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सोनिया सिंह आजतक की पुरानी और बेहतर मानी जानेवाली एंकर है। अपनी सीमित और कम जानकारी के बावजूद अच्छी बुलेटिन कर जाना उनकी खास पहचान है। हम उन्हें पिछले छह-सात सालों से आजतक के पर्दे पर देखते आए हैं और कई बार चक्के पे चक्का कार्यक्रम में दिखाई जानेवाली गाड़ियों जैसी स्पीड से किन्तु स्पष्ट तरीके से खबरें पढ़ने को लेकर प्रभावित भी हुए। लेकिन आज उन्होंने बुलेटिन के दौरान जो काम किया,अगर किसी दूसरी या नई एंकर ने किया होता तो आजतक उन्हें हिदायत या फिर छुट्टी तक पर जाने की बात कर देता। चैनल शायद ही उसकी इस लिजलिजेपन को बर्दाश्त कर पाता।


मामला साहित्यकार और राग दरबारी उपन्यास के लेखक श्रीलाल शुक्ल के निधन पर पढ़ी जानेवाली खबर को लेकर है। आगे बातचीत करने के पहले ये कहना जरुरी होगा कि किसी भी चैनल के मीडियाकर्मी और एंकर के लिए साहित्य के प्रति गहरी समझना उसके बेहतर होने का पैमाना शायद नहीं हो सकता और वो भी तब जबकि खुद न्यूज चैनलों में साहित्य से जुड़ी खबरों का कोई मतलब नहीं रह गया है। साहित्य के लोग बस इस बात पर खुश हो सकते हैं कि चलो कहीं कोई तो खबर आयी। नहीं तो साहित्यकारों को कौन पूछता है। ऐसे में आजतक ने श्रीलाल शुक्ल के निधन पर खबर प्रसारित की इसके लिए शुक्रिया। हां ये जरुर है कि श्रीलाल शुक्ल को लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय और प्रशासनिक स्तर पर थोड़ी बहुत ही सही चहल कदमी नहीं होती तो श्रीलाल शुक्ल के अंतिम संस्कार होने तक भी शायद ही कोई खबर बनने पाती या फिर अगर उन्हें हाल ही में ज्ञानपीठ न मिला होता तो भी शायद सुध न ली जाती। हो सकता है कि राग दरबारी की वजह से ही दो लाइन की ही सही,खबर चल जाती। खैर,

श्रीलाल शुक्ल के निधन की खबर को लेकर आजतक की स्क्रीन पर ग्राफिक्स मौजूद थे। एक तरह श्रीलाल शुक्ल की एक स्टिल और दूसरी तरफ उनसे संबंधित कुछ जानकारियां। इन जानकारियों में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके आधार पर आप कह सकें कि चैनल ने इस खबर के पीछे कोई अतिरिक्त मेहनत की हो। गूगल सर्च(हिन्दी में श्रीलाल शुक्ल टाइप करने के बाद) से उनके बारे में जो कुछ भी मिला,वो चैनल के लिए पर्याप्त था। इससे कहीं अधिक जानकारी उनकी किताबों की फ्लैप पर हुआ करती हैं। बहरहाल,सोनिया सिंह का काम बस इतना भर का था कि उस ग्राफिक्स को ठीक-ठीक पढ़ जाए और फिर ग्राफिक्स जो थोड़े समय के लिए स्टिल तरीके से स्थिर हैं और समय का गैप बना है,उसमें लिखे के अलावे या तो कुछ बोले या फिर उसे ही आगे -पीछे करके दोहराए। लेकिन हमें लगा कि  आतंकवाद से लेकर पूजा-पाठ,खेल-खिलाड़ी,गाड़ी-घोड़े पर धुंआधार बोलनेवाली सोनिया सिंह के प्रति इतनी भी उम्मीद करके कुछ ज्यादा ही गुनाह कर गए। स्क्रीन पर साफ लिखा था- 2009 के लिए मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार। सोनिया सिंह ने पढ़ा- 2009 में मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार। उसके बाद वो ग्राफिक्स स्थिर रहता है। सोनिया सिंह इस बीच लोलिआने लग जाती है। वो इतना भी नहीं कर पाती कि अब तक जो जानकारी उसके पास है,उसे क्रम से दोहरा ही दें। चैनल के पास न तो कोई विजुअल्स थे और न ही स्टिल को जोड़कर ही कुछ बनाने में वो समर्थ नजर नहीं आया। हद तो तब हो गई जब करीब 12 सेकेंड के लिए सोनिया सिंह एकदम से चुप्प हो गई। कुछ भी नहीं बोला। पहले तो अssssss किया और फिर मुंह से बकार तक नहीं निकली। हम उम्मीद कर रहे थे कि हो सकता है इसके बाद कुछ बोले क्योंकि स्कूल के जमाने में हमने देखा था कि कई बार बच्चे रटकर भाषण देते थे तो अचानक से भूल जाते थे और फिर जैसे ही याद आया,फिर से रौ में शुरु हो जाते थे। लेकिन सोनिया सिंह एक बार चुप हुई तो करीब 12 सेकेंड बाद धमाकेदार तरीके से हमें सुनाई और दिखाई दिया- आजतक,दमदार 10 साल।  

 इधर सोनिया सिह जब चुप्प थी और मुंह से बकार तक नहीं निकल रही थी तो उस समय स्टूडियो के आसपास की आवाज बहुत ही तेज और साफ सुनाई पड़ रही थी जिससे कि खबरों के प्रति न सिर्फ गंभीरता खत्म हो रही थी बल्कि बहुद ही भौंड़ापन लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि इधर पान-बीड़ी की दूकानों पर कोई हील-हुज्जत चल रही हो। हां बीच में एक बार नामवर सिंह जरुर सुनाई दे गया।

वैसे सोनिया सिंह और खुद आजतक के लिए ये कोई बड़ा बात न हो लेकिन हम जैसे दर्शकों के सामने इस बात को लेकर दो-तीन स्तरों पर गंभीरता से सोचने की जरुरत बनती है। पहली बात तो ये कि क्या ये मामला किसी न्यूज एंकर के साहित्यकारों के बारे में जानने और न जाननेभर से हैं? अगर ऐसा है तो फिर एंकर तो देश और दुनिया के कई लेखकों,चित्रकारों,कलाकारों और व्यक्तित्वों के बारे में नहीं जानता तो क्या इसका मतलब ये हो कि वो इसी तरह लोलिआने लग जाए? क्या टेलीविजन के भीतर इस बात की अनिवार्यता नहीं बनती कि चीजों को लेकर एंकरों के पास कम से कम बेसिक समझ और जानकारी तो हो ही। न भी हो तो स्क्रीन पर उतरने के पहले उसे दुरुस्त कर ले। दूसरी बात कि ये मामला एक लेखक से जुड़ा है और चूंकि इनके बीमार रहने की खबर पिछले कई दिनों से अलग-अलग माध्यमों से हम तक आ रही थी तो हमने पकड़ लिया कि सोनिया सिह की खबर पढ़े जाने में क्या खोट थी? लेकिन क्या ये अकेला मामला है जिसमें वो भारी फम्बल और लोलिआने के बीच निकल गई। ऐसा भी तो होता होगा कि जिस धुंआधार तरीके से खबरें पढ़ी जाने के कारण हम प्रभावित होते रहे हैं,उसके बीच बहुत कुछ ऐसा अल्ल-बल्ल बोल जाया करतीं होगी जिसका कि तथ्यों से कोई लेना-देना नहीं होता होगा। अगर ऐसा है जिसकी कि बहुत अधिक गंजाईश है तो सचमुच ये कितना खतरनाक है। टेलीविजन में आए नए लोगों को अक्सर कोसा जाता है कि उन्हें चीजों के प्रति कोई समझ नहीं है। लेकिन सोनिया सिंह जैसी सालों से टेलीविजन पर बना रहनेवाली एंकर की ये हालत है तो आपको नहीं लगता कि नए लोगों को कोसना,दरअसल उनकी कमियों को अपने उपर पर्दे की तरह इस्तेमाल करने जैसा है? ये वो मौका है,जहां नए लोगों को नसीहतें देने के पहले पुराने और सालों से जमें एंकरों को अपने भीतर के खोखलेपन और भुरभुरी जानकारी को देखने-परखने की जरुरत है?
मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर
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न्यूज24 के बारे में हमें जानकारी मिली कि वहां के मीडियाकर्मियों को दीवाली के मौके पर प्रिया गोल्ड बिस्किट के गिफ्ट पैक दिए गए। इसके अलावे न तो किसी तरह की बोनस और न ही चैनल की कोई निशानी ही। लिहाजा,उसे हमने फेसबुक पर साझा किया। फेसबुक पर एक के बाद एक कमेंट आने शुरु हुए जिसमें ये बताया गया कि कुछ चैनलों की हालत तो न्यूज 24 से भी खराब है। जो मीडियाकर्मी सार्वजनिक तौर पर कमेंट नहीं कर सकते थे,उन्होंने बारी-बारी से हमें फोन करके बताना शुरु किया कि उनके यहां तो तीस रुपये की कुरकुरे पैकेट में ही निबटाने पर राय-मशविरा चल रहा है,कुछ ने कहा कि हमारे यहां तो वो भी नहीं दिया गया। बात गिफ्ट पैक से शुरु हुई थी और वो सैलरी तक आकर विस्तार पाने लगी। अभी सबकुछ फन में चल रहा था,लोग एक-दूसरे चैनल की बात बताकर मजे ले रहे थे लेकिन आज सुबह जो फोन मेरे पास आया,उसे सुनकर फन का ये अंदाज एक मिनट में अवसाद में बदल गया। लगा कि न्यूज चैनलों के भीतर की जो बिडंबना है वो 32 रुपये की मांटेक सिंह वाली हैप्पी इंडिया से भी ई गुना बदतर है।

उसकी आवाज में एक खास किस्म का दर्द था। सर,तीन दिन से सोच रहे थे कि एचआर कुछ पैसे दे देगा तो घर जाने में राहत होगी। घर जाने के लिए टिकट बनी हुई है लेकिन जेब में सिर्फ दो सौ रुपये हैं। अभी कुछ दिन और दिल्ली में काटकर,ऑफिस की ड्यूटी बजाने के बाद जाना है। ऐसे में अगर सैलरी नहीं मिली तो हम क्या करेंगे? क्यों,तुम्हारे पास कुछ बचे पैसे भी तो होंगे और फिर किसी कूलीग से ले लेना। मेरे इस सवाल पर उसका और भी उदास कर देनेवाला जबाब था- सर जिनकी सैलरी पचास हजार से उपर है,उन्हें तो जुलाई से ही सैलरी रोक दी गई है और बाकी हम जैसे लोगों को अगस्त के बाद से पैसा ही नहीं मिला है। दीवाली में उम्मीद थी कि कुछ पैसे मिल जाएंगे,कुछ नहीं हुआ और उपर से आज के दिन भी शिफ्ट। नरक है सर नरक। मेरे मन में न जाने क्या आया-बेतुका सा सवाल कर गया- अच्छा ये बताओ,तुम्हारे यहां चाय-कॉफी की मशीन तो लगी होगी। ले आओ बिस्किट और पीओ दबाकर चाय। मैं तो ऑफिस की खुन्नस इसी तरह उतारा करता था। मुझे इन्टर्नशिप के दौरान वीडियोकॉन टावर की सातवीं मंजिल की वो बालकनी याद हो आयी जहां मैं और मेरा एक लेखक दोस्त चेनस्मोकर की तरह चाय पीते। खैर,उसका जबाब था-

सर,कहां रहते हैं आप? ऑफिस क्यों लगाएगी मशीन? ठीक से पानी का इंतजाम हो जाए वही बहुत है। आज तो ऑफिस में मातम-सा माहौल है। एख तो लोग बहुत कम आए हैं,उपर से सैलरी नहीं मिली है तो लोगों ा मन वैसे ही बुझा हुआ है। लगा कि कुछ नहीं तो आज की शिफ्ट में जो हैं,उन्हें मिठाई बांटी जाएगी,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वो जब सबकुछ ऐसा बता रहा था तो लग रहा था कि कलेजा कट रहा हो। दीवाली पर मैंने भी कोई तैयारी नहीं थी,बस ये था कि दोपहर तक काम पूरी करके अच्छे से नहा लिया जाएगा और जो कुछ रखा-पड़ा है,उसे गर्म करके खा लेंगे। फोन पर चौदह बार दी गयी मां की नसीहतें और अधिकार जताने की हद तक सलाह देनेवाले  दोस्तों ने जब कहा -इंटल मत बनने लगना ज्यादा,मातम नहीं मनाने लगना कुछ नहीं तो मिठाई खा लेना और कैंडिल जला लेना तो लगा चलो थोड़ी ही सही तैयारी कर लेगें,उनका मन रखनेभर के के लिए। लेकिन फन में फेसबुक पर लिखी गई इस स्टेटस ने मन को एक के बाद एक कसैला कर दिया। बहरहाल

स्क्रीन पर दुनियाभर के चटकीले रंग शामिल कर लिए गए हैं। फैब इंडिया की भारतीयता से पूरा चैनल अटा पड़ा है। डार्क कत्थई,मरुन,बॉटल ग्रीन,गुलाबी जैसे रंगों में लिपटी चैनलों की एंकर दुनिया को बता रही है कि पूरे देश में कैसे दीवाली को लेकर धूम मची हुई है? मुझे तो हैरानी इन एंकरों पर होती है कि हजार-बारह सौ की सूट-सलवार और साड़ी में दुनिया को इतनी बड़ी खुशफहमी में रखने की कला कैसे सीख जाती है? वो बुलेटिन पढ़ने से पहले या बाद में क्या एक बार भी कैमरामैन,पीसीआ,फ्लोर मैनेजर औऱ स्पॉट ब्ऑय की तरफ नजरें नहीं घुमाती,अगर ऐसा नहीं करती तो सचमुच कितनी प्रोफेशनल है और घुमाने के बाद भी ऐसे ही खुशहाल इंडिया की खबरें पढ़ती चली जाती है तो सच में एक क्रूर कला है जिसका तेजी से विकास हो रहा है। मुझे तो ग्राफिक्स डिजायनरों पर भी हैरानी होती है कि क्या खाकर स्क्रीन पर इतने रंग भर देते हैं? माफ कीजिएगा,मैं एनडीटीवी की पैदा की गई पत्रकारिता की इस वरायटी को बिल्कुल भी फॉलो नहीं करना चाह रहा था कि जिस समय पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा हो,ठीक उसी वक्त किसी बच्चे को भीख मांगते दिखा दो। लेकिन यहां तो स्थिति उससे भी बदतर है। चैनल मंहगाई बम और मिठाई में मिलावट दिखाकर सरकार और सेठों की दीवाली तो जरुर खराब करने की कोशिश करता है लेकिन चैनल के भीतर का जो सच है,उस पर कौन बात करेगा?

उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करनेवाले चैनल लाइव इंडिया का आका सुधीर चौधरी ट्विट करता है- So Diwali celebrations begin! Here is the first shot by my son. yfrog.com/h7yjayesj। लेकिन उसकी इस ट्विट से वहां के मीडियाकर्मियों पर क्या बीतेगी,इसकी चिंता उसे रत्तीभर नहीं है। एक ने नाम बदलकर लिखा-इस दिवाली ये अपने बेटे के साथ पटाखे जलाता ट्वीट कर रहा है. चैन की बंसी बजा रहा है लेकिन लाइव इंडिया के लोग बिना सैलरी बिना बोनस काली दिवाली मनाने को मजबूर हैं "।  ये उस मानसिकता के मीडिया मैनेजर हैं जिनके हिसाब से मरनेवालों के साथ मरा नहीं जाता में यकीन रखते हैं लेकिन वो ये नहीं समझ पा रहे हैं कि पटाखे में लगायी जानेवाली आग कभी उन तक भी पहुंच सकती है।

आप मीडियाकर्मियों की उस मनःस्थिति की कल्पना करें जो दीवाली के नाम पर एक से एक सॉफ्ट और खुशहाली दिखानेवाली स्टोरी बना रहा हो लेकिन उसके भीतर रत्तीभर भी इस पर्व को लेकर उत्साह नहीं है। उसके पास इतने भी पैसे नहीं है कि वो आज के दिन कायदे से खा सके। बीबी-बच्चों के लिए कुछ घर ले जा सके। चैनलों का जो चमकीला चेहरा दिखता है,स्क्रीन पर पूरी दुनिया के सामने जो दिखाया जाता है,उसके भीतर कितना बड़ा काला सच दबा है,ये तब तक हमारे सामने उभरकर नहीं आएगा जब तक कि मीडियाकर्मी स्वयं इसके खिलाफ नहीं उतरेंगे और हमें पूरी उम्मीद है कि वो नहीं उतरेंगे। वो आज के इस मीडियाकर्मी की तरह ही हम जैसों को फोन करेंगे और बाद में कई बार दोहराएंगे,कुछ लिख मत दीजिएगा।

मुझे उसकी पूरी बात फोन पर सुनकर गुस्सा आ रहा था। थोड़ी देर के लिए उस पर और बाकी समय उस मीडिया संस्थान पर जहां के लिए वो काम कर रहा है। मैंने एक सवाल किया- काशी का अस्सी पढ़े हो? उसने कहा-नहीं। नहीं पढ़े हो तो पढ़ लो और जिस तरह से काशीनाथ सिंह बनारस के लोगों के बारे में लिखते हैं न कि दुनिया को लौड़े पर लेकर चलना यहां के लोगों की आइडेंटिटी है,उसी तरह से जीना शुरु करो। अपने अभाव को अपने उपर हावी होने देने से अच्छा है जाने दो होली,दीवाली,दशहरे को तेलहंड़े में। छोड़ों इन बातों पर भावुक होना या नहीं तो एक काम करो- जिस मीडिया हाउस में काम करते हो,उसका नाम टीशर्ट पर लिखकर जाकर उन्हीं मंदिरों और आश्रमों के आगे दो-चार दिन बैठ जाओ,जहां चैनल को सबसे बेहतरीन फुटेज मिलती है और जो कन्सर्न स्टोरी में लगाने के काम आती है। इसने तुम्हारी दीवाली खराब की है,तुम इसकी ब्रांड खराब करो। लिखो कि- इस चैनल में नौकरी की तो दीवाली जाएगी तेलहंड़े में। मेरी इस राय पर वो ठहाके लगाने लग गया लेकिन मुझे यकीन है कि वो ऐसा कभी नहीं करेगा। फिर किसी को फोन करेगा और इस दीवाली का रोना रोएगा, वो अभिशप्त है कहानी सुनाने के लिए और हम अभिशप्त है देश के बूढ़े,लाचार,भिखमंगे से कहीं ज्यादा ऐसे मीडियाकर्मियों के प्रति सहानुभूति रखने के लिए।
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गजीत सिंह नहीं रहे। इस खबर को सुनने के बाद मेरे दिमाग में सबसे पहली पंक्ति आयी – टोरेक्स कफ सिरप है तो अलविदा खांसी। खांसी का मौसम तो अभी शुरू ही हुआ है, नये सिरे से टोरेक्स कफ सिरप की बिक्री और विज्ञापन का दौर अभी शुरू ही हुआ है कि उससे पहले ही इस सिरप को लेकर दावे करनेवाला शख्स हमारे बीच से चला गया। जगजीत सिंह के लाखों कद्रदानों के लिए ये अफसोस और एक हद तक नाराज हो जाने तक की भी बात हो सकती है कि जिस शख्स ने जिंदगी और मौत के बीच लगभग सारे मनोभावों और अनुभूतियों को स्वर दिया, उसके गुजर जाने के ठीक बाद हम जैसों को टेलीविजन में ही सूचना, ज्ञान, आनंद, एक हद तक जीवन और इजहार के शब्द खोजनेवाले फटीचरों को उनकी कोई गजल की पंक्ति या नज्म याद आने के बजाय खांसी दूर करने के विज्ञापन याद आते हैं। आज इस सिरप कंपनी ने टेलीविजन चैनलों पर जगजीत सिंह को जमकर श्रद्धांजलि दी और उसी तरह से याद किया, जैसे उनके शागिर्द याद कर रहे हैं। ये बाजार के बीच से पैदा होनेवाली नयी किस्म की संवेदनशीलता है, जो कि अपने ब्रांड एंबेस्‍डर के गुजर जाने के बाद, मातम के बीच भी संभावना की तलाश करती है।

पता नहीं अब जबकि जगजीत सिंह नहीं रहे, उनकी गायकी पर टोरेक्स कंपनी कितना भरोसा करती है, दर्शक इस भरोसे से अपने को कितना जोड़ पाते हैं और इस विज्ञापन के प्रति मिथक और पौराणिक कथा जैसी श्रद्धा पैदा कर पाती है कि नहीं? लेकिन अगर टेलीविजन के विज्ञापन दर्शकों को उपभोक्ता में तब्दील करके बाजार तक पहुंचाने की एजेंसी होने के साथ-साथ, इसका संबंध अलग-अलग क्षेत्रों में प्रभावी व्यक्तित्व और भावनात्मक ट्रेंड को शामिल करने से भी है, तो यकीन मानिए कि कुछेक सालों से जगजीत सिंह के टेलीविजन पर बने रहने की ठोस वजह टोरेक्स कफ सिरप का विज्ञापन रहा है। विज्ञापन की शक्ल में ही सही, उनकी ये मौजूदगी लाखों टीवी दर्शकों को ये बताती रही कि वो इस देश के न केवल सबसे बड़े गजलकार हैं बल्कि उनकी गायकी हर दौर और उम्र के लोगों के बीच प्यार करने और होने की संभावना को जिंदा रखती है। नहीं तो न्यूज चैनलों के लिए जगजीत सिंह की गायकी और जिंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसके बीच से खबर पैदा की जाती, पैकेज और फिर टीआरपी के बताशे बनाये जाते, उनके अलबमों का भी इस तरह से प्रोमोशन नहीं हुआ करता कि शुक्रवार की शाम रियलिटी शो में जाकर कलाकार ऑन डिमांड बन जाते। ले-देकर ये एक अकेला कफ सिरप का विज्ञापन था, जिसने कि सास-बहू सीरियलों से लेकर “क्या एलियन गाय का दूध पीते हैं” और “तेरी मां की… [बीप]” से होकर गुजरनेवाले हर दूसरे रियलिटी शो और उनके दर्शकों के बीच जगजीत सिंह की मौजूदगी को बनाये रखा। जगजीत सिंह की आवाज और गले के प्रति भरोसा अगर टोरेक्स जैसी कफ सिरप के विज्ञापन के जरिये ही बरकरार रह पाती है, तो ये बाजार और विज्ञापन की तिकड़मी चाल हो सकती है और है भी लेकिन टेलीविजन के जरिये जगजीत सिंह को याद रखने का इसके अलावा और कौन सा विकल्प रह जाता है?
उनकी मौत पर इस प्रसंग को उठाना इसलिए भी जरूरी है कि जिस तरह से चैनलों ने उनकी याद में स्पेशल प्रोग्राम से लेकर खबरों का प्रसारण किया, उससे स्पष्ट हो गया कि पॉपुलरिटी के दावे और प्रसारण के बीच टेलीविजन के खुद के दावे कितने खोखले हैं?
न्यूज24 नाम के चैनल ने अपने कार्यक्रम का नाम दिया – जगजीत सिंह की कहानी, जगजीत सिंह की जुबानी। चैनल ने बड़े शान से बार-बार फ्लैश चलाया – टेलीविजन पर पहली बार। सवाल है कि अगर जगजीत सिंह की कहानी स्‍वयं उनकी जुबानी टेलीविजन पर पहली बार आया, तो ये टेलीविजन या किसी चैनल के लिए गा-गाकर बताने की बात है या फिर डूब मरने की? अव्वल अगर ऐसा कोई पहला कार्यक्रम नहीं होगा, तो चैनल खुद ही झूठ बोल रहा है और सच भी है, तो क्या चैनल के लिेए इस गजलकार की मौत का मतलब दावे और सट्टे लगाने भर के लिए है? मनोरंजन की खबरों से अटे पड़े चैनलों के बीच हम ऐसे ही मौके पर समझ पाते हैं कि मुख्यधारा के नाम पर पनपनेवाले मीडिया मशरूमों ने पॉपुलरिटी के नाम पर क्या किया है? जिस गजलकार को सुनते हुए कम से कम तीन पीढ़ियों के बीच के लोग जवान और बूढ़े होते रहे, इन चैनलों ने उस लोकप्रियता को अपने से बिल्कुल बेदखल कर दिया और लोकप्रियता के नाम पर जो गायक, गीत और गजलें शामिल की जाती रही हैं, वो विशुद्ध रूप से वितरण और प्रोमोशन के बीच की धंधेबाजी का हिस्सा रही है। आज जिस गजलकार के लिए एक तरफ लगभग सारे न्यूज चैनल बता रहे हैं कि उनकी मौत से पूरा देश सदमे है, वहीं दूसरी तरफ एक चैनल ये भी दावे कर रहा है कि उनकी जुबानी पहली बार उनकी कहानी पेश की जा रही है। यह तो अपने ही भीतर के भौंड़ापन को उघाड़कर सामने रख देने काम हुआ, जिसके व्यक्तिगत स्तर पर उपलब्धि होने के बावजूद टेलीविजन के लिए शर्म से सिर झुका लेनेवाली बात है। इस दावे ने ये स्पष्ट कर दिया कि टेलीविजन ने जगजीत सिंह को पॉपुलर नहीं बनाया जो कि आज उनकी मौत की खबर को बेशर्मी से हथियाने में जुटा है। उनके लगभग सभी कार्यक्रमों में वो आधार और विश्लेषण सिरे से गायब है, जिसने जगजीत सिंह को इतना अधिक पॉपुलर बनाया, जिसके लिए सीएनएन-आइबीएन ने गजलजीत सिंह का प्रयोग किया।
जगजीत सिंह मुख्यधारा मीडिया और सिनेमा से कहीं ज्यादा कैसेट(बाद में सीडी) के जरिये लोगों के बीच लोकप्रिय हुए। पीटर मैनुअल ने अपनी किताब “कैसेट कल्चरः पॉपुलर म्यूजिक एंड टेक्नलॉजी इन नार्थ इंडिया” में संस्थानों, व्यवस्थित मंचों से अलग संगीत के पॉपुलर होने के जिन तर्कों की चर्चा की है, उसके हिसाब से कैसेट ने मुख्यधारा मीडिया के समानांतर एक मजबूत माध्यम का काम किया। जगजीत सिंह की गजलें अगर आकाशवाणी की सत्ता की छन्‍नी से छनकर आती, तो शायद बीच में ही अटक कर रह जाती या फिर जगजीत सिंह पहुंच के स्तर पर दुर्लभ गजलकार करार दिये जाते। इस हिसाब से देखें, तो जगजीत सिंह यदि घर-घर और लाखों जोड़ी कानों के बीच पहुंचे हैं तो उसकी बड़ी वजह इसी समानांतर माध्यमों का योगदान रहा है। यह अलग बात है कि अलग-अलग दौर में इस माध्यम का रूप बदल गया। आकाशवाणी ने देश की संस्कृति का विस्तार करने का जो जिम्मा अपने ऊपर लिया था, उसमें एक तरफ शुद्धतावादी आग्रह (जो कि पॉपुलरिटी के खिलाफ जाती थी) और दूसरी तरफ व्यावसायिक हितों की रक्षा के लिए फिल्मी गीतों के प्रसारण ने संगीत की दुनिया के भीतर किस तरह की सड़ांध पैदा की, वो कल के न्यूज24 के दावे की तरह ही आगे भी खुलकर सामने आते रहेंगे। केशवचंद्र शर्मा ने रेडियो पर लिखी किताब “शब्द की साख” में चर्चा भी की है लेकिन इतना तो तय है कि गजल की दुनिया में जो पॉपुलरिटी जगजीत सिंह की बन रही थी, उसमें बहुत बड़ा हाथ रेडियो जैसे पॉपुलर माध्यम से कहीं ज्यादा कैसेट के कारण रहा। नब्बे के मध्य तक आते-आते जो रेडियो बुरी तरह लड़खड़ाता चला गया, उस वक्त कैसेट और आगे चलकर सीडी और डीवीडी ने ही ऐेसे गजलकारों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ट्रांसफर किया। हां, यह बात जरूर है कि इस कैसेट और सीडी इंडस्ट्री में भी कम झोलझाल नहीं था लेकिन कम से कम लोगों तक गजलों की पहुंच बन जाया करती थी।
अब जबकि एफएम रेडियो के आने के बाद से म्यूजिक ट्रैक को लेकर जो नये किस्म की धंधेबाजी, जिसे कि आप संगीत की दुनिया में माफियाराज का कायम होना कह सकते हैं, उसमें एक बार फिर से वही बर्बरता कायम हो गयी, जो कि कभी आकाशवाणी के जमाने में थी। फर्क सिर्फ इतना है कि आकाशवाणी की बर्बरता राजनीतिक और सत्ता की हैसियत के आधार पर कायम थी, अब एफएम चैनल पूरी तरह पैसा आधारित हो गये हैं। ऐसे में जगजीत सिंह की गजलें छोटे शहरों के एफएम पर या फिर वितरण से बाहर के गणित की गजलें नहीं बजती हैं, तो इस माफियाराज के संगीत की दुनिया का ही कारनामा है, लोग पसंद नहीं करते का तर्क नहीं है। ऐसे में एक बड़ा अफसोस तो रहेगा ही कि जीते जी जगजीत सिंह ने अपने उन कद्रदानों के लिए इस लिहाज से कोई लड़ाई नहीं लड़ी, जो उन्हें थोड़ा सुनकर आनंदित तो होते रहे, उनके कद को बड़ा करते रहे लेकिन जो इस नये संगीत माफियाराज के हाथों धीरे-धीरे बेदखल भी होते रहे। यूट्यूब की उम्मीद पर पलनेवाली मनोरंजन की दुनिया से इस तबके के लोग तो और भी अनजान और संसाधन के स्तर पर असमर्थ हैं। वैसे कहने को तो यह जरूर कहा जाएगा कि जगजीत सिंह की पॉपुलरिटी में हमेशा से समानांतर मीडिया ने बड़ा योगदान दिया जो कि अब यूट्यूब तक आकर ठहरती है। आगे दूसरे माध्यमों के विकास के बाद वो जगजीत सिंह को कितना आगे ले जाते हैं, यह देखना बाकी होगा।
सवाल है कि कैसेट संस्कृति के बीच से लोकप्रिय होनेवाले जगजीत सिंह ने गजल की दुनिया में आखिर क्या कर दिया कि गजल सुनने और न सुननेवालों के बीच की विभाजन रेखा खत्म होती जान पड़ती है। मतलब ये कि जो अटरिया पे लोटन कबूतर रे और ए स्साला, अभी-अभी हुआ यकीं (जेड जेनरेशन) सुननेवाला भी शाम से आंख में नमी सी है गुनगुनाता है और वो इस बात का दंभ नहीं भरता कि गजल सुन और गुनगुना रहा है बल्कि जगजीत सिंह को सुन और गुनगुना रहा है? चैनलों पर रजा मुराद की बाइट चली, “पूरी दुनिया में गजलों को जो लोकप्रियता मिली है वो दरअसल जगजीत सिंह की बदौलत मिली है। पहले गजलों में इतने मुश्किल अल्फाज हुआ करते थे कि आमलोगों के सिर के ऊपर गुजर जाते थे… गजल ने जगजीत सिंह को नहीं नवाजा है बल्कि जगजीत सिंह ने गजल को नवाजा है…” (स्टार न्यूज)। रजा मुराद की बात से स्पष्ट है (जिसकी लड़ाई आकाशवाणी और दूरदर्शन में जमकर चली कि क्या बेहतर संगीत, संस्कृति और कला है और क्या नहीं है) कि गजल को उच्च संस्कृति के तौर पर स्थापित करने की रवायत रही है, जिसका विस्तार गाने और सुननेवाले दोनों में क्रमशः एक खास किस्म के श्रेष्ठताबोध के पनपने का कारण रहा। आज भी आप तथाकथित पढ़े-लिखे समाज के बीच अभिरुचि को लेकर बात करें तो लोग गजल को प्राथमिकता के तौर पर शामिल करते हैं, जिसमें कई बार संभव हो कि ये स्टेटस सिंबल से ज्यादा कुछ नहीं होता। जगजीत सिंह ने गजल को लेकर इस श्रेष्ठताबोध और अकड़ को काफी हद तक खत्म किया और वही इनकी लोकप्रियता का आधार बना। जगजीत सिंह को सुननेवालों में इस बात की न तो कभी हेठी रही कि वो टिप्प-टिप्प बरसा पानी जैसे फिल्मी गानों से कुछ महान सुन रहा है और न ही इस बात को लेकर कभी कुंठा रही कि अगर वो मेंहदी हसन, गुलाम अली और बाकी दूसरे दुर्लभ और मंहगे कंसर्ट/सीडी में उपलब्ध होनेवाले गजलकारों को नहीं सुन रहा है तो गजल के नाम पर गजल का डुप्लीकेट सुन रहा है। उनकी गायकी ने कभी सुननेवालों से दुराग्रह नहीं किया कि तुम भाषा, सोच, चिंतन और ग्राह्यक्षमता के आधार पर खास हो सकोगे, तभी मुझे सुन सकोगे। वो दरअसल जगजीत सिंह को सुन रहा है, उसे चाहे जो भी नाम दिया जाए। कोई विधा किसी व्यक्ति का इस तरह पर्याय बन जाए, तो उसकी लोकप्रियता की जड़ें गंभीरता से खोजी जानी चाहिए।
विनोद दुआ लाइव की टेक रही कि चूंकि जगजीत सिंह की गजलों में नैस्टॉल्जिया है, इतिहास है और जिंदगी है इसलिए लोगों के बीच इस तरह से पॉपुलर है। यह बात लोकप्रियता के उसी आधार का विस्तार है, जहां गजल मनोरंजन के नाम पर कोई सत्ता बनने के बजाय लोगों को अपने-अपने तरीके से जोड़ने का जरिया बनती है। ये कम दिलचस्प बात नहीं है कि दो अलग-अलग पीढ़ी के लोगों के बीच प्रेम, रिश्ते, परिस्थितियों के बीच अलग-अलग अनुभव रहे हैं लेकिन उसका इजहार सटीक तौर पर जगजीत सिंह की उसी गजल से हो जाया करती है। ये साहित्य की तरह कालजयी होने का फार्मूला नहीं है बल्कि अनुभूति की उस लघुतम ईकाई को छू लेने की क्षमता है जो पीढ़ी दर पीढ़ी बदलते जाने के बावजूद भी बरकरार रहती है। यदि ये संगीत और मनोरंजन के स्तर पर गजलों के भीतर लोकतांत्रिक स्पेस का विस्तार है तो वही उच्च और निम्न सांस्कृतिक रूपों और झगड़ों को शांत करने की एक मुक्कमल कोशिश भी।
स्टार न्यूज की रिपोर्ट लोकप्रियता के इस आधार को थोड़ा और आगे ले जाकर सामाजिकता से जोड़ती नजर आयी। उसके हिसाब से जगजीत सिंह के कारण गजलें पहली बार माशूका की जुल्फों से निकल कर घर की देहरी में प्रेवश करती हैं और तब उसमें प्रेम के अलावा पारिवारिक जीवन के अनुभव, दर्द और सुखद क्षण शामिल होते हैं। स्टार न्यूज ये बात भले ही “ये तेरा घर – ये मेरा घर” जैसे गीतों के भावार्थ पेश करने के तौर पर कह गया और बाकी के चैनल भी उनकी पंक्तियों की गद्य़-शक्ल हमारे लिए पेश कर गये हों लेकिन नब्बे के दशक के पहले की पीढ़ी को नैस्टॉल्जिया से हटकर इस सिरे से विश्लेषण करने की दिशा में तो जरूर प्रेरित करता है कि अनुभूति की वो कौन सी लघुतम ईकाई है, जिसे पकड़कर जगजीत सिंह इतने दिलों पर राज करते आये। खय्याम के शब्दों में कहें तो दिल को जीतते रहे। चैनल इस मौके पर तो उनकी गजलों, गीतों को उठा-उठाकर अपनी भद्दी वॉइसओवर के साथ पेश करते ही रहेंगे। आज रात तक अधिकांश चैनल अपने कार्यक्रमों को दूरदर्शन की रंगोली की शक्ल देते ही रहेंगे लेकिन उच्च और निम्न संस्कृति के झगड़े और मनोरंजन की दुनिया में माफियाराज कायम होने की स्थिति में हमारा कलाकार किस हद तक लड़ पाता है, इस पर बात करें तो शायद हम नॉस्टैल्जिया को जगजीत सिंह की गजलों का मूल स्वर करार देने से अपने को बचा लें।
मूलतः प्रकाशितः मोहल्लाlive
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साल 2009 के लिए अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा और पुरस्कार राशि को सात लाख के बजाय पांच-पांच लाख किए जाने का निर्णय पहली नजर में  भारतीय ज्ञानपीठ की यह उदारता प्रभावित करती है। लेकिन तीन लाख का नुकसान सहते हुए भी ऐसा किया जाना न केवल नैतिक रुप से गलत है बल्कि राशि के आधी या कम किए जाने का प्रावधान अगर पहले से घोषित नहीं है तो फिर संवैधानिक रुप से नियमों का उल्लंघन भी है। साल 1999 में निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह के बीच भी आधी-आधी राशि बांटी गयी थी,तब भी इस पर विवाद हुआ था और इसे अनैतिक करार दिया गया था। संभवतः इसलिए अबकी बार पुरस्कार की राशि आधी करने के बजाय डेढ़ लाख बढ़ाकर दिया जा रहा है जिससे कि हिन्दी समाज की जुबान बंद की जा सके। लेकिन ज्ञानपीठ की इस कोशिश और फैसले से सम्मानित रचनाकारों के उपर क्या बीतेगी,इस सिरे से विचार किए बिना राशि का बंटवारा,यह किसी साहित्यिक संस्था के चरित्र से ठीक उलट मंडी में बैठकर दूकान चलानेवाले की प्रवृत्ति है जो अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष मुनाफे के लिए घोषित बाजार भाव को प्रभावित करता है या फिर कार्पोरेट की वह चालाकी जिसमें शर्तें लागू के तहत अपने तरीके की मनमानी करने की खुली छूट हासिल कर लेता है। 

भारतीय ज्ञानपीठ अगर ऐसा लगातार करता आ रहा है तो यह बात गंभीरता से समझने की जरुरत है कि कहीं वह मंडी के इसी पैटर्न पर काम तो नहीं कर रहा,जिसे इस बात का अतिरिक्त विश्वास है कि चूंकि वह साहित्यिक संस्थानों के बीच एक मजबूत मंच है,बाजार की एक मजबूत ताकत से संचालित है और उसमें बड़े से बड़े रचनाकारों को प्रभावित करने की क्षमता है तो वह कुछ भी कर सकता है। अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,सम्मानित करते हुए भी उसके आगे रचनाकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है और  तब रचनाकारों को दिया गया सम्मान उनकी कद और गरिमा को बढ़ाने के लिए नहीं,उनके मूल्यों, प्रतिबद्धताओं और स्वयं रचनाकार को दोजख में डालने के लिए है। ऐसे में यह कम बड़ी बिडंबना नहीं है कि जिस श्रीलाल शुक्ल ने जिंदगी भर सांस्थानिक ढांचे के भीतर फैले भ्रष्टाचार और व्यवस्था के विरोध में लिखा और उनकी रचना राग दरबारी इसके दस्तावेज के तौर पर पढ़ी जाती रही हैं,यह पुरस्कार उनके ही आगे ज्ञानपीठ के दरबार होने का एहसास कराता है जहां उन्हें अपने लिखे के प्रति फिर से प्रतिबद्धता साबित करने की स्थिति बनेगी।

पुरस्कारों को लेकर विवाद का यह कोई पहला मामला नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ से लेकर साहित्य अकादमी तक के पुरस्कार लगातार विवादों के घेरे में रहे हैं। कई बार तो यह इतना गहरा जाता है कि जिस मुख्यधारा की मीडिया के लिए साहित्य की दुनिया को शामिल किया जाना कोई मायने नहीं रखता,वह भी इन विवादों को हवा देने का काम करते हैं और साहित्येतर पाठकों को विवाद के जरिए ही पुरस्कार की खबर और संबंधित रचनाकार के बारे में जानकारी मिल पाती है। ऐसे में अक्सर बुद्धिजीवी समाज आनन-फानन में दो धड़ों में बंट जाते हैं जिनमें कि एक अनिवार्य रुप से संबंधित संस्थान के विरोध में होते हैं,पुरस्कार दिए जाने के तरीके को लेकर सवाल खड़े करते हैं जबकि दूसरा संस्थान के समर्थन में प्रहरी के तौर पर खड़े हो जाते है। लेकिन दोनों ही स्थितियों में पुरस्कृत रचनाकारों पर बेवजह नैतिक दबाव बनने शुरु होते हैं कि आखिर वह पुरस्कार स्वीकार करे भी या नहीं।

 संभव है 2009 के ज्ञानपीठ पुरस्कार को लेकर जो फैसले आए हैं और जिस तरह से लोगों ने इसके विरोध में लिखना शुरु किया है,अंत तक आते-आते यही स्थिति बने। यहीं पर आकर रचनाकार को दोजख में डालने का काम पहले तो संबद्ध संस्थान और फिर उनके विरोध और पक्ष में लिखनेवाले लोग करते हैं। लेकिन असल में सवाल यह नहीं है कि वे संस्थान के फैसले के पक्ष में या विपक्ष में हैं,सवाल है कि इस पूरे प्रकरण में रचनाकार की मनःस्थिति कैसी बनती है और हम उसे समझते हुए कितना साथ हो पाते हैं। अगर वह असहमति नहीं जताते हुए पुरस्कार ग्रहण कर लेता है तो उसके खिलाफ यह माहौल बनाने की कोशिशें तेज हो जाती है कि वह कुछेक रुपयों के लिए अपने जीवनभर के अर्जित मूल्यों से समझौता कर लिया और अगर नहीं ग्रहण किया तो आर्थिक स्तर पर उसे नुकसान उठाने पड़ते हैं जो कि कई बार उनकी अवस्था और जरुरत के प्रतिकूल होती है।

 इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू जो उभरते हैं,वह यह कि संस्थान के फैसले के पक्ष या विपक्ष में बात करनेवाले दोनों तरह के लोग इस बात को प्रमुखता से दोहराते हैं कि सम्मान का संबंध सिर्फ राशि से नहीं है बल्कि रचनाकार को उस लायक समझे जाने से है। सवाल है कि हिन्दी में लिखनेवाले और विमर्श करनेवाले लोगों के लिए दो लाख रुपये की राशि क्यों इतनी छोटी रकम है और वह भी तब जबकि लंबे-लंबे साहित्यिक लेखों के लिए हजार-पाच सौ से ज्यादा नहीं दिए जाते। महीनों लगाकर लिखी जानेवाली किताब की रॉयल्टी भी इतनी नहीं होती कि किसी रचनाकार का दो-चार महीने आसानी से कट जाए। जहां कुछ रुपयों और साधनों के लिए मार-काट मची रहती है,उसी समाज में दूसरों के पुरस्कार की राशि काटी जाने को लेकर इतना उदार बनने की कोशिश क्यों की जाती है? यह बहस बिल्कुल अलग है कि साहित्य या कला का मूल्य दूसरी किसी भी वस्तु की तरह आंकी नहीं जा सकती लेकिन जिस रचनाकार ने अपना पूरा जीवन इसके पीछे लगा दिया,उसकी भी तो आखिर में पुरस्कार के तौर पर कीमतें लगा ही दी जाती है, तो फिर वो पांच लाख ही क्यों,सात लाख क्यों नहीं

फिर यह राशि ऐसे अस्सी पार रचनाकार को दिया जाना है जिनके लिए विचारधारा,सामाजिक प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण जैसे सवालों के साथ-साथ अवस्था के अनुसार जरुरत का सवाल भी उसी प्रमुखता से जुड़ा हुआ है। अमरकांत के मामले में यह बात तो बेहतर रुप से स्पष्ट है। इस स्थिति में बेहतर यह नहीं होगा कि आगे संस्थान के इस फैसले के प्रतिरोध में जो भी कुछ लिखा जाए,उसमें पूरी राशि दिलाने की कोशिशें शामिल हो और जिन संस्थानों को ऐसा लगता है कि पुरस्कार देना उनकी उदारता का हिस्सा है,उन्हें व्यावसायिक स्तर पर उनके क्या हित होते हैं, इनके मायने लोगों के सामने लाए जाएं?

भारतीय ज्ञानपीठ ने किसी रचना के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म के आधार पर पुरस्कार देने का जो प्रावधान किया है, अगर उनके निर्णायक मंडल सही संदर्भों में समझने की कोशिश करें तो वह दरअसल सिर्फ उस रचनाकार का सम्मान भर नहीं है बल्कि उसकी अवस्था का भी सम्मान है। ऐसे में उसके उपर लिखे के मूल्यों की रक्षा करने और अवस्था की जरुरतों,मनःस्थितियों को समझने की दोहरी जिम्मेदारी बनती है। जिस अमरकांत,निर्मल वर्मा जैसे रचनाकारों  के लिए हजार-दो हजार रुपये की राशि खर्च करने के पहले जरुरतों को उसकी प्राथमिकता के आधार पर सोचने के लिए बाध्य करती हो,उनके हिस्से के ढाई-दो लाख रुपये की कतर-ब्योत उनके मन को कितनी चोट पहुंचाएगी,यह किसी भी आधार पर नहीं तो कम से कम मानवीय पहलू पर सोचने को मजबूर करती है। फिर गुरदयाल सिंह जो कि इस मौजूदा निर्णायक मंडल में शामिल है,उनके साथ भी 1999 में ज्ञानपीठ ने ऐसा ही किया था,वे खुद इसके शिकार हुए और विवाद होने के बावजूद संकोची स्वभाव के होने की वजह से निर्मल वर्मा ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। अबकी बार ज्ञानपीठ ने फिर से ऐसा करके रचनाकारों को इस बात के लिए बाध्य किया है कि वे इस मामले में चुप्पी साध लें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी उदारता और बड़प्पन पर प्रश्नचिन्ह लगने तय है।

दूसरी तरफ, इस तरह से पुरस्कार देकर रचनाकारों को दोजख में डालने का काम कहीं निर्णायक मंडल के खुद ही दो धड़ों में बदल जाने की परिणति तो नहीं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि साहित्य को लेकर किया जानेवाला निर्णय गणित या प्रतियोगिता परीक्षाओं के वैकल्पिक सवालों और वस्तुनिष्ठ जबाबों की तरह नहीं होता कि दो अलग-अलग मिजाज के रचनाकारों को एक ही धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया जाए। इस संबंध में फेसबुक पर जो चर्चाएं चली, जब मैंनें अपनी वॉल पर लिखा- मैनेजर पांडे से मैं अपने को इमोशनली बहुत जुड़ा पाता हूं। उन्हें पढ़ते हुए मैंने साहित्य के प्रति कच्ची-पक्की जैसी भी समझ विकसित की है। बहुत ही सहज शब्दों में जो बात कह जाते हैं वो दिल तक उतर जाती है। हाल ही में राजेन्द्र यादव पर लिखा पढ़ा। लेकिन कल देर रात तक परेशान रहा। जो आदमी आज से ठीक एक साल पहले रवीन्द्र कालिया छिनाल प्रकरण के विरोध में सड़कों पर उतर आया था,एक साल बाद ज्ञानपीठ की निर्णायक समिति में जाकर दो लोगों को संयुक्त पुरस्कार पर मुहर लगा जाता है। अगर राशि आधी-आधी बंटी तो पांडेजी पर से रहा-सहा भरोसा टूट जाएगा।उसमें वीरेन्द्र यादव ने मेरी दीवार पर प्रतिक्रिया स्वरुप लिखा कि- आप पता करें कि  पुरस्कार समिति की बैठक में क्या मैनेजर पांडे जी ने श्रीलाल शुक्ल को पुरस्कार दिए जाने के प्रस्ताव का समर्थन न करके अशोक वाजपेयी का नाम प्रस्तावित किया था.आपका भरोसा न टूटे तो फिलहाल यह भी याद कर लीजिए कि हैदराबाद मे पांडे जी के अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता भी अशोक वाजपेयी ने की थी.हित-संतुलन का यह दृश्य अधिक भरोसा तोड़ने वाला है. नहीं ???” वैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में मैनेजर पांडे के जन्मदिन के मौके पर आयोजित समारोह/संगोष्ठी इसलिए भी अविस्मरणीय है क्योंकि उसमें उनके लगभग सभी शिष्यों ने व्याख्यान दिया था। 

बहरहाल,अगर पुरस्कार की निर्णायक मंडली में शामिल होना कर्ज उतारने और एहसान चुकाने का ही माध्यम है तो फिर सम्मानित रचनाकारों को इसका निशाना बनाया जाना क्यों जरुरी है, और वह भी अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल जैसे ऐसे रचनाकारों को जो कि इससे बहुत पहले साहित्य अकादमी,दूसरे बड़े सम्मानों सहित पाठकों की ओर से सम्मानित किए जा चुके हैं। निर्णायक मंडल आपस के उन्हीं लोगों को इस पुरस्कार में शामिल क्यों नहीं कर लेते,जिससे बिना खेमे के जीने और लिखनेवाला रचनाकार पुरस्कार पाने के बाद दोजख में जाने और आखिरी दौर में भी आकर नैतिकता साबित करने के पचड़े से बच जाए। कहीं ऐसा करके ज्ञानपीठ सहित उसके फैसले में शामिल लोग अपने भीतर के स्वार्थ और उससे उपजे लिजलिजेपन को ढंकने की कोशिश तो नहीं करते आए है?

भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से पुरस्कार देने का जो चलन है,उसका विकसित या कहें विकृत रुप,  उसके निर्धारण का आधार रचनात्मकता के बजाय रचनाकार की अवस्था है। यह उसके पूरी तरह घोषित न किए जाने के बावजूद भी स्पष्ट है। युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए वे युवा रचनाकार योग्य हैं जो इसकी पत्रिका नया ज्ञानोदय में छपते आए हैं या फिर उनके द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में चयनित होते हैं। उपरी तौर पर यह उभरती प्रतिभाओं का सम्मान और प्रोत्साहन है लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह ज्ञानपीठ ब्रिगेड में शामिल करने की प्रक्रिया है जिसका इस्तेमाल विभूति-छिनाल प्रकरण जैसे मौके पर मूल्यों के बजाय व्यक्ति और संस्था के पक्ष में खड़े होने के लिए किए जाते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकार,रचना के स्तर पर भले ही उन मूल्यों और प्रतिबद्धताओं की बात करता नजर आ जाए,जो उसे संवेदनशील और रचनात्मक करार देते हैं लेकिन उन्हीं मूल्यों की धज्जियां जब संस्थान के भीतर उड़ायी जाती है,तब वह उसके प्रतिरोध में खड़े होने के बजाय उसके बचाव में कुतर्क प्रस्तावित करता है,हस्ताक्षर अभियान चलाता है। आगे चलकर उनकी ऐसी दोमुंही रचनाशीलता किस दिशा में विकसित होगी,यह अलग से बताने की जरुरत नहीं है।

 दूसरा पुरस्कार किसी रचना पर दिए जाने के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म पर दिए जाने का है। जाहिर है इसके लिए रचनाशीलता के साथ-साथ वरीयता का सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि ज्ञानपीठ ने इस आधार पर भी गड़बड़ियां की है फिर भी इस पर बात तो होनी ही चाहिए की कि रचनाकारों के लिए सम्मान उसकी रचनाशीलता के लिए है या फिर लेखन से सेवानिवृत होने के लिए। अगर ऐसा है तो फिर ज्ञानपीठ को समग्र रचनाकर्म के लिए पुरस्कार देने के बजाय आश्रय कोश का प्रावधान करना चाहिए  ताकि उसमें जिन रचनाकारों को आर्थिक और भावनात्मक स्तर पर जरुरत होगी,उन्हें शामिल किया सके। आखिर जिन रचनाकारों ने अपनी बहुत थोड़ी रॉयल्टी लेकर प्रकाशकों की सेहत बनायी रखी है,जीवन के अंतिम दौर में उनकी देखभाल की थोड़ी तो नैतिक जिम्मेदारी उन्हें लेनी ही पड़ेगी।

 अच्छा,ज्ञानपीठ इन दोनों अवस्था के आधार पर पुरस्कार देकर बीच की उम्र के रचनाकार लिख-पढ़ रहे हैं,उनको कितनी गंभीरता से समझ पा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी नजर में सिर्फ दो ही तरह के रचनाकारों पर नजर है- एक जो कि भविष्य में बेहतर रचनाकार हो सकता है,वह दूसरे खेमे में न चला जाए और उसे क्रेडिट मिल जाए उन पर और दूसरा जो कि बुजुर्ग हैं। इन बुजुर्ग रचनाकारों को सम्मानित किए जाने से संस्थान साख बनाए रखने की कोशिश और अपने पक्ष में ब्रांडिंग की रणनीति तय करता है। इन दोनों ही स्थितियों में रचनाशीलता,सरोकार और साहित्यिक मूल्यों के सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ समग्र रचनाकर्म के बजाय अपने अंतिम दौर में संघर्ष कर रहे रचनाकारों को अपनाता है और ज्ञानपीठ पुरस्कार को इस आधार से मुक्त रखता है तो इससे न केवल उनकी बेहतर मदद हो सकेगी बल्कि दो अवस्थाओं के रचनाकारों के बीच जो कुछ भी लिखा जा रहा है,उसका भी बेहतर मूल्यांकन और सम्मान हो सकेगा।   
(मामूली फेरबदल के साथ जनसत्ता में प्रकाशित, 2 अक्टूबर 2011) 
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