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साल 2009 में दूरदर्शन ने अपने पचास साल होने पर दि गोल्डन ट्रायल, डीडी@50 नाम से एक फिल्म का प्रसारण किया। उस फिल्म में दूरदर्शन ने पिछले दस-बारह साल की एक भी फुटेज या कार्यक्रम का जिक्र नहीं किया। कहने को तो वो दूरदर्शन के पचास साल के सफर पर बनी फिल्म थी लेकिन वह 2000 पहले तक आकर सिमट गयी। इसका एक मतलब तो यह है कि फिल्म निर्माता ने इस तरफ बहुत मेहनत नहीं की लेकिन दूसरा यह भी निकाला जा सकता है कि खुद दूरदर्शन को नहीं लगा कि उसने पिछले दस सालों में ऐसे कुछ कार्यक्रमों का प्रसारण किया है जिसका कि पचास साल होने के मौके पर जिक्र किया जा सके।

 फेसबुक पर दूरदर्शन के चर्चित चेहरे और कार्यक्रमों को याद करते हुए एट दि एज नाम से एक पेज बनाया गया है। इस पेज में भी एक भी ऐसे एंकर या समाचारवाचक की तस्वीर नहीं है जो कि पिछले दस-बारह साल के हों या अभी कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे हों। कुल मिलाकर दूरदर्शन और उसके प्रति संवेदनशील लोग इसे जिस रुप में भी याद करते हों,इसकी उपलब्धियों को हमारे सामने पेश करने की कोशिश करते हों,उसमें इधर दस-बारह साल की गतिविधियां और कार्यक्रम गायब है। यह वह महत्वपूर्ण दौर है जहां 360 से भी ज्यादा टेलीविजन चैनलों की मौजूदगी है और उनके बीच दूरदर्शन की भूमिका को रेखांकित किया जाना है। ऐसे में जरुरी सवाल है कि क्या साल 2000 के बाद के दूरदर्शन की गतिविधियों को पूरी तरह गायब करके सिर्फ अस्सी के दशक के कार्यक्रमों को नास्टॉल्जिक तरीके से याद करके इस पर मुक्कम्बल बातचीत की जा सकती है?

दूसरी तरफ,अगर आप पिछले दो-तीन साल की उन खबरों पर गौर करें जिसमें प्रसार भारती के साथ-साथ दूरदर्शन का जिक्र आया तो उनमें से अधिकांश खबरें इस बात की तरफ ईशारा करती है कि इसके भीतर भारी गड़बड़ियां फैली है। प्रसार भारती के सीइओ बी एस लाली के निलंबन की खबरों के साथ यह बात खुलकर सामने आयी कि दूरदर्शन के भीतर बैठे अधिकारी निजी चैनलों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों की अनदेखी करके अनुबंध तैयार करते हैं। इसके बदले में उन्हें कमीशन तो मिल जाती है लेकिन दूरदर्शन को भारी नुकसान होता है। राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान भी जब इसे हाइ डेफीनेशन के तहत लाने की बात चली तो उसमें भी भारी वित्तीय अनियमितताओं का मामला सामने आया। इतना ही नहीं,दूरदर्शन जो कि वित्तीय घाटे का पर्याय बन चुका है,इस दौरान कोशिश की गयी कि इस खेल से इस घाटे को पूरा किया जाए और तब विज्ञापनों के ऐसे दबाव के बीच इसने प्रसारण शुरु किया कि दर्शकों को अपने ही देश के स्वर्ण पदक जीतनेवाले खिलाड़ी की फुटेज नसीब नहीं हुई। 

इस तरह एक केस स्टडीज के तौर पर अगर आप दूरदर्शन को देखें तो एक स्थिति बार-बार सामने आएगी कि दूरदर्शन ने शुरु से ही,हमलोग जैसे टीवी सीरियल से लेकर शांति,स्वाभिमान से लेकर अब तक के कार्यक्रमों का प्रसारण का वास्तविक उद्देश्य या तो मुनाफा कमाना रहा या फिर घाटे की भरपाई करनी रही लेकिन उसे सामाजिक विकास के मुखौटे के तहत प्रसारित करता रहा। हमलोग से परिवार नियोजन पर कितना असर पड़ा,इसके आंकड़े न तो हमारे पास है और न ही दूरदर्शन की तरफ से कोई सर्वे किया गया लेकिन आज घर-घर में मैगी नूडल्स की पहुंच बन गयी। शांति और स्वाभिमान जैसे हायपर पारिवारिक राजनीतिक सीरियल को दूरदर्शन ने इसलिए जारी रखा कि उससे उसे डेढ़ से दो लाख रुपये के विज्ञापन मिलते रहे।

 दूरदर्शन ने सामाजिक विकास और जागरुकता के एजेंड़े को देश के विकास की एक धुरी के तौर पर अपनाने के बजाय उस मुखौटे की तरह इस्तेमाल किया जिससे कि उस पर किसी भी तरह की उंगली न उठायी जा सके। उसे आसानी से दर्शक पचा सकें और दूसरी तरफ प्रायोजक मिलते रहें। और इन सबसे बड़ी बात कि इसके भीतर ही भीतर आर्थिक ढांचे खड़ी होती रहे और जब-जब इस मोर्चे पर विफल हो जाएं, पल्ला झाड़कर खड़े हो जाएं कि दूरदर्शन का उद्देश्य मुनाफा कमाना नहीं,सामाजिक जागरुकता का प्रसार करना है। वैधानिक तौर पर प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अन्तर्गत काम करनेवाले ऐसे दूरदर्शन को फिर भी सरकारी सहयोग मिल जाते हैं, प्रसारण नीति और शर्तें ऐसी है कि निजी नेटवर्क और वितरण के विस्तार के बावजूद इसकी मौजूदगी अनिवार्य है लेकिन आज दूरदर्शन से कोई नहीं पूछनेवाला है कि आप जो प्रसारित कर रहे हो,उसका असर कितना है? ऐसे में न तो वह पूरी तरह बाजार और विज्ञापन के दबाव से मुक्त हो पाया है, न ही सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के चगुंल से पूरी तरह मुक्त हो पाया है और न ही निजी चैनल कr चिल्ल-पों,टीआरपी की मार-काट और उन्मुक्त संस्कृति के नाम पर फूहड़पन और अश्लीलता के बरक्स एक बेहतर विकल्प के तौर पर अपने को स्थापित कर पाया है। दूरदर्शन इसी मोर्चे पर सबसे पराजित चैनल है।

तटस्थ खबरें और कार्यक्रम के नाम पर बौद्धिक स्तर का आलस्य और मौजूदा सरकार के प्रति मुंह जोहने की मजबूरी के बीच भला ये कैसे संभव है कि दर्शक उसे एक बेहतरीन चैनल के तौर पर प्रस्तावित करे। दूरदर्शन की ओर से जो भी दस्तावेज जारी किए जाते हैं उसमें इसकी पहुंच 90 फीसदी से भी ज्यादा बतायी जाती है लेकिन उसने कभी भी ऐसा कोई सर्वे नहीं कराया जिसमें यह बता सके कि कितने ऐसे लोग हैं जहां निजी चैनलों के विकल्प रहने पर भी दूरदर्शन देखते हैं? मुझे यकीन है कि अगर ऐसे सर्वे कराए जाते हैं तो दूरदर्शन को भारी निराशा का सामना करना पड़ेगा और उसे इस बात का फर्क समझ आएगा कि नीतियों के दबाव में आकर निजी नेटवर्क,केबल ऑपरेटर और डिश टीवी कंपनियां भले ही दूरदर्शन को दर्शकों के सामने प्राथमिकता के तहत पहुंचा देती है लेकिन खुद दर्शक उसे नकार दे रहे हैं।

 निजी चैनलों के अभाव में दूरदर्शन को भले ही देखा जा रहा हो लेकिन उसके होने पर भी अगर वो दर्शकों की पसंद का हिस्सा नहीं है तो दूरदर्शन को अपने होने के महत्व पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। सामाजिक विकास का माध्यम कहलाने की जो सुविधा दूरदर्शन ने ले रखी है,उसे अगर वह अपने भीतर की तमाम तरह की गड़बड़ियों और दृष्टि की नासमझी को ढंकने के तौर पर इस्तेमाल करता है तो अफसोस है कि वह आनेवाले समय में निजी चैनलों के बीच एक लाचार और अप्रासंगिक चैनल के तौर पर दब कर रह जाएगा और तब पचहतर या सौ साल होने पर भी दूरदर्शन उसी तरह अस्सी और नब्बे के दशक के कार्यक्रमों को ही अपनी बनायी फिल्मों में शामिल करेगा और आगे के तीस-चालीस साल का इतिहास गायब रहेगा। यह जरुरी और गंभीर मसला है कि अब दूरद्शन को नास्टॉल्जिया के बजाय क्रिटिकल होकर विश्लेषित करने का काम हो।

दलीलः- ये लेख मूलतः डॉ दुष्यंत के न्योते पर डेली न्यूज,जयपुर के लिखा जिसे कि अखबार ने हमलोग की कवर स्टोरी के तौर पर 3 जुलाई को प्रकाशित किया। अखबार ने इसका शीर्षक बदलकर दूर हुए कि दर्शन दुर्लभ हुए नाम से प्रकाशित किया। यहां अपने ब्लॉग पर मैंने वही शीर्षक दिया है क्योंकि ये शीर्षक होने के साथ-साथ उन तमाम लोगों से सवाल भी है जो निजी टेलीविजन चैनलों को गरिआने के नाम पर दूरदर्शन को क्लिन चिट देने का काम करते हैं।  
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2 Response to 'दूरदर्शनः सामाजिक विकास का माध्यम या मुखौटा?'
  1. प्रवीण पाण्डेय
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_06.html?showComment=1309968343458#c7347930916679401480'> 6 जुलाई 2011 को 9:35 pm बजे

    पहले तो बहुत चाव से देखते थे, अब कम हो गया है।

     

  2. राजन
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_06.html?showComment=1310011669642#c7040744261073269852'> 7 जुलाई 2011 को 9:37 am बजे

    दूरदर्शन के कार्यक्रम अब स्तरीय नहीं रहे.बल्कि पहले भी वह अलिफ लैला,बेताल पच्चीसी जैसे कार्यक्रम केवल अपने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए ही देता रहा है.खबरों के मामलों में उसका इम्प्रेक्टिकल होने की हद तक तटस्थ रहना मुझे कभी पसंद नही आया.लापरवाही का आलम ये रहा कि जब गुजरात में भूकंप आ रहा था तो उस समय दूरदर्शन ने परेड के प्रसारण को रोकना यहाँ तक कि एक स्क्रॉल पर इस संबंध में अपने दर्शकों को जानकारी देना जरूरी नही समझा.एक समय ऐसा भी आया जब डी.डी. मेट्रो के प्राइम टाईम स्लॉट्स आस्ट्रेलियन पीटीवाई के चैनल नाईन गोल्ड को एक साल के करार के तहत बेच दिये गये पर इस चैनल ने एक साल पहले ही घुटने टेक दिये और दूरदर्शन को एक बार फिर से अपने प्रसारण अधिकार बेचने के लिये निविदाएँ आमंत्रित करनी पडी तब केवल श्री अधिकारी ब्रदर्स ने ही इसके लिये आवेदन किया जिनका एक चैनल पहले से ही चल रहा था.अंत में अचानक डी.डी. मेट्रो को बंद कर दिया गया और आधी अधूरी तैयारियों के साथ ही डी.डी. न्यूज अस्तित्व में आया जो दर्शकों की उम्मीदों पर अभी तक खरा नहीं उतर पाया.

     

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