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विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा के खिलाफ दिल्ली में जो भी विरोध-प्रदर्शन हो रहे हैं,उसकी रेगुलर मेल मुझे मिल रही है। मैं विनायक सेन के साथ हूं, आज भी और आज से चार साल पहले भी। मुझे अच्छा लगता है कि लोग कोर्ट और सरकार के रवैये के खिलाफ एकजुट हो रहे हैं। ऐसे दौर में जबकि कला,साहित्य और पत्रकारिता  सत्ता के लिए अंगरखे से ज्यादा कुछ भी करार न दी जा रही हो,इनसे जुड़े लोग सत्ता के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। लेकिन मुझे एक बात लगातार परेशान कर रही है। एक ही तारीख को होनेवाले विरोध-प्रदर्शन की मेल मुझे अलग-अलग मार्क्सवादियों की मेल आइडी से मिल रही है। ऐसे मार्क्सवादियों की मेल आइडी से जिन्होंने आज दिन तक समाज के किसी भी मसले पर कोई मेल नहीं भेजी। क्या ऐसे लोगों के आसपास कभी भी किसी स्त्री का शोषण नहीं हुआ होगा,किसी के साथ गुंडागर्दी नहीं हुई हो,किसी का हक नहीं मारा गया होगा या फिर किसी की आवाज नहीं दबा दी गयी होगी? लेकिन ऐसे मार्क्सवादियों ने कभी मेल जारी करके क्यों नहीं कहा कि हमारे इलाके में एक महिला के साथ अन्याय हुआ है,एक दलित को मकान मालिक ने आधी रात घर से निकाल दिया है, उसकी जाति जान लेने के बाद उसे पीट-पीटकर उल्टे थाने में बंद करवा दिया? ऐसे मौके आए तो होंगे लेकिन मेरे ये मार्क्सवादी साथियों ने तब कोई मेल क्यों नहीं भेजी? विनायक सेन के संदर्भ में संभव है कि ये सवाल बकवास और अप्रासंगिक लगे लेकिन ऐसे सवालों से टकराए बिना हम हर स्थिति में यानी 24x7 समाज में प्रतिरोध की ताकत पैदा कर सकते हैं,हम सत्ता को इस बात का एहसास करा सकते हैं कि कुछ भी गलत होने पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्हें चुनौती झेलनी पड़ेगी?

खास मौके पर खड़े होनेवाले मार्क्सवादी जो कि विचार से सामंती,अवसरवादी और जातिवादी अवधारणाओं के बीच सने हुए हैं,जो पार्टी ऑफिस की टिकिया चाटकर अपने को मार्क्सवादी करार देते हैं,ऐसे मार्क्सवादी देश के लिए तो बाद में,पहले खुद मार्क्सवाद के लिए सबसे खतरनाक हैं। ये किसी भी घटना को एक बड़े संदर्भ तक बनने का इंतजार करते हैं। वो तब तक इंतजार करते हैं जब तक कि मामला स्थानीयता की जमीन छोड़कर राष्ट्रीय या ग्लोबल न बन जाए। ऐसा होते ही उनकी आवाज बुलंद होनी शुरु होती है क्योंकि इससे किसी भी तरह का नुकसान होने का खतरा नहीं होता। वो समस्या तब समस्या न होकर एक ब्रांड बन जाती है और जिसके साथ खड़े होने पर मार्क्सवाद का फैशन अपने परवान चढ़ता है। इससे समस्या का हल कितना होता है ये तो नहीं मालूम लेकिन हां इस समस्या से अपने को जोड़कर देखना एक स्टेटस सिंबल का हिस्सा बन जाता है। इस देश में मार्क्सवाद का एक बड़ा हिस्सा इसी फैशनपरस्ती की तर्ज पर पसर रहा है। आज समस्या इस बात कि नहीं है कि किसी बात को लेकर आवाज नहीं उठायी जाती,समस्या इस बात को लेकर है कि मुद्दों को हाटकेक बनने तक का इंतजार किया जाता है। मौकापरस्त मार्क्सवादी इसी का इंतजार करते नजर आते हैं। आज सबसे ज्यादा मुश्किल है अपने आसपास की समस्याओं पर खुलकर बात करना,प्रतिरोध दर्ज करना लेकिन सुधार की गुंजाईश भी यहीं से बनती है।

इन मार्क्सवादियों के लिए कोई भी समस्या जब तक व्यापक संदर्भ हासिल नहीं कर लेती,समस्या ही नहीं है। ऐसे में छोटी-छोटी और घरेलू स्तर की समस्याएं व्यक्तिगत और पर्सनल इश्यू के खेमे में चली जाती है। एक शराबी मार्क्सवादी कवि के लिए अपनी पत्नी को पीटना पर्सनल इश्यू है लेकिन यही काम एक मजदूर करे तो सामाजिक समस्या है. इस शराबी कवि की कविताओं से क्रांति पैदा होती है लेकिन व्यवहार से क्या,ये सवाल पूछनेवाला कोई नहीं है? टिकिया चाटकर मार्क्सवादी होनेवाले लोगों के लिए ये एप्रोच उनके बीच जबरदस्त तरीके से अवसरवाद और निजी हित की संस्कृति को बढ़ावा देता है। इस अवसरवाद का रंग ऐसा है कि आप इसे किसी भी विचारधारा के तहत ठीक-ठीक विश्लेषित नहीं कर सकते। उनके सारे मानक अपने पाले की तरह बदलते रहते हैं।

मैंने जिस दौर में हॉस्टल में रहकर पढ़ाई की। एमए और यूजीसी के लिए कुत्ते की तरह अपने को रगड़ा,अपने तमाम मार्क्सवादी साथियों के लिए मजाक,दया और कई बार आक्रोश का पात्र था। क्यों? क्योंकि मैं एम ए में अच्छे नंबर लाना चाहता था,यूजीसी निकालना चाहता था और दूसरी तरफ मार्क्स की विचारधाराओं का समर्थन भी करता था। मैं उनकी निगाह में असरवादी निम्न मध्यवर्ग की मानसिकता में जीनेवाला शख्स था। उन्हें एमए में करते हुए नंबर लाने के प्रति द्रोह था,यूजीसी की परीक्षा को गुलाम मानसिकता का हिस्सा मानते,इससे उनकी प्रतिभा को ठेस पहुंचती। आज मैं अपने उन मार्क्सवादी साथियों की तरफ नजर दौड़ाता हूं तो अधिकांश सिस्टम के कल-पुर्जे बन हुए हैं। उन्हें यूजीसी सिस्टम से विरोध था लेकिन अब बिना यूजीसी निकाले सिस्टम का हिस्सा बन जाने से विरोध नहीं है। उन्हें एम ए में नंबर लाने के प्रति द्रोह था लेकिन बैकडोर से सिस्टम में घुस आने पर कोई विरोध नहीं है। एक खास समय के लिए मार्क्सवादी अवधारणाओं को अपनी सुविधा के अनुसार लचीला बनाकर फिर सिस्टम में घुस जाना,मार्क्सवाद के भीतर के प्रतिरोध को कितना जड़ बनाता है,इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है मार्क्सवदियों के लाख मुर्दाबाद के नारे के बीच सत्ता और स्टेट मशीनरी हक की लड़ाई होने देने से पहले ही कुचलने में देर नहीं लगाती। उन्हें पता है कि इस देश का मार्क्सवादी एक खास समय के लिए वैलिडिटी पीरियड तक काम करता है,उसके बाद उसकी हैसियत स्क्रैच की गयी रिचार्ज कूपन की ही हो जाती है। इस देश में ऐसे ही मार्क्सवादियों से आंदोलन की जमीन कमजोर हुई है।

विनायक सेन के साथ खड़े होने के लिए मेरे जो मार्क्सवादी साथियों ने मुझे जो मेल भेजे हैं,उनसे मैं एक बार फिर सवाल करना चाहता हूं क्या कभी सीलमपुर,शहादरा,नांगलोई में किसी की आवाज नहीं दबा दी जाती,उसके खिलाफ फैसले नहीं होते,आप कभी मेल भेजोगे उसे लेकर या फिर विनायक सेन के बहाने अपनी ही ब्रांडिग करते फिरोगे? पार्टी लाइन ही अगर किसी मार्क्सवादी या प्रगतिशील शख्स के भीतर संवेदना पैदा कर सकती है,पार्टी ही अगर तय करती है कि लंबे समय के बाद विनायक सेन के पक्ष में खड़ा होना है या नहीं तब तो ऐसे में हमें संवेदना और मानवीयता के सवाल पर नए सिरे से विचार करना होगा। दूसरी तरफ अपना खेल खराब न हो,इस चिंता के साथ आवाज बुलंद करना या दबा देना है तो यकीन मानिए,ऐसे मौकापरस्त मार्क्सवादियों से सबसे बड़ा खतरा है।
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मीडिया की जो शक्ल आज हमारे सामने है,उस संदर्भ में मीडिया की लक्ष्मण रेखा या फिर मीडिया एथिक्स की बात करना एक साजिश का हिस्सा है। जो लोग ऐसा कर रहे हैं,वे दरअसल मीडिया को बेहतर करने के बजाय उनके भीतर हो रही भारी गड़बड़ियों और लगभग अपराध की श्रेणी में आनेवाली गतिविधियों पर पर्दा डालने का काम कर रहे हैं। यह बहुत ही सीधा सवाल है कि आज जो मीडिया अपने को मुंबई स्टॉक एक्सचेंज में अपना रजिस्ट्रेशन कराकर बाजार में शेयर जारी करने के लिए बेचैन है,उसके लिए मीडिया एथिक्स की बात किस हिसाब से की जा सकती है?

जो मीडिया फिक्की और सेवी जैसी संस्थाओं से अपने उपर मीडिया और मनोरंजन उद्योग की मुहर लगवाने के लिए तत्पर है,उसके साथ आज से चालीस-पचास साल पहले की मीडिया छवि को जोड़कर, महज भावनात्मक और नैतिक आधार पर विश्लेषण कैसे कर सकते हैं? आज जब मीडिया खुद को बिजनेस और उद्योग की शक्ल में बदलने और उसके ही जैसा मजबूत होने के लिए हर संभव तरीके अपना रहा हो तो जरुरी है कि मीडिया विश्लेषण के काम में जुटे लोगों को न केवल विश्लेषण के तरीके बदल देने चाहिए बल्कि उन्हें मीडिया के साथ उन्हीं शर्तों को लागू करने की बात की जानी चाहिए,जिस क्षेत्र की तरफ वह अपने को विकसित कर रहा है। मेरी अपनी समझ है कि आज मीडिया बिजनेस और कार्पोरेट के पैटर्न पर काम कर रहा है, इसलिए उस पर मीडिया एथिक्स के बजाय मीडिया-बिजनेस एथिक्स की शर्तें लागू की जानी चाहिए।


पी.साईनाथ ने अपने लेख ‘दि रिपब्लिक ऑन ए बनाना पील’(दि हिन्दू 3 दिसंबर 2010) में साफ तौर पर लिखा है कि आज मीडिया कार्पोरेट के साथ नहीं बल्कि खुद कार्पोरेट होकर काम कर रहा है और कार्पोरेट का सहयोग और समर्थन करके एक तरह से अपना ही समर्थन कर रहा होता है। इस स्थिति में हम देखें तो मौजूदा मीडिया को दोहरा लाभ हमें किसी भी हाल में लेने से रोकना चाहिए। अपने लगातार प्रसार के लिए वह तमाम तरह की रणनीतियां बिजनेस और मार्केटिंग की तर्ज पर तैयार करता है और जैसे ही इन नीतियों में वह असफल होता है या फिर किसी तरह की अड़चने आती है,तब-तब वह अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ या अभिव्यक्ति की आजादी जैसे मुहावरे का प्रयोग कर एक ऐसा मौहाल तैयार करने की कोशिश करता है कि विश्लेषण और आलोचना में जुटे लोग अपने पक्ष छोड़कर उसके बचाव में उतर आएं।

न्यूज चैनलों के मामले में ऐसी स्थिति बार-बार बनती है जब उसकी कंटेंट के स्तर पर आलोचना की जाती है,तब वह अपने को बाजार,टीआरपी और विज्ञापन के आगे विवश बतलाता है। इतना ही नहीं मेनस्ट्रीम मीडिया का एक वर्ग ऐसा है जो कि खुलेआम बाजार के आगे अपने को मजबूर करार देता है( सीएनएन-आइबीएन के एडीटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई लगातार इस वाक्य का प्रयोग करते आए हैं) लेकिन जैसे ही उस पर सहमतियों को लेकर हमले होते हैं,उस हमले को तुरंत लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला करार दे दिया जाता है। आज जो लोग मीडिया की लक्ष्मण रेखा पर बहस करते हुए सक्रिय नजर आ रहे हैं,वे या तो मीडिया की इस मौजूदा शक्ल से या तो पूरी तरह अंजान हैं या फिर सैद्धांतिक तौर पर इसका विरोध करते हुए भी व्यावहारिक तौर पर इसका समर्थन कर रहे हैं।
अगर मीडिया की लक्ष्मण रेखा के ध्वस्त होने की ही बात करनी है तो फिर वह साल 2010 ही क्यों,उस साल से बात क्यों नहीं शुरु की जानी चाहिए जब पब्लिक ब्राडकास्टिंग के तौर पर दूरदर्शन और आकाशवाणी ने समाज के एक खास वर्ग के साथ दुर्व्यवहार किया,उस समय से क्यों नहीं करनी चाहिए जब इस माध्यम का उपयोग सरकार ने विपक्ष को बतौर देशद्रोह साबित करने के लिए किया या फिर उस समय से क्यों नहीं किया जाना चाहिए,जिस समय सामाजिक विकास के इरादे से माध्यम की शुरुआत की गई औऱ जिसे आगे चलकर प्रोपेगेंडा,सत्ता,राजनीति और राजस्व हासिल करने के अखाड़े के तौर पर तब्दील कर दिया गया?
मीडिया की लक्ष्मण रेखा तब भी पूरी तरह ध्वस्त हुई थी जब शिक्षा और सूचना के प्रसार के लिए भारतीय उपग्रह को लांच किया गया और मुनाफे के लिए ट्रांसपांडर को सीएनएन जैसे चैनल को किराये पर दिया गया? यह बात विवादास्पद जरुर हो सकती है कि अगर इस देश में मीडिया की लक्ष्मण रेखा निर्धारित करने औऱ उसके भीतर ही रहकर काम करने की परंपरा रही है तो उस लक्ष्मण रेखा को लगातार ध्वस्त करके मीडिया को आगे बढ़ाने की भी परंपरा कम मजबूत नहीं है,उनके भी अपने गहरे निशान हैं। मौजूदा दौर में जब मीडिया की लक्ष्मण रेखा टूटने की बात की जा रही है तो एक भ्रामक स्थिति पैदा हो रही है कि जैसे अब तक मीडिया की लक्षमण रेखा टूटी ही नहीं हो? वैसे लक्ष्मण रेखा शब्द का प्रयोग अपने आप में कम विवादास्पद नहीं है और कोशिश हो कि इस शब्द का प्रयोग जल्द से जल्द बंद कर देनी चाहिए।
आज जब हम स्त्री अस्मिता को मजबूती देने की बात करते हैं,खुलेपन और अपने को अभिव्यक्त करने की बात करते हैं,उस अर्थ में लक्ष्मण रेखा शब्द अपने-आप उसके विरोध में चला जाता है। लेकिन अगर इसका अर्थ मानवीयता,सरोकार और संवेदनशीलता के स्तर पर सक्रिय पत्रकारिता और मीडिया से लिया जाता है तो यह बात हमें बिना किसी दुविधा के स्वीकार करनी चाहिए कि मौजूदा मीडिया खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिसकी नींव उदारवादी अर्थव्यवस्था के दौरान पड़ी थी,अनिवार्य रुप से इस लक्ष्मण रेखा को ध्वस्त करके ही पड़ी थी। व्यवहार के स्तर पर यह पत्रकारिता के सैद्धांतिक रुप से बहुत आगे निकल चुका था लेकिन विश्लेषण के स्तर पर तब भी वह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ ही बना हुआ था।
राबर्ट डब्ल्यू मैनचेस्नी ने इस दौरान विकसित होनेवाले ग्लोबल मीडिया के चरित्र को पहचानने के क्रम में उन्होंने सबसे पहले इसी बात पर जोर दिया कि मार्केट और बिजनेस आधारित मीडिया हमें ऑडिएंस के बजाय कन्ज्यूमर के तौर पर देखता है। ऐसे में वह हमसे नागरिक सुविधा की बात कैसे कर सकता है?( दि ग्लोबल मीडियाः दि न्यू मिशनरीज ऑफ कार्पोरेट कैपिटलिज्म,पेज नं-190)। मीडिया विश्लेषण में उस समय की भारी भूल थी कि उसे एथिक्स के तहत ही देखा-समझा जाता रहा,जबकि उसे उसी समय मीडिया बिजनेस एथिक्स की शर्तों पर लाया जाना चाहिए था। ऐसा होने से अतिरिक्त आग्रह के बजाय लोगों के बीच मीडिया को वास्तविक और ठीक-ठीक रुप में देखने की समझ विकसित हो पाती। ऐसा न करके विश्लेषण की धार भोथरी करने का काम हुआ है। आज बीस-बाइस साल बाद जबकि मीडिया की शक्ल अपने शुरुआती दौर से कहीं ज्यादा जटिल,बर्बर और विद्रूप हो चुका है,इसे नैतिकता और लक्ष्मण रेखा के खांचे में रखकर देखना एक खतरनाक स्थिति की ओर ले जाता है। यह काम कितनी बारीकी से किन्तु एक सोची-समझी रणनीति के तहत की जा रही है,इसे हाल की हुई घटना पर सरसरी तौर पर नजर डालने से स्पषट हो जाता है।

22-27 नवम्बर 2010 को अंग्रेजी में छपनेवाली ओपन पत्रिका ने 2G स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में लाबिइस्ट नीरा राडिया का भी हाथ होने के साथ यह भी बता गया कि उसके साथ बातचीत में देश के कुछ प्रमुख मीडियाकर्मी भी शामिल हैं और जिसमें बरखा दत्त( मैनेजिंग एडीटर NDTV24X7) और वीर सांघवी( काउंटर प्वाइंट नाम से हिन्दुस्तान टाइम्स में कॉलम लिखनेवाले पत्रकार और एचटी के एडीटोरियल एडवायजर) का नाम प्रमुखता से लिया गया। पत्रिका के संपादक मनु जोसफ ने टेप की बातचीत को प्रकाशित करते हुए लिखा कि समूचा मीडिया इस मामले में बहुत ही रणनीतिक फैसले के तहत चुप रहा लेकिन अब भारतीय पत्रकारिता का पवित्र समझा जानेवाला चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो चुका है। 29 नबम्वर 2010 वाले अंक में अंग्रेजी की आउटलुक पत्रिका ने भी इसी मसले पर अंक निकाला और इस मामले में मीडियाकर्मियों के नाम आने की बात कही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया 2G स्पेक्ट्रम मामले को पहले से ही कवर कर रहा था लेकिन मीडिया के मामले में पूरी तरह खामोश था। पत्रिका में बरखा दत्त और वीर सांघवी का नाम आने से मीडिया जगत में हंगामा मच गया। सबसे पहले सीएनएन-आइबीएन पर करन थापर ने दि लास्ट वर्ड शो में इस पर चर्चा शुरु की जिसमें कि बरखा दत्त और वीर सांघवी को भी बुलाया गया और दोनों ने आने से मना कर दिया। मनु जोसेफ ने इस बातचीत में साफ तौर पर कहा कि यह मामला सिर्फ मीडिया एथिक्स का नहीं है। NDTV24X7 के सीइओ नारायण राव ने आधिकारिक तौर पर मेल जारी करते हुए इस पूरे मामले को आधारहीन बताया लेकिन 30 नबम्बर 2010 को रात 10 बजे बरखा दत्त ने NDTV24X7 पर खुद आधे घंटे के शो में अपनी बात रखी और प्रिंट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकारों के सामने “एरर ऑफ जजमेंट” शब्द का प्रयोग किया। जाहिर यह बरखा दत्त ने नीरा राडिया के साथ जो भी और जिस अंदाज में बातचीत की थी,उसे सिर्फ एरर ऑफ जजमेंट के तहत नहीं रखा जा सकता था। बहरहाल संजय बारु(बिजनेस स्टैन्डर्ड के संपादक) ने कहा कि लाइफ में हम सबसे गलतियां होती रहती है,बरखा जस्ट से सॉरी। इस पूरे मामले को मीडिया एथिक्स का मामला बनाने में सबसे जोरदार तरीके की कोशिश इस दिन हुई और गलती हो जाने की स्थिति में भी इसे आपसी समझौते के तहत सुलझा लेने का मामला बनाया जाने लगा। 1 दिसंबर 2010 को हेडलाइंस टुडे ने इसी मसले पर रात 9 बजे एक शो किया। इस शो में प्रभु चावला को भी शामिल किया गया क्योंकि आगे टेप में उनकी भी बातचीत शामिल थी। इस शो में भी यही रवैया रहा और दि हिन्दू के संपादक एन.राम ने प्रभु चावला को क्लीन चिट दे दी। 3 दिसंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की ओर से इसी मामले पर बातचीत रखी गयी और राजदीप सरदेसाई ने एडीटर्स गिल्ड की तरफ से बात करते हुए कहा कि यह सच है कि कुछ पत्रकारों ने मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघी है। उन्होंने वो किया है जो कि उन्हें नहीं करनी चाहिए। लेकिन यह खेल का छोटा हिस्सा है। बड़ा हिस्सा है कि कैसे कार्पोरेट चीजों को अपने मुताबिक बदलना चाहता है और हम उनके आगे मजबूर हैं। राजदीप सरदेसाई के लक्ष्मण रेखा शब्द के इस्तेमाल किए जाने के बाद 2G स्पेक्ट्रम घोटाला, नीरा राडिया और मीडिया प्रकरण के संदर्भ में यह शब्द एक मुहावरे की तरह चल निकला और अधिकांश अखबारों और चैनलों ने इस पूरे मामले के संदर्भ में इसका प्रयोग किया। उसी रात आजतक चैनल ने प्राइम टाइम पर मीडिया की लक्ष्मण रेखा नाम से आधे घंटे की स्टोरी चलायी। बाकी के चैनलों ने भी इसी तरह के आसपास शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया।

इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू है कि लगभग सभी चैनलों ने इसे मीडिया एथिक्स का मामला बताकर जिन-जिन पत्रकारों के नाम आए,उन सबों को परिचर्चा के दौरान क्लीन चिट दे दी लेकिन चैनल और मीडिया संस्थान खुद एक-एक करके उनके अधिकारों में या तो कटौती करने लग गए या फिर उन्हें अपनी संस्थान से अलग हो जाने का संकेत दिया। एनडीटीवी ने बरखा दत्त की सोशल साइट से नाम गायब होने लग गए। वीर सांघवी ने 27 नबम्वर 2010 को हिन्दुस्तान टाइम्स में अपना आखिरी कॉलम काउंटर पार्ट लिखते हुए कहा कि जब दिन सामान्य होगें तो फिर से लिखना शुरु करेंगे। इसी कॉलम को हिन्दुस्तान में हिन्दी अनुवाद करके छापा गया। इसके साथ ही पद में कटौती कर दी गयी। इधर एन राम से क्लीन चिट मिल जाने के बाद 11 दिसंबर 2010 को प्रभु चावला ने इंडिया टुडे ग्रुप से इस्तीफा दे दिया। वेबसाइट पर जो खबरें प्रकाशित हुई उसके अनुसार इस प्रकरण के बाद प्रभु चावला को जाने के संकेत मिलने लगे थे। सवाल है कि इन मीडियाकर्मियों ने अपने संस्थान से मुक्त करने या उनके दायरे में कटौती करनी शुरु कर दी तो क्या यह सिर्फ उनकी ओर से लक्ष्मण रेखा का पार किया जाना था? अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,मीडिया के लिए लक्ष्मण रेखा बहुत ही मामूली शब्द है जिसे कि काम करते हुए दिनभर में एक न एक बार इसकी सीमा लांघ ही ली जाती है। कार्पोरेट मीडिया का ढांचा ही ऐसा है कि वह इसे लांघे अस्तित्व में बने नहीं रह सकता। इसलिए जो भी लोग इसे एक घटना का हिस्सा मानकर इसके भीतर ही रहने की बात करते हैं,वे दरअसल मीडिया की वस्तुस्थिति को नजरअंदाज करने की साजिश रचते हैं। 
अगर मीडिया कार्पोरेट औऱ बाजार की जमीन पर खड़ा है तो उसकी सजा सी जमीन पर दी जानी चाहिए न कि नैतिकता और कोरी उपदेशात्मक धरातल पर। आज मीडिया के लिए यह सब बहुत मायने नहीं रखते,इस आधार पर विश्लेषण करनेवाले लोगों को बौद्धिक विमर्श के दायरे में तो अपनी सक्रिय होने का मौका जरुर मिल जाता है लेकिन अगर गंभीरता से नतीजे पर बात करें तो वे जिन चीजों के प्रतिरोध में खड़े होते हैं,वह उनके समर्थन में काम करने लग जाता है। आज के संदर्भ में यही हो रहा है। मीडियाकर्मियों को भी विश्लेषकों के साथ सुर में सुर मिलाकर मीडिया एथिक्स और लक्ष्मण रेखा पर बात करना इसलिए अच्छा लग रहा है क्योंकि वे जानते हैं कि इसका व्यावहारिक रुप कुछ नहीं है,हां यह मीडिया के भीतर की संडाध पर मोटे पर्दे के तौर पर ढंकने के काम जरुर आ जा रहा है।


मूलतःप्रकाशित "पाखी" पत्रिका जनवरी 2011

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नाट प्लेस के ओडियन में जब हम नो वन किल्ड जेसिका देखने घुसे तो जेसिका लाल को न्याय दिलाने में मीडिया की क्या भूमिका रही थी, उस याद से कहीं ज्यादा नीरा राडिया टेप प्रकरण में किन-किन मीडियाकर्मियों के नाम सामने आये, ये बातें ज्यादा याद आ रही थीं। हमें लग रहा था कि NDTV 24X7 पर 30 नवंबर के बरखा दत्त कॉनफेशन के बाद, उसका दूसरा हिस्सा देखने आ गये हैं। मामला ताजा है, इसलिए मीडिया शब्द के साथ राडिया अपने आप से ही याद हो आता है। पी चिदंबरम ने प्रेस कानफ्रेंस में पत्रकारों से मजाक क्या कर दिया कि ऑर यू फ्रॉम मीडिया ऑर राडिया कि अब मीडिया के भीतर ये न केवल मुहावरा बल्कि मीडिया के बारे में सोचने का प्रस्थान बिन्दु बन गया है। बहरहाल, राडिया-मीडिया प्रकरण के बाद मैं पहली फिल्म देख रहा था जिसका कि बड़ा हिस्सा मीडिया से जुड़ता है। मीडिया क्रिटिक सेवंती निनन ने राडिया टेप को मीडिया स्टूडेंट और पीआर प्रैक्टिशनरों के लिए टेक्सट मटीरियल करार दिया है। मैं नो वन किल्ड जेसिका फिल्म को हाउ टू अंडर्स्टैंड इंगलिश चैनल लाइक एनडीटीवी के लिए जरूरी पाठ मानता हूं। हालांकि इस फिल्म को एनडीटीवी के लोगों ने नहीं बनाया है, लेकिन जिस तरह से एनडीटीवी के कुछ ऑरिजिनल मीडियाकर्मी और कुछ चरित्र के तौर पर दिखाये गये हैं, पूरा सेटअप एनडीटीवी का है, ऐसे में फिल्म का बड़ा हिस्सा एनडीमय हो गया है जो कि कई बार सिनेमा के भीतर गैरजरूरी जान पड़ता है।

इसे आप संयोग कहिए कि एनडीमय ये फिल्म ऐसे समय में आयी है, जबकि खुद एनडीटीवी के मिथक पूरी तरह ध्वस्त हो चुके हैं। इसलिए आप जब इस फिल्म से गुजरते हैं, तो ऐसा लगता है कि इसे एनडीटीवी की करप्ट हुई इमेज को डैमेज कंट्रोल के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। ये आप और हम दोनों जानते हैं कि जब इस फिल्म की शूटिंग हुई थी तो न तो 20 नवंबर 2010 की ओपन पत्रिका की स्टोरी आयी थी, जिसमें कि बरखा दत्त को कांग्रेस के लिए लॉबिंइंग करते हुए बताया गया, न नीरा राडिया से बातचीत की स्क्रिप्ट छापी गयी थी और न ही चार और पांच दिसंबर 2010 के द संडे गार्जियन की वो स्टोरी ही प्रकाशित हुई थी, जिसमें आईसीआईसीआई बैंक के साथ मिलकर शेयरों के दाम बढ़ाने और करोड़ों रुपये की घपलेबाजी की बात की गयी थी। प्रणय राय की जो आभा थी वो तब बरकरार थी और ये स्टोरी भी नहीं आयी थी कि बैंक ने आरआरआरआर नाम की एक ऐसी कंपनी, जिसके कि दो ही बोर्ड डायरेक्टर थे प्रणय राय और राधिका राय, को 73.91 करोड़ रुपये बिना कोई ब्याज के लोन दे दिये थे। तब ये भी स्टोरी नहीं आयी थी कि एनडीटीवी की विदेशों में कई ऐसी कंपनियां हैं, जिसके अकाउंट डीटेल भारत की एनडीटीवी लिमिटेड की बैलेंस शीट में नहीं नत्थी की गयी है और तब ऐसा भी नहीं हुआ था कि प्रणय राय ने इन सब बातों का जवाब देने के बजाय द संडे गार्जियन को कानूनी नोटिस भेजते हुए 100 करोड़ रुपये हर्जाने के तौर पर जमा करने की बात कही थी।
हां, कंटेंट के स्तर पर फिल्म की शूटिंग के दौरान ये जरूर शुरू हो गया था कि एनडीटीवी घंटों यूट्यूब की फुटेज लगाकर स्टोरी करने लग गया था, जिसका कि कई बार कोई सेंस नहीं होता, सिर्फ खर्चा बचाने के लिए ऐसी स्टोरी की जाती है। ये जरूर होने लग गया था कि चैनल के दिग्गज राजनीतिक संवाददाता लंदन में रावण फिल्म के प्रीमियम शो पर अमिताभ, अभिषेक और ऐश्वर्य की लाइव फुटेज दिखाकर घंटों जी सर, हां जी सर करना शुरू कर दिया था। भूत-प्रेत और ज्योतिष का धंधा न करने के बावजूद कंटेंट के स्तर पर एनडीटीवी के मिथक ध्वस्त होने शुरू हो गये थे और चैनल के लिए ये भारी वित्तीय घाटे का दौर चल रहा था, जिसकी भरपाई वो किसी भी हाल में करना चाहता था। ऐसे में कंटेंट के तौर पर ऑडिएंस एनडीटीवी की उन सारी करतूतों को भूल जाए, उस लिहाज से जरूरी था कि ऐसी कोई फिल्म बने, जिसमें वो अपने को रंग दे बसंती जैसी फिल्म की तरह ब्रांड को स्टैब्लिश कर सके। फिल्म में रंग दे बसंती के कुछ फुटेज और चैनल की ओबी हमारे भीतर उसी एहसास को जगाने की नाकाम कोशिश करती है। अगर राडिया टेप प्रकरण न होता तो इस फिल्म को एनडीटीवी के लिए ब्रांड री-स्टैब्लिशमेंट की फिल्म मानी जाती लेकिन अब इसे डैमेज कंट्रोल की फिल्म के तौर पर ही देखा जाएगा। और फिर एनडीटीवी ही क्यों, आनेवाले समय में मीडिया पार्टनरशिप को समेटती हुई जो भी फिल्में बनेगी, उसे देखने का नजरिया ब्रांड स्टैब्लिशमेंट से कहीं ज्यादा डैमेज कंट्रोल ही होगा क्योंकि राडिया टेप प्रकरण ने मीडिया के कारनामों को जितनी बेशर्मी से बेपर्दा किया है, उसकी भरपाई के लिए दो-चार प्रो मीडिया फिल्मों की दरकार तो पड़ेगी ही। इसी में अगर पीपली लाइव की टीम दूसरी फिल्म बनाती है और मीडिया को बतौर विलेन चरित्र के तौर पर दिखाती है, तो उसमें बरखा दत्त का लक्ष्य और नो वन किल्‍ड जेसिका से ठीक अलग चरित्र होगा। इसकी कल्पना करते हुए मुझे अभी से ही सिहरन हो रही है। वैसे इस फिल्म ने प्रो एनडीटीवी और प्रो बरखा दत्त दिखाने के क्रम में भी कई जगहों पर ऐसा कुछ जरूर कर दिया है, जिससे एनडीटीवी की इलिटिसिज्म का पर्दा जहां-तहां से मसक जाता है और उसके भीतर से एनडीटीवी और बरखा दत्त की जो शक्ल दिखाई देती है, वो हमें इस बात का यकीन दिलाती है कि इस शक्ल पर और राडिया टेप की मटीरियल जोड़कर एक अलग से फिल्म बनाने की जरूरत है। बरखा दत्त के शब्दों में कहें, तो ये एरर ऑफ जजमेंट है और निर्देशक की तरफ से भारी चूक हुई है, उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था।
सबसे पहले तो बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी (रानी मुखर्जी) को एनडीटीवी की एक ऐसी मीडियाकर्मी के तौर पर दिखाया गया है, जो कि अपने पेशे को लेकर बहुत ही पैशनेट है, पूरी तरह समर्पित है। इतनी समर्पित है कि बिग विमान के हाइजैक हो जाने की खबर पर अधूरे सेक्स के दौरान ही फटाफट कपड़े पहनते हुए अपने सेक्स पार्टनर को यह कहकर चल देती है कि नाउ डू इट सोलो एंड फ्लो। यानी तुम मास्टरवेट करके बहा दो। मुझे तो अब जाना है। मीडिया हलकों के बीच की गपशप को फिल्म इतनी स्ट्रांगली दिखाएगा और ये बरखा दत्त के चरित्र के लिए इतना जरूरी है, इसकी उम्मीद हमने ऑडिएंस के तौर पर बिल्कुल भी नहीं की थी। एक बार फ्लाइट में गांड फटकर हाथ में आ जाएगी, जिसका प्रोमो देखकर टीवी पर हम पहले ही अघा गये, बाकी फिल्मों में सिर्फ फक (अनुराग कश्यप ने तीन सौ लोगों के बीच इसे चोद कहा था और कहा था कि क्यों ये हिंदी में बोलने से अश्लील है और अंग्रेजी में कॉमन वर्ड) और बिच बोलती है। इस पूरी फिल्म में मीरा के संवाद का बड़ा हिस्सा फक शब्द में खप जाता है। इंग्लिश मीडिया के लिए ये कॉमन वर्ड है, ये एक स्थापना बनती है। दूसरा कि बरखा दत्त की जो छवि बनती है, वो मीडिया से अलग पेशे और मिजाज से जुड़े लोगों के लिए भले ही एक संजीदा मीडियाकर्मी की बनती हो लेकिन हम जैसे लोग, जो कि मीडिया से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं, उनके सामने एक ऐसी छवि कि वो किसी की भी स्टोरी आइडिया हथियाकर अपने को स्टार घोषित करने में नहीं चूकती। उसे बिग विमान के हाइजैक होने के आगे जेसिका लाल हत्याकांड की स्टोरी में कोई दम नजर नहीं आता और अकेले अदिति की इस स्टोरी पर स्टैंड लेने का वो मजाक उड़ाती है। स्टोरी में सेलेबल एलीमेंट की झलक मिलते ही बहुत ही शातिर तरीके से अदिति से ये स्टोरी हड़प लेती है और उसका फिर से मजाक उड़ाती हुई रातोंरात फिर से स्टार बनती हुई नजर आती है। ऐसी स्थिति में एनडीटीवी के भीतर का माहौल ऐसा बनता है कि एनडीटीवी को कोई और नहीं, सिर्फ और सिर्फ बरखा दत्त चलाती है और अपनी शर्तों पर चलाती है और उस अपनी शर्तों में सबकुछ शामिल है। कई ऐसे सीन हैं, जिन्‍हें देखकर आपको अंदाजा हो जाएगा कि तब भी लाबिइंग और एक्सेस जर्नलिज्म का दौर चल रहा था और तब भी बरखा दत्त को फैसले आने के पहले ही उसकी कॉपी मिल जाया करती थी। बरखा दत्त के तौर पर मीरा गैथी को इस रूप में दिखाया गया है कि एक सेलेब्रेटी पत्रकार चाहे तो कुछ भी कर सकता है, जिसके बारे में अमेरिका में बाटरगेट का खुलासा करनेवाले बेन ब्रेडली (2006) ने कहा कि ऐसे पत्रकारों के साथ सबसे खतनाक स्थिति ये होती है कि ये जितने महत्व के होते नहीं, उससे कहीं ज्यादा अपने को समझने लगते हैं और फिर तय नहीं होता कि वे भविष्य में इसे अपने पेशे से अलग किस रूप में इस्तेमाल करेंगे। इधर…
एनडीटीवी और प्रणय राय की बात करें तो एनडीटीवी को एक ऐसे चैनल के तौर पर दिखाने की कोशिश की गयी है, जो कि लोगों के लिए हक की आवाज उठाता है, प्रणय राय फॉर दि सेक ऑफ जस्टिस को लेकर कुछ भी करने से परहेज नहीं करते। शायद इसलिए जेसिका हत्या के सबसे मजबूत गवाह विक्रम को फिल्म का झांसा दिलाकर, उसके वर्जन को ऑनएयर करने की भी अनुमति दे देते हैं। यहां प्रणय राय का कैरेक्टर रण फिल्म के विजयशंकर मल्लिक से ज्यादा प्रैक्टिकल है, जो ये जानते हैं कि चैनल को लीड लेने के लिए ये सब करना पड़ता है। जेसिका लाल की बहन शबरीना, जो कि हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते बुरी तरह फ्रस्ट्रेट हो चुकी है, अपनी बाइट देने से बचने के लिए फोन बंद कर देती है, घर से बाहर चली जाती है, उसकी आवाज की नकल करती हुई बरखा दत्त दिखाई गयी है और फर्जी तरीके से एक स्टोरी प्लांट करती है और फिर आगे चलकर ग्लोरीफाय करती है। फिल्म में इस स्टोरी को इस तरह से प्रोजेक्ट किया गया है कि पूरी तरह इसने ही जेसिका लाल को न्याय दिलाया हो। ये सीन देखते हुए आप एकदम से सवाल करते हैं – यार, जब ये सबकुछ करना गलत नहीं है और वो खुद कह रही है कि पहले भी ऐसा कर चुकी है, तो फिर आज राडिया टेप प्रकरण में टेप की विश्वसनीयता पर क्यों सवाल खड़े कर रही है? खुद शबरीना की आवाज की नकल करके उसके नाम पर उसकी वॉइस चला देती है, तो फिर ओपन के संपादक मनु जोसेफ से ये सवाल क्यों कर रही है कि आपने स्टोरी प्रकाशित करने से पहले मेरा पक्ष जानने की कोशिश क्यों नहीं की? क्या वो खुद शबरीना या दूसरे लोगों का पक्ष जानने की कोशिश करती है। इन दिनों राजदीप सरदेसाई जिस तरह से मीडिया की लक्ष्मण रेखा लांघने को लेकर विलाप कर रहे हैं, इस फिल्म में ये बात मजबूती से स्थापित होती है कि मीडिया दरअसल लक्ष्मण रेखा (व्यक्तिगत स्तर पर इस शब्द का विरोध करते हुए) लांघकर ही अपने को प्रासंगिक बनाये रखना चाहता है। ऑडिएंस की याददाश्त इतनी कमजोर मान ली जाती है कि वो इसे नजरअंदाज कर ही जाएगी, फॉर ग्रांटेड ले लिया जाता है। इसी नजरिये से आक्रोश फिल्म का ये डायलॉग पॉपुलर हुआ – क्या होगा, तीन दिन बाद इंडिया फिर क्रिकेट मैच जीत जाएगी और मीडिया उसके पीछे होगा। राडिया टेप से जोड़कर इस फिल्म में एनडीटीवी और मीडिया को देखें तो वो ऐसे एक भी मुद्दे को नहीं उठाता, जिसमें कि उसे सेलेबल एलीमेंट नजर नहीं आता। अगर किसी को नजर आता भी हो, तो अदिति के स्टोरी आइडिया की तरह पहले कुचलने की और फिर उसे हाइजैक करने की कोशिश की जाती है। इस फिल्म में बरखा दत्त की इससे अलग छवि नहीं बनने पाती है। ये लक्ष्य फिल्म की बरखा दत्त की छवि को मजबूत करने के बजाय एक चालबाज मीडियाकर्मी की छवि स्थापित करती है।
इस पूरी फिल्म में एनडीटीवी का सेटअप देखकर शायद आपको कई चीजें खटकती हो। पहली और सबसे जरूरी चीज कि चैनल के नीचे जो लगातार स्क्रॉल चल रहे होते हैं, उसमें हिंदी के एक भी शब्द की स्पेलिंग शुद्ध नहीं दिखाई गयी है। मुंबई से फिल्म क्रिटिक अजय ब्रह्मात्मज ने साफ तौर पर कहा कि जब इस फिल्म को देखने जाएं तो इस पर गौर करें। देखो तो सचमुच लगा कि एक-एक शब्द को गलत लिखने में कितनी मेहनत पड़ गयी होगी लिखनेवाले को। आमतौर पर एनडीटीवी के स्क्रॉल और टिकर में इतनी गलतियां नहीं होती। ये ऑडिएंस पर निगेटिव असर डालती हैं। दूसरे कि चैनल का सेटअप NDTV 24X7 का है लेकिन सारा कुछ हिंदी में डिलीवर हो रहा है। एनडीटीवी इंडिया की निधि कुलपति जो कि जस्ट इंटर्वल के बाद दिखाई देती हैं, के अलावा बाकी सब NDTV 24X7 के ही लोग हैं। अंग्रेजी चैनल पर हिंदी बोलना मजबूरी है क्योंकि मास ऑडिएंस हिंदी को ही समझ पाएगी। ये काम टाइम्स नाउ ने भी किया। कार्पोरेट में सारी स्टोरी और पीटीसी भले ही अंग्रेजी में ही दी हो लेकिन फैशन के बारे में लगा कि हिंदी के लोग ज्यादा देखेंगे तो हिंदी में सबकुछ किया। यहां आपके मन में सवाल उठेगा कि जब हिंदी में ही सबकुछ किया तो फिर सेटअप, ग्राफिक्स और बाकी चीजें एनडीटीवी इंडिया का ही क्यों नहीं रखा? ब्रांड के तौर पर अंग्रेजी को और भाषा के तौर पर हिंदी को… ये दोनों तो अलग-अलग चीज हो गयी। इंटर्वल के पहले तक एनडीटीवी का पुराना लोगो है। ये लोगो सबसे ज्यादा करगिल की स्टोरी के दौरान बरखा दत्त को पीटीसी देते हुए दिखाया जाता है। इंटर्वल के बाद मौजूदा लोगो दिखने लग जाता है। ऐसा शायद एनडीटीवी की ऐतिहासिकता को स्थापित करने के लिए किया गया हो लेकिन ये साफ नहीं होता और नतीजा इंटर्वल के पहले तक चैनल का गेटअप क्लासिक के बजाय डल दिखता है। इस पूरी फिल्म में चैनल की भूमिका इस रूप में स्थापित की गयी है कि जेसिका लाल हत्याकांड को लेकर जो फैसले हुए, वो गलत था और मीडिया ने इसे दुरुस्त करवाया। रुषि हत्याकांड मामले में अब यही कोशिश की जा रही है। चैनलों की स्पेशल स्टोरी और अखबारों की हेडलाइंस ऐसा ही बताते हैं कि वो आरुषि को न्याय दिलाने के लिए मर मिटेंगे। लेकिन…
जेसिका लाल हत्याकांड में मीडिया को एक सफलता तो मिल गयी और पिछले दस सालों के चैनल इतिहास को पलटकर देखें, तो सबसे ज्यादा इसी स्टोरी का हवाला देकर इसे भुनाने की कोशिश की गयी और कार्पोरेट मीडिया की सकारात्मक भूमिका समझाने की कोशिशें की गयी। आज ऐसे चैनलों को लेकर फर्जी एसएमएस और ट्विट करने के मामले सामने आने लगे हैं, राजदीप सरदेसाई को सीएनएन-आइबीएन के इस कारनामे पर माफी (19 दिसंबर) मांगनी पड़ जाती है, ऐसे में एसएमएस एक्टिविज्म को लेकर कितना भरोसा रह जाएगा, ये मीडिया-धंधा के लिए एक सवाल है। दि सिटीजन जर्नलिज्म के सबसे बड़े जानकार रिचर्ड वर्टज इसे जबरदस्ती पैनिक मोड में लाने और बाजार पैदा करने की स्थिति मानते हैं। भारत में इस धंधे को मजबूत हुए तकरीबन 10 साल हो गये। लेकिन ये फिल्म राडिया टेप प्रकरण और सीएनएन-आइबीएन के फर्जी ट्विट दिखाने के मामले सामने आ जाने के बाद मीडिया की एक बहुत ही मक्कार, अपने फायदे के लिए किसी भी हद के समझौते करने और गिर जाने की छवि पेश करती नजर आती है। मुझे डर है कि आनेवाली फिल्में चाहे लाख कोशिश कर लें, मीडिया की इस मजबूत होती जाती छवि को ध्वस्त शायद ही कर पायी और इसी क्रम में अगर पीपली लाइव टीम की एक चोट और पड़ गयी तो सिनेमा के लिए मीडिया लंबे समय तक विलेन कैरेक्टर के तौर पर स्थापित हो जाएगा।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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पीडी ने फेसबुक पर अपने घर में मौजूद किताबों की तस्वीर लगायी और नीचे कैप्शन लिखा- मेरे घर में किताबों का एक तख्ता। उस स्टेटस पर लोग अपने-अपने तरीके से सोसा छोड़ने में लगे हैं। लेकिन मैंने जब इस तस्वीर के साथ स्टेटस को पढ़ा तो याद करने लग गया कि मेरा बचपन जिस घर में गुजरा,वहां कौन-कौन सी किताबें थी? हम किन किताबों के बीच बड़े हुए आपको जानकर हैरानी होगी कि कोई किताब नहीं होती मेरे घर में। मैं अपने घर का अंतिम संस्करण हूं,घर में भैया-दीदी सब पढ़नेवाले थे। ऐसे में यह कहना कि कोई किताब नहीं होते,गलत होगा। लेकिन पीडी ने जिन किताबों की तस्वीर लगायी है,वो परंपरागत तौर पर पढ़ने के संस्कार और आदत से जुड़ी हैं। उन किताबों की बातें हैं जो कि कोर्स का हिस्सा न होते हुए भी जानकारी बढ़ाने और बस पढ़ने के लिए रखी जाती है। मेरे घर में ऐसी एक भी किताब नहीं थी जो कि महज जानकारी बढ़ाने के लिए या शौकिया तौर पर पढ़ने के लिए खरीदी गयी थी। मैं ये बात आज दिन तक नहीं समझ पाया कि आखिर पापा ऐसा कौन सा संस्कार लेकर बड़े हुए कि किताबें जब तक कैंसर की दवाई जितनी जरुरी नहीं हो जाती,तब तक उसे खरीदना,फालतू में पैसे फूंकना होता। हर साल सारे भाई-बहनों के आगे की क्लास में जाने पर ऐसी जुगाड़ करते कि जैसे किसी के पायजामे को काटकर कच्छा बनाने का काम किया जा रहा हो,फुलपैंट को काटकर हाफ पैंट बनाया जा रहा हो। बड़े भैया और दीदी जिन किताबों को पढ़ चुकी होती,उससे ठीक नीचे वाले भइया या दीदी के पास सरका दिया जाता और मेरे पास आते-आते किताबों की ऐसी हालत हो जाती कि जैसे दंगे में किसी तरह बचाकर निकाली गयी हो। उसके उसके पन्ने ऐसे मुड़ जाते कि जैसे टेंट हाउस की चादर पर पता नहीं कितने लौंडों ने लोट-पोट किया होगा।

पापा एक-एक किताब को लेकर इतनी सख्ती बरतते कि कई बार लगता कि नई किताब आने से पहले मौत क्यों नहीं आ जाती? मजे की बात ये कि मेरे समय में अक्सर किताबें बदल जाती और मुझे कई किताबें नई खरीदनी होती। ये मेरे लिए जितनी खुशी की बात होती,उससे कई गुना ज्यादा तकलीफदेह भी। पुरानी किताबों के साथ बेहयाई करने पर आप कह सकते थे कि दीदी ने ऐसे ही दी थी मुझे लेकिन नई किताबों के साथ कोई बहाना नहीं होता। नतीजा हर 15 दिनों पर उसकी चेकिंग और थोड़ी भी उसकी हालत नाजुक जा पड़ी कि दे धमाधम। मां ऐसे ही वक्त पर हंसुआ आगे कर देती और कहती- काट के दू टुकरी कर दीजिए,न रहेगा बांस न बजेगा बांसुरी,रहेगा ही नहीं तो किताब कौन फाडेगा। पापा किताबों के साथ सख्ती सिर्फ इसलिए बरतते कि अगले साल उससे बदलकर आगे की क्लास की किताबें खरीदी जा सके या फिर आधी कीमत पर बेची जा सके। हम किताबों के पन्ने सालभर तक इसी समझ के साथ पलटते कि इसे कोर्स खत्म होने पर हर हालत में आधी कीमत पर बेचनी है।..और फिर मैं ही नहीं,ये पूरी संस्कृति का हिस्सा था कि किताब बेचकर या बदलकर आगे की क्लास की किताबें ली जाए। उस समय ऐसा करना बहुत अखरता था लेकिन आज जब मैं कॉन्वेंट स्कूल की मंहगी-मंहगी पिक्चर बुक और ग्लासी पेपर पर छपी किताबों को घर की मम्मियों को कबाड़ के हाथों बेचता देखता हूं तो कलेजा कटने लग जाता है। हम किताबों को इस तरह बेरहमी से बेचते हुए नहीं देख सकते थे। पापा कापियों के पन्ने गिनकर और उस पर नंबर लिखकर देते और भर जाने पर गिनकर वापस लेते। इस बीच जहां रस्किन बांड के प्रभाव में आकर जहाज या नाव बनाने की कोशिश की,दो-चार पन्ने खिसकाए नहीं कि फिर वही धमाधम। किताबों और कॉपियों को लेकर इतने सख्त माहौल में जिसकी परवरिश हुई हो,उसके लिए कोर्स के अलावे किताबों के बारे में सोच पाना अय्याशी ही माना जाता।

लेकिन जिस तरह जिनके पापा या दादाजी पढ़ाकू रहे हैं और उनके घरों में किताबें एक सम्पत्ति के तौर पर सहेजी जाती रही है,मेरे घर में उसकी जगह और मैं तो कहता हूं किसी विद्वान के घर की किताबों से कहीं ज्यादा संख्या में लाल रंग के बही-खाते होते। आला जिसे हम ताखा कहते,चारों तरफ उनमें भरी वही लाल बही-खाता। मेरे कई दोस्तों के पापा वकील थे,उनके घर भी लाल रंग की किताबें भरी होती लेकिन वो अलग दिखती। मैं मां से पूछता कि ये कानून की किताबें हैं। वो कहती- कानून की नहीं है,बाबा( पापा के पापा) के जमाने का हिसाब-किताब है। हर दीपावली के बाद ऐसे खातों की संख्या बढ़ती जाती। मैंने कई बार कोशिश की थी उन खातों को देखने की। हमारे लिए उसे पलटकर देखने की हसरत पोर्नोग्राफी से कहीं ज्यादा थी। बल्कि मैंने तो पहले पोर्नोग्राफी की किताब पढ़ी,तब जाकर इन बही-खातों को पलटा। एक-दो बार कोशिश करते पकड़ा गया तो पापा ने कहा-खबरदार जो इसके साथ छेड़छाड़ कियासखाल खींच लेंगे। मैं और मेरी सबसे छोटी दीदी सहम जाते। लेकिन जैसे पोर्नोग्राफी के प्रति तमाम जकड़बंदियों के बावजूद जानने की ललक बनी रहती है,वही हाल हमारा था। हम लगातार एफर्ट लगाते रहते कि इसे देखें। पापा इन बही-खातों के प्रति गजब तरीके से मोहग्रस्त होते,इसे हुंडी और खतियान कहते।

एक बार मैंने देखा कि मां ने एक बही से कुछ पन्ने निकालकर कॉपी सिलकर दे दी। तब मैं वाटर कलर से पेंटिंग करना सीख रहा था। मुझे झकझक पीले और मोटे पन्ने को देखकर लालच आ गया और तब सोचने लगा कि इस तरह कितने सादा पन्ने होगें इन बही-खातों में। एक बार दीवाली की सफाई में सारे बही-खाता जमा किए गए और उसे किसी एक जगह ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी। सब बाहर निकला और थोड़ा बिखरा था। लिहाजा मैंने पलटना शुरु किया। हिन्दी में तारीख लिखी थी और संख्या भी हिन्दी में। हमें पढ़ने में दिक्कत होती। और बहुत ही अजीब स्ट्रक्चर में सारा हिसाब-किताब लिखा होता। मैंने समझना शुरु किया। हैरानी तो तब हुई जब 1955-56 ई में बाबा  हाथ का लिखा जिस तरह का हिसाब-किताब था 1986 में पापा के हाथ का लिखा भी हूबहू वैसा ही। सिर्फ दोनों बहियों पर फर्म के नाम अलग थे। वही पीले पन्ने और काले रंग की स्याही से लिखे हिसाब-किताब। मैंने पढ़ा था बाबा के 1956 ई. में लिखा हिसाब-किताब। उसमें उधार लेनेवाले का नाम और पता लिखा होता,रकम भी। लेकिन सब बहुत ही अलग अंदाज में। बख्तियारपुर के गंगाराम ने 340 रुपये लिए थे लेकिन चुकाया नहीं था कभी। जिसने चुका दिया होता,उसके हिसाब पर क्रास लगा दिया जाता। एक बार बही-खाते ताखा से बाहर निकले तो पापा ने उसमें बहुत अधिक दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। बस ये था कि करंट के 8-10 साल के हिसाब तब भी ताखा पर ही होते।

हमने सबसे पहले इन पुराने बही-खातों से खाली पन्ने निकालने शुरु किए जो कि बहुत ही पुराने पड़ जाने पर मुड़ते ही फट जाते। तब हम उसे मुठ्ठी में मरोड़कर चूरमा की तरह लोगों पर उड़ाते और ही ही-ठी ठी करते भाग जाते। फिर जिन हिसाब के आगे क्रास के निशान नहीं लगे होते,उनकी रकम एक कॉपी पर लिखते जाते और जोड़ते कि कितने पैसे उधार हैं। मां से पूछता- अच्छा मां ये बताओ कि जिन लोगों के उधार हैं,वो सबके सब मर गए होंगे क्या? पता तो लिखा है सबका,उसका कोई तो होगा बेटा,उसके बेटे का बेटा? मां पूछती- काहे,क्या करोगे जानकर? मैं कहता जो घर के थोड़ी दूर पर ही हैं,वहां तो जाकर ला ही सकते हैं। मां कहती खोपड़ी का इलाज करावे पड़ेगा तुम्हारा। कभी-कभी झल्ला जाती और कहती- अभी से ही पैसे-कौड़ी को इसी तरह मगरमच्छ की तरह दांत से पकड़े रहो,आगे काम देगा। दुनिया का बाल-बच्चा किताब कॉपी से लिखा-पढ़ी करके अक्ल-बुद्धि बढ़ाता है, इ है कि दौलत बटोरने का सोच रहा,हाय रे लक्ष्मीजी का चस्का। हाथ को कान तक ले जाती और बुदबुदाती- सुबुद्धि दीहो,ठाकुरजी,दीनानाथ। मां को इस बात की बहुत चिंता होती कि अभी से ही इस चक्कर में पड़ा तब पढ़कर कुछ नहीं कर सकेगा। वो किसी भी हाल में नहीं चाहती कि मैं समाज के बाकी लोगों की तरह दूकान में बैठकर साड़ी-ब्लाउज बेचूं। मेरा बेटा सरस्वती के कृपा से कमाएगा,खाएगा,लक्ष्मीजी के पीछे भागकर नहीं। हमने अपने बचपन का लंबा समय बाबा और पापा के इन बही-खातों के साथ सपने देखते हुए बिताया कि कितना हजारों-हजार जमा कर सकते हैं हम इसमें नोट किए उधार पैसे से। दूसरी तरफ मोटी-मोटी रकम का कर्ज देखकर सहम जाता कि किसी दिन कर्जा मांगने आ गया कोई तो?

पापा से एक बार डरते-डरते पूछा कि इस्लामपुर का रास्ता कहां से जाते हैं? पापा ने कहा- क्यों? मैंने बताया कि इस बही में लिखा है कि वहां के विनायकजी के पास 1200 रुपया बाकी है। उन्होंने कहा- तो? मैंने कहा- मांगने जाना चाहते हैं। पापा का पारा गरम हो गया,जो धमाधम शुरु किया कि वहीं पैंट में ही। मां सिर्फ इतना बोली- लतखोर है,पहिले मना किए तो नहीं माना। वैसे मुझे इस बात से बड़ी खुन्नस रहती कि कोई पापा का पैसा लेकर चुकाएगा कैसे नहीं? बाद में जब बड़ा हुआ तो इसी भाव से पापा बोर्ड के बाद फ्री होने की स्थिति में जैसे ही कहते- जोगेशरजी के यहां ढाई हजार बाकी है, 7 महीना हो गया। आगे कुछ कहते कि मैं कहता- जाएं पापा मांगने? पता नहीं क्यों,पापा को मेरी यही एक आदत पसंद आती,बाकी कुछ भी नहीं। कहते जाओगे,मैं कहता हां। आज फेसबुक पर तमाम लोगों को देखता हूं कि वो विरासत के तौर पर किताबों की चर्चा करते हैं। मेरे लिए विरासत किताबें नहीं,उधार के बही-खाता थे। मुझे खुद हैरानी होती है कि आज मेरे पास एडोर्नो,देरिदा,टेरी एग्लटन,वीवर,मैनचेस्नी,एम सी रॉबी,डगलस सहित आधा-गांव,मैला आंचल से लेकर नामव सिंह,रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध की रचनावली कैसे है?

मेरे घर में पहली बार साहित्यिक किताब तब आयी थी जबकि मुझे संत जेवियर्स कॉलेज में एक दूकान की पर्ची देते हुए हजार रुपये की अफनी मनपसंद किताबें खरीदने के लिए कहा गया था और मैंने दूकानदार को साहित्य अकादमी से सम्मीनित रचनाकारों की लिस्ट पकड़ा दी थी और कहा था कि पहले से लेकर जहां तक हजार रुपये में आ जाए,दे दीजिए। मैं रांची में रहता था लेकिन हसरत थी कि ये सारी किताबें घर पर हो। बस मा की हनुमान चालीसा और ऐसी ही देवी-देवताओं की चुटका साहित्य को किनारे करके लगा दिया। आप हंसेगे लेकिन मां सेवासदन और तमस पर भी पूजा करते वक्त लाल टीका लगा देती। मैं मुस्कराता तो कहती- हंसों मत,हमको पता है कि इसमें गरीब-दुखिया के बारे में खिस्सा होगा, अहीर-मजदूर के बारे में लिखा होगा। हम एतना बूडवक थोड़े हैं कि पता नहीं है कि प्रेमचंद क्या लिखते हैं? फिर भी टीका लगा देते हैं कि कुछ भी लिखा हो,सुबुद्धि वाला बात ही होगा न। साहित्य को लेकर मेरी मां की कुछ ऐसी ही समझ थी। आज घर में उन खातों की जगह मेरी बहुत सारी किताबें देखकर लोग हैरान होते हैं। भइया लोग फैशनेबल दूकानदार हो गए तो सबकुछ नोटबुक में आ गया,बही खाता बाबा और पापा के जमाने तक ही सिमट गया। मैं इस बही-खाते को ही किताब की विरासत कहूं तो आप बुरा मान जाएंगे लेकिन यकीन मानिए,इसके हिसाब-किताब जोड़कर,पढ़कर,उन पैसों के बारे में सोचकर, कर्ज लेकर मर गए लोगों के बारे में जानने की बेचैनी की बदौलत ही मैंने प्रेमचंद को पढ़ा,रेणु के उन कपड़िया लोगों के बारे में पढ़ा और पचा गया जो किसी को तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं देता लेकिन किसी को हारमोनियम का कवर बनाने के लिए कपड़े दे देता है। मैं उस समाज से इन बही-खातों को पलटते हुए ही उससे दूर होता चला गया और अपने को कर्ज में मिलनेवाले पैसे की कल्पना से कहीं ज्यादा सुखी महसूस करता हूं। 
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कल यानी 31 दिसंबर को आजतक के 10 साल पूरे हो गए। इस मौके पर आजतक ने शुरुआती दौर से जुड़े लोगों की बाइट,उनकी फुटेज और चैनल की पिछले दस साल में कवर की गयी स्टोरी को गंभीरता से दिखाने के बजाय फिलर के तौर पर पेश किया। कार्यक्रमों के बीच-बीच में किसी की बाइट चला दी जाती और फिर मौजूदा कार्यक्रम अबाध गति से जारी रहता। अपने इस 10 साल के मौके पर आजतक ने जो खास कार्यक्रम दिखाया वो था राजू श्रीवास्तव की ओर से पेश की गयी टूटती खबर।
 इस खबर की थीम थी कि राजू श्रीवास्तव बतौर आजतक संवाददाता चांद पर एलियन खोजने गए हैं और फिर आजतक के संवाददाता जैसे करते हैं बल्कि उनका मजाक उड़ाते हुए कार्यक्रम पेश किया। उसके बाद देशभर के रईसजादों के इलाके में,फार्म हाउस और होटलों में नए साल को किस तरह से सिलेब्रट किया जा रहा है,उसके लगातार 6-7 मिनट तक की फुटेज लगातार चलाता रहा। वो एक तरह से लाइव कवरेज ही थी जिससे कि चैनल ने घंटों अपना स्पेस भरा। मुझे नहीं पता कि इन कार्यक्रमों के साथ चैनल की कोई डील थी या फिर महज खर्चा बचाने के लिए ऐसा किया। कल आजतक को देखकर भारी धक्का लगा कि चैनल ने अपनी विरासत को भी दस साल के बाद सहेजकर नहीं रखा और ऑडिएंस के सामने पेश कर सका।

 आजतक के 1995 में दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम के तौर पर शुरु होने से ठीक 10 साल बाद 2005 में भी चैनल ने खास कार्यक्रम दिखाया था। उसे देखते हुए लगा था कि वाकई एक नेशनल चैनल के तौर पर आजतक में कोई बात नहीं। ये सबकुछ भेल ही ब्रांडिंग के स्तर पर रहा हो। फिर भी,लेकिन सेटेलाइट चैनल के तौर पर 10 साल आजतक ने जो पूरे किए,वो अपने इस खास दिन को भूल गया। चैनल को ये नहीं भूलना चाहिए था कि साल के आखिरी में शीला की जवानी परखने और मुन्नी के बदनाम हो जाने की गाथा के बीच उसके खुद के लिए खास दिन था,बाजार के लिहाज से भी। अगर विरासत शब्द को छोड़ भी दें तो भी। लेकिन उसने इसका बेहतर इस्तेमाल नहीं किया या कहें कि भुना नहीं सका।

मोहल्लाlive पर मेरी लिखी पोस्ट दस साल तो हो गए, लेकिन भरोसा कहीं खो गया को लेकर नागार्जुन ने क्लासरुम लेक्चर के अंदाज में मुझे मीडिया का समाजशास्त्र समझाने की कोशिश की और आरोप लगाया कि मैं इस पोस्ट के बहाने आजतक को नास्टॉल्जिया के तहत देख रहा हूं जबकि मेरा अपना तर्क है कि आजतक के दस साल होने पर जो लिखा,उसका भी एक सामाजिक संदर्भ है। लिहाजा आजतक के दस साल पूरे होने और निजी मीडिया के बदलते चरित्र पर उस पूरे कमेंट को पोस्ट की शक्ल में आपसे साझा कर रहा हूं। 


नागार्जुनजी
आप अपने बच्चों के जन्मदिन के दिन केक काटते हुए क्या ये कहते हैं कि तू अभी तक बेड पर शू शू करता है,मम्मा की बात नहीं करता,क्लासरुम में सिर्फ टीचर को ताड़ता रहता है,उनी बातें नहीं सुनता? आपका लौंडा कितना भी नालायक हो,आप उसके जन्मदिन पर उसे विश करते हैं,उसकी अच्छी आदतों को याद करते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कामना करते हैं। आजतक पर आज मैंने जो कुछ भी लिखा,वो उसके दस साल होने को लेकर है,कोई नास्टॉल्जिया का हिस्सा नहीं। मैंने खुद ही कहा है कि ये उसका हिस्सा लग सकता है क्योंकि मैंने जो कुछ भी लिखा है वो बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है। आपने जिस तरह से मुझे मीडिया और बाजार के अर्थशास्त्र को समझाने की कोशिश की है तो जिस शख्स को इतनी जानकारी औऱ समझ है कि 1988 में भी न्यूजट्रैक की शुरुआत हुई तो भी वो धंधे का हिस्सा था,1995 में जब आजतक बीस मिनट के लिए आया तो भी धंधे का हिस्सा है,उसे इतनी समझ कैसे नहीं होगी कि एक स्वतंत्र 24 घंटे का न्यूज चैनल आया तो वो बाजार और धंधे का हिस्सा होगा? आप जिसे नास्टॉल्जिया और भक्तिभाव में आकर किया गया विश्लेषण कह रहे हैं,मामला ये नहीं है।

मैं जो समझ पा रहा हूं वो ये कि आजतक चैनल ने जिस दौर में इस इन्डस्ट्री में कदम रखा,उसमें उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का दौर शुरु हो चुका था बल्कि कहें तो बहुत ही मजबूत तरीके से उसके पैर जम चुके थे। मीडिया संस्थान के भीतर इस बात की कॉन्फीडेंस आ गयी थी कि वो सरकार से सीधे-सीधे पंगा ले सकती है क्योंकि सरकार के भीतर के पावर गेम को प्रभावित करनेवाले और मीडिया के पैर मजबूत करनेवाले लोग एक ही थे जिसे कि हम कार्पोरेट के तौर पर रेखांकित करते हैं। मीडिया को इस बात की बेहतर समझ थी कि अगर वो सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं तो भी वो उसका बहुत कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि उन्हें पता है कि पावर जेनरेट कहां से होने हैं? ऐसे में मीडिया ने खुले तौर पर राजनीतिक लोगों और सरकारी मशीनरियों से पंगा लिया और ऑडिएंस को ये लगा कि टेलीविजन के माध्यम से पत्रकारिता का स्वर्णयुग लौट आया है। उस वक्त की सच्चाई ये थी कि पब्लिक ब्राडकास्टिंग की जो निर्भरता सरकार पर थी,निजी मीडिया में वो निर्भरता शिफ्ट होकर कार्पोरेट पर आ गयी। मतलब ये कि निजी मीडिया जिस बात के लिए इसे कोसते थे,उससे मुक्त होकर कार्पोरेट की गोद में जा गिरे और राजनीतिक खबरों की ऐसी चीर-फाड की कि ऑडिएंस के बीच भरोसा जम गया कि निजी मीडिया चैनल दूरदर्शन से बेहतर काम करते हैं और तटस्थ हैं। लेकिन आप देखेंगे कि पावर सेंटर जो तेजी से बदलकर कार्पोरेट के हाथों में जा रहा था,आजतक ने या फिर किसी भी चैनल ने उस पर कभी हाथ नहीं डाला,उसकी आलोचना नहीं की? कार्पोरेट ने जिस-जिस क्षेत्र में अपना विस्तार किया,खबरों से वो क्षेत्र छूटता चला गया।
इसी दौर में बोतलबंद पानी की इन्डस्ट्री का विस्तार हुआ,सॉफ्ट ड्रिंक का बड़ा बाजार पैदा हुआ,रीयल स्टेट और बिल्डरों की दलाली बढ़ी और एक स्वतंत्र रुप से ब्लैक मार्केंट को मजबूती मिली,देश की जीडीपी खेती से हटकर इन्डस्ट्री से निर्धारित होने लगी लेकिन एक-एक करके इन सब सेक्टर से खबरें गायब होने लगी। चैनल ने सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक खबरों और स्टेट मशीनरी की छोटी-मोटी गड़बड़ियों का खुलासा करके ताल ठोंकने का काम किया और अपने को सरोकारी पत्रकारिता का नाम दिया। लेकिन जिस तेजी से कार्पोरेट पब्लिक स्फीयर के भीतर की चीजों को मीनिंगलेस,वाहियात और बेमतलब का करार दे रहा था,उसको लेकर कभी सवाल खड़े नहीं किए। चैनल ने जब स्टेट मशीनरी की गड़बड़ियों को सामने आने का काम किया तो उसके साथ ही इस बात के संकेत भी दिए कि ये पूरी तरह नाकाम हो चुकी है और विकल्प के तौर पर कार्पोरेट ढांचे से पब्लिक स्फीयर पनप रहे थे,उसे प्रोत्साहन मिलने शुरु हो गए। मतलब कि इस चैनल ने स्टेट मशीनरी की पब्लिक स्फीयर को अपदस्थ करके कार्पोरेट की ओर से बननेवाली पब्लिक स्फीयर को मजबूती दी और अकेले राजनीतिक खबरों की चीर-फाड करके भरोसे का मार्केट खड़ा किया।..
इस संदर्भ में अब इन चैनलों को देखें तो इनकी विश्वसनीयता तभी बन सकती है जबकि वो कार्पोरेट से बननेवाली पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करती है।..और वो ऐसा करेंगे,इसे आप भी जानते हैं। जिस राजदीप सरदेसाई ने नब्बे के दशक में पब्लिक ब्राडकास्टिंग और सरकार का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सरकार से हमें कोई लेना-देना नहीं है,वहीं राजदीप सरदेसाई 3 दिसंबर की एडीटर्स गिल्ड की परिचर्चा में प्रेस क्लब में खुलेआम कहते हैं कि हम कार्पोरेट औऱ मालिकों के दबाब के आगे मजबूर हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है? इसलिए मैं जिस संदर्भ में बात कर रहा हूं कि आजतक पहले क्या था और अब किस रुप में दिखाई दे रहा है,वो दरअसल मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है।
अब बात रही पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसे पत्रकारों के प्रति मोहग्रस्त होने की तो मैं साफ कर दूं कि आज मैं किसी चैनल में नौकरी करने जाउं तो मैं किसी भी हाल में उनसे प्रेरित होकर काम नहीं करुंगा। ऐसा इसलिए कि जिस किस्म की पत्रकारिता वो टेलीविजन में करना चाहते हैं,वो ही करने की स्थिति में नहीं है,उनके खुद के लिए स्पेस नहीं है तो फिर हम अपनी क्या बात करें? वो दौर ही खत्म हो गया। हां,हमने अपने जिन स्कूल डेज के सपनों की बात की है वो दौर ही ऐसा बना या फिर कहें कि कार्पोरेट की सवारी करते हुए बना दिया गया कि सच्ची और बेहतर पत्रकारिता( क्या होती है,आज दिन तक समझना मुश्किल ही रहा)का मतलब ही था स्टेट मशीनरी और सरकार की गड़बड़ियों को फाड़कर रख देना। राजनीतिक रिपोर्टिंग को सिलेब्रेट करने का दौर था। आज पुण्य प्रसून वाजपेयी,शम्स ताहिर खान या फिर लाल पत्थर युग के पत्रकारों की जो पीड़ा है वो पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा नहीं है,राजनीतिक पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा है। जो पुण्य प्रसून वाजपेयी आठ-दस घंटे तक सत्ता के बनने-बदलने को लेकर एंकरिंग किया करते,उन्हें रातभर एश्वर्या और अभिषेक बच्चन की शादी पर गिनती की फुटेज के बूते घंटों एंकरिंग करनी पड़ जाती है,उसकी पीड़ा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी में काबिलियत इस बात की है कि उन्होंने अपनी इस छटपटाहट को एक जींस की शक्ल देने के लिए ठिकाने ढूंढ लिए है। नहीं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पत्रकारिता का दौर खत्म हो गया है।
पत्रकारिता का दौर अभी है और यही शुरु कर सकते हैं जब वो रिलांयस के बगीचे खरीदे जाने पर स्टोरी करने लग जाए,मिनरल वाटर की प्लांट पर स्पेशल रिपोर्ट करने लगें,स्टीट के धंधे पर खबर करें,मोबाइल कंपनियों की हेरा-फेरी का पर्दाफाश करें। जो ऑडिेएस अब माल,मल्टीप्लेक्स, कंडोम, एयरलाइंस की कन्ज्यूमर बन चुकी है,उनकी समस्याओं पर स्टोरी करनी शुरु करें। नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करके इन्होंने अपने को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित किया लेकिन उसकी विश्वसनीयता तभी बरकरार रह सकती है जबकि वो कार्पोरेट की ओर से बनी पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करेंगे। न्यू मीडिया का विस्तार इसी पर चोट करने के दावे के साथ हो रहा है। वो राजनीतिक से कहीं ज्यादा इन स्फीयर पर चोट कर रहा है। हमने इनका नाम बस इसलिए लिया कि वो नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करते नजर आए। आज के संदर्भ में इनसे प्रेरित इसलिए नहीं हुा जा सकता कि वो मौजूदा पब्लिक स्फीयर पर चोट नहीं कर रहे।
अब सवाल खोए हुए स्वर्णिम इतिहास की तलाश की है जिसे कि आपने मेरे लिए व्यंग्य के तौर पर इस्तेमाल करते हुए भक्तिभाव शब्द का इस्तेमाल किया तो जो लोग इस समझ के साथ विश्लेषण करते हैं,वो दरअसल एक जमाना था कि अवस्था में आकर बात करने लग जाते हैं। 28 साल की उम्र में माफ कीजिएगा,मैं उस कैटेगरी में नहीं आता। आजतक ने कभी भी संतई की प्रेरणा से आकर काम नहीं किया। हां फिर भी उसे देखते हुए हम जो पत्रकार बनने की बात सोचते थे वो सिर्फ इसलिए कि वो कम से कम नेशन स्टेट को चैलेंज कर रहे थे। जबकि आज
नेशन स्टेट की मशीनरी को चैलेंज करना बंद हो गया है क्योंकि आज उसने खुद को भी मीडिया का एक क्लाइंट के तौर पर प्रस्तावित किया है। तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया की सवारी करके ही लोगों तक पहुंचना चाहती है। चुनाव आयोग तक को अपनी बात कहने के लिए पप्पू कांट डांस स्साला जैसे गाने की शरण में जाना पड़ता है। राजीव गांधी ने रेडीफ्यूजन पीआर एड एजेंसी की मदद से जिस चुनावी विज्ञापन का दौर शुरु किया,उसने चैनलों को राजनीतिक क्षेत्र में भी करोड़ों का धंधा दे दिया। स्टेट मशीनरी,राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया के लिए एक आसामी है,उनके बीच ग्राहक और दूकानदार का रिश्ता है। ऐसे में मीडिया सीधे तौर पर क्यों पंगा लें। नब्बे के दशक में इसलिए लिया क्योंकि उनसे कमाई नहीं हो सकती थी,फेयप बिजनेस के तौर पर। लॉबिइंग,सेटिंग और ब्लैक मेलिंग की बात नहीं कर रहा। अब इनसे कमाई होती है। इसके साथ ही अब राजनीतिक पार्टियों के लिए ये कोई मुश्किल काम नहीं रह गया है कि देश के दर्जनभर चमकदार पत्रकारों की फौज खड़ी करके एक चैनल शुरु कर दें।..इसलिए मेरी अपनी समझ है कि आजतक या किसी भी चैनल ने इन पर स्टोरी करनी बंद कर दी है तो उनके बीच का संबंध एक बिजनेस रिलेशन के दायरे में बंध चुका है। वो अपनी कमाई खो नहीं सकते।
इधर आप हमें जिस मीडिया के समाजशास्त्र को समझाने की कोशिश कर रहे हैं,जिसमें कि अध्यापकीय टोन ज्यादा,शेयरिंग एलीमेंट कम है तो यकीन मानिए इस देश में मीडिया की पढ़ाई दो ही तरीके से होती है- एक तो चौथा स्तंभ और दूसरा कि पूंजीवाद का पर्याय। हमने भी कुछ ऐसी क्लासें की है,इसलिए आपकी बात नई नहीं लगी। लेकिन चैनल के जिस कंटेंट पर पुण्य प्रसून जैसे मीडियाकर्मी अफसोस जाहिर कर रहे हैं,दरअसल वही चैनल की इकॉनमी है। कार्पोरेट का पब्लिक स्फीयर पहली ही लाइन में कहता है- जस्ट ब्रेक दि सीरियसनेस ऑफ नेशन स्टेट। यही कारण है कि हमें तमाम चीजें मनोरंजन,सिलेब्रेटी और प्रायोजित कार्यक्रमों के तहत डिफाइन होती नजर आती है। इसे समझने में मुझे कभी भी दुविधा नहीं रही। अब सबसे जरुरी बात है कि ऐसे में सो कॉल्ड ईमानदार मीडियाकर्मी क्या करे या फिर वो मीडियाकर्मी क्या करे जिसके लिए राजनीतिक खबरों में ही पत्रकारिता की जान बसती है? उसके लिए बस एक ही उपाय है कि वो साहस जुटाए और ऑडिएंस को बताए कि मीडिया की लक्ष्मण रेखा के जस्ट बाद 5 करोड़ में नहीं नाचेगी मुन्नी स्पेशल स्टोरी के अर्थशास्त्र को समझा दे। वो बिग बॉस पर लगी पाबंदी के ठीक बाद आधे घंटे तक पामेला एंडरसन की पार्शियल न्यूड पर बनी स्टोरी के तर्क को ऑडिएंस के सामने रख दे। 90 के दशक के पत्रकारों ने तो अपना काम कर दिया,राजनीतिक सत्ता को ठोक-बजाकर अपने को धारदार पत्रकार घोषित कर दिया। ये चुपचाप के जो ईमानदार पत्रकार हैं वो कोशिश करें कि दिल्ली में पानी की किल्लत को एमसीडी की नाकामी बताने के बजाय किनले,विस्लरी और एक्वाफीना के वाटरप्लांट पर चोट करें। उपभोक्ता आधारित ऑडिएंस के बीच सिर्फ नकली खोवा और मिठाईयों पर स्टोरी करके पत्रकारिता की बात नहीं की जा सकती।..औऱ नहीं तो फेयर एंड लवली और पांडस की क्रीम की तरह ऐसी आदत पैदा करें कि करोड़ों उपभोक्ता ये जानते हुए बी कि लगाने से गोरे नहीं होंगे,नियमित खरीदते रहते हैं। हमने तो आजतक को इसी तौर पर याद किया,इसमें कोई नास्टॉल्जिया,किसी पत्रकार के प्रति भक्तिभाव से रत होने का अंदाज नहीं था।

हां ये जरुर था कि जैसे आप अपने बच्चे को वर्थ डे पर उसकी बुरी आदतों का पुलिंदा नहीं पटक सकते,उसके बेड पर शू-शू करने से अपने साथ-साथ अपने बाप का भी पायजामा गीला करने का जिक्र नहीं कर सकते,आजतक की वर्थडे पर मैंने भी ऐसा नहीं किया। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि हमने उसका पक्ष लिया। हम मीडिया की बात उसके खत्म होने के लिए नहीं,उसके बेहतर होने के लिए करते हैं।.मुझे लगता है नागार्जुनजी,आप मुझे समझ पाएंगे।
विनीत
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