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तहलका में "एक छोटी सी जिंदगी" पर लिखा तुम्हारा पढ़ा,पहिले से बहुत साफ और बढ़िया लिखने लगे हो,अच्छा लगा पढ़कर,मां को भी पढ़वाए हम।(पापा ने मुझे बचपन में थोड़ा-बहुत पढ़ाया है जिसमें मैंने हिन्दी में चौदह को एक बार चोदा लिख दिया था और तब देह पर खून की रेखाएं उभार दी थी पापा ने। उन्हें लगा था कि मैंने बदमाशी से ऐसा किया है लेकिन एलकेजी का ये बच्चा तब कहां जानता था इन शब्दों का क्या अर्थ होता है) अभी दूकान पर कोई कस्टमर नहीं है तो सोचे कि हाल-चाल जान लें। गर्मी तो दिल्ली में भी बढ़ गया होगा तो लगा कि बोल दें कि कूलर लगा लेना।..पापा इन दिनों मुझे रोज किसी न किसी बात को लेकर जो कि बहाने की शक्ल में होती,फोन करने लगे हैं। फोन पर बात शुरु करने से पहले वो कोई ऐसी सफाई देते हैं जैसे टीनएज का कोई लौंडा अपनी किसी क्लासमेट पर दिल आ जाने पर जज्बाती तरीके से किसी न किसी बहाने फोन करता है,जान-बूझकर क्लास में नोट्स नहीं लेता है और कहता है-रिया तुम कल आ रही हो न,प्लीज सोशल साइंस की अपनी नोटबुक लेती आना। वो सीधे कैसे कह दे कि तुम्हें मिस्स करता हूं सो फोन किया।..पापा इन दिनों इसी तरह से बहाने बनाकर फोन करते हैं,सालों से उनके मन में मेरे प्रति जो अविश्वास रहा है,नालायक हो जाने की आशंका बनी रही है,भावनाओं के वेग से उसे इस कठोर जंगले को कैसे टूटने दे दें और वो भी सिर्फ इस एक लाइन में कि तुम्हारी याद आ गयी तो फोन कर दिया। बहरहाल,मुझे अब मजा आने लगा है और अच्छा भी लगता है,एक उत्सुकता भी बनी रहती है कि देखें,अबकी बार पापा किस बहाने फोन करते हैं?

पापा हमें बचपन से अपनी रिप्लिका बनाना चाहते थे। इस रिप्लिका के बनाने में जरुरी था कि मेरे भीतर जो मेरी मां बढ़ रही थी,उसे कतरकर छोटी कर दें। लोगों की तकलीफ में तुरंत संवेदनशील हो जाना,बहुत ही मामूली बातों को भी गंभीरता से लेना,गलत होने पर गम खाने के बजाए तुरंत अपनी असहमति जाहिर करना और सबसे ज्यादा तो ये कि पढ़े-लिखे से ही बाल-बच्चा आदमी बनता है का समर्थन करना। पापा मुझे अपनी रिप्लिका बनाने के फेर में अगर मेरे भीतर की बढ़ती मां को कुतरने की कोशिश न करते तो शायद हम कुछ-कुछ पापा की तरह भी बन पाते और ये भी कि वो ज्यादा बेहतर होता। कम से कम बात-बात पर मां की तरह आंखों में आंसू तो नहीं ही आते,निरुपमा राय की फिल्मों में तो जाकर न धंसते और दुनियादारी के मामले में थोड़े ढीठ तो हो लेते जो कि आज की दुनिया में जीने के लिए जरुरी है। जब मुझे अपनी मां पर गुस्सा आता है तभी कहता हूं कि इससे बेहतर होता कि पापा की राह पकड़ते,कम से कम हमारी भावनाओं के साथ तो कोई धोखाधड़ी तो नहीं करता। करता भी तो पापा की तरह मूलधन के साथ सूद वसूलने के तरीके तो आते ही हमें। मां की संगति ने मुझे नकरोना बना दिया जो कि थोड़ी सी तकलीफ से हों.हों.हों.हों. करके बिसूरने लग जाता है।

फिर भी, बचपन से ही हम पापा से इसलिए नहीं दूर होते चले गए कि वो हमें आदर्श और नसीहतों की बेडियों में बाधंकर बड़े होने देना चाहते थे बल्कि इसलिए कि मेरी हर बुरी आदत का जिक्र करने के साथ एक लाइन अलग से जोड़ देते- जैसा पैदा की है,वैसा हुआ है। अब मेरी मां ने मुझे पैदा ही लुच्चा,नकरोना,नालायक के तौर पर किया तो फिर मेरा भविष्य भला बेहतर कैसे होता? मेरा तब दिमाग कहां चलता था उस वक्त लेकिन हां इतना जरुर समझता कि गलती हम करते हैं तो इसका मां के पैदा करने से क्या संबंध है? मुझे नहीं पता कि मेरे पापा किस एकांत क्षणों में मां की समझ,तर्क और काबिलियत की सराहना किया करते थे लेकिन जब भी हमने सुना तो मां को हमेशा कटघरे में ही खड़े रखने पर आमादा रहे। नतीजा,कई अच्छी बातों के होने पर भी चूंकि पापा मेरी हर गलतियों पर मां को मेरे पैदा होने के दोष के साथ जोड़कर देखते,हमने उनकी बातों से,उनकी नसीहतों से पिंड छुड़ाने के लिए कोशिशें करते रहे। डर से हम उनकी बातें मान भी लेते लेकिन अन्तर्रात्मा में उन बातों के  लिए कोई सम्मान नहीं होता। इन बातों को वो महसूस करने लगे थे और जब भी मैं छुट्टियों में रांची से घर जाता वो मां से कहा करते- आता है तो तुम्हारे पास ही घुसा रहता है,हमसे बोलता-बतिआता नहीं है। मेरे बचपन की पूरी पढ़ाई  घर के उन जगहों पर हुई जहां-जहां पापा गैरमौजूद होते और रसोई से बेहतर जगह शायद ही कोई होती। हम पापा से जितनी नजरें बचाते,मां के पीछे-पीछे होने के लिए उतनी ही कोशिशें करते। मां कभी-कभी चिढ़ भी जाती कि लुटकुन्ना जैसे पीछे-पीछे लगा रहता है..इ क्या कि आदमी पर-पेसाब के लिए भी जाय तो बाहर अगोरिया के लिए खड़ा है। धक्के देकर कहती जाओ,बाहर खेलो। दुनियाभर के बाल-बच्चा ऐसे थोड़े ही फोहवा(नवजात शिशु) की तरह मां के पीछे पड़ा रहता है। मां की इस तरह की संगत ने मुझे घरघुसरा बना दिया है। घर से सोलह साल से बाहर रहने पर भी मैं जिस भी कमरे में रहता हूं,तब तक वहां से बाहर नहीं निकलता,जब तक कि निकला एकदम से जरुरी न हो जाए।

कॉलेज जाने तक मेरी समझ थोड़ी बढ़ने लगी। उसी बीच स्त्री विमर्श और पितृसत्तात्मक समाज को पढ़ना शुरु किया। प्रभा खेतान से लेकर वर्जिनिया वुल्फ तक को तो लगा कि मेरे पापा पितृसत्तात्मक समाज के सबसे जिंदा और सक्रिय उदाहरण हैं। लिहाजा,उनके प्रति असहमति और बहुत-बहुत गुस्सा जो मेरे भीतर मां के नहीं पनपने देने को लेकर था,इन अवधारणाओं से सुविधा ये हुई कि मैंने मानसिक तौर पर घोषित कर दिया कि मेरे पापा पितृसत्ता के समर्थक हैं और मुझे इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि मैं किसी ऐसे शख्स से प्यार करुं। इन किताबों ने पापा के प्रति असहमति के साथ थोड़ी घृणा भी पैदा कर दी थी। इधर मेरी पढ़ाई और वो भी साहित्य को लेकर नाउम्मीद हो चुके थे। हमदोनों ने अपने-अपने हिस्से से एक-दूसरे से दूरियां(भौगोलिक तो हो ही चुकी थी,मानसिक तौर पर भी) तो बनाने के लिए तर्क और वजह ढूंढ ली थी। पापा के आगे दर्जनभर हिन्दी के मिश्रा,तिवारी,झा और सिन्हाजी जैसे हिन्दी के मास्टर थे जो पान-सूरती के चस्के में अपने मसूड़ों को खंडहर की शक्ल दे चुके थे,होली की उधारी को दीवाली में चुकाने से ये प्रमाण दे चुके थे कि हिन्दी पढ़कर यही हाल होता है और इधर मैंने तय कर लिया था कि एक पितृसत्ता के संरक्षक से किसी तरह की मदद नहीं लेनी है। किसी बाप की अपने बेटे को लेकर नाउम्मीदी और हाफ फ्राय उम्र में बेटे का अवधारणा की जकड़बंदी में जा फंसने पर कोई उपन्यास है तो प्लीज मुझे सजेस्ट करें,नहीं तो मेरे हिस्से अनुभव का ये बेहतर नमूना तो है ही।

चैनल की नौकरी छोड़ने के बाद मैं धुंआधार लिखने लगा था। भइया अक्सर समय मिलने पर मेरी पोस्टें पढ़ते और पापा को बताते कि आप पर भी लिखता है विनीत। पापा शुरुआत में खुन्नस से कहते- हमही मिले हैं लिखने के लिए तो किस पर लिखेगा,हम उसका नरेटी(गला) दबाते रहे तो लिखेगी नहीं? लेकिन बाद में जब कुछ लोगों ने खासकर नानीघर के लोगों और वहां के प्रभात खबर,हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण अखबारों ने मेरी पोस्टें छापनी शुरु की तो पापा अकड़ से लोगों को बताने लगे कि-हमरा लड़का भी लिखता है,लेखक बन रहा है। भइया या मां से कहते,तिवारीजी को लगता है कि एक वही काबिल हैं,हम मुंहए पर कह दिए कि सुनिए तिवारीजी,हमरा लड़का भी वही सब पढ़ रहा है,जो आपलोग पढ़ाते हैं। पापा को मेरे प्रति अनुराग जगने लग गया था। इसलिए नहीं कि मैं आर्थिक तौर पर कुछ बेहतर कर रहा था बल्कि इसलिए कि वो समाज के जिन लोगों के बीच उठते-बैठते,मेरे नाम से,मेरे लिखे से उनका अहं तुष्ट होता है। अब मैं इसे भी पितृसत्ता का ही एक चिन्ह मानकर उघड़ने लग जाउं तो अलग बात है लेकिन मैं फिलहाल थोड़ा इमोशनल होना चाहता हूं। मेरे लिखे पर नामवर सिंह अपनी राय दे इससे कहीं ज्यादा मेरे लिए सुखद है कि पापा पढ़कर बताते हैं कि-पहले से साफ लिखने लगे हो(मतलब चौदह को चोदा नहीं लिखते और अगर लिखोगे भी तो उसकी प्रासंगिकता तय करोगे टाइप का भाव)। लेकिन

इन सबसे भी एक मजेदार बात( मिहिर का असर है,इस शब्द को लेकर) कि पापा मेरे भीतर की विकसित हुई मेरी मां को बहुत प्रोत्साहित करने लगे हैं। कई बार तो हूबहू वही लाइनें बोलने लगे हैं जो कि मां कहा करती है- खाने-पीने पर ध्यान देना,जितना हो,उतना ही काम करना। जान देवे से कोई फायदा नहीं है। जिंदगी जान-बचेगा तो बहुत पैसा औ नाम होगा। यही पापा पहिले मां की इन बातों को सुनकर चिढ़ जाते और कहते- बउआ है जो एतना तोता जैसा समझाती हो,सब कर लेगा। मुझे नहीं पता कि पापा को अपना विपक्षी होने से खुन्नस थी या फिर मां के आसपास घिरे रहने से लेकिन वो इन सब बातों को स्वाभाविक तौर पर नहीं लेते। मैं अब खुश होता हूं कि वो मां की शब्दावली को उधार लेकर मेरे लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। मैं यही तो चाहता था कि पापा मां से कुछ उधार लेकर मुझे दें,उनकी इस अकड़ को भरभराकर टूटते हुए देखना अच्छा लग रहा है। अब मैं अपने पापा पर भरोसा कर सकता हूं कि वो मेरी बातें,मेरे तर्क को उस जमीन पर रखकर सोचेंगे जहां उनकी राय मुझे प्रभावित करेगी,असहमति में भी एक खास किस्म का सुकून पहुंचानेवाली होगी,वो नसीहत के बजाय शेयरिंग की कैटेगरी में शामिल की जाएगी। इस इमोशनल एप्रोच में भी मैं महसूस करता हूं कि उनके भीतर का पितृसत्ता के चिन्ह ध्वस्त हो रहे हैं और फिर मां से इन सब बातों की चर्चा कि पापा ऐसे बात करते हैं और मां का जबाब कि पहिले से बहुत ज्यादा बदल गए हैं इ आदमी। लेकिन इस बीच,जिद में,इगो में आकर पापा की वो जो अच्छी बातें मैं इग्नोर करता आया और मां की अव्यावहारिक बातें जिसे अतिउत्साह में सीने से चिपकाए रहा,धीरे-धीरे क्रमशः अपनाने और छोड़ने की कोशिश में हूं। अपने भीतर पापा के भी कुछ हिस्से को भी शामिल करने लगा हूं।..और तभी,एक ही वक्त में मां का कयामत से कयामत तक और पापा के गाइड देखने के बीच के फर्क को समझने की कोशिश करना चाहता हूं। पापा की जिद से मैंने यूथ कल्चर को डिफाइन करते वक्त यहां आपके जमाने के गाने बजेंगे, बाप के जमाने के गाने नहीं कहनेवाले चैनल को न केवल डीफेंड किया बल्कि रेडियो के पुराने लिस्नर से बदला लेने के तौर पर प्रस्तावित किया,अब एफ एम गोल्ड सुनने लगा हूं। उन पुराने गाने को सुन रहा हूं जिसके सुनते हुए पापा मधुबाला,नरगिस और सुरैया की चर्चा इतने सम्मान से करते जितना कि आज कोई अपनी बहू-बेटियों की भी शायद ही करता हो। फैन होकर अपनी सेलेब्रेटी के सम्मान के लिए शब्दों का चयन पापा का अद्भुत हुआ करता। अब तो सारी पसंद ही लड़कियां और हीरोईनों की तारीफें हॉट और सेक्सी दो जातिवाचक संज्ञा में जाकर खो जाती है। 
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लप्रेक की रचना प्रक्रिया(एक)

Posted On 4:25 pm by विनीत कुमार | 5 comments


लप्रेक की रचना प्रक्रिया: एक


फेसबुक पर रवीश कुमार ने आज से कोई तीन महीने या उससे भी पहले लप्रेक यानी लघु प्रेमकथा की शुरुआत की तो एकबारगी पढ़कर ऐसा लगा कि जो शख्स टेलीविजन स्क्रीन पर और जीवन में इतना सरोकारी है,गंभीरता से मुद्दों की बात करता है,उसके भीतर का कोई आदिम फटीचर निकलकर हमारे सामने नंग-धडंग आकर खड़ा हो गया है। कभी किसी दिलफेंक,लुच्चे-लफंगे की तरह सार्वजनिक जगहों पर इश्किया के लिए स्पेस तैयार करने की फिराक में है तो कभी पान बेचनेवाले कल्लू और डीपीएस में पढ़नेवाली लड़की के बीच कुछ-कुछ हो जाने की उम्मीद पाले बैठा है। तब हमने इस लप्रेक को किसी भी अवधारणा के नट-बोल्ट के भीतर कसने की जरुरत महसूस नहीं की थी और उसे  यह सोचकर पढ़ने लग गए थे कि रवीश क्या हर इंसान के बीच एक ऐसा दिल धड़कता है जो सिर्फ रक्त प्रवाह के लिए मदद करने और सांसों की आवाजाही से हरकत करने के लिए नहीं होते,उसका कुछ भावनात्मक और मानवीय भूमिका भी होती है। हम अपने भीतर उसी दिल को टटोलने लगे थे और पाया कि वो हमारे भीतर भी मौजूद है।

साहित्यिक लेखन जिस गंभीरता और कालजयी होने की उत्कंठा की मांग करती है,लप्रेक पहली की रचना में उसके प्रतिरोध से पैदा हुई थी। मेरे लिए आकर्षण की सबसे बड़ी वजह यही थी और वैसे भी दिल जिसका टूटा है,किसी को लेकर रतजग्गा जिसने की है,फ्रैक्चरड अफेयर का शिकार जो हुआ है,उसे क्या कोई साहित्य का कालजयी आलोचक बताएगा कि वो अपनी गाथा,ह़दय विदारक अनुभवों को कैसे लिखे? भोगा हुआ सच लिखने के लिए शिल्प की बारीक समझ से कहीं ज्यादा अन्तर्वस्तु के प्रति ईमानदारी की जरुरत होती है,ये कुछ चंद लाइनें दिमाग में ऐसे चक्कर काट रही थी कि लिहाजा हमने भी रवीश की तर्ज पर लप्रेक लिखने का मन बनाया। मेरे लिए लप्रेक लिखना,अपने हिस्से के अनुभव से कहीं-कहीं ज्यादा दूसरों के प्रति ऑब्जर्वेशन थे जिसमें कि कई बार मैं अपनी भी उपस्थिति घुसेड़ देता। इस बात का तो भय तो था ही फेसबुकिए साथी कहेंगे कि रवीश की नकल उतार रहा है तो इसके पहले ही हमने अपने को "पायरेटेड रवीश"घोषित कर दिया। ऐसा करने से रवीश का दुमछल्लो होने का भय तो था लेकिन हमारे लिखे की गुणवत्ता पर कोई सवाल खड़ी नहीं कर सकता था। रवीश से तुलना करके प्रतिक्रिया देने का मतलब था कि जबाब पहले से ही तैयार- पायरेटेड की गुणवत्ता इससे अधिक नहीं हो सकती। रवीश के लिए लप्रेक के मुकाबले बहुत ही कम लेकिन प्रतिक्रियाएं आने लगी और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत तौर पर कहा कि अच्छा लग रहा है आपलोग जो फेसबुक पर इस तरह से लिख रहे हैं। तारीफ और उत्साह की बात छोड़कर बात करें तो देखते ही देखते एक माहौल तो बन ही गया जो कि रवीश या मेरे लिखने से बहुत आगे की चीज थी कि मेरी तरह कई और भी लोग इसी तरह से लिखने के लिए तैयार हो गए। घंटे-दो घंटे में लप्रेक लेखकों की संख्या बढ़ने लग गयी और दो दिनों के भीतर फेसबुक पर कुल 17 लप्रेक लेखक हो गए। फेसबुक के भीतर कहानीकारविहीन पहचान लोगों की जमात पैदा होने लग गयी थी जिसके भीतर के कैदखाने में कुछ कहानियां सालों से कैद थी,कहानी नहीं तो धुंधली या स्क्रैच खायी हुई यादें या फिर इश्क के अनुभवों के चिद्दी-चिद्दी टुकड़े। ये प्यार भी हैं या नहीं,सिर्फ आभासीय सच या प्लेटोनिक,प्रेम-प्रेम सी दिखती हुई सहज मानवीय अनुभूतियां,इसका विश्लेषण आगे कभी। लेकिन वो सबके 420 शब्दों में उसे लप्रेक के तौर पर एक जींस की शक्ल दे रहे थे। हमने किसी को नहीं कहा था कि आप लिखें लेकिन कोई ये कहता कि हम भी लिखना चाहते हैं तो जरुर उत्साह बढ़ाते।

लप्रेक लेखकों की संख्या जब बढ़ी तो इस पर बात करने का लोगों का तरीका भी बदला। अब लोग इसे महज 420 शब्दों में उंगलियों की कीबोर्ड पर आकर खुजलाहट मिटाने की सस्ती वजह देखने के बजाय आलोचनात्मक होकर देखने लग गए। सबसे पहले मिहिर ने शुरुआत में लिखा कि रवीश जो लप्रेक लिख रहे हैं,दरअसल उसमें प्रेम से कहीं ज्यादा नायक के तौर पर शहर है,उसका परिवेश और आप इसके माध्यम से दिल्ली को समझ सकते हैं,सिटी स्पेस के बारे में जान सकते हैं। ठीक उसी तरह विनीत के लिखे में मीडिया और अकादमिक दुनिया का परिवेश है। हमें खुशी हुई कि हमने जिस चार सौ बीसी लेखन की शुरुआत प्रेम को केन्द्र में रखकर किया,वो अब अवधारणाओं की देहरी को छूने लगी है और इस पर भी बात हो सकती है। कल अगर पत्रिकाओं का ध्यान इस पर जाता है तो संभव है पूरा-पूरा एक लेख का शीर्षक ही होगा- लप्रेक के बहाने कालजयी प्रेमकथाओं पर एक बहस। हमने सहज अंदाज में लिखा कि मिहिर इस लप्रेक के पहले आलोचक हैं और वो हमारे लिखे पर इस तरह की प्रतिक्रिया देते रहें। वैसे भी रचना लंबे समय तक आलोचना से निस्संग होकर नहीं रह सकती और फिर आलोचनात्मक दृष्टि भी तो रचना ही है। इस तरह लप्रेक लिखनेवालों के साथ-साथ उस पर आलोचनात्मक समझ के साथ बात करनेवाले मिहिर जैसे लोग भी शामिल होने लगे। हमने तब मजाक-मजाक में ही उम्मीद पाल ली थी कि कभी बहुत सारे लप्रेक को जमा करके इकठ्ठे छपवाएंगे और उसे"फेसबुक फिक्शन" नाम देंगे।

हमने तो अपने लिखे को पायरेटेड रवीश नाम इसलिए दिया था कि हमारे लिखे की गुणवत्ता की कोई मिलान न करे और दूसरा कि हम पर कोई नकलचेपी का आरोप लगाए कि इससे पहले ही अपने को घोषित कर दो कि हम पायरेटेड माल प्रसारित कर रहे हैं। लेकिन बाद में जब लोगों ने इसकी शुरुआत की तो आप इसे विधान कह लें या फिर वर्चुअल स्पेस पर पैदा हुई ईमानदारी की सबों ने लप्रेक लेखक के तौर पर अपना नाम कुछ इस तरह से रखा कि उसमें रवीश किसी न किसी रुप में आ ही जाता। उदाहरण के तौर पर हिमांशु पंड्या ने लिखा- रवीश उदयपुरी, कानपुर से गिरीन्द्र ने रवीश मैनिया, दिल्ली से शैलेन्द्र ने खाटी रवीश...। उदयपुर से प्रज्ञा जोशी ने जब लप्रेक लिखना शुरु किया तो लगा कि हजार लुक्का के बीच वो अकेले भारी पड़ेगी टुच्चागिरी की हाइट कर दी उसने। शोहा महेन्द्रू की लप्रेक,इश्क अकेला नहीं है दुनिया में गालिब,जमाने के दर्द और भी हैं टाइप से इसके कन्सर्न को विस्तार देने की शुरुआत की। निहिता सोलेस की लप्रेक की लाइनें ऐसी होतीं कि इरफान के ब्लॉग-टूटी बिखरी हुई की याद दिलाती। लगातार भीतर कुछ छीज रहे ठोस अनुभवों से रिसकर फेसबुक पर जमा होती हुई एक रचना।  सब रवीश के लप्रेक विधान से शुरु करते हुए भी,प्रेम पर बात करते हुए भी,उसके घनत्व को अलग-अलग दिशा में ले जा रहे थे और पाठ के स्तर पर,विचारणा की धरातल पर अलग तरीके से जमीन तैयार कर रहे थे।..(आगे भी जारी)
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र्चपुर, हरियाणा में एक बार फिर अगड़ी जाति के दबंगों ने दो दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करने की कोशिश की है। अगड़ी जाति के दबंगों ने खेत में काम करते वक्त सरेआम उनसे बलात्‍कार करने का हर संभव प्रयास किया और नाकाम रहने पर उन पर ट्रैक्टर चढ़ा दिया।  इन्हें रोहतक अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन अब वो सामान्य स्थिति में नहीं हैं। मानसिक तौर पर उनकी क्या हालत हुई होगी, इसका सहज अंदाजा हम लगा सकते हैं। 13 अप्रैल को हुई इस घटना के तीन दिन बाद तक भी एफआइर दर्ज नहीं की गयी और अब इसे बलात्कार के बजाय हत्या की कोशिश का केस बताया जा रहा है।  मिर्चपुर में ये कोई पहली घटना नहीं है कि दलित महिलाओं और लड़कियों की इज्जत के साथ खेलने का काम किया गया, ये वहां की दबंग जातियों की रूटीन का हिस्सा है बल्कि उनकी भाषा में कहें तो एक परंपरा सी बनी हुई है कि अगड़ी जाति में पैदा होने की तमाम सुविधाओं के साथ एक सुविधा ये भी है कि वो दलित घर की बहू-बेटियों के साथ मनमर्जी कर सकें।

पिछले साल 21 अप्रैल को 72 वर्षीय ताराचंद को इसलिए जला दिया गया क्योंकि उन्होंने अपनी विकलांग बेटी के साथ की जानेवाली जबरदस्ती का विरोध किया था। उसे जिंदा जलाने के दौरान बचाने आये थे। सुमन को तो कमरा बंद करके जिंदा जला ही दिया गया, साथ में ताराचंद को भी उन वहशियों ने नहीं छोड़ा। 9 मई 2010 को जब दिल्ली से हम कुछ लोगों ने उस इलाके का दौरा किया तो कई ऐसे सच हमारे सामने खुलकर आये जिसे कि मेनस्ट्रीम मीडिया (समचार चैनल और अखबार दोनों) ने कभी दिखाने-बताने की जरूरत महसूस नहीं की। दोपहर में जब हम मिर्चपुर पहुंचे, तो दलितों की वो बस्ती पूरी तरह वीरान थी। चारों तरफ पुलिस बल तैनात थे। वो हमें बहुत ही कठोरता के साथ निहार रहे थे लेकिन हमने जले हुए करीब सात घरों में भीतर तक जाकर देखा कि कैसे दबंग अगड़ी जातियों ने दलित परिवारों को अपनी मनमानी का शिकार बनाया है। हम तब पूरी तरह खाक हो चुके सुमन के घर के सामने एक तख्ती पर बैठे थे। साथ में उसका भाई, उसकी मां जिनकी आंखें पूरी तरह सूज गयी थीं और उसकी दीदी भी थी। करीब चालीस मिनट की बातचीत में हम उसकी दीदी से नजर नहीं मिला पा रहे थे। सुमन की मां रो रही थी, फिर भी उनकी तरफ देख ले रहे थे लेकिन उसकी दीदी बिना रोये हमारी बातों को आगे बढ़ा रही थी लेकिन हमारी हिम्मत नहीं हुई कि हम आंख मिलाकर बात कर सकें। लौटते वक्त हमने एक बार जरूर भर नजर देखने की कोशिश की थी और वो चेहरा अभी तक मेरे दिमाग में कैद है – सपाट, संवेदनाएं एक जगह खून के थक्के-सी जमी हुई। उसी दौरान बस्ती के कुछ और लोग जमा हो गये और उनमें शामिल एक बुजुर्ग ने जो हमें बताया, वो हमें पूरी तरह हिला देनेवाला था।
मिर्चपुर की अगड़ी जातियां, यहां की दलित बहू-बेटियों पर अपना अधिकार समझते हैं। वो कई बार जबरदस्ती दलितों के घरों में शाम के वक्त घुस आते हैं, भीतर से दरवाजे बंद कर लेते हैं और पूरी रात वहीं रुक जाते हैं। इस बीच वो शराब पीते हैं, हमलोगों को लेकर अंट-शंट बकते हैं, जमकर गालियां देते हैं और जो मन आये, करते हैं। विरोध करने पर कई बार तो वो बहू-बेटियों को नंगा करके बस्ती में घुमाते हैं। ये सब सुनना हमारे लिए जितना असहज है, उनके लिए करना उतना ही सहज। उस बुजुर्ग की बात के साथ जब एक महिला ने ये भी जोड़ा कि जिस दिन सुमन को कमरे में बंद करके जिंदा जलाया जा रहा था, उस दिन भी वो लोग घर के बाहर बैठकर शराब पी रहे थे और गालियां दे रहे थे। अगड़ी जातियों का रौब इसी बात को लेकर है कि वो इस परंपरा को किस तरह और कितने लंबे समय तक बनाये रखते हैं। शायद यही कारण है कि जब-जब हरियाणा में ऐसी घटनाएं होती हैं और दबे-सहमे तरीके से ही सही लोग (इन मामलों में एनजीओ की भी बहुत सक्रियता दिखायी नहीं देती) सड़कों पर उतरते हैं, तो उससे कई गुणा ताकतवर और विकराल समुदाय उनके इस प्रतिरोध को तहस-नहस करने में सक्रिय हो जाते हैं। वो पीड़ित, दलित बस्ती के लोगों और उनके समर्थन में आये लोगों को या तो डराने-धमाने की पुरजोर कोशिशें करते हैं या फिर छोटे-मोटे प्रलोभन के साथ मामले को रफा-दफा करने की कोशिश करते हैं। ये समुदाय इतनी मजबूती से अपनी मौजूदगी दर्ज करता है कि सरकार को भी इस बात का भय सताने लग जाता है कि अगर इनके विरोध में कदम उठाये गये तो इसका नकारात्मक प्रभाव राजनीतिक करियर पर साफ तौर पर पड़ सकता है।
वहां मौजूद मीडिया भी इनके खिलाफ बहुत अधिक लिख-बोल नहीं सकता, क्योंकि जिस तरह से हमें पहले तो सम्मान देकर और बाद में ये जानने पर कि दिल्ली से आये हैं, घेरकर सवाल-जवाब करने और हड़काने का काम किया गया, उससे अंदाजा लग गया कि यहां मीडिया और पत्रकार उनके पालतू बनकर अपने को बचा सकते हैं। स्थानीय मीडियाकर्मियों से वो जिस तरीके से बात कर रहे थे, उससे भी हमने भांप लिया था कि उनकी तरफ से इन्हें नियमित सेवाएं इस बात की दी जाती है कि वो कभी भी इनके खिलाफ कीबोर्ड और माइक का इस्तेमाल न करें।
ऐसे में 17 अप्रैल 2011 को दो दलित महिलाओं के साथ बलात्कार करने की कोशिश की जो खबर हमारे सामने आयी है, वो इस पूरी प्रक्रिया का एक नमूना भर ही है। मिर्चपुर और हरियाणा में इस तरह की घटनाएं सालोंभर होती रहती हैं, अगर ऐसा कहा जाए, तो शायद कुछ गलत न होगा। गूगल पर अखबार की कतरनों को खोजने की कोशिश में अभी भी जुटें, तो आपको निराशा होगी कि ये नदारद है। इसकी वजह साफ है, जिसका कि हमने ऊपर जिक्र किया। एक तो ये कि संवैधानिक रूप से ऐसा करना गलत माने जाने के बावजूद भी दबंग जातियों के भीतर ही भीतर इस बात की स्वीकृति है कि दलित जातियों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए, वो इसी लायक हैं। उनकी हैसियत तब बौनी हो जाती है, जब वो ऐसा करना बंद कर देते हैं। तभी तो ऊपरी तौर पर सुमन के पक्ष में न्याय की बात करते हुए भी 9 मई को मिर्चपुर में जब पूरे हरियाणा की खापों को लेकर महापंचायत बुलायी गयी, तो किसी भी वक्ता ने खुलकर नहीं कहा कि जो हुआ वो गलत हुआ और भविष्य में ऐसा नहीं होगा। किसी ने ये नहीं कहा कि इसे अगड़ी जाति के लोगों ने अंजाम दिया जबकि सब कुछ बहुत साफ था और जो कुछ हुआ था, वो अगड़ी जातियों के भीतर ही भीतर स्वीकृत की जानेवाली परंपरा का हिस्सा था। सबों ने सुमन और ताराचंद के प्रति सहानुभूति जताने के बहाने अगड़ी जातियों के एकजुट होने के लिए खाप पंचायत बुलायी थी और उल्टे सरकार को अल्टीमेटम दिया था कि अगर उनके लड़के को रिहा नहीं किया गया, तो इसका अंजाम सही नहीं होगा। साझी संस्कृति का हवाला देकर मंच से इस बात को उन वक्ताओं ने भी दुहराया, जो कि कभी सरकारी नौकरियों में शामिल रहे थे, सेना में थे। मुझे हैरानी हो रही थी कि साझी संस्कृति को लेकर वो इस तरह बोल रहे थे कि जैसे दलितों ने ही इसे नष्ट या चोट पहुंचाने का काम किया है। उन सारे वक्ताओं का जो स्वर था, उससे बार-बार यही निकलकर आ रहा था कि इन दलितों ने हरियाणा की संस्कृति को कलंकित किया है, उन्हें इस तरह विरोध दर्ज करने के लिए हिसार के जिला मुख्यालय के आगे धरना-प्रदर्शन नहीं करना चाहिए था।
मिर्चपुर के पहले जब हम हिसार के इस जिला मुख्यालय के आगे पहुंचे थे, तो एक महिला पुलिसकर्मी ने बहुत ही स्वाभाविक तरीके से कहा कि वो लोग यहां से चले गये, अच्छा हुआ जी, हरियाणा की बड़ी बदनामी हो रही थी। बाद में हमें ये भी पता चला कि वहां से लोग चले नहीं गये थे, डरा-धमकाकर, मार-पीटकर भगा दिया गया था। तो सवाल है कि जिस मिर्चपुर और हरियाणा के अधिकांश इलाके में अगड़ी जातियों के दबंगों द्वारा दलित महिलाओं का बलात्कार करना या उन्हें जिंदा जला देना, उसके प्रतिरोध में उठ खड़े होने से ज्यादा स्वाभाविक है, वहां अगर इस तरह की घटनाएं लगातार घटित होती हैं लेकिन कभी-कभी मुख्यधारा के मीडिया की खबर बन पाती है, तो इसमें आश्चर्य कैसा?
अच्छा, अब इन घटनाओं की तारीखों पर एक बार नजर डालें तो आपको सहज ही अंदाजा लग जाएगा कि ये काम अगड़ी जातियों द्वारा सिर्फ और सिर्फ हवश को पूरी करने के लिए नहीं किये जाते, इसका एक राजनीतिक अर्थ भी है जिसे कि व्यापक तौर पर समझा जाना चाहिए। सुमन के साथ पिछले साल जो कुछ भी हुआ, वो भी अंबेडकर जयंती के एक सप्ताह भी नहीं बीते थे, तब किया गया और इस साल भी जिन दो दलित महिलाओं के साथ तब किया गया जबकि कुछ जगहों पर इस उपलक्ष्य में जो कार्यक्रम आयोजित किये गये, उनके शायद टेंट, बैनर-पोस्टर भी नहीं उतरे होंगे। इसका साफ मतलब है कि दलित समाज को किसी भी हाल में अंबेडकर को लेकर दर्प में भीगने का मौका न दिया जाए। बाबा साहब को लेकर जो उनके भीतर स्वाभिमान है, उनके आदर्शों को अपनाते हुए, एकजुट होकर कुछ करने और सुधार की योजना है, उसे ध्वस्त कर दिया जाए ताकि हरियाणा के भीतर वो कभी भी संगठित आवाज की शक्ल में न उभरने पाएं। ऐसे में इस तरह की घटना सिर्फ अपराधिक मामले के दायरे में नहीं आती बल्कि दलितों की जातीय अस्मिता को कुचलने के तौर पर आती है, जिसमें कि किसी एक-दो शख्स को दंडित करके दुरुस्त नहीं किया जा सकता। ये वो राजनीतिक कुचक्र का हिस्सा है, जिसमें सिर्फ सुमन और ताराचंद जैसे लोग शिकार नहीं हुए होंगे बल्कि पूरा दलित समाज चपेट में आ चुका है। और वैसे भी जब ये सब कुछ करना दबंग जातियों के लिए भीतर ही भीतर परंपरा को बनाये रखने का मामला करार दे दिया गया हो, राजनीतिक पार्टियों के लिए सत्ता का खेल गड़बड़ा जाने का भय हो और दलितों का प्रतिरोध, दबंगों के बलात्कार किये जाने से कहीं ज्यादा अस्वाभाविक हो तो दलितों के लिए अस्मिता के भरभरा जाने जैसे चीत्कार का संकट तो है ही। ऐसे में हम इन दो महिलाओं के साथ कुकर्म करने की मंशा रखनेवाले अपराधियों के पकड़े जाने के इंतजार से कहीं ज्यादा कॉलर ऊंची करके चलते हुए देखने के अभिशप्त हैं।
मूलतः प्रकाशित मोहल्लाlive
इस खबर की वीडियो देखने के लिए नीचे की दोनों लिंक चटकाएं। ndtv24x7 ने इसे जहां हत्या का मामला बताकर खबर की है वही उसके ही सिस्टर चैनल इंडिया टीवी ने बलात्कार करने में नाकाम रहने पर ट्रक से कुचल दिया की खबर प्रसारित की है। भाषा के बदल जाने से कैसे खबरें भी बदल जाती है और वो भी एक ही मीडिया संस्थान के भीतर,इसे समझना दिलचस्प होगा। बहरहाल,दोनों लिंक-
एनडीटीवी इंडिया-http://www.ndtv.com/video/player/news/video-story/196861
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ज्ञा
नवाणी इग्नू की एफएम रेडियो सेवा है, जिसके माध्यम से देशभर में शिक्षा और अलग-अलग पाठ्यक्रमों का प्रसारण करके क्लासरूम की कमी को पूरा करने का काम किया जाता है। जिसकी फ्रीक्वेंसी 105.6 मेगाहर्ट्ज है। लेकिन पिछले कुछ सालों से इसके माध्यम से देश और दुनिया में ज्ञान की रोशनी बिखेरनेवाले यहां के लोग खुद ही अन्याय के अंधेरे में जीने के लिए विवश कर दिये जा रहे हैं। नईम अख्तर का मामला भी कुछ इसी तरह का है। साल 2003 से ज्ञानवाणी, इग्नू के लिए अस्थायी पद पर बतौर उदघोषिका काम करनेवाली नईम अख्तर को इग्नू के ईएमपीसी (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रोडक्शन सेंटर) परिसर से तड़ीपार कर दिया गया। तड़ीपार करने के पहले जनवरी 2011 के मध्य में के रविकांत(निर्देशक, ईएमपीसी, इग्नू), नहीद अजीज (स्टेशन प्रबंधक, ज्ञानवाणी), जीपी सिंह (सहायक रजिस्ट्रार, ईएमपीसी) और अरुण जोशी (सलाहकार, ज्ञानवाणी) जैसे आला अधिकारियों ने परिसर में यह अफवाहें फैलायीं कि इग्नू के कुलपति ने आदेश जारी करके नईम अख्तर को ब्लैक लिस्टेड कर दिया है और अब उनका प्रवेश वर्जित है। उसके बाद ईएमपीसी की रिसेप्शन के आगे नईम अख्तर की तस्वीर और स्टेशन मैनेजर के हाथ से लिखा उनका नाम लगाकर सुरक्षाकर्मियों को सख्त हिदायत दी गयी कि यह लड़की किसी भी हाल में ईएमपीसी के भीतर न घुसने पाये। 27 जनवरी 2011 को ईएमपीसी के सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें प्रवेश करने से रोक दिया। ईएमपीसी और ज्ञानवाणी के अधिकारियों को जब इतने से भी संतोष नहीं हुआ, तो उन्होंने परिसर में नईम अख्तर को लेकर माहौल बनाना शुरू कर दिया कि यह लड़की पागल हो चुकी है।

नईम अख्तर के साथ जो कुछ भी हुआ और हो रहा है, सचूना का अधिकार अधिनियम 2005 के तहत वो आरटीआई की कुल छह अर्जियां अब तक दर्ज कर चुकी है। इनमें से कुछ अर्जियों के जवाब अभी तक नहीं आये हैं और जिनके आये हैं, उसे पढ़ते हुए साफतौर पर झलक जाता है कि इग्नू, ज्ञानवाणी और ईएमपीसी इसे लेकर न केवल लापरवाह हैं बल्कि आरटीआई प्रावधान के प्रति लोगों को अविश्वसनीय बना रहे हैं। ऐसे में सब कुछ बर्दाश्त करते हुए नईम अख्तर का अपने तरीके से हक की लड़ाई लड़ना जारी है।
नईम अख्तर ने ऐसा कौन सा गुनाह कर दिया है कि ईएमपीसी और ज्ञानवाणी के अधिकारियों के लगातार निशाने पर बनी हुई है, इस पर विस्तार से चर्चा करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि इग्नू के कुलपति ने अपनी ओर से ऐसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया, जिसमें उन्हें तड़ीपार करने की बात कही गयी हो। यह मामला तब खुलकर सामने आया, जब उन्होंने कुलपति के सहायक से संपर्क करके इस बारे में जानने की कोशिश की। इसका साफ मतलब है कि ये अधिकारी कुलपति के नाम का गलत इस्तेमाल करते हुए नईम अख्तर को धमकाने, मानसिक और आर्थिक तौर पर प्रताड़ित करने की कोशिश कर रहे हैं।
इस मामले में इससे भी दिलचस्प बात है कि आदेश न जारी करने की बात की मांग जब उन्होंने कुलपति कार्यालय से लिखित तौर पर की तो साफ मना कर दिया गया। कार्यालय ने उन्हें किसी भी तरह का पत्र जारी नहीं किया, जिससे यह प्रस्तावित हो सके कि कुलपति ने तड़ीपार करने का कोई भी आदेश जारी नहीं किया है। इस संबंध में नईम अख्तर ने पहले तो कुलपति, इग्नू के नाम 27-1-11 को हाथ से लिखा एक प्रार्थना पत्र और फिर 2-2-11 और 4-2-11 को दो और प्रार्थना पत्र फैक्स के जरिये भेजे। कुलपति के अलावा ईएपीसी को भी तीन बार प्रार्थना पत्र भेजे और जानकारी हासिल करने की कोशिश की। लेकिन हमेशा की तरह इसका कोई जवाब नहीं आया। अंत में सूचना का अधिकार का प्रयोग करते हुए नईम अख्तर ने जनसूचना अधिकारी (ज्ञानवाणी, ईएमपीसी, इग्नू-नयी दिल्ली) के लिए 10-2-11 को अर्जी दाखिल किया। इस अर्जी में उन्होंने प्रमुखता से सवाल उठाये हैं – एक तो यह कि क्या उन्हें इग्नू, ज्ञानवाणी और ईएमपीसी से ब्लैक लिस्टेड कर दिया गया है या फिर सिर्फ प्रवेश वर्जित है? यदि हां, तो इसके लिखित आदेश मुहैया कराये जाएं? दूसरा कि क्या उन्हें इग्नू के कुलपति की तरफ से आदेश जारी करके ब्लैकलिस्टेड किया गया है, यदि हां तो इस संबंध में लिखित आदेश उपलब्ध कराये जाएं? तीसरा कि उनके साथ किन आधारों पर ऐसा किया गया? और सबसे जरूरी बात कि अगर इस तरह का कोई भी आदेश जारी नहीं किया गया तो फिर वे कौन लोग हैं, जिन्होंने कुलपति के नाम का गलत इस्तेमाल करते हुए यह सब किया और उनके लिए किस तरह की सजा का प्रावधान है? जिन लोगों ने एक उदघोषिका की छवि को धूमिल करने की कोशिश की है, उसके पीछे क्या कारण रहे हैं?
नईम अख्तर की तरफ से आरटीआई के तहत पूछे गये सवालों का 5 मार्च 2011 को जवाब देते हुए ईएमपीसी के जनसूचना अधिकारी एससी कतोच ने लिखा कि ये सारे फैसले समर्थ प्राधिकारी की तरफ से लिये गये हैं। ये समर्थ प्राधिकारी कौन हैं, इसकी कहीं कोई चर्चा नहीं की गयी। सवालों में जहां-जहां भी संबंधित अधिकारियों या कुलपति के आदेश की चर्चा की गयी थी, वहां जवाब में समर्थ अधिकारी शब्द का प्रयोग किया गया। उन्हें ब्लैक लिस्टेड करने के पीछे के कारण क्या थे, इस संबंध में सिर्फ इतना ही कहा गया कि चूंकि वह अस्थायी कर्मी हैं, इसलिए नियम एवं शर्तों के उल्लंघन किये जाने की स्थिति में बिना किसी पूर्व सूचना के संस्थान से निलंबित किया जा सकता है। बाकी सवालों का जवाब देना जरूरी नहीं समझा गया और उसके आगे खाली स्थान छोड़ दिया गया।
आरटीआई 2005 के तहत नईम अख्तर को जो जवाब मिले हैं, वे निराश करने के साथ-साथ संदेह पैदा करनेवाले भी हैं। यह संदेह इस बात को लेकर है कि ज्ञानवाणी के भीतर कामकाज को लेकर भारी अनियमितताएं हैं और ऐसे में यह मामला अकेले नईम अख्तर का न होकर दर्जनों ऐसे उदघोषकों, निर्माताओं और ईएमपीसी, इग्नू के लिए काम करनेवाले मीडियाकर्मियों का है, जो कि अस्थायी तौर पर काम कर रहे हैं और लगातार गलत होते रहने की स्थिति में अपने हक की लड़ाई लड़ने की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश में उन्हें फिलहाल प्रताड़ना के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ है। इसका मतलब साफ है कि पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का ऊपरी ढांचा भले ही अधिकारों, मूल्यों और अपने यहां काम करनेवाले लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रखकर खड़ा किया गया हो लेकिन इसके भीतर जिस तरह ठेके या अस्थायी तौर पर नियुक्तियां होती है, कोई भी व्यक्ति शोषण और दुर्व्यवहार के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकता। सेवा से कभी भी मुक्त कर दिये जाने का यही भय है कि ज्ञानवाणी और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग की संस्थाओं का सच हमारे सामने नहीं आने पाता है। ऐसे में नईम अख्तर ने ऐसा क्या कर दिया, जिससे कि संस्थान और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग की शर्तों का उल्लंघन होता है, यह तो किसी भी आरटीआई के जवाब से निकलकर नहीं आया लेकिन तड़ीपार करने के पहले जो कुछ भी घटित हुआ, उसके भीतर से इस बात के सवाल ढूंढे जा सकते हैं।
दरअसल साल 2009-10 के दौरान नईम अख्तर सहित आठ अस्थायी उदघोषकों को वित्तीय वर्ष 2009-10  में टीडीएस (टैक्स डिडक्शन एट सोर्स) गलत काटा गया। नईम अख्तर का फार्म 16-ए गलत जारी किया गया। छह महीने लगातार ज्ञानवाणी दिल्ली के टेलीफोन के जरिये सुझाव देने संबंधी कार्यक्रम में बाहर से आने वाले सारे विशेषज्ञों को 250/- रुपये प्रति कार्यक्रम के हिसाब से कम भुगतान किया। इग्नू के दीक्षांत समारोह के चार उदघोषकों को 250/- रुपये प्रति व्यक्ति के अनुसार कम भुगतान किया। कुछ उदघोषकों को उनकी ड्यूटी किये जाने के बावजूद उनका भुगतान नहीं किया। ज्ञानवाणी दिल्ली द्वारा जारी जिन उदघोषकों के चेक गड़बड़ जारी होने से नकद नहीं हो पाये थे, बार-बार प्रार्थना करने के बावजूद उन्‍हें सुधारकर नहीं दिये जा रहे थे जैसी गड़बड़ियां थीं, जिसके खिलाफ सबसे पहले नईम अख्तर ने आवाज उठायी। उन्होंने सबसे पहले तो स्टेशन प्रबंधन से इन सारी बातों की मौखिक शिकायत की लेकिन दो महीने के इंतजार के बावजूद भी कुछ नहीं किया गया तो इस संबंध में 25-06-2010 को लिखित प्रार्थना पत्र दिया। उसके बाद अगस्त आते-आते उन्होंने तीन और प्रार्थना-पत्र दिये। इन प्रार्थना पत्रों पर किसी भी स्तर पर विचार नहीं किया गया और किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं हुई। आखिरकार फार्म 16-ए और टीडीएस से जुड़े सवालों के जवाब के लिए नईम ने 10-9-10 को एक आरटीआई प्रार्थना-पत्र दाखिल कर दिया। उसके ऐसा करने से ज्ञानवाणी और ईएमपीसी, इग्नू के भीतर की गड़बड़ियां एक के बाद एक खुलकर सामने आने लगीं। मसलन इसी समय इस बात की जानकारी मिली कि जून 2009 से जनवरी 2011 तक अस्थायी अकाउंटेंट के तौर पर शिवानी नरुला की जो नियुक्ति की गयी, उसमें कई नियम एवं शर्तों की अनदेखी की गयी। इस पद के लिए निर्धारित योग्यताओं को नजरअंदाज किया गया। पहले नईम अख्तर, उसके बाद नीतू शर्मा और अब रविशंकर कुमार के साथ हुई जिन वित्तीय गड़बड़ियों के मामले सामने आ रहे हैं, वे सबके सब इसी दौरान की गयी है। इन लोगों ने जब इस संबंध में मौखिक शिकायत की थी, तो शिवानी नरुला ने कोई न कोई कारण बताकर उसे तर्कसंगत करार दिया था। लेकिन अब एक-एक करके ये लोग आरटीआई के तहत शिकायत दर्ज कर रहे हैं तो या तो वो राशि वापस भेजी जा रही है या फिर ऐसे तर्क दिये जा रहे हैं, जो अपने आप में ज्ञानवाणी और ईएमपीसी को लेकर सवाल खड़े करते हैं। यहां तक कि आरटीआई के जवाब में शिवानी नरुला की नियुक्ति को जायज ठहराया गया। उद्षोषिका नीतू शर्मा के मामले में ऐसा ही सुधार किया गया। मार्च 2010 में उन्होंने कुल 12 शो किये, जिनमें कि 11 का ही भुगतान किया गया। एक के भुगतान के बारे में जवाब मांगने पर शिवानी नरुला उपस्थिति आदि का हवाला देते हुए मामले को टाल गयीं। लेकिन इस संबंध में नीतू शर्मा ने जब आरटीआई (10.12.2010) के तहत जवाब मांगा तो कहा गया कि 3.01.11 को इस एक दिन की राशि का भुगतान कर दिया गया है। रविशंकर के मामले में जो जवाब दिया गया, वह ईएमपीसी के गैरमानवीय हो जाने का संकेत करते हैं।
रविशंकर ने ईडीयूसैट परियोजना के तहत ईएमपीसी, इग्नू में अस्थायी तौर पर दो सालों तक जूनियर सलाहाकार के पद पर काम किया। इन दो सालों में उन्होंने 104 शनिवार जो कि छुट्टी के दिन होते हैं, काम किया। दो साल का करार खत्म होने पर भी उन्हें आने से मना नहीं किया गया और इस तरह उन्होंने 11 दिनों तक आगे भी काम लिया गया। शनिवार और 11 दिनों के काम के लिए उन्हें कुछ भी भुगतान नहीं किया गया। इस संबंध में उन्होंने 2-2-2011 को जब आरटीआई के तहत शिकायत की, तो 8 मार्च 2011 के जवाब में ईएमपीसी के जनसूचना अधिकारी की ओर से लिखा गया कि चूंकि रविशंकर अस्थायी और ठेके के आधार पर कार्यरत थे और उन्हें मासिक वेतन दिया जाता था, इसलिए शनिवार का अलग से वेतन दिया जाना संभव नहीं है। रविशंकर कुमार का करार 4.08.08 से 3.08.10 तक ही था और ऐसे में वे ईएमपीसी में किसी भी पद पर कार्यरत नहीं थे, तो 11 दिनों का वेतन देने का कोई सवाल ही नहीं बनता है। ईएमपीसी जिन नियम और शर्तों की बात जिस अंदाज में कर रहा है, उसमें यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है कि यहां अस्थायी और स्थायी तौर पर काम करनेवाले लोगों के लिए मापदंड न केवल अलग हैं बल्कि उनमें जमीन-आसमान का फर्क है। स्थायी कर्मचारी अगर छुट्टी के दिन या निर्धारित समय से अधिक काम करता है, तो उन्हें अलग पैसे दिये जाते हैं जबकि अस्थायी के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है। दूसरी बात कि अगर रविशंकर ने करार खत्म होने के बाद भी ईएमपीसी में आना जारी रखा तो उन्हें उसी वक्त रोकने के बजाय 11 दिनों तक काम क्यों लिया जाता रहा?
इधर नईम अख्तर के सवाल खड़े किये जाने पर उसके पक्ष में नतीजा तो कुछ नहीं आया लेकिन 29-9-10 और 30-9-10 को अधिकारियों ने उनके खिलाफ एक-एक करके दो फरमान जारी किये। एक के अनुसार, ज्ञानवाणी दिल्ली में काम करने वाले हर उदघोषक को इग्नू में कोई भी काम करने से पहले स्टेशन मैनेजर की अनुमति लेना आवश्यक होगा। इसकी अवहेलना आज भी धड़ल्ले से जारी है। दूसरा, जो कि सिर्फ उनके लिए था कि जिसमें 1-4-2009 से 10-10-2010 तक इग्नू से कमायी गयी सारी राशि का हिसाब देना था। नईम अख्तर के लिए यह बिल्कुल नया फरमान था, जिसका कि अधूरे तरीके से ही सही उन्होंने 11.10.10 को जवाब दिया। उसके बाद से उनके शो की संख्या लगातार कम कर दी जाने लगी और आखिर में तड़ीपार कर दिया गया।
ऐसा करके ज्ञानवाणी और ईएमपीसी, इग्नू अपने भीतर फैली अनियमिततातों को लगातार ढंकने की कोशिश में जुटा है लेकिन नईम अख्तर के अलावा दूसरे लोगों ने भी आरटीआई के तहत जिस तरह से सवाल-जवाब करने शुरू कर दिये हैं, इससे इस बात की बड़ी संभावना है कि प्रसार भारती की तरह ही इसके भीतर कई दूसरे स्तर के घपले निकल कर सामने आएंगे। नईम अख्तर के मामले पर गौर करने के बाद ऐसे दर्जनों सवाल हमारे सामने से गुजरे, जिस पर कि सख्ती से सवाल करने की जरूरत है। मसलन अस्थायी उदघोषकों के लिए जो ऑडिशन लिये जाते हैं, उन्हें स्वीकृत कर लिये जाने के बाद भी कभी क्यों नहीं बुलाया जाता? उन्हें काम करते रहने के बावजूद स्वीकृति पत्र क्यों नहीं दिये जाते या फिर इंटर्नशिप करने के बावजूद भी अनुभव पत्र जारी क्यों नहीं किये जाते? ज्ञानवाणी अपनी मेल आइडी सार्वजनिक करने के बावजूद, उस पर संदेश भेजे जाने और जवाब मांगने पर इसे सिर्फ कार्यालयी और सांस्थानिक प्रयोग की बात कहकर क्यों टालता है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं, जिनकी गहराई में जाने पर ज्ञानवाणी का असली चेहरा कुछ और ही सामने आता है.

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न्यूज चैनल के सबसे चमकते चेहरे के तौर पर बरखा दत्त की सोशल इमेज पूरी तरह करप्ट हो चुकी है। डॉ. प्रणय राय ने एनडीटीवी की व्यावसायिक मजबूरी के तहत उनकी बदनामी को भले ही नजरअंदाज करने की कोशिश की हो लेकिन ऑडिएंस ने उन्हें एक बार फिर से बता दिया कि वो पत्रकारिता करने का नैतिक आधार पूरी तरह खो चुकी है। इस बात को जानने-समझने के लिए कोई सर्वे करने की जरुरत नहीं बल्कि कल रात इंडिया गेट पर बरखा दत्त के साथ जो कुछ भी हुआ, उसकी वीडियो फुटेज देखकर ही आसानी से समझा जा सकता है। ये वीडियो भी किसी चैनल या मेनस्ट्रीम की मीडिया ने नहीं बल्कि हमारी-आपकी तरह ही देश के एक आम इंसान ने शूट करके डाली है।


कल की रात जब देशभर के चैनल जश्न की रात करार देकर इंडिया गेट से लाइव कवरेज दिखा रहे थे,अन्ना हजारे को इस युग का गांधी करार दे रहे थे,भ्रष्ट्राचार यानी सरकार की हार और ईमादारी यानी जनता की जीत के एक-एक क्षण को कैमरे में कैद करके टेलीविजन स्क्रीन पर उगल दे रहे थे, जिसमें कि एनडीटीवी24x7 की मैनेजिंग एडीटर और वी दि पीपल शो की मशहूर एंकर बरखा दत्त भी शामिल थी,ठीक उसी समय वहां जुटी जनता ने बरखा दत्त के विरोध में नारे लगाने शुरु कर दिए। नारा था- बरखा दत्त हाय,हाय, दलाल पत्रकार हाय,हाय,बरखा दत्त बाहर जाओ,बाहर जाओ,बाहर जाओ,कार्पोरेट मीडिया दलाल हाय,हाय। ऐसे में चैनल के संजय आहिरवाल जैसे वयोवृद्ध और गंभीर पत्रकार को हारकर अंत में साइड हो जाने के अलावे कोई रास्ता न बचा था।

 मीडिया ने जो समझ हमें अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन को लेकर दी है,उसके हिसाब से इसकी व्याख्या करें तो जिस तरह से देशभर में फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ नारे लगानेवाले और सड़कों पर उतरनेवाले लोग अपनी स्वाभाविक इच्छा से इसके समर्थन में आए थे,ठीक उसी तरह जिन लोगों ने बरखा दत्त के खिलाफ नारे लगाए और उन्हें दलाल पत्रकार कहा,वो भी इन्हीं सामान्य लोगों में से बीच के लोग रहे थे। बरखा दत्त को देखकर उनका गुस्सा स्वाभाविक तौर पर उसी तरह फूट पड़ा था,जिस तरह से अन्ना हजारे की ईमानदार कोशिश को देखते ही उससे जुड़ने का मन हो आया था। लोगों का गुस्सा इस मामले में स्वाभाविक था कि जिस पत्रकार पर भ्रष्टाचार होने के आरोप लगे हों, जिसने दलाली करके कार्पोरेट को फायदा पहुंचाने का काम किया हो, जिसके कारनामे से मीडिया पूरी तरह कलंकित हो चुका हो,उसे भला भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का क्या अधिकार है?

 इससे ठीक विपरीत,जब तक ये मामला पूरी तरह स्पष्ट न हो जाए कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में जो घोटाले हुए हैं और कॉर्पोरेट लॉबिइस्ट नीरा राडिया के साथ मिलकर उसने मंत्री बनाने-बिगड़ाने से लेकर सौदेबाजी तक का काम किया हो,उसे इस पेशे से दूर ही रहना चाहिए। लेकिन उस वक्त एनडीटीवी और बरखा दत्त ने अपनी तरफ से सफाई देते हुए बेशर्मी से मीडियाकर्म में लगी रही। एनडीटीवी की साख मिट्टी में मिल जाने के बावजूद गले की फांस बन चुकी बरखा दत्त को तब निकालना भी आसान नहीं था। चैनल के ऐसा करने से ये साबित हो जाता कि सचमुच बरखा दत्त के हाथ इस पूरे मामले में सने हैं और जब ये संदेश एक बार चला जाता तो उंगलियां इस बात को लेकर भी उठती कि ऐसा हो ही नही सकता कि इन सारी बातों की जानकारी प्रणय राय को नहीं रही होगी। इससे होता ये कि पूरा का पूरा चैनल शक के घेरे में आ जाता। ऐसा करके चैनल ने अपनी साख बचाने की कोशिश में बरखा दत्त को बने रहने दिया।

 इतना ही नहीं पहले तो चैनल के सीइओ नारायण राव ने ओपन पत्रिका सहित जिसने कि बरखा दत्त को लेकर स्टोरी की थी और टेप प्रकाशित की थी,धमकी दी और फिर बाकी लोगों के लिए भी कहा कि अगर किसी ने बदनाम करने की कोशिश की तो उसका अंजाम ठीक नहीं होगा और फिर 30 दिसंबर रात 10 बजे NDTV 24X7 पर  RADIA TAPE CONTROVERSY नाम से कार्यक्रम प्रसारित किया गया। इस कार्यक्रम में संजय बारू,(संपादक बिजनेस स्टैन्डर्ड, स्‍वपन दासगुप्‍ता( सीनियर जर्नलिस्ट), दिलीप पडगांवकर( पूर्व संपादक दि टाइम्स ऑफ इंडिया) और मनु जोसेफ( संपादक, ओपन मैगजीन) को बरखा दत्त से सवाल-जबाब के लिए पैनल में शामिल किया गया। इस बातचीत के अलावे आगे बरखा दत्त ने किसी भी चैनल पर बात करने से मना कर दिया और ये मानकर चली कि उनका काम हो गया है और उन्होंने ऑडिएंस को अपने पक्ष में कर लिया है। लेकिन इस शो के बाद हेडलाइंस टुडे की बातचीत सहित बाकी मंचों पर भी लोगों की प्रतिक्रिया सामने आयी कि बरखा दत्त किसी भी तरह से भरोसा नहीं दिला पायी। लिहाजा बरखा दत्त को लेकर ओपन,आउटलुक की स्टोरी और इन्टरनेट पर तैरते नीरा-बरखा टेप सुनकर जो राय बनी थी,वही टिककर रह गयी। लोगों के मन में स्थायी तौर पर ये बात बैठ गयी कि बरखा दत्त देश की एक ऐसी पत्रकार है जिस पर कि किसी भी सूरत में भरोसा नहीं किया जा सकता। कल रात जतंर-मंतर पर देश के आम दर्शकों ने उसके प्रति अपनी जो भावना जाहिर की, वह इसी स्थायी छवि की परणति है। उससे ये साबित हो गया कि पत्रकार की छवि,मीडिया और दर्शकों की प्रतिक्रिया का मामला इतना आसान नहीं है। इतनी आसानी से किसी बदनाम हो चुके पत्रकार का मेकओवर नहीं किया जा सकता।

 बरखा दत्त जैसी किसी भी पत्रकार के लिए अब ब्रिटिश काउंसिल या इंडिया हैबिटेट सेंटर जैसी सुरक्षित जगहों पर जाकर "वी दि पीपल" जैसे शो करना फिर भी आसान है लेकिन आम लोगों के बीच से लहराते हुए पीटीसी करना नामुमकिन ही नहीं,असंभव दिख रहा है। बदनाम मुन्नी से जोड़कर इस पत्रकार की छवि को देखें तो ऑडिएंस ने उस बदनाम मुन्नी को भी हाथोंहाथ लिया,अपना प्यार और सम्मान दिया लेकिन इस बदनाम बरखा के प्रति उनकी हिकारत,नफरत और उबाल को वो किसी भी सूरत में दबा नहीं पा रहे हैं।  

इससे पूरे प्रकरण में सबसे जरुरी बात है कि ऑडिएंस को लेकर मीडियाकर्मियों के जो मिथक हैं कि इनकी यादाश्त बहुत ही कमजोर होती है और लॉफ्टर चैलेज शो के बीच वो इन सब बातों को बहुत जल्द ही भूल जाते हैं,वो ध्वस्त हुए हैं। नबम्वर में हुई इस घटना को अप्रैल तक आते-आते भी देश की ऑडिएंस अपनी याद में जस की तस बनायी हुई थी। तभी तो बरखा दत्त को देखते ही जिस तरह से उसने रिएक्ट किया,ऐसा लगा कि मानो ये कल-परसों की ही बात है। 5 अप्रैल को अन्ना हजारे और उनके समर्थक जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जंतर-मंतर पर अनशन के लिए बैठे थे,हमने अपनी फेसबुक वॉल पर तभी लिखा था कि हम देश में फैले भ्रष्टाचार पर बात करने के साथ-साथ मीडिया में फैले भ्रष्टाचार पर भी बात करें। मीडिया के भीतर की गंदगी और दोगलेपन को हम लगातार देखते आ रहे हैं लेकिन कभी मीडियाहाउस ने इस पर बात नहीं की। कल रात यानी 9 अप्रैल को जो हुआ,उससे ये साबित हो गया कि भ्रष्टाचार के खिलाफ इस देश में जो मुहिम चली है,उसके निशाने पर मीडिया भी है। मीडिया ने अपनी तरफ से तो पूरी कोशिश की थी कि पहले पेड न्यूज और फिर बाद में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला,राडिया-मीडिया प्रकरण में जो साख पूरी तरह गंवा चुकी है,उसे अन्ना की इस मुहिम की लगातार कवरेज करके मेकओवर कर ले। उसने इसे कभी हायपर देशभक्ति तो कभी नोशन ऑफ सिलेब्रेशन तक ले जाने की जी-जान से कोशिश की जिसका असर भी हुआ और देश की एक बड़ी आबादी इसमें समा गयी।

 लेकिन इसी आबादी से कुछ लोग ऐसे भी निकलकर सामने आए जिसने कि मीडिया पर भी सवाल किया और बरखा दत्त जैसी पत्रकार को आइना दिखाने का काम किया । कोई खुद भ्रष्ट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ बात नहीं कर सकता। इस पूरी घटना की कोई भी फुटेज,किसी भी चैनल ने नहीं दिखाई। सब अन्ना,अनशन और उत्सव में लगे रहे जिससे देशभर में व्यापक संदेश गया है कि मीडिया खुद चाहे कितनी भी गड़बड़ी कर ले,वो खबर का हिस्सा नहीं बन पाएगा। उनके लिए भ्रष्टाचार का मतलब अपने को माइनस करके दिखाना है। लेकिन जिन चैनलों ने अन्ना की इस मुहिम में न्यू मीडिया की भूमिका को शामिल किया है,हम साफतौर पर देख रहे हैं कि यही न्यू मीडिया,मेनस्ट्रीम में फैले भ्रष्टाचार को बेनकाब करने के काम आ रहा है।

सार्वजनकि तौर पर बरखा दत्त का बहिष्कार ये साबित करता है कि इस देश की जनता भ्रष्टाचार के जिन ठिकानों की तलाश में निकली है,उसका एक अड्डा मीडिया भी है और वो इस पर भी छापेमारी का काम करेगी। अन्ना मुहिम की कवरेज के लिए इस मीडिया का शुक्रिया भी अदा करते रहें तब भी वो इसके खिलाफ जाकर काम करेगी और अगर जरुरत पड़ी तो अन्ना से अपना रास्ता अलग कर देगी और प्रतिरोध में कहेगी कि- नहीं अन्ना,जिस मीडिया के भीतर बरखा दत्त,प्रभु चावला,वीर सांघवी जैसे दागदार पत्रकार हैं,हम उसका शुक्रिया क्या,उसे सहन नहीं कर सकते। उन्हें जड़ से काटना भी हमारी इसी भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हिस्सा है,आप साथ दें तो भला, न दें तो हम अलग से मंच खड़ी करेंगे।  
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ल की शाम दिल्ली के जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे और उनके समर्थक जहां भ्रष्टाचार के खिलाफ धरने पर बैठे थे और लोकपाल विधेयक लागू जाने की मांग कर रहे थे, वहीं महमूद फारुकी और दानिश हुसैन अलाइअन्स फ्रांन्सेस (फ्रांस का भाषा और सांस्कृतिक केंद्र) लोदी इस्टेट में दास्तानगोई सुना-सुनाकर हमें लगातार दिल्ली से बाहर मुल्क-ए-कोहिस्तान में खींचे लिये जा रहे थे, जहां बार-बार एक ही आवाज आ रही थी – जुडुम-जुडुम। देशभर के लोग भ्रष्‍टाचार के खिलाफ दिल्ली में जुटे हैं और यहां दिल्ली में रह रहे लोगों को दिमागी तौर पर ही सही घसीटकर बाहर किया जा रहा था, हमारी बेशर्मी को कुचलने की लगातार कोशिशें हो रही थी। और देखते ही देखते हम अपने से ही सवाल करने लगे थे – जंतर-मंतर के नारे सुनाई पड़ते हैं तो फिर कभी छत्तीसगढ़ की चीख हमें क्यों नहीं सुनाई देती? माफ कीजिएगा, लोदी रोड पर इस जुडुम-जुडुम की आवाज कुछ इतनी ऊंची थी कि जंतर-मंतर पर बैठा जो शख्स सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा गा रहा था, अगर वो यहां पहुंच जाता तो वो गाने के बजाय चिल्लाना शुरू कर देता – नहीं सहेंगे, नहीं सहेंगे।

इस मुल्क का जो हिस्सा घर, गांव, जंगल और कस्बों के बजाय सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया गया हो, लोग घरों के बजाय लश्करों में रहने पर मजबूर हों, हिंदुस्तान के राष्ट्रगान से पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा छिटककर राजनीतिक पार्टियों का एक तिलिस्म बन गया हो, जिसे देश की जनता नहीं अय्यार जादूगर चलाता हो, हिंदुस्तान का मतलब भारत सरकार हो गया हो, जिसे मिली-जुली संस्कृति नहीं, मिली-जुली लंगड़ी-अपाहिज पार्टियां चला रही हों, वहां अन्ना हजारे और उनके समर्थकों के साथ श्रद्धानत होकर सारे जहां से अच्छा हिंदोस्‍तां हमारा गाना मजबूत कलेजे के ही बूते की चीज है। हम जैसे लोगों के लिए ऐसा करने के पहले अभिनय कला की शार्टटर्म ही सही लेकिन कोर्स करने की जरूरत पड़ जाएगी। माफ कीजिएगा, फिजां में राष्ट्रीयता की चिकनाहट कुछ इतनी है कि हमारे शब्द उससे फिसलते हैं, तो खतरा है कि वो सीधे देशद्रोह के साथ जाकर न चिपक जाए और चार दिन पहले जिसे क्रिकेट विरोधी यानी देशविरोधी कहा जा रहा था, अब राष्ट्रगान विरोधी यानी देशद्रोही न करार दिया जाए। इस देश में देशद्रोह होने और कहलाने की शुरुआत प्रतिरोध में खड़ा होते ही हो जाती है। बहरहाल…
छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडूम के नाम पर पिछले कुछ सालों से जो कुछ भी होता आ रहा है और सरकार जिस तरह से देशभक्ति का मशीनी पाठ करते हुए उसके प्रतिरोध में राय रखनेवाले को देशद्रोह, माओवादी और आतंकवादी से भी खतरनाक करार देने का काम कर रही है, महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने 16 मई 2008 को भी अपनी दास्तानगोई में उसे व्यक्त किया था। लेकिन अबकी बार यानी 6 अप्रैल 2011 में जब दोबारा इस मसले पर दास्तानगोई की तो तिलिस्मी फैंटेसी रचते हुए भी उसकी शक्ल पहले से बहुत ही स्पष्ट और साफ-साफ दिखाने-बताने की कोशिश थी। दास्तानगोई की जो कथा संरचना है और भाषाई स्तर पर जो उसके प्रयोग हैं, वो सब इसमें पहले की तरह मौजूद थे लेकिन जो दो-तीन बातें मुझे खासतौर से नयी और बेहतर लगी, उसे रेखांकित किया जाना जरूरी है।
अबकी बार महमूद फारुकी और दानिश हुसैन ने विनायक सेन पर लगनेवाले आरोपों और उसके बिना पर चलनेवाली अदालती कार्रवाइयों के प्रसंग को प्रमुखता से शामिल किया। उनके ऐसा किये जाने से एक तो सरकार और कानून ऑपरेट करनेवाले लोगों की मानसिकता किन रंग के सुरक्षा धागों और झंडे-पताकों के इशारे पर काम करती है, इसका पता चलता है। हिंदी विभाग के कारखानों से निकलकर जिस क्लिष्‍ट और अनूदित हिंदी का प्रयोग कानूनी पंडित करते हैं, उसके पीछे दरअसल किस तरह की सोच काम करती है, उसे इस दास्तानगोई में बारीकी से शामिल किया गया। विनायक सेन के अदालत में पेश किये जाने और उनके अपने पक्ष में दिये जानेवाले तर्कों को पूर्वनिर्धारित फैसले के भीतर दफन करने की जो प्रक्रिया शुरू होती है, आखिर में उसकी परिणति कैसे एक देशद्रोह साबित करने में होती है। मसलन आपने दाढ़ी क्यों रखी? क्या दाढ़ी रखना गुनाह है? गुनाह तो नहीं लेकिन गुनाह का परिचायक तो है जैसी दलीलें एक के बाद एक दलीलें जब हम सुनते हैं, तो कहीं से नहीं लगता कि ये दास्तानगोई का हिस्सा है बल्कि हमारी समझ पुख्ता होती है कि अदालती कार्यवाही इससे अलग क्या होती होगी? पहले छवि निर्मित करके, उस आधार पर फैसले दिये जाने का जो काम इस मुल्क में चल रहा है, इस पूरे प्रसंग को जानने लिए किसी भी चैनल की स्पेशल स्टोरी देखने के बजाय दास्तानगोई के उस टुकड़े को सुना जाना चाहिए।
महमूद फारुकी जब इस दास्तानगोई की शुरुआत करते हैं, तो पहले ही बता देते हैं कि ये मुल्क दरअसल तीन सतहों पर बंटा और बिखरा हुआ है। एक सतह जिस पर कि इस देश को चलानेवाले लोग उड़ रहे हैं, जिसमें मंत्री और मीडिया दोनों शामिल है, दूसरी सतह जिस पर कि लोग संसाधनों के स्तर पर सफल होने के लिए जोड़-तोड़ करके कभी चोला तो कभी चैनल बदलकर तैर रहे हैं और तीसरा जिस पर लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए रेंग रहे हैं, मरे जा रहे हैं। महमूद इस मुल्क का विभाजन जब इन तीन स्तरों पर करते हैं, तो मुक्तिबोध की कविता “अंधेरे में” अचानक बिजली की तरह कौंधती है। दास्तानगोई में स्तरों का विभाजन एक बुनियादी संरचना है, जिसमें पर्दे की बात की जाती है। चूंकि वहां तिलिस्मी दुनिया होती है, जहां जो होता है, वो दिखाई नहीं देता और जो दिखाई नहीं देता वो होता है लेकिन इस दास्तानगोई में जो दिखाई दे रहा था, वो था भी और जो था वो दिखाई भी दे रहा था लेकिन फिर सवाल यही तो फिर कुछ होता क्यों नहीं? इस तिलिस्मी फैंटेसी में भी सरकार अय्यारों से भी ज्यादा शातिर है, जो जल-जंगल-जमीन को ध्वस्त करके विकास के अपने मायने गढ़ रही है और जनता के असंतुष्ट होने पर उल्टे उन्हीं से सवाल कर रही है कि जब देश 9 फीसदी की दर से विकास कर रहा है तो फिर भी सवाल करने का, असंतुष्ट होने का क्या तुक है?
कुल मिलाकर, महमूद फारुकी और दानिश को दर्जनों बार पिछले कई सालों से दास्तानगोई करते देखता-सुनता आया हूं लेकिन कल शाम पहली बार महसूस किया कि दास्तानगोई के लिए कोई अलग से तिलिस्मी दुनिया रचने औऱ फिर उसमें कहानियां सुनाने की जरूरत नहीं है। इस देश से बड़ा, तिलिस्म और सरकार से बड़ा शायद ही कोई अय्यार होगा, जो चालीस करोड़ से ऊपर की आबादी के गरीबी रेखा से नीचे होने पर भी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों को ऊपर ठेलता चला जा रहा हो और राष्ट्रगान की अंतिम लाइन जिसे कि 15 अगस्त और 26 जनवरी सहित साल के बाकी दिनों में भी गाया जाता हो – ऑल इज वेल।
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लील : खचाखच भरे सभागार में बैठने क्या हमें तो कायदे से खड़े रहने की भी जगह नहीं मिल रही थी। लिहाजा हमने दर्जनों बोलते मुंहों और फुसफुसाती जुबान के बीच अपने कान खड़े करके कुछ सुनने की कोशिश की और इंसानों के कैदखाने के बीच से अपना रिकॉर्डर मुक्त करने की कोशिश करता रहा ताकि कुछ आवाज यहां तक पकड़ में आये। इस आपाधापी के बीच शुरुआत के कुछ हिस्सों को छोड़ दें तो बाकी आवाज बहुत ही साफ है, आप सुनना चाहें तो जरूर सुनें। खासकर विनायक सेन और अदालती प्रसंग। आपको हिंदी भाषा, सरकार की मानसिकता और उसके प्रतिरोध में खड़ा होने पर क्या हश्र होगा, के अंदाज में क्या किया जाता है, सब समझने को मिलेगा। तो एक बार नीचे के लिंक पर चटका लगाकर जरूर सुनें -
हमने जिस शाम जंतर-मंतर पर भ्रष्‍टाचार के विरोध में बैठे अन्ना हजारे और उनके समर्थकों को कवर करते हुए सैकड़ों छोटे-बड़े समाचार चैनलों को देखा, वहीं विनायक सेन की रिहाई में आवाज उठानेवालों लोगों को सुनने-समझने के लिए चैनल की न तो एक गाड़ी दिखाई थी और न ही लेबल लगी कोई माइक ही। दोनों जगहों पर भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाजें उठायी जा रही थी। फर्क था तो सिर्फ इतनाभर कि जंतर-मंतर पर जो लोग आवाज उठा रहे थे, वो अपने को देशभक्त कहलाकर गौरवान्वित हो रहे थे लेकिन लोदी इस्टेट में विनायक सेन की रिहाई की मांग और उनके साथ जबरदस्ती करने के विरोध में आवाज उठानेवाले इस देशभक्ति को फिर से पारिभाषित करने की मांग कर रहे थे। दोनों में समानता थी तो इस बात को लेकर कि देशभक्ति की परणिति इंसानियत ही है।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
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विकीलिक्स की ओर से एक के बाद  एक खोजपरक खबरों और राडिया-मीडिया प्रकरण ने ये साबित कर दिया कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ नाम से लेबल चस्पा कर जो पत्रकारिता अब तक की जाती रही है वो दरअसल प्रेस रिलीज और जनसंपर्क का व्यावहारिक रुप है। पत्रकारिता के इस रुप से लोकतंत्र की जड़ें न केवल खोखली हुई है बल्कि इससे इसके विरोधियों की ताकत में लगातार इजाफा हुआ है। एक धंधे के रुप में मीडिया ने कार्पोरेट,दलाली और भ्रष्टाचार की नींव को मजबूती देने का काम किया है। न्यूज चैनलों ने मीडिया के इस रुप पर जहां लगभग चुप्पी मार ली वहीं अखबारों ने इसे बहुत बाद में छापकर अपनी साख  बचाने की कोशिश की। कथादेश मीडिया वार्षिकी, अप्रैल अंक इन तमाम घटनाओं और कुचक्रों को बारीकी से रेखांकित करता है। बतौर लेखक अधिकांश नए चेहरों की तल्खी से मौजूदगी ने मीडिया आलोचना की संभावना को विस्तार देने का काम किया है। कल यानी 7 अप्रैल को इस अंक का लोकार्पण और इसके बाद इनमें शामिल प्रसंगों पर खुली बहस का आयोजन है। अगर आप दिल्ली में है,व्यस्त होते हुए भी इस बहस की धार को मजबूती देना जरुरी समझते हैं तो शाम पांच बजे जेएनयू में जुटिए। हम जैसे लोग तो वहां  पहले से मौजूद मिलेंगे ही।
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संगोष्ठी : विकिलीक्‍स के दौर में मीडिया - संभावनाएं और चुनौतियां
वक्ता प्रो. आनंद कुमार, वरिष्‍ठ समाजशास्त्री, JNU
प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, चिंतक व लेखक, DU
... उदय प्रकाश, वरिष्‍ठ साहित्यकार
डा. आनंद प्रधान, मीडिया विशेषज्ञ, IIMC
सिरिल गुप्‍त, संस्‍थापक- 'ब्‍लॉगवाणी'
उपस्थिति
हरिनारायण, संपादक- कथादेश
दिलीप मंडल, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश)
अविनाश, अतिथि संपादक (मीडिया विशेषांक-कथादेश) Mohallalive.com
समय- शाम 5 बजे
दिनांक- 7 अप्रैल, 2011
स्थान- 212, कमेटी रूम, स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज, जेएनयू
आप सादर आमंत्रित हैं.


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