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मुझे आज दिन तक पता नहीं क्यों लेकिन पापा मनहूस,मातमी और सैड न्यूज बताने के लिए हमेशा से बेचैन नजर आए। जब मैं घर मे होता-पापा घर घुसते और ठीक से शर्ट भी नहीं उतारते,सीधा कहते- हीरालाल की छोटी बच्चिया नहीं रही। शंभू बाबू का बड़ा लड़का पटना ले जाते-जाते ही रास्ते में खतम हो गया,बिसेसर की मंझली लड़की को दहेज में फ्रीज नहीं देने पर काम टूट गया,मुन्नू की स्साली गया से आ रही थी,बस में छिनतई में सब जेवर चला गया...।

पापा के पास ऐसी मनहूस खबरों की लंबी लिस्ट होती। मां,पापा के इस रवैये से बहुत दुखी होती। अजब मर्दाना हैं,दुनियाभर का मर्दाना घर घुसता है तो कुछ अच्छा बताता है,राजी-खुशी का हाल-चाल बताता है लेकिन इनको ऐसा कोई खबर नहीं मिलता है। घुसे नहीं कि मरे-हेराय(खो जाना),लुटे-पिटे का खबर लेकर शुरु हो जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ पापा की ये आदत और मैच्योर होती गयी। अब तो बल्कि प्रणाम पापा का जबाब तक देने के बजाय सीधा कहते हैं- छोटन फूफा को लकवा मार दिया है,मेहमान का दुकान कल रात जलकर राख हो गया।.उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं यहां दिल्ली में किस हाल में हूं,सुबह उठकर कैसा महसूस कर रहा हूं,क्या काम करना है और क्या सोच रहा हूं। तभी पापा का सुबह,वैसे तो वो सुबह जल्दी फोन नहीं करते लेकिन अगर आ जाए तो उठाने के पहले दस बार सोचना पड़ता है कि फोन पिक करुं कि नहीं?

दिल्ली में बैठकर मैं मां से अक्सर पूछता हूं-ये बताओ मां,इतने बड़े समाज में,घर-परिवार में ऐसी कोई भी घटना नहीं होती है,जिसकी खबर सुनकर अच्छा लगे और जिसे पापा बताएं। मां कहती है-होता नहीं है,खूब होता है। पिछले साल डौली का शादी हुआ,तीन महीने से पेट में है,चोरी-छुपे कलकत्ता जाकर अल्ट्रासाउंड करायी है,डॉक्टर बोला है हर-हाल में लड़का होगा। रश्मि का मर्दाना देवता मिला। एक रुपया दहेज तो नहीं ही लिया,उपर से विदा होते वखत बोला कि मां जी,आपको दामाद नहीं,एक और बेटा मिला है समझिए। कामिनी दू साल पहिले अमरुद का पेड़ लगायी थी,अभी से ही फूल फेक दिया है। खुशी का इ बार अच्छा ग्रेड आया है।..एक तरफ मां के पास छोटी-छोटी खुशियों की एक के बाद एक खबरें और दूसरी तरफ पापा के पास सिर्फ और सिर्फ हताश और टेंशन पैदा करनेवाली खबरें। एक-दूसरे के परस्पर विरोधी मिजाज की खबरें। मेरे पापा के इस रवैये पर कोई सैड24x7 चैनल खोले तो उसे खबरों की कभी किल्लत नहीं होगी और उसकी समझ का विस्तार होगा कि किस-किस एंगिल से मातम मनानेवाली खबरें खोजी जा सकती है?

पापा इन मातमी खबरों की खोज में संबंधों की नजदीकियों से कहीं ज्यादा मातम को प्राथमिकता देते हैं। मसलन कोई खुश होनेवाली घटना बिल्कुल ऐसे परिवार या शख्स से जुड़ी हो जिसे कि मैं बहुत बेहतर ढंग से जानता हूं या फिर जिनसे मेरा भावनात्मक संबंध है तो वो मुझे शायद ही बताएं लेकिन कोई दूर के रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ दुर्घटना घटी हो तो उसे बताने में कभी चूक नहीं करते। मुझे कई बार उन्हें याद करने या समझने में समझ लग जाता है कि कौन राजकुमार?..तब वो बताते हैं कि फलां के फलां का फलां..

मेरे घर में जब भी कोई हादसा होता,उससे निबटने के पहले घर में कोई न कोई पापा को खुशी से पहले समझाता है- अभी विनीत को इस बारे में कुछ मत बताइएगा,रात में देर तक जागता है,सुबह-सुबह फोन करने से परेशान हो जाएगा। मां को पता है कि मैं कई सारी चीजों के बारे में इतनी गंभीरता से सोचने लग जाता हूं कि कई बार बीमार तक हो जाता हूं। पापा कुछ नहीं बोलते हैं या फिर ये कि हमहीं बताते हैं क्या हर बात? लेकिन फिर चुपके से फोन करके कहते हैं- मां नहीं बताने बोली थी लेकिन घर का आदमी हो,कैसे नहीं बताएं कि उदय चचा खतम हो गए,अब नहीं रहे इस दुनिया में? पापा को इस तरह की मातमी खबरें बताने में मैंने देखा है कि एक खास किस्म का उत्साह तो नहीं फिर भी एफर्ट रहता है कि उनकी इस खबर से मैं दुखी हो पाता हूं कि नहीं? जब तक फोन पर दो-चार बार ओहहह..,चीचीचीचीचीची, न बोल दूं,उन्हें लगता है कि वो इस मातमी खबर को ठीक से एक्सप्रेस नहीं कर पाए या फिर जितना मातमी वो समझ रहे थे,उतनी बड़ी खबर मेरे लिए है नहीं। मैं बस इतना कहता हूं- जाने दीजिए पापा,क्या कीजिएगा,इतनी बड़ा जिंदगी है,होता ही रहता है। पापा बस इतना कहते हैं- हां,सो तो है। फिर भी लगता तो है न कि कैसे उदय भइया हंसता-खेलता परिवार छोड़कर बीच में ही चले गए। अब वो उनकी मौत से होनेवाले प्रभाव की चर्चा करने लग जाते जिससे कि मैं थोड़ा दुखी हो सकूं।

मेरे सामने जब पापा ऐसी मातमी खबरें बताते तो मां सीधा एक ही सवाल करती- तो खाना लगावें कि मन नहीं है खाने का? मां को लगता कि पापा को भी सदमा लगा है तो शायद नहीं खाएंगे। कई बार मौत और दुर्घटना की खबर सुना रहे होते,उसी दिन मां गुलाबजामुन,लौंगलता,खोए की पूड़ी या ऐसी चीजें बनायी होती,जिसे सुनकर पापा किसी भी हाल में लोभ का संवरण नहीं कर पाते। ऐसे में पापा एक ही बात कहते- जानेवाला तो चल ही गया,जो हम सब बचे हैं तो खाना-पीना छोड़ देने से थोड़े ही चलेगा..लाओ दू पूड़ी खा ही लेते हैं। मातमी खबरों को सुनाने को लेकर ऐसी प्रतिबद्धता मैंने आज दिन तक किसी भी न्यूज चैनल की भी नहीं देखी।

इन दिनों जबकि वो डेली रुटीन के तहत फोन करने लगे हैं,रोज मातमी खबरें नहीं होती तो मेरे ये पूछने पर कि क्या हाल है पापा,जबाब में कहते हैं-दूकान पर अकेले हैं,भइया रांची गया है,बोलकर गया था कि सुबह आ जाएगा लेकिन 2 बज गया,आया नहीं। खाना खाया आपने- खाना,नश्ता भी गुल हो गया आज? कभी-कभी पापा को लेकर चिंता होती है कि वो सिर्फ मातमी या उदास करनेवाली खबरें क्यों बताते हैं हमें? मैं उन्हें सालभर में कभी भी पूछता हूं कि दूकान कैसी चल रही है? उनका जबाब होता है-मीडियम। चाहे मैं दुर्गापूजा के चार दिन पहले के पीक टाइम में ही क्यों न पूछूं? यही सवाल भइया से करें तो यार एक मिनट का समय नहीं है इन दिनों। रात में बात करते हैं। पापा को खुशी की खबरें क्यों नहीं प्रभावित करती,हैरानी होती है। कोई कह दे कि फलां की बहू बहुत सुंदर मिली है,बहुत अच्छा स्वभाव है। पापा का जबाब होता- अठन्नी नहीं दिया है दहेज में। मुफ्त में मोह लिया लड़कीवालों ने शिवनंदन बाबू को,सीधा आदमी जानकर बोक्का बना दिया।.फिर भी अच्छा लगता है कि पापा कम से कम किसी चीज को लेकर तो कमिटेड हैं न,वो बाकी लोगों की तरह खुशी और मातम के बीच का घालमेल तो नहीं करते।
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स एनडीटीवी के रवीश कुमार के चेहरे पर खोड़ा, आजादपुर सब्जी मंडी, मजनूं का टीला, पुरानी दिल्ली की गलियों और कापसहेड़ा की मजदूर बस्तियों से उड़नेवाली धूल-धक्‍कड़ जमी होती थी, अब उस चेहरे पर पॉमोलिव और जिल्लेट के मेकअप और एस्नो-पाउडर लिपे-पुते होंगे। टेलीविजन के फार्मूले के हिसाब से सोचें तो ये रवीश कुमार की अपग्रेडिंग है कि उन्हें दिल्ली और आसपास के इलाकों की खाक छानने के बजाय एनडीटीवी के एसी स्टूडियो में प्राइम टाइम में खबर के नाम पर बतकुच्चन और टाइमपास करने का मौका मिल रहा है।

आप नजर उठाकर देख लीजिए, एक जमाने में फील्ड के जितने भी बड़े टेलीविजन पत्रकार रहे हैं, उनकी अपग्रेडिंग इसी तरह से हुई है कि वो चैनलों की एसी स्टूडियो और न्यूजरूम में आकर बरगद की तरह जम गये और वो अब चैनल के चेहरे हैं। ऐसे में रवीश कुमार को हम दर्शकों का शुक्रिया अदा करना चाहिए और खुश होकर पार्टी-शार्टी देनी चाहिए कि उन्हें डी क्लास के लोगों के बीच, गंधाती नालियों और देहों के बीच जाने से मुक्ति मिली। टेलीविजन में काम करनेवाला अधिकांश मीडियाकर्मी यही चाहता है कि वो जितनी जल्दी हो सके, फील्ड की रिपोर्टिंग से हटकर, एंकरिंग करने लग जाए और उस गुरूर में जीना शुरू कर दे कि वही चैनल का चेहरा है।
10 जून को जब रवीश कुमार ने आखिरी रवीश की रिपोर्ट पेश की, तो आखिर में कुछ लाइनें कही। इन लाइनों के बीच अब तक की रवीश की रिपोर्ट के कुछ-कुछ फुटेज चलते और फिर वो आगे अपनी, अपने मन की बात कहते जाते। उन लाइनों में रवीश कुमार के अपग्रेडेड होने की खुशी और गुरूर नहीं बल्कि एक पत्रकार को साजिश के तहत मार गिराने की कोशिश का दर्द झलक रहा था। मैंने उनकी जब ये लाइन सुनी कि – जब तक टेलीविजन रिमोट पर आपकी हुकूमत चलती रहेगी, तब तक रवीश की रिपोर्ट वापस आने की संभावना बनी रहेगी… टेलीविजन देखने की आदतों में बदलाव जरूरी है, नहीं तो टीवी की खबरें गुफाओं में गुम हो जाएगी… तो लगा कि चैनल की साजिश के तहत एक बार फिर दर्शक मारा गया।
ये उस टेलीविजन पत्रकार का दर्द है, जो कि फील्ड में रहकर ज्यादा खुश था, कापसहेड़ा के दिहाड़ी मजदूर की थाली में खाकर ज्यादा तृप्त होता था, मुस्लिम लड़की की उस लाइन पर जिसकी आंखें झलझला जाती थीं कि – लोग कहते हैं मुससमान की लड़की नमाज पढ़ने के बजाय पहलवानी सीखती है, जो बिंदी बनाने और चूने से घर रंगनेवाली औरतों की स्टोरी करते हुए, उस पर बात करते हुए फट पड़ता है, जिसकी एक-एक रिपोर्ट हिंदी भाषा का नया विधान रचती थी, जिसमें हिंदी के भीतर रहकर भी हिंदी की जड़ता के प्रतिरोध में खड़ा होने का साहस दिखता था। उस आखिरी रिपोर्ट में ब्रेक लेने (ब्रेक क्या, बंद ही कहिए… एनडीटीवी ने बेशर्मी से चेहरा छुपाने के लिए ब्रेक का नाम दिया है) के बारे में बात करते हुए और प्राइम टाइम में एंकर के तौर पर हमारे बीच मौजूद होने की खबर बताते हुए रवीश हताश लग रहे थे। उस खबर को पढ़ते हुए इंडिया टीवी टाइप से एक ही शीर्षक बनता – हार गया पत्रकार, जीत गया शैतान टीआरपी।
फील्ड के रिपोर्टर से बतौर एंकर होने की इस घटना पर मैंने किसी भी टेलीविजन पत्रकार को इस तरह हताश, उदास और बेचैन होते नहीं देखा है और उनकी ये बेचैनी एक ही साथ कई सवालों से मुठभेड़ करने की मांग करती है।
सबसे पहली बात तो ये कि एनडीटीवी ने रवीश की रिपोर्ट बंद करके सिर्फ एक ऐसे कार्यक्रम को बंद नहीं किया है, जो कि दिल्ली और उसके आसपास के इलाके और कई बार देश के उस इलाके को लेकर बनाया जाता था, जो शायद ही कभी टेलीविजन खबरों का हिस्सा बन पाते बल्कि रवीश की रिपोर्ट कविता और रोटी की तरह टेलीविजन में भी उस समाज के दखल के लिए, उनकी मौजूदगी और हक के लिए आवाज बुलंद करता आया है। जहां टेलीविजन की एक-एक खबर नफा-नुकसान, टीआरपी, पेड न्यूज के गुणा-गणित की गिरफ्त में पूरी तरह जकड़ चुकी है, वहां किसको क्या चिंता पड़ी है कि चैनलों के हब नोएडा फिल्म सिटी के ठीक पास का इलाका खोड़ा, आधे से ज्यादा सीवर में डूबा हुआ है। किसे इस पर बात करने की चिंता है कि जीबी रोड हिकारत के बावजूद अपने भीतर एक दर्द की कथा ढोता हुआ जी रहा है, जो कि अंतहीन है। जिस अयोध्या के ऊपर तमाम चैनल सांप्रदायिक कील-औजारों को लेकर चील और गिद्धों की तरह टूट पड़े हो, वहीं टेलीविजन पर एक ऐसी रिपोर्ट है, जो कि अयोध्या को एक सिटी स्पेस, सांस्कृतिक दस्तावेज और एक जन्मभूमि की राजनीति के पीछे कई मंदिरों के खंडहरों में तब्दील होने की कहानी कहती हो। इस लिहाज से आप समझें तो रवीश की रिपोर्ट के बंद किये जाने का मतलब है एनडीटीवी ने दिल्ली और देश के उस बड़े समाज को अपने से बेदखल कर दिया, जिसके टेलीविजन में शामिल भर हो जाने से उनकी दशा बदल जाने की संभावना बनती दिखाई देती। ये दरअसल हाशिये के समाज को टेलीविजन से निकालकर बाहर फेंकने का काम है। उन लाखों जोड़ी आंखों और उनमें पल रहे सपने को रौंदने जैसा काम है, जो टेलीविजन के बूते अभी बदलाव और बेहतर होने की संभावना की उम्मीद रखते हैं।
आप एक-एक रिपोर्ट के फुटेज देखिए, आपको कौन लोग दिखाई देते हैं, कौन लोग बात करते नजर आते हैं और अपनी जुबान में क्या बात करते हैं? गौर करेंगे तो ये वो लोग हैं, जिनके लिए टेलीविजन और उनके लोग सरकार की ही तरह एक सत्ता है, जिसमें उनका न तो अब तक कोई दखल रहा है और न ही कोई पहुंच ही। चैनलों ने अगर कभी इन्हें कवर भी किया है तो एक ऐसे तमाशबीन और संकटग्रस्त समाज के तौर पर जहां सिर्फ और सिर्फ अपराध है, बलात्कार है, नौटंकी है, पाखंड है, जिसे अपने-अपने ड्राइंगरूम में बैठकर देखनेवाला मध्यवर्ग या तो इसका उपहास उड़ाता आया है, हिकारत करता आया है, मनोरंजन-मसाला के तौर पर देखता आया है या फिर थैंक गॉड हमारे इलाके में ये सब नहीं होता है, कहकर खुश होता आया है। इस हाशिये के समाज में भी जिंदगी है, सपने हैं, आपात घटनाओं के अलावा भी स्वाभाविक जीवन की हलचल है और इन सबके बीच स्थायी पैदा की गयी समस्याएं हैं, ये रवीश की रिपोर्ट का ही हिस्सा हो सकती थी, जुर्म, सनसनी या रेड अलर्ट की नहीं। टेलीविजन के ऐसे कार्यक्रमों ने हमें समाज के ऐसे इलाकों और लोगों के प्रति हिकारत और उनसे अलग होने के लिए उकसाया, रवीश की रिपोर्ट ने उस समाज को अपने ही बीच के लोग या फिर हमारे दौर का भी कभी यही सच था के तौर पर प्रस्तावित किया।
आज अगर कोई दिल्ली को समझना चाहे, तो ये रिपोर्ट अपने को दिल्ली सरकार और इतिहासकारों की बतायी दिल्ली से अपने को प्रतिपक्ष में खड़ी करती है। जिसने भी इस रिपोर्ट को लगातार देखा है, उसे मजाल है कि दिल्ली शब्द बोलने से दुनियाभर की सड़ांध, गलियों, इलाकों, सड़कों और इन सबके बीच बेबस हालात में जीनेवाले लोगों के पहले लुटियन जोन या इंडिया गेट याद आ जाए। एक-एक रिपोर्ट केस स्टडीज के तौर पर हमारे सामने है। आपको देखकर हैरानी होती होगी कि न्यूज चैनल की कोई रिपोर्ट, दर्शकों की अथॉरिटी बनने के बजाय इतनी मार्मिक और संवेदनशील भी हो सकती है?
जब रवीश की रिपोर्ट शुरू हुई थी, मैंने उसके दो-तीन ही एपिसोड देखे थे कि एक ही साथ मन में दो बातें स्पष्ट हो गयी थी – एक कि टीआरपी की बेहूदी दौड़ में ये प्रोग्राम शायद ही अपनी जगह बना पाये और दूसरा कि कभी न कभी सैंकड़ों चैनलों की चिल्ल-पों के बीच भी इसका कुछ असर होगा। हम सप्ताह दर सप्ताह इन दो बातों के बीच डूबते-उतरते रहे कि कहीं टीआरपी का रोना रोकर चैनल इस प्रोग्राम को बंद न कर दे और दूसरा कि अभी तक कहीं कुछ हुआ क्यों नहीं? महीने दर महीने बीतते गये और हमने देखा कि रवीश की एक ही रिपोर्ट कई बार रिपीट होती है। इस दोहराव से कई बार मन ऊब जाता लेकिन ये सवाल तो जरूर उठता कि अगर इस प्रोग्राम की टीआरपी ही नहीं है, तो फिर चैनल इसे बार-बार क्यों रिपीट करता है? अब बंद करने की स्थिति में ये सवाल भी है कि क्या इस बैंडविथ और समय के बाकी प्रोग्राम की टीआरपी इससे बहुत अधिक है? अगर नहीं तो फिर इसे ही निशाना बनाने की जरूरत क्यों महसूस की गयी? तभी हमने ये भी देखा कि एनडीटीवी ने अलग से प्रोमोशनल फुटेज चलाने शुरू कर दिये हैं – रवीश की रिपोर्ट का असर, खोड़ा को मिले तीन सौ करोड़ रुपये। हम जिस असर के इंतजार में थे, वो हमें साफ दिखाई देने लगा था। एनडीटीवी ने भी इस उपलब्धि को एनजॉय किया और हम लगभग निश्चिंत हो गये कि रवीश की रिपोर्ट अब टीआरपी के खेल से बाहर है और चूंकि इसका असर बहुत अलग किस्म का है और सीधा है इसलिए ये लंबे समय तक हमारे बीच बना रहेगा।
खोड़ा की रिपोर्ट के बाद ग्राफिक्स बेहतरीन हो गया, साफ लगा कि इस पर पैसा खर्च किया जा रहा है। उसी समय बनियान, बिल्ली और बंगाल नाम से रिपोर्ट आयी और लगा कि रवीश की रिपोर्ट का दायरा दिल्ली, एनसीआर से आगे बढ़ेगा। लेकिन जिस झटके के साथ इसके अंत की घोषणा की गयी, किसी के मन में भी ये सवाल उठेगा कि जब प्रोग्राम की टीआरपी ठीक आ रही थी, समाज पर इसका सीधा असर हो रहा था जो कि न्यूज चैनल के किसी प्रोग्राम का अब कम ही असर होता है, एक नये और अलग किस्म का दर्शक वर्ग तैयार हो रहा था, जो लोग टेलीविजन को बकवास और दो कौड़ी की चीज मानकर बिदक गये थे, इस प्रोग्राम के बहाने टेलीविजन की तरफ वापस आ रहे थे, फिर इसे क्यों बद कर दिया गया? क्या ये एनडीटीवी की नोकिया मोबाइल की स्ट्रैटजी है कि जो मॉडल ज्यादा पॉपुलर या बिक्री में आने लगे, उसे बंद कर दो। ऐसा इसलिए कि इससे बाकी के मॉडल की बिक्री पर बहुत बुरा असर पड़ता है। रवीश की रिपोर्ट के साथ भी क्या कुछ ऐसा ही हुआ?
हमने अपने जीवन में पहली बार देखा था कि आम आदमी तो छोड़िए, कदम-कदम पर खुद कई पत्रकार रवीश के साथ फोटो खिंचाने के लिए मार किये जा रहे थे। अन्ना हजारे के अनशन पर हरेक कदम के बाद एक पत्रकार/भावी पत्रकार फोंटो खिंचाना चाह रहा था और रिपोर्ट की तारीफ कर रहा था।
आज एनडीटीवी ने इन सबके बावजूद इसको बंद करने का जो फैसला लिया है, पता नहीं क्यों हमें लगता है कि इसके पहले उसे हमलोगों से राय लेनी चाहिए थी। वैसे तो वो आजाद है कि जो चाहे जारी रखे, जो चाहे बंद रखे। लेकिन इस फैसले के साथ हम अपना हक इसलिए समझते हैं कि इसे हमने चैनल के प्रोमोशनल प्रोग्राम और उसके विज्ञापन के बहकावे में आकर देखना शुरू नहीं किया। हमने इसे अपनी इच्छा और बहुत ही भावनात्मक स्तर पर जुड़कर देखा और चूंकि ये हिंदुस्तान है, जहां भावनात्मक मसले पर कई बार न्यायालय के फैसले तक बदलने पड़ जाते हैं, तो ऐसे में टेलीविजन का एक कार्यक्रम बहुत बड़ी बात नहीं है और एनडीटीवी को इस भावनात्मक जुड़ाव पर फिर से गौर करना चाहिए। आज अगर एनडीटीवी का बहुत थोड़ा ही सही लेकिन दर्शक वर्ग बढ़ा है, तो उसमें कुछ न कुछ हिस्सा जरूर होगा, जिसने सिर्फ और सिर्फ रवीश की रिपोर्ट के कारण देखना शुरू किया होगा। चैनल इस सच को इतनी बेरहमी से कैसे नजरअंदाज कर सकता है?
हम जितने लापरवाह और गैरजिम्मेदार होकर किसी भी चैनल और कार्यक्रम को बकवास करार दे सकते हैं, उतनी ही गंभीरता से किसी अच्छे कार्यक्रम के बने रहने की मांग भी कर सकते हैं और पैसे लगाकर देखनेवाले हम दर्शकों का हक है कि हम एनडीटीवी के हुक्मरानों से इस बात की मांग करें कि आप एक प्रेस विज्ञप्ति जारी करके हमें ये स्पष्ट करें कि आपने इस प्रोग्राम को बंद करके हमारी भावनाओं का, चुनाव का अपमान क्यों किया? आपके पास एक ही तो कार्यक्रम था जो लोगों के बीच उदाहरण था कि हिंदी चैनल में सब कूड़ा नहीं है, आपने उसे भी हमसे छीन लिया, इसका आपको जवाब तो देना ही होगा। अब चूंकि हर मांगें और विरोध अनशन के पैकेज में आने लगे हैं, तो ऐसे में अर्चना कॉम्प्लेक्स (एनडीटीवी का दफ्तर) हम दिल्ली में रहनेवाले लोगों के लिए बहूत दूर नहीं है। हम चाहते हैं कि चैनल इस मामले में प्रेस रिलीज जारी करके स्पष्टीकरण दे। नहीं तो हमारा इस चैनल को लेकर प्रतिरोध और बहिष्कार जारी रहेगा। हम मैनचेस्टर के व्यंजन में जायका इंडिया का दिखानेवाले चैनल को और अधिक नहीं झेल सकते।
मूलतः प्रकाशित- mohallaive
रवीश की सारी रिपोर्ट देखने के लिए चटकाएं- ndtv
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6 जून की जनार्दन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेंस में जिन पत्रकारों ने शिक्षक-पत्रकार सुनील कुमार की बेरहमी से पिटाई की, वो अभी इस नशे में घूम रहे होंगे कि उन्होंने पत्रकारिता के भीतर जूते फेंकने की एक गलत परंपरा पर लगाम लगाने का काम कर दिया है। सुनील कुमार की जिस तरह से धुनाई की गयी, उसके बाद से कोई भी पत्रकार इस बात की हिम्मत नहीं करेगा कि वो प्रेस कांफ्रेंस में किसी नेता, मंत्री या अधिकारी से असहमत होने की स्थिति में जूते फेंके। संभव है ये पत्रकार इस नशे में ये भी सोच रहे हों कि अबकी बार कांग्रेस सरकार उनके इस महान काम के लिए भारतेंदु हरिश्‍चंद्र पत्रकारिता पुरस्कार भी प्रदान करे। लेकिन इस पूरी घटना पर गौर करें तो कई ऐसे सवाल हैं, जिस पर कि बहुत पहले से भी विचार किया जाना चाहिए था और अब तो किया जाना अनिवार्य है ही।

सबसे पहला सवाल कि क्या सुनील कुमार राजस्थान के दैनिक नवसंचार, जिसकी कोई ब्रांडिंग नहीं है, मीडिया बाजार में जिसका कोई दबदबा नहीं है, का पत्रकार होने के बजाय दैनिक जागरण, अमर उजाला, भास्कर या आजतक जैसे किसी संस्थान का पत्रकार होता तो भी कांफ्रेंस में मौजूद पत्रकार उन पर जूते चलाने की हिम्मत कर पाते? क्या इससे पहले ऐसी कोई घटना हुई है कि किसी बड़े मीडिया संस्थान से जुड़े पत्रकार की किसी दूसरे पत्रकारों ने इस तरह से पिटाई की हो? दूसरी बात कि घटना के कुछ ही मिनट के बाद दैनिक नवसंचार ने सफाई दे दी कि सुनील कुमार का इस अखबार और संस्थान से कोई संबंध नहीं है। क्या ऐसे मीडिया संस्थान जहां सारी चीजें बहुत ही व्यवस्थित तरीके से काम करती हों, नियमित वेतन के साथ पीएफ कटते हों, वो संस्थान इतनी आसानी से इस बात से मुकर सकता है। दैनिक जागरण और जरनैल सिंह के मामले में हमने देखा था कि अखबार ने मामले को इधर-उधर करने की लाख कोशिशें कर दी लेकिन किसी भी हाल में इस बात से इनकार नहीं किया जा सका कि जरनैल सिंह जागरण का पत्रकार नहीं है। लोगों के बीच अपनी छवि बचाने के लिए उसने ये जरूर कहा कि उस दिन की घटना में आधिकारिक तौर पर उन्हें पी चिदंबरम की प्रेस कांफ्रेंस कवर करने के लिए नहीं भेजा गया था।

यहां जरूरी सवाल है कि दैनिक नवसंचार ने जितनी आसानी से ये कह दिया कि सुनील कुमार का संबंध उसके अखबार से नहीं है, इसका एक अर्थ ये भी निकाला जाना चाहिए कि इस देश में ऐसे हजारों अखबार हैं, जो पत्रकारों को एकमात्र आइडी कार्ड बांटने के अलावा ऐसी कोई भी सुविधा, अधिकार या कागजात नहीं देते, जिसके बिना पर वो दावा कर सकें कि वो अमुक संस्थान का पत्रकार है। सुनील कुमार को दोषी करार देते हुए [ जैसा कि मेनस्ट्रीम मीडिया ने जमकर किया और कांग्रेस को खुश करने की कोशिश की ] अगर ऐसे मीडिया संस्थान की खबर लें और ये जानने की कोशिश करें कि जब ये शख्स दैनिक नवसंचार के लिए काम करता आया है, तो फिर इतनी आसानी से अखबार इस बात के लिए कैसे मुकर सकता है – तो मीडिया के भीतर की सडांध इस तरह से बजबजाकर सामने आता है कि हमें मीडिया भ्रष्टाचार के विरोध में अलग से अनशन करने की जरूरत महसूस होगी।

सुनील कुमार को पत्रकारों ने जिस तरह से पीटा, उसके पीछे का तर्क यही था कि ऐसा करते हुए वो पत्रकारिता पर जो दाग लग रहे हैं, उसे रोकने की कोशिश की जा रही है। संभव है, कल को कोई और पत्रकार जूते मारने का काम करे, ऐसा होने के पहले उसे रोका जाना जरूरी है। यहां पर भी ये विचार करने की जरूरत है कि आज सुनील कुमार ने जूते फेंके नहीं बल्कि दिखाये ही तो पत्रकारिता शर्मसार हो गयी और पत्रकारों के भीतर की जमीर जाग उठी… लेकिन क्या जब जरनैल सिंह ने पी चिदंबरम पर जूते फेंके थे और 14 दिसंबर 2008 को बगदादिया टीवी के पत्रकार मुंतजिर अल जैदी ने जार्ज बुश पर जूता फेंका था, तो इनके साथ भी पत्रकारों ने यही सलूक क्‍यों नहीं किया था? प्रशासन की तरफ से इन्हें चाहे जितना भी प्रताड़ित किया गया हो, लेकिन मीडिया ने इन दोनों को रातोंरात सेलेब्रेटी की कैटेगरी में लाकर खड़ा कर दिया। मुंतजिर की द लास्ट सैल्यूट और जरनैल सिंह की आई एक्यूज नाम से किताब आ गयी। चैनलों ने इन पर घंटों स्टोरी चलायी और करीब 15 दिनों पहले अरविंद गौड़ ने मुंतजिर को भगत सिंह की तरह साहसी करार दिया। जरनैल सिंह आज सिक्ख समाज का मसीहा माने जाने लगे हैं। हालांकि इन दोनों को जो भी सम्मान मिल रहे हैं, उसके पीछे सिर्फ जूते फेंकना ही वजह नहीं है, इन दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में बेहतरीन काम किया है लेकिन मौके पर जो असहमति, जो गुस्सा उन्होंने जाहिर किया, उनकी पहचान इसी से बनी है। ऐसे में ये सवाल तो जरूर है कि किसी पत्रकार के जूते फेंकने पर वो सिलेब्रेटी, महात्मा, मसीहा और लोकतंत्र की आवाज बचानेवाला बन जाता है और कोई ऐसा जिसे कि सुनील कुमार बनकर पत्रकारों के हाथों ही मार खानी पड़ती है। क्या ये पत्रकारों के भीतर के वर्ग-भेद, हैसियत के आधार पर विभाजन, संस्थानों के हिसाब से रिएक्ट करने का मामला नही है?

इतना ही नहीं, 6 जून की जनार्दन द्विवेदी की प्रेस कांफ्रेंस को मैं भी बहुत ध्यान से देख रहा था। तब तक पत्रकारों ने दो-तीन सवाल ही किये थे लेकिन द्विवेदी जिस तरह से उन सवालों को या तो इग्नोर कर रहे थे या फिर उपहास उड़ाने के अंदाज में जवाब दे रहे थे, मेरे दिमाग में बस एक ही सवाल आ रहा था कि कोई कुछ बोल क्यों नहीं रहा? कोई ये क्यों नहीं कह रहा कि द्विवेदी साहब, आप इस तरह से सवालों से बच नहीं सकते। वो लगातार एक ही बात दुहरा रहे थे – मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। जिस बारे में देश के एक औसत शख्स को जानकारी नहीं है, उस बारे में इन्हें जानकारी नहीं है, यही सवाल कोई क्यों नहीं करता? यकीन मानिए, उस वक्त मुझे इतना गुस्सा आया कि लगा कि कोई न कोई जूते मारेगा। चूंकि मीडिया के लोगों की ओर से प्रतिरोध में जूते मारना एक प्रतीक सा बन गया है, तो कुछ और जेहन में नहीं आता। जनार्दन द्विवेदी जिस बदतमीजी और बेहूदे की तरह बात कर रहे थे, मुझे शर्म आ रही थी कि इस शख्स का संबंध कभी डीयू के अध्यापन और हिंदी अकादमी से रहा है। मसखरेपन के अलावा सामनेवाले की औकात बताने के अंदाज में वो जो कुछ भी बातें कर रहे थे, उसके हिसाब से सवाल करनेवाले पत्रकार अपने संस्थानों के चाकर हैं, उनके मालिकों की गर्दन उनकी टांगों के नीचे फंसी है और ऐसे में उनके सवाल टाइमपास से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। साफ झलक रहा था कि वो पत्रकारों की बातों को बहुत ही हल्के में ले रहे हैं। कुछेक सवालों के बाद जनार्दन द्विवेदी ने कहा – अब बस बहुत हो गया यार… और तभी हाथ में जूते लिये सुनील कुमार मंच पर चढ़कर उन्हें दिखाने लगा। वो दिखाना ही था, मारने की कोशिश बिल्कुल भी नहीं थी, जो कि मारने से ज्यादा अपमानजनक और गुस्से की स्थिति को व्यक्त करता है।

टेलीविजन पर हमने दर्जनों प्रेस कांफ्रेंस देखी है, जिसमें साफ तौर पर झलक जाता है कि सेलेब्रेटी, नेता, मंत्री या अधिकारी सवाल कर रहे पत्रकारों का लगभग उपहास उड़ाते हुए या उन्हें हल्के में लेते हुए जवाब देते हैं। लेकिन कभी किसी मीडिया संस्थान ने ऐसे लोगों की प्रेस कांफ्रेंस का बहिष्कार नहीं किया। कुछेक प्रेस कांफ्रेंस में मैं जब खुद शामिल रहा, तो देखा कि कुछ चैनलों के पत्रकार उनसे ऐसे पर्सनली पेश आते हैं, जैसे वो उनसे सवाल-जवाब करने नहीं बल्कि मेहमाननवाजी करने आये हैं। वो हमलोगों को ही डिक्टेट कर देते, प्रेस रिलीज मिली है न, उस पर बना लो स्टोरी। बाकी टेप से विजुअल्स ट्रांसफर कर लो। ऐसे पत्रकारों और हमारे बीच फर्क सिर्फ अनुभव के आधार पर नहीं था। उसमें हैसियत, चैनल की ब्रांडिंग, पत्रकार की पहुंच और सांठ-गांठ बहुत कुछ शामिल होते। इस पर कभी किसी ने सवाल नहीं खड़े किये। आज सुनील कुमार ने जूते दिखाने की कोशिश की तो लगभग सारे चैनलों ने उसकी शक्ल हमारे सामने ऐसे पेश करने की कोशिश की, जैसे कि उससे बड़ा अपराधी कोई नहीं है जबकि सच्चाई ये है कि ऐसा करके मीडिया के भीतर के बड़े अपराध ढंकने की कवायदें जारी हैं। कभी प्रेस कांफ्रेंस का नजारा गौर से देखिए, आपको अंदाजा लग जाएगा कि प्रेस किट के बोझ और चाय की अतिरिक्त मिठास के नीचे दबे ये पत्रकार कैसे लिजलिजे और उन मंत्रियों और अधिकारियों के दुमछल्लों नजर आते हैं। न हो तो, तब तक के लिए पीपली लाइव के दीपक को ही याद कीजिए…
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