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..तो दिल्ली में लकड़ी का कोयला मिलता है,फिर तुम सुलगाए कैसे? तुम्हारे घर में जगह है कि आग जलाकर लिट्टी सेंक लो। टमाटर भी उसी पर सेंके थे कि गैस पर? सत्तू लेकिन एक नंबर का नहीं मिला होगा,उसमें खेसाड़ी का मिला दिया होगा? चटनी जब बनाए ही थे तो भर्ता नहीं भी बनाते तो काम चल जाता।.....

पापा मेरे बस इतना बताए जाने पर कि आज मैंने आप ही की तरह लकड़ी का कोयला सुलगाया है,चटनी और बैंगन का भर्ता तैयार है,लिट्टी भी भर लिए हैं,बस सेंकना बाकी है,पापा ने एक के बाद एक सवाल करने शुरु कर दिए थे। वो इस बात को लेकर बहुत उत्साहित थे कि दिल्ली में रहकर भी वो वही कर रहा है जो कभी बचपन में बिहारशरीफ में रहकर करता था। शायद हमारी किस्मत पर अंदर ही अंदर जल भी रहे हों कि देखो वो दिल्ली में रहकर भी लकड़ी का कोयला सुलगा रहा है और हम जमशेदपुर में रहकर भी ऐसा नहीं कर सकते। उनकी बात सुनते हुए साफ महसूस कर रहा था कि कहीं न कहीं इस बात की तड़प है कि वो अब जाड़े के दिनों में लकड़ी का कोयला सुलगा नहीं पाते।

कल जब मैं लकड़ी के कोयले जला रहा था तो बहुत अलग लगने लगा। पहली बात तो कि जब इतनी मेहनत और लकड़ी,मिट्टी तेल पर पैसे खर्च कर ही रहा हूं तो क्यों न कुछ ऐसा कर लूं कि रात के खाने से मुक्ति मिल जाए? आग जलाने पर धुएं की जो खुशबू(अब सच में खुशबू ही लगती है) आयी तो लगा कि जैसे सालों की खोयी हुई चीज वापस मिल गयी। अचानक पापा की याद आने लगी। पापा कभी इस तरह लकड़ी और कोयले जलाकर नहीं सेंकते। कुछ नहीं तो कम से कम चार आलू ही पकाने लग जाते। नहीं तो रोटी के आटे की चार सादी लिट्टी ही।..तो क्या,कुछ ऐसा ही किया जाए?

पहले टमाटर पकाया,फिर एक बैंगन भी। लकड़ी के कोयले ने आग सही तरीके से पकड़ ली थी तो मेरा मन और बढ़ गया। लगा लिट्टी भी बना ही ली जाए।..लेकिन सत्तू,सत्तू तो नहीं है। पटना का कमल ब्रांड और रांची का जालान सत्तू। इन तमाम नामों को याद करने के बाद जो कुछ बचता है,वो दिल्ली में रिक्शे के पीछे चिपके स्टीगर-सतेन्द्र सत्तू में जाकर चिपक जाता है। लगा, प्रभात रंजन( जानकीपुल) सर को फोन किया जाए। लिट्टी या फिर मेरे स्नेह,दोनों में किसी एक वजह से शायद सत्तू के साथ आ ही जाएं। पहले कई बार ह चुके थे -हमारे इलाके में एक नंबर का सत्तू मिलता है,कभी आपको टेस्ट कराउंगा। फिर लगा,दिल्ली की ठंड भावनाओं से उपर की चीज है। इसके आगे अगर उन पर इन दोनों कारणों का असर नहीं हुआ तो..पापा फिर बुरी तरह याद आने लगे।

मैं बचपन में सत्तू,लिट्टी,चना,गजा-बरा ये सारी चीजें बिल्कुल भी पसंद नहीं करता था बल्कि इससे इतनी नफरत थी कि मां जरा सा भी मुंह में डालती तो मैं नाली पर जाकर थूक आता। मेरी मां कहती- जहर दे दिए थे मुंह में तो थूक आया। दुनियाभर के बाल-बच्चा को अपने बाप से लगाव रहता है। इसको सारा विख(बिष) इ सत्तू औ चना पर ही उगलना होता है। मां समझ गयी थी कि इसे ये सारी चीजें स्वाद के कारण नहीं बल्कि पापा की पसंद की होने से नापसंद है। कल आकर वो बार-बार आलू की पूड़ी खाने लगें तो वो भी इसे थूकने लगेगा।  खाने-पीने की बहुत सारी चीजें इसी तरह मैंने छोड़नी शुरु कर दी थी कि पापा को वो सब बहुत पसंद थे। फिर मुझे पता होता कि अगर मैं नहीं खाउंगा तो मां मेरे लिए कुछ अलग से बनाएगी। पापा के चेहरे पर ये सब देखकर जो भाव उभरते,उसे देखकर मुझे कैडवरी खाने से भी ज्यादा सुख मिलता।

समय बीता,पापा का अपना इलाका छूट गया और मेरे बचपन का वो घर जहां एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाने में भी हम मां के साथ होते,अकेले डर लगता। भइया लोगों के अच्छी तरह सेटेल्ड हो जाने पर भी पापा जमशेदपुर के चार कमरे की फ्लैट में आकर अनसेटेल्ड हो गए। अक्सर कहते, पूरा फ्लैट बिहारशरीफ के एक कमरे लायक भी नहीं होगा और जाड़े में तो उनकी तड़प हम शिद्दत से महसूस करते। वो किसी हाल में अपार्टमेंट में लकड़ी नहीं जला सकते थे। एक बार उन्होंने ऐसा किया था और पूरी बिल्डिंग धुएं से भर गया था। अफरा-तफरी मच गयी थी। शहर में धुएं रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा नहीं है। धुएं और आफवाहें साथ-साथ उठती है। लोग घर से बाहर निकलने लगे। पापा को आग जलाता देखकर कुछ ने फब्तियां भी कसी थी और लगभग हिकारत भरी नजर से देखा था। एक-दो ने शिकायत के लहजे में कुछ कहा भी था। पापा जाड़े में बिना लकड़ी जलाए बेचैनी से मौसम के खत्म होने का इंतजार करते।

मैट्रिक के बाद ही घर छोड़ने के बाद मेरे साथ संयोग ऐसा रहा कि पिछले 10-12 सालों में रांची से लेकर दिल्ली तक जिन-जिन जगहों पर रहा,लकड़ी जलाने की सुविधा स्वाभाविक तौर पर रही। ग्वायर हॉल(डीयू हॉस्टल) जब छोड़ रहा था तो एक चीज जो बार-बार मिस्स कर रहा था कि शायद आगे कभी दिल्ली में लकड़ी जलाने की अय्याशी न कर पाउं। वहां तो हद ही करता। बगीचे से खोज-खोजकर सूखी लकड़ियां लाता और आग लगाकर भुट्टे और आलू पकाता। गजब की जमघट लगती और उसके बाद मुंहचोदी का दौर शुरु होता। जितने लौंडे उतने गांव और कस्बे वहां जुटने लग जाते। बलिया,बक्सर,लहरियासराय से लेकर डगमगपुर तक के किस्से और फिर उसमें उस स्पेस की खोज जहां अश्लील हरकतों और प्रसंगों को शामिल किया जा सके।

मई की गर्मी में जब मयूर विहार विहार आया तो अपने दोस्त के साथ जिस घर को साझा करना था,देखकर पहले ही इत्मिनान हो गया कि ग्राउंड फ्लोर के इस घर में मजे से आग जला सकते हैं। सालभर बाद जब वो घर छूटा तो फिर ऐसे घर की तलाश में लगा,जहां हम आग जला सकते हैं। मैं इसी बहाने पापा को याद भी कर सकता था और फोन कर-करके जला भी सकता था कि देखिए पापा,आज हमने फिर से आग सुलगाया है। पापा से प्यार होने का ये मतलब थोड़े ही है कि उन्हें जलाना और उनसे अपनी हैसियत बेहतर बताना छोड़ दें। अब दुकानों में फर्नीचर का काम होने पर दुनियाभर की जलाने की लकड़ी निकलती है और पापा अफसोस से बताते हैं-क्या करते,अपने यहां तो जला नहीं सकते तो दे दिए चेलवा को कि जलाना।     

सत्तू का जुगाड़ नहीं बन पाया लेकिन दिमागी रुप से तैयार था कि लिट्टी बनानी है। ध्यान आया,पापा को आलू की चीजें सख्त नापसंद है। क्यों न सत्तू की जगह आलू की ही लिट्टी बना ली जाए। पापा को याद करने के बीच चिढ़ाने का भी काम पूरा हो जाएगा। कूकर में पांच आलू डालकर चूल्हे पर चढ़ा दिया औऱ पच्चीस मिनट के भीतर लिट्टी भरने का आइटम तैयार। जाली पर लिट्टी सेंकने का काम शुरु। लेकिन इतनी बड़ी उपलब्धि पापा के अलावे दीदी और मां को बताए कैसे रहा जा सकता था?

मां आज लिट्टी सेंक रहे हैं लकड़ी के कोयले पर। आमतौर पर मां खुश हो जाती है कि चलो कोई तो कुल खानदान में ऐसा निकला जो कि भदेस खाने-पीने की परंपरा जिलाए हुए है। लेकिन अबकी बार मां एकदम से चिंतित हो गयी- कहां से लाए लकड़ी का कोयला? जो सोसायटी में प्रेस करता है न,उसी से। नय बेटा,उस पर लिट्टी-फिट्टी मत सेंको। समसान से चुनकर लाता है कोयला। धत्त मां,क्या लिट्टी में मुर्दा घुस जाएगा। मां आगे कहती है-फिर भी,नय खाना चाहिए।..कुछ नहीं तो सेका जाने पर गंगाजली छींट लेना लिट्टी पर।.

मेरी छोटी दीदी ने पहला ही सवाल किया-सब अकेले कर रहे हो? मैंने कहा-नहीं साथ में तुम्हारी भाभी भी है और अपनी ननद को लिट्टी खिलाने के लिए बुरी तरह बेचैन हो रही है। दीदी न ठहाके लगा दिए थे- अच्छा बना ही रहे हो तो थोड़ा ज्यादा बना लेना,सुबह के नाश्ते से बच जाओगे। सुलेखा दीदी इन सब बातों से कम्पटीशन करने लगती है। मां की भाषा में कहूं तो ओदाउद ऑब्लिक जोड़ती करने लगती है। कहने लगी-हां हम भी परसों बनाए थे...।

इस फोना-फोनी के बीच लिट्टी बनकर तैयार हो गयी। क्या गुलाबी रंग और अपने आप ही फट गयी। लिट्टी फट जाने का मतलब है बहुत ही अच्छी तरह पक गयी है।..पापा फिर याद आए। बहू लिट्टी के नाम पर ऐसा तेल चहबोर कर देती है कि पेट में डहडही होने लगता है। लिट्टी ये सब तेल में छानकर खाने का चीज थोड़े है,लकड़ी पर पकाकर खाने का है। पहले कौर में ही स्वाद से कहीं ज्यादा ये सोच-सोचकर तृप्ति हो रही थी,चलिए पापा आपको लगता था कि घर छोड़कर पढ़ाई करेंगे तो ढंग से पानी तक नसीब नहीं होगा। ये लीजिए,दिल्ली जैसे शहर में आग पर पकायी लिट्टी। खाते हुए मेरा मन कर रहा था होटल सांगरिला,दि लीली पैलेस के आगे जाकर जोर से चिल्लाउं-रईसजादों,अय्याशी इसे कहते हैं,उसे नहीं जो तुम दो लाख फॉर वन नाइट के कमरे लेकर कर रहे हो।.
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मेरी हालत पर तरस खाकर मेरी उस दोस्त ने आज से पन्द्रह दिन पहले फोन करके कहा- खाना बनाने के लिए मुन्नी भेज रही हूं,आदमी की तरह पेश आना और ठीक से खाना बनवाना..जल्द ही शीला भी भेजती हूं और फिर ठहाके लगाकर हंसने लगी थी। उसे पता था कि उन दिनों मेरी तबीयत ठीक नहीं है और मेरे यहां काम करने जो दीदी आती है वो पिछले बीस दिनों से गायब है। मैंने हां-हां कहा और अगले दिन  मुन्नी सुबह सात बजे हाजिर।

जमाने से सुबह सात बजे सुबह उठने की आदत छूट चुकी थी। चैनल की नौकरी बजाते वक्त मार्निंग शिफ्ट के लिए उसी तरह सुबह उठते,जैसे बचपन में मां पूजा के फूल के लिए भेजती और हम चोरी-चकारी करके मां की भक्ति में चार-चांद लगाते या फिर भइया के निकम्मेपन पर पर्दा डालने के लिए रउदिया के यहां दूध लाने के लिए। लेकिन वो सारी बातें किसी दूसरे जमाने की कहानी लगती है।

बात बस इतनी है कि आपको जी में आए तो दो-चार डंडे मारकर मेरी चूतड़ लाल कर दीजिए लेकिन सुबह छह-सात बजे उठने का काम हमसे न हो सकेगा।. सो पहले दिन जब मुन्नी आयी तो बिना उसके कुछ कहे, भीतर से भड़क गया। सुबह मैं न तो अचानक उठ सकता हूं और न ही उठते के साथ बोल सकता हूं। मुझे नार्मल होने में आधे घंटे लग जाते हैं।

मुन्नी ने आते ही कुछ सवाल किए- भइया-आटा कहां है,लाइटर कहां है,सब्जी क्या बनेगी,किस कड़ाही में बनावें। मैं अपनी आदत के अनुसार बिना कुछ कहे, सब इशारे से बताता या फिर आप ही देता जा रहा था। लगा,सात बजे बुलाकर आप ही टेंशन ले ली जिसे कि मेरी मां मंगुआ दुख कहती है। लगा-मना कर देते हैं कि कल से मत आइएगा या फिर थोड़ी देर में। थोड़ी देर का सवाल ही नहीं था क्योंकि उसके बाद वो सीधे एक बजे आती। क्या करें,कल फिर सुबह सात बजे उठना होगा। ओफ्फ..

मुन्नी ने खाना बनाया,टिपिकल दिल्ली का खाना। जमकर मसाले,खूब तेल और फूलगोभी की तो ऐसी रेड पीट दी थी कि सोचा इससे बढ़िया था कि सारे गोभी को सींक में धंसाकर टिक्का बना लेता और सिरके में डुबोकर खा लेता। मंहगी मटर की बनी सब्जी देखकर आत्मा कलप उठी। अगले दिन मैंने कहा- दीदी,आपको पता है मैंने आपको खाना बनाने के लिए क्यों कहा? उसने कहा नहीं भइया। मैंने कहा क्योंकि मुझे खुद ही बहुत अच्छा बनाने आता है लेकिन मैं इतनी देर किचन में रह नहीं सकता,बस इसलिए। वो बोली,ओह..क्यों? मैंने कहा-मेरी तबीयत ठीक नहीं है इन दिनों,आपको फोन पर बताया था न।..उसने कहा हां भइया-तभी हम सोचे कि ठंडा मार दिया होगा तो थोड़ा मसाला खाइएगा त आराम होगा। मैंने कहा नहीं-आप बस उबाल देंगी तो ज्यादा अच्छा लगेगा मुझे,तेल-मसाले मत दीजिए प्लीज। सच्चाई ये थी कि मैं उससे इसलिए खाना बनवाना चाहता था कि मेरी दोस्त ने बताया था कि वो बिहार की है और अपनी तरफ का जोरदार खाना बनाती है। अपनी तरफ का खाना,मतलब मां की तरह का बनाया खाना। मैं मुन्नी के खाने में मां के बनाए खाने का स्वाद खोज रहा था और मुन्नी हमें बाकी लौंडों की तरह जीभचट्टा समझकर खूब झाल-माल के साथ खाना बनाकर दे रही थी।..खैर,मेरी बात वो समझ गयी और ये भी कि कुछ-कुछ आदत से भी ठस्स आदमी है।


तीन-चार दिन हुए कि मेरी सुबह सात बजे उठने की आदत पड़ गयी और उठना अच्छा भी लगने लगा। कभी-कभी तो मुन्नी आती कि उसके पहले ही हम उठकर अखबारों में खोए रहते और कभी देर से आने पर हम सोए ही रह जाते। वो मेरे लिए अलार्म की तरह हो गयी थी। एक बार उठने की आदत पड़ गयी तो मुन्नी का सुबह आना भी अच्छा लगने लगा। मुझे पता था कि ये सबसे पहले मेरे यहां आती है और फिर बाकी घरों में उसे जाना होता है। जिन लड़कियों के यहां जाती है,वो सब ऑफिस गोइंग है। मैं नहीं जानता कि वो कौन लड़कियां हैं लेकिन लगाव का बंधन ऐसा बंधा कि हमें लगता- अगर मेरे यहां देर कर दी तो मुन्नी दूसरी जगहों पर जाने में लेट हो जाएगी और फिर वो ऑफिस जानेवाली लड़कियां भी। क्या पता कोई ज्यादा देर होने के चक्कर में बिना ब्रेकफास्ट किए या लंचपैक लिए बिना ही चली गई तो ऑफिस में कैसे काम कर पाएगी?  क्या बैचलर लड़के ही लड़कियों की इतनी चिंता करते हैं या फिर इंसानियत के नाते हर कोई करता है? मुझे नहीं पता और न ही इसमें मैं कोई स्त्री-विमर्श का पेंच फंसाना चाहता हूं। बहरहाल,

मैं पहले से मटर छीलकर रख देता। जो सब्जी बननी होती,फ्रीज से निकालकर चूल्हे के पास रख देता। दाल बननी होती तो भगोने में पानी डालकर छोड़ देता। भाव बस इतना कि मुन्नी लेट न हो जाए और तब वो लड़कियां भी लेट न हो जाए। क्या मुन्नी उन लड़कियों से मेरी इस आदत के बारे में बात करती होगी? अगर करती होगी तो वो लड़कियां क्या सोचती होगी? हाउ कूल या फिर सो फन्नी? कहीं मुन्नी को हिदायतें तो नहीं देती होंगी- सुनो मुन्नी,उस लड़के की कहानी तो हमें सुनाती हो लेकिन हमारे बारे में कुछ मत बताना। सब लड़के एक ही तरह के चीप होते हैं। उपर से स्वामी अग्निवेश बनते हैं और भीतर से बिग बॉस में जाकर अय्याशी करने के सपने देखते हैं।

मुन्नी को मेरा शायद ये सब करना अच्छा नहीं लगता था। वो हमसे शुरु के दिनों से ही कुछ नहीं बोलती,अपना काम करती और चली जाती लेकिन एक दिन उसने कहा- भइया,जब आप सब कर ही लेते हैं तो हमको किसलिए रखे हैं? आप इ सब मत किया कीजिए। मैं उस दिन बहुत खुश हुआ-चलो,मुन्नी के मुंह से बकार तो निकला। कुछ तो बोली। मैं उससे कुछ और भी बातें करना चाहता था। अच्छा दीदी- आप कहां से आती है। उसने कहा-यहीं बगल से। आपके पति क्या करते हैं? वो बहुत साल तक डागडर के यहां रहा था तो अब मोहल्ला में डागडरी करता है। मुझे अच्छा लगा कि चलो,मुन्नी से सुबह-सुबह थोड़ी बात की जा सकती है। दिनभर तो भूत-पिशाच की तरह दिन काटने ही होते हैं।

दीदी,आपको मसाला देने का मन हो तो फ्रीज से निकालकर थोड़ा दे दिया कीजिए।..मुन्नी ने जबाब में दूसरी बात कह दी- भइया,आप हमको दीदी मत बोला कीजिए,मेरा नाम मुन्नी है। आपकी जो दोस्त हैं न,उ दीदी भी हमको मुन्नी ही बोलती है। अच्छा नहीं लगता है,आप हमको दीदी बोलते हैं तो। मैंने पूछा, क्यों? मुन्नी का जबाब था- काहे कि आप हमसे बड़े हैं न। मैंने कहा-मुन्नी,जिसकी शादी पहले हो जाती है,वो बड़ा हो जाता है। आपकी पहले हो गयी तो आप हमसे बड़ी हो गई। नहीं भइया,ऐसे थोड़े होता है,गांव में तो 12-14 साल में बहतों का शादी हो गया है तो क्या हम उ सबको दीदी बोलेंगे। आप हमको मुन्नी बोलिए। मुन्नी से बात करके आज उत्साह के बजाय भीतर से बहुत ग्लानि हुई।

दीदी बोलकर हम मुन्नी की पूरी पहचान को निगल जा रहे थे। कोई भी काम करने आए,ये क्या कि हम सबको दीदी ही बोले। मुन्नी को इस संबोधन से ही शायद चिढ़ थी। मेरी एक दूसरी दोस्त जो मेरी आंखों के सामने करीब पांच लोगों को घर का काम करने के लिए बदला लेकिन सबों को राम नाम से ही बुलाती। मैंने उससे पूछा था- यार,ये कैसे संभव है कि तुम जिस किसी को भी काम पर रखती हो,उसका नाम राम ही रहता है। उसने कहा- नहीं,नाम तो कुछ और होता है,लेकिन हम उसे राम नाम रख देते हैं,उसके आते ही। मैं दिनभर में सबसे ज्यादा उसे ही बुलाती हूं तो अच्छा है न इधर-उधर का नाम लेने के बदले राम ही नाम ले लो। इसी बहाने कुछ तो पुण्य अर्जित हो जाता है। मुझे तब नौकर की कमीज बार-बार याद हो आता और फिर ऐसा हुआ कि उसके यहां मेरा जाना इसी कारण से छूट गया कि वो बहुत ही तंग दिमाग की लड़की है। आज दीदी के बदले जब मैंने मुन्नी कहा तो अटपटा तो जरुरु लग रहा था लेकिन सोच रहा था- कहीं मुन्नी ने भी तो नौकर की कमीज नहीं पढ़ ली है? औऱ नहीं तो फिर ऐसा क्यों है कि वो नौकर की कमीज न पढ़कर भी पहचान को लेकर हमसे ज्यादा सतर्क है जबकि हम पढ़कर वैसे ही तंग के तंग रह गए जैसे कि न भी पढ़ते तो होते। रचना का हमारे उपर अपनी दोस्त से घृणा करने तक का असर हुआ,खुद अपने उपर नहीं।

कल मुन्नी का आखिरी दिन है। उसके बाद से वो नहीं आएगी। पहले से ही तय था कि वो मेरे यहां सिर्फ 15 दिनों के लिए ही आएगी। मेरा मन करता है कि कल जब वो जाने लगेगी तो हिम्मत जुटाकर पूछ ही लूंगा- मुन्नी,एक बात पूछूं? तुमने बताया कि तुमने बिहार बोर्ड से मैट्रिक की परीक्षा पास की है,क्या तुमने नौकर की कमीज पढ़ी है? नहीं पढ़ी है तो पढ़ना न,तुम्हें पता चलेगा कि हम जैसे सरोकारी बननेवाले लोग दिमागी तौर पर कितने तंग और कमीने होते हैं। 

तस्वीरः आर्टिस्ट ऋचा लखेड़ा( एंकर, ग्लैमर शो. एनडीटीवी इंडिया) की वेबसाइट से साभार
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कड़वे से परहेज क्यों?

Posted On 12:32 pm by विनीत कुमार | 4 comments

पिछले कुछ सालों से निजी समाचार चैनलों की साख और प्रासंगिकता को लेकर जो सवाल खड़े हुए हैं, वह उसके लिए अब स्थायी चिंता का विषय बन गए हैं। हाल की  घटनाओं को देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में अपनी साख बुरी तरह गंवा चुकने के बाद चैनलों ने अन्ना के कार्यकर्ता बनकर अनशन को डैमेज कंट्रोल की तरह इस्तेमाल करके की जो कोशिश की,वह फार्मूला भी काम नहीं आया। 7 अक्टूबर को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी और अब भारतीय प्रेस परिषद के नए  अध्यक्ष  मार्कण्डय काटजू ने चैनलों के चरित्र पर जो बयान जारी किए,उससे स्पष्ट है कि आनन-फानन में स्ट्रैटजी तय करके चैनलों के लिए अपने किये पर पर्दा डालना पहले जैसा आसान नहीं रह जाएगा। इतना ही नहीं,आनेवाले समय में सरोकार और लोकतंत्र के नाम पर मुनाफ़ा कमानेवाले कार्पोरेट चैनलों की जिन गड़बड़ियों को महज नैतिकता और कर्तव्य के दायरे में बात करके छोड़ दिया जाता रहा, अब इसके लिए आर्थिक रुप से भारी कीमतें भी चुकानी पड़ सकती है।  


टीवी चैनलों में गंभीरता लाने की घोषणा के साथ 7 अक्टूबर को मंत्रिमंडल ने टेलीविजन चैनलों के लिए जिस नई अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी है,वह दरअसल 11 नबम्बर 2005 से लागू गाइडलाइन का ही संशोधित लेकिन अधिक ताकतवर रुप है। इस कड़ी में एक तो पंजीकरण के लिए शुद्ध संपत्ति की राशि 3 करोड़ से बढ़ाकर 20 करोड़ कर दी गयी है वहीँ दूसरी ओर यह शर्त रखी गई है कि चैनल के लिए लाइसेंस मिलने के एक साल के भीतर संबंधित संस्थान को प्रसारण शुरू करना होगा. सबसे जरुरी बात यह है कि अगर कोई चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन से संबंधित निर्धारित नियमों का उल्लंघन करता है तो उसका लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा और अगले दस साल के लिए दिए जाने वाले लाइसेंस को दोबारा जारी नहीं किया जाएगा।

समाचार चैनलों से जुड़े लोगों और संगठनों ने 7 अक्टूबर से ही इस गाइडलाइन के खिलाफ माहौल बनना शुरु कर दिया और इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बताया। चैनलों ने इसका विरोध दो स्तरों पर किया- एक तो यह कह कर कि सरकार मीडिया की आवाज को दबाना चाहती है और दूसरा कि वह अफसरशाही के तहत इसे चलाना चाहती है,जबकि उसमें शामिल लोगों को इसकी बिल्कुल भी समझ नहीं है। इस विरोध के दौरान चैनलों के पक्ष में काम करते आए संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को एक बार फिर से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और सामाजिक सरोकार का वाहक के तौर पर प्रस्तावित किया और इस गाइडलाइन की तुलना आपातकाल के दौरान सरकारी नीतियों से की। गाइडलाइन की मंजूरी और इस विरोध के तीन दिन बाद सूचना और प्रसारण मंत्री ने आश्वासन दिया कि जिन पांच गलतियों पर सजा देने की बात की गई है,उसके निर्णय में चैनलों से संबंधित लोगों को भी शामिल किया जाएगा और उनके विचारों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसका मतलब है कि जिस गाइडलाइन को चैनल और उनके संगठन हमारे सामने लोकतंत्र पर हमले के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं,उसके भीतर चैनल से जुड़े लोगों की भूमिका बनी रहेगी।

चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठन जब इस गाइडलाइन का विरोध कर रहे थे,उस समय यह भी कहा गया कि यह गाइडलाइन दरअसल अन्ना आंदोलन में सरकार की हार की परणति है और चूंकि मीडिया ने सच का साथ दिया इसलिए उस पर शिकंजा कसा जा रहा है। यह एक हद तक संभव हो सकता  है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल  ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित इस गाइडलाइन को ठीक ऐसे समय में मंजूरी दी है जब चैनलों ने सरकार को छोड़  भावावेश में आई आम जनता का साथ दिया। लेकिन इस गाइडलाइन के बनने की प्रक्रिया और समय पर गौर करें तो 22 जुलाई 2010 को ही भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) ने अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग से संबंधित गाइडलाइन की रुप-रेखा तैयार की थी और उसी के परामर्श पर यह नई गाइडलाइन लाई गई. यह अन्ना से नहीं चैनलों के धंधे में ताकतवर रीयल इस्टेट से निबटने के लिए था। ऐसे में चैनल इसे अन्ना की कवरेज की परिणति बताकर दरअसल राजनीतिक रंग देना चाह रहे हैं।। लेकिन

भारतीय प्रेस परिषद् के नए चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू ने टेलीविजन चैनलों के रवैये पर चिंता जाहिर करते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए मौजूदा सरकार सहित विपक्ष के नेताओं से विमर्श करके परिषद् को और अधिकार दिए जाने की जो बात की है,वह चैनलों की सिर्फ हाल की घटनाओं पर बात करने के बजाय उसके पूरे चरित्र पर की गई टिप्पणी है जिसके विस्तार में जाने पर उसकी नीयत पर बात की जा सकेगी। काटजू ने अपने बयान में स्पष्ट तौर पर कहा कि चैनल सनसनी फैलाने के लिए गलत संदर्भों को शामिल करते हैं,तथ्यों को सीमित दायरे में लाकर प्रस्तुत करते हैं और घटनाओं की प्रस्तुति इस तरह से करते हैं कि वे अंत में जनविरोधी साबित होती  हैं। काटजू के इस बयान को चैनलों से संबंधित संगठन बीइए( ब्राडकास्ट एडीटर एशोसिएशन) ने तर्कहीन करार देते हुए उन्हें मीडिया का अज्ञानी कहा और अपने पक्ष में कुछ उदाहरण पेश किए। यह अलग बात है कि जस्टिस मार्कण्डय काटजू 'द हिन्दू' सहित दूसरे मंचों पर मीडिया,समाज और संस्कृति पर लंबे समय से लिखते आए हैं।

इस पूरे मामले पर गौर करें तो मूलभूत सवाल यही है कि क्या करीब 314 बिलियन के  टेलीविजन चैनल उद्योग को सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है जिसमें वे समाचार चैनल शामिल हैं जिनकी खबरें,कार्यक्रम,एजेंड़े और पक्षधरता बैलेंस शीट की सेहत और टीआरपी चार्ट के हिसाब से तय होती हैऐसे में इस नई गाइडलाइन को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कसनेवाली नकेल के बजाय मीडिया उद्योग पर लागू की जानेवाली शर्तें के तौर पर देखा-समझा जाए तो क्या इसके मायने वही निकलेंगे जो कि चैनलों और उनके पक्ष में खड़े संगठनों की ओर से प्रचारित किए जा रहे है?
दूसरी बात,चैनल अपनी जरुरत के अनुसार बनाए गए संगठनों को पारदर्शिता बरतने और मीडिया के बेहतर बने रहने के लिए पर्याप्त मानते हैं। क्या जब से ऐसे संगठन निर्मित हुए हैं,ऐसा कोई  उदाहरण हमारे सामने आया  है  जिसकी बिना पर इन्हें यह वैधता दी जा सके कि इनकी मौजदूगी से चैनलों के भीतर के कंटेंट और स्थिति में सुधार हो सकेगामसलन

 22 जुलाई 2008 को अमेरिका से परमाणु करार मामले पर संसद में वोट के बदले नोट कांड हुआ और सीएनएन-आइबीएन ने भाजपा के साथ मिलकर स्टिंग ऑपरेशन किया,जिसे उस दिन तो लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर प्रसारित नहीं किया लेकिन भारी दबाव के कारण तीन सप्ताह बाद इस टेप को प्रसारित किया गया जिसमें कि कई जगहों पर छेड़छाड़ की बात सामने आयी और चैनल ने अपनी तरफ से कुछ हिस्सों को हटा दिया। इस संबंध में चैनल से लिखित वजह मांगी गयी लेकिन उसने आज तक इस संबंध में कुछ भी नहीं बताया। चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठनों ने क्या इस संबंध में कोई बात हम तक पहुंचाई?

13 अगस्त 2010 को गुजरात के मेहसाना में एक शख्स आग लगाकर आत्महत्या कर लेता है जिसके पीछे एक मीडिया संस्थान के दो पत्रकारों पर आरोप है कि उसने उसे इस काम के लिए उकसाया। इस बाबत ठीक दस दिन बाद यानी 27 अगस्त को दिल्ली में ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आ जाती है। कुल दस पन्ने की रिपोर्ट में जो कि एक ही तरफ छपाई है, 4 पन्ने कवर,कंटेंट और सिग्नेचर के पन्ने हैं। सिर्फ 6 पन्ने पर केस स्टडी है,उसमें सारी बातें समेट दी जाती है और टीवी-9 के जो एक्यूज्ड पत्रकार है कमलेश रावल,उनसे फोन पर बात करने के अवसर का जिक्र भर है। यह सब खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद हमें मेहसाना में आत्महत्या करनेवाले शख्स के बारे में मीडिया की तरफ से कोई जानकारी नहीं है। अगर ये मामला कोर्ट,पुलिस के अधीन है तो इसकी फॉलोअप स्टोरी हमें कहीं दिखाई नहीं दी और चैनलों के संगठन ने उसके बाद से इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं की।

इसके अलावे उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन में फंसा पत्रकार औऱ चैनल आज भी मौजूद हैं ,2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में दागदार हुए मीडियाकर्मी पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर बनकर काम कर रहे हैं। कार्यवाही के नाम पर सिर्फ चैनल या उनके पद बदल गए हैं। ऐसे में सवाल है कि सरकार जिन चैनलों के लोगों को गड़बड़ियों पर निर्णय लेने के लिए शामिल करेगी,उनका अब तक का रवैया कैसा रहा है और क्या वे अब तक पर्दा डालने से अलग कुछ कर पाएंगे? क्या ऐसे मीडियाकर्मी और संगठन गड़बड़ी करनेवाले चैनलों और मीडियाकर्मियों के खिलाफ निर्णय लेने की स्थिति में हैं?फिलहाल चैनलों की प्रेस रिलीज पर भरोसा करके अगर हम सरकार के बजाय इनके पक्ष में खड़े भी होते हैं तो क्या सच में हम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ होते हैं  
(मूलतः प्रकाशित- जनसत्ता,6 नवम्बर 2011)
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सोनिया सिंह आजतक की पुरानी और बेहतर मानी जानेवाली एंकर है। अपनी सीमित और कम जानकारी के बावजूद अच्छी बुलेटिन कर जाना उनकी खास पहचान है। हम उन्हें पिछले छह-सात सालों से आजतक के पर्दे पर देखते आए हैं और कई बार चक्के पे चक्का कार्यक्रम में दिखाई जानेवाली गाड़ियों जैसी स्पीड से किन्तु स्पष्ट तरीके से खबरें पढ़ने को लेकर प्रभावित भी हुए। लेकिन आज उन्होंने बुलेटिन के दौरान जो काम किया,अगर किसी दूसरी या नई एंकर ने किया होता तो आजतक उन्हें हिदायत या फिर छुट्टी तक पर जाने की बात कर देता। चैनल शायद ही उसकी इस लिजलिजेपन को बर्दाश्त कर पाता।


मामला साहित्यकार और राग दरबारी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल के निधन पर पढ़ी जानेवाली खबर को लेकर है। आगे बातचीत करने के पहले ये कहना जरुरी होगा कि किसी भी चैनल के मीडियाकर्मी और एंकर के लिए साहित्य के प्रति गहरी समझना उसके बेहतर होने का पैमाना शायद नहीं हो सकता और वो भी तब जबकि खुद न्यूज चैनलों में साहित्य से जुड़ी खबरों का कोई मतलब नहीं रह गया है। साहित्य के लोग बस इस बात पर खुश हो सकते हैं कि चलो कहीं कोई तो खबर आयी। नहीं तो साहित्यकारों को कौन पूछता है। ऐसे में आजतक ने श्रीलाल शुक्ल के निधन पर खबर प्रसारित की इसके लिए शुक्रिया। हां ये जरुर है कि श्रीलाल शुक्ल को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रशासनिक स्तर पर थोड़ी बहुत ही सही चहल कदमी नहीं होती तो श्रीलाल शुक्ल के अंतिम संस्कार होने तक भी शायद ही कोई खबर बनने पाती या फिर अगर उन्हें हाल ही में ज्ञानपीठ न मिला होता तो भी शायद सुध न ली जाती। हो सकता है कि राग दरबारी की वजह से ही दो लाइन की ही सही,खबर चल जाती। खैर,

श्रीलाल शुक्ल के निधन की खबर को लेकर आजतक की स्क्रीन पर ग्राफिक्स मौजूद थे। एक तरह श्रीलाल शुक्ल की एक स्टिल और दूसरी तरफ उनसे संबंधित कुछ जानकारियां। इन जानकारियों में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके आधार पर आप कह सकें कि चैनल ने इस खबर के पीछे कोई अतिरिक्त मेहनत की हो। गूगल सर्च(हिन्दी में श्रीलाल शुक्ल टाइप करने के बाद) से उनके बारे में जो कुछ भी मिला,वो चैनल के लिए पर्याप्त था। इससे कहीं अधिक जानकारी उनकी किताबों की फ्लैप पर हुआ करती हैं। बहरहाल,सोनिया सिंह का काम बस इतना भर का था कि उस ग्राफिक्स को ठीक-ठीक पढ़ जाए और फिर ग्राफिक्स जो थोड़े समय के लिए स्टिल तरीके से स्थिर हैं और समय का गैप बना है,उसमें लिखे के अलावे या तो कुछ बोले या फिर उसे ही आगे -पीछे करके दोहराए। लेकिन हमें लगा कि  आतंकवाद से लेकर पूजा-पाठ,खेल-खिलाड़ी,गाड़ी-घोड़े पर धुंआधार बोलनेवाली सोनिया सिंह के प्रति इतनी भी उम्मीद करके कुछ ज्यादा ही गुनाह कर गए। स्क्रीन पर साफ लिखा था- 2009 के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार। सोनिया सिंह ने पढ़ा- 2009 में मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार। उसके बाद वो ग्राफिक्स स्थिर रहता है। सोनिया सिंह इस बीच लोलिआने लग जाती है। वो इतना भी नहीं कर पाती कि अब तक जो जानकारी उसके पास है,उसे क्रम से दोहरा ही दें। चैनल के पास न तो कोई विजुअल्स थे और न ही स्टिल को जोड़कर ही कुछ बनाने में वो समर्थ नजर नहीं आया। हद तो तब हो गई जब करीब 12 सेकेंड के लिए सोनिया सिंह एकदम से चुप्प हो गई। कुछ भी नहीं बोला। पहले तो अssssss किया और फिर मुंह से बकार तक नहीं निकली। हम उम्मीद कर रहे थे कि हो सकता है इसके बाद कुछ बोले क्योंकि स्कूल के जमाने में हमने देखा था कि कई बार बच्चे रटकर भाषण देते थे तो अचानक से भूल जाते थे और फिर जैसे ही याद आया,फिर से रौ में शुरु हो जाते थे। लेकिन सोनिया सिंह एक बार चुप हुई तो करीब 12 सेकेंड बाद धमाकेदार तरीके से हमें सुनाई और दिखाई दिया- आजतक,दमदार 10 साल।  

 इधर सोनिया सिह जब चुप्प थी और मुंह से बकार तक नहीं निकल रही थी तो उस समय स्टूडियो के आसपास की आवाज बहुत ही तेज और साफ सुनाई पड़ रही थी जिससे कि खबरों के प्रति न सिर्फ गंभीरता खत्म हो रही थी बल्कि बहुद ही भौंड़ापन लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि इधर पान-बीड़ी की दूकानों पर कोई हील-हुज्जत चल रही हो। हां बीच में एक बार नामवर सिंह जरुर सुनाई दे गया।

वैसे सोनिया सिंह और खुद आजतक के लिए ये कोई बड़ा बात न हो लेकिन हम जैसे दर्शकों के सामने इस बात को लेकर दो-तीन स्तरों पर गंभीरता से सोचने की जरुरत बनती है। पहली बात तो ये कि क्या ये मामला किसी न्यूज एंकर के साहित्यकारों के बारे में जानने और न जाननेभर से हैं? अगर ऐसा है तो फिर एंकर तो देश और दुनिया के कई लेखकों,चित्रकारों,कलाकारों और व्यक्तित्वों के बारे में नहीं जानता तो क्या इसका मतलब ये हो कि वो इसी तरह लोलिआने लग जाए? क्या टेलीविजन के भीतर इस बात की अनिवार्यता नहीं बनती कि चीजों को लेकर एंकरों के पास कम से कम बेसिक समझ और जानकारी तो हो ही। न भी हो तो स्क्रीन पर उतरने के पहले उसे दुरुस्त कर ले। दूसरी बात कि ये मामला एक लेखक से जुड़ा है और चूंकि इनके बीमार रहने की खबर पिछले कई दिनों से अलग-अलग माध्यमों से हम तक आ रही थी तो हमने पकड़ लिया कि सोनिया सिह की खबर पढ़े जाने में क्या खोट थी? लेकिन क्या ये अकेला मामला है जिसमें वो भारी फम्बल और लोलिआने के बीच निकल गई। ऐसा भी तो होता होगा कि जिस धुंआधार तरीके से खबरें पढ़ी जाने के कारण हम प्रभावित होते रहे हैं,उसके बीच बहुत कुछ ऐसा अल्ल-बल्ल बोल जाया करतीं होगी जिसका कि तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं होता होगा। अगर ऐसा है जिसकी कि बहुत अधिक गंजाईश है तो सचमुच ये कितना खतरनाक है। टेलीविजन में आए नए लोगों को अक्सर कोसा जाता है कि उन्हें चीजों के प्रति कोई समझ नहीं है। लेकिन सोनिया सिंह जैसी सालों से टेलीविजन पर बना रहनेवाली एंकर की ये हालत है तो आपको नहीं लगता कि नए लोगों को कोसना,दरअसल उनकी कमियों को अपने उपर पर्दे की तरह इस्तेमाल करने जैसा है? ये वो मौका है,जहां नए लोगों को नसीहतें देने के पहले पुराने और सालों से जमें एंकरों को अपने भीतर के खोखलेपन और भुरभुरी जानकारी को देखने-परखने की जरुरत है?
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर
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न्यूज24 के बारे में हमें जानकारी मिली कि वहां के मीडियाकर्मियों को दीवाली के मौके पर प्रिया गोल्ड बिस्किट के गिफ्ट पैक दिए गए। इसके अलावे न तो किसी तरह की बोनस और न ही चैनल की कोई निशानी ही। लिहाजा,उसे हमने फेसबुक पर साझा किया। फेसबुक पर एक के बाद एक कमेंट आने शुरु हुए जिसमें ये बताया गया कि कुछ चैनलों की हालत तो न्यूज 24 से भी खराब है। जो मीडियाकर्मी सार्वजनिक तौर पर कमेंट नहीं कर सकते थे,उन्होंने बारी-बारी से हमें फोन करके बताना शुरु किया कि उनके यहां तो तीस रुपये की कुरकुरे पैकेट में ही निबटाने पर राय-मशविरा चल रहा है,कुछ ने कहा कि हमारे यहां तो वो भी नहीं दिया गया। बात गिफ्ट पैक से शुरु हुई थी और वो सैलरी तक आकर विस्तार पाने लगी। अभी सबकुछ फन में चल रहा था,लोग एक-दूसरे चैनल की बात बताकर मजे ले रहे थे लेकिन आज सुबह जो फोन मेरे पास आया,उसे सुनकर फन का ये अंदाज एक मिनट में अवसाद में बदल गया। लगा कि न्यूज चैनलों के भीतर की जो बिडंबना है वो 32 रुपये की मांटेक सिंह वाली हैप्पी इंडिया से भी ई गुना बदतर है।

उसकी आवाज में एक खास किस्म का दर्द था। सर,तीन दिन से सोच रहे थे कि एचआर कुछ पैसे दे देगा तो घर जाने में राहत होगी। घर जाने के लिए टिकट बनी हुई है लेकिन जेब में सिर्फ दो सौ रुपये हैं। अभी कुछ दिन और दिल्ली में काटकर,ऑफिस की ड्यूटी बजाने के बाद जाना है। ऐसे में अगर सैलरी नहीं मिली तो हम क्या करेंगे? क्यों,तुम्हारे पास कुछ बचे पैसे भी तो होंगे और फिर किसी कूलीग से ले लेना। मेरे इस सवाल पर उसका और भी उदास कर देनेवाला जबाब था- सर जिनकी सैलरी पचास हजार से उपर है,उन्हें तो जुलाई से ही सैलरी रोक दी गई है और बाकी हम जैसे लोगों को अगस्त के बाद से पैसा ही नहीं मिला है। दीवाली में उम्मीद थी कि कुछ पैसे मिल जाएंगे,कुछ नहीं हुआ और उपर से आज के दिन भी शिफ्ट। नरक है सर नरक। मेरे मन में न जाने क्या आया-बेतुका सा सवाल कर गया- अच्छा ये बताओ,तुम्हारे यहां चाय-कॉफी की मशीन तो लगी होगी। ले आओ बिस्किट और पीओ दबाकर चाय। मैं तो ऑफिस की खुन्नस इसी तरह उतारा करता था। मुझे इन्टर्नशिप के दौरान वीडियोकॉन टावर की सातवीं मंजिल की वो बालकनी याद हो आयी जहां मैं और मेरा एक लेखक दोस्त चेनस्मोकर की तरह चाय पीते। खैर,उसका जबाब था-

सर,कहां रहते हैं आप? ऑफिस क्यों लगाएगी मशीन? ठीक से पानी का इंतजाम हो जाए वही बहुत है। आज तो ऑफिस में मातम-सा माहौल है। एख तो लोग बहुत कम आए हैं,उपर से सैलरी नहीं मिली है तो लोगों ा मन वैसे ही बुझा हुआ है। लगा कि कुछ नहीं तो आज की शिफ्ट में जो हैं,उन्हें मिठाई बांटी जाएगी,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो जब सबकुछ ऐसा बता रहा था तो लग रहा था कि कलेजा कट रहा हो। दीवाली पर मैंने भी कोई तैयारी नहीं थी,बस ये था कि दोपहर तक काम पूरी करके अच्छे से नहा लिया जाएगा और जो कुछ रखा-पड़ा है,उसे गर्म करके खा लेंगे। फोन पर चौदह बार दी गयी मां की नसीहतें और अधिकार जताने की हद तक सलाह देनेवाले  दोस्तों ने जब कहा -इंटल मत बनने लगना ज्यादा,मातम नहीं मनाने लगना कुछ नहीं तो मिठाई खा लेना और कैंडिल जला लेना तो लगा चलो थोड़ी ही सही तैयारी कर लेगें,उनका मन रखनेभर के के लिए। लेकिन फन में फेसबुक पर लिखी गई इस स्टेटस ने मन को एक के बाद एक कसैला कर दिया। बहरहाल

स्क्रीन पर दुनियाभर के चटकीले रंग शामिल कर लिए गए हैं। फैब इंडिया की भारतीयता से पूरा चैनल अटा पड़ा है। डार्क कत्थई,मरुन,बॉटल ग्रीन,गुलाबी जैसे रंगों में लिपटी चैनलों की एंकर दुनिया को बता रही है कि पूरे देश में कैसे दीवाली को लेकर धूम मची हुई है? मुझे तो हैरानी इन एंकरों पर होती है कि हजार-बारह सौ की सूट-सलवार और साड़ी में दुनिया को इतनी बड़ी खुशफहमी में रखने की कला कैसे सीख जाती है? वो बुलेटिन पढ़ने से पहले या बाद में क्या एक बार भी कैमरामैन,पीसीआ,फ्लोर मैनेजर औऱ स्पॉट ब्ऑय की तरफ नजरें नहीं घुमाती,अगर ऐसा नहीं करती तो सचमुच कितनी प्रोफेशनल है और घुमाने के बाद भी ऐसे ही खुशहाल इंडिया की खबरें पढ़ती चली जाती है तो सच में एक क्रूर कला है जिसका तेजी से विकास हो रहा है। मुझे तो ग्राफिक्स डिजायनरों पर भी हैरानी होती है कि क्या खाकर स्क्रीन पर इतने रंग भर देते हैं? माफ कीजिएगा,मैं एनडीटीवी की पैदा की गई पत्रकारिता की इस वरायटी को बिल्कुल भी फॉलो नहीं करना चाह रहा था कि जिस समय पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा हो,ठीक उसी वक्त किसी बच्चे को भीख मांगते दिखा दो। लेकिन यहां तो स्थिति उससे भी बदतर है। चैनल मंहगाई बम और मिठाई में मिलावट दिखाकर सरकार और सेठों की दीवाली तो जरुर खराब करने की कोशिश करता है लेकिन चैनल के भीतर का जो सच है,उस पर कौन बात करेगा?

उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करनेवाले चैनल लाइव इंडिया का आका सुधीर चौधरी ट्विट करता है- So Diwali celebrations begin! Here is the first shot by my son. yfrog.com/h7yjayesj। लेकिन उसकी इस ट्विट से वहां के मीडियाकर्मियों पर क्या बीतेगी,इसकी चिंता उसे रत्तीभर नहीं है। एक ने नाम बदलकर लिखा-इस दिवाली ये अपने बेटे के साथ पटाखे जलाता ट्वीट कर रहा है. चैन की बंसी बजा रहा है लेकिन लाइव इंडिया के लोग बिना सैलरी बिना बोनस काली दिवाली मनाने को मजबूर हैं "।  ये उस मानसिकता के मीडिया मैनेजर हैं जिनके हिसाब से मरनेवालों के साथ मरा नहीं जाता में यकीन रखते हैं लेकिन वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि पटाखे में लगायी जानेवाली आग कभी उन तक भी पहुंच सकती है।

आप मीडियाकर्मियों की उस मनःस्थिति की कल्पना करें जो दीवाली के नाम पर एक से एक सॉफ्ट और खुशहाली दिखानेवाली स्टोरी बना रहा हो लेकिन उसके भीतर रत्तीभर भी इस पर्व को लेकर उत्साह नहीं है। उसके पास इतने भी पैसे नहीं है कि वो आज के दिन कायदे से खा सके। बीबी-बच्चों के लिए कुछ घर ले जा सके। चैनलों का जो चमकीला चेहरा दिखता है,स्क्रीन पर पूरी दुनिया के सामने जो दिखाया जाता है,उसके भीतर कितना बड़ा काला सच दबा है,ये तब तक हमारे सामने उभरकर नहीं आएगा जब तक कि मीडियाकर्मी स्वयं इसके खिलाफ नहीं उतरेंगे और हमें पूरी उम्मीद है कि वो नहीं उतरेंगे। वो आज के इस मीडियाकर्मी की तरह ही हम जैसों को फोन करेंगे और बाद में कई बार दोहराएंगे,कुछ लिख मत दीजिएगा।

मुझे उसकी पूरी बात फोन पर सुनकर गुस्सा आ रहा था। थोड़ी देर के लिए उस पर और बाकी समय उस मीडिया संस्थान पर जहां के लिए वो काम कर रहा है। मैंने एक सवाल किया- काशी का अस्सी पढ़े हो? उसने कहा-नहीं। नहीं पढ़े हो तो पढ़ लो और जिस तरह से काशीनाथ सिंह बनारस के लोगों के बारे में लिखते हैं न कि दुनिया को लौड़े पर लेकर चलना यहां के लोगों की आइडेंटिटी है,उसी तरह से जीना शुरु करो। अपने अभाव को अपने उपर हावी होने देने से अच्छा है जाने दो होली,दीवाली,दशहरे को तेलहंड़े में। छोड़ों इन बातों पर भावुक होना या नहीं तो एक काम करो- जिस मीडिया हाउस में काम करते हो,उसका नाम टीशर्ट पर लिखकर जाकर उन्हीं मंदिरों और आश्रमों के आगे दो-चार दिन बैठ जाओ,जहां चैनल को सबसे बेहतरीन फुटेज मिलती है और जो कन्सर्न स्टोरी में लगाने के काम आती है। इसने तुम्हारी दीवाली खराब की है,तुम इसकी ब्रांड खराब करो। लिखो कि- इस चैनल में नौकरी की तो दीवाली जाएगी तेलहंड़े में। मेरी इस राय पर वो ठहाके लगाने लग गया लेकिन मुझे यकीन है कि वो ऐसा कभी नहीं करेगा। फिर किसी को फोन करेगा और इस दीवाली का रोना रोएगा, वो अभिशप्त है कहानी सुनाने के लिए और हम अभिशप्त है देश के बूढ़े,लाचार,भिखमंगे से कहीं ज्यादा ऐसे मीडियाकर्मियों के प्रति सहानुभूति रखने के लिए।
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गजीत सिंह नहीं रहे। इस खबर को सुनने के बाद मेरे दिमाग में सबसे पहली पंक्ति आयी – टोरेक्स कफ सिरप है तो अलविदा खांसी। खांसी का मौसम तो अभी शुरू ही हुआ है, नये सिरे से टोरेक्स कफ सिरप की बिक्री और विज्ञापन का दौर अभी शुरू ही हुआ है कि उससे पहले ही इस सिरप को लेकर दावे करनेवाला शख्स हमारे बीच से चला गया। जगजीत सिंह के लाखों कद्रदानों के लिए ये अफसोस और एक हद तक नाराज हो जाने तक की भी बात हो सकती है कि जिस शख्स ने जिंदगी और मौत के बीच लगभग सारे मनोभावों और अनुभूतियों को स्वर दिया, उसके गुजर जाने के ठीक बाद हम जैसों को टेलीविजन में ही सूचना, ज्ञान, आनंद, एक हद तक जीवन और इजहार के शब्द खोजनेवाले फटीचरों को उनकी कोई गजल की पंक्ति या नज्म याद आने के बजाय खांसी दूर करने के विज्ञापन याद आते हैं। आज इस सिरप कंपनी ने टेलीविजन चैनलों पर जगजीत सिंह को जमकर श्रद्धांजलि दी और उसी तरह से याद किया, जैसे उनके शागिर्द याद कर रहे हैं। ये बाजार के बीच से पैदा होनेवाली नयी किस्म की संवेदनशीलता है, जो कि अपने ब्रांड एंबेस्‍डर के गुजर जाने के बाद, मातम के बीच भी संभावना की तलाश करती है।

पता नहीं अब जबकि जगजीत सिंह नहीं रहे, उनकी गायकी पर टोरेक्स कंपनी कितना भरोसा करती है, दर्शक इस भरोसे से अपने को कितना जोड़ पाते हैं और इस विज्ञापन के प्रति मिथक और पौराणिक कथा जैसी श्रद्धा पैदा कर पाती है कि नहीं? लेकिन अगर टेलीविजन के विज्ञापन दर्शकों को उपभोक्ता में तब्दील करके बाजार तक पहुंचाने की एजेंसी होने के साथ-साथ, इसका संबंध अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावी व्यक्तित्व और भावनात्मक ट्रेंड को शामिल करने से भी है, तो यकीन मानिए कि कुछेक सालों से जगजीत सिंह के टेलीविजन पर बने रहने की ठोस वजह टोरेक्स कफ सिरप का विज्ञापन रहा है। विज्ञापन की शक्ल में ही सही, उनकी ये मौजूदगी लाखों टीवी दर्शकों को ये बताती रही कि वो इस देश के न केवल सबसे बड़े गजलकार हैं बल्कि उनकी गायकी हर दौर और उम्र के लोगों के बीच प्यार करने और होने की संभावना को जिंदा रखती है। नहीं तो न्यूज चैनलों के लिए जगजीत सिंह की गायकी और जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसके बीच से खबर पैदा की जाती, पैकेज और फिर टीआरपी के बताशे बनाये जाते, उनके अलबमों का भी इस तरह से प्रोमोशन नहीं हुआ करता कि शुक्रवार की शाम रियलिटी शो में जाकर कलाकार ऑन डिमांड बन जाते। ले-देकर ये एक अकेला कफ सिरप का विज्ञापन था, जिसने कि सास-बहू सीरियलों से लेकर “क्या एलियन गाय का दूध पीते हैं” और “तेरी मां की… [बीप]” से होकर गुजरनेवाले हर दूसरे रियलिटी शो और उनके दर्शकों के बीच जगजीत सिंह की मौजूदगी को बनाये रखा। जगजीत सिंह की आवाज और गले के प्रति भरोसा अगर टोरेक्स जैसी कफ सिरप के विज्ञापन के जरिये ही बरकरार रह पाती है, तो ये बाजार और विज्ञापन की तिकड़मी चाल हो सकती है और है भी लेकिन टेलीविजन के जरिये जगजीत सिंह को याद रखने का इसके अलावा और कौन सा विकल्प रह जाता है?
उनकी मौत पर इस प्रसंग को उठाना इसलिए भी जरूरी है कि जिस तरह से चैनलों ने उनकी याद में स्पेशल प्रोग्राम से लेकर खबरों का प्रसारण किया, उससे स्पष्ट हो गया कि पॉपुलरिटी के दावे और प्रसारण के बीच टेलीविजन के खुद के दावे कितने खोखले हैं?
न्यूज24 नाम के चैनल ने अपने कार्यक्रम का नाम दिया – जगजीत सिंह की कहानी, जगजीत सिंह की जुबानी। चैनल ने बड़े शान से बार-बार फ्लैश चलाया – टेलीविजन पर पहली बार। सवाल है कि अगर जगजीत सिंह की कहानी स्‍वयं उनकी जुबानी टेलीविजन पर पहली बार आया, तो ये टेलीविजन या किसी चैनल के लिए गा-गाकर बताने की बात है या फिर डूब मरने की? अव्वल अगर ऐसा कोई पहला कार्यक्रम नहीं होगा, तो चैनल खुद ही झूठ बोल रहा है और सच भी है, तो क्या चैनल के लिेए इस गजलकार की मौत का मतलब दावे और सट्टे लगाने भर के लिए है? मनोरंजन की खबरों से अटे पड़े चैनलों के बीच हम ऐसे ही मौके पर समझ पाते हैं कि मुख्यधारा के नाम पर पनपनेवाले मीडिया मशरूमों ने पॉपुलरिटी के नाम पर क्या किया है? जिस गजलकार को सुनते हुए कम से कम तीन पीढ़ियों के बीच के लोग जवान और बूढ़े होते रहे, इन चैनलों ने उस लोकप्रियता को अपने से बिल्कुल बेदखल कर दिया और लोकप्रियता के नाम पर जो गायक, गीत और गजलें शामिल की जाती रही हैं, वो विशुद्ध रूप से वितरण और प्रोमोशन के बीच की धंधेबाजी का हिस्सा रही है। आज जिस गजलकार के लिए एक तरफ लगभग सारे न्यूज चैनल बता रहे हैं कि उनकी मौत से पूरा देश सदमे है, वहीं दूसरी तरफ एक चैनल ये भी दावे कर रहा है कि उनकी जुबानी पहली बार उनकी कहानी पेश की जा रही है। यह तो अपने ही भीतर के भौंड़ापन को उघाड़कर सामने रख देने काम हुआ, जिसके व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्धि होने के बावजूद टेलीविजन के लिए शर्म से सिर झुका लेनेवाली बात है। इस दावे ने ये स्पष्ट कर दिया कि टेलीविजन ने जगजीत सिंह को पॉपुलर नहीं बनाया जो कि आज उनकी मौत की खबर को बेशर्मी से हथियाने में जुटा है। उनके लगभग सभी कार्यक्रमों में वो आधार और विश्लेषण सिरे से गायब है, जिसने जगजीत सिंह को इतना अधिक पॉपुलर बनाया, जिसके लिए सीएनएन-आइबीएन ने गजलजीत सिंह का प्रयोग किया।
जगजीत सिंह मुख्यधारा मीडिया और सिनेमा से कहीं ज्यादा कैसेट(बाद में सीडी) के जरिये लोगों के बीच लोकप्रिय हुए। पीटर मैनुअल ने अपनी किताब “कैसेट कल्चरः पॉपुलर म्यूजिक एंड टेक्नलॉजी इन नार्थ इंडिया” में संस्थानों, व्यवस्थित मंचों से अलग संगीत के पॉपुलर होने के जिन तर्कों की चर्चा की है, उसके हिसाब से कैसेट ने मुख्यधारा मीडिया के समानांतर एक मजबूत माध्यम का काम किया। जगजीत सिंह की गजलें अगर आकाशवाणी की सत्ता की छन्‍नी से छनकर आती, तो शायद बीच में ही अटक कर रह जाती या फिर जगजीत सिंह पहुंच के स्तर पर दुर्लभ गजलकार करार दिये जाते। इस हिसाब से देखें, तो जगजीत सिंह यदि घर-घर और लाखों जोड़ी कानों के बीच पहुंचे हैं तो उसकी बड़ी वजह इसी समानांतर माध्यमों का योगदान रहा है। यह अलग बात है कि अलग-अलग दौर में इस माध्यम का रूप बदल गया। आकाशवाणी ने देश की संस्कृति का विस्तार करने का जो जिम्मा अपने ऊपर लिया था, उसमें एक तरफ शुद्धतावादी आग्रह (जो कि पॉपुलरिटी के खिलाफ जाती थी) और दूसरी तरफ व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए फिल्मी गीतों के प्रसारण ने संगीत की दुनिया के भीतर किस तरह की सड़ांध पैदा की, वो कल के न्यूज24 के दावे की तरह ही आगे भी खुलकर सामने आते रहेंगे। केशवचंद्र शर्मा ने रेडियो पर लिखी किताब “शब्द की साख” में चर्चा भी की है लेकिन इतना तो तय है कि गजल की दुनिया में जो पॉपुलरिटी जगजीत सिंह की बन रही थी, उसमें बहुत बड़ा हाथ रेडियो जैसे पॉपुलर माध्यम से कहीं ज्यादा कैसेट के कारण रहा। नब्बे के मध्य तक आते-आते जो रेडियो बुरी तरह लड़खड़ाता चला गया, उस वक्त कैसेट और आगे चलकर सीडी और डीवीडी ने ही ऐेसे गजलकारों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ट्रांसफर किया। हां, यह बात जरूर है कि इस कैसेट और सीडी इंडस्ट्री में भी कम झोलझाल नहीं था लेकिन कम से कम लोगों तक गजलों की पहुंच बन जाया करती थी।
अब जबकि एफएम रेडियो के आने के बाद से म्यूजिक ट्रैक को लेकर जो नये किस्म की धंधेबाजी, जिसे कि आप संगीत की दुनिया में माफियाराज का कायम होना कह सकते हैं, उसमें एक बार फिर से वही बर्बरता कायम हो गयी, जो कि कभी आकाशवाणी के जमाने में थी। फर्क सिर्फ इतना है कि आकाशवाणी की बर्बरता राजनीतिक और सत्ता की हैसियत के आधार पर कायम थी, अब एफएम चैनल पूरी तरह पैसा आधारित हो गये हैं। ऐसे में जगजीत सिंह की गजलें छोटे शहरों के एफएम पर या फिर वितरण से बाहर के गणित की गजलें नहीं बजती हैं, तो इस माफियाराज के संगीत की दुनिया का ही कारनामा है, लोग पसंद नहीं करते का तर्क नहीं है। ऐसे में एक बड़ा अफसोस तो रहेगा ही कि जीते जी जगजीत सिंह ने अपने उन कद्रदानों के लिए इस लिहाज से कोई लड़ाई नहीं लड़ी, जो उन्हें थोड़ा सुनकर आनंदित तो होते रहे, उनके कद को बड़ा करते रहे लेकिन जो इस नये संगीत माफियाराज के हाथों धीरे-धीरे बेदखल भी होते रहे। यूट्यूब की उम्मीद पर पलनेवाली मनोरंजन की दुनिया से इस तबके के लोग तो और भी अनजान और संसाधन के स्तर पर असमर्थ हैं। वैसे कहने को तो यह जरूर कहा जाएगा कि जगजीत सिंह की पॉपुलरिटी में हमेशा से समानांतर मीडिया ने बड़ा योगदान दिया जो कि अब यूट्यूब तक आकर ठहरती है। आगे दूसरे माध्यमों के विकास के बाद वो जगजीत सिंह को कितना आगे ले जाते हैं, यह देखना बाकी होगा।
सवाल है कि कैसेट संस्कृति के बीच से लोकप्रिय होनेवाले जगजीत सिंह ने गजल की दुनिया में आखिर क्या कर दिया कि गजल सुनने और न सुननेवालों के बीच की विभाजन रेखा खत्म होती जान पड़ती है। मतलब ये कि जो अटरिया पे लोटन कबूतर रे और ए स्साला, अभी-अभी हुआ यकीं (जेड जेनरेशन) सुननेवाला भी शाम से आंख में नमी सी है गुनगुनाता है और वो इस बात का दंभ नहीं भरता कि गजल सुन और गुनगुना रहा है बल्कि जगजीत सिंह को सुन और गुनगुना रहा है? चैनलों पर रजा मुराद की बाइट चली, “पूरी दुनिया में गजलों को जो लोकप्रियता मिली है वो दरअसल जगजीत सिंह की बदौलत मिली है। पहले गजलों में इतने मुश्किल अल्फाज हुआ करते थे कि आमलोगों के सिर के ऊपर गुजर जाते थे… गजल ने जगजीत सिंह को नहीं नवाजा है बल्कि जगजीत सिंह ने गजल को नवाजा है…” (स्टार न्यूज)। रजा मुराद की बात से स्पष्ट है (जिसकी लड़ाई आकाशवाणी और दूरदर्शन में जमकर चली कि क्या बेहतर संगीत, संस्कृति और कला है और क्या नहीं है) कि गजल को उच्च संस्कृति के तौर पर स्थापित करने की रवायत रही है, जिसका विस्तार गाने और सुननेवाले दोनों में क्रमशः एक खास किस्म के श्रेष्ठताबोध के पनपने का कारण रहा। आज भी आप तथाकथित पढ़े-लिखे समाज के बीच अभिरुचि को लेकर बात करें तो लोग गजल को प्राथमिकता के तौर पर शामिल करते हैं, जिसमें कई बार संभव हो कि ये स्टेटस सिंबल से ज्यादा कुछ नहीं होता। जगजीत सिंह ने गजल को लेकर इस श्रेष्ठताबोध और अकड़ को काफी हद तक खत्म किया और वही इनकी लोकप्रियता का आधार बना। जगजीत सिंह को सुननेवालों में इस बात की न तो कभी हेठी रही कि वो टिप्प-टिप्प बरसा पानी जैसे फिल्मी गानों से कुछ महान सुन रहा है और न ही इस बात को लेकर कभी कुंठा रही कि अगर वो मेंहदी हसन, गुलाम अली और बाकी दूसरे दुर्लभ और मंहगे कंसर्ट/सीडी में उपलब्ध होनेवाले गजलकारों को नहीं सुन रहा है तो गजल के नाम पर गजल का डुप्लीकेट सुन रहा है। उनकी गायकी ने कभी सुननेवालों से दुराग्रह नहीं किया कि तुम भाषा, सोच, चिंतन और ग्राह्यक्षमता के आधार पर खास हो सकोगे, तभी मुझे सुन सकोगे। वो दरअसल जगजीत सिंह को सुन रहा है, उसे चाहे जो भी नाम दिया जाए। कोई विधा किसी व्यक्ति का इस तरह पर्याय बन जाए, तो उसकी लोकप्रियता की जड़ें गंभीरता से खोजी जानी चाहिए।
विनोद दुआ लाइव की टेक रही कि चूंकि जगजीत सिंह की गजलों में नैस्टॉल्जिया है, इतिहास है और जिंदगी है इसलिए लोगों के बीच इस तरह से पॉपुलर है। यह बात लोकप्रियता के उसी आधार का विस्तार है, जहां गजल मनोरंजन के नाम पर कोई सत्ता बनने के बजाय लोगों को अपने-अपने तरीके से जोड़ने का जरिया बनती है। ये कम दिलचस्प बात नहीं है कि दो अलग-अलग पीढ़ी के लोगों के बीच प्रेम, रिश्ते, परिस्थितियों के बीच अलग-अलग अनुभव रहे हैं लेकिन उसका इजहार सटीक तौर पर जगजीत सिंह की उसी गजल से हो जाया करती है। ये साहित्य की तरह कालजयी होने का फार्मूला नहीं है बल्कि अनुभूति की उस लघुतम ईकाई को छू लेने की क्षमता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते जाने के बावजूद भी बरकरार रहती है। यदि ये संगीत और मनोरंजन के स्तर पर गजलों के भीतर लोकतांत्रिक स्पेस का विस्तार है तो वही उच्च और निम्न सांस्कृतिक रूपों और झगड़ों को शांत करने की एक मुक्कमल कोशिश भी।
स्टार न्यूज की रिपोर्ट लोकप्रियता के इस आधार को थोड़ा और आगे ले जाकर सामाजिकता से जोड़ती नजर आयी। उसके हिसाब से जगजीत सिंह के कारण गजलें पहली बार माशूका की जुल्फों से निकल कर घर की देहरी में प्रेवश करती हैं और तब उसमें प्रेम के अलावा पारिवारिक जीवन के अनुभव, दर्द और सुखद क्षण शामिल होते हैं। स्टार न्यूज ये बात भले ही “ये तेरा घर – ये मेरा घर” जैसे गीतों के भावार्थ पेश करने के तौर पर कह गया और बाकी के चैनल भी उनकी पंक्तियों की गद्य़-शक्ल हमारे लिए पेश कर गये हों लेकिन नब्बे के दशक के पहले की पीढ़ी को नैस्टॉल्जिया से हटकर इस सिरे से विश्लेषण करने की दिशा में तो जरूर प्रेरित करता है कि अनुभूति की वो कौन सी लघुतम ईकाई है, जिसे पकड़कर जगजीत सिंह इतने दिलों पर राज करते आये। खय्याम के शब्दों में कहें तो दिल को जीतते रहे। चैनल इस मौके पर तो उनकी गजलों, गीतों को उठा-उठाकर अपनी भद्दी वॉइसओवर के साथ पेश करते ही रहेंगे। आज रात तक अधिकांश चैनल अपने कार्यक्रमों को दूरदर्शन की रंगोली की शक्ल देते ही रहेंगे लेकिन उच्च और निम्न संस्कृति के झगड़े और मनोरंजन की दुनिया में माफियाराज कायम होने की स्थिति में हमारा कलाकार किस हद तक लड़ पाता है, इस पर बात करें तो शायद हम नॉस्टैल्जिया को जगजीत सिंह की गजलों का मूल स्वर करार देने से अपने को बचा लें।
मूलतः प्रकाशितः मोहल्लाlive
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साल 2009 के लिए अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा और पुरस्कार राशि को सात लाख के बजाय पांच-पांच लाख किए जाने का निर्णय पहली नजर में  भारतीय ज्ञानपीठ की यह उदारता प्रभावित करती है। लेकिन तीन लाख का नुकसान सहते हुए भी ऐसा किया जाना न केवल नैतिक रुप से गलत है बल्कि राशि के आधी या कम किए जाने का प्रावधान अगर पहले से घोषित नहीं है तो फिर संवैधानिक रुप से नियमों का उल्लंघन भी है। साल 1999 में निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह के बीच भी आधी-आधी राशि बांटी गयी थी,तब भी इस पर विवाद हुआ था और इसे अनैतिक करार दिया गया था। संभवतः इसलिए अबकी बार पुरस्कार की राशि आधी करने के बजाय डेढ़ लाख बढ़ाकर दिया जा रहा है जिससे कि हिन्दी समाज की जुबान बंद की जा सके। लेकिन ज्ञानपीठ की इस कोशिश और फैसले से सम्मानित रचनाकारों के उपर क्या बीतेगी,इस सिरे से विचार किए बिना राशि का बंटवारा,यह किसी साहित्यिक संस्था के चरित्र से ठीक उलट मंडी में बैठकर दूकान चलानेवाले की प्रवृत्ति है जो अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष मुनाफे के लिए घोषित बाजार भाव को प्रभावित करता है या फिर कार्पोरेट की वह चालाकी जिसमें शर्तें लागू के तहत अपने तरीके की मनमानी करने की खुली छूट हासिल कर लेता है। 

भारतीय ज्ञानपीठ अगर ऐसा लगातार करता आ रहा है तो यह बात गंभीरता से समझने की जरुरत है कि कहीं वह मंडी के इसी पैटर्न पर काम तो नहीं कर रहा,जिसे इस बात का अतिरिक्त विश्वास है कि चूंकि वह साहित्यिक संस्थानों के बीच एक मजबूत मंच है,बाजार की एक मजबूत ताकत से संचालित है और उसमें बड़े से बड़े रचनाकारों को प्रभावित करने की क्षमता है तो वह कुछ भी कर सकता है। अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,सम्मानित करते हुए भी उसके आगे रचनाकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है और  तब रचनाकारों को दिया गया सम्मान उनकी कद और गरिमा को बढ़ाने के लिए नहीं,उनके मूल्यों, प्रतिबद्धताओं और स्वयं रचनाकार को दोजख में डालने के लिए है। ऐसे में यह कम बड़ी बिडंबना नहीं है कि जिस श्रीलाल शुक्ल ने जिंदगी भर सांस्थानिक ढांचे के भीतर फैले भ्रष्टाचार और व्यवस्था के विरोध में लिखा और उनकी रचना राग दरबारी इसके दस्तावेज के तौर पर पढ़ी जाती रही हैं,यह पुरस्कार उनके ही आगे ज्ञानपीठ के दरबार होने का एहसास कराता है जहां उन्हें अपने लिखे के प्रति फिर से प्रतिबद्धता साबित करने की स्थिति बनेगी।

पुरस्कारों को लेकर विवाद का यह कोई पहला मामला नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ से लेकर साहित्य अकादमी तक के पुरस्कार लगातार विवादों के घेरे में रहे हैं। कई बार तो यह इतना गहरा जाता है कि जिस मुख्यधारा की मीडिया के लिए साहित्य की दुनिया को शामिल किया जाना कोई मायने नहीं रखता,वह भी इन विवादों को हवा देने का काम करते हैं और साहित्येतर पाठकों को विवाद के जरिए ही पुरस्कार की खबर और संबंधित रचनाकार के बारे में जानकारी मिल पाती है। ऐसे में अक्सर बुद्धिजीवी समाज आनन-फानन में दो धड़ों में बंट जाते हैं जिनमें कि एक अनिवार्य रुप से संबंधित संस्थान के विरोध में होते हैं,पुरस्कार दिए जाने के तरीके को लेकर सवाल खड़े करते हैं जबकि दूसरा संस्थान के समर्थन में प्रहरी के तौर पर खड़े हो जाते है। लेकिन दोनों ही स्थितियों में पुरस्कृत रचनाकारों पर बेवजह नैतिक दबाव बनने शुरु होते हैं कि आखिर वह पुरस्कार स्वीकार करे भी या नहीं।

 संभव है 2009 के ज्ञानपीठ पुरस्कार को लेकर जो फैसले आए हैं और जिस तरह से लोगों ने इसके विरोध में लिखना शुरु किया है,अंत तक आते-आते यही स्थिति बने। यहीं पर आकर रचनाकार को दोजख में डालने का काम पहले तो संबद्ध संस्थान और फिर उनके विरोध और पक्ष में लिखनेवाले लोग करते हैं। लेकिन असल में सवाल यह नहीं है कि वे संस्थान के फैसले के पक्ष में या विपक्ष में हैं,सवाल है कि इस पूरे प्रकरण में रचनाकार की मनःस्थिति कैसी बनती है और हम उसे समझते हुए कितना साथ हो पाते हैं। अगर वह असहमति नहीं जताते हुए पुरस्कार ग्रहण कर लेता है तो उसके खिलाफ यह माहौल बनाने की कोशिशें तेज हो जाती है कि वह कुछेक रुपयों के लिए अपने जीवनभर के अर्जित मूल्यों से समझौता कर लिया और अगर नहीं ग्रहण किया तो आर्थिक स्तर पर उसे नुकसान उठाने पड़ते हैं जो कि कई बार उनकी अवस्था और जरुरत के प्रतिकूल होती है।

 इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू जो उभरते हैं,वह यह कि संस्थान के फैसले के पक्ष या विपक्ष में बात करनेवाले दोनों तरह के लोग इस बात को प्रमुखता से दोहराते हैं कि सम्मान का संबंध सिर्फ राशि से नहीं है बल्कि रचनाकार को उस लायक समझे जाने से है। सवाल है कि हिन्दी में लिखनेवाले और विमर्श करनेवाले लोगों के लिए दो लाख रुपये की राशि क्यों इतनी छोटी रकम है और वह भी तब जबकि लंबे-लंबे साहित्यिक लेखों के लिए हजार-पाच सौ से ज्यादा नहीं दिए जाते। महीनों लगाकर लिखी जानेवाली किताब की रॉयल्टी भी इतनी नहीं होती कि किसी रचनाकार का दो-चार महीने आसानी से कट जाए। जहां कुछ रुपयों और साधनों के लिए मार-काट मची रहती है,उसी समाज में दूसरों के पुरस्कार की राशि काटी जाने को लेकर इतना उदार बनने की कोशिश क्यों की जाती है? यह बहस बिल्कुल अलग है कि साहित्य या कला का मूल्य दूसरी किसी भी वस्तु की तरह आंकी नहीं जा सकती लेकिन जिस रचनाकार ने अपना पूरा जीवन इसके पीछे लगा दिया,उसकी भी तो आखिर में पुरस्कार के तौर पर कीमतें लगा ही दी जाती है, तो फिर वो पांच लाख ही क्यों,सात लाख क्यों नहीं

फिर यह राशि ऐसे अस्सी पार रचनाकार को दिया जाना है जिनके लिए विचारधारा,सामाजिक प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण जैसे सवालों के साथ-साथ अवस्था के अनुसार जरुरत का सवाल भी उसी प्रमुखता से जुड़ा हुआ है। अमरकांत के मामले में यह बात तो बेहतर रुप से स्पष्ट है। इस स्थिति में बेहतर यह नहीं होगा कि आगे संस्थान के इस फैसले के प्रतिरोध में जो भी कुछ लिखा जाए,उसमें पूरी राशि दिलाने की कोशिशें शामिल हो और जिन संस्थानों को ऐसा लगता है कि पुरस्कार देना उनकी उदारता का हिस्सा है,उन्हें व्यावसायिक स्तर पर उनके क्या हित होते हैं, इनके मायने लोगों के सामने लाए जाएं?

भारतीय ज्ञानपीठ ने किसी रचना के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म के आधार पर पुरस्कार देने का जो प्रावधान किया है, अगर उनके निर्णायक मंडल सही संदर्भों में समझने की कोशिश करें तो वह दरअसल सिर्फ उस रचनाकार का सम्मान भर नहीं है बल्कि उसकी अवस्था का भी सम्मान है। ऐसे में उसके उपर लिखे के मूल्यों की रक्षा करने और अवस्था की जरुरतों,मनःस्थितियों को समझने की दोहरी जिम्मेदारी बनती है। जिस अमरकांत,निर्मल वर्मा जैसे रचनाकारों  के लिए हजार-दो हजार रुपये की राशि खर्च करने के पहले जरुरतों को उसकी प्राथमिकता के आधार पर सोचने के लिए बाध्य करती हो,उनके हिस्से के ढाई-दो लाख रुपये की कतर-ब्योत उनके मन को कितनी चोट पहुंचाएगी,यह किसी भी आधार पर नहीं तो कम से कम मानवीय पहलू पर सोचने को मजबूर करती है। फिर गुरदयाल सिंह जो कि इस मौजूदा निर्णायक मंडल में शामिल है,उनके साथ भी 1999 में ज्ञानपीठ ने ऐसा ही किया था,वे खुद इसके शिकार हुए और विवाद होने के बावजूद संकोची स्वभाव के होने की वजह से निर्मल वर्मा ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। अबकी बार ज्ञानपीठ ने फिर से ऐसा करके रचनाकारों को इस बात के लिए बाध्य किया है कि वे इस मामले में चुप्पी साध लें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी उदारता और बड़प्पन पर प्रश्नचिन्ह लगने तय है।

दूसरी तरफ, इस तरह से पुरस्कार देकर रचनाकारों को दोजख में डालने का काम कहीं निर्णायक मंडल के खुद ही दो धड़ों में बदल जाने की परिणति तो नहीं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि साहित्य को लेकर किया जानेवाला निर्णय गणित या प्रतियोगिता परीक्षाओं के वैकल्पिक सवालों और वस्तुनिष्ठ जबाबों की तरह नहीं होता कि दो अलग-अलग मिजाज के रचनाकारों को एक ही धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया जाए। इस संबंध में फेसबुक पर जो चर्चाएं चली, जब मैंनें अपनी वॉल पर लिखा- मैनेजर पांडे से मैं अपने को इमोशनली बहुत जुड़ा पाता हूं। उन्हें पढ़ते हुए मैंने साहित्य के प्रति कच्ची-पक्की जैसी भी समझ विकसित की है। बहुत ही सहज शब्दों में जो बात कह जाते हैं वो दिल तक उतर जाती है। हाल ही में राजेन्द्र यादव पर लिखा पढ़ा। लेकिन कल देर रात तक परेशान रहा। जो आदमी आज से ठीक एक साल पहले रवीन्द्र कालिया छिनाल प्रकरण के विरोध में सड़कों पर उतर आया था,एक साल बाद ज्ञानपीठ की निर्णायक समिति में जाकर दो लोगों को संयुक्त पुरस्कार पर मुहर लगा जाता है। अगर राशि आधी-आधी बंटी तो पांडेजी पर से रहा-सहा भरोसा टूट जाएगा।उसमें वीरेन्द्र यादव ने मेरी दीवार पर प्रतिक्रिया स्वरुप लिखा कि- आप पता करें कि  पुरस्कार समिति की बैठक में क्या मैनेजर पांडे जी ने श्रीलाल शुक्ल को पुरस्कार दिए जाने के प्रस्ताव का समर्थन न करके अशोक वाजपेयी का नाम प्रस्तावित किया था.आपका भरोसा न टूटे तो फिलहाल यह भी याद कर लीजिए कि हैदराबाद मे पांडे जी के अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता भी अशोक वाजपेयी ने की थी.हित-संतुलन का यह दृश्य अधिक भरोसा तोड़ने वाला है. नहीं ???” वैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में मैनेजर पांडे के जन्मदिन के मौके पर आयोजित समारोह/संगोष्ठी इसलिए भी अविस्मरणीय है क्योंकि उसमें उनके लगभग सभी शिष्यों ने व्याख्यान दिया था। 

बहरहाल,अगर पुरस्कार की निर्णायक मंडली में शामिल होना कर्ज उतारने और एहसान चुकाने का ही माध्यम है तो फिर सम्मानित रचनाकारों को इसका निशाना बनाया जाना क्यों जरुरी है, और वह भी अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल जैसे ऐसे रचनाकारों को जो कि इससे बहुत पहले साहित्य अकादमी,दूसरे बड़े सम्मानों सहित पाठकों की ओर से सम्मानित किए जा चुके हैं। निर्णायक मंडल आपस के उन्हीं लोगों को इस पुरस्कार में शामिल क्यों नहीं कर लेते,जिससे बिना खेमे के जीने और लिखनेवाला रचनाकार पुरस्कार पाने के बाद दोजख में जाने और आखिरी दौर में भी आकर नैतिकता साबित करने के पचड़े से बच जाए। कहीं ऐसा करके ज्ञानपीठ सहित उसके फैसले में शामिल लोग अपने भीतर के स्वार्थ और उससे उपजे लिजलिजेपन को ढंकने की कोशिश तो नहीं करते आए है?

भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से पुरस्कार देने का जो चलन है,उसका विकसित या कहें विकृत रुप,  उसके निर्धारण का आधार रचनात्मकता के बजाय रचनाकार की अवस्था है। यह उसके पूरी तरह घोषित न किए जाने के बावजूद भी स्पष्ट है। युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए वे युवा रचनाकार योग्य हैं जो इसकी पत्रिका नया ज्ञानोदय में छपते आए हैं या फिर उनके द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में चयनित होते हैं। उपरी तौर पर यह उभरती प्रतिभाओं का सम्मान और प्रोत्साहन है लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह ज्ञानपीठ ब्रिगेड में शामिल करने की प्रक्रिया है जिसका इस्तेमाल विभूति-छिनाल प्रकरण जैसे मौके पर मूल्यों के बजाय व्यक्ति और संस्था के पक्ष में खड़े होने के लिए किए जाते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकार,रचना के स्तर पर भले ही उन मूल्यों और प्रतिबद्धताओं की बात करता नजर आ जाए,जो उसे संवेदनशील और रचनात्मक करार देते हैं लेकिन उन्हीं मूल्यों की धज्जियां जब संस्थान के भीतर उड़ायी जाती है,तब वह उसके प्रतिरोध में खड़े होने के बजाय उसके बचाव में कुतर्क प्रस्तावित करता है,हस्ताक्षर अभियान चलाता है। आगे चलकर उनकी ऐसी दोमुंही रचनाशीलता किस दिशा में विकसित होगी,यह अलग से बताने की जरुरत नहीं है।

 दूसरा पुरस्कार किसी रचना पर दिए जाने के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म पर दिए जाने का है। जाहिर है इसके लिए रचनाशीलता के साथ-साथ वरीयता का सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि ज्ञानपीठ ने इस आधार पर भी गड़बड़ियां की है फिर भी इस पर बात तो होनी ही चाहिए की कि रचनाकारों के लिए सम्मान उसकी रचनाशीलता के लिए है या फिर लेखन से सेवानिवृत होने के लिए। अगर ऐसा है तो फिर ज्ञानपीठ को समग्र रचनाकर्म के लिए पुरस्कार देने के बजाय आश्रय कोश का प्रावधान करना चाहिए  ताकि उसमें जिन रचनाकारों को आर्थिक और भावनात्मक स्तर पर जरुरत होगी,उन्हें शामिल किया सके। आखिर जिन रचनाकारों ने अपनी बहुत थोड़ी रॉयल्टी लेकर प्रकाशकों की सेहत बनायी रखी है,जीवन के अंतिम दौर में उनकी देखभाल की थोड़ी तो नैतिक जिम्मेदारी उन्हें लेनी ही पड़ेगी।

 अच्छा,ज्ञानपीठ इन दोनों अवस्था के आधार पर पुरस्कार देकर बीच की उम्र के रचनाकार लिख-पढ़ रहे हैं,उनको कितनी गंभीरता से समझ पा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी नजर में सिर्फ दो ही तरह के रचनाकारों पर नजर है- एक जो कि भविष्य में बेहतर रचनाकार हो सकता है,वह दूसरे खेमे में न चला जाए और उसे क्रेडिट मिल जाए उन पर और दूसरा जो कि बुजुर्ग हैं। इन बुजुर्ग रचनाकारों को सम्मानित किए जाने से संस्थान साख बनाए रखने की कोशिश और अपने पक्ष में ब्रांडिंग की रणनीति तय करता है। इन दोनों ही स्थितियों में रचनाशीलता,सरोकार और साहित्यिक मूल्यों के सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ समग्र रचनाकर्म के बजाय अपने अंतिम दौर में संघर्ष कर रहे रचनाकारों को अपनाता है और ज्ञानपीठ पुरस्कार को इस आधार से मुक्त रखता है तो इससे न केवल उनकी बेहतर मदद हो सकेगी बल्कि दो अवस्थाओं के रचनाकारों के बीच जो कुछ भी लिखा जा रहा है,उसका भी बेहतर मूल्यांकन और सम्मान हो सकेगा।   
(मामूली फेरबदल के साथ जनसत्ता में प्रकाशित, 2 अक्टूबर 2011) 
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वर्चुअल स्पेस पर प्रभात रंजन और शशिकांत ने अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा को उत्साह में आकर साझा किया और एक तरह से इस खबर के प्रसार की नैतिक जिम्मेदारी अपने उपर ली। प्रभात रंजन ने अपने ब्लॉग जानकीपुल और फेसबुक के जरिए इस खबर को प्रसारित किया,वही शशिकांत ने सीएसडीएस सराय की मेलिंग लिस्ट के जरिए इसे हम पाठकों तक पहुंचाया। चूंकि इस बात की जानकारी हमें सबसे पहले इन दोनों के माध्यम से ही मिली थी इसलिए हमें इनसे सवाल करना जरुरी लगा कि क्या ज्ञानपीठ ऐसा करके पुरस्कार की राशि दोनों के बीच आधी-आधी करके बांटेगा। यानी स्वतंत्र रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार पानेवाले की जो राशि होती है,उसकी आधी राशि इन दोनों साहित्यकारों को मिलेगी? व्यक्तिगत तौर पर ऐसा किया जाना मुझे अनैतिक लगा और हमने दीवान पर इस संबंध में सवाल छोड़े। लिहाजा शशिकांतजी ने एक के बाद एक इनसे जुड़े तथ्य हमारे सामने रखे और मैंने भी उसके साथ कुछ संस्मरण और तर्क जोड़ने की कोशिश की। शशिकांतजी का यहां तक कहना है कि ज्ञानपीठ ने ऐसा दरअसल विवाद पैदा करने और चर्चा में आने के लिए किया है। उनकी बात में सच्चाई इसलिए भी है कि ऐसा वह पहले भी कर चुका है। निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह को संयुक्त रुप से पुरस्कार देते समय ऐसा ही किया और आधी-आधी राशि दोनों को मिली। सवाल है कि साहित्यकार के लिखे का आकलन क्या इतना वस्तुनिष्ठ होता है कि दो को इस धरातल पर लाकर खड़े कर दिए जाएं कि पुरस्कार की राशि आधी हो जाए? अगर ऐसा होता है तो निर्णायकों के लिए साहित्य भी कोई रचनाकर्म न होकर प्रोजेक्ट या टिकमार्क करनेवाली चीज है और हम इसका विरोध करते हैं। ज्ञानपीठ चाहे तो दो की जगह चार को संयुक्त रुप से पुरस्कार दे लेकिन राशि का बांटा जाना किसी भी रुप से सही नहीं है। इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि जिस निर्णायक मंडल ने ये फैसला लिया है,उसमें गुरदयाल सिंह भी शामिल हैं जिनके साथ ये घटना घटित हुई। अब देखना ये हैं कि इस संयुक्त फैसले पर मुहर लगाने के बाद गुरदयाल सिंह पुरस्कार की राशि पूरी मिले,इसके लिए क्या प्रयास करते हैं? आप भी इस संबंध में अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करें। फिलहाल शंशिकातजी ने दीवान पर जो विचार हमसे साझा किए हैं,उस पर एक नजर-


शशिकांत


मित्रो, 
भारतीय ज्ञानपीठ ने बताया कि वर्ष 2009 के लिए 45 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार हिन्दी लेखक अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रूप से दिया जाएगा और वर्ष 2010 के लिए 46 वां ज्ञानपीठ पुरस्कार कन्नड लेखक चंद्रशेखर कंबर को दिया जाएगा।

यहां कल शाम सीताकांत महापात्र की अध्यक्षता में हुई ज्ञानपीठ पुरस्कार चयन समिति की बैठक में अन्य सदस्य प्रो. मैनेजर पांडे, डा. के सच्चिदानंदन, प्रो. गोपीचंद नारंग, गुरदयाल सिंह, केशुभाई देसाई, दिनेश मिश्रा और रवीन्द्र कालिया शामिल थे।
मालूम हो, मलयालम के प्रसिद्ध कवि और साहित्यकार ओएनवी कुरूप को वर्ष 2007 के लिए 43वाँ और उर्दू के नामचीन शायर अखलाक खान शहरयार को वर्ष 2008 के लिए 44वाँ ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया जा चुका है।

विनीत
पुरस्कार की राशि तब आधी-आधी हो जाएगी क्या शशिकांतजी या फिर बिग बॉस में डबल सिम(संजय दत्त और सलमान खान) होने पर भी दोनों को अलग-अलग चार्ज मिलेगा वैसा ही। ये अंदेशा सिर्फ इसलिए है कि कई बार कॉलेज के दिनों में प्रतियोगिताओं में हमें संयुक्त पुरस्कार मिला तो राशि आधी हो जाती थी और सम्मान बराबर का मिलता। इस उम्र में दोनों रचनाकारों के लिए राशि का मसला भी बराबर से मायने रखता है।

शशिकांत

भाई विनीत जी, ज्ञानपीठ ने दूसरी बार ऐसा किया है. इससे पहले निर्मल वर्मा और गुरुदयाल सिंह को भी संयुक्त रूप से दिया गया था और ख़ूब विवाद हुआ था. संभव है, ज्ञानपीठ जानबूझ कर ऐसे फ़ैसले लेता है ताकि विवाद हो. लेकिन शायद इस बार दोनों लेखक ऐसे हैं जो विवाद न खड़ा करें. पिछली बार निर्मल वर्मा तो चुप रह गए थे लेकिन गुरुदयाल सिंह जी ने विवाद खड़ा किया था भाई.

विनीत
मैंने शशिकांतजी इसलिए पूछा कि जिस शख्स को सम्मानित किया जाता है वो अपने दौर का दिन-रात एक करके रचनाकर्म में लगा लेखक होता है,जिनकी बड़े उदात्त विचार,समाज को बदलने का सपना होता है,उबाल होता है,विधा को तराशने की तड़प होती है लेकिन जब तक सम्मानित किया जाता है तब तक वो मरीज या पार्शियल मरीज की स्थिति में आ जाता है। उनेके विचार के आगे कई बार न चाहते हुए भी जरुरतें हावी हो जाती है और लगता है कुछ जोड़कर रख लेता। ऐसे में पुरस्कारों में कतर-ब्योत होने लगे तो चोट पहुंचती है। हिन्दी का साहित्यकार पैसे की मार वैसे भी शुरु से झेलता आया है,अगर वो आलोचक/विभागीय आलोचक न हो तो। कुछ ऐसे साहित्यकारों से मैं व्यक्तिगत तौर पर मिला भी हूं। इसलिए धातु की बनी प्रतिमा के आगे पैसे के मामले को नजरअंदाज करना इनके प्रति समझिए एक तरह से अन्याय ही होगा। ज्ञानपीठ अगर विवाद के जरिए चर्चा चाहता है तो आप जिनलोगों ने पुरस्कार की खबर प्रसारित करने की नैतिक जिम्मेदारी उत्साह के साथ ली है,ये बात भी स्पष्ट करें तो बेहतर होगा। ऐसा न हो कि घर जाकर लिफाफा देखने के बाद शॉल की गर्मी कनकनी में बदल जाए।

शशिकांत

भाई विनीत जी, बिल्कुल सही कहा आपने. निर्मल वर्मा जैसे बेहद शालीन, संकोची, विनम्र और एकांतपसंद रचनाकार से जब राष्ट्रीय सहारा अखब़ार के लिए 'लेखक के साथ' कॉलम के लिए लंबा इंटरव्यू लेने गया था 2002 में तो उन्होंने पूछा था, 'इस इंटरव्यू के लिए मुझे भी कुछ पैसा देंगे क्या राष्ट्रीय सहारा वाले?' उन दिनों निर्मल जी की तबीयत ख़राब थी. ढेर सारी दवाइयां राखी थीं उनके सिरहाने, उनके सहविकास सोसायटी, पटपडगंज, दिल्ली वाले घर में. मैंने यह बात सहारा के गुप एडिटर गोविन्द दीक्षित और नामवर जी को बतायी थी. नामवर जी उन दिनों सहारा के सम्पादकीय सलाहकार थे. लेकिन निर्मल जी को कोई पारिश्रामिक नहीं मिला. तब से मैं इंटरव्यू देनेवाली शख्सियत को भी पारिश्रमिक देने की बात उठा रहा हूँ. आप मीडिया के बेहद सक्रिय, उत्साही युवा आलोचक हैं. इस मसले को हिंदी अखब़ार के संपादकों तक पहुँचा सकते हैं. ऐसी उम्मीद है मुझे

विनीत


पता चला कि विष्णु प्रभाकर बहुत बीमार चल रहे हैं तो डीयू के हम कुछ छात्रों ने तय किया कि उनसे किसी दिन मिलने चलेंगे। कुछ कहना नहीं है,बस ये कि सर आपका लिखा पढ़ा है,हम आपसे मिलने आए हैं। हम जब वहां पहुंचे तो हम जान नहीं पाए कि वो उनकी बहू थी या फिर बेटी लेकिन अचानक से छ-सात लड़के लड़कियों को दरवाजे पर देखकर घबरा गईं। हमने आने का मकसद बताया तो कहने लगी- सॉरी,वो बहुत बोल नहीं पाएंगे। हमलोगों ने कहा-हम उनका न तो कोई इंटरव्यू लेंगे और न ही उन्हें ज्यादा कुछ बोलने के लिए कहेंगे। तब हम अंदर दाखिल हुए। पीतमपुरा में उनका घर चारों तरफ से समृद्ध नजर आ रहा था लेकिन उन्होंने जमीन खरीदने से लेकर घर बनने तक की पूरी कहानी विस्तार से बतायी। ये भी बताया कि कैसे-कैसे लोग आए,कलाम से लेकर वाजपेयी तक से मदद दिलाने की बात कर गए,आपलोग बहुत बड़े होते तो आपसे मिलता भी नहीं। बच्चे हो,उत्साह में हो तो मना नहीं कर सका। इस दौरान वो बार-बार अपनी टोपी(गांधी टोपी) संभालते रहे। हमें कभी कोई बड़ा सम्मान नहीं मिला,जो मिला उसे लेकर कई तरह के विवाद हुए,हमने कुछ नहीं कहा...फिर आंखों में आंसू। साहित्य में कई बार गांधीवादी होना तकलीफदेह हो जाता है। हम सब सुनते रहे,नोट करते रहे। एक साथ रिकार्ड भी करता रहा जिसकी चिप हॉस्टल आते ही खराब हो गयी। हम तब ब्लॉग की दुनिया में नहीं आए थे। हम चाहते थे कि वो कहीं छपे। बाद में जब हम वापस कैंपस पहुंचे तो कई साथियों को इस बात पर गुणा-गणित करने में दिक्कत होने लगी कि प्रभाकरजी तो गांधीवादी हैं,अगर हमने जहां कुछ इन पर लिखा तो हमारे गाइड नाराज हो जाएंगे। प्रगतिशील और मार्क्सवादी शिक्षक का छात्र भला गांधीवादी साहित्यकार से कैसे प्रभावित हो गया? मामला ठंडे बस्ते में चला गया।

महीना भी नहीं गुजरा था,विष्ण प्रभाकर गुजर गए। हममे से एक साथी दौड़ते-भागते मेरे पास आया और मैंने जो कुछ भी नोट किया था,ले गया। उसके बाद विष्णु प्रभाकर का विशेषांक निकाला। विष्णु प्रभाकर की पूरी बातचीत में पैसा बहुत बार आया। कई-कई तरीके से,मानो की जीवन के अंतिम समय में आकर यही उनकी निर्णायक काबिलियत का हिस्सा था जहां आकर वो मार खा गए। शशिकांतजी,आपने निर्मल वर्मा को लेकर जो संस्मरण सुनाया,कैसा कचोटता है सुनकर। मैंने तो उपर के कमेंट बस आशंका के तौर पर की लेकिन आपके पास तो संस्मरण हैं। हम अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को लेकर ऐसा ही सोच रहे हैं। ये अलग बात है कि हमें उनकी वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं।

शशिकांत

"जब हम वापस कैंपस पहुंचे तो कई साथियों को इस बात पर गुणा-गणित करने में दिक्कत होने लगी कि प्रभाकरजी तो गांधीवादी हैं,अगर हमने जहां कुछ इन पर लिखा तो हमारे गाइड नाराज हो जाएंगे। प्रगतिशील और मार्क्सवादी शिक्षक का छात्र भला गांधीवादी साहित्यकार से कैसे प्रभावित हो गया? मामला ठंडे बस्ते में चला गया।" भाई विनीत जी दुर्भाग्य से यह सोच डीयू में हमें विरासत में मिलती है. हमें इसका प्रतिकार करना है. अपनी समझ, अपने विवेक से काम लेना है चाहे अंजाम जो भी हो. मेरे मार्क्सवादी गाइड प्रो नित्यानंद तिवारी, विश्वनाथ तिवारी और कई मार्क्सवादी साथी मुझे समाजवादी समझते रहे और समाजवादी शिक्षक मार्क्सवादी. एक शेर है इस पर- 'जाहिद तंगनज़र समझते हैं कि मैं काफ़िर हूँ और काफ़िर ये समझते हैं मुसलमाँ हूँ मैं.' यह हमारी उपलब्धि है. हम विचारधारों के पिछलग्गू नहीं हैं. मार्क्सवादी गाइड नाराज़ हों तो हों हम नंदीग्राम और सिंगूर में सीपीएम के जुल्मों का विरोध करेंगे, और समाजवादी जार्ज के बीजेपी के साथ जाने तथा कॉंग्रेस के परिवारवाद का विरोध करनेवाले समाजवादी लालू और मुलायम के परिवारवाद का भी. हमारा वैचारिक स्टैंड किसी लाल किताब, झंडे या गांधी, लोहिया, जेपी की मूर्ति  से नहीं आज की ज़मीनी हकीक़त से तय होता है और उसी के आधार पर हम लिखते हैं और लिखते रहेंगे.    

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आज से चार साल पहले इसी तरह बारिश के बाद की ठहरी हुई सी सुबह थी। घर में कोई हलचल नहीं। रसोई से न प्रेशर कूकर की आती आवाज और न बाथरुम से फुलस्पीड में बहते पानी की आवाज। न तो रेडियो सिटी पर प्रताप की आवाज और न ही दूसरे कमरे में अपने चैनल पर क्या चल रहा है,देखने की तड़प। सब शांत। मीडिया के 15-16 घंटे लगातार घिसते रहने की नौकरी छोड़ने के बाद की पहली सुबह। रात में ही तय था कि अगली सुबह नहीं जाना है लेकिन नींद उसी तरह साढ़े चार बजे खुल गयी थी। मेरे दोस्त को अपनी नाईट शिफ्ट से लौटने में अभी तीन घंटे बाकी थे और मुझे समझ नहीं आ रहा था क्या करुं? अखबारों के वेब संस्करण सरसरी तौर पर पढ़ गया था लेकिन आगे क्या...? पा नहीं क्यों अचानक से याद आया। एनडीटीवी वाले अविनाश ने कथादेश सम्मान में जैसे और लोगों को कहा था,वैसे मुझे भी कहा- कभी मोहल्ला देखिएगा। सीएसडीएस-सराय में जब मैं निजी चैनलों की भाषा पर अपना पर्चा पढ़ रहा था,उस वक्त भी राकेश कुमार सिंह(जो कि तब सराय में ही थी) ने भी कहा था-मौका मिले तो कभी ब्लॉग पर भी टहल आइए,वहां नए किस्म की भाषा बन रही है,आपको कुछ आइडिया मिलेगा। तब वो खुद हफ्तावार नाम से ब्लॉग चला रहे थे। ये सारी बातें दिमाग में चल ही रही थी और तब मैंने गूगल सर्च पर ब्लॉग टाइप किया जिसमें एक लिंक आया-क्रिएट योर ब्लॉग और फिर जैसे-जैसे निर्देश दिए थे,मैं करता गया औऱ दस मिनट के भीतर मेरा भी अपना ब्लॉग हो गया- गाहे बगाहेः हां जी सर कल्चर के खिलाफ। बाद में जब मैंने अपना डोमेन लिया तो इसे हुंकार कर दिया। दोपहर तक पांच-छः कमेंट आ गए थे और ब्लॉग बिरादरी में पहले से जमें हुए लोगों ने स्वागत किया था और लगातार लिखते रहने के लिए शुभकामनाएं दी थी। फिर तो ब्लॉग का ऐसा चस्का लगा कि ठुकदम-ठुकदम जारी ही है।

मैं शुरु से ही तकनीक और गुणा-गणित के मामले में फिसड्डी छात्र रहा हूं। आर्टस की पढ़ाई करने से काम चल गया लेकिन ब्लॉगिंग की दुनिया में कदम रखते ही इस बात का एहसास हो गया कि हम जिस रचनात्मक तरीके से सोचते हैं,जिन रंगों,तस्वीरों और कलेवर में अपनी बात रखना चाहते हैं,उसके लिए तकनीकी समझ जरुरी है। हमारी इस कल्पना को तकनीक की भाषा में कैसे व्यक्त किया जाए,ये एक बहुत मुश्किल तो नहीं किन्तु नया काम था। न्यूज चैनल में काम करते हुए इतनी समझ तो आ गयी थी कि लिखने की शर्तें और किसी माध्यम की तकनीक संस्कृति के साथ लिखने की शर्तें दो अलग-अलग चीज है। कुछ दिन अपने मन से उटपटांग तरीके से ब्लॉगिंग करते हुए पता चलने लग गया था कौन किस बात का मास्टर है,ये सब किससे सीखा जा सकता है? हमने तब उनलोगों ो मेल करके अपनी समस्याएं साझा करना शुरु किया। चेन्नई में बैठे पीडी को तंग किया,कानपुर में अनूप शुक्ल तो सीखाने के लिए जनता दरबार ही खोल रखा था,मेल और चैट पर बात समझ नहीं आयी तो कहा अपना मोबाईल नंबर भेजो और फिर फोन पर समझाते,शैलेश भारतवासी की तो मैंने न जाने कितनी बार नींद खराब की होगी-सो रहे थे क्या,सॉरी देखिए न पिक्चर की साइज बढ़ ही नहीं रही,एक जगह जाकर फिक्स हो गई है। गिरीन्द्र आइएनएस न्यूज एजेंसी की कोल्हू के बैल जैसी थका देनेवाली नौकरी से लौटकर सुस्ता रहा होता कि हम मैसेज करते- ए हो गिरि,देखो न हमसे ऑडियो अपलोड हो ही नहीं रहा,ललित आप कविताकोश जैसा मेरा ब्लॉग भी थोड़ा सुंदर कर दीजिए न। जयपुर में बैठा कुश मेरे ब्लॉग की टेम्प्लेट मुहैया कराता। रवि रतलामी तो वर्चुअल स्पेस पर तकनीक की लंगर ही चलाते,जिसको जो फांट,सॉफ्टवेयर,एचटीएमएल कोड चाहिए,मेल करो और ले जाओ। वो लिखने के साथ-साथ अपने ब्लॉग को सजाने-संवारने का भी जमाना था। किसी ने अपने ब्लॉग पर रीडर्स मीटर लगा दी है,किसी ने स्लाइड शो लगा दिया है किसी के ब्लॉग के नीचे पीटीआइ या रेलवे स्टेशन की तरह स्क्रॉल चलते रहते और हमारा मन ललच जाता और हम पूछते-कैसे किया ऐसे और वो फिर हमें बताते और एचटीएमएल कोड भेज देते। बाद में हम समझने लग गए कि ये सब एचटीएमएल का मामला है तो सीधा मेल करते -आपके यहां जो मोंटाज है,उसका एचटीएमएल कोड भेजें। ये सब बताने-समझाने में हमें आज दिन तक कभी किसी ने मना नहीं किया बल्कि लोग इतने उत्साहित होते कि चैट के बाद खुद ही नंबर लेकर फोन पर आ जाते और न केवल मेरी तात्कालिक समस्याओं का निबटारा करते बल्कि इसके पहले क्या तरीका था,अब कैसे बदल गया और इसके एडवांस तरीके क्या हो सकते हैं,सब बताते। कई बार मैं उब जाता या बड़ा ही उलझाउ लगता तो कहता- सर/भईया/गुरुजी/दोस्त मुझे इतना समझ नहीं आता,फिलहाल आप ऐसा करें,मैं आपको अपने ब्लॉग-पासवर्ड दे देता हूं,आप उसे दुरुस्त कर दें,बाद में मैं इसे बदल लूंगा। लोग ऐसा भी कर देते,पर कुछ मना कर देते और समझाते इस तरह से पासवर्ड मत दिया करो किसी को। मैं बस इतना ही कह पाता-अरे नहीं सर,बातचीत से ही समझ आ जाता है कि ऐसा कुछ नहीं करेंगे। कंटेंट के स्तर पर लोगों के बीच चाहे जितनी भी मारकाट मची रहती हो लेकिन तकनीक बताने-समझाने और साझा करने में एक खास किस्म की आत्मीयता थी और लोग बड़े उदार तरीके से बताते।

ब्लॉगिंग करते हुए जो तकनीक हम सीख रहे थे,वो सिर्फ ब्लॉगिंग भर के काम का नहीं थी। फॉन्ट से लेकर इंटरनेट और कम्प्यूटर की ऐसी सारी चीजें थी जो कि अभी बेहतर तरीके से काम आ रही है। एक तरह से कहें तो हम निट या एरिना जैसे प्रोफेशनल कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर में गए बिना वो सबकुछ सीख रहे थे जिसकी हमें जरुरत थी। हम इस तकनीक को बहुत ही घरेलू स्तर पर सीख रहे थे। जब हम चैट या फोन पर बात कर रहे होते तो ये भी बताते-पता है सर,आज रात में मेरे हॉस्टल की मेस बंद है तो मैं बाहर रहूंगा,आपसे देर रात ही फिर बात हो पाएगी। अरे दोस्त,मुझे ऑफिस के लिए निकलना है,वापस आकर कॉल करुं? मैं पूछ लेता-ब्रेकफास्ट किया कि नहीं। देखो इतनी सारी बातें हो गयी लेकिन याद ही नहीं रहा कि बेटी को स्कूल से लाने जाना है। तकनीक औऱ समस्याओं पर बात करते हुए भी देशभर में फैले ब्लॉगरों की गृहस्थी और हलचलों से होकर गुजरते। बाद की बातचीत तो इतनी अनौपचारिक हो गयी कि पटना में बैठा ब्लॉगर बताता कि आज हमने मुनगे की सब्जी खायी,मजा आ गया,धनबाद की लवली बहुत दिनों से गायब क्यों है,शायद बीमार होगी? तकनीकी मदद करने के अलावे फिर कंटेंट के स्तर पर भी बातचीत होने लगी। लोग कमेंट तो करते या मांगते ही लेकिन जी नहीं भरने की स्थिति में फोन तक करते और कहते-चैट पर कमेंट के लिए कहा था,तीन घंटे हो गए,तुमने कुछ किया ही नहीं या फिर-फोन बस ये कहने के लिए किया था कि सही पोस्ट लिखी है तुमने,दीयाबरनी वाली बात पढ़कर तो हम सेंटी हो गए। हम वर्चुअल स्पेस की एक अनंत दुनिया के बीच ही उसी तरह के घरेलू संबंधों से भावनात्मक स्तर पर बंधने लगे थे जैसे कि परिवार के सदस्यों से बंधे होते हैं। मार्शल मैक्लूहान ने जिस ग्लोबल विलेज की बात कही थी,औद्योगिक स्तर पर नहीं किन्तु तकनीकी और भावनात्मक स्तर पर ज्यादा बेहतर समझ आने लगा था। तीन-चार दिनों तक किसी ने पोस्ट नहीं लिखी तो चिंता होने लगती,क्या हो गया मनीषा पांडे को,कहीं बीमार तो नहीं हो गई? अरे युनुस खान ने तो रेडियोनामा को गांव का ट्रांसफार्मर ही बना दिया है,तीन दिन हो गए,कोई अपडेट ही नहीं है। तब ब्लॉगरों को लेकर कई किस्म के मिथक भी अपने आप बन गए थे,मसलन-ब्लॉगर वह है जो चौबीसों घंटे ऑनलाइन रहता है,जिसे कभी नींद नहीं आती है,जो कभी खाता भी है तो अपनी डेस्क या स्टडी टेबल पर ही। ब्लॉगर कभी बीमार नहीं पड़ता है,वो अजर-अमर है और जब तक ब्लॉगिंग करता रहेगा,यमराज को भी हिम्मत नहीं है कि उसे उठा ले जाए। ये एक किस्म से चौबीस घंटे की नौकरी में जीने जैसी संस्कृति थी जिसे कि किसी ने किसी पर थोपा नहीं था बल्कि लोगों ने अपनी खुद की इच्छा,दिलचस्पी और चस्के की गिरफ्त में आकर पैदा की थी।
आगे भी जारी.....

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