.

मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive


पाठकों का रचना से सीधा रिश्ता कायम हो, इस क्रम में यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया का प्रयोग सफल रहा। दिल्ली की कंपकंपा देनेवाली ठंड में भी इंडिया हैबिटेट सेंटर का गुलमोहर सभागार लगभग भरा हो तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि रचना पाठ को लेकर पाठक अब भी कितने उत्‍सुक हैं। एक प्रकाशक की हैसियत से यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने इस बात की पहल की है कि रचना और पाठक के बीच एक स्वाभाविक संबंध विकसित हो। एक ऐसा संबंध, जो कि अख़बारों की फॉर्मूलाबद्ध समीक्षाओं और आलोचकों की इजारेदारी के बीच विकल्प के तौर पर काम कर सके। यह संबंध पाठक की गरिमा को बनाये रखे, उसे विज्ञापनदार समीक्षा पढ़ कर ग्राहक बनने पर मजबूर न करे। इस दिशा में यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया ने “कुछ नया कुछ पुराना” नाम से साभिनय पाठ सीरीज़ की शुरुआत की है। इस प्रकाशन संस्थान की योजना है कि प्रत्येक महीने, नहीं तो दो महीने में कम से कम एक बार हिंदी-उर्दू और दूसरी भाषाओं से हिंदी में अनूदित रचनाओं का साभिनय पाठ हो और उस आधार पर पाठक रचना से जुड़ सके।

इस सीरीज़ की शुरुआत होने से पहले ही पेंग्विन हिंदी के संपादक एसएस निरुपम ने मंच संचालक की भूमिका निभाते हुए कहा कि आलम ये है कि किताबें पाठकों की बाट जोहती रह जाती हैं। इस तरह के कार्यक्रम किताबों के इस इंतज़ार को ख़त्म करने की दिशा में काम करेंगे। साभिनय पाठ की शुरुआत युवा रंगकर्मी सुमन वैद्य ने की। सुमन वैद्य जितना एक रंगकर्मी के तौर पर हमें प्रभावित करते आये हैं, रचनाओं का पाठ करते हुए उससे रत्तीभर भी कम प्रभावित नहीं करते। कहानियों का पाठ करते वक्त शब्दों के उतार-चढ़ाव के साथ जो भाव-योजना बनती है, वो रेडियो नाटक जैसा असर पैदा करती है। सभागार में बैठे हमें कई बार छुटपन में सुने रेडियो के हवामहल कार्यक्रम की याद दिला गया। इसके साथ ही पाठ के मिज़ाज के हिसाब से चेहरे पर बनते-बिगड़ते भाव, हाथों और शरीर की भंगिमाएं पाठ का विजुअल एडिशन तैयार करती है। मोहल्लाlive पर इस कार्यक्रम की ख़बर को लेकर मुंबई की रंगकर्मी विभा रानी साहित्य को विजुअल कम्युनिकेशन फार्म में लाने की बात करती हैं। सुमन वैद्य के साभिनय पाठ ने उसे पूरा किया। ऐसा होने से एक तो रचना से आस्वाद के स्तर का जुड़ाव बनता है, वहीं दूसरी ओर इस बात की भी परख हो जाती है कि किसी भी रचना में माध्यम रूपांतरण के बाद आस्वाद पैदा करने की ताकत कितनी है? भविष्य में ये प्रयोग किसी भी रचना को लेकर सीरियल या फिल्म बनाने के पहले की प्रक्रिया के तौर पर आजमाये जा सकते हैं।

कुछ नया कुछ पुराना सीरीज़ के अंतर्गत कुल पांच रचनाओं के अंशों का पाठ किया गया, जिसमें आख़‍री मुग़ल को छोड़कर बाकी चार का पाठ सुमन वैद्य ने किया। आख़री मुग़ल का पाठ ज़किया ज़हीर ने किया। आख़‍री मुग़ल दरअसल विलियम डेलरिंपल की अंग्रेज़ी में लिखी द लास्ट मुग़ल का हिंदी रूपांतर है। खुद ज़किया ही इसे हिंदी और उर्दू में रूपांतरित कर रही हैं। राजी सेठ की रचना मार्था का देश के अंश को थोड़ा कम करके यदि ज़िदगी ज़िंदादिली का नाम है (ज़किया ज़हीर) संकलन से कुछ और रचनाओं का पाठ किया जाता, तो ऑडिएंस ज़्यादा बेहतर तरीके से जुड़ पाती। इस पूरे साभिनय पाठ में सबसे प्रभावी रचना रही चित्रा मुदगल की बच्चों पर केंद्रित कहानियों के संकलन से पढ़ी गयी लघुकथा – दूध। इस रचना ने मुश्किल से दो से तीन मिनट का समय लिया, लेकिन सबसे ज़्यादा असर पैदा किया।

एक औसत दर्जे के भारतीय परिवार में दूध घर के मर्द पीते हैं। स्त्री या लड़की का काम है दूध के गुनगुने गिलास को सावधानीपूर्वक उन तक पहुंचाना। एक दिन लड़की चोरी से दूध पीती है। उसकी मां उस पर बरसती है – दूध पी रही थी कमीनी?
लड़की का सवाल होता है – एक बात पूछूं मां? मैं जब जनमी तो दूध उतरा था तेरी छातियों में?
हां… खूब। पर… पर तू कहना क्या चाहती है?
तब भी मेरे हिस्से का दूध क्या तूने घर के मर्दों को पिला दिया था?

और कहानी ख़त्म हो जाती है। इस आधार पर समझें तो साभिनय पाठ की सफलता का बड़ा हिस्सा इस बात से जुड़ता है कि पाठ के लिए किस रचना का चयन किया गया है। कई बार ऐसा होता है कि कई रचनाएं पढ़ने के लिहाज से बहुत ही बेहतर हुआ करती हैं लेकिन साभिनय पाठ के दौरान उतना मज़ा नहीं आता जबकि कुछ में दोनों स्तरों पर मज़ा आता है। इसलिए साभिनय पाठ के लिए रचनाओं पर अधिक से अधिक होमवर्क करने की ज़रूरत है जो कि इस कार्यक्रम के दौरान समझने को मिला।

बहरहाल यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया का ये प्रयोग प्रभावित तो ज़रूर करता है। इसे हम इस रूप में भी समझ सकते हैं कि जहां दिल्ली की बड़ी आबादी नये साल की तैयारियों में जुटी है, शहरभर के स्कूल-कॉलेज बंद हैं और छुट्टी के मूड में हैं, ऐसे में शहर के पुस्तक प्रेमी इस कार्यक्रम में शामिल हुए। अशोक वाजपेयी, हिमांशु जोशी, मृदुला गर्ग, राजेंद्र धोड़पकर, कृष्णदत्त पालीवाल, राजी सेठ, चित्रा मुदगल, रवींद्र त्रिपाठी, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्‍थी,अभिसार शर्मा, क़ुर्बान अली सहित कई गणमान्‍य लोग रचना पाठ सुनने के लिए आये। इनमें से अधिकांश अंत-अंत तक बने रहे। कार्यक्रम के अंत की घोषणा और धन्यवाद ज्ञापन करते हुए यात्रा बुक्स की प्रकाशक नीता गुप्ता ने कहा कि “कुछ नया कुछ पुराना” कार्यक्रम ने साहित्य और अभिनय को जोड़ने का काम किया है। इसे हम आगे भी जारी रखेंगे। नीता गुप्ता की बात को आगे ले जाकर कहा जाए तो ऐसे कार्यक्रमों को न केवल जारी रखने की ज़रूरत है बल्कि पाठकों की अलग-अलग पहुंच औऱ हैसियत के हिसाब से अलग-अलग जगहों पर आयोजित किया जाना ज़रूरी है, जिससे कि खुले तौर पर ज़्यादा से ज़्यादा लोग इसमें शामिल हो सकें। बेहतर हो कि यात्रा बुक्स और पेंग्विन इंडिया की इस पहल की देखादेखी ही सही, बाकी के प्रकाशन भी इस दिशा में आगे आएं। क्योंकि लोकार्पण और भाषणबाजी से हटकर ये अकेला कार्यक्रम है, जिसमें मुनाफे के पाले में पाठक का हिस्सा ज़्यादा है।
| | edit post


आज की तारीख में रचना और पाठक के बीच इतनी एजेंसियां उग आयीं हैं कि पाठक और रचना के बीच सीधा और स्वाभाविक रिश्ता नहीं रह गया है। एक पाठक हालिया प्रकाशित रचनाओं को जिन माध्यमों के जरिए जान पाता है वो विश्वस्नीय नहीं रह गए हैं। अखबारों में थोक के भाव में जो पुस्तक परिचय,किताबों की समीक्षाएं छपती है वो पाठकों के बीच रुचि पैदा करने से कहीं ज्यादा मार्केटिंग करते नजर आते हैं। दुनियाभर के हिन्दी के आलोचक बाजारवाद और छोटे-मोटे स्वार्थों के विरोध में दिन-रात लिखते हैं,भाषण देते हैं जबकि रचना को लेकर पाठक के प्रति ईमानदार नहीं रह पाते। आपसी संबंधों,जुगाड़ों और मिली भगत की राजनीति के तहत रचना और किताबों को चढ़ाने और गिराने का काम करते हैं। उनका ये रवैया किताबों के बारे में लिखते समय साफ तौर पर झलकता है। नतीजा हमारे सामने है- रचना के बारे में आलोचकीय समझ के साथ लिखने के बजाय विज्ञापन करने में देश का तथाकथित महान से महान आलोचक अपनी ताकत झोंक दे रहा है। इधर रचनाकार से लेकर प्रकाशक तक नहीं चाहते कि उनकी छपी किताब या रचना की निर्मम किन्तु सच्ची आलोचना करे। इसलिए तटस्थ होकर लिखनेवालों की खेप लगातार घटती चली जा रही है और जो हैं उन्हें हाशिए पर धकेल देने में ही भलाई समझा जाता है। इस पूरे गुणा-गणित के बीच पाठक और रचना के बीच जो संबंध बनते हैं वो ग्राहक और उत्पाद का संबंध होता है जिसमें आस्वाद से कहीं ज्यादा बाजार के अधीन होकर पढ़ने और खरीदने का फार्मूला काम कर रहा होता है।

पेंग्विन इंडिया और यात्रा बुक्स ने प्रकाशक की हैसियत से पाठक और रचना के बीच सीधा संबंध कायम हो,इस गरज से पहल की है। "कुछ नया कुछ पुराना" नाम से शुरु किए जानेवाले सीरिज में रचनाओं का साभिनय पाठ होगा। इसके पीछे मकसद है कि उन पुरानी रचनाओं को पाठकों के सामने एक बार फिर से सामने लाए जाएं जो कि स्थायी महत्व रखते हों। दूसरी तरफ नयी रचनाओं का साभिनय पाठ के आधार पर पाठक किसी एजेंसी के आधार पर राय कायम करने के बजाय सीधे रचना से गुजरकर राय बना सकें। ऐसा होने से आलोचकों की विश्वसनीयता को जांचने-परखने का सही मौका मिल सकेगा और रचना को बेहतर और बदतर करार दिए जाने की उनकी इजारेदारी एक हद तक टूटेगी। यह संभव है कि पेंग्विन और यात्रा बुक्स का ये प्रयास काफी हद तक मार्केटिंग का हिस्सा हो लेकिन इतना जरुर है कि पाठक को रचना और राय के बीच एक विकल्प मिल सकेगा। सीधे संवाद के पैटर्न पर राजकमल प्रकाशन की भी अपनी सीरिज है लेकिन वो लेखकों से संवाद है,सीधे-सीधे रचना से नहीं।
पेंग्विन और यात्रा बुक्स ने इस पहल के तहत साभिनय पाठ के लिए इस बार हिन्दी-उर्दू के मशहूर रचनाकारों- मोहसिन हामिद,ज़किया ज़हीर,राजी सेठ,चित्रा मुद्गल और विलियम डेलरिम्पल की रचानाओं को चुना है। इन रचनाओं का साभिनय पाठ के लिए एनएसडी से पासआउट प्रसिद्ध रंगकर्मी सुमन वैद्य को विशेष तौर पर आमंत्रित किया है। आपलोगों में जिनलोगों ने भी एम.के.रैना द्वारा निर्देशित "बाणभट्ट की आत्मकथा" देखी है वो बाणभट्ट यानी सुमन वैद्य की अदाकारी पर जरुर फिदा हुए होंगे। राजेन्द्र नाथ के निर्देशन में घासीराम बने सुमन वैद्य को जरुर सराह रहे होंगे। आज एक बार फिर उन्हें नए अंदाज में देखने-सुनने का मौका मिलेगा। पेंग्विन और यात्रा बुक्स ने इस साभिनय पाठ की स्थायी योजना तय की है जिसके तहत महीने में एक बार इस कार्यक्रम का आयोजन करेगी। हर बार पुरानी औऱ नयी रचनाओं का पाठ होगा। हम उम्मीद करते हैं कि इससे रचना और पाठक के बीच नए सिरे से गर्माहट पैदा होगी।
नोट- कार्यक्रम को लेकर डिटेल कार्ड में दिया गया है जिसे कि आप क्लिक करके बड़े साइज में देख सकते हैं।


नाटकों में भूमिका के तौर पर सुमन वैद्य का परिचय-
Play Name Role Director
Short cut Arun Bakshi Sh. Ranjeet Kapoor
Antral Kumar(Mohan Rakesh) Sh. Ranjeet Kapoor
Janeman Panna Nayak Sh.Waman Kendre
Ban Bhatt Ban Bhatt Sh. M.K. Raina
Batohi Batohi(Bhikari Thakur) Sh. D.R.Ankur
Gunda Gunda Nanku Singh Sh.Chittranjan Giri
Ghasiram Kotwal Ghasiram Sh. Rajender Nath
Chanakya Vishnugupt Chandragupt Sh Souti Chakraborty
1857 Ek Safarnama Shamsuddin Ms Nadira Zaheer Babbar

निर्देशन-
Death Watch in Hindi written by Jian Genet in Nainital (1992)
* Kajirangat Hahakar (Assamese) with Children in Nagaon
Assam (2007),and in TIE Company(NSD)’s Children Theatre Festival 2009
* Kaath Gharat Bhagwan (Assamese Translation of a Hindi
Play written by Shri Krishna) in Nagaon Assam.(2008).
| | edit post


चाट-समोसे के ठेले का नाम "आत्मनिर्भर समोसा चाट" देखकर मैं एकदम से प्रभात की स्कूटी से कूद गया। जल्दी से कैमरा ऑन किया और दो-तीन तस्वीरें खींच ली। मेरा मन इतने से नहीं माना। मैं जानना चाह रहा था कि आमतौर पर चाट,समोसे,फास्ट फूड और मोमोज जैसी चीजें बेचनेवाले ठेलों के नाम हिंग्लिश में हुआ करते है,फिर इसने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा है? गरम-गरम समोसे तल रहे हमउम्र साथी से मैंने आखिर पूछ ही लिया-ये बताओ दोस्त,आपने ठेले का नाम आत्मनिर्भर चाट भंडार क्यों रखा है? उसने पीछे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वो भइया बताएंगे। मैंने पीछे की तरफ देखा। उस दूकान के दो दरवाजे खुलते हैं-एक पुरुलिया रोड की तरफ जहां कि संत जेवियर्स कॉलेज,उर्सूलाइन कॉन्वेंट से लेकर रांची शहर के तमाम स्कूल-कॉलेज हैं और दूसरा दरवाजा संत जॉन्स स्कूल के अंदर की ओर। आगे के दरवाजे से हम जैसे राह चलते लोग सामान खरीद सकते हैं जबकि पीछे के दरवाजे से सिर्फ स्कूल के बच्चे ही चॉकलेट,पेटिज,कोलड्रिंक,चिप्स वगैरह खरीदते हैं। पूरे पुरुलिया रोड में जहां कि एक से एक अंग्रेजी नाम से स्कूल,कॉलेज और संस्थान हैं ऐसे में सत्य भारती के बाद ये ठेला ही है जो होर्डिंग्स और दूकानों के नाम को लेकर किसी भी हिन्दी-अंग्रेजी के मसले पर सोचनेवाले को अपनी ओर बरबस खींचता है।
ठेले के इस टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे की कहानी बताते हुए संजय तिर्की ने कहा कि हमलोगों के एक भैइया है-धनीजीत रामसाथ। वो भइया समाज के विकलांगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। इसलिए पहले उन्होंने प्रेस खोला। लेकिन बाद में कई अलग-अलग चीजों पर भी विचार करने लगे। अब देखिए-विकलांगों के लिए सरकारी नौकरी में कई तरह की सुविधाएं और छूट है। लेकिन ये फायदा तो उसी को मिलेगा न जो कि पढ़ा-लिखा है या फिर सरकारी नौकरी की तरफ जाना चाहता है। समाज विकलांगों का एक बड़ा वर्ग है जो कि इस नौकरी लायक नहीं है। उसे हर-हाल में छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करने गुजारा करना होता है। ये लोग जब किसी दूकान वगैरह में काम मांगने जाते हैं तो सब यही कहता है कि-ये तो अपाहिज है,ये भला क्या काम करेगा। इसलिए भइया ने सोचा कि ऐसा कुछ शुरु किया जाए जिसमें कि इनलोगों को भी काम में लगाया जाए। ऐसे ही इस तरह से चाट के ठेले की शुरुआत हुई। संजय तिर्की संत जॉन्स स्कूल की जमीन पर बनी जिस दूकान को चलाते हैं उसका भी नाम आत्मनिर्भर स्टोर है जिसे कि रोमन लिपि में लिखा गया है। इसलिए एकबारगी वो अंग्रेजी लगता है लेकिन दूकान के आगे के ठेले का नाम देवनागरी लिपि में है।
मेरे इस सवाल पर कि आज तो इतने सारे अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे नाम है जो कि सुनने में ज्यादा स्टैण्डर्ड और बोलने में ज्यादा सहज लगते हैं फिर आपने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा? संजय तिर्की ने जबाब दिया कि ये सिर्फ एक ठेले का नाम नहीं है,एक संस्था है जिसके तहत हम विकलांगों के लिए काम करते हैं। हम सब आत्मनिर्भर होना चाहते हैं औरों को भी करना चाहते हैं इसलिए यही नाम रखा। दूसरे नाम रख देने पर वो चीज नहीं हो पाती।
एक टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे संजय का तर्क मुझे बहुत ही साफ लगा। ये किसी भी भाषाई दुराग्रहों से अलग है। इस नाम के पीछे कोशिश सिर्फ इतनी भर है कि संदर्भ जिंदा रहे। इसके भीतर अंग्रेजी-हिन्दी की कोई भी बहस शामिल नहीं है। नहीं तो अकादमिक बहसों की तो छोड़िए,आम आदमी को समझाने और बताने के लिए जिस हिन्दी का प्रयोग किया जाता है उसमें दुनियाभर की पॉलिटिक्स,बेहूदापन और चोचलेबाजी शामिल है।
कल अंबेडकर कॉलेज से गुजरते हुए मैंने सीलमपुर के इलाके में बने डस्टबिन के लिए 'डलाव'शब्द बहुत ही बड़े-बड़े अक्षर में लिखा देखा। पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। लगा कि कुछ मात्रा छूट गयी है लेकिन बाद में उल्टी तरफ अंग्रेजी में डस्टबिन लिखा देख समझ पाया। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नए-नए बोर्ड लगे हैं। वहां की कहानी और भी दिलचस्प है। उपर से नीचे की तरफ उतरने वाली सीढ़ी के पास एक बोर्ड लगा है। एक तरफ लाइन से हिन्दी में लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। दूसरी तरफ अंग्रेजी में नाम लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। जिधर हिन्दी लिखा है उधर हिन्दी के ऐरो दिए गए हैं और जिधर अंग्रेजी लिखी गयी है वहां हिन्दी से उल्टी दिशा में तीर के निशान दिए गए हैं। मतलब ये कि अगर आप हिन्दी के निर्देश का पालन करते हैं तो कहीं और उतरेंगे और अंग्रेजी का फॉलो करने पर कहीं और। भाषा के बदलने के साथ ही आपका गंतव्य बदल जाएगा।
देशभर के दर्जनों एनजीओ हैं जो कि बहुत ही चमत्कारिक ढंग से नाम रखते हैं। उनका शार्ट फार्म टिपिकल हिन्दी में होता है। लेकिन उसके फुल फार्म अंग्रेजी में होते हैं। लोगों की जुबान पर वो हिन्दी नाम हो और सांस्थानिक तौर पर अंग्रेजी में उसकी व्याख्या। नामों की इस तरह की चोचलेबाजी के बीच बहुत तरह के पचड़े,फैशन,सुविधा है। रवीश कुमार मोबाईल पत्रकारिता के जरिए इसे लगातार बता रहे हैं लेकिन संजय तिर्की के सादगी से दिए गए जबाब पर गौर करना जरुरी है कि- बाकी नाम में वो बात नहीं होती। यानी दूकानो,ठेलों,निर्देशों के नाम और शब्द के पीछे संदर्भों का जिंदा रहना जरुरी है।
| | edit post

चैटबॉक्स में नीलिमा ने मुझसे कहा कि राजकिशोर ने अपनी बेटी अस्मिता का बायोडाटा मेरे पास भेजा तो मुझे आपका ध्यान आ गया। मैंने पूछा- क्यों? नीलिमा ने कहा-योग्य वर के लिए। मैंने फिर कहा-आप मजाक क्यों करती हैं? उसने कहा- सच्ची। फिर एक मिनट बाद ही उसने वायोडाटा फार्वर्ड कर दिया। मैंने बहुत ही जल्दी में अस्मिता राज का बायोडाटा देखा.फिर जब अपने शहर टाटानगर पहुंचा तो देखा कि मोहल्लालाइव पर ये वायोडाटा सार्वजनिक कर दी गयी है। इस पर रवीश कुमार से लेकर बाकी लोगों के भी कमेंट हैं। अस्मिता ने अपने बायोडाटा में कई ऐसी बातें लिखी है जिससे साफ हो जाता है कि विवाह संस्था के भीतर रहकर भी नए जमाने की लड़कियां किस तरह इसके ढांचे को ध्वस्त करने में जुटी है। लकीर का फकीर और कठमुल्लेपन की धज्जियां उड़ाने में जुटी हैं। मैंने भी कमेंट किया और अस्मिता को इस काम के लिए शुभकामनाएं दी। फिर घर में अवसाद के क्षणों में भी अपने भैय्या की शादी में कुछ रंगत पैदा करने में जुट गया। बात आयी गयी हो गयी।
लेकिन जिस टिपिकल तरीके से हिन्दू रीति-रिवाज के तहत शादी की तैयारियां और नेम धर्म शुरु हुआ,मुझे अस्मिता का बायोडाटा बार-बार ध्यान आने आने लगा। मैंने कुछ लोगों को इसे पढ़वाया,इस बारे में चर्चा की। मेरे दिमाग में बस एक ही चीज बार-बार घूमने लगी। इस देश में हजारों लड़कियां ऐश्वर्या राय बनने की होड़ में है,हजार के करीब रानी मुखर्जी भी बनना चाहती है,सानिया मिर्जा और सुनिधि चौहान भी इसके आस-पास ही बनना चाहती है। लेकिन इस बीच अस्मिता राज कहां से आ गयी? ये उन लड़कियों के खांचे में नहीं है जो बचपन के राजकुमार को अब घोड़ी पर चढ़ना देखना चाहती है। ये उन लड़कियों से अलग है जो कि अफेयर को संबंध का नाम देने के लिए जी-जान लगाती है। हर औसत दर्जे के समाज के बीच खत्तम लड़की होने की बदनामी झेलती है। ये इतनी माइक्रो समझ है कि न तो वो विवाह संस्था का खुल्लम-खुल्ला चैलेंज करती है और न ही उसके बाहर जाकर कोई क्रांति की बात करती है। अगर कुछ नया और अलग है तो वो ये कि इसके भीतर ही रहकर उसके ढांचे को ध्वस्त करती है। मुझे लगता है कि अगर इस देश की तमाम लड़कियों ने गाय पर लेख लिखने के लिए अपने सीनियर की कॉपी देखी हैं,शादी के पहले मोहल्ले की लड़कियों से स्वेटर,टेबुल क्लाथ,कुशन के पैटर्न उधार लिए हैं तो अब उसे बायोडाटा बनाते समय एक बार अस्मिता के बायोडाटा से जरुर गुजरना चाहिए।
कहने को बायोडाटा के जरिए शादी एक प्रोग्रेसिव नजरिया का हिस्सा लगता है लेकिन अगर आप इनके एक-एक शब्दों पर गौर करें तो आपको इसके कई हिस्से मानव-विरोधी लगेंगे। ये सबकुछ स्त्री के विरोध में जाता है। रंगों का वर्णन,जाति का बारीकी से वर्णन,खानदाननामा और ऐसी ही कई सूचनाएं जो एक ही झटके में एहसास कराती है कि शादी के नाम पर हम कितना बड़ा गैरमानवीय समाज रचते हैं? बंद दिमाग को संभव है कि अस्मिता का बायोडाटा परेशान करे,जबरदस्ती की चोचलेबाजी लगे लेकिन इसे चालू पैटर्न के लड़कियों के बायोडाटा से मिलान करके देखें तो एक घड़ी को इससे असहमत होते हुए भी अपनी बेटियों,अपनी बहनों,भतिजियों के लिए बनाए गए बायोडाटा पर नफरत होगी।..होनी भी चाहिए।
| | edit post

टेलीविजन पर मेरा लेक्चर आज

Posted On 8:36 am by विनीत कुमार | 4 comments



साभारः मोहल्लाlive
टेलीविजन विमर्श के साथ एक दिलचस्प विरोधाभास है। पहले तो आलोचकों ने पूरी ताक़त से इसे इडियट बॉक्स घोषित कर दिया। उसके बाद इस बात की संभावना की तलाश करने में जुट गये कि इससे सामाजिक विकास किस हद तक संभव हैं। इन दोनों स्थितियों में टेलीविजन की भूमिका और उसके चरित्र पर बहुत बारीकी से शायद ही बात हो पा रही हो। बदलती परिस्थितियों के बीच भी विमर्श का एक बड़ा हिस्सा जहां टेलीविजन को पहले से औऱ अधिक इडियट साबित करने में जुटा है, वहीं इसमें संभावना की बात करने वाले लोग जबरदस्ती का तर्क गढ़ने में कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहते। नतीजा हमारे सामने है, अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग। लेकिन विमर्श के नाम पर अपने-अपने पाले में तर्क गढ़ने की कवायदों के बीच ऑडिएंस क्या सोचता है, उसकी समझ किस तरह से बदल रही है, इस पर बहुत गंभीरता से बात नहीं होने पाती है। मार्शल मैक्लूहान ने साठ के दर्शक में एक बार जो कह दिया कि टेलीविजन ठंडा माध्यम है, इससे कल्पना और विचार पैदा नहीं होते – वो आज भी किसी न किसी रूप में कायम है। हिंदी में इस मान्यता को इतना विस्तार मिला कि टेलीविजन पर बात करने का मतलब ही हो गया कि ये हमें निष्क्रिय बनाता है, हमारी समझ को कुंद करता है। हम उदासीन होते चले जाते हैं। इसलिए बेहतर है कि देश भर के टेलीविजन को गंगा में विसर्जित कर दिए जाएं।

दूसरी तरफ मार्केटिंग और कनज्‍यूमरिज्म के भीतर ये बहस जोरों पर है कि अब कनज्‍यूमर चीज़ों का सिर्फ उपभोग ही नहीं करता बल्कि वो इसका उत्पादक भी है। अब वो तय करता है कि वस्तुओं का उत्पादन किस तरह से हो। टेलीविजन में संभावना बतानेवाले लोगों ने इस तर्क को अपनाते हुए ऑडिएंस को निष्क्रिय और उदासीन बताने के बजाय इसे टेलीविजन का डिसाइडिंग फैक्टर बताते हैं। टेलीविजन की पूरी बहस, जो टीआरपी के गले में जाकर अटक जाती है वो एक नये मुहावरे को जन्म देती है – लोग जो देखना चाहते हैं, टेलीविज़न वही दिखाता है। इसमें कोई क्या करे? ऑडिएंस अगर निष्क्रिय नहीं है, तो टीआरपी के भीतर उसकी सक्रियता किस हद तक है, इस पर नये सिरे से विचार करने की ज़रूरत है। इसके साथ ही ये सवाल भी कि टेलीविज़न का कोई सचमुच एक्टिव ऑडिएंस हो सकता है?

दिल्ली विश्वविद्यालय से टेलीविजन की भाषिक संस्कृति पर शोध कर रहे विनीत कुमार सफर और सीएसडीएस सराय के संयुक्त प्रयास से हो रहे वैकल्पिक मीडिया वर्कशॉप (दिसंबर 01-03) में इन्हीं सवालों के आसपास अपनी बात रखेंगे। Watching Television : From Passive Consumption Of Sounds And Images To An Active Prosumer/Audience? विषय के तहत बातचीत के जरिये वो उन संभावनाओं की तरफ इशारा करेंगे जहां एक ऑडिएंस की हैसियत से टेलीविजन में भागीदारी की जा सके। इससे पहले इस वर्कशॉप में प्रिंट मीडिया के सत्र में वैकल्पिक मीडिया पर आलोचनात्मक निगाह पर अभय कुमार दुबे, Do Activism And Development Journalism Have To Be Boring? पर शिवम विज, Marginalised And Media पर दिलीप मंडल अपनी बात रख चुके हैं। टेलीविजन के साथ कल वेब जर्नलिज्म पर भी एक सत्र होगा। तीसरे यानी कि अंतिम दिन कम्युनिटी रेडियो पर विस्तार से चर्चा होगी।

समय 10.30 बजे
स्थान सीएसडीएस-सराय, 26, राजपुर रोड, दिल्ली
| | edit post