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मनमोहन सिंह को लेकर आम धारणा है कि वो चुप्पा प्रधानमंत्री हैं। वो देश के विविध मसलों पर कुछ भी बोलने के बजाय चुप मार जाते हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया में उनका व्यक्तित्व बहुत ही लिजलिजे किस्म का उभरकर आता है और फैसले के मामले में कुछ ऐसा कि छोटी-छोटी बातों के लिए भी सोनिया गांधी से निर्देशित होते हैं। लेकिन आज दि इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम टेलीस्कोप में शैलजा वाजपेयी ने बिल्कुल अलग बात कही है। शैलजा की बातों से हम जैसों की पूरी सहमति तो नहीं बनने पाती है लेकिन गौर करें तो उनकी बातों से मीडिया और दूरदर्शन को लेकर कुछ जरुरी सवाल और संदर्भ जरुर पैदा होते हैं।


शैलजा ने कहा कि निजी समाचार चैनलों में जिस तरह से खबरों के बजाय पैनल डिशक्सशन की मारा-मारी मची रहती है,ऐसे में हार्डकोर न्यूज की गुंजाईश कमती चली जाती है। इससे अलग दूरदर्शन में आपको कई ऐसी घटनाओं औऱ कार्यक्रमों से जुड़ी खबरें मिल जाएंगी जो कि निजी चैनलों का हिस्सा नहीं बन पाते। इसी संदर्भ में अगर आप दूरदर्शन देखते हैं तो आपको पता चलता है कि प्रधानमंत्री देश और दुनिया के  कितने अलग-अलग मसलों पर अपनी बात रखते हैं। जैसे कि पिछले ही सप्ताह हमने उन्हें पर्यावरण से संबंधित ग्लोबल सेमिनार में बोलते हुए सुना। इसी तरह से सोनिया गांधी के बारे में छवि बनायी गयी लेकिन आप दूदर्शन देखते हैं तो आपको दिल्ली से बाहर जिन रैलियों और सभाओं को वो संबोधित करती है,उनमें कई तरह के विचार शामिल होते हैं। हालांकि ये विचार पहले से लिखे होते हैं और उन्हें सिर्फ पढ़ना होता है,फिर भी उनसे कुछ तो धारणा बनती है,कुछ तो सोचने-समझने के बिन्दु मिल पाते हैं।


शैलजा के इस तर्क से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि दूरदर्शन जो पिछले 50-52 सालों से सरकारी भोंपू या सत्ताधारी पार्टी का पीपीहा न साबित होने के लिए जूझता रहा,आज भी वो इससे पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाया है। आज भी दूरदर्शन प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अधीन काम करने के बावजूद सरकार का ही दुमछल्लो बना फिरता है। लेकिन इससे आगे जाकर सोचें तो कुछ जरुरी सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर बयानबाजी करें तभी वो निजी समाचार चैनलों के लिए खबर का हिस्सा है,अगर वो किसी सेमिनार या अकादमिक कार्यक्रमों में अपनी बात रखते हैं तो निजी चैनलों को उसमें दिलचस्पी क्यों नहीं है? इसी से जुड़ा सवाल कि निजी चैनलों के लिए सेमिनार ऐसा कोई कार्यक्रम क्यों नहीं है जिसे कि कवर किया जाए,जिसमें होनेवाले विमर्श खबर का हिस्सा बने। दूसरा कि चैनल खबरों के बजाय पैनल डिशक्शसन को इतनी प्राथमिकता कहीं इस कारण से तो नहीं देता कि वो कम खर्चे और मेहनत में ज्यादा टीआरपी के बताशे गढ़ना चाहता है? वो खबरों के पीछे मेहनत नहीं करना चाहता और कोशिश होती है कि चार अलग-अलग वरायटी के वक्ताओं को जुटाकर गर्म मुद्दे पर बहस करा ले? क्या ऐसे में मनमोहन सिंह इन निजी चैनलों के लिए खबर का हिस्सा नहीं बन पाते? नब्बे के दशक में जब निजी समाचार चैनलों का दौर शुरु हुआ तो राजदीप सरदेसाई ने साफतौर पर कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है और जरुरी नहीं है कि हर बुलेटिन प्रधानमंत्री के बयान से ही खुले। तब राजदीप की बात काफी हद तक सही लगती थी। खबरों में सत्ता का प्रभाव कम करने के लिए ऐसा किया जाना जरुरी कदम है। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन

उसी सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेताओं को सोमवार से शुक्रवार तक प्राइम टाइम में बिठाकर पैनल डिशक्शसन करवाना,मैटर की जगह नैटर को ही खबर का हिस्सा बना देने के पीछे निजी चैनलों की कौन सी रणनीति काम करती है,इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। अगर आपको सत्ता के प्रभाव से दूर ही रहना है तो आपको चाहिए कि आप उनके पक्ष को ही प्राथमिकता देने के बजाय,उनके पीछे खबर निचोड़ने के लिए काम करें। स्टूडियो में उनके ही पैनल बिठाकर और साउथ एवन्यू से पीटीसी देकर जो खबरों के नाम पर पेश करने की रिवायत चली है,ऐसे में आप कहां सत्ता से दूर होकर तटस्थ हो पा रहे हैं? आप तो पहले से कहीं अधिक निकम्मे,पत्रकारिता के नाम पर मठाधीशी का काम करने लगे हैं। एनडीटीवी के रवीश कुमार ने अपनी किताब देखते रहिए में ऐसी पत्रकारिता को लाल पत्थर की पत्रकारिता अर्थात लुटियन जोन की पत्रकारिता करार दिया है। अब अगर ऐसे में मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बहुत कम या न के बराबर बोलते दिखाया जाता है,जिससे कि मीडिया ने उनकी चुप्पा प्रधानमंत्री की छवि बना दी है तो ये सत्ता के प्रभाव में न आने के बजाय,उससे कहीं अधिक मनमनोहन सिंह की व्यक्तिगत छवि गढ़ने की कवायद ज्यादा है।

अब इस बात पर विचार करें कि अगर मनमोहन सिंह सेमिनारों या अकादमिक कार्यक्रमों में लगातार बोलते रहते हैं तो भी वो खबर का हिस्सा क्यों नहीं बनने पाता? इसकी एक वजह तो साफ है कि निजी चैनलों को तथ्यों और विषयों की गहराई से कहीं ज्यादा इस बात में दिलचस्पी होती है कि उसे लेकर कोई विवाद पैदा हुआ है कि नहीं। अब गुपचुप तरीके से लगभग एक शर्त-सी बन गयी है कि जिस खबर के पीछे विवाद नहीं होते,वो खबर का हिस्सा नहीं है। किसी किताब के बीच से एक-दो लाईन मारकर पूरे मीडिया में विवाद खड़ा कर दिया जाता है। मसलन ये हिन्दू विरोधी तो मुस्लिम विरोधी या दलित विरोधी किताब है लेकिन उसी किताब पर जब दिनभर के लिए सेमिनार आयोजति किए जाते हैं,गंभीर विमर्श होते हैं तो कोई मीडिया ताकने तक नहीं आता। मनोरंजन उद्योग के उत्पादों के लिए पीआर एजेंसियां इसके लिए वाकायदा स्ट्रैटजी तय करती है। अब राजनीति और उसका विज्ञापन भी पीआर और मैनेजमेंट का हिस्सा होता चला जा रहा है तो संभव है कि ऐसा बहुत ही स्ट्रैटजी के साथ किया जाने लगे। ऐसे में मनमोहन सिंह अगर ग्लोबल सेमिनारों में पर्यावरण,आर्थिक मसले या बदलते परिवेश पर बात करते भी हैं तो उसमें निजी चैनलों के लिए कोई न्यूज वैल्यू नहीं है। उनके वक्तव्य विवाद पैदा नहीं करते। ऐसे में लगता है कि अगर मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बोलते हुए दिखना है तो उन्हें अमर सिंह, दिग्विजय सिंह,बाबा रामदेव या राखी सावंत जैसा बड़बोलापन लाना होगा। निजी समाचार चैनल मितभाषी और गंभीर बातें करनेवाला का सम्मान नहीं करते। ऐसा इसलिए कि जहां इन चैनलों ने इसे कवर करना शुरु किया, उसे विश्लेषण करना होगा,तह में जाना होगा और चैनल ये सबकुछ करना नही चाहता बल्कि अब तो भरोसा होने लगा है कि अगर करना भी चाहे तो मामूली अपवादों को छोड़ दें तो करने की औकात भी नहीं है।

अब वापस शैलजा की बातों पर आएं तो मनमोहन सिंह को अगर निजी चैनल कवर नहीं करते या चुप्पा करार दे दिया है तो उपर के कारणों के अलावे एक कारण ये नहीं है क्या कि वो सामयिक मसलों पर कुछ नहीं बोलते? ऐसे मसले जिनको लेकर उनकी सरकार की साख दांव पर लगी होती है या जिससे व्यापक सरोकार जुड़ा होता है,मनमोहन सिंह ऐसे मौके पर कितना बोल पाते हैं? सेमिनार की गंभीरता और उसके विमर्श का अपना महत्व है लेकिन ये देश सिर्फ सेमिनारों से तो नहीं चलता और मनमोहन सिंह सिर्फ सेमिनारों में बोलकर और जरुरी मसले पर रहकर देश चला भी नहीं सकते। बोलने का मतलब दिग्विजय सिंह हो जाना भले ही न हो लेकिन स्टैंड लेना तो जरुर है न। ऐसे में शैलजा ने दूरदर्शन पर बोलते हुए देखनेवाली बात करके एक जरुरी संदर्भ की तरफ ईशारा ठीक ही किया है लेकिन वो जिस तरह से आगे बातें कर रही हैं,वो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को डीफेंड करने जैसा लग रहा है,सॉरी हम ऐसा नहीं कर सकते।


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भइया हो,हमको गांव पर लिखना है

Posted On 11:43 am by विनीत कुमार | 2 comments

कोशी नदी में लहरों का उफान इतना नहीं है कि वो टेलीविजन की खबर बन जाए,वहां ऐसी कोई तबाही नहीं हो रही है कि देश के नामचीन टेलीविजन चेहरे रिपोर्टिंग करने से लेकर कपड़ें बांटने तक चले जाएं। रेणु के मेरीगंज में मलेरिया का ऐसा कोई प्रकोप नहीं है कि दिल्ली और कोलकाता से डॉक्टरों की टीम रवाना की जाए। सहरसा,पूर्णिया,दरभंगा का इलाका अतुल्य भारत के हिस्से में नहीं आता कि जहां जाने की अपील आमिर खान करते नजर आएं। कुल मिलाकर इन इलाकों में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा जो कि खबर का हिस्सा बने। लेकिन गिरि(गिरीन्द्रनाथ झा) पिछले कई महीनों से लेकर अब तक दसों बार कह चुका है-भइया हो,हमको इ गांव पर लिखने का मन करता है। गिरि की इस एक लाइन में गांव के खबरों के कारोबार में पिछड़ जाने का दर्द है,वो कुछ लिखकर एक तरह से खबरों और मीडिया के धंधे में इन गांवों की हिस्सेदारी की मांग करता है। इस एक लाईन के आगे वो गांव पर लिखने के पीछे की तड़प के बारे में जो कुछ भी कहता है,उस पर मैं कई दिनों से कभी भावुक,कभी अतिसंवेदनशील(आंखों में आंसू झलझला जाने की हद तक) और कई बार तो फ्रस्ट्रेट तक हो जा रहा हूं कि आखिर मीडिया के लिए गांव इतना अछूत कैसे होता चला गया?

भइया हो,एतना बड़ा देश में एतना सारा गांव लेकिन कहीं कोई खबर नहीं। खबर भी तो खाली हत्या,लूटपाट, जमीन कब्जा लेने,महामारी फैल जाने,अंधविश्वास के पीछे जान दे देने की,काहे कोई उल्लास पैदा करनेवाला खबर इस गांव में नहीं घटता है क्या? यहां का भी तो आदमी मोबाईल खरीदता है,यहां भी बाजा-गाजा सुनता है,सिनेमा देखता है,मेले-ठेले में कचरी-मूढ़ी खाकर परिवार के साथ आनंदित होता है लेकिन सबके सब निगेटिव खबर। दूर-देश में बैठा कोई शख्स वापस इस गांव में आना भी चाहे तो इन खबरों को पढ़कर घिना जाए,उसका मन कसैला हो जाए। पिछले दिनों गिरि ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी और बताया कि भगैत अवधबिहारीजी की आवाज के जादू ने मन मोह लिया तो उसने उनकी एक तस्वीर लेनी चाही। आपकी कोई तस्वीर नहीं है के जबाब में अवधबिहारीजी का जबाब था- अहां क मोबाइल अछि कि, ब्लूटूथवा ऑन करू न। हमर मोबाइल से अहां क मोबाइल में फोटू पहुंच जाएत यौ। हमर पोता क अबै छै इ सब...

गिरि मीडिया में जिस गांव के शामिल किए जाने की मांग कर रहा है वो उसके मासूम करार देने की कोशिश नहीं है और न ही गांव को लेकर एक ऐसी नास्टॉल्जिक इमेज खड़ी कर देनी है कि आप शहर में रहने को एक पछतावे का फैसला मानने लग जाएं। गिरि की बस इतनी भर कोशिश और सवाल है कि आजाद भारत जो कि आजादी के बाद से कृषि प्रधान लोकतांत्रिक देश की पहचान के साथ आगे बढ़ा, साठ-पैंसठ साल बाद मीडिया के कारनामे से शीला और मुन्नी प्रधान देश हो गया। इन गांवों और कस्बों से सिर्फ आइटम सांग ही नकलकर आए,चैता,फगुआ,रागिनी निकलकर नहीं आयी. कृषि प्रधान देश की संस्कृति या तो इम्पोरियम और एनजीओ की गठजोड़ में शोषण के नए अड्डे बन गए या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चारागाह जिस पर कि कुछ भी चरने के लिए,लूटने के लिए छोड़ दिए जाएं। इन सबके बीच से हर गांव के भीतर दिल्ली-मुंबई-कोलकाता का एक-एक टुकड़ा घुसता चला गया जिसके कि आशीष नंदी ने बड़ी की खूबसूरती और तार्किक ढंग से शहर के स्तर या छल्ले के तौर पर विश्लेषित किया है। हर गांव की उपलब्धि उसके शहर हो जाने में देखी जाने लगी और हर गांव अपने भीतर शहर को समेटकर खुश होता रहा। शहर को पाने की ललक उसकी इतनी प्रबल रही है कि अपने भीतर खोने की सुध उसे नहीं है। गिरि जब कहता है कि भइया हम गांव पर लिखना चाहते हैं तो दरअसल वो मीडिया को फिर से कृषि प्रधान गांवों का देश की तरफ लौटने की बात करता है जो कि अब मीडिया के लिए शीला और मुन्नी प्रधान देश है।

गिरि की इस सोच के पीछे ऐसा बिल्कुल भी नहीं है जो कि मैंने उससे की गई लंबी-लंबी चैट से महसूस किया कि खिचड़ी गांव एक बार पूरी तरह से पाटकर रेणु और बाबा नागार्जुन के जमाने के गांव में तब्दील कर दिए जाएं। लेकिन गिरि ही क्यों,हमें भी जब गांव से गुजरते हुए आज से दस साल पहले हर ट्यूबल पर जहां खाद,बीज,कीटनाशक के विज्ञापन और हर हाल में उन तस्वीरों में किसान और देहाती महिलाएं दिखा करती थी,अब सब जगह एयरटेल,रिलांयस,हीरो होंडा और नैनो के विज्ञापन दिखते हैं और अधकट्टी टॉप पहनी देसी मेम तो क्षोभ तो होता ही है कि ये कैसा गांव हम बनते देख रहे हैं जहां खेती तो चावल,अरहर,मसूर की होती है लेकिन लोग जीते-खाते है कुछ और ही चीजों के बीच हैं। आज अगर लाइफस्टाइल ही पत्रकारिता हो गई है तो फिर गांव के इन लोगों की लाइफस्टाइल मीडिया का हिस्सा क्यों नहीं है? क्यों हर मोबाइल पर बात करनेवाला डुप्लेक्स में ही रहेगा और हर फोन कॉल के पीछे पति का इंतजार और गर्लफ्रैंड की नोंक-झोंक की होगी। मोबाईल पर अवधबिहारीजी क्यों नहीं होंगे और 3जी स्पीड की चर्चा अररिया में एलडीसी के फार्म भरनेवाला क्यों नहीं करेगा? दरअसल जिस तकनीक और जीवनशैली पर शहर के लोग थै-थै कर रहे हैं औऱ सरकार जिसे अपनी बड़ी उपलब्धि मान रही है,उससे अगर लोगों के बीच खुशियां पैदा हुई है तो उसमें गांव के लोग शामिल क्यों नहीं है? कोशी में अभी जरुर कोई सावन को ध्यान करके हरी चूड़ियां पहन रही होगी,दो साल पहले बाढ़ में अपना पति खोई बिसुर रही होगी,लखनमा कटहल के कोवे के लिए मचल रहा होगा लेकिन है कोई कोशी के बारे में कहनेवाला? ये कितनी बड़ी साजिश है कि इन सभी चीजों का बाजार गांवों में तेजी से पसर रहा है लेकिन उससे जो सांस्कृतिक स्तर के बदलाव हो रहे हैं,वो मीडिया का हिस्सा नहीं बन पा रहा है। मीडिया में आकर गांव अभी भी या तो दूध-दही खाकर देह बनाने की जगह है,भक्तिन और देवी के चमत्कार पैदा होने की या फिर शीला और मुन्नी की जवानी देखकर वॉलीवुड के लिए आइटम सांग बनाने की। गांव की खबरों को लेकर मीडिया में जो स्वाभाविकता खत्म हुई है और एक स्टिरियो इमेज बनाने की कोशिशें हुई है,गिरि उससे अलग गांव पर लिखना चाहता है। ठीक वैसे ही कुछ-कुछ जैसे रेणु ने मैला आंचल में मलेरिया सेंटर खुलने,चीनी मिल के लगने और डॉ प्रशांत के रेडियो लाने पर लिखा है। गांव में आकर तकनीक,विज्ञान और इस्तेमाल की जानेवाली चीजें कैसे एक चरित्र के तौर पर शामिल हो जाते हैं और उसका एक मानवीय पक्ष होता है,वो शायद मेनस्ट्रीम मीडिया का कभी हिस्सा ही नहीं रहा।

टेलीविजन पर की उत्सवधर्मिता गांव में खुश होने और उल्लास पैदा होने के छोटे-छोटे बहानों को ध्वस्त करके बाजार की ओर धकेलती है जहां पैसे नहीं तो उत्सव नहीं। गांव पर लिखने का गिरि का कचोटता मन शायद उन बहानों की खोज होगी जो वस्तु आधारित क्षण भर की खुशियों से कहीं आगे की चीज होगी।..रोते-बिलखते इस हिन्दुस्तान में ऐसी खुशियों और बहानों की खोज जरुरी है।

अपीलः-  गिरि जिस मीडियाहाउस के वेबपोर्टल के लिए काम करते हैं,उसमें शहर के आगे से सोचना लगभग गुनाह जैसा है लेकिन ये शख्स गांव का मन और शहर की समझ लेकर दिनभर किटिर-पिटिर करता है,अपनी दीहाड़ी के लिए। इससे इतर भी बहुत कुछ है कहने और बताने के लिए। मेरी यहां अपनी तरफ से अपील है कि आपलोगों में से किसी को भी गांव पर लिखने की गुंजाईश दिखती हो,स्पेस बनता दिखाई देता हो तो गिरि से जरुर संपर्क करें,गांवों को बचाने के लिए सड़कों पर के आंदोलन तो बहुत हुए और होते रहते हैं,एक बार इस पर लिखने की तड़प रखनेवाले पर भरोसा करके देखिए।.  
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आज शाम तीन बजे "भ्रष्टाचार का मुद्दा और मीडिया की भूमिका" पर बात करने के लिए मीडिया इन्डस्ट्री के जीलेट-पॉमोलिव से सजे-संवरे चेहरे कॉन्सटीच्यूशन क्लब,नई दिल्ली में जुटनेवाले हैं। पुरुष वर्चस्व का नमूना पेश करने के लिहाज से इस परिचर्चा में एक भी महिला पत्रकार वक्ता के तौर पर नहीं होगी और न ही कोई दलित पत्रकार अपनी बात रखेंगे। ठाकुर-ब्राह्मण पत्रकारों की जमात मीडिया और भ्रष्टाचार के मसले पर अपनी बात रखेंगे। ये एक तरह से अच्छा ही है कि बरखा दत्त जैसी एक-दो महिला पत्रकारों को छोड़ दें तो जब महिला पत्रकारों ने मीडिया को भ्रष्ट किया ही नहीं है तो उसे दूर करने के लिए सिर क्यों खपाए और एक भी दलित पत्रकार ने इसके दामन को दागदार नहीं किया है तो फिर इस पर पंचायती करने के लिए क्यों बुलाया जाए? इस मीडिया को अगर ब्राह्मण-ठाकुरों ने भ्रष्ट और दलाली के अड्डे के तौर पर तब्दील कर दिया है तो बेहतर है कि फिलहाल वही इसकी संड़ाध को खत्म करने के तरीके के बारे में बात करे।

कई बार दागदार और चोर भी बेहतर और विकल्प की दुनिया रचने के सपने देख लेता है,हम आज उसी उम्मीद से इस सेमिनार में शिरकत करेगें। लेकिन सेमिनार में जाने से पहले मेरे मन एक सवाल बहुत ही तल्ख रुप में उठ रहे हैं- क्या मीडिया इन्डस्ट्री ने खुद कभी अपने भीतर फैले भ्रष्टाचार को कम करने के लिए कुछ किया,कहीं ऐसा तो नहीं कि समाज की मशीनरी में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने या उससे आगाह करने के नाम पर वो खुद इसके कल-पुर्जे की तरह काम नहीं करने लग गया?
 ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि 2जी स्पेक्ट्रम मामले में हमें जो कुछ भी देखने-सुनने को मिले,उससे एक धारणा मजबूती से बनी कि नेताओं और नौकरशाहों की तरह देश के दिग्गज मीडिया चेहरों ने समाज को बेहतर करने के नाम पर अतिरिक्त अधिकार हासिल किए और उसका बेजा इस्तेमाल किया,अपने पक्ष में काम किया और भ्रष्टाचार की जड़ को और खौफनाक बनने दिया। आज मीडिया और भ्रष्टाचार के मसले पर जो भी बातचीत हो रही है,उसकी भूमिका किसी -न- किसी रुप में यहीं से बनती है। ये अलग बात है कि मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार उसी दौर से शुरु है,जिस दौर से इसे सत्ता और सरकार ने अपना भोंपू बनाने की हरदम कोशिश की। 

लेकिन बड़ी चालाकी से मीडिया इसे व्यक्तिगत स्तर पर देखता रहा जो कि अब भी जारी है कि कुछ लोगों के भ्रष्ट हो जाने से पूरा मीडिया भ्रष्ट नहीं हो जाता। इसलिए आज इस सेमिनार में जाने के पहले इस बात पर विमर्श जरुरी है कि क्या मीडिया का स्वरुप इस तरह का नहीं बन गया है कि भ्रष्टाचार के मसले को किसी व्यक्तिगत स्तर पर देखने के बजाय इसके स्ट्रक्चर पर बात की जाए और ये समझने की कोशिश को कि दरअसल पूरा मीडिया अपनी संरचना में भ्रष्ट हो चुका है। इसने अपने को इस तरह से विकसित किया है कि बिना भ्रष्ट हुए,दलाली किए,झूठ-सच और हेराफेरी किए बाजार में अपने को बनाए रख ही नहीं सकता। क्या ये संभव है कि हम पत्रकारिता की महान परंपरा का हवाला देते हुए इसमें कुछ मछलियों के सड़ा मानते हुए बाकी तालाब को मानसरोवर जैसा स्वच्छ और पवित्र घोषित कर दे? क्या ऐसा करके मीडिया बड़ी ही शातिर तरीके से अपने भीतर की सालों से पनप रही गंदगी और भ्रष्टाचार को ढंकने का काम नहीं कर रहा? 
आज से ठीक एक साल पहले 11 जुलाई 2010 को देश के सबसे नामचीन टेलीविजन चेहरे श्री राजदीप सरदेसाई ने इसी उदयन शर्मा स्मृति में की जानेवाली परिचर्चा में कहा कि हम पत्रकारों के हाथ मालिकों के हाथों बंधे हैं,हम बाजार की शर्तों के आगे कुछ नहीं कर सकते? आज राजदीप सरदेसाई की इस स्मार्टनेस के बीच से सवाल किया जाना चाहिए कि जिस मीडिया और मीडियाकर्मी के हाथ मालिकों के आगे बंधे हैं,वो किसी भी हाल में उसके औऱ बाजार के विरुद्ध नहीं जा सकता तो क्या उसमें इतनी ताकत रह जाती है कि वो मीडिया में फैले भ्रष्टाचार के प्रतिरोध में आवाज उठाए। आज मीडिया में भ्रष्टाचार के प्रसार का जो स्तर बढ़ा है,उसके दो प्रमुख कारण है- एक तो ये कि कई मीडिया संस्थानों के मालिक स्वयं किसी न किसी तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त है, पर्ल ग्रुप के पी7 का मामला आए हुए सप्ताह भर भी नहीं हुए हैं। वो अपनी दागदार छवि को बचाने के लिए,रीयल इस्टेट,अनाप-शनाप और दो नंबर की कमाई को ढंकने के लिए मीडिया के धंधे में उतरता है।
 यानी कि कई मीडिया संस्थानों की नींव ही भ्रष्टाचार से बनती है और दूसरा कि कई चैनल बाजार की गला-काट प्रतिस्पर्धा के आगे खबरों के साथ समझौते करती है,कवरेज करके ब्लैकमेलिंग करती है और फिर उसे प्रसारित करने के बजाय दबा देती है। निजी स्तर पर पत्रकार हफ्ता वसूलने का काम करते हैं। ऐसा करने में मीडिया संस्थानों के भीतर ही भ्रष्टाचार का भभका उठता रहता है और वहां के लिए काम करनेवाले मीडियाकर्मी खुद ही अपने अधिकारों,सुरक्षा और सुविधाओं से पूरी तरह वंचित रहते हैं। मतलब ये कि जो मीडिया संस्थान खुद ही भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुका है,वो भला भ्रष्टाचार के मसले को दूर करने में अपनी भूमिका कैसे निर्धारित कर सकता है? पेड न्यूज से लेकर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में ये बात खुलकर सामने आयी औऱ एक के बाद एक मीडियाकर्मियों,संस्थानों,अखबारों औऱ चैनलों का नाम खुलकर सामने आने लगा।
 ऐसे में मीडिया सेमिनारों में जब भी वक्ता के तौर पर पत्रकारों को आमंत्रित किया जाता है तो इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि दागदार चेहरों को शामिल न किया जाए। बरखा दत्त जैसे मशहूर चेहरे पर जबसे आम जनता ने प्रतिरोध करके,लाइव कवरेज करने से रोका है,मीडिया संस्थानों और आयोजकों के बीच इस बात को लेकर सावधानी बढ़ी है कि ऐसे दागदार चेहरे को वक्ता के तौर पर न शामिल किए जाएं। उदयन शर्मा की याद में आज जो परिचर्चा का आयोजन किया जा रहा है,उसमें ऐसे चेहरे को दरकिनार किया गया है और एक भी नाम ऐसा नहीं है,जिस पर कि आप सवाल खड़े कर सकते हैं। मतलब कि आज आप जिन मीडिया वक्ताओं को सुनेगे,वो सबके सब दूध के धुले चेहरे होंगे।..आप सब को इसके लिए अग्रिम बधाई।..
 लेकिन सवाल है कि क्या वो जिस मीडिया संस्थान से आते हैं,वो भी उसी तरह दूध के धुले हैं। मसलन उदयशंकर का स्टार न्यूज क्या दावे के साथ कह सकता है कि वो देश का भ्रष्टाचार रहित चैनल है। जिस चैनल की सायमा शहर ने अपने ही सहकर्मियों के खिलाफ यौन शोषण का मामला महिला आयोग में दर्ज कराया और उसी चैनल के आकाओं ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके केस बंद करवाने की कोशिश की,महिला आयोग से मामले को रफा-दफा करा दिया,क्या ये धुले चेहरे इस पर बात करना चाहेंगे? ठीक उसी तरह पिछले दिसंबर महीने में दि संडे गार्जियन ने एनडीटीवी पर करोड़ों रुपये की धोखाधड़ी करने,टैक्स बचाने से लेकर,विदेशों में शेयर बेचने और यहां के शेयरधारकों के साथ चालबाजी करने को लेकर स्टोरी की,आंकड़े की भाषा में समाज,संगीत और मीडिया को समझनेवाले एनडीटीवी के पत्रकार और कॉँग्रेस के टीटीएम (ताबड़ तोड़ तेल मालिश करने वाले) पंकज पचौरी जबाब दे सकेंगे? क्या वो मंच पर आते ही कुछ भी कहने से पहले इस बात की घोषणा करेंगे कि वो एक इंडिविजुअल मीडियाकर्मी की हैसियत से बात करने आए हैं,न कि अपने मीडिया संस्थान के प्रतिनिधि की हैसियत से बात करने? वैसे इनलोगों को ऐसा करने में मुश्किल भी आएगी क्योंकि आयोजकों ने सबों के नाम के साथ उनके जुड़े संस्थान में उनकी क्या हैसियत है,ये भी नत्थी कर दिया है। क्या राहुल देव ये स्पष्ट कर सकेंगे कि जिस पत्रकारिता के साहस का ज्ञान वो सालों से देते आए हैं,वो अपने ही चैनल के एक जूनियर को स्टोरी करने से इसलिए रोकते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि अगर ये स्टोरी चली तो नए-नए आए चैनल के बाकी के काम में बाधा पड़ जाएगी? 
कुल मिलाकर ये है कि जिस मीडिया संस्थान में जिस स्तर की गड़बड़ियां,घपलेबाजी और धांधलियां चल रही है,क्या उन संस्थानों से जुड़े मीडियाकर्मी उस संबंध में बात करेंगे? अगर नहीं तो फिर ऐसे सेमिनार सिर्फ टाइम पास के लिए ही है,इससे सेमिनार-दर-सेमिनार करने-कराने के माहौल तो बने रहेंगे लेकिन मीडिया के भीतर भ्रष्टाचार बरगद की तरह जमा रहेगा। औऱ वैसे भी जिस सेमिनार में आशुतोष जैसे वक्ता हों,जो ये मानते हैं कि मीडिया भ्रष्टाचार दूर करने में कभी-कभी अपनी लक्ष्मण रेखा अगर पार कर जाता है तो उसे माफ कर देना चाहिए तो उससे किसी भी तरह की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। जो पहले से ही अपने को महान और क्लिन चिट देने का काम कर चुका हो,उससे क्रिटिकल होने की उम्मीद करना बेकार है।..और आखिरी बात 
मीडिया के लोगों ने,चैनल और अखबारों ने मीडिया और पत्रकारिता के भीतर बसी आत्मा को बचाने के लिए बीइए,एनबीए औऱ एडीटर्स गिल्ड जैसी संस्थाएं बना रखी है,आज इस बात पर बहस होगी क्या कि अब तक इन संस्थानों ने भ्रष्टाचार के मसले पर क्या स्टैंड लिया? आजतक पर हमले होते हैं तो अगले ही दिन प्रेस क्लब में बैठक हो जाती है और लोकतंत्र की आवाज न कुचली जाए,इसके लिए तमाम चेहरे लामबंद हो जाते हैं लेकिन अगर कोई मीडिया संस्थानों रातों-रात सैंकड़ों मीडियाकर्मियों को सड़क पर लाकर खड़ी कर देता है,दिन-रात उसका शोषण करता है,उसका हक मारता है तो क्या ये संस्थान कभी सक्रिय होते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सारे के सारे संस्थान मीडिया की दागदार होती छवि को ढंकने के लिए पर्दे का इस्तेमाल करते हैं और इनकी पूरी कोशिश होती है कि पत्रकारिता के भीतर की आत्मा को मारकर इसे एक धंधे के तौर पर तब्दील कर दिया जाए? इसकी गुंजाईश इसलिए दिखती है कि 2जी स्पेक्ट्रम मामले को लेकर एक के बाद एक चैनल और अखबारों ने जब मीडियाकर्मियों के खिलाफ स्टोरी की तो इन संस्थानों ने अपनी वेबसाइट पर आधिकारिक तौर पर एक लाइन भी कुछ नहीं किया,किसी को भी इस बात के लिए दबाव नहीं बनाया कि उसने इस पेशे को कलंकित किया है और उसकी सजा मिलनी चाहिए। सबकुछ से अंजान बना रहा। लाइव सुसाइड करने के लिए उकसानेवाले चैनल को बीइए ने दस दिन में जांच भी कर ली और रिपोर्ट भी जारी कर दिया और किसी का कुछ नहीं हुआ।..तो जब मीडिया की आत्मा बचानेवाले संस्थान और संगठन उसकी आए दिन आत्मा कुचलने की कोशिश करते हैं तो ऐसे सेमिनारों में गुडी-गुडी और चारण साहित्य सुनकर भला आपका क्या होगा? 
लेकिन, मैं फिर भी कहूंगा,बल्कि अपील करता हूं कि आप सब इस परिचर्चा में जरुर आएं, जीलेट और पॉमोलिव चेहरे के लिए ये टाइमपास और चिल्ल-आउट का मामला होगा लेकिन आप सबों के लिए एक बेहतरीन मौका क्योंकि अगर आप एक श्रोता या दर्शक के बजाय एक सवाल के तौर पर उनके सामने मौजूद होंगे तो एक हद तक उन पर दबाव बनेगा। वो अपने चैनलों और अखबारों में चाहे जो मनमर्जी करते रहे हों लेकिन परिचर्चा में आपके दबाव से जो मन में आए,बोलने की जुर्रत नहीं कर सकेंगे। हम चाहते हैं कि कम से कम टेलीविजन और अखबारों में न सही तो सेमिनारों में उनकी बादशाहत खत्म हो और नकाबधारी मीडियाकर्मियों के चेहरे से नकाव जहां-तहां से मसक जाए और कल को हमारी-आपकी तरह बाकी का समाज भी उस असली चेहरे को देख सके।
मूलतः प्रकाशितः-मीडियाखबर.कॉम
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टेलीविजन पर जिस तरह से नकली और गलत सामान के फेर में न पड़ने के लिए जागो ग्राहक जागो नाम से तेजी से अभियान चल रहे हैं,ठीक उसी तरह इमोशनल अत्याचार जैसे कार्यक्रम हैं जो इस बात से आगाह करते हैं कि कहीं आप प्यार और रिलेशनशिप के नाम पर झूठे,मतलबी और नकली संबंधों की गिरफ्त में तो नहीं हैं? आप जिससे प्यार करते हैं,कहीं वो आपके साथ धोखा तो नहीं कर रहा? अगर ऐसा है तो उसके साथ आगे जिंदगी बिताने का फैसला करने से ज्यादा जरुरी है कि उसकी लॉयल्टी टेस्ट करायी जाए। शुक्र है कि अभी तक जागो ग्राहक जागो की तरह ऐसे शो ने प्रेमी और प्रेमिका में आइएसआइ के निशान देखने की बात नहीं कही है।



जो टेलीविजन अपने शुरुआती दौर से प्यार पर पहरेदारी बिठानेवाले लोगों को आधार बनाकर कार्यक्रम पेश करता रहा,प्यार करनेवालों के पक्ष में सामाजिक बंदिशों के विरोध में अपनी बात कही,आज उसे लग रहा है कि ये पहरेदारी पहले के मुकाबले थोड़ी ढीली पड़ी है,शहरों में ही सही सामाजिक स्थितियों और लोगों की सोच के बदलने से लड़के-लड़की के बीच की दोस्ती और प्यार एक हद तक स्वाभाविक माना जाने लगा है। ऐसे में अगर सामाजिक पहरेदारी पर ही कार्यक्रम पेश करते रह गए तो संभव है कि टेलीविजन की दूकानदारी बहुत जल्द ही बंद हो जाएगी। लिहाजा उसे जरुरी लगा कि प्यार करनेवालों के बीच ही सेंधमारी की जाए। इसलिए अब टेलीविजन, इस प्यार में समाज और नाते-रिश्तेदारों की असहमति से विरोध करने के बजाय इस बात को लेकर चिंतित है कि आप जिससे प्यार कर रहे हैं,वो लंबे वक्त तक आपके साथ होगा
/होगी भी कि नहीं या फिर वो रिलेशनशिप के नाम पर आपके साथ चीट तो नहीं कर रहा, इमोशनल अत्याचार के मुकेश की गर्लफ्रैंड की तरह आपकी भी गर्लफ्रैंड सिर्फ खर्चा चलाने और टाइमपास के लिए आपके साथ होने का नाटक तो नहीं कर रही। आपका ब्ऑयफ्रैंड  आपको सिर्फ अपनी सफलता के लिए सपोर्ट सिस्टम की तरह इस्तेमाल तो नहीं कर रहा? यह सब करते हुए हर एपीसोड में वह लड़के या लड़की में से किसी एक को विलेन साबित कर कर देता है।

उपरी तौर पर देखें तो ऐसा करके यह शो उन तमाम लोगों के लिए आंख-कान खोलने का काम करता है,जो हायली प्रोफेशनल दुनिया में जीते हुए भी अभी भी प्यार अंधा होता है के फार्मूले पर रिलेशनशिप में आना चाहते हैं जहां अपने पार्टनर की सारी कमियों को एक समय तक नजरअंदाज करते हैं लेकिन जब उनसे परेशानी होती है तो आपसी समझदारी के तहत निबटाने के बजाय टेलीविजन को संरपंच की भूमिका निभाने का मौका देते हैं। यहा सवाल है कि क्या टेलीविजन को आपसी संबंधों के बीच इतनी स्पेस दी जानी चाहिए कि उस आधार पर हम अपने फैसले लेने लगें? 

सोशल रिस्पांसिबिलिटी के एजेंडे पर शुरु किया गया टेलीविजन अपने इस एजेंडे से जमाने पहले दूर हो गया है,सिर्फ और सिर्फ अधिक से अधिक टीआरपी और उसके दम पर विज्ञापन ही इसकी स्ट्रैटजी है लेकिन दर्शकों के लिए गार्जियन बने रहने की इसकी आदत और खुद दर्शकों को इसे गार्जियन मानने की लाचारी अभी तक बरकरार है। नहीं तो जिस टेलीविजन की खबरों पर आपका भरोसा नहीं रहा,वही टेलीविजन आपके व्ऑयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड की लॉयल्टी पर शक करता है,उसे आप कैसे मान लेते हैं और दिन-रात सामाजिक खुलेपन के नाम पर अश्लीलता और फूहड़पन परोसनेवाले टेलीविजन में यह नैतिकता कहां से आ जाती है कि वो हमारी-आपकी लायल्टी टेस्ट कर सके?

 मुकेश ने अपनी गर्लफ्रैंड की फुटेज देखकर कहा- ये सचमुच लड़की के नाम पर कलंक है? सास-बहू सीरियलों के मेलोड्रामा और असल जिंदगी के दो लोगों को इस तरह पेश किए जाने पर फिर फर्क कहां है? अपनी रिलेशनशिप और प्यार की बात साझा करके कहीं ऐसा तो नहीं कि जो टेलीविजन हमें एक तमाशबीन समाज का हिस्सा बनाना चाहता है,हम उसके लिए अपने को परोस दे रहे हैं? हम अगर सचमुच चाहते हैं कि हमारी रिलेशनशिप में अगर कहीं से दरार आ रही है तो इसकी पूरी केसस्टडी टेलीविजन के हाथों से इस उम्मीद से सौंपने से कि सब अच्छा हो जाएगा,एक बार गंभीरता से विचार करने की जरुरत है? ऐसे शो को लेकर अगर यह अफवाहें ही हैं तो ज्यादा बेहतर है कि सबकुछ प्लांटेड होते हैं,लोग अपनी पब्लिसिटी के लिए वहां जाते हैं और चैनल को रियलिटी शो के मुफ्त में मसाले मिल जाते हैं। इससे कम से कम कुछ लोगों का तो टेलीविजन के जरिए करिअर बन जा रहा है और दर्शक इसे बस टाइमपास का हिस्सा मानकर देख ले रहे हैं। नहीं तो

अगर ऐसे शो रिलेशनशिप के नाम पर सावधानी बरतने का ढोल पीट रहे हैं तो यकीन मानिए ये प्यार करनेवाले लोगों को शक्की और एक हद तक साइकी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। ऐसा किए जाने से प्यार जो कि सामाजिक जड़ मान्यताओं,रीति-रिवाजों,जाति-प्रथा का प्रतिरोध करते हुए ज्यादा प्रोग्रेसिव सोसाइटी बनाने में मददगार साबित होते हैं,एक संवेदशील समाज बनाने की दिशा में करते हैं, यह उसकी गति कुंद करने का काम करता है।..और इस तरह

 कहानी वहीं घूम-फिरकर आ जाती है कि प्यार के प्रति समाज में पहले से कहीं अधिक घृणा पैदा की जाए जिसमें इसके नाम पर टेलीविजन की दूकान तो चलती रहे लेकिन सामाजिक तौर पर इसके विरोध का माहौल बना रहे। प्रेम जब समाज के खुलेपन और प्रोग्रेसिव वैल्यू का हिस्सा बनने लग जाता है तो टेलीविजन उसके आगे दुश्मन की तरह खड़ा हो जाता है। आज वही काम इस शो के जरिए हो रहा है।

 संभव है प्यार में धोखा होता है,किसी के पार्टनर कई बार वफादार नहीं हो सकते लेकिन प्यार में सब के सब दगाबाज,चालू,मतलबी और मक्कार ही होते,ऐसा मानना और इस धारणा का प्रसार करना गलत है। प्रेम करनेवालों का आंख खोलने के नाम पर ऐसे शो यही काम करते हैं।..और तब आपको अंदाजा लगता है कि आज का टेलीविजन प्रेम के मामले में पहले से कहीं ज्यादा जड़ और रुढ़िवादी हो गया है। जिन कविता और कहानियों को पढ़ते हुए आप अपने को प्रेम के प्रति मानसिक रुप से तैयार करते हैं,ऐसे शो के एपीसोड आपको इसके प्रति बुरी तरह डराते हैं,फोबिया पैदा करते हैं। प्रेम,रोमांस,डेटिंग और शादी के नाम पर करोड़ों की दूकान चलानेवाले ऐसे टेलीविजन पर यदि प्रेम को लेकर इतनी निगेटिव समझ  है तो वो दर्शकों के लिए कितना लॉयल रह जाता है? हम जैसे दर्शक तो चाहेंगे कि हमारी रिलेशनशिप की लॉयल्टी टेस्ट होने के पहले ऐसे टेलीविजन शो की ही लॉयल्टी टेस्ट हो जाए ताकि पार्टनर से भरोसा उठ जाने पर भी इसकी गोद में सिर रखकर बिसूरने का विकल्प बचा रहे।.

मूलतः प्रकाशित- आइनेक्सट, 1 जुलाई 2011 
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वैधानिक चेतावनीः- फिल्म देहली-वेली पर ये आलोचना गालियों से परहेज करनेवाले और उनके प्रयोग करनेवालों के पीछे के मनोविज्ञान को समझने के बजाय उनके प्रति हिकारत पैदा करनेवालों के लिए नहीं है। गालियों का अपना एक समाजशास्त्र है और एक मनोवैज्ञानिक तनाव भी। इस फिल्म में इसके बावजूद अगर हम उसके प्रयोग का विरोध कर रहे हैं और आलोचना के जरिए कुछ गालियों का प्रयोग कर रहे हैं तो वो सिर्फ इसलिए कि स्वाभाविक तौर पर दी जानेवाली गालियां जब अस्वाभाविक तरीके से प्रयोग की जाती है तो वो न तो अश्लील और न ही कुंठाओं से मुक्ति का माध्यम बल्कि उबाउ बन जाती है। हम आमिर खान की तरह आलोचना के लिए गालियों का प्रयोग नहीं कर सकते लेकिन अगर करने की कोशिश करते भी हैं तो पता है कि भद्र समाज हमारे साथ क्या करेगा?

फि
ल्म डेल्‍ही बेली आमिर खान के गैरजरूरी गुरूर की सिनेमाई अभिव्यक्ति है। बाजार की जबरदस्त सफलता ने उनके भीतर ये अंध भरोसा पैदा कर दिया है कि वो प्रयोग के नाम पर चाहे जो भी कर लें, दिखा दें, उन्हें पटकनी नहीं मिलनी है। उनका ये भरोसा अपनी जगह पर बिल्कुल सही भी है क्योंकि जब तक प्रोमोशन, मीडिया सपोर्ट, पीआर और डिस्ट्रीब्यूशन के स्तर पर उनका ढांचा कमजोर नहीं होता, आगे डेल्‍ही बेली जैसी फिल्मों से पुरानी शोहरत की कमाई तो खाते ही रहेंगे। हां, ये जरूर है कि इस फिल्म से ऑडिएंस की ओर से ये कहने की शुरुआत हो गयी कि आमिर खान में अब वो बात नहीं रही, वो भी बाजार की नब्ज समझकर सिनेमा का धंधेबाज हो गया है। आमिर खान के लिए इस जार्गन का प्रयोग अगर आनेवाली दो-तीन फिल्मों के लिए होता रहा और बाजार, मीडिया, पीआर के अलावा ऑडिएंस की पसंद-नापसंद की भी कोई सत्ता बचती है, तो आमिर खान का सितारा गर्दिश में ही समझिए।
वेब सिनेमा, नोएडा से निकलकर जब मैं अपने घर के लिए चला तो रास्तेभर सोचता रहा कि इस फिल्म पर इसी की भाषा में समीक्षा लिखी जानी चाहिए। मसलन लोडू आमिर खान ने झांटू टाइप की फिल्म बनाकर देश की ऑडिएंस को चूतिया बनाने का काम किया है। थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, लगान जैसी फिल्में बनानेवाला भोंसड़ी के ऐसी फिल्में बनाने लग जाएगा… ओफ्फ, उम्मीद नहीं थी। फिर ध्यान आया कि जिस तरह आमिर खान ने ए सर्टिफिकेट लेकर और टेलीविजन पर खुलेआम (इसे भी प्रोमोशन का ही हिस्सा मानें) कहकर कि ये फिल्म बच्चों के लिए नहीं है, वैधानिक तौर पर अपने को सुरक्षित करते हुए भी मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में एडल्ट और सामान्य फिल्म के बीच की विभाजन रेखा को खत्म या नहीं तो ब्लर ही करने की कोशिश की है, वही काम हम आलोचना की दुनिया में नहीं कर सकते। आलोचना के लिए कोई ए सर्टिफिकेट जैसी चीज नहीं होती है। आमिर खान ने इस वैधानिक सुविधा का बहुत ही कनिंग (धूर्त) तरीके से इस्तेमाल किया है।
ये बात इसलिए रेखांकित की जाने लायक है क्योंकि उनके और प्रोडक्शन हाउस के लाख घोषित किये जाने के वावजूद इस फिल्म को लेकर वो धारणा नहीं बन पाती है जो कि घाघरे में धूमधाम, हसीन रातें, कच्ची कली जैसी फिल्मों को लेकर बनती है। फिर दर्जनभर एफएम चैनल और उससे कई गुना न्यूज चैनल्स इसकी प्रोमो से लेकर कार्यक्रम में कसीदे पढ़ने में लगे हों तो वो ऑडिएंस को एडल्ट होने की वजह से नहीं देखने के बजाय और पैंपर करती है, उकसाती है कि वो अपनी भाषा में एडल्ट फिल्म देखें। नहीं तो उसने मेरा चूसा है, मैंने उसकी ली है, गदहे जब रिक्शे की लेते हैं तो ऐसी गाड़ी पैदा होती है जैसे प्रयोग तो अंतर्वासना डॉट कॉम में भी इतने धड़ल्ले से प्रयोग में नहीं आते। यही कारण है कि जिन एडल्ट फिल्मों को जाकर देखने में अभी भी खुले और बिंदास लोगों के पैर ठिठकते हैं, लड़कियां तमाम तरह की सुरक्षा के बावजूद एडल्ट और पोर्न फिल्में सिनेमाघरों में जाकर नहीं देखती, डेल्‍ही बेली में उनकी संख्या अच्छी-खासी होती है, बल्कि वो कपल में होकर इसे एनजॉय कर रहे होते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इस फिल्म को लेकर सबसे ज्यादा ऑडिएंस को लेकर बात होनी चाहिए। बच्चों को अगर इस फिल्म से माइनस भी कर दें तो देखनेवालों की संख्या में कितना फर्क पड़ता है, इस पर बात हो। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि अधिकांश फिल्में इस तर्क पर बनती है कि बच्चों को टार्गेट करो, पैरेंट्स अपने आप चले आएंगे। ये फिल्म उससे ठीक विपरीत स्ट्रैटजी पर काम करती है।
इस लिहाज से देखें तो ये फिल्म एक नये किस्म की शैली या ट्रेंड को पैदा करने का काम करेगी। बच्चों को बतौर ऑडिएंस माइनस करके भी बिजनेस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, तो ए सर्टिफिकेट के तहत ऐसी फिल्मों की लॉट सामने आने लगेगी जिनकी ऑडिएंस लगभग वही होगी जो बागवान, कभी खुशी कभी गम, इश्किया, दबंग जैसी फिल्में देखती आयी है। जबरदस्त मार-काट के बीच ये आमिर खान की नयी मार्केट की खोज है, जिसने कभी इस बात पर बहुत गौर नहीं किया कि इससे आगे चलकर सिनेमा की शक्ल कैसी होगी? माफ कीजिएगा, मैं इस फिल्म को लेकर किसी भी तरह की असहमति इसलिए व्यक्त नहीं कर रहा कि इसमें गालियों का खुलकर प्रयोग किया गया है या फिर एडल्ट फिल्मों से भी ज्यादा वल्गर लगे हैं। मैं इस बात को लेकर असहमत हूं कि जो आमिर खान बहुतत ही पेचीदा और संश्लिष्ट विषयों को बहुत ही बारीकी से समझते हुए, उसे खूबसूरती के साथ फिल्माता आया है, वो गालियों का समाजशास्त्र समझने में, उसके पीछे के मनोविज्ञान को छू पाने में बुरी तरह असमर्थ नजर आता है। ये इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है और यहीं पर आकर मिस्टर परफेक्शनिस्ट बुरी तरह पिट जाते हैं। गालियों का अत्यधिक प्रयोग और हर लाइन के साथ चूतिये न तो अश्लीलता पैदा करता है और न ही स्‍वाभाविक माहौल ही निर्मित करता है बल्कि बुरी तरह इरीटेट करता है। हम जैसे लोग जो कि दिन-रात गालियों से घिरे होते हैं, अक्सर सुनते हुए और कई बार देते हुए… उन्हें भी खीज होती है – ऐसा थोड़े ही न होता है यार कि हर लाइन के पीछे हर कैरेक्टर चूतिया बोले ही बोले। ये स्वाभाविक लगने के बजाय डिकोरम का हिस्सा लगने लग जाता है कि हर लाइन में इसे बोलना ही बोलना है। दरअसल इस फिल्म में जो गालियों का प्रयोग है, वो समाज के बीच जीनेवाले चरित्रों और जिन परिस्थितियों में उनका प्रयोग करते हैं, उनके ऑब्जर्वेशन के बाद शामिल नहीं की गयी है बल्कि ऐसा लगता है कि एमटीवी, चैनल वी और यूटीवी बिंदास पर टीआरपी के दबाव में जैसे तमाम प्रतिभागियों को गाली देने और चैनल की तरफ से अधूरी पर बीप लगाने के लिए ट्रेंड किया जाता है, उन कार्यक्रमों और फुटेज को देखकर स्ट्रैटजी बनायी गयी कि चरित्र इस तरह से गालियां देंगे। यही कारण है कि जिन गालियों को हम दिन में पचास बार सुनते हैं, उसे जब हम इस फिल्म में सुनते हैं तो लगता है इसकी यहां जरूरत नहीं थी। जो इन चैनलों की रेगुलर ऑडिएंस हैं, उनके मुंह से शायद निकल भी रहे होंगे – चूतियों ने हमें चूतिया बनाने की कोशिश की है, भोंसड़ी के एक बार तो देख लिये इस चक्कर में, अगली बार अपने ही हाथ से अपनी ही मारनी होगी, देख लियो अगली बार वीकएंड में ही पिट जाएगी फिल्म।
गालियों के मनोविज्ञान पर आमिर खान को जबरदस्त मेहनत करने की जरूरत थी लेकिन उन्होंने इसे जस्ट फॉर फन या जुबान के बदचलन हो जाने के स्तर पर इस्तेमाल किया। गाली देते हुए किसी भी चरित्र में वो तनाव, चेहरे पर वो भाव नहीं दिखता है, जो कि आमतौर पर हम देते वक्त एक्सप्रेस करते हैं। ये कई बार असहाय और बिल्कुल ही कमजोर शख्स की तरफ से मजबूत के लिए किया जानेवाला प्रतिरोध भी होता है लेकिन वो यहां तक नहीं पहुंच पाते। एक सवाल मन में बार-बार उठता है कि जब गालियों को इसी रूप में प्रयोग करना था तो तीनों के तीनों चरित्रों को मीडिया क्षेत्र से चुने जाने की क्या अनिवार्यता थी? कहीं इससे ये साबित करने की कोशिश तो नहीं कि मीडिया के लोग ही इस तरह खुलेआम गालियां बकते हैं। अगर इसका विस्तार वो समाज के दूसरे तबके और फैटर्निटी के लोगों तक कर पाते तब लगता कि ये दिल्ली या यूथ की जीवनशैली में स्वाभाविक रूप से धंसा हुआ है। ऐसे में ये आमिर खान की नीयत पर भी शक पैदा करता है। हां, मीडिया के लोगों और बहुत ही कम समय के लिए उसके एम्बीएंस को इस्तेमाल करके आमिर खान ने एक अच्छी बात स्थापित करने की कोशिश की है कि अब ये बहुत ही कैजुअल तरीके से लिया जानेवाला पेशा हो गया है। मीडिया को करप्ट और विलेन साबित करने के लिए लगभग आधी दर्जन फिल्में बन चुकी है लेकिन इस फिल्म में मीडियाकर्मी के कैजुअल होने को बारीकी से दिखाया गया है। हां, ये जरूर है कि इन तीनों मीडियाकर्मियों को जिस परिवेश में रहते दिखाया गया है और जिस तरह गरीब साबित करने की कोशिश की गयी है, वो फिल्म की जरूरत से कहीं ज्यादा मन की बदमाशी या चूक है।
मल्टीनेशनल कंपनी में काम करनेवाले कार्टूनिस्ट, फोटो जर्नलिस्ट और पत्रकार आर्थिक मोर्चे पर इतना लचर होगा कि किराया देने तक के पैसे नहीं होंगे और वैसी झंटियल सी जगह में रहेंगे, हजम नहीं होता। फोटो जर्नलिस्ट लैम्रेटा स्कूटर से चलता है। कोई आमिर खान को बताये कि दिल्ली में कितनी साल पुरानी गाड़ी चल सकती है, इसके लिए भी कानूनी प्रावधान है। पुरानी दिल्ली के कभी भी धंसनेवाले घर और छत को तो उन्होंने खोजकर बड़ा ही खूबसूरत माहौल पा लिया लेकिन पुराने परिवेश में जीनेवाले कार्पोरेट पत्रकारों की जिंदगी घुसा पाने में कई झोल साफ दिख जाते हैं। इधर तीन-चार साल से हिंदी सिनेमा ने मीडियाकर्मियों को जिन ग्लैमरस परिस्थितियों में दिखाया है, अचानक से ऐसा देखना विश्वसनीय नहीं लगता। फिर गरीब मां या मजबूर घर के हालात न दिखाकर टिपिकल इंडियन सिनेमा का लेबल लगने से बचने के लिए जो जुगत भिड़ायी गयी है, वो तमाम तरह की स्मार्टनेस के बावजूद कहानी का मिसिंग हिस्सा जान पड़ता है। और आखिरी बात…
आमिर खान ने आइटम सांग के नाम पर न्यूज चैनलों और मीडिया कवरेज में जो सोसा फैलाया, अगर सिनेमाघरों में हम जैसी ऑडिएंस के बीच होते तो सिर पटक लेते। जब उनका आइटम सांग शुरू होता है, आडिएंस उठकर जाने लगती है, उनमें इतनी भी पेशेंस नहीं होती कि वो रुक कर 377 मार्का आमिर खान को देख ले। इसे कहते हैं मुंह भी जलाना और भात भी न खाना। आमिर खान का आइटम सांग डीजे में कितना बजेगा, नहीं मालूम लेकिन फिलहाल इसे ऑडिएंस ने एक फालतू आइटम की तरह बुरी तरह नकार दिया या फिर टीवी, एफएम पर देख-सुनकर पक चुकी हो। फिल्म देखकर बाहर निकलने पर शायद मेरी तरह आपका भी मन कचोटता हो – हिंदी सिनेमा में स्त्रियां दबाने के लिए ही लायी जाती हैं, चाहे कोई भी बनाये। बाकी बनाये तो परिवार, समाज और अधिकार के स्तर पर दबाने के लिए और आमिर खान फिल्म बनाये तो उनके बूब्स दबाने के लिए।
मूलतः प्रकाशितः- मोहल्लाlive
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साल 2009 में दूरदर्शन ने अपने पचास साल होने पर दि गोल्डन ट्रायल, डीडी@50 नाम से एक फिल्म का प्रसारण किया। उस फिल्म में दूरदर्शन ने पिछले दस-बारह साल की एक भी फुटेज या कार्यक्रम का जिक्र नहीं किया। कहने को तो वो दूरदर्शन के पचास साल के सफर पर बनी फिल्म थी लेकिन वह 2000 पहले तक आकर सिमट गयी। इसका एक मतलब तो यह है कि फिल्म निर्माता ने इस तरफ बहुत मेहनत नहीं की लेकिन दूसरा यह भी निकाला जा सकता है कि खुद दूरदर्शन को नहीं लगा कि उसने पिछले दस सालों में ऐसे कुछ कार्यक्रमों का प्रसारण किया है जिसका कि पचास साल होने के मौके पर जिक्र किया जा सके।

 फेसबुक पर दूरदर्शन के चर्चित चेहरे और कार्यक्रमों को याद करते हुए एट दि एज नाम से एक पेज बनाया गया है। इस पेज में भी एक भी ऐसे एंकर या समाचारवाचक की तस्वीर नहीं है जो कि पिछले दस-बारह साल के हों या अभी कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हों। कुल मिलाकर दूरदर्शन और उसके प्रति संवेदनशील लोग इसे जिस रुप में भी याद करते हों,इसकी उपलब्धियों को हमारे सामने पेश करने की कोशिश करते हों,उसमें इधर दस-बारह साल की गतिविधियां और कार्यक्रम गायब है। यह वह महत्वपूर्ण दौर है जहां 360 से भी ज्यादा टेलीविजन चैनलों की मौजूदगी है और उनके बीच दूरदर्शन की भूमिका को रेखांकित किया जाना है। ऐसे में जरुरी सवाल है कि क्या साल 2000 के बाद के दूरदर्शन की गतिविधियों को पूरी तरह गायब करके सिर्फ अस्सी के दशक के कार्यक्रमों को नास्टॉल्जिक तरीके से याद करके इस पर मुक्कम्बल बातचीत की जा सकती है?

दूसरी तरफ,अगर आप पिछले दो-तीन साल की उन खबरों पर गौर करें जिसमें प्रसार भारती के साथ-साथ दूरदर्शन का जिक्र आया तो उनमें से अधिकांश खबरें इस बात की तरफ ईशारा करती है कि इसके भीतर भारी गड़बड़ियां फैली है। प्रसार भारती के सीइओ बी एस लाली के निलंबन की खबरों के साथ यह बात खुलकर सामने आयी कि दूरदर्शन के भीतर बैठे अधिकारी निजी चैनलों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों की अनदेखी करके अनुबंध तैयार करते हैं। इसके बदले में उन्हें कमीशन तो मिल जाती है लेकिन दूरदर्शन को भारी नुकसान होता है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भी जब इसे हाइ डेफीनेशन के तहत लाने की बात चली तो उसमें भी भारी वित्तीय अनियमितताओं का मामला सामने आया। इतना ही नहीं,दूरदर्शन जो कि वित्तीय घाटे का पर्याय बन चुका है,इस दौरान कोशिश की गयी कि इस खेल से इस घाटे को पूरा किया जाए और तब विज्ञापनों के ऐसे दबाव के बीच इसने प्रसारण शुरु किया कि दर्शकों को अपने ही देश के स्वर्ण पदक जीतनेवाले खिलाड़ी की फुटेज नसीब नहीं हुई। 

इस तरह एक केस स्टडीज के तौर पर अगर आप दूरदर्शन को देखें तो एक स्थिति बार-बार सामने आएगी कि दूरदर्शन ने शुरु से ही,हमलोग जैसे टीवी सीरियल से लेकर शांति,स्वाभिमान से लेकर अब तक के कार्यक्रमों का प्रसारण का वास्तविक उद्देश्य या तो मुनाफा कमाना रहा या फिर घाटे की भरपाई करनी रही लेकिन उसे सामाजिक विकास के मुखौटे के तहत प्रसारित करता रहा। हमलोग से परिवार नियोजन पर कितना असर पड़ा,इसके आंकड़े न तो हमारे पास है और न ही दूरदर्शन की तरफ से कोई सर्वे किया गया लेकिन आज घर-घर में मैगी नूडल्स की पहुंच बन गयी। शांति और स्वाभिमान जैसे हायपर पारिवारिक राजनीतिक सीरियल को दूरदर्शन ने इसलिए जारी रखा कि उससे उसे डेढ़ से दो लाख रुपये के विज्ञापन मिलते रहे।

 दूरदर्शन ने सामाजिक विकास और जागरुकता के एजेंड़े को देश के विकास की एक धुरी के तौर पर अपनाने के बजाय उस मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जिससे कि उस पर किसी भी तरह की उंगली न उठायी जा सके। उसे आसानी से दर्शक पचा सकें और दूसरी तरफ प्रायोजक मिलते रहें। और इन सबसे बड़ी बात कि इसके भीतर ही भीतर आर्थिक ढांचे खड़ी होती रहे और जब-जब इस मोर्चे पर विफल हो जाएं, पल्ला झाड़कर खड़े हो जाएं कि दूरदर्शन का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं,सामाजिक जागरुकता का प्रसार करना है। वैधानिक तौर पर प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अन्तर्गत काम करनेवाले ऐसे दूरदर्शन को फिर भी सरकारी सहयोग मिल जाते हैं, प्रसारण नीति और शर्तें ऐसी है कि निजी नेटवर्क और वितरण के विस्तार के बावजूद इसकी मौजूदगी अनिवार्य है लेकिन आज दूरदर्शन से कोई नहीं पूछनेवाला है कि आप जो प्रसारित कर रहे हो,उसका असर कितना है? ऐसे में न तो वह पूरी तरह बाजार और विज्ञापन के दबाव से मुक्त हो पाया है, न ही सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के चगुंल से पूरी तरह मुक्त हो पाया है और न ही निजी चैनल कr चिल्ल-पों,टीआरपी की मार-काट और उन्मुक्त संस्कृति के नाम पर फूहड़पन और अश्लीलता के बरक्स एक बेहतर विकल्प के तौर पर अपने को स्थापित कर पाया है। दूरदर्शन इसी मोर्चे पर सबसे पराजित चैनल है।

तटस्थ खबरें और कार्यक्रम के नाम पर बौद्धिक स्तर का आलस्य और मौजूदा सरकार के प्रति मुंह जोहने की मजबूरी के बीच भला ये कैसे संभव है कि दर्शक उसे एक बेहतरीन चैनल के तौर पर प्रस्तावित करे। दूरदर्शन की ओर से जो भी दस्तावेज जारी किए जाते हैं उसमें इसकी पहुंच 90 फीसदी से भी ज्यादा बतायी जाती है लेकिन उसने कभी भी ऐसा कोई सर्वे नहीं कराया जिसमें यह बता सके कि कितने ऐसे लोग हैं जहां निजी चैनलों के विकल्प रहने पर भी दूरदर्शन देखते हैं? मुझे यकीन है कि अगर ऐसे सर्वे कराए जाते हैं तो दूरदर्शन को भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा और उसे इस बात का फर्क समझ आएगा कि नीतियों के दबाव में आकर निजी नेटवर्क,केबल ऑपरेटर और डिश टीवी कंपनियां भले ही दूरदर्शन को दर्शकों के सामने प्राथमिकता के तहत पहुंचा देती है लेकिन खुद दर्शक उसे नकार दे रहे हैं।

 निजी चैनलों के अभाव में दूरदर्शन को भले ही देखा जा रहा हो लेकिन उसके होने पर भी अगर वो दर्शकों की पसंद का हिस्सा नहीं है तो दूरदर्शन को अपने होने के महत्व पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। सामाजिक विकास का माध्यम कहलाने की जो सुविधा दूरदर्शन ने ले रखी है,उसे अगर वह अपने भीतर की तमाम तरह की गड़बड़ियों और दृष्टि की नासमझी को ढंकने के तौर पर इस्तेमाल करता है तो अफसोस है कि वह आनेवाले समय में निजी चैनलों के बीच एक लाचार और अप्रासंगिक चैनल के तौर पर दब कर रह जाएगा और तब पचहतर या सौ साल होने पर भी दूरदर्शन उसी तरह अस्सी और नब्बे के दशक के कार्यक्रमों को ही अपनी बनायी फिल्मों में शामिल करेगा और आगे के तीस-चालीस साल का इतिहास गायब रहेगा। यह जरुरी और गंभीर मसला है कि अब दूरद्शन को नास्टॉल्जिया के बजाय क्रिटिकल होकर विश्लेषित करने का काम हो।

दलीलः- ये लेख मूलतः डॉ दुष्यंत के न्योते पर डेली न्यूज,जयपुर के लिखा जिसे कि अखबार ने हमलोग की कवर स्टोरी के तौर पर 3 जुलाई को प्रकाशित किया। अखबार ने इसका शीर्षक बदलकर दूर हुए कि दर्शन दुर्लभ हुए नाम से प्रकाशित किया। यहां अपने ब्लॉग पर मैंने वही शीर्षक दिया है क्योंकि ये शीर्षक होने के साथ-साथ उन तमाम लोगों से सवाल भी है जो निजी टेलीविजन चैनलों को गरिआने के नाम पर दूरदर्शन को क्लिन चिट देने का काम करते हैं।  
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नीरज ग्रोवर हत्‍याकांड में सबूतों को नष्‍ट करने वाली अपराधी के बारे में जब न्‍यूज चैनलों को सूचना मिली कि वो बिग बॉस के अगले सीजन में हिस्‍सा लेने वाली है, वह एकाएक मनोरंजन चैनल में बदल गये। हालांकि बिग बॉस ने इस खबर का दूसरे दिन खंडन कर दिया। युवा मीडिया क्रिटिक विनीत कुमार ने न्‍यूज चैनलों की इस बदहवासी पर फौरी टिप्‍पणी की थी, जिसे हम दो दिन बाद छाप रहे हैं, उनसे क्षमायाचना के साथ : मॉडरेटर
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रज ग्रोवर हत्याकांड मामले में कन्‍नड़ अभिनेत्री मारिया सुसाईराज तीन साल की सजा काटकर जब सलाखों से बाहर निकली, तो जैसे टीवी चैनल उस पर एहसान करने के लिए आमादा थे। शाम तक तो न्यूज चैनलों ने इस खबर को प्रमुखता से दिखाया कि मारिया ने प्रेस कॉनफ्रेंस में ऐसा कुछ भी नहीं कहा, जिससे लगे कि उसे अपनी गलती का एहसास है या फिर तीन साल तक जेल की सजा काटने पर कुछ हद तक विनम्रता आयी है। अधिकांश चैनल इस बात को लेकर ही लूप चलाते रहे कि मारिया ने नीरज ग्रोवर पर कुछ भी कहने से मना कर दिया। लेकिन जैसे ही चर्चित रियलिटी शो बिग बॉस की तरफ से बयान आया कि वो नये सीजन में मारिया को लेना चाहेंगे तो सारे चैनलों ने बाकी मसलों पर बात करने के बजाय सिर्फ और सिर्फ बिग बॉस और मारिया को लेकर स्टोरी करनी शुरू कर दी।
आजतक ने प्राइम टाइम में स्टोरी चलायी – बुरा होना अच्छा होना है और इसे बाकायदा चैनल के सबसे अक्लमंद समझे जानेवाले एंकर अजय कुमार ने होस्ट किया।
स्टार न्यूज को चूंकि मनोरंजन की खबरों में महारथ हासिल है और उसे इसका खून कुछ इस तरह लगा है कि दीपक चौरसिया जैसे राजनीतिक खबरों में दिलचस्पी रखनेवाले मीडियाकर्मी भी कभी जॉन अब्राहम को बाइक पर तो कभी मलिका शेहरावत के साथ हिस्स करते नजर आते हैं, उसने प्रोग्राम में बाकायदा ये भी दिखा दिया कि मारिया शो में इंट्री लेगी तो किस तरह दिखेगी, वो मारिया और नीरज ग्रोवर हत्याकांड की फुटेज दिखाने से कहीं ज्यादा बिग बॉस की फुटेज दिखाना शुरू कर देता है।
इंडिया टीवी का इस मामले में अपना संस्कार है और उसने ऐसे दिखाया मानो कि मारिया शामिल हो चुकी है और बिग बॉस का नया सीजन शुरू हो गया है।
न्यूज24 सोनिया गांधी से मिलने के बाद अन्ना को सीधे लाइव लेने की कोशिश में था और एक्‍सक्‍लूसिव की बड़ी बड़ी पट्टियां चला रहा था, लेकिन जैसे मारिया वाली खबर आयी – वो भी इस खेल में कूद गया। स्टार न्यूज ने तो मारिया-मारिया गाने तक इस्तेमाल कर दिये।
इस पूरी कवरेज को अगर आप गौर से देख रहे होंगे तो अंदाजा लगा रहे होंगे कि कैसे एक बेहद ही गंभीर खबर जो कि अपराध और हार्डकोर न्यूज की कैटेगरी में आनी चाहिए, अकेले बिग बॉस और उधर रामगोपाल वर्मा के कूदने से खालिस मनोरंजन की खबर बन जाती है और फिर धीरे-धीरे मारिया की लेडीज पुलिस द्वारा ले जाती हुई, सलाखों के पीछे और प्रेस कॉनफ्रेंस की फुटेज सिर्फ और सिर्फ फिल्मी और एलबम सीनों की तरफ खिसकती चली जाती है। राजनीति, अपराध, हार्डकोर न्यूज और सरोकार की खबरें कैसे मनोरंजन की तरफ शिफ्ट की जाती है और उसके भीतर की तथ्यात्मकता और मतलब को ध्वस्त करके नया मतलब रचती है, इसे ऐसे ही मौके पर समझा जा सकता है।
परसों रात के प्राइम टाइम में दो बातें और गौर करने लायक थी। एक ये कि स्टार न्यूज जब मारिया की खबर दिखा रहा था तो अचानक से उसकी फुटेज के ऊपर बाबा रामदेव की फुटेज आ जाती है और फिर स्टार न्यूज पर बाबा रामदेव लिखा आता है। मतलब ये कि जो खबर चल रही है, उसे बाधित करते हुए अगली खबर के लिए ऑडिएंस की बुकिंग। हम कन्फ्यूज होते हैं कि कहीं गलत फुटेज तो नहीं डाल दिया गया एडीटिंग मशीन पर बैठी संतानों ने? और दूसरा कि न्यूज24 बार-बार लिख रहा था, नाउ प्लेइंग। मतलब अब खबरें दिखाने की नहीं प्ले करने की चीज हो गयी है।
जो न्यूज चैनल पिछले महीनों बिग बॉस की अश्लीलता और उसकी प्रासंगिकता को लेकर गले फाड़-फाड़कर पैनल डिशक्शन करा रहा था, एनडीटीवी ने इस पर मुकाबला कराया था, परसों रात किसी ने भी ये सवाल नहीं उठाया कि जिस तरह से बिग बॉस एक के बाद एक दागदार और आरोपी शख्सियत को अपने शो में शामिल कर रहा है, वो किस हद तक जायज है? क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय इस दिशा में कुछ पहल करेगा? सबने रातोंरात मारिया को राखी सावंत और वीना मलिक की तरह टीआरपी एलीमेंट में कनवर्ट कर दिया। अब जल्द ही ऑडिएंस भूल जाएगी कि मारिया को किसी की हत्या की साजिश में तीन साल की सजा भी हुई थी?
न्यूज चैनल अगर अपनी स्ट्रैटजी के तहत ऐसे सवाल उठाने से मुंह भी चुरा ले तो क्या ये एक जरूरी सवाल नहीं है कि जिस तरह से बिग बॉस राहुल महाजन, वीना मलिक, बंटी चोर और मारिया… एक के बाद एक आरोपी और दागदार लोगों को अपने शो में शामिल करता है, क्या ये उसका पैमाना है कि सबसे खराब या समाज के लिए बुरा करार दिया जानेवाला शख्स बिग बॉस के लिए सबसे योग्य है? बिग बॉस को इस बात का अधिकार किसने दिया है कि वो ऐसे शख्स को शो में शामिल करके उसकी मेकओवर कर दे? राहुल महाजन ने क्या किया, वीना मलिक किन कारणों से मीडिया में चर्चा में आयी, आज अधिकांश लोग भूल चुके होंगे या नहीं भी भूले होंगे तो अब इनलोगों को दूसरे तरीके से याद करते होंगे।
राहुल महाजन की तो बिग बॉस, स्वयंवर और छोटे मियां में शामिल करके बहुत ही शॉफ्ट छवि गढ़ दी गयी। वीना मलिक को बिग बॉस के बाद ज्यादा बिजनेस मिलने लग गये। इसका मतलब कहीं ये तो नहीं कि चैनल ये साबित करना चाहता है कि उसकी ताकत और उसका कद कानून और समाज से कहीं ज्यादा है। वो रातोंरात करप्ट हो चुकी किसी की सामाजिक छवि को बदल और बेहतर बना सकता है? और वैसे भी जिस शख्स को टेलीविजन की पॉपुलरिटी मिल जाती है, वो कई स्तर पर सामाजिक दावे भी करने की हैसियत बना लेता है। अगर ऐसा है तो क्या ये जरूरी नहीं है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय इस दिशा में पहल करे।
इसके लिए सबसे पहले मंत्रालय चैनलों के ऊपर ये दबाव बनाये कि वो अपने प्रतिभागियों का परिचय उसी रूप में कराये, जिस कारण वो मीडिया में चर्चा में आये हैं। अगर मीडिया और समाज में उनकी छवि आरोपी या अपराधी की रही है, तो वो उसे मेंशन करे। दूसरी बात कि प्रतिभागियों को शामिल करने से पहले मंत्रालय ये तय करे कि उसके मापदंड क्या होंगे? संभव है कि कुछ लोगों को क्‍लीन चिट मिल जाए लेकिन ऐसे शो के जरिये मेकओवर का जो काम किया जाता है, उस पर निगरानी रखे। किसी भी चैनल को इस बात का ठेका कैसे दिया जा सकता है कि वो किसी शख्स की तमाम करतूतों को धो-पोंछकर नये सिरे से ऐसी छवि पेश करेगा कि समाज में उसकी स्वीकृति बढ़ती चली जाएगी। क्या ये उस दिशा में लोगों को सक्रिय तो नहीं करता कि ज्यादा से ज्यादा कट्टर और निर्दयी तरीके से अपराध करो, जिससे कि बिग बॉस जैसे शो की नजर पड़े। उसके बाद तो कानूनी और सामाजिक तौर पर चाहे जो भी सजा मिले, मेकओवर हो जाएगा।
न्यूज चैनलों को टीआरपी बताशे बनाने हैं, वो बिग बॉस के ऐसे कदम का विरोध नहीं कर सकता क्योंकि कल को उसे लाखों में प्रोमोशनल एड मिलने जा रहे हैं लेकिन देश की जो मशीनरी है, मॉनिटरिंग सिस्टम है, क्या वो सिर्फ हादसों के वक्त ही सक्रिय होगी और मर्सिया पढ़कर चलता कर देगी?
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाive
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