है कि यहां तो फिलहाल नहीं अमेरिका जैसे देशों ने इसी वर्ग के दम पर न्यूज नेटवर्किंग खड़ी करने की रणनीति बनाने में जुट गया है। दुनिया की कई ऐसी बड़ी खबरें हैं जिसे कि ब्लॉगर ब्रेकिंग करने लगे हैं। यानि एक तरह से ब्रेकिंग न्यूज के मामले में न्यूज एजेंसी औऱ चैनलों के रिपोर्टर्स पीछे पड़ गए हैं। मीडिया का एक नया रुप है, नेटवर्किंग का नया तरीका है जो कि कन्वेंशनल मीडिया को सीधे-सीधे चुनौती दे रहा है।
हिन्दी मीडिया में जिस तरह से न्यूज चैनलों को टीआरपी के नाम पर जमकर आलोचना करने की परंपरा सी बन गयी है, उसी की तर्ज पर अब ब्लॉग के बारे में लोगों ने कहना शुरु कर दिया है कि- ब्लॉगर अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए कुछ भी पोस्ट करते हैं। थोड़ी देर के लिए इस धारणा से अलग, हीटिंग पाने की बेचैनी को हम न्यू नेटवर्किंग संदर्भ में बात करें तो ऐसा करना मीडिया को एक नई दुनिया में ले जाने जैसा है। मीडिया संस्थानों के अब तक कन्वेंशनल नेटवर्किंग से बिल्कुल एक नयी नेटवर्किंग का उदय है। फर्ज कीजिए कोई भी अखबार या न्यूज एजेंसी देश के एक हजार ब्लॉगरों के बीच अपनी नेटवर्किंग खड़ी करता है। ये एक हजार वो ब्लॉगर हैं जो कि अपने ब्लॉग की हिटिंग के लिए रोज नए मुद्दे लेकर आते हैं, विभिन्न मसलों पर नए तरीके से बात करते हैं, अपने तर्क रखते हैं। पोस्टिंग के दौरान अपनी ओर से जुटायी सामग्रियों का इस्तेमाल करते हैं। स्थानीय घटनाओं को लेकर उनके अपने विजुअल्स होते हैं। ये सारी सामग्री संभव है कि किसी रिपोर्टर द्वारा जुटायी सामग्री से ज्यादा ऑथेंटिक हो। अभी तक ब्लॉग के जरिए पोस्ट की शक्ल में प्रस्तुत खबरों पर गौर करें तो एकाध मामले को छोड़कर कहीं भी ऐसा नहीं हुआ है कि ब्लॉगर ने गलत खबर लिखी हो, खबर के नाम पर मनगढंत बातें की हो। ब्लॉगर जहां की बात कर रहा है, वहां तक पहुंचने में रिपोर्टर को वक्त लगे, तब तक कई चीजें बदल जाए। दूसरा कि मीडिया संस्थानों द्वारा खबरों को प्रस्तुत करने का जो तरीका है वो ब्लॉगिंग करने से ज्यादा पेचीदा है, टाइम टेकिंग है। इसलिए इनपुट के साथ-साथ आउटपुट में भी ब्लॉगर बाजी मार लेगा। स्थानीयता पर जितनी पकड़ एक ब्लॉगर की होगी, शायद रिपोर्टर की हो। एक बड़ी बात ये भी है कि चौबीस घंटे के खबरिया चैनलों के होने के वाबजूद,आए दिन थोक के भावों में अखबारों के संस्करण निकलने के वाबजूद खबरों का एक बड़ा कोना इन सबसे छूट जाता है। ब्लॉगिंग के जरिए इस कोने को छू पाना ज्यादा आसान है। एक बड़ा उदाहरण आपके सामने है। ब्लॉगिंग के पहले मीडिया संस्थानों के अंदर क्या कुछ हो रहा है, ये कितने लोगों तक पहुंच पाती थी। दुनिया की खबर लेने वाले मीडिया की खबर कौन जान पाता था। लेकिन अब देखिए, स्थिति बिल्कुल उलट है। मीडिया द्वारा तय की गयी रणनीति में कि कौन-सी बात खबर होगी, कौन-सी नही, ब्लॉगिंग ने अभिव्यक्ति के स्तर पर सेंधमारी तो शुरु कर ही दी है।

अब ऐसे ब्लॉगरों के जरिए अखबारों या चैनलों के लिए न्यूज नेटवर्किंग खड़ी की जाए तो वो कॉन्वेंशनल नेटवर्किंग से कितना अलग होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।....आगे भी जारी।
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दिल्ली जैसे शहर में सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों की कमी नहीं है। आए दिन इतने कार्यक्रम होते हैं कि लोग उनमें शिरकत करते थक जाएं। कई बार तो इसकी अधिकता को देखते हुए लोगों में अरुचि पैदा हो जाती है, लोगों को जाने का मन नहीं करता है। इसलिए आप देखते हैं कि इंडिया हैबिटेट सेंटर औऱ मंडी हाउस के त्रिवेणी सभागार जैसी जगहों पर कई बार लोगों को बुला-बुलाकर बिठाना पड़ता है। लेकिन सफ़र की ओर से एक सीधा सवाल कि इन गतिविधियों के लिए शहर के कुछ निश्चित जगह ही क्यों? इस तरह के केन्द्र क्यों कि जिन लोगों के बारे में या जिनके मसलों पर बातचीत हो वे ही उसमें शिरकत न कर पाएं? कार्यक्रम के बजाय स्पेस को अधिक महत्त्व दिए जाने का नतीजा है कि कई मर्तबा इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोगों में सामाजिक-सांस्कृतिक रुझान किस तरह का है। आए दिन कार्यक्रम होते रहते हैं और केन्द्र के रुप में घुम-फिर कर ये गिने-चुने स्पेस ही रह जाते हैं।
सफ़र ने इस लिहाज़ से एक नयी पहल शुरु की है। उसने तय किया है कि अब वह साहित्यिक, सांस्कृतिक औऱ दूसरे भी कार्यक्रम ज़्यादा से ज़्यादा उन जगहों पर आयोजित करेगा जहां कि संभव हो इसकी अभिरुचि के लोग हों लेकिन वहां कभी किसी ने इस तरह के कार्यक्रम करने की पहल न की हो, इस उत्साह से कोई आगे नहीं आया हो कि यहां भी गतिविधियां और कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।
सफ़र की इस समझ को अर्चना वर्मा ने और अधिक साफ़ करते हुए कहा कि- ऐसा करना सिर्फ़ ट्रेवलिंग के तौर पर करना नहीं होगा कि उन्हीं लोगों को बोलने और सुनने के लिए बुलाया जाए जो शहर में स्थापित अन्य केन्द्रों में आते-जाते रहते हैं। इस तरह के कार्यक्रम का एक उद्देश्य ये भी हो कि जिस कस्बे में, जिस इलाके़ में, जिस गांव या मोहल्ले में कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा हो, वहां के लोग भी इससे जुड़ें। उनलोगों को भी लगे कि ये कार्यक्रम उनके लिए किए जा रहे हैं। मतलब ये कि अब तक साहित्यिकता, बौद्धिकता और परिचर्चा के नाम पर जो हलचलें शहर के गिने-चुने जगहों पर होती रही हैं, जिसका बाकी इलाक़ों में कोई असर नहीं है, लोगों का इससे किसी भी स्तर पर जुड़ाव नहीं है; इस कमी को सफ़र की इस पहल के ज़रिए दूर करने में सहूलियत होगी।
साहित्य, संस्कृति, समाज और बदलाव के सवालों और परिचर्चा में कस्बाई जीवन को भी शामिल करते हुए सफ़र ने ‘आमने-सामने’ नामक कार्यक्रम की एक श्रृंखला शुरू की है जिसमें साहित्य, समाज, मीडिया, संस्कृति, कला, क़ानून और भी कई दूसरे क्षेत्रों से जुड़े लोगों को परिचर्चा के लिए आमंत्रित किया जाएगा जिसका केन्द्र शहर में स्थापित केन्द्रों के बजाय दूर-दराज़ का कोई गांव, कस्बा, मोहल्ला या इलाक़ा होगा। फ़र्ज़ सिर्फ़ इतना है कि शहर में बैठकर जब हाशिए पर के लोगों की बात की जाती है तो इस बात को अकसर नजरअंदाज़ कर दिया जाता है कि हम महज़ कुछ लोगों को ही नहीं पूरे का पूरा इलाक़ा नजरअंदाज कर देते हैं। कोई भी साहित्यिक-सांसकृतिक संस्था साल भर में एक भी ऐसा कार्यक्रम नहीं कराती है जिससे कि ये हाशिए पर जा चुका इलाक़ा कभी केन्द्र की तरफ़ बढ़ने की कोशिश कर सके।

सफ़र ने अपनी इस पहलआमने-सामनेमें सबसे पहले आमंत्रित किया हिन्दी के मशहूर कथाकार, अपने कथ्य को लेकर बराबर चर्चित और विवादास्पद रहे राजेन्द्र यादव को। राजेन्द्र यादव ने सफ़र की इस पहल को किस हद तक सराहा इसका अंदाज़ा आपको इस बात से लग जाएगा कि दो-तीन लघु कथाओं का पाठ करने की बात करके आए राजेन्द्र यादव ने अपनी नौ लघु कथाएं पढीं. अर्चना वर्मा की इस बात पर असहमति जताते हुए कि वो कविता के दुश्मन नहीं हैं, उन्होंतने दो कविताएं भी पढ़ीं। घंटे-डेढ़ घंटे छात्रों, रिसर्चरों और मीडियाकर्मियों के सवालों का जबाब देते रहे और चुटकी लेते रहे। इतना ही नहीं राजेन्द्र यादव ने सफ़र के इस पहल को सिर्फ़ वज़ीराबाद गांव तक सीमित न रखने के बजाय दिल्ली के एक-दो उन ठिकानों के बारे में भी बताया जहां बिना किसी तामझाम के 30-40 लोग इकट्ठा हो सकते हैं और ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है।
बिना किसी औपचारिकता में फंसे वज़ीराबाद गांव का एक बड़ा-सा कमरा जो कि सफ़र के कार्यालय के तौर पर इस्तेमाल होता है, धीरे-धीरे भरने लग गया। राजेन्द्र यादव कहानियां पढ़ते जाते, उस पर चर्चा होती जाती। जिसको जिस बात से असहमति होती, वहीं से शुरु हो जाते, कहीं कोई रोक-टोक नहीं। किसी बात के लिए अतिरिक्त अनुशासन नहीं। इस तरह के जड़ औऱ अप्रासंगिक हो चुके अनुशासनों का टूटना कुछ इसी तरह से था जिस तरह से यादवजी लक्ष्मण रेखा, मेरी पहला झूठ, दो दिवंगत, कहानी जो खत्म नहीं होती, मोस्ट वेलकम सर जैसी लघु कथाओं में कथ्य का ढांचा टूटता है। एक नया अनुभव, उसके बने रहने की अनिवार्यता और लगातार एहसास में बने रहने की ख़वाहिश। वाकई सफ़र के कार्यक्रम में राजेन्द्र यादव का आना और युवाओं के सवालों से गुत्था-गुत्थी करते हुए अपनी बात कहना ये साबित कर गया कि बातचीत के लिए कि साज़ोसामान और फ़र्नीचरों से लदे-फदे सभागार ज़रुरी नहीं होते ...
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अभी-अभी तस्लीमा नसरीन से मिलकर आ रहा हूं, उसकी बातों में हां में हां मिलाकर आ रहा हूं, इससे तीन घंटे पहले राजेन्द्र यादव से लघु कथा सुनकर आ रहा हूं। उन पर अर्चना वर्मा की टिप्पणी सुनकर आ रहा हूं। उससे भी तीन घंटे पहले चोखेरबाली की वर्षगांठ के मौके पर अनामिका को सुनकर आ रहा हूं। चोखेरबाली के बनाए जाने के पीछे आर.अनुराधा के तर्कों को सुनकर आ रहा हूं। नीलिमा चौहान से ब्लॉग पर पितृसत्ता के कब्जे की बात सुनकर आ रहा हूं। मधु किश्कर की झन्नाटेदार भाषा में स्त्री-विमर्थ के तर्कों को सुनकर आ रहा हूं। ब्लॉग का पक्ष लेते हुए सुकृता पाल कुमार को सुनकर आ रहा हूं। पिछले आठ-दस घंटों में आठ स्त्रियों को सुनकर आ रहा हूं। कई बातों से असहमति है, नए सिरे से बहस करना चाहता हूं, इन सब पर लेकिन बहुत थका हूं, कुछ सोचना नहीं चाहता अभी। सोना चाहता हूं फिलहाल। लेकिन इन सारी की बातें दिमाग में चक्कर काट रही है, सोने में परेशानी पैदा कर रही है।
बातचीत में तसलीमी नसरीन ने कहा कि मैं होमलेस हूं,मेरा कहीं कोई घर नहीं है। राकेश सर से पूछा-आप दिल्ली में रहते हो( अंग्रेजी में पूछा), राकेश सर ने कहा-हां। फिर सवाल किया- आप दिल्ली में रहना चाहती हैं। तसलीमा का जबाब था- रहना तो चाहती हूं लेकिन रह नहीं सकती। मैं बस यही सोच रहा हूं, कोई लिखकर सरकार और देश की किरकिरी नहीं पत्थर बन जाता है कि उसका अपना कोई घर ही नहीं रह जाता।
2, अनामिका की बात याद आती है- आज स्त्रियां जो बिना दीवारों के घर बनाने का सपना देख रही है, वो स्त्री-भाषा से ही संभव है, एक ऐसी भाषा जो कॉन्टेक्ट्सलेस होकर भी एक-दूसरे से जोड़ती है। मर्द ने अभी वो भाषा सीखी ही नहीं है।
3, तो फिर मधु किश्कर की बात याद आ रही है- स्त्री-विमर्श को जनाना डब्बा नहीं बनने देना चाहिए, इससे स्त्री खुद को ही मार्जिनलाइज करेगी। स्त्री की कोई भी समस्या पुरुष से बाहर की नहीं है, इसलिए उसे साथ लेना अनिवार्य है।
4,नीलिमा ने तो जो बात कही, उस पर भोर में उठकर फिर से विचार करुंगा, कि क्या सचमुच बाकी स्पेस की तरह ही ब्लॉग पर भी पितृसत्ता का वर्चस्व है।
5, आर.अनुराधा का चोखेरबाली के उपर दिया गया पावर प्वाइंट प्रजेन्टेशन याद आ रहा है जहां स्त्री-पुरुष के हिसाब से ब्लू ब्लॉगिंग और पिंक ब्लॉगिंग का विभाजन बताया।
6, सुकृता पाल कुमार की बात पर सोच रहा हूं कि क्या ब्लॉगिंग ने सचमुच एक डिमोक्रेटिक स्पेस तैयार किया है, स्त्रियों के लिए एक ज्यादा मजबूत माध्यम उभरकर सामने आया है।
7, अर्चना वर्मा राजेनद्र यादव की कहानी लक्ष्मण-रेखा का संदर्भ देते हुए कह रही हैं- अब कोई सीता से ये कहलवा दे कि मैं तुम्हें कभी माफ नहीं करुंगी,साधु कि तुमने मुझे इस सुख से इतने दिनों तक वंचित क्यों रखा तो गाली तो पड़ेगी ही।

एक ही दिन में तीन अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग मसलों पर इन स्त्रियों की बात। सब जगह पुरुष या तो चुप है या फिर बस संदर्भ पैदा करने भर के लिए है। स्त्रियां ही बोले जा रही है एक-दूसरे की बात को काटते हुए। स्त्री-विमर्श करते हुए भी पुरुषों के प्रति सॉफ्ट होते हुए. पुरुष चुप है, इतनी देर चुप कैसे रह सकता है पुरुष भला। बाकी सवालों के साथ-साथ इस सवाल पर भी नए सिरे से विचार करना चाहता हूं। लेकिन फिलहाल नींद बहुत आ रही है।
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उस दिन राजेन्द्र यादव ने जोर से ठहाके मारते हुए कहा- ये लीजिए, कॉलेज में आते ही इन्होंने मुझे डॉक्टरेट की डिग्री भी दे दी औऱ डॉक्टर भी बना दिया। अरे भईया, मैं डॉक्टर-वॉक्टर नहीं हूं। कहां हूं मैं डॉक्टर, बताओ। मैं आज से पांच साल पहले हिन्दू कॉलेज के सेमिनार रुम में राजेन्द्र यादव का परिचय दे रहा था और इसी क्रम में मैंने डॉक्टर राजेन्द्र यादव बोल दिया। हिन्दी पढ़ने और पढ़ानेवालों से खचाखच भरा था ये सेमिनार रुम। थोड़ी देर के लिए लोगों को समझ ही नहीं आया कि परिचय देने के क्रम में ऐसा क्या हो गया कि यादवजी पीएचडी और डॉक्टरेट की बात लेकर बैठ गए। बाद में मैंने माफी मांगते हुए कहा-सर मुझे पता नहीं था, गलती से आपको डॉ. बोल गया। बाद में जब टीचर ने कहा- तुमने मंच संचालन तो बहुत अच्छा किया विनीत लेकिन इतना तो पता रखना चाहिए न कि कौन-सा साहित्यकार क्या किया है।
कभी साहित्य के परिवेश में रहा नहीं। कॉलेज में रहते भी स्कूल की तरह का अनुशासन। उन्हीं सब साहित्यकारों को पढ़ा जो कि सिलेबस में मौजूद रहे। एम ए में आने पर एक रणनीति के तहत छुट्टियों में उपन्यास पढ़ना शुरु किया। इसी क्रम में राजेन्द्र यादव को भी पढ़ा। अब कभी परीक्षा के लिहाज से पढ़ा नहीं था, सो बाकी चीजें जान न सका। लेकिन हां, ये जानकारी की कमी तो थी। फिर मेरे लिए ये मान लेना कि जो आदमी हिन्दी में एम ए किया है वो पीएचडी भी किया होगा, बिना इसके कोई भविष्य नहीं। औऱ राजेन्द्र यादवजी इतने बड़े साहित्यकार। लेकिन बाद में इस बात से जब यादवजी ने असहमति जतायी, तब मुझे एहसास हुआ कि जो आदमी जिंदगी भर विश्वविद्य़ालय की राजनीति से दूर रहा,उसकी पूरी प्रक्रिया से अपने को दूर रखा,चाहते तो वो सब कुछ कर सकते थे, पा सकते थे, जिसके लिए औसत दर्जे के हिन्दी प्राणी के कंधे की चमड़ी छिल जाती है,यादवजी के लिए डॉ शब्द सचमुच अपमानजनक है। ये तो उन्हें चोट पहुंचानेवाली बात है। मैं मन ही मन सोचने लगा-कितना बुरा लगा होगा,उन्हें। बाद में सारा आकाश औऱ दूसरी रचनाओं की कुछ पंक्तियां पढ़कर भरपाई करने की कोशिश की।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद सब लोग लॉन पहुचे। सब उनसे कुछ न कुछ लिखवाना चाहते थे। हम जैसे लोगों को पहले से पता था कि आज राजेन्द्र यादव आ रहे हैं तो उनकी रचना ले पहुंचे थे। मेरे पास मुड़-मुड़के देखता हूं की नयी प्रति थी। मैंने कहा-कुछ लिख दीजिए सर, यादवजी सिर्फ साइन कर रहे थे। वही साइन जो हंस के संपादकीय में किया करते हैं, अलग से एक शब्द भी नहीं। इसके पहले भी मैंने कई नामचीन साहित्यकारों से उनकी रचनाओं पर साइन लिए हैं, वो हमारा नाम पूछते और फिर लिख देते- प्रिय विनीत को सप्रेम भेंट। बाद में दोस्तों के बीच अकड़ दिखाने के लिए कहता- फलां साहित्यकार ने हमें भेट की है ये किताब, कहा है पढ़कर बताना। उस समय हम ये भूल जाते कि पहली बार ससुराल से मायके आयी सुलेखा दीदी से कहा था- कुछ नहीं तुम इस लिस्ट में से कोई भी पांच किताब दिला दो. हम भूल जाते कि रांची के गुदड़ी बाजार से तवरेज भाई से हुज्जत करके इसे कैसे खरीदा है। हम भूल जाते कि दरियागंज में इस किताब को लेकर जेएनयूवाले दोस्तों से कैसे मार कर लिए थे।
कुछ लोगों को पता नहीं था कि आज यादवजी आ रहे हैं, बाद में पता चलने पर वो सीधे संदेश रासक की क्लास करके यहां पहुंचे थे। साइन लेने के लिए उनके पास या तो संदेश रासक थी या फिर नोटबुक। लड़कियों ने उसी पर यादवजी से साइन लेने शुरु कर दिए। इसी बीच एक लड़का आपका बंटी ले आया और कहा- सर, इस पर कुछ लिख दीजिए। यादवजी ने कहा- ये तो मेरी रचना नहीं है, इस पर कैसे कुछ लिख दूं। वो जिद करने लगा, और नहीं करने पर अंत में कहा- आपका मन्नू भंडारी से लड़ाय हो गया है इसलिए नहीं लिख रहे हैं। यादवजी मुस्कराए,केएमसी के लोगों ने कहा- हिन्दू कॉलेज में भी चिरकुट लोगों की कमी नहीं है।
कल शाम जब मैंने राकेश सर के कहने पर बाकी लोगों को भी आज के राजेन्द्र यादवजी के कार्यक्रम में आने कहा तो एक बंदे का जबाब था- देखिएगा, कल फिर सब गरिआएगा यादवजी। हमको तो यही समझ में नहीं आता है कि यादवजी को गाली का असर काहे नहीं होता है। हम तो रहते तो कहीं नहीं जाते. लबादा ओढ़कर बोलनेवाले लोगों के बीच जिसके मन के भीतर कुछ कुलबुला रहा है और जुबान से महाशय, श्रीमान और बेटा का संबोधन किए जा रहा है, वहां यादवजी का खर्रा-खर्रा बोल देना तो खटकेगा ही न भाय। मैं बस इतना कह पाया कि, कोई तुमको क्यों गाली दे,गाली पाने के लिए उस लायक बनना होता है।
पांच साल पहले राजेन्द्र यादव की साइन की हुई रचना- मुड़-मुड़के देखता हूं। कुछ पंक्तियां हरे रंग से रंगी है। उसे एक नजर में पढ़ना चाह रहा हूं। यादवजी की एक लाइन जिसे पढ़कर लगता है कि किसी भी बात में फंसने के पहले ही उन्होंने अग्रिम जमानत ले रखी है-
कोई जरुरी नहीं है कि मंच पर जो कहें,वही करें भी....कलाकार औऱ व्यक्ति आपस में विरोधी भी हो सकते हैं....इलियट ने कहा ही है कि लेखन अपने व्यक्तित्व से पलायन का दूसरा नाम है-शायद विरोध का भी।( मुड़-मुड़के देखता हूं-पेज नं 39)
या फिर जीवन का हर पल सलाखों के पीछे चले जाने के आभास से एक विदाई-
मुझे हमेशा लगता है कि मेरा हर सम्पर्क,हर पल एक नई विदाई है....मेरी हर रचना एक ऐसी बच्ची है, जो टा-टा कहकर स्कूल बस में जा चढ़ती है,और जब आती है तो'वह' नहीं रह जाती....मिलना शायद गति है, औऱ विदाई नियति।
यादवजी को पता है कि नियति पर किसका-कितना भरोसा है, लेकिन गति तो अपने हाथ की चीज है, संभवतः इसलिए बार-बार इसे साबित करने की एक होड़ इनके भीतर बनी रहती है।
( सफ़र द्वारा आयोजित कार्यक्रम आमने-सामने की श्रृखंला में आज पाठकों के आमने-सामने होगें, राजेन्द्र यादव।)
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खबरी अड्डा जैसा अनामी होकर कोई भी हो-हल्ला मचा सकता है इस पोस्ट को लिखने की वजह बताता कि इसके पहले ही खबरी अड्डा सॉरी संजय कुमार सिंह ने मेरी टिप्पणी प्रकाशित कर वजह स्थापित करने की कोशिश की। वो टिप्पणी क्या थी, इसकी चर्चा बाद में पहले संजय कुमार सिंह की उस दलील पर गौर करें जिसमें उन्होंने टिप्पणी प्रकाशित नहीं करने की वजह बतायी है। उन्होंने लिखा-
सोमवार की सुबह हमें एक ब्लॉगर विनीत कुमार की टिप्पणी मिली थी। विनीत कुमार की यह टिप्पणी ब्लॉग पर हमनें यह सोचकर नहीं डाली थी,कि इनकी आशंकाएं कभी फोन पर बातचीत करके दूर कर दूंगा। लेकिन उससे पहले विनीत कुमार ने अपने ब्लॉग पर खबरी अड्डा के पीछे अनाम ताकतों का आरोप लगाते हुए एक लेख लिख मारा है।
खबरी अड्डा जिसे कि अब संजय कुमार सिंह नाम से ही संबोधित करना सही होगा क्योंकि ये सुविधा उन्होंने आज ही मुहैया कराया है,मुझे कब फोन करते, इसका न तो मैं उनसे कोई हिसाब मांग रहा हूं और न ही उन्होंने कोई तारीख या समय इसके लिए तय कर रखी होगी। हमें इस बात पर हंसी आ रही है और अफसोस भी हो रहा है कि किसी की टिप्पणी को इग्नोर करने का उन्होंने कितनी लचर तर्क जुटायी है। वो ब्लॉगिंग को मोहल्ले की चीज समझ रहे हैं कि एक रुपये का सिक्का डाला और टिप्पणी को लेकर जो भी विचार हैं, बता दिए। उन्हें ये तर्क शायद इसलिए पसंद आया होगा कि पूरे मामले को वो दिल्ली-दिल्ली यानि लोकल तक ही देख रहे हैं। मेरे ब्लॉग पर भी यहीं का नंबर है। मेरा सवाल सिर्फ इतना भर है कि क्या ब्लॉग के मसले को फोन तक ले जाना सही है। जिस माध्यम में बात हो रही है, उससे कूदकर किसी दूसरे माध्यम पर स्विच कर जाना सही है। फर्ज कीजिए अगर ब्लॉगर लोकल कॉल से न निबटे तो फिर क्या आइएसडी से जबाब देने का इरादा हो सकता है। दूसरा कि जिन भाईयों का नंबर मेरी तरह आसानी से नहीं मिल पाए, उन्हें इग्नोर करने के कौन से तर्क जुटाए जा सकते हैं। कोई जरुरी नहीं है कि ब्लॉगर किसी की टिप्पणी को छापे ही छापे,संभव है बहुत सारे ब्लॉगर पार्सियल डेमोक्रेट होना चाहते हों जो कि पोस्ट के जरिए कुछ भी कहने के अभ्यस्त हों जबकि उसके उपर आयी प्रतिक्रिया को सार्वजनिक होने देने से बचना जाते हों। अपने विपक्ष में या फिर टिप्पणीकार के पक्ष में आधार तैयार होने नहीं देना चाहते हों। इसमें नाराज होने की कोई बात ही नहीं है। खैर...
अब बात करें पोस्ट लिखने की वजह पर। कुछ भी कहने से पहले ये साफ कर दूं कि संजय कुमार सिंह ने अपनी तरफ से जो भी वजह निकाली है उससे अलग कुछ वजह और भी है। अपनी एक पोस्ट एनडीटीवी को जबाब-बड़ी लकीर खींचकर दूसरे को छोटा करो पोस्ट के अंत में एक नोट लिखा- एनडीटीवी की स्पेशल रिपोर्ट में टीवी न्यूज चैनलों को निशाने पर लिए जाने के बाद कई चैनलों में खलबली मची है,हम इस विषय पर टीवी पत्रकारों की राय-लेख आमंत्रित करते हैं। साथ में अपनी तस्वीर भी भेज दें। बहुत से अनाम-गुमनाम लोग कमेंट कर रहे हैं, इस मुद्दे। ऐसे ज्यादातर लोग गाली-गलौज की भाषा का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते हैं। ऐसे लोगों से अनुरोध है कि अपना वक्त बर्बाद न करें।
मुझे इस बात से असहमति रही कि जो ब्लॉगर खुद अपनी तस्वीर पोस्ट नहीं लगाता, नाम तक नहीं प्रकाशित करता वो किस अधिकार से दूसरे पत्रकारों से फोटो भेजने की बात कर रहा है, क्या ऐसा कहने का उनके पास नैतिक आधार है। संजय कुमार सिंह ने अपने आज की पोस्ट में खुद भी लिखा कि- रोज पोस्ट पर अपना नाम औऱ फोटा डालकर खुद को चैंपियन बनाना अपना मकसद नहीं रहा। अब कोई इनसे सवाल करे कि बाकी के जो लोग भी अपनी पहचान औऱ तस्वीर डालकर पोस्टिंग कर रहे हैं, वो क्या चैंपियन बनने की फिराक में हैं। जिस तरह की खबरें खबरी अड्डा प्रकाशित करता रहा है, मैं समझ सकता हूं कि अगर उसका नाम सार्वजनिक हो जाए तो भारी फजीहत हो सकती है। उन्होंने लिखा है कि उन्होंने दिवाली के दिन वाली पोस्ट में अपना नाम डाल रखा है। लेकिन ये तो उनके लिए है न जो शुरुआती दौर से ही इस ब्लॉग को पढ़ते आ रहे हैं। हालिया पढ़नेवाले के लिए खबरी अड्डा अनामी ही है, नहीं तो चर्चा के क्रम में दर्जनों पत्रकार दोस्त क्यों पूछते कि ये खबरी अड्डा कौन है। संजय कुमार सिंह अपनी पहचान स्वाभाविक तरीके से प्रकाशित न करके जिस सुरक्षा कवच में रहकर पोस्टिंग करते आए हैं, मैं वाकई उनकी कद्र करता हूं। नियमित पोस्ट पढ़ते हुए कभी भी उनके बार में जानने की बेचैनी नहीं रही लेकिन अपनी इस नीति के आगे वाकियों के उपर फिकरे कसने के अंदाज में अपनी बात कहना, किसी भी लिहाज से मुझे उचित नहीं लगा। मुझे नहीं पता कि टेलीविजन के बाकी पत्रकारों के साथ इनकी पहचान किस हद तक है कि वो फोटो भी भेजते हैं। लेकिन एक आम पाठक के लिहाज से सोचिए तो किसी को भी अटपटा लगेगा कि एक तो खुद को सेफ जोन में रखना चाह रहा है और बाकियों के लिए पहचान की बात कर रहा है।

अनामी कमेंट करनेवालों का मैं शुरु से विरोधी रहा हूं, सचमुच ज्यादातर लोग गालियों का प्रयोग करने के लिए अनामी हो जाते हैं। लेकिन इन अनामियों में कुछ ऐसे भी हैं जो नए-नए बलॉग की दुनिया में आते हैं,पांच-दस को मैंने खुद नाम के साथ कमेंट करना बताया है। लेकिन कोई गाली लिख रहा है तो लिखने दें,कौन कहता है कि आप अविनाश बन जाएं और उसे भी छाप दें। आप जब नाम औऱ पूरे प्रोफाइल वालों की टिप्पणी नहीं छापने का हौसला रखते हैं तो फिर इन अनामियों से पस्त क्यों जाते हैं। वक्त बर्बाद कर रहे हैं तो करने दें, व्यंग्यात्मक लहजे में बात करने की क्या जरुरत पड़ गयी। ब्लॉगिंग संपादन कला-कौशल औऱ पेंचों से मुक्त माध्यम है, इसमें संपादक की हैसियत से बात करने पर लोग भड़क जाते हैं। आप बेहतर जानते हैं कि जो भी आपके ब्लॉग पर आता है, एक लगाव के साथ आता है। इस नीयत से शायद ही कोई ब्लॉग पर घूमता है कि दो-चार पोस्ट पर गाली देकर मन हल्का किया जाय। मैं गाली लिखनेवालों की कोई तरफदारी नहीं कर रहा बल्कि उस सामंती सोच पर अफसोस जाहिक कर रहा हूं जो निर्देश देने की संस्कृति को मजबूत करते हैं।
कुछ कमेंट करनेवालों और फुटपाथ जैसे ब्लॉगर ने लिखा कि- ये सब बस हिटिंग बढ़ाने के लिए किया गया प्रयास है। आप अपनी इस समझ को औऱ मजबूत कीजिए, फीक्स डिपोजिट करके औऱ बढ़ने दीजिए, हमें कोई आपत्ति नही है। लेकिन जिस तरह से मीडिया को कोसनेवालों का सिर्फ एक ही आधार है कि टीआरपी के लिए करते हैं, टीआरपी के लिए करते हैं, ब्लॉगिंग की दुनिया में ऐसे कोई भी चालू मुहावरे इस्तेमाल करने के बजाय पोस्ट के पीछे विमर्श को पनपने दें््। हिटिंग किसे नहीं चाहिए, कमेंट से लदे ब्लॉग किसे नहीं पसंद हैं, लेकिन इसका क्या मतलब है कि हर बात को, हर पोस्ट को हिटिंग के मुहावरे के तहत बात करके चलता कर दिया जाए। मैं गंभीर होने का दावा नहीं करता लेकिन आपकी गंभीरता जब छिटकने लगती है तो मुझे आपकी पूंजी लुटते हुए देखकर अफसोस होता।
एक ने हम जैसे गंदे बच्चे के अच्छे बच्चे में कन्वर्ट होने की कामना की है। हमने कभी भी अच्छा कहलाने की मुराद से ब्लॉगिंग करना शुरु नहीं किया, ये कॉन्फेशन बॉक्स है,झूठ-सच, समझी-नासमझी,खेल-तेल जो है सब इसमें डालो,यहां नहीं तो फिर कहीं नहीं। सोते हुए जब बड़बड़ाकर फिर भी बोल देगें लेकिन सुन तो नहीं सकते न। हमें नहीं बनना गुड ब्ऑय।

एक ने कहा-पहचान का मारा है, सबको गरियाता रहता है। उनकी समझ उनके पास, भविष्य में कभीं जजी का काम न करें, बस यही कामना है, और क्या कहूं।
कुल मिलाकर जिसे संजय कुमार सिंह जिसे मेरी मंशा कह रहे हैं वो कुछ इस रुप में पूरी हुई है कि शुरुआती दौर से ब्लॉगिंग करनेवाले भी जिस खबरी अड्डा के संचालक को नहीं जान पा रहे थे, अब जान गए हैं,इस आश्चर्य के साथ खुश हैं कि कोई ब्लॉगिंग करते हुए संतई का काम कैसे कर सकता है। मैं भी खुश हूं कि अब वो हमारे सामने एक अच्छे ब्लॉग को अनामी न कहकर उसके संचालक का नाम ले रहे हैं। अब कोई कहे कि ब्लॉग अड्डा अनामी ब्लॉग है तो देखिए कैसे मुंह नोच लेते हैं।...समाप्त
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आपको क्या लगता है,लोगों के पास सुलगाने के लिए,चर्चा में बने रहने के लिए,उठा-पटक मचाने के लिए मुद्दों की कोई कमी है। अकेले मीडिया हाउस ही नहीं है जहां पद को लेकर, पैसे को लेकर, जाति को लेकर और राजनीति को लेकर खेल होते रहते हैं. देश में ऐसे हजारों प्रोफेशन,हजारों क्या जितने भी प्रोफेशन हैं, सबके भीतर खेल चलते रहते हैं। हर कोई किसी न किसी का गला दबाने के लिए तैयार है,दबोचने के लिए तैनात है और मौका मिलते ही पिल पड़ने के लिए उतारु है। अकेले मीडिया नहीं है जहां कि छंटनी होने पर लोगों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ रहा है,काम करनेवाले लोगों के साथ ज्यादती हो रही है,लोग असंतुष्ट हैं। ये हाल लगभग पूरे देश में है। हर आदमी अपने से नीचेवाले को कुचलने की कवायद में जुटा है।
आपको क्या लगता है कि ब्लॉग की दुनिया में केवल वो ही लोग शामिल हैं जिन्हें या तो मीडिया की गतिविधियों में सबसे ज्यादा रुचि है या फिर मीडिया से सीधे-सीधे जुड़े हैं। शायद ही ऐसा कोई पेशा बचा हो(जिस पेशे में रहते हुए लिखने-पढ़ने की गुंजाइश हो)जहां के लोग ब्लॉगिंग नहीं करते हों। अब इस हिसाब से सोचिए तो कि अगर सारे ब्लॉगर अपने-अपने पेशे से जुड़ी खबरों को,अंदुरुनी बातों को ब्रेकिंग न्यूज के तौर पर या खबरी अड्डा के तौर पर पेश करने लग जाएं तो कितनी बड़ी क्रांति आ जाएगी। सब अपने-अपने पेशे के सिस्टम की बखिया उधेड़ने लग जाएं तो सुराज आते कितने दिन लगेंगे। लेकिन नहीं, आप ये मत कहिए कि सारे ब्लॉगर बखिया नहीं उधेड़ना नहीं चाहते, वो चाहते हैं कि सिस्टम की पोल-पट्टी खोल दें लेकिन वो खबरी अड्डा नहीं होना चाहते।
खबरी अड़्डा सहित दूसरे तमाम ब्लॉग के संचालकों को पता है कि सच बोलने की क्या सजा हो सकती है, कितनी फजीहत हो सकती है, घर उजड़ सकता है, रोजी-रोटी छिन सकती है। फ्लैट के लोन चुकाने में परेशानी हो सकती है, पार्किंग में गाड़ी रहते स के धक्के खाने पड़ सकते हैं, इसलिए बाकी लोग व्यावहारिक बन जाते हैं। बनना भी चाहिए,जज्बाती होकर किसी के विरोध में लिखने से बेहतर है और वो भी तब जबकि पता हो कुछ खास फर्क पड़ने वाला नहीं है( मुझे ऐसा मानने में अभी तक संदेह है, तब बेकार में हु्ज्जत मोल लेने से कोई फायदा नहीं है। ब्लॉगर वही लिखे, जो स्वांतः सुखाय होने के साथ-साथ दूसरों के कलेजे को भी राहत दे,थर्ड पर्सन में बातें करे, विरोध भी करे तो बड़ी-बड़ी चीजों का, बड़े-बड़े लोगों का जो कि अक्सर नजरअंदाज कर जाए, आस-पास की चीजों का विरोध करना रिस्की हो सरता है। ऐसा सॉफ्ट लिखे कि कुछ कमेंट भी आ जाए, न उधो से लेना, न माधो को देना वाली शैली में।

लेकिन मन तो मन है। उसका मन कभी शिकायत करने का होता है, दूसरों को गरियाने का होता है, सुबह अगर किसी को पायजामा पहनाने का मन करता है तो शाम होते ही उसका नाड़ा खीचने का मन करता है। कभी मन करता है कि जहां काम कर रहे हैं, वहीं के लोगों को दमभर गरिआए, दमभर कोसें, जिस संस्थान में काम कर रहे हैं उसे ही भ्रष्ट साबित करें। भड़ासियों की तो अक्सर सलाह भी रही है कि मन में कुछ है तो उगल दीजिए, मन हल्का हो जाएगा। मन तो हल्का हो जाएगा लेकिन उगलते किसी ने देख लिया तो। लोक-लाज की चिंता तो लोगों को अक्सर सताती है। अब किया जाए तो क्या किया जाए। बंद कमरे में माथा नोचा जाए, मन मसोस कर छोड़ दिया जाए या फिर भीतर ही भीतर कुंठित होते रहे। असल जिंदगी में इंसान क्या करे, बहुत मुश्किल है ये सब तय कर पाना। लेकिन

अंतर्जाल का यही तो मजा है जो मन में आए लिख दो, जिस पोस्ट पर मन करे, कुछ भी कमेंट ठेल दो। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे सरकारी ऑफिसों की सीढियों से गुजरते हुए जहां मन करता है वहां मनचला थूक जाता है। वहां तो फिर खतरा है कि जहां किसी ने कभी पकड़ लिया तो कुछ नहीं तो कम से कम तमाशा तो हो ही जाएगा. लेकिन यहां उसकी भी झंझट नहीं। अनामी होकर सब लीला करो, अक्खड़ टिप्पणीबाज बनो, जहां मन करे वहां टिप्पणी करके अपनी भड़ास निकालो। औऱ जब टिप्पणी से मन न भरे तो खबरी अड्ड़ा बन जाओ। प्रोफाइल में कुछ भी सही-सही मूर्त लिखने के बजाय, निरगुनिया बन जाओ। कोई जानने के लिए क्लिक करे कि आप कौन हैं, क्या करते हैं तो निरगुनिया बनकर जबाब दो, जहां-जहां खबर हैं, वहां-वहां हम है। इससे भारी सुविधा औऱ क्या होगी..पहचान भी बची रह गयी और देखते ही देखते दार्शनिक की पांत में भी शामिल हो गए। उन ब्लॉगरों से तो लाख दर्जो बेहतर ही हुए जो पहचान के साथ भले ही लिखते हैं लेकिन सब घास-फूस, किसी बात से कभी खलबली नहीं मचती, लोग सुस्त तरीके से पढ़कर सुस्त हो जाते हैं।
( ये पोस्ट किसी भी तरह की खुन्नस से नहीं लिखी गयी है, लिखने की वजह खुद खबरी अड्डा ने मुहैया करायी है। पूरी वजह अगली पोस्ट में
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रवीश कुमार,पुण्य प्रसून वाजपेयी,आशुतोष औऱ सम्स ताहिर खान जैसे हिन्दी पत्रकारों की स्टोरी दिखाते हुए जब मैं मीडिया के बच्चों से पूछता जाता- पहचानते हैं न इन्हें आप। बच्चे बाकी जबाबों के मुकाबले कुछ ज्यादा उंची आवाज में जबाब देते- हां सर, पहचानते हैं। एक पल के लिए मुझे देखते, मानों हमसे ही सवाल करना चाह रहे हों-इन्हें कैसे नहीं पहचानेगें, इन्हें कौन नहीं पहचानेगा या फिर इनको नहीं पहचानेगा कोई तो किसे पहचानेगा। मैं ये सवाल करते हुए कोई सर्वे नहीं नहीं कर रहा था कि मीडिया पढ़नेवाले बच्चों के बीच हिन्दी का कौन-सा टेलीविजन पत्रकार सबसे ज्यादा पॉपुलर है। मैं तो सिर्फ इस बात का अनुमान लगाना चाह रहा था कि मीडिया के ये बच्चे रेगुलर टेलीविजन देखते हैं भी या नहीं। टेलीविजन देखते हैं तो किस बुलेटिन को देखते हैं, वगैरह,वगैरह......। बिना टेलीविजन देखे, टेलीविजन पर बात करना कुछ वैसा ही है जैसे पद्मावत पढ़कर सिंहलद्वीप के बारे में सोचना और कल्पना करना। जो टेलीविजन नहीं देखते उनके लिए सब हवा-हवा धुआं-धुआं-सा लगता है। खैर,
डीयू के अंबेडकर कॉलेज के बुलाने पर,जिंदगी में पहली बार मैं लेक्चर देने गया था। विषय तय था- खबरों की बदलती दुनिया और नए पत्रकारों की चुनौतियां। खबरों की बदलती दुनिया को लेकर मेरी अपनी समझ है कि आज खबरों के बारे में लिखते हुए, चुनते हुए और प्रसारित करते हुए जो सबसे बड़ी समस्या है कि आपको यह यकीन कर पाना, बता पाना मुश्किल हो जाएगा कि किस खबर को किस खेमे में रखें। महज पॉलिटिक्स की खबर कब बॉलीवुड की खबर बन जाती है, स्पोर्ट्स की खबर कब पॉलिटिक्स की खबर बन जाएगी या फिर एक ही खबर में पॉलिटिक्स, इंटरटेन्मेंट, स्पोर्ट्स औऱ एस्ट्रलॉजी का सेंस होगा, इसे समझ पाना चुनौती का काम है। तेजी से बदलती खबरों की दुनिया में पहले के मुकाबले इसे बिल्कुल अलग-अलग कर पाना इतना सहज नहीं रह गया है। इसकी एक बड़ी वजह ज्यादा से ज्यादा खबरों का सॉफ्ट स्टोरी के तौर पर बदल जाना है या फिर इन्फोटेन्मेंट की शक्ल में तब्दील हो जाना है। सीएसडीएस-सराय के लिए रिसर्च करते हुए इसे मैंने पॉलिनेशन ऑफ न्यूज टर्म दिया था और अपने स्तर से विश्लेषित करने की कोशिश की थी कि किसी भी खबर को अगर हम स्पोर्टस के सिरे से पकड़ते हैं तो संभव है उसके अंत सिरे तक आते-आते वो पॉलिटिक्स में जाकर खत्म हो। इसलिए मीडिया पर बात करनेवालों के लिए ये मामला अब इतना आसान नहीं रह गया है कि वो खबरों को लेकर सीधे-सीधे स्पष्ट विभाजन कर दें। ये अच्छा है या फिर बुरा इस बहस में न जाते हुए हमनें सिर्फ इस बात पर चर्चा की कि ऐसे में एक नए पत्रकारों के लिए कितना मुश्किल हो जाता है कि वो स्क्रिप्ट लिखते हुए किस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करे, फ्लाईओवर टूटने पर उसके विजुअल्स को काटे औऱ स्क्रिप्ट लिखे या फिर पहले बोल हल्ला की सीडी जुटाए,चांद और फिजा पर बात करते हुए चंडीगढ़ की फीड पर गौर करे या फिर..ए रात जरा थम-थम के गुजर, मेरा चांद मुझे आया है नजर जैसे गानों को फिट करने की जुगत लगाए। इस तरह से मैं बात करता जाता औऱ बारी-बारी से न्यूज चैनलों की फुटेज दिखाता जाता। मैंने ये भी कहा कि-संभव है ये सारी खबरें, खबरों को परोसने का अंदाज आपको कूड़ा लगे लेकिन क्या ये आपके हाथ में है कि आप तय करें कि हम किस चैनल को देखें औऱ किस चैनल को नहीं देखें और कौन-सी स्टोरी बनाए औऱ कौन-सी नहीं बनाएं।
इसी क्रम में मैं पुण्य प्रसून वाजपेयी की पोटा कानून को लेकर की गयी उस स्टोरी की चर्चा करने लगा, उसके पूरे विजुल्स दिखाए, जिसके लिए उन्हें सम्मान मिला, रवीश कुमार की उस स्टोरी को बच्चों के सामने रखा जिसमें वो गुरुदासपुर,पंजाब के एक ऐसे कॉलेज की चर्चा कर रहे हैं जिस इलाके की लड़कियों ने अपने दम पर खड़ा किया है जहां कोई टीचर नहीं है, क्लासरुम के नाम पर कोई फर्नीचर से लदे-फदे कमरे नहीं है। हमने रवीश की उस लाइन को दोहराया जहां वो कहते हैं कि हम बेहतर शिक्षा के नाम पर शिक्षा को औऱ मुश्किल बनाते जाते हैं..पब्लिक स्कूलों पर सीधा व्यंग्य कर रहे होते हैं। निठारी पर बनायी सम्स की उस स्टोरी की चर्चा कर रहे थे, जब विजुअल्स में एक-एक करके बच्चे गायब हो जाते हैं।
सारे चैनलों के विजुअल्स दिखाने के बाद जैसे ही मैंने इस तरह की खबरों पर बात करनी शुरु की,मीडिया के बच्चों का मिजाज बदल गया। उन्हें लग रहा था कि ये खबरों का विकासक्रम नहीं,बल्कि बिल्कुल एक अलग दुनिया है। एक ही चैनल पर एक-दूसरे से अलग ऐसी दुनिया जिसका कि एक-दूसरे से कोई सरोकार नहीं। सच कहूं, मैं इन बच्चों को ऐसी खबरें बनाने औऱ इनके जैसा बनने की कोई जबरदस्ती की अपील नहीं कर रहा था,मैं इन्हें भारी-भरकम आदर्श से लदे-फदे एप्रोच के बजाय आम पत्रकार बनने की सलाह दे रहा था,ऐसा कहते हुए मैं इनके मिजाज को पढ़ना चाह रहा था। अंत में मैंने सिर्फ यही कहा कि- सारी बातों का निचोड़ सिर्फ इतना है कि आप ऐसे पत्रकार न बनें जो हर दो-दिन चार दिन पर फोन करके अपने दोस्तों से कहता-फिरता है- अच्छा होता,हम एक बार यूपीएसी के लिए चांस लेते, एक बार यूजूसी नेट निकालने की कोशिश करते या फिर चिढ़कर कि इससे बढिया होता कि हम भडुआगिरी करते, यही तो करते हैं हम रोज।
बाहर निकलकर कुछ बच्चों ने फिर से कहा- आपने जो कुछ भी बताया, हमें व्यावहारिक लगा, सच लगा, हमें पता है कि कुत्तों की डाइट पर स्टोरी करनी पड़ सकती है, हमें रावण की ममी खोजने कहा जा सकता है, लेकिन सर पता नहीं क्यों जब भी मैं इन पत्रकारों को स्क्रीन पर देखता हूं तो जोश आ जाता है कि हमें ऐसा ही बनना है। अपने को इन्हीं के जैसा बनते देखना चाहता हूं...आपने कहा न कि ऐसा पत्रकार बनो जो दोस्तों को फोन करके फ्रसट्रेट करने के बजाय इर्ष्या पैदा करे कि- आदमी बने तो बने पत्रकार, नहीं तो कुछ भी बन जाए क्या फर्क पड़ता है।.कुछ-कुछ वैसा ही, कुछ-कुछ ऐसा ही। ....
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