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अभी से बीस मिनट पहले जब फेसबुक पर स्टेटस लिखा- कुछ दिनों के लिए फेसबुक से विदा लेना चाहता हूं..मिलते हैं बहुत जल्द ही छोटे से ब्रेक के बाद..आगे और भी कुछ-कुछ बातें तो लोगों के कमेंट आने शुरु हो गए. कुछ लोगों ने कमेंट न करके मैसेज बॉक्स में अपना नंबर दिया और कहा- जब भी पटना आना हो, इलाहाबाद आएं तो बताएं..कभी जयपुर की तरफ आइएगा तो बताइएगा, हम आपको मिस करेंगे. ये सारे संदेश पढ़कर अचानक से मेरी आंखों में आंसू आ गए. 

लगा जिस वर्चुअल स्पेस को हिन्दी समाज और खासकर हिन्दी साहित्य के मठाधीश, जीमेल,फेसबुक अकाउंट विहीन साहित्यसेवी पानी पी-पीकर गाली देते हैं, वो कितने अंजान और उथले हैं इस माध्यम से.जिस शख्स से मैं जीवन में एक बार भी नहीं मिला, फेसबुक और ब्लॉग पर सिर्फ वो मेरी टिप्पणियों पढ़ते हैं, उन्हें मेरे इन सबों से कुछ दिनों तक दूर रहने पर अच्छा नहीं लग रहा है और ये कहते हैं कि इंटरनेट की दुनिया एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से अलग करती है. माफ कीजिएगा, मैं उन खुशनसीब लोगों में से नहीं हूं जिसे कि किसी बुआ ने, किसी मौसी ने फोन करके इतने प्यार से कहा हो कि कभी धनबाद आना, कभी गया आना, कभी झुमरी तिलैया आना..

लेकिन ये वर्चुअल स्पेस के मेरे दोस्त कितने प्यार से मुझे बुला रहे हैं. उन्हें दुख हो रहा है कि मैं अपना अकाउंट डीएक्टिवेट करके उनके बीच से थोड़े वक्त के लिए जा रहा हूं. शुरु-शुरु में जब मैं वर्चुअल स्पेस आया था और लोग सिर्फ मेरी पोस्ट और चैट के बिना पर कहते थे- कानपुर आना तो मेरे यहां आना, इलाहाबाद आने पर बताना, अबकी बार कब रांची आइएगा, बिना मिले मत जाइएगा..उनकी ये बातें सुनकर लगा कि बस औपचारिकता भर के लिए या खुश करने के लिए ऐसा कह रहे हैं. लेकिन नहीं,

 मैं जब अविनाश( मोहल्लालाइव) के साथ ब्लॉगर्स मीट में इलाहाबाद गया तो सचमुच लोग मिलते के साथ ही उसी तरह का प्यार दे रहे थे जैसा कि चैट के दौरान आने का आग्रह किया था. रांची में प्रभातजी को जैसे ही पता चला कि मैं आया हुआ हूं, मिलने की जगह तय की और एक घंटे बाद स्कूटी ताने संत जेवियर्स कॉलेज की मेन गेट के सामने मिले. कुरुक्षेत्र में लोगों ने इसी तरह का प्यार दिया. शिमला,देहरादून सब जगह.

 आज से कोई चार साल पहले जुलाई की उमस भरी दुपहरी थी. मैं अपने हॉस्टल ग्वायर हॉल में टीवी के सामने उंघ रहा था. तभी फोन की घंटी बजी- अबे ओए, कहां है तू स्साले..फोन कहां रख दिया था,लग ही नहीं रहा था. मुझे एकबारगी तो गुस्सा आया, कौन ऐसे बात कर रही है ? फिर उधर से आवाज आयी- मनीषा बोल रही हूं चिरकुट, मनीषा पांडे भोपाल से. दिल्ली आयी हुई हूं तो यहीं के नंबर से कॉल किया. आज मिलेगा ? मैंने कहा हां लेकिन बेटे, मेरे साथ दो जगह जाना होगा- एक तो बुकशॉप और दूसरा कि बाजार,मुझे कुछ चीजें खरीदनी है. मनीषा से मेरी चैट भर होती थी और एकाध बार फोन. बाकी ब्लॉग पर टीका-टिप्पणी. वो आयी और वायदे के मुताबिक किताब की दूकान के साथ-साथ लेडिज पर्स,पटरी पर ऐसे ही मोल-तोल. न,न ये लो न..अरे वाह, तू तो बड़ा मस्त शख्स है यार.तेरे साथ तो कोई भी लड़की बिंदास लाइफ बिताएगी..हा हा. चार घंटे की मुलाकात में लगा ही नहीं कि मनीषा से मेरी पहली मुलाकात थी. 

 इसी तरह मुरैना से, पानीपत से, जयपुर से, पटना से, चेन्नई से, जालंधर से देश के न जाने किन-किन हिस्सों से लोग आते और फोन करते- विनीत आपसे मुलाकात हो सकती है. आमतौर पर मेरी बतकही शैली में लिखने के कारण लोगों को उम्मीद रहती है कि ये शख्स भसड़ करने में भी रुचि रखता होगा. खासकर साहित्य की दुनिया से जुड़े लोगों को बहुत आस रहती है कि मंडली जमाई जा सकती है लेकिन मैं निकलता ठीक इसके विपरीत हूं. मुझे लोगों से बहुत मिलना-जुलना पसंद नहीं. जब कि हम इमोशन या शेयरिंग के स्तर पर बहुत अपना और घर जैसा महसूस नहीं कर लेते. अजय ब्रह्मात्मज,रवि रतलामी,अनूप शुक्ल,पीडी,लवली ये सबके सब इसी वर्चुअल स्पेस के तो मेरे अच्छे दोस्त हैं. नाते-रिश्तेदारों से ज्यादा आत्मीय ढंग से बात करनेवाले..इन सबसे नहीं मिला तो क्या हुआ, मेरी दिमागी खुराक तो मिल ही जाती है न. खैर 

मीडिया,समाज,संस्कृति,टीवी,रेडियो..इन सब पर लिखते हुए भी, आलोचना करते हुए भी जीने के स्तर पर मैं वही टीन एजर बना रहना चाहता हूं जिसे कि कोई लड़की हाथ भर छू दे या गलती से छू जाए तो कनपटी गर्म हो जाया करती, पूछने पर नाम बता दे तो मार खुशी से नाचने लग जाए..मेरी लेखन की इस दुनिया में छोटी सी एक ऐसी दुनिया है जहां मैं कभी बड़ा नहीं होना चाहता. ये कुछ-कुछ उस तरह का लोभ है जैसे खरबूजा बेचनेवाला अपने तमाम नफा-नुकसान और ग्राहकों की खुशामदी के बीच भी सबसे उम्दा खरबूजा अपने लिए बचा कर रखता है. मैंने वर्चुअल स्पेस पर लिखते हुए इस दुनिया को सहेजने और विस्तार देने की कोशिश की है. चुन-चुनकर उनलोगों से दोस्ती की है जिनका रात के दो बजे फोन करना असहज नहीं लगता और सुबह सात बजे तक इस कान से उस कान तक मोबाइल इधर-उधर करते कभी जुबान से अब रखो नहीं निकलता. जिसे अपनी पूरी कहानी सामने धर देने पर इस बात का भय नहीं होता कि वो इसके साथ क्या करेगा, पीछे से कौन सी राजनीति करेगा ? यहां तक कि जीमेल पासवर्ड देते हुए भी डर नहीं लगा कि वो इसका बेजा इस्तेमाल करेगा ? ये सब आपको फैंटेसी लगती होगी न,कोरी भावुकता ?

 लेकिन यकीन मानिए, वर्चुअल स्पेस पर मैंने ऐसी जिंदगी जी है..लगता नहीं था कभी कि सचमुच सडांध के बीच इतनी खूबसरत दुनिया भी हो सकती है. थोड़े वक्त के लिए इस वर्चुअल स्पेस से विदा ले रहा हूं. बिना किसी ठोस वजह और किसी तरह के दवाब के. बस ये है कि यहां से जाना मेरी निजी जिंदगी में एक बड़ा खालीपन पैदा करेगा. लेकिन मुझे ये खालीपन चाहिए, मुझे इसकी जरुरत है ताकि मेरे इस खालीपन में मेरे सपने तैर सकें, उम्मीदें बढ़ सके, छोटे से जंगल का विस्तार हो सके और हम पहले से कुछ और ठोस होकर लौंटे. इस बीच किसी भी तरह की जरुरत हो तो मेल कीजिएगा, मैसेज या फोन कीजिएगा. vineetdu@gmail.com. mob- 8826950133
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सरकार निजी टीवी चैनलों के मामले में समय-समय पर जिस तरह के पैंतरे दिखाती है, एक आम दर्शक को लगता है कि वो निजी चैनलों के रवैये से खासा नाराज रहती है और चाहती है कि वो अपने भीतर पर्याप्त सुधार करे,सामाजिक विकास की दिशा में काम करे..लेकिन सच्चाई ये है कि खुद सरकार भी इन्हीं निजी चैनलों की एक बड़ी विज्ञापनदाता है जो इनकी हडिड्यां मजबूत करती है. दोनों के बीच सेवा प्रदाता और ग्राहक का रिश्ता है और कई बार इस रिश्ते की डो इतनी मजबूत दिखाई देती है कि निजी टीवी चैनल विज्ञापन के बदले उनके लिए संकटमोचन तक का काम करते हैं. ममता बनर्जी  के समर्थ न वापस लिए जाने की खबर के बाद भारत निर्माण विज्ञापन के जरिए सरकार ने कैसे इन्हीं चैनलों पर महज 12 दिनों में करीब पौने दस करोड़ रुपये लुटाए, इसका एक नमूना है. जिसके पीछे कोई ठोस तर्क नहीं है..आज जनसत्ता में छपे इस लेख से बेहतर समझ सकते हैं. इस दस करोड़ रुपये की कहानी प्रिंट,रेडियो और दूसरे माध्यमों पर लुटाई गई राशि से अलग है. संभव है वहां ये राशि अधिक ही हो.

 
इस देश के कॉरपोरेट टेलीविजन का इस्तेमाल सामाजिक विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में किस हद तक किया जा सकता है, यह बहुत संश्लिष्ट न होते हुए भी बहस का मुद्दा जरूर है। और यह मुद्दा कहीं न कहीं भारतीय टेलीविजन को लेकर बिल्बर श्रैम की दी गई उस अवधारणा के कारण है, जिसके अनुसार भारत जैसे गरीब और अशिक्षित समाज के लिए इसका उपयोग अनिवार्यतया सामाजिक सरोकार के लिए किया जाना चाहिए। नहीं तो कॉरपोरेट टेलीविजन क्या, सरकारी प्रसारण के तहत काम करने वाले टेलीविजन के संदर्भ में इतना समझने में भला किसे मुश्किल हो सकती है कि यह अपने शुरुआती दौर से ही सरोकार का मुखौटा डाल कर भीतर ही भीतर मुनाफे के एक ऐसे खेल में शामिल रहा, जिसके व्यवस्थित उद्योग की शक्ल न लेने के बावजूद एक धंधे का विस्तार हो रहा था। 

इस धंधे में जब कभी मंदी आती, वह मजबूती से सरोकार का मुखौटा पहन लेता और लाभ होने की स्थिति में उसे उपलब्धि के रूप में पेश करता। बाद में निजी टेलीविजन ने मुनाफे के इस धंधे को अपना मुख्य उद्देश्य बनाया, जबकि सरोकार और सामाजिक विकास को सरकारी प्रसारण की तरह ही मुखौटे की शक्ल में अपने से चिपकाए रखा। अगर यह खेल शुरू से ही लोगों के बीच स्पष्ट हो गया होता तो हम जैसे करोड़ों लोगों के बीच यह भ्रम शायद ही रह पाता कि टेलीविजन सामाजिक सरोकार का माध्यम है।

सरकारी प्रसारण का अपने पक्ष में जम कर प्रयोग किए जाने के बावजूद सरकार अगर निजी और कॉरपोरेट टेलीविजन चैनलों का इस्तेमाल तथाकथित सामाजिक विकास के लिए करती है तो इसका क्या आशय है, इसे समझने की जरूरत है। उसके ऐसा करने से सामाजिक जागरूकता के स्तर में किस हद तक बढ़ोतरी होती है, इस पर शायद ही कभी सर्वे या शोध कार्य उनकी तरफ से किए गए हों। लेकिन कॉरपोरेट टेलीविजन ने सरकार के हाथों एक फार्मूला जरूर पकड़ा दिया है कि इसमें जितने पैसे झोंके जाएंगे, टेलीविजन उनकी उपलब्धियों और समाज की उतनी ही चटकीली तस्वीर पेश करेगा।

सामाजिक स्तर पर भले हत्या, बलात्कार, महंगाई, भ्रष्टाचार और आए दिन सहयोगी दलों के साथ गठबंधन टूटने और खुद सरकार के गिरने का खतरा बना हो, लेकिन अंधाधुंध पैसे झोंकने की बदौलत टेलीविजन स्क्रीन पर जिस परिवेश की निर्मिति होगी, उनमें इन सबका कहीं कोई नामोनिशान नहीं होगा। उसमें वही सब कुछ होगा जैसा सरकार चाहती है या फिर उसके सपने में देश की जैसी शक्ल दिखाई देती है। टेलीविजन के इस फार्मूले के तहत सरकार की ओर से किए जाने वाले सामाजिक विकास का एक नमूना उसका ‘भारत निर्माण अभियान’ विज्ञापन है।

यहां हम सिर्फ पिछले सितंबर महीने की बात करें तो भारत निर्माण के नाम पर टेलीविजन पर सरकार ने महज बारह दिनों में करीब पौने दस करोड़ रुपए लुटाए। ये रुपए देश के निजी मनोरंजन और समाचार चैनलों पर तीन चरणों में लुटाए गए, जिसमें सिर्फ मनोरंजन चैनलों की राशि करीब छह करोड़ रुपए है।

विज्ञापन की इस राशि, टीवी चैनलों की सूची और संबंधित आंकड़ों पर गौर करें तो कई दिलचस्प तथ्य सामने आते हैं। यह भी कि दूरदर्शन पर जो भारत निर्माण हो रहा था, उसकी राशि क्या थी? क्या प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के तहत काम करने वाले दूरदर्शन के सभी चैनल अब भी सरकार की सेवा में लगे हैं या फिर प्रसार भारती के घाटे की भरपाई के लिए करोड़ों रुपए की जो राशि सरकार की ओर से दी जाती है, संकटकाल में उसी में ऐसे विज्ञापनों के दिखाए जाने का करार हो जाता है और व्यावसायिक दृष्टि से अलग से कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाता?

दूसरा कि निजी समाचार चैनलों पर सरकारी या चुनावी विज्ञापनों को देखते ही आम दर्शक अंदाजा लगाने की कोशिश करता है कि सरकार या राजनीतिक पार्टी विज्ञापन के जरिए इन पर प्रसारित खबरों को अपने तरीके से प्रभावित करना चाहती है। यह काफी हद तक सही भी है। नहीं तो जिस दौरान ये विज्ञापन दिए गए, ममता बनर्जी के समर्थन वापस लिए जाने की खबर विस्तार पाने के बजाय कपूर की तरह टीवी चैनलों से कैसे उड़ जाती या डीएलएफ, राबर्ट वडरा मामले में लंबे समय तक चैनलों की चुप्पी क्यों बनी रहती? 
मगर इन विश्लेषणों से कहीं ज्यादा दिलचस्प है कि सरकार ने ‘भारत निर्माण’ पर समाचार चैनलों के मुकाबले मनोरंजन चैनलों पर लगभग तिगुनी रकम लुटाई, जबकि इन चैनलों को सामग्री के स्तर पर सरकार के मुताबिक किसी भी तरह के फेरबदल नहीं करने पड़े। इनमें वे स्त्री-विरोधी, दहेज प्रथा समर्थक, वस्तु आधारित समाज से जुड़े टीवी धारावाहिक प्रसारित करते रहे, जो कि उनके एजेंडे में शामिल है। इसका मतलब है कि समाचार चैनलों के मुकाबले मनोरंजन चैनलों को सरकार की ओर से कहीं ज्यादा विज्ञापन राशि मिलती है, लेकिन उन्हें समाचार चैनलों की तरह सामग्री बदलने की जहमत नहीं उठानी पड़ती। 

तीसरी बात कि सरकार यह मानती है कि इस देश का टेलीविजन जिस टीआरपी व्यवस्था पर काम कर रहा है, उसमें पारदर्शिता नहीं है। पिछले दिनों सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसे मुद्दा भी बनाया, इस पद्धति के बदलने की बात भी की गई। यहां तक कि बाद में (26 जुलाई को) निजी चैनल एनडीटीवी की ओर से टीआरपी की मूल कंपनी निल्सन पर न्यूयार्क की एक अदालत में मामला भी दर्ज कराया गया कि गलत ढंग से और आंकड़े के साथ छेड़छाड़ करके पेश किए जाने   से उसे पिछले आठ सालों में करीब इक्यासी करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ है। 

मगर इन सबके बावजूद सरकार ने भारत निर्माण के विज्ञापन लिए चैनलों को जिस तरीके से राशि का निर्धारण किया, उसे देखते हुए लगता है कि उसने भी उसी गैर-भरोसेमंद टीआरपी को आधार बनाया, जिसके हटाने की बात वह करती आई है। नहीं तो जिस विज्ञापन के लिए स्टार प्लस को महज तीन दिन के लिए एक करोड़ इकतीस लाख पंचानबे हजार चार सौ चालीस रुपए तय किया, उसी विज्ञापन के लिए जीटीवी को महज उन्यासी लाख उनतीस हजार तीन सौ साठ रुपए क्यों? या फिर जिन तीन दिनों के विज्ञापन के लिए इंडिया टीवी को दस लाख सत्ताईस हजार तीन सौ पचास रुपए दिए गए, उसी के लिए एनडीटीवी को पांच लाख अस्सी हजार दो सौ तीस रुपए क्यों? 

इसमें एक और दिलचस्प मामला है कि इस विज्ञापन की सूची में ऐसे-ऐसे चैनल शामिल हैं, जिन्हें इसके लिए दस से बारह हजार रुपए दिए गए। ये चैनल टीआरपी की सूची में कहीं नहीं आते, न तो उनकी लोकप्रियता है और न ही सही दृश्यता। ऐसे चैनलों की राशि निर्धारण के पीछे टीआरपी के अलावा कौन-सी पद्धति अपनाई गई, यह समझ से परे है।

साथ ही ऐसे दो चैनलों के बीच राशि का जो फर्क किया गया, उसका आधार क्या रहा, इसे भी समझना मुश्किल है। शायद ऐसे ही चैनलों से निजात पाने के लिए सरकार सेटटॉप बॉक्स लगाने के लिए अलग से करोड़ों रुपए के विज्ञापन करवा रही है। 
2009 के लोकसभा में पेड न्यूज की घटनाओं के बाद सरकार इसके प्रति लगातार गंभीर दिखने की कोशिश करती रही है। यहां तक कि चुनाव आयोग के अलावा मंत्री-समूह का गठन किया गया है, ताकि मीडिया की जेब गरम करके अपने पक्ष में खबरें छपवाने पर रोक लगे। यह अलग बात है कि जनवरी में पंजाब विधानसभा चुनाव में पेड न्यूज का जो खुला खेल चला, उससे सारे दावे और प्रयास धरे के धरे रह गए। लेकिन इस तरह महज बारह दिनों में नौ-दस करोड़ रुपए उस विज्ञापन पर खर्च किए जाते हैं, जिसका संबंध किसी बीमारी या कुप्रथा पर रोकथाम या किसी दूसरे जागरूकता अभियान से नहीं है। वह शुद्ध रूप से सरकार का महिमा गान है, छोटे परदे पर गिनाई गई वे उपलब्धियां हैं, जिनका वास्तविकता से शायद ही संबंध हो। 

तो क्या समझा जाए कि 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर बाकी राजनीतिक पार्टियां बाद में सक्रिय होंगी! मगर सत्ताधारी पार्टी के पेड न्यूज का खेल साल-दर-साल चलता रहता है और इसके लिए उसने भारत निर्माण जैसे चोर दरवाजे खोल रखे हैं। ऐसे ही चोर दरवाजों से आवाजाही कॉरपोरेट टेलीविजन और सरकार को अपनी-अपनी जगह पर टिकाए रखती है। ऐसे में भारत का तो पता नहीं, चैनलों का निर्माण जारी रहता है।

विनीत कुमार, जनसत्ता 14 अक्टूबर, 2012:
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दस्तक पर संजीव को सुनते हुए

Posted On 9:04 am by विनीत कुमार | 1 comments


संजीव( संजीव कुमार,युवा आलोचक) को जब भी सुनता हूं, मुझे अपने स्कूल के पाठक सर की याद आ जाती है. किसी शिक्षक का व्यक्तित्व कितना प्रभावशाली होता है कि उनके विषय को न केवल आप मन से पढ़ते हैं बल्कि उनसे प्रभावित होकर उसी विषय से अपना जीवन और करिअर जोड़ने का फैसला ले लेते हैं. मैंने नौवीं-दसवीं कक्षा में जितने मन से साहित्य की पढ़ाई की, उतनी पढ़ाई डॉ. कामिल बुल्के शोध संस्थान में दो साल और फिर कभी नहीं. पाठक सर नौंवी कक्षा में ही लौंग्जाइनस, क्रोचे, आइ.ए.रिचर्ड्स पर किताबें देते और फिर कुछ दिनों बाद पूछते- कितना समझे..मैं थोड़ा-बहुत जो समझ पाता,बता देता. वो कहते- इतना समझ लिए,बहुत है. अंग्रेजीदां माहौल और करिअर मतलब साइंस के बीच हिन्दी पढ़ना,दोस्तों की निगाह में मैं अचानक से बेचारा बन गया था..लेकिन सच में किसी शिक्षक का आप पर कितना गहरा असर होता है कि आप सब झेल जाते हैं.

दिल्ली आने के बाद साहित्य से बहुत जल्द ही विरक्ति होने लग गई. शरीफा के पेड़ के नीचे मैला आंचल,राग दरबारी, झूठा सच पढ़ते हुए, बुल्के शोध संस्थान के कमरे में बैठकर भक्तिकाल, प्रगतिवाद,नई कविता आदि को पढ़कर जो समझ और साहित्य के प्रति जो भाव बने थे..वो तेजी से चटकने लगे. यहां लोग या तो विभागाध्यक्ष थे, या तो टीचर इन्चार्ज, या तो सबसे जुगाडू जिनके साथ होने का मतलब था नौकरी का मामला फिट, कोई दिनेश्वर प्रसाद जैसा खालिस शिक्षक नहीं मिले. सोचिए अगर यहां भी कोई पाठक सर जैसा मिल जाता या आज से आठ साल पहले संजीव मिल जाते तो मैं मीडिया की आए दिन की मारकाट और चिरकुटई पर तीर-तमंचा तानने के बजाए उसी साहित्य को लिख-पढ़ रहा होता, जिसके लिए मैंने बाकी शिक्षकों से,घर से, कुछ रिश्तेदारों से उपहास और व्यंग्य के शब्द झेले थे..संजीव को सुनते हुए एक टीस तो पैदा हो ही जाती है कि हम मीडिया की गली में इस तरह से रम गए कि ये भी याद नहीं रहता कि इसका मुख्य दरवाजा कभी साहित्य रहा था.

संजीव क्लास में क्या और कैसे पढ़ाते होंगे, कल्पना भर कर सकता हूं लेकिन मुझे पता नहीं क्यों,ये जरुर लगता है कि इस दिल्ली शहर में हिन्दी या तो मुगलसराय जंक्शन है( जब कहीं की सवारी न मिले तो यहां आ जाओ) या फिर जोड़-जुगाड़ का अड्डा है, कुछ ऐसे छात्र जरुर मिलेंगे जो इन सबसे वेपरवाह संजीव पर फिदा होकर हिन्दी पढ़ेंगे..हमने जिस माहौल में हिन्दी साहित्य पढ़ा, वहां दूर-दूर तक उसमें करिअर नहीं दिखाई देता था लेकिन पढ़ने के ललक और तड़प ज्यादा था..भीतर से इस बात पर नाज होता था कि हम एक विषय को नहीं बल्कि एक विद्रोह की भाषा सीख रहे हैं..जिस हिन्दी को बिहाउती लड़की और साड़ी-ब्लाउज का बिजनेस करते हए ग्रेजुएशन कर लेने का विषय माना जाता रहा हो, उनके बीच खूब मन से,बाकी विषयों में अच्छे नबंर लाते हुए, स्कूल का होनहार छात्र होते हुए( बाद में जिसने कि हिन्दी लेकर नाम हंसाया और ये बात खुद कॉलेज के प्रिसिंपल ने कही थी) हिन्दी पढ़ रहा था, ये विद्रोह ही तो था.

हम जैसे लोग हिन्दी साहित्य के सेमिनारों, साहित्यिक पत्रिकाओं के लिखने और उन पर बोलने से अक्सर बचते हैं..कोशिश यही रहती है कि जो हिन्दी की परंपरा का ईमानदारी से निर्वाह कर रहे हैं, सरोकारी लेखन कर रहे हैं, उनसे दूर रहें..किसी भी नामचीन के साथ न तो हाथ मिलाने का मन होता है और न ही साथ फोटो खिंचाने का..लेकिन समाज विज्ञान और साहित्येतर विषयों के बीच जब कभी संजीव को बोलते सुनता हूं तो लगता है हाथ में एक पीपीहा लेकर जोर-जोर से फूंकने लगूं- ये संजीव हमारी हिन्दी के हैं, हिन्दी साहित्य के हैं. हमें गुमान होता है कि जिस हिन्दी पब्लिक स्फीयर से बचते हैं, उसमें एक ऐसा शख्स है( बेशक कुछ और भी हैं, जिनकी चर्चा कभी करुंगा) जिन्हें सुनते हुए हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों के प्रति बनी समझ( कई बार स्टीरियोटाइप ही होते हैं) एक झटके में टूट जाती है. जिन लोगों की जुबान पर यू नो ये हिन्दीवाले तकियाकलाम की तरह चिपका रहता है, उनके मुंह से अचानक निकल जाता है- ऑसम..आइ कॉन्ट विलीव. मेरे ख्याल से हिन्दी को बचाने में जोहन्सबर्ग की बारात से कहीं ज्यादा खुदरे-खुदरे रुप में नजर आनेवाले ऐसे शिक्षक ज्यादा काम आते हैं.

कल यशोदा की किताब दस्तक पर बोलते हुए( समाज कार्य विभाग, दिल्ली विश्व) जब संजीव को सुन रहा था तो कुछ ऐसा ही लगा. उन्होंने कहा कि हालांकि प्रकाशकों की एक व्यावसायिक मजबूरी होती है कि वो किताब को किसी कैगेटरी में रखे और इसे समाज विज्ञान की कैटेगरी में रखा है..लेकिन ये समाज विज्ञान का एक पाठ हो सकता है लेकिन उसकी किताब नहीं है, ये साहित्य है..उन्होंने इस किताब के साहित्य होने के पीछे के जो तर्क प्रस्तावित किए, उसे सुनने के बाद हम साफ समझ पा रहे थे कि साहित्य के कितने बारीक और महीन औजार हैं( इसे आप स्क्रयू ड्राइवर किट भी कह सकते हैं) कि अगर कोई आमादा हो जाए तो इससे दुनिया जहान की न जाने कितनी पेंच खोल दे. संजीव का मानना है कि इस किताब ने विधागत विभाजन की आदत को संकट में डाल दिया है..मैं सोच रहा था कि सिर्फ विधागत विभाजन की आदत का संकट नहीं बल्कि साहित्यिक आलोचनाकर्म में सक्रिय लोगों को भी संकट में डालने का काम किया है जो भाषा, वाक्य-विन्यास और अवधारणाओं की जकड़बंदी से खुद तो बाहर नहीं ही निकल पाते, ऐसी किताबों को इन औजारों से नजरबंद करने का काम जरुर करते हैं. लेकिन ऐसी किताब बहुत ही सादेपन के साथ ये एहसास करा जाती है कि किताबी पन्नों के नोचकर लाए जाने और इन रचनाओं की आलोचना करने के क्रम में दोबारा से साटने भर से काम नहीं चलेगा..आपको उन ठिए और ठिकाने पर जाना होगा जहां सिर्फ रचनाकार भर के जाने की अनिवार्यता नहीं है..अब आलोचक को भी थोड़े-थोड़े ग्राम में पत्रकार, कहानीकार,रिपोर्ताज लेखक होना होगा नहीं तो हिन्दी में किताबें तो लिखी जाएगी लेकिन वो उन मूर्धन्यों के उद्धृत वाक्यों के मोहताज नहीं रह जाएगी.

 मैं ये भी सोच रहा था कि अगर इसी किताब पर चर्चा समाज विज्ञान विभाग से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित विभागों में होती तो इसमें पता नहीं हैबरमास, अल्थूसर, पीटर मैनुअल से लेकर उन किन-किन अध्येताओं और सिद्धांतकारों से लाद दिया जाता जिसके बारे में यशोदा ने शायद ही कभी विचार किया होगा. लेकिन अंत तक शायद ये समझ पाते कि हसीना खाला और जे.जे.कॉलोनी के बीच संदर्भ ग्रंथ नहीं जिंदगियां सांस लेती है और यशोदा ने उन जिंदगियों को इस नियत से शामिल नहीं किया है कि आगे इस पर कोई भाषा,शिल्प,संवाद योजना और अन्तर्वस्तु पर एम. फिल् करे. उसने बस इसलिए शामिल किया कि अगर नहीं करती तो खुद को बेदखल करती और बेतहाशा दिल्ली के बीच जब बड़ी आबादी बेदखल कर दिए जाने के बावजूद अपने वजूद में जीने की जद्दोजहद करती है तो अपने ही हाथों यशोदा क्यों ? बहरहाल

 संजीव ऐसे जड़ जमाए संकटग्रस्त आलोचक बिरादरी से अलग होते हुए विभाजन की आदत से मुक्त होती हुई दस्तक जैसी किताबों के आलोचक हैं. मुक्त रचना और उसके परिवेश को मिजाज से उतना ही मुक्त आलोचक मिल जाए, इससे बेहतर स्थिति क्या हो सकती है. मैं इन दिनों किसी भी रचना को जब पढ़ता हूं तो अक्सर ये सोचता हूं ये विधागत ढांचे को तोड़ पा रहा है कि नहीं क्योंकि जो किसी विधा में लिख रहा है वो लिखने के पहले ही एक तरह से उसके द्वारा निर्धारित हो जा रहा है कि वो क्या को कैसे लिखेगा ? संजीव की इस बात से हम जैसे न जाने कितने लोगों को ये उम्मीद बंधती है कि असल चीज है लिखना, ये मायने नहीं रखता कि आप लिखते हुए या लिखर कवि हो गए,आलोचक हो गए, कहानीकार हो गए या संदर्भ सूची सहित लेख लिखनेवाले अकादमिक साहित्यिक अधिकारी. ये कुछ-कुछ उन पाठकों की तरह का सुकून है जिसे गोदान पढ़ने के बाद होरी महतो और दातादीन के बीच के वर्ग संघर्ष या फिर इस उपन्यास को किसान जीवन की महागाथा प्रतिपादित नहीं करना है..उसे बस पढ़ना है..ऐसे एजेंड़ाविहीन लेखन-पठन की कद्र करनेवाले संजीव से इतनी उम्मीद तो हम आगे भी करते ही हैं कि यशोदा जैसे उन लेखकों को प्रोत्साहित करेंगे जिनके नाम विधा,विद्यालय और विश्वविद्यालय की रजिस्टरों में दर्ज नहीं है.
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जी न्यूज के बिजनेस हेड और संपादक सुधीर चौधरी ब्लैकमेलर का ठप्पा लगने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं. अगर नवीन जिंदल की शिकायत सही साबित हुई तो न्यूज मीडिया के लिए बड़ा कलंक होगा. सुधीर चौधरी को दूध का धुला साबित करने के लिए बीइए( ब्रॉडकास्टिंग एडीटर्स एसोशिएशन) ने जांच बिठायी है. बीइए के चाल-चरित्र से हम पहले से अवगत हैं इसलिए आश्वस्त भी कि सुधीर चौधरी को पाक-साफ साबित करने में वो किसी भी तरह की कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी. सेल्फ रेगुलेशन के तहत टीवी चैनलों के भीतर सुधार का दावा करनेवाली संस्था बीइए दरअसल मीडिया के स्वयंपोषित उन अड्डों में से है जहां मीडिया के धत्कर्मों पर पर्दा डालने का काम किया जाता है. संस्था की इस मामले में पूरी कोशिश होती है कि आरोपी चैनल या व्यक्ति को लेकर आनन-फानन में जांच करे और उसे मानवीय भूल करार दे. बहुत हुआ तो नैतिकता के आधार पर गलत करार दे जिसका कि कोई अर्थ नहीं रह जाता.

सुधीर चौधरी का इस मामले में बीइए की जांच में इसलिए भी कुछ नहीं हो सकता, उन पर किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं होगी क्योंकि बीइए ने अपने को लेकर जिस तरह का हउआ बनाया है, वैसा कुछ है नहीं,न तो कोई विशेश अधिकार है और न ही इसमें अगर किसी के खिलाफ फैसले लिए जाते हैं तो वो इसे गंभीरता से स्वीकार करेगा. उसे इस संगठन से अपने को अलग करने में दो मिनट भी नहीं लगेगा. दूसरा कि जो बीइए सुधीर चौधरी को इतना महत्वपूर्ण मानती है कि ट्रेजरार( खजांची) बना दे, भले ही ये वोटिंग या पूरी प्रक्रिया के तहत ही हुआ है..वो जांच बिठाकर भला इनके खिलाफ फैसले कैसे ले सकती है ? अगर सचमुच ऐसा करती है तो सचमुच साहसिक कदम होगा लेकिन ये संदेश तो जरुर जाएगा कि जिस बीइए का ट्रेजरार ही इस तरह की ब्लैकमेलिंग के आरोप से घिर जाता है, पहले की तरह पूरी संस्था की साख फिर से मिट्टी में मिलेगी ही.

दरअसल बीइए इस तरह के मामले को अपने हाथ में इसलिए लेती है कि दागदार चैनल या मीडियाकर्मी पर कानूनी डंडा पड़ने से पहले उन पर लीपापोती की जा सके और ये काम वो अपनी साख में बट्टा लगाकर भी करती आयी है. उसे अपनी साख की इस अर्थ में बिल्कुल भी चिंता नहीं होती क्योंकि ये चुनाव हार चुकी उस राजनीतिक पार्टी की तरह बेशर्म है जो दलील पर दलील भर दे सकती है कि अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन

सचमुच ये कितना खतरनाक है कि मीडिया के भीतर की गड़बड़ियों और अपराध को वही आपस के लोग निबटाने में जुट जाते हैं जो कि किसी न किसी रुप में उन गड़बड़ियों का हिस्सा रहे हैं. 13 अगस्त 2010 में गुजरात के मेहसाना जिला में उंझा पुलिस स्टेशन परिसर  में कल्पेश मिस्त्री ने आत्मदाह कर लिया और बीइए ने इस तरह से आनन-फानन में एक जांच टीम गठित की जिनमे से कि आधे से ज्यादा लोग मौजूद नहीं थे और दो दिनों की जांच में मामूली रिपोर्ट पेश कर दी जिसमे कहीं से इस बात का जिक्र नही था कि टीवी 9 के आरोपी रिपोर्टर कमलेश रावल ने गलत किया है और उन्हें कानूनी प्रावधान के तहत सजा मिलनी चाहिए या फिर कायदे से जांच हो. इसके बजाय जांच दल ने मामले को हल्का कर दिया.

सवाल है कि मीडिया के जो मामले मीडिया एथिक्स के बदले अपराध की श्रेणी में आते हों, उसे बीइए औऱ एनबीए जैसी संस्थाएं सेल्फ रेगुलेशन के तहत लाकर क्यों जांच करना चाहती है ? ऐसे में किसी व्यापारी के, डॉक्टर के, इंजीनियर के अपराध किए जाने या फिर आरोप लगने पर ही पुलिस स्टेशन, अदालत और उसके अनुसार सजा देने की क्या जरुरत रह जाती है ? हर पेशे से जुड़े लोगों के अपने संगठन होते हैं, मंच होते है, उन मामले को वहीं ले जाया जाए और जैसे मीडिया के लोग गंभीर से गंभीर आरोपों पर रातोंरात लिपा-पोती कर देते हैं, उसी तरह से लीपापोती कर दें. कानून और न्यायालय की अलग से क्या जरुरत रह जाती है. पिछले दिनों गोवाहाटी में एक स्कूली छात्रा के साथ कुछ गुंडों ने बर्बरता दिखाई और सारे चैनलों पर दिन-रात खबर चलती रही और जिसमें कि एक चैनल के रिपोर्टर का नाम आया, इसी तरह से मीडिया संस्था ने जांच दल गठित किया, उस जांच दल ने क्या रिपोर्ट पेश की पता नहीं लेकिन मीडिया के खिलाफ जो माहौल बना था, उसके बीच अपनी प्रासंगिकता बनाने के लिए बेचैन नजर आए.

सुधीर चौधरी पर जो आरोप लगे हैं, वो मीडिया एथिक्स का मामला नहीं है और बीइए की सेल्फ रेगुलेशन के तर्क से बाहर की चीज है. लिहाजा इसके लिए किसी बीइए औऱ एनबीए जैसे स्वयंपोषित अड्डे में ले जाकर मामले को डायल्यूट करने के बजाय उन्हीं प्रावधानों और प्रक्रिया के भीतर शामिल करने की जरुरत है जो किसी दूसरे पेशे से जुड़े मामले के लोगों के लिए होते हैं. मीडिया के लोगों के बीच जब तक इन संस्थाओं के तहत शातिर खेल चलते रहेंगे, मीडिया में ब्लैकमेलिंग, दलाली और बर्बरता की घटनाएं दुहराई जाती रहेगी. 
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सत्ता और संपादक के बीच की विभाजन रेखा को लगातार मिटाने में सक्रिय रहे नेशनल दुनिया के प्रधान संपादक आलोक मेहता को शायद हमारे साहित्यकार-कवि-आलोचक कुछ ज्यादा ही खटकते हैं. नहीं तो क्या वजह थी कि उन्होंने अच्छे-खासे स्वस्थ कवि-आलोचक केदारनाथ सिंह को दिवंगत घोषित कर दिया. इतना ही नहीं, दिल्ली सरकार की ओर से छुट्टी की घोषणा भी करवा दी..आलोक मेहता ने पिछले दस सालों में पत्रकारिता के साथ जो कुछ भी किया है और उसे निजी स्वार्थ का जिस तरह से झुनझुना बनाने की कोशिश की है, समाचार4मीडिया पर उनका परिचय पढ़कर घिन आने लगी. खैर,

मामला ये है कि बुधवार यानी 3 अक्टूबर को केदारनाथ साहनी की मौत हो गई. इससे संबंधित नेशनल दुनिया ने खबर प्रकाशित की- "पूर्व उपराज्यपाल केदारनाथ साहनी के निधन के शोक में दिल्ली सरकार ने अवकाश की घोषणा की है. दिल्ली सरकार के कार्यालय गुरुवार को बंद रहेंगे."....इस खबर के साथ अखबार ने केदारनाथ साहनी के बजाय कवि केदारनाथ सिंह की तस्वीर चिपका दी. तकनीकी रुप से देखें तो इसकी सफाई में अखबार के पास सीधा तर्क होगा कि ऐसी छोटी-मोटी गलतियां हो जाया करती है और इसके लिए सीधे-सीधे अखबार के प्रधान संपादक को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं होगा. फिर ये खबर इतनी भी बड़ी नहीं कि उसमें प्रधान संपादक अतिरिक्त ध्यान दे. लेकिन

खबर प्रकाशित होने के बाद अगले दिन जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अपनी फेसबुक दीवार पर स्टेटस अपडेट किया- 
कल भाजपा नेता केदारनाथ साहनी के निधन से संबंधित एक खबर के साथ दिल्ली से हाल ही शुरू हुए एक 'नेशनल' हिंदी दैनिक ने प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह का फोटो छाप दिया. ईश्वर कविश्री को लम्बी उम्र दे. उन्हें कोई फ़ोन आया तो उन्होंने कहा कि भूल हुई होगी, वे लोग कल सुधार लेंगे. लेकिन अख़बार में आज भी कोई भूल-सुधार नहीं छपा तो उन्हें हैरानी हुई. सज्जन कवि के साथ यह बर्ताव उचित नहीं. टाइम्स नाउ चैनल ने जस्टिस पी बी सावंत का फ़ोटो किन्हीं जस्टिस सामंत की जगह दिखा दिया तो श्री सावंत ने चैनल पर मुक़दमा कर दिया था और अदालत ने चैनल पर सौ करोड़ रुपये का ज़ुर्माना सुना दिया था. यह ठीक है कि केदारनाथ सिंह जस्टिस सावंत नहीं हैं, पर भूल-चूक अख़बारों पर हो या चैनलों से -- जो हो ही सकती है -- पर उसका फ़ौरन सखेद सुधार भी कर देना चाहिए."


इस स्टेटस पर पोस्ट लिखे जाने तक कुल 198 पसंद और 79 टिप्पणियां है. कुल कितने लोगों ने इसे पढ़ा होगा और इनमे से कितने लोगों का संबंध नेशनल दुनिया से हैं, इसका कोई आकलन हमारे पास नहीं भी है तो उम्मीद की जा सकती है कि ये बात नेशनल दुनिया तक जरुर पहुंची होगी. संभव है कि कुछ पाठकों ने व्यक्तिगत स्तर पर नेशनल दुनिया से संपर्क किया होगा. कायदे से अगले दिन तक अखबार को इस संबंध में खेद प्रकट कर देने चाहिए थे. लेकिन अखबार ने ऐसा नहीं किया और न ही आगे करने की जरुरत महसूस की. सोचनेवाली बात है कि अखबार के लिए मामूली गलती होते हुए भी साहित्यिक समाज के लिए कितनी बड़ी दुर्घटना है कि अपने समय के जरुरी हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह को एक अखबार ने दिवंगत घोषित कर दिया. खबर की लंबाई से कहीं अधिक बड़ी तस्वीर को देखकर कोई भी साहित्य का छात्र झटका खा जाएगा कि ये कब हुआ ?

कायदे से तो होना ये चाहिए था कि स्वयं आलोक मेहता इस संबंध में संपादकीय लिखते और हिन्दी समाज से इस बड़ी भूल के लिए माफी मांगते. उनका बहुत ही सम्मान से परिचय कराते जिससे कि जो लोग केदारनाथ सिंह के बारे में नहीं जानते हैं और बेहतर ढंग से जान पाते.  लेकिन आलोक मेहता और उनके अखबार ने ऐसा कुछ नहीं किया. क्या उन तक ये बात पहुंची नहीं होगी..अगर नहीं तो आप समझिए कि नेशनल दुनिया का तंत्र कितना लचर है या फिर आलोक मेहता की पाठकों पर पकड़ कितनी ढीली है कि कोई होश ही नहीं है ? लेकिन आलोक मेहता को इन सब की जानकारी होते हुए भी उन्होंने इस संबंध में कोई स्पष्टीकरण देना जरुरी नहीं समझा तो इसका मतलब है कि

वे साहित्यकारों के संबंध में ये मानकर चल रहे हैं कि वो उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते. उनकी इस गलती को लेकर गंभीर नहीं होंगे. ओम थानवी ने सही संदर्भ रखा है कि टाइम्स नाउ ने जस्टिस पी बी सावंत की जगह कोलकाता के न्यायाधीश जस्टिस बी.बी.सावंत की तस्वीर दिखाया था तो जस्टिस पी.बी.सावंत ने मान-हानि का मुकदमा दायर करते हुए सौ करोड़ रुपये की मांग की थी. हां ये जरुर है कि चैनल के मुखिया अर्णब गोस्वामी ने जिस तरह की हेकड़ी दिखायी थी, जस्टिस ने आजीज आकर ये काम किया था और अफसोस कि अर्णव गोस्वामी ने उनसे यहां तक झूठ बोला था कि मेरा ऑपरेशन हुआ है और मैं पुणे नहीं आ सकता जबकि उस समय में लगातार अपना शो कर रहे थे. तो भी ये सवाल तो जरुर है कि अगर केदारनाथ सिंह की जगह कोई जीवित न्यायाधीश,ब्यूरोक्रेट, मंत्री,कार्पोरेट की तस्वीर दिवगंत बताकर छाप दी जाती तो आलोक मेहता इतने ही लापरवाह बने रहते या फिर माफीनामा की झड़ी लगा देते और अगर जरुरत पड़ती तो उनके चरणों पर लोटते तक लग जाते ?

नेशनल दुनिया और आलोक मेहता ने इस पूरे मामले में जिस तरह का रवैया अपनाया है, वो किसी एक साहित्यकार भर का मामला नहीं है बल्कि साहित्यिक समाज को निरीह और कमतर करके देखने का मामला है. वो ये मानकर चल रहे हैं कि उन्हें कोई कुछ नहीं कहेगा और इस हद तक दवाब नहीं बना सकेगा कि वो केदारनाथ सिंह से माफी मांगे. अखबार में स्पष्टीकरण दे और दोबारा केदारनाथ साहनी की तस्वीर के साथ इस खबर को छापे.

वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हिन्दी समाज इस बात से खुश हो सकता है कि जब नेशनल दुनिया के मीडियाकर्मी ने गूगल इमेज पर केदारनाथ साहनी टाइप किया होगा तो उनकी तस्वीर मिलने से पहले कवि केदारनाथ सिंह की तस्वीर मिली होगी..यानी गूगल केदारनाथ सिंह को ज्यादा लोकप्रिय मानता है..लेकिन इस खुश होने के पहले इस अफसोस को भी समझने की जरुरत है कि एक हिन्दी अखबार को ये भी नहीं पता है कि केदारनाथ सिंह कौन है और केदारनाथ साहनी कौन थे ? हिन्दी अखबारों में साहित्य को कितनी गंभीरता से लिया जाता है और उसके लिए कितनी जगह है, फिलहाल इस बहस में न भी जाएं तो इतना तो तय है कि उसके भीतर एक ऐसी दुनिया तेजी से पनप रही है जो कि साहित्य विरोधी है. अखबार और आलोक मेहता का रवैया इसी साहित्य विरोधी माहौल की ओर संकेत करता है.

ये तय है कि आलोक मेहता के चाहने और खटकने से न तो किसी साहित्यकार का कुछ होने जा रहा है और न ही उनके लिए जगह नहीं दिए जाने से पढ़नेवाले लोग उन्हें पढ़ना छोड़ देगें..लेकिन हिन्दी समाज को अखबार की इस मक्कारी,ढिठई और रंगबाज रवैये को चटकाना जरुरी है. जो हिन्दी समाज शाल,बुके और पत्र-पुष्प दे देकर साहित्यकारों को सम्मानित करने का पाखंड रचता है, उन्हें इसके लिए सक्रिय होने की जरुरत है. उन्हें इस बात का अहसास कराना जरुरी है कि बिल्डर,दलाल,कार्पोरेट किसी एक-दो की इच्छा से अस्वाभाविक मौत मरते हैं, केदारनाथ सिंह साहित्यकारों की मौत अपने स्वाभाविक तरीके से ही होती है और इस स्वाभाविकता के साथ खेलने का हक आलोक मेहता,उनके अखबार या किसी और को नहीं है. 
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प्रभात रंजन ने अपनी फेसबुक दीवार पर ये सवाल उठाया है कि हिन्दी साहित्य और उसके भविष्य की जब भी चर्चा होती है, उस पर बात करने के लिए हिन्दी के भूत को ही क्यों बुलाया जाता है ? वैसे तो हिन्दी की पत्र-पत्रिकाएं युवा हिन्दी लेखक-लेखिकाओं से अटे पड़े होते हैं लेकिन परिचर्चा में उनकी गैरमौजूदगी क्या उन्हें प्रसाधन भर तक के लिए इस्तेमाल किए जाने की ओर संकेत करता है ?

प्रभात रंजन का भूत से आशय उन साहित्यसेवियों से है जो एक समय तक हिन्दी सेवा करने के बाद अब उसकी मलाई काट रहे हैं. वो तब तक काटते रहेंगे जब तक कि उनके हाथ-पैर चलने बंद न हो जाएं और फिर वे बिस्तर पर गिरेंगे तो अशोक वाजपेयी जैसे सरोकारी कवि/ आलोचक हिन्दी समाज से आह्वान करेंगे कि राहत कोष बनाने की दिशा में सक्रिय होने चाहिए. तब हम युवा भी सेंटी होकर अशोक वाजपेयी के पीछे-पीछे हो लेंगे..ऐसे मठाधीशों के धत्तकर्म तक झुर्रियों,लाचार अंतड़ियों और किडनियों में दफन हो जाएंगे. लेकिन प्रभात रंजन जिस भूत का आशय ऐसे अतीतजीवी हिन्दीसेवियों से ले रहे हैं जिनके लिए मैं अक्सर फुंके हुए पटाखे पद का इस्तेमाल करता हूं, दरअसल हिन्दी के भूत(अतीत) नहीं,भूत( मॉन्सटर,डेविल) हैं. ऐसे भूत जो बहुत ही व्यवस्थित और कलात्मक ढंग से हिन्दी का नाश करते हैं. ये कितना विचित्र है कि सरकार और संस्थाएं ऐसे भूतों को हिन्दी का नाश करने के लिए पालती है और शारीरिक रुप से नाकाम होने की स्थिति में हम उन्हें लेकर चंदे की हांक लगाने में जुट जाते हैं. सम्मेलनों में युवाओं को न शामिल करने की प्रभात रंजन की चिंता इनके भूत बनने से ही है.


ताजा मामला जोहन्सबर्ग में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन को ही लें. वहां सैंकड़ों लोगों के बीच एक भी युवा लेखक,साहित्यकार को नहीं बुलाया गया. जिन लोगों को युवा मानकर ले जाया गया, वो कब तक युवा बने रहेंगे या फिर युवा की कोई चिरजीवी कैटेगरी भी होती है, नहीं पता. इन युवा लेखकों के बच्चे भी अगर इसी लेखन के धंधे में आ जाएं तो किसी और का तो नहीं युवा बने रहकर अपने ही बाल-बच्चों का हक मारेंगे और क्या पता मार ही रहे हों. खैर...

पत्र-पत्रिकाओं के युवा विशेषांक निकालकर इसे एक गंभीर पाठन सामग्री बनाने के बजाय कुकरी शो या जाड़े की बुनाई विशेषांक बनाते रहने की जो कवायदें चलती आ रही है, उनमें से अधिकांश युवा लेखकों की स्थिति किसी स्पेशल डिश या स्वेटर के खास पैटर्न से अधिक नहीं है. ये डिश और पैटर्न एकबारगी तो आपको बहुत ही चटख और नया लगेंगे, अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ आकर्षित भी करेंगे लेकिन भीतर से इनकी प्रकृति अपने मठाधीशों से अलग नहीं होती. वो युवा होते हुए भी उन्हीं मठों,वादों,विचारों और टीटीएम पद्धति(ताबड़तोड़ तेल-मालिश) का विस्तार करते हैं जो कि उनके मठाधीश अपने पूर्वज मठाधीशों से थाती की शक्ल में लेकर आगे बढ़े हैं. याद कीजिए नया ज्ञानोदय और हंटर साहब का छिनाल प्रकरण या फिर कुछ महीने पहले हुए भारतीय ज्ञानपीठ और गौरव सोलंकी विवाद. इन दोनों ही स्थितियों में आपने बेहतर समझा होगा कि युवा लेखकों का एक धड़ा उन्हीं सड़ी-गली,थोथी और उबकाई आ जानेवाले तर्कों को आगे ले जा रहा था, जिससे पूरा हिन्दी समाज त्रस्त है. हंटर साहब छिनाल प्रकरण में उन्ही स्त्री-लेखिकाओं ने चुप्पी साध ली(दुर्भाग्य से उनमें से कुछ अभी भी युवा लेखिका कार्डधारी हैं) जो स्त्री-लेखन और युवा स्वर की मुखालफ़त करती हुई निर्बाध ढंग से सेवा कर रही हैं. इधर गौरव सोलंकी प्रकरण में( हालांकि बाद में ये स्वाभाविक चिंता से कहीं ज्यादा अतिरेक का हिस्सा हो गया तो भी) युवा लेखकों का एक समूह थोड़े वक्त की चुप्पी के बाद तकनीकी रुप से अपंग मठाधीश के फैसले को सही ठहराने के लिए वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हो गया जो कि इस स्पेस के लेखन को कूड़ा मानता आया था और कालजयी लेखन की रोजमर्रा कसरतों में यकीन रखता है. गौरव सोलंकी ने अपनी रचना के बहाने जो हिन्दी समाज के चाल-चलन पर जो जरुरी सवाल खड़े किए थे, उसे खेमे में तब्दील करने और पूरी बहस को अखाड़े की शक्ल देने में ऐसे युवा लेखकों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी. वो जिस अंदाज में ताल ठोककर हमारे सामने हाजिर हो रहे थे और लेखक को बार-बार ललकार रहे थे, अगर अवस्था के फर्क को नजरअंदाज कर दें तो तासीर मठाधीश की जुबान से अलग नहीं थी.

ऐसे में क्या फर्क पड़ता है कि ऐसे युवा लेखकों को किसी साहित्यिक विचार संगोष्ठी में बुलाया जाता है या फिर क्यों नहीं बुलाया जाता है. उनके जाने से सभा में बस इतना फर्क पड़ेगा कि आयोजक को बीच-बीच में उठकर खांसी आने पर पानी उठकर नहीं देने होंगे. दूसरा कि जिन मठाधीशों की जर्जर आवाज से श्रोताओं को खासी दिक्कतें उठानी पड़ती है, सुनने में सहूलियतें होंगी. सीढ़ियों पर चढ़ाने-उतारने से लेकर गू-मूत करने के लिए अलग से अर्दली नियुक्त नहीं करने पड़ेंगे. नहीं तो जब डीएनए के स्तर पर कोई फर्क नहीं है तो संगोष्ठियों में क्या फर्क पड़ता है कि गार्नियर की हेयरडाइ वाला मठाधीश वक्ता पहुंचा है या फिर गार्नियर शैम्पू करके बाल लहराते युवा लेखक.

कार्पोरेट में जिसे हम मदर कंपनी-सिस्टर कंपनी के जरिए समझते हैं, दिलचस्प है कि दिन-रात कार्पोरेट,बाजार और मीडिया को पानी पी-पीकर कोसनेवाला हिन्दी समाज उसी पैटर्न पर काम करता है. मठाधीशों की सॉफ्टवेयर से ही ऐसे अधिकांश युवा लेखक संचालित हैं जो उत्पाद के स्तर पर तो अलग दिखाई देते हैं लेकिन मदर कंपनी जिनकी अलग नहीं है. आप तसल्ली के लिए कह सकते हैं कि हम कोक नहीं, मैंगो जूस पी रहे हैं लेकिन एक बाजार विश्लेषक के लिए दोनों की मदर कंपनी एक ही है. ऐसे में प्रभात रंजन की युवाओं के ऐसे सेमिनारों में शामिल किए जाने की मांग चिंतित होने से कहीं ज्यादा रणनीति के स्तर के इंतजार को लेकर बात करने का मसला ज्यादा है. प्रभात रंजन और हम जैसे लोगों के लिए एकबारगी ये चिंता और अफसोस की बात हो सकती है कि ऐसी संगोष्ठियों में जहां पांच सितारा शयनकक्ष से लेकर शेर-शेरनी के संभोग करते हुए नजारे देखने को मिल सकते हैं, वहां एक भी युवा क्यों नहीं ? जहां दुनियाभर की सजावट,मौके और माहौल युवा लेखकों के अनुकूल हों वहां आखिर खटारा साहित्यकार ही क्यों ?लेकिन जिन युवा लेखकों को ये सुअवसर प्रदान नहीं किया गया, मुझे पूरी उम्मीद और भरोसा है कि वो इसे वंचना के तौर पर नहीं, इंतजार और धैर्य के रुप में ले रहे होंगे. चूंकि हिन्दी समाज की पूरी अवधारणा कालजयिता पर टिकी है और इसमें शामिल होने का मतलब ही है कि रचना से लेकर रचनाकार, संगोष्ठी,मौके सब अपने आप कालजयी हो जाते हैं. इसका मतलब है कि मौके आगे भी आएंगे और मठाधीश भी कालजयी ही हैं सो मौके देंगे भी. इसलिए बहुत परेशान होने की जरुरत नहीं है. और फिर जब बीए में पढ़नेवाले बच्चे के मां-पिता हो जाने तक भी हिन्दी में रचनाकार युवा ही रहता है तो इतनी हड़बड़ी मचाने की जरुरत क्या है अर्थात् जब डीएनए और मौके के स्तर पर कोई फर्क और चिंता नहीं है तो युवा लेखकों को संगोष्ठियों में आमंत्रित क्यों किए जाए?

आगे की टिप्पणी में प्रभात रंजन ने इपंब्ला(इन पंक्तियों का ब्लॉगर) और मिहिर पंड्या का जिक्र किया और मेरी प्रतिटिप्पणी से आगे जाकर सवाल खड़े किए कि आखिर इन लोगों को भी तो नहीं बुलाया गया प्रभात रंजन हम जैसे ब्लॉगरों और मिहिर पंड्या जैसे ठहरकर सिनेमा पर लिखनेवाले समीक्षकों को वर्चुअल स्पेस के जरिए लंबे समय से पढ़ते आए हैं. ऐसे में उन्होंने ये सवाल सोशल मीडिया को लेकर होनेवाली बहसों में बुलाए-न बुलाए जाने के संदर्भ में है. चूंकि ये पोस्ट इस सवाल के कारण से ही लिखने की जरुरत महसूस हुई, ऐसे में दो-तीन बातों को स्पष्ट करना जरुरी हो जाता है.

पहली बात तो ये कि हम जैसे ब्लॉगरों के लिए ये कोई पहला मामला या सवाल नहीं है कि सोशल मीडिया और वर्चुअल स्पेस पर होनेवाली संगोष्ठियों और बहसों में हमें क्यों नहीं बुलाया जाता है? एक तो ये कि हम इसके अभ्यस्त हो चले हैं और दूसरा कि इन संगोष्ठियों में अधिकांशतः जिनलोगों को बुलाया जाता है, हम हर बार आयोजकों का शुक्रिया अदा करते हैं कि हमें बचा लिया. ज्यादातर वो लोग होते हैं जिन्होंने शुरुआती दौर में हम ब्लॉगरों का जमकर उपहास उड़ाया, फिर पढ़ना शुरु किया, अकाउंट बनाए,लिखना शुरु करते इसके पहले सोशल मीडिया के विशेषज्ञ हो गए. कुछ ऐसे भी हैं जो ब्लॉग और फेसबुक अकाउंट खोला ही इसलिए है कि अपने मठाधीशों पर वक्त-वेवक्त होनेवाले हमलों का जवाब दे सकें. और वो मठाधीश भी मिट्टी के ठेपे निकले कि अदना दो-चार कमेंट से गल जाते. ऐसे-ऐसे विशेषज्ञ हैं जो हमारी ब्लॉगिंग और चैटिंग में अद्वैत दर्शन को स्थापित करते रहे, प्रोजेक्टर से आवाज बढ़ाने की अपील करते रहे(आदेश भी दिया) और अकाउंट दुरुस्त करने पर मेरे हाथ में पांच सौ रुपये पकड़ा गए. तब हमें सिरचन जैसी ही ठेस लगी थी और मन रोया था. ऐसे लोगों की पांत में हमें बुलाकर नहीं बिठाया जाता है तो हम संगोष्ठी पर अफसोस करते हुए भी व्यक्तिगत रुप से खुश ही होते हैं.

दूसरा कि हमने मेनस्ट्रीम मीडिया को छोड़कर( हालांकि अब कॉलम और लगातार लेखन के जरिए इससे बाहर नहीं हैं लेकिन अपनी शर्तें बरकरार रहती है) जैसे ही वर्चुअल स्पेस में कदम रखा तो हमारे सामने बस एक ही ध्येय था. हम जो भी लिखेंगे, उस पर किसी की कैंची नहीं चलेगी और कोई हमें कहेगा नहीं कि इसे हटा दो. कई ऐसे मौके आए जब लगा कि ऐसा लिखना मुश्किल होगा, कुछ लोगों ने शक तक किया लेकिन वर्चुअल स्पेस की सक्रियता बनी रही. इधर जिनलोगों ने अकाउंट खोल लेने भर और ब्लॉगस्पॉट पर एक लिंक कब्जा लेने भर से अपने को सोशल मीडिया के विशेषज्ञ की कुर्सी हथिया ली या दूसरे अनुषांगिक फायदे के लिए स्वतः कुर्सी दे दी गई, वो इन संगोष्ठियों के फेरे-दर-फेर लगाते रहे. बुके, गर्मियों में भी शाल,उपहार और नकदी से लादे जाते रहे. इन सारी चीजों ने कभी बहुत प्रभावित नहीं किया. ऐसा लिखना अपने को संत और त्यागी के रुप में प्रोजेक्ट करना नहीं है बल्कि ये इस माध्यम की प्रकृति है..आप इस शॉल-बदनवार में बंधकर वर्चुअल स्पेस के साथ न्याय कर ही नहीं सकते. 

अब देखिए न...

जोहन्सबर्ग में मीडिया और साहित्य से पुछल्ले की शक्ल में जुड़े ऐसे लोगों का समूह गया जिन्होंने वहां की तस्वीरों से फेसबुक की अपनी दीवारें रंग दी है. बेडरुम,लॉन,पार्क,झील आदि के के बीच अपनी तस्वीरें ऐसी खिंचवाई है जैसे यश चोपड़ा की शूट कि स्टिल बतौर प्रेस रिलीज जारी कर रहे हों. उन सैकड़ों तस्वीरों के बीच एक पंक्ति भी नहीं लिखी है जिससे आप समझ सकें कि सोशल मीडिया को लेकर क्या बहसें हुई ? क्या वहां कोई बात भी हुई या फिर साहित्यिक-सामूहिक हनीमून के नजारे ही बनते-बदलते रहे. वर्चुअल स्पेस के अभ्यस्त पाठकों के बीच गहरा असंतोष है. वो जानना चाहते हैं कि वहां किसने क्या कहा, क्या पर्चे पढ़े लेकिन कहीं मौजूद नहीं है. याद कीजिए आप इस देश में होनेवाली उन गतिविधियों,सेमिनारों और यहां तक कि इलाहाबाद में ब्लॉगिंग को लेकर होनेवाली परिचर्चा को, सोशल मीडिया से जुड़े दर्जनों लोगों ने कैसे एक दिन में दो-दो-तीन-तीन पोस्टें और पोडकॉस्ट जारी किए थे. न कोई एक रिपोर्ट, न सेमिनार की वीडियो, क्या ये अलग से बताने की जरुरत है कि वहां ऐसे लोगों का जमावड़ा था जिनके भीतर सोशल मीडिया विशेषज्ञ कहलाने की तड़प तो है लेकिन वो आत्मा नहीं जो ये समझ सके कि इसकी विशेषज्ञता इसकी सक्रियता में शामिल है..आप शरीरी स्तर पर मौजूद लोगों के बीच भले ही हवा-पानी देकर माहौल बना लें कि आप बड़े तीसमारखां हैं लेकिन लाखों की संख्या में जो वर्चुअल स्पेस पर लोग नजर गड़ाए हैं वो बखूबी समझते हैं कि आप वहां कैसे पहुंच सके हैं. सोशल मीडिया या कोई भी माध्यम हो, हिन्दी की टीटीएम पद्धति से आगे नहीं बढ़ती, उसका बने रहना मुश्किल हैं..

और आखिरी बात...

मैं देखता हूं कि जो लोग आए दिन ऐसी संगोष्ठियों में, कभी वातानुकूलित रेलगाड़ियों से,कभी जहाज से उड़कर शामिल होते हैं. पैसे,बुके और शॉल से लदे रहते हैं, हम जैसे ब्लॉगरों से कहीं ज्यादा बेचैन और पहचान की संकट के मारे होते हैं. वो कुछ न लिखकर भी मार मैसेज पर मैसेज झोंके रहते हैं कि वहां गया ता,यहां बोल रहा हूं. उन्हें यकीन ही नहीं होता कि लोग उन्हें सुन रहे हैं, देख रहे हैं. इससे कहीं ज्यादा इस बात का यकीन हो गया है कि लोगों ने उन्हें सीरियसली लेना बंद कर दिया है. ऐसे में इन संगोष्ठियों में जाने और चंद डॉलर ऑब्लिक रुपये के बताशे लेने का क्या लाभ जो हमारे भीतर वर्चुअल स्पेस पर रहते हुए पहचान की बेचैनी पैदा करे, हतोत्साहित करे कि लोग हमें नहीं जान रहे. ये तो संभावनाओं से भरा स्पेस है, हजारों आंखें एक साथ हमें निहारती है जिनमे से कई अक्सर पोक करती है- आपने आज बहुत अच्छा लिखा है, आपका हाथ चूमने का मन करता है.

प्रभातजी, चिठ्ठीनुमा शक्ल में लिखी गई ये पोस्ट शायद पाठकों को आत्मश्लाघा या भावनाओं की पुड़िया लगे. गांधी जयंती की सांझ पर लिखी है तो शायद कोरा स्वप्न ही..लेकिन यकीन मानिए, सिर्फ हम ही नहीं, रविरतलामी,प्रमोद सिंह,ममता टीवी, लवली गोस्वामी,प्रशांत प्रियदर्शी, रियाज उल हक जैसे सैकड़ों वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय लोग / ब्लॉगर, सोशल मीडिया के लेखक हैं जो आज भी उसी समझ और ध्येय से लिख रहे हैं जो कि पांच-छह सात साल पहले लिखा करते हैं. वर्चुअल स्पेस की सबसे बड़ी शर्त है- क्रेडिबिलिटी..जिस दिन ये क्रेडिबिलिटी खत्म हो गई, लोग इसी तरह इसके विशेषज्ञ होकर सेमिनारों, हिन्दी विभागों और मीडिया कक्षाओं में ढनमनाते रहेंगे और पीछे से कोई नउसिखुआ टंगड़ी मार देगा- घड़ीघंट( युवा आलोचक संजीव कुमार से उधार) आपको कुछ आता-जाता है. तो भी हम जैनेन्द्र की नायिका नहीं है..हम एक वक्त तक ही मृणाल बने रह सकते हैं, कृष्णा सोबती तक आते-आते बहुत वक्त नहीं लगेगा.

नोटः अनंत विजय ने जोहन्सबर्ग विश्व हिन्दी सम्मेलन भ्रमण के दौरान शेर-शरनी के संभोग की तस्वीर इस टिप्पणी के साथ लगायी थी कि ये बहुत ही दुर्लभ नजारा होता है और महज 5-10 सेकण्ड भर के लिए होता है. उन पर टिप्पणी किए जाने की स्थिति में उन्होंने मुझे ब्लॉक कर दिया है. लिहाजा हम हूबहू तस्वीर पोस्ट में नहीं लगा पा रहे है लेकिन दी गई तस्वीर से बहुत फर्क नहीं है.
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हम भी बात कलेंगे. पापा,हम भी बात कलेंगे. मम्मी हमको भी हैलो बोलना है. हम हैलो बोलके फोन वापच कल्ल देंगे. विनीत चाचा छे हम भी बात कलेंगे. हैलो, विनीत चाचा..क्या कल्ल लहे हैं आप ? मैं बाबू, मैं होमवर्क कर रहा हूं और तुम क्या कर रहे हो ? हम कुच नहीं कल्ल लहे हैं..अरे बाबू, दो फोन. कोई फोन करता है तो तुम चाटने लग जाते हो उसको, इधर दो..नय,हम भी बात कलेंगे, हम भी,हम भी,हम भी, मम्मी हम भी.

सुबह सात बजे से लेकर रात के ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे जब भी घर फोन करो, क्षितिज की ये आवाज कॉलर ट्यून की तरह पीछे से सुनाई देती है. कई बार हम उसकी इस आदत पर झल्ला जाया करते हैं. ठीक उसी तरह जैसे किसी बूढ़े-बुजर्ग की मोबाईल में सेवा देनेवाली कंपनी या घर का कोई शरारती बच्चा अपने मन से "चिकनी चमेली" या "हलकट जवानी" की कॉलर ट्यून लगाता देता है और वो झल्ला उठते हैं. कई बार बहुत ही जरुरी बात करनी होती लेकिन वो शुरु हो जाता- हम भी बात कलेंगे. भैय्या, भाभी, मां उसकी इस आदत से अक्सर परेशान होकर कहते- रुको, जब क्षितिज सो जाएगा तब दोबारा कॉल करते हैं. रुको, दूसरे मोबाईल से कॉल करते हैं, दूसरे कमरे में जाकर कॉल करते हैं, घर से बाहर निकलते हैं तो कॉल करते हैं.....मेरी मां कहती- ये क्षितिज नहीं, ठाकुरबाड़ी का घंटा है, कभी भी फोन करो तो पहिले इसको हिलाना पड़ेगा. मां कहती, रुको तुमको भी भेज देते हैं विनीत चाचा के पास,रहना वहीं. हम सब कोई नहीं रहेंगे. बोलो, जाएगा ? उसकी आवाज आनी बंद हो जाती. मैं यहां दिल्ली में बैठकर अनुमान लगा रहा होता- बेचारा,पिद्दी सा बच्चा डर गया होगा. मां और दादी से दूर होकर भला कहां जी पाएगा ? पापा तो अक्सर उसे इस तरह से डराते कि मुझे खुद भी डर लगा रहता है कि बड़ा होने पर क्षितिज से उसकी क्लास टीचर उनकी तस्वीर दिखाकर पूछेगी कि ये कौन है तो कहीं वो पापा की तस्वीर देखकर ये न कह दे- टेर्ररिस्ट( आतंकवादी).

पिछले दो दिनों से उसकी कॉलर ट्यून बजनी बंद हो गयी है. इन दो दिनों में मैंने कम से कम बारह से चौदह बार भैय्या,भाभी,मां और पापा से बात की होगी. पीछे से कोई आवाज नहीं. एकदम ही सन्नाटा. हम जो भी बात करते वो लोग सुन रहे होते और मां को बार-बार ऐं,ऐं नहीं बोलना पड़ता. क्षितिज की पीछे से कोई आवाज न आने से लगता है जैसे जमशेदपुर शहर का सबस बड़ा शोर वही है.

कल पापा का फोन आया.कैसे हो, क्या सब चल रहा है और फिर धीरे-धीरे बात क्षितिज तक चल गयी. उसकी हरकतों पर बात करते हुए लग रहा था कि अब वो रो देंगे. बदमाशिए बहुत करता है. बहुत मना करते रहे लेकिन मानता कहां है, पैर में चक्करघिन्नी लेकर घूमता है. एक मिनट स्थिर नहीं. अब बस जब दूकान जाने लगते हैं तो बेड पर पड़े-पड़े रोता है- बाबा हम भी तलेंगे,हम भी जाएंगे..हमको भी ले तलिए. मेरे पापा के भीतर भावनाओं की बहती एक नदी है जिसे मां ने सालों पहले सरस्वती घोषित कर दिया है और मैं भी उसे लुप्त नदी मानकर बैठ गया था..लेकिन इधर कुछ महीनों से देखता हूं कि वो नदी बिना शोर किए बहती चली जा रही है, फिर से पानी का सोता फूटा है या फिर हम उस तह तक जाकर समझ नहीं सके, पता नहीं लेकिन उस सोते से मुझे कई बार फोन पर ही हहाती हुई सी आवाज सुनाई देती है. खैर,

क्षितिज, जिसे कि मैंने उसकी दो साल की आयु में सिर्फ एक बार देखा है. दुबला-पतला, अपनी मां की ही तरह सुंदर,बड़ी-बड़ी आंखें और रग-रग में बदमाशी भरी हुई. आप पूरे घर को सजा-सवांर दें, झाडू-पोछा मार दें, उसे उस सजे-संवरे घर को "घटनास्थल", "दंगाक्षेत्र" में तब्दील करने में दस मिनट भी नहीं लगेंगे. उसका मन करेगा तो उन तस्वीरों के आगे भी अपनी धार छोड़ सकता है जिसके आगे मां गंगाजल चढ़ाया करती है. बहुत बदमाश है, बहुत बदमाश की जयकार से घर गूंजता रहता. दीदी, मां,भाभी सबके सब एक सुर से उसके इस यश का गान करते और बीच-बीच में बेचारे को पुरस्कार( धमाधम) भी मिलते. मैं चुपचाप देखता रहता, मुस्कराता रहता. मेरी किताबें पलटता रहता और नामवर सिंह की "दूसरी परंपरा की खोज" के पन्ने पलटते हुए जोर से बोलता- ए,बी,छी,डी.मन किया कि उसकी इस हरकत को कैमरे में कैद कर लूं,नामवर सिंह से इस पर प्रतिक्रिया लूं या फिर यूट्यूब पर इसकी वीडियो डालकर लोगों के कमेंट्स का इंतजार करुं. दिनभर मेरे बैग में पता नहीं क्या-क्या खोजता रहता और कुछ निकालकर कहता- दीदी, ये क्या है ?

भाभी मुस्कराती देख पूछती- आपको गुस्सा नहीं आता है इसकी बदमाशी देखकर ? मैं कहता नहीं तो और उल्टे उसे जो जैसे बिगाड़ रहा होता, करने देता. हां देर रात जब वो जोर-जोर से रोता तो जरुर मन करता कि पुरस्कार दूं. वैसे मैं भाभी को इतना जरुर कहता- इसकी वीडियो बनाकर किसी हेल्थड्रिंक कंपनी को दे दें, आपको वो बहुत पैसे देगा. इतनी एनर्जी कहां से आती है इसमे. बिल्कुल भी सोता नहीं, दिनभर हमलोगों के पीछे-पीछे डोलता फिरता है. मैं दिनभर में उसे दो-चार बार अचानक गोद में उठाता और जोर से किस करके वापस जमीन पर उतार देता..वो अवाक सा रह जाता फिर अपने कालजयी कर्म में लग जाता.

भाभी ने जब फोन पर बताया कि क्षितिज का पैर टूट गया है तो ये सब सोचकर मन उदास हो गया. वो अपनी मां के साथ लुकाछिपी खेल रहा था. कहां घुस गया,पैर में क्या लग गया कि अचानक से फिसलकर घिर गया. पहले तो मामूली दर्द मानकर सहज करने की कोशिश की लेकिन फिर डॉक्टर ने बताया कि पैर ही टूट गए हैं. हालांकि ये कोई बड़ी बात नहीं है, महीने-दो महीने में सबकुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा और उसकी कॉलर ट्यून से फिर से मुझे परेशानी होगी लेकिन अभी उस बेचारे को कितनी बेचैनी होती होगी, कहीं आ-जा नहीं सकता. किसी के पीछे लग नहीं सकता और जो उसे जितनी चॉकलेट दे,संतोष करना होगा..अपनी दीदी खुशी और सौम्या से लड़ नहीं सकेगा.

अब घर बात करते हुए पीछे से कोई शोरशराबा नहीं होता है. आप जिससे बात करना चाहें, वो आसानी से बात करेंगे..हम भी बात कलेंगे की जिद और आपकी बातचीत में दखल देनेवाला कोई नहीं मिलेगा. क्षितिज अपने बिस्तर पर लेटा होता है, रोता है, मां से हमेशा पास रहने की जिद करता है. लेकिन शांत होकर क्षितिज ने घर में जो सन्नाटा पैदा किया है, उससे घर के लोगों के बीच अजीब किस्म की बेचैनी हो गई है. वो दूकान जाते वक्त अक्सर पापा के पैर पकड़कर ही खड़ा हुआ करता- बाबा, हम भी तलेंगे और पापा मां या भाभी से गोद लेने कहते. कभी प्यार से पुचकारकर वापस बिस्तर पर बिठा देते. अब फोन पर बस इतना ही कहते हैं- बहुत चंचल है. कैसे कहें कि रोज दूकान पहुंचने में लेट करनेवाला क्षितिज बाबा के समय पर पहुंच जाने पर भी समय पहले से कहीं ज्यादा खराब कर रहा है ? कैसे कहें कि उसका हम भी तलेंगे कि जिद और उनकी झल्लाहट के बीच एक लत पकड़ती जा रही थी..और इसके बिना बाबा और पोता दोनों बेचैन है.

क्षितिज की ढेर सारी तत्वीरें मेरे मोबाइल में थी. स्क्रीन खराब होने की स्थिति में, एक भी तस्वीर सेव नहीं कर पाया..बहुत मन था कि इस पोस्ट के साथ उसकी कोई प्यारी सी तस्वीर लगाउं लेकिन फोटो खींचने पर रोनेवाले क्षितिज की तस्वीर हम नहीं डाल पा रहे..
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आज दि टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने का आधा हिस्सा "लाइव इंडिया" चैनल के विज्ञापन से रंगा है. अपने मीडियाकर्मियों का खून चूसनेवाला चैनल आज देशभर में रक्तदान कराने और उसका लाइव प्रसारण का काम करने जा रहा है. इस चैनल से कोई पूछनेवाला नहीं है कि तुम जो महीनों अपने मीडियाकर्मियों का वेतन नहीं देते, सालों से बारह हजार-चौदह हजार में बैल की तरह पीसते हो, तुममे ये नैतिक अधिकार कहां से आ गया कि रक्तदान शिवि लगवाओ, उसका प्रसारण करो.

दर्शकों की नजर में आने और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का ये कितना घिनौना और घटिया तरीका है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि जिस चैनल में सालों से वहां काम करनेवाले लोगों का हक मारा जाता रहा,चैनल के पूर्व सीइओ सुधीर चौधरी जोड़-तोड़ से बाकी लोगों को उसी हाल में काम करते रहने,मैनेजमेंट से सांठ-गांठ करके खुद ही कुर्सी बचायी रखी और शोषण की चक्की में सब पिसते रहे, आज वही चैनल रकतदान शिविर लगाने जा रहा है. कोई चैनल के मालिक और मुखिया से पूछे तो सही कि क्या वहां के मीडियाकर्मियों के शरीर में इतना खून बचा भी है कि वो दान कर सकें ?

एक, दूसरा ये कि चैनल की इतनी साख है कि हम औऱ आप जैसे लोग रक्तदान करेंगे तो वो सही जगह पहुंच पाएगा ? मुझे याद है रॉटरी क्लब जैसा संगठन जिसक कि दुनियाभर में साख है, रक्तदान के समय एक फ्रूटी और एक फल देने के बाद वापस हमें ऐसा कुछ भी नहीं देती जिससे कि प्रामाणित हो सके कि हमने रक्तदान किया है. ऐसे में लाइव इंडिया रक्तदान करनेवालों के साथ क्या करेगा ? कहीं ये खून इसलिए तो नहीं बचा रहा कि आगे उसे पीने की किल्लत न हो जाए ?

आपको नहीं लगता कि मीडिया और चैनलों के बीच इस तरह की चोचलेबाजी इसलिए शुरु हुई है कि क्योंकि वे अपने मूल काम "रिपोर्टिंग और उसका प्रसारण" को या तो बिल्कुल ही महत्व नहीं देते या फिर उनके भीतर दलाली का धंधा इस कदर बढ़ गया है, कार्पोरेट से लेकर सरकार तक उसमें इस तरीके से आकंठ डूबे हैं कि जरुरी मुद्दों पर खबर नहीं कर सकते. ऐसे में चैरिटी के जरिए लोगों के बीच अपनी पकड़ और पहचान बनाए रखना चाहते हैं. ये काम देश में सालों से होता आ रहा है. व्यापारी और सेठ पहले तो जमकर इस देश को लूटते हैं, मुनाफे के लिए तमाम तरह के धत्तकर्म करते हैं और फिर धर्मशाला,प्याउं और मंदिर बनवाते हैं. कार्पोरेट दलाल मीडिया इसी फार्मूले पर काम करने लग गया है.

 एनडीटीवी इंडिया एयरसेल से गंठजोड़ करके बाघ बचा रहा है, टोएटा से हाथ मिलाकर कोस्टल एरिया बचा रहा है, कोक के साथ मिलकर स्कूल का बाथरुम दुरुस्त करने में लगा है और लोगों से मार धुंआधार अपील कर रहा है कि स्कूल जाइए. पहाड़ बचाने में जुटा है ताकि आप भविष्य में उस पर चढ़कर माउंटेन ड्यू पी सकें. खाने के पोषक तत्व को बचा रहा है. कभी किंगफिशर के साथ टाइअप करके एनडीटीवी गुडटाइम चैनल शुरु किया था और तब एनडीटीवी जितना टीवी स्क्रीन पर नहीं दिखता था, उससे कहीं ज्यादा शराब के ठेके  में पड़े गत्ते पर लिखा मिलता था. सीएनएन ग्रुप प्रायोजित रुप से सिटिजन जर्नलिज्म कर रहा है, यंग लीडर का अवार्ड दे रहा है, जीवन बीमा कंपनियों से सांठ-गांठ करके उद्यमियों को पुरस्कार दे रहा है तो इधर आजतक को रह-रहकर देश से भ्रष्टाचार दूर करने का दौरा पड़ता है और बक्सा-पेटी लेकर सड़कों पर उतर आता है. लाफ्टर शो को लंगड़ी मारने के लिए चुटकुला और हास्य कविता के कार्यक्रम करवाता है. वो सबकुछ बचा रहा है, सबकुछ बना रहा है लेकिन न तो खबरों को बचाने में,पत्रकारिता को बचाने में उसकी दिलचस्पी है और न ही मीडिया को. जिस दिन कंपनियों,ठेकेदारों,बिल्डरों के चश्मे से पैसे का सोता फूटना बंद हो जाएगा,सारी चैरिटी खत्म.

 ये सब बस इसलिए क्योंकि इनमें से कुछ मीडिया संस्थानों को अपनी मदर कंपनी के मूल धंधे को बढ़ाना होता है या फिर जिन मीडिया संस्थानों का सिर्फ मीडिया का ही धंधा है,उन्हें रीयल एस्टेट, फाइनाइंस और दूसरे ऐसे क्षेत्र की कंपनियां मिल जाती है कि वो उनसे जुड़े धंधे को लेकर कैम्पेन शुरु करते हैं और बाजार पर उनकी पकड़ बनाने में हद तक मदद करते हैं. ये सब वो अपनी सुविधा,मुनाफे और धंधे को चमकाने के लिए करते हैं. सुनेत्रा चौधरी( एनडीटीवी 24x7) ने इलेक्शन बस 2009 के अनुभव को लेकर किताब लिखी है- A BUS, 2 GIRLS,15 THOUSAND KILOMETRES,715 MILLION VOTES !!!. इसमें संस्मरण की शक्ल में डॉ. प्रणय राय की एक बात शामिल की है- सुनेत्रा, अब हमारा एक फाइव स्टार होट से टाइअप हो गया है और तुम्हें देश के किसी भी हिस्से में जहां-जहां उसकी चेन है, रुकने में दिक्कत नहीं होगी. 

कार्पोरेट,हॉस्पीटल, रियल एस्टेट का ये गठजोड़ इसलिए भी कि मीडिया संस्थानों को हराम की सुविधा मिल सके और बदले में वो उन्हें और उनके प्रोमोशनल इवेंट को खबर की शक्ल में दिखाते रहें. रियल एस्टेट औऱ बिजनेस की अधिकांश खबरें और उन पर पलनेवाले चैनल इसी बिना पर फल-फूल रहे हैं. और ये सारी बातें सिर्फ हम नहीं कह रहे, मीडिया में भ्रष्टाचार के सवाल पर बोलते हुए आज से तीन साल पहले राजदीप सरदेसाई ने खुलेआम कहा था- आप सिर्फ न्यूज चैनलों की बात क्यों कर रहे हैं, मनोरंजन और बिजनेस चैनलों की तरफ भी नजर घुमाइए, आपको पेड न्यूज का नया नजारा दिखेगा..आप कुछ मत कीजिए, चैनलों पर जो विज्ञापन आते हैं, उन्हें ध्यान में रखिए और फिर बिजनेस से जुड़ी खबरें देखिए..आप पाएंगे कि उन कंपनियों के चेयरमैन,सीइओ और डायरेक्टर को इस अंदाज में पेश करते हैं जैसे कि समाज के हीरो वही हैं. राजदीप ने कभी दूरदर्शन और पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का मजाक उड़ाते हुए और वो भी दूरदर्शन की ही परिचर्चा में कहा था कि जरुरी नहीं कि हर बुलटिन प्रधानमंत्री से ही शुरु हो..सही बात थी लेकिन प्रधानमंत्री को रिप्लेस करके जिनके चेहरे चमकाने का काम मीडिया कर रहा है, उनकी कितना अकाउंटबिलिटी है, कितनी साख है, इस पर भी तो बात होनी चाहिए. आज आप उन्हें हीरो की तरह पेश कर रहे हैं, कल वो कंपनी बंद करके चल देंगे, सैंकड़ों लोग सड़क पर आ जाएंगे, आप उनके बारे में खबरें प्रसारित करेंगे ? आप कहते हैं समाज करप्ट हो रहा है लेकिन इस करप्ट होते समाज के बीच मीडिया किन लोगों को बढ़ावा दे रहा है, कभी गौर करेंगे ? जो चैनल चलाता है, वही फर्जी लेन-देन में जेल चला जाता है औऱ उसका चैनल सरकार और व्यवस्था पर भ्रष्टाचार को लेकर स्टोरी चला रहा है..ये हद नहीं है क्या ?

मुझे यकीन है कि पिछले चार-पांच सालों से मीडिया खबर दिखाने-बताने के धंधे को छोड़कर एक्टिविज्म और चैरिटी में कूद पड़ा है, सरकार इसे गंभीरता से नहीं लेने जा रही है क्योंकि अभी तक सरकार को सीधे-सीधे इससे कोई दिक्कत नहीं है..लेकिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय बीच-बीच में ये सवाल उठाती है कि आपको लाइसेंस न्यूज चैनल का मिला है और आप मनोरंजन चैनलों जैसा कार्यक्रम दिखा रहे हैं, ठीक उसी तरह सवाल किए जाने चाहिए कि आपको लाइसेंस खबरों का धंधा करने के लिए मिला है, ये आप चैरिटी का काम क्यों कर रहे हैं ?

अगर किसी ने लाइव इंडिया को केस स्टडी बनाकर वहां हुए और हो रहे मानवाधिकार के उल्लंघन के मामले पर गौर करे तो आपको ये चैनल कम,बूचड़खाना ज्यादा जान पड़ेगा. दर्जनों मीडियाकर्मियों का हक मारा जा रहा है,मारा गया है. जिन शर्तों पर उनसे काम करवाया जाता है, वो बंधुआगिरी से कम बदतर नहीं है. आए दिन असुरक्षा के भाव ने उनके स्वाभिमान को बुरी तरह कुचल दिया है. आप इनसाइड स्टोरी करेंगे तो शायद नाम बताने की शर्त पर वो जुबान खोलें और कहें कि जितने पैसे चैनल इस तरह के भौंडे प्रोमोशन के लिए कर रहा है, उतने पैसे कार्यक्रम बनाने और एचआर पर करे तो चैनल की स्थिति सुधर सकती है.

लाइव इंडिया ने लाखों रुपये देकर दि टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले आधे पन्ने पर समरुद्धा जीवन ग्रुप के सीएमडी महेश मोटेवर की तस्वीर छपवायी है, आप पाठकों से अपील है कि इस तस्वीर को नजर में बसा लें, वो देश में किस-किस तरह के महान और समाज सेवा का काम करते हैं, नजर में रखें..ऐसे ही तारनहार कल को तर्क देंगे कि हमने तो मीडिया के जरिए समाज को बदलने की कोशिश की लेकिन जब हमे इससे करोड़ों का नुकसान होने लगा तो आखिर हम भी कब तक बर्दाश्त करते, मजबूरी में बंद करना पड़ा. पस्त सरकार और जर्जर व्यवस्था के बीच जो थोड़ा भला होगा, इन्हीं चैनलों और मीडिया के बूते और मीडिया का भला तभी तक होगा जब तक उसे धनपशु मिलते रहें इसलिए जरुरी है कि इस देश में पशुओं से कहीं ज्यादा धनपशुओं की सेवा की जाए.
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हीरोईन फिल्म देख ली. मैं भीतर से डरा हुआ हूं कि इस फिल्म के बाद मधुर भंडारकर की हालत रामगोपाल वर्मा जैसी न हो जाए. उनकी तरह ही मधुर की फिल्म से शॉट्स,डायलॉग के होने-न होने के तर्क तेजी से खत्म हो रहे हैं और कहीं वे सिनेमा बनाने के लिए सिनेमा न बनाते रह जाएं. हीरोईन में इसकी शुरुआत हो चुकी है. देखते हुए मुझे बार-बार ग्वायर हॉल हॉस्टल की सब्जियों की ग्रेवी की याद आ रही थी. चाहे मटर पनीर हो, मलाई कोफ्ता,अंडा करी या फिर चिकन या मछली ही क्यों न हो, सबों की ग्रेवी एक ही होती..बस अलग से दो पीस मछली के या कोफ्ता डाल दिए जाते. मधुर भंडारकर ने भी ऐसा ही करना शुरु कर दिया है. 

हीरोईन, फैशन से आगे और अलग नहीं बढ़ पाती है बल्कि कार्पोरेट, फैशन की राइम्स पढ़ती हुई डर्टी पिक्चर में जा धंसती है. कोई बारीकी नहीं, कोई गंभीर रिसर्च नहीं. एक लापरवाह परीक्षार्थी की तरह भंडारकर ने इसे हम दर्शकों के बीच परोस दिया कि हमने तो सारी पढ़ाई पहले ही कर ली है, अब अलग से परीक्षा की तैयारी क्या करनी ? सिनेमा के भीतर सिनेमा बनते हुए "तरन्नुम जान" को लेकर उम्मीद जगी थी कि शायद चमेली से आगे की कोई चीज देख सकेंगे लेकिन उसमें तपन दा को इस टिपिकल तरीके से दिखाया गया कि फिल्म के भीतर फिल्म देख न सके और रिलीज ही नहीं हो सकी. आप कह सकते हैं कि जब कार्पोरेट,फैशन इन्डस्ट्री और वॉलीबुड की लाइफ स्टाइल और उसकी बिडंबना एक सी है तो आखिर कितना नया और अलग दिखेगा ? लेकिन फिर तो इस देश में मजदूर,किसान, निम्न मध्यवर्ग..सबों की स्थिति एक सी ही है तो फिर रोटी,जंजीर से लेकर पीपली लाइव तक दर्जनों फिल्में बनाने की क्या जरुरत है ? 

इन सबके बावजूद इस फिल्म को वॉलीबुड से कहीं ज्यादा "मीडिया की छवि" कैसी बनाई गयी है, इसके लिए देखनी चाहिए..मैंने कभी कथादेश के मीडिया विशेषांक में एक लेख लिखा था- सिनेमा का नया खलनायक मीडिया, ये बात इस फिल्म में मजबूती से दिखाई देती है..सिनेमा के लोग चर्चा में बने रहने के लिए,पब्लिसिटी के लिए मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से करते हैं और खुद भी होते हैं,ये अलग से समझने की जरुरत नहीं है लेकिन हिन्दी सिनेमा उसे लगातार एकतरफा ढंग से पोट्रे कर रहा है..रण,शोबिज जैसी फिल्में तो इसकी नकारात्मक छवि को बताने के लिए ही बनी है..बाकी पा,पीपली लाइव जैसी कम से कम दर्जन भर फिल्में हैं जिनमें मीडिया खलनायक की भूमिका में दिखाया-बताया गया है. 

मीडिया के चरित्र खासकर समाचार चैनलों से गहरी असहमति रखने के बावजूद महसूस कर रहा हूं कि अब कुछ ज्यादा हो रहा है..ये एकतरफा हो रहा है और अगर ये आगे भी होता रहा तो संभव है कि कोई "मीडिया पॉजेटिव" को लेकर फिल्म बनाए.

सिंगल स्क्रीन थिएटर या सिनेमाहॉल  में सिनेमा देखना का अपना सुख है. पीवीआर,मल्टीप्लेक्स में फिल्में देखते वक्त लोग इतने चुप्प रहते हैं मानो स्क्रीन पर कोई फिल्म नहीं चल रही, लाश जल रही हो और दर्शक दाह-संस्कार के लिए जुटे हों. सिंगल स्क्रीन में अधिकांश लोग कुछ न कुछ बोलते हैं..आपको शायद ये शोर लगे लेकिन मैं जब भी बत्रा,अंबा,लिबर्टी जैसे सिनेमाहॉल में फिल्में देखता हूं तो लगता है मैं चारों तरफ हुडदंगिए दर्शकों से नहीं,सिनेमा समीक्षकों से घिरा हूं. सभ्य समाज से आनेवाले दर्शकों को ऐसी टिप्पणी परेशान कर सकती है कि सिर्फ टनाका माल होने से काम नहीं चलता है वेवो, प्यार पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है, बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है..तुम सोचोगी कि एकै साथ अर्जुनवा को भी पटाए रखें और उसको मोहरा बनाके डायरेक्टर को चूतिया बनाकर एक के बाद एक फिलिमो साइन करते रहें तो बाकी पब्लिक चूतिया नहीं है...

लेकिन इन टिप्पणियों से गुजरते हुए आप समझ पाते हैं कि जिन फिल्मों में संवाद और अर्थ तेजी से मर रहे हैं,ध्वस्त हो रहे हैं, उनके बीच ऑडिएंस कैसे संप्रेषण की संभावना खोज पाती है. संभव है कि ऐसी ऑडिएंस निखत,शुभ्रा और राजीव मसंद की रिव्यू पढ़कर सिनेमा देखने नहीं आती और पीवीर की ऑडिएंस की तरह मन ही मन उससे सिनेमा का मिलान करती हो लेकिन "स्टडी विफोर वॉचिंग" के बिना भी वो कदम-दर-कदम टिप्पणी करने से बाज नहीं आती..ये एक किस्म की लाइव समीक्षा होती है और अगर कोई इसी नीयत से मल्टीप्लेक्स,ओडियन,वेव और पीवीआर को छोड़कर टिपिकल सिनेमाहॉल में जाकर इन टिप्पणियों को नोट करे तो बड़ी ही दिलचस्प स्टडी निकलकर सामने आएगी..कोई बॉलकनी,डीसी की अलग से और रीयल स्टॉल,नीचे की अलग-अलग नोट कर सके तो टिकट में महज पच्चीस रुपये की फर्क के बीच कई स्तरों पर फर्क समझ सकता है.

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लप्रेक( लघु प्रेम कथा)

निखिल ! हां नीलिमा. एक बात बता,ये अपने पीएम अंकल हमारी तरह ही हनी सिंह के बिग फैन हैं क्या ?

 क्यों क्या हुआ ? नहीं,वैसे ही पूछ रही हूं,मुझे लगा तो. देख न जबसे उसकी एल्बम "इन्टरनेशनल विलेजर" आयी है न, हम जैसी तो डीजे में बाकी किसी बिट्स पर हिलते तक नहीं और इसी बीच बजा दे कोई "प्यार तेनू करदे गबरु" फिर मजाल है कि हमारे पैरों को थिरकने से कोई रोक दे ? मुझे तो लगता है, अंकल ने हनी सिंह से ही एन्सपायर 
होकर ये एफडीआई वाला बीट शुरु किया न..और देख कैसे विपक्षी पार्टी से लेकर देश की जनता वावली हुई जा रही है.

 तुम उनके प्रतिरोध औऱ असहमति को थिरकना कहोगी नीलिमा ? तुम तो मस्ती में थिरकती हो लेकिन जनता मजबूरी और तकलीफ में विरोध कर रही है..

ओह,तूने मेरे कहने का सही से मतलब समझा नहीं. जैसे अपना हनी सिंह कह रहा है कि विलेजर का मतलब सिर्फ होरी महतो,धनिया,झुनिया और गोबर नहीं होता है..अब विलेजर भी ग्लोबल हो रहा है, इन्टरनेशनल हो रहा है..एफडीआइ से हमारे विलेजर्स ऑब्लिक किसान भी ग्लोबल होंगे..महिन्द्रा की ट्रैक्टर पर चढ़कर "न्यू बैलेंस" जूते पहनकर गीयर दबाएंगे. रोट्टी खाने के पहले हाथ धोएंगे तो ट्यूबल के पास टे हेग्यार की घड़ी खोलकर घड़ी रखेंगे. यार आदिदास( तू कालिदास का भाई न समझ लेना इस कंपनी के मालिक को) की महरून टीशर्ट में जब वो खेतों से मूली उखाड़गे तो कितने क्यूट लगेंगे न वो..और फिर प्यूमा की वॉटल ग्रीन टीशर्ट में वॉलमार्ट के एजेंटों से डील करेंगे. 

निखिल,पता है..अपने किसानों को इस तरह देखकर स्साले वॉल मार्टवाले भी टेंशन में आ जाएंगे..और ये तेरे फ्रेंड वैभव, लक्की, विकास सिंह सेल में खरीदी हुई टीशर्ट पहनकर चौड़े हुए फिरते हैं, अपने को राउडी राठौर समझते हैं, सब ऐंवें, टिल्ली-टिल्ली हो जाएंगे उनके सामने. मैं तो अभी से ही एक्साइटेड हूं खेतों में काम करते वक्त आदिदास, वालमार्ट में प्यूमा की टीशर्ट पहने..आह, हमारे यंग फार्मरस कितने कूल दिखेंगे न ? देखना तब नवाजउद्दीन को भी समझ आ जाएगा कि एक अकेला वही बिचली अड़ान से निकला हीरो नहीं है और एक अकेले अनुराग कश्यप का विजन नहीं है, कई और भी खोज सकते हैं नवाज जैसे हीरो..

ओह नीलिमा, तुम कहां की बात कहां जोड़ने लग जाती है. इतनी सीरियस इश्यू को ऐसे डायल्यूट करोगी ? क्या खेती सिर्फ युवा किसान ही करते हैं, कभी जाकर देखा है तुमने कि कितने बुजुर्ग खून लगाते हैं इसके पीछे. कमऑन निखिल, इसमें गलत क्या है ? क्या तुम नहीं चाहते कि हमारे विलेजर्स प्लस फारमर्स भी हमारी तरह ग्लैमरस दिखें,वही सब पहने और खाएं जो हम पहनते-खाते हैं..तुम तो बड़े इक्वलिटी की बात करते हो फिर यहां क्या एक्सक्लूसिव न रहने का खतरा हो रहा है ? बुजुर्ग होते हैं तो वो आदिदास नहीं फैब इंडिया के कुर्ते पहनेंगे पर दिखेंगे तो चटकीले ही. तुझे याद है डीडी पर गुलजार की तहरीरः मुंशी प्रेमचंद आयी थी. अपना होरी,गोबर,रुपा,झुनिया खादी इंडिया के कपड़ों में कैसे झक्कास दिख रहे थे. अगर गुलजार ने उन्हें फैब इंडिया के कपड़े पहनाए होते तो आय एम डैम श्योर कि कोई यकीन भी नहीं करता कि ये प्रेमचंद के गोदान के कैरेक्टर हैं या फिर अनुराग के गैंग्स ऑफ बासेपुर के. हां,इस बात पर तुम अंकल से शिकात कर सकते हो कि ऐसा करके हम मेट्रो के यंगस्टर्स की फैशन और लाइफ स्टाइल एक्सक्लूसिव नहीं रह जाएगी. जब हमारे विलेजर्स वाल मार्ट से डील करेंगे तो क्या सिर्फ उनसे पैसे ही लेगें, उनकी कल्चर और लाइफ स्टाइल भी तो एडॉप्ट करेंगे न.

 निखिल,कितना अजीब और एक्साइटिंग है न सबकुछ इस देश में. अब तक फारमर्स जो दिन-रात तेज धूप और बारिश में फसलें उगाकर न जाने कितने किलोमीटर जाकर इन्हें बेचते आए हैं, अब वो उस धूप से सीधे एसी में होंगे और ये बीबीए,एमबीए के लाखों स्टूडेंटस एसी कमरों में बिजनेस औऱ धंधे के गुर सीखते हैं वो मुरैना,बक्सर और भटिंडा की धूल-धक्कड भरी सफेद दाग की शिकार सड़कों के किनारे कंपनी की छतरी लगाकर वाइ वन गेट वन, टू थाउजेंड की रिचार्ज पर सिम फ्री और पानी साफ करने की मशीन बेचेंगे..जो हो निखिल, वट एटलिस्ट, आइ वना सी द होल सर्कस ऑफ दिस ग्रेट डेमोक्रेसी..

निखिल,तू भी कुछ बोल न..मैं क्या बोलूं ? कुछ भी..

कुछ भी क्यों नीलिमा, बोलूंगा तो तुम फिर कहोगी कि तू ज्ञान देने लग गया, पर तुम्हें नहीं लग रहा कि तुम कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की लिखी एक-एक लाइन की इतनी बुरी तरह से मजाक उड़ा रही हो जितनी कि हमारे सहीपंथी यानी राइटिस्ट भी नहीं उड़ाते. तुम्हें कभी होश भी होता है कि तुम रौ में क्या-क्या बोल जाती हो ? तुम्हारे लिए ये सब सर्कस है..

निखिल ! मैं जानती थी तू फिर से शुरु हो जाएगा, स्साला तू कभी सार्केजम समझने के लिए तैयार ही नहीं होता यार..तुझे एक-एक सीरियस टोन में ही चाहिए होती है..हद हो गई यार.


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आज ब्लॉगिंग करते हुए कुल पांच साल हो गए. आज ही के दिन मैंने मेनस्ट्रीम मीडिया की मामूली( सैलरी के लिहाज से) नौकरी छोड़कर अकादमिक दुनिया में पूरी तरह वापस आने का फैसला लिया था. ब्लॉगिंग करते हुए साल-दर-साल गुजरते चले जा रहे हैं लेकिन मैं इस रात को और अगली सुबह को अक्सर याद करता हूं जब हम उस आदिम सपने से बाहर निकलकर कि बड़ा होकर पत्रकार बनना है, आजतक में काम करना है वर्चुअल स्पेस पर कीबोर्डघसीटी करने लग गए.

ब्लॉगिंग के जब भी साल पूरे होते हैं, मैं फ्लैशबैक में चला जाता हूं. मैं अपने पीछे के उन सालों को उसी क्रम में याद करने लग जाता हूं. इतनी जतन और सावधानी से जैसे कि इसके पहले की कोई तारीख या दिन मेरी जिंदगी के लिए कोई खास मायने नहीं रखते. इससे ठीक एक महीने पहले मेरा जन्मदिन आता है और हर बार घसीट-घसाटकर बीत जाता है. पिछले दो बार से तो हॉस्पीटल में और अबकी बार तो इतना खराब कि मैं शायद ही अपने जन्मदिन को याद करना चाहूंगा. दिनभर मयूर विहार के घर को छोड़ने और कचोटने में बीत गया. ये सच है कि हमारी मौत की तारीखें मुकर्रर नहीं होती लेकिन कुछ तारीखें ऐसी जरुर होती है जो अक्सर जिंदगी के आसपास नाचती रहती है और मौत जैसी ही तकलीफ देती रहती है. शायद इन तारीखों में से मेरे जन्मदिन की एक ऐसी ही तारीख है. खैर,

अपने जन्मदिन को लेकर मैं जितना ही शिथिल,बेपरवाह और लगभग उदास रहता हूं, ब्लॉगिंग की तारीख को लेकर उतना ही उत्साहित, संजीदा और तरल. मैं धीरे-धीरे अपने जन्मदिन की तारीख को खिसकाकर 19 सितंबर तक ले आना चाहता हूं ताकि 17 अगस्त के आसपास मौत जैसी तकलीफ नाचनी बंद हो जाए. मुझे अक्सर लगता है कि मेरी असल पैदाईश इसी दिन हुई. जिस विनीत को आप जानते हैं, वो इस तारीख के पहले आपके बीच नहीं था. वो पहले साहित्य का छात्र था, किसी चैनल का ट्रेनी थी, रिसर्चर था, मां का दुलारा बेटा था, पापा का दुत्कारा कुपुत्र था, बिहार-झारखंड छोड़कर हमेशा के लिए दिल्ली में बसने की चाहत लिए एक शख्स था. वो कदम-कदम पर प्रशांत प्रियदर्शी, ललित, गिरीन्द्र, शैलेश भारतवासी जैसे को परेशान करनेवाला ब्लॉगर नहीं था. वो बात/मुद्दे पीछे पोस्ट तान देनेवाला ब्लॉग राइटर नहीं था. मैं कभी-कभी सोचते हुए गहरे हताशा से भर जाता हूं कि मेरी पहचान किस हद तक सीमित है कि अगर मैंने अदना सा ये ब्लॉग शुरु नहीं करता तो जितने लोग मुझे अब जानते हैं, बमुश्किल उनमें से दस फीसद लोग मुझे जान रहे होते. इतना ही नहीं, चाहे जितने भी लोग किसी न किसी रुप में मेरे आसपास हैं उनमें से आधे से ज्यादा लोग ब्लॉगिंग न करने पर नहीं होते. सुख-दुख,छोटी-बड़ी दुनियाभर की न जाने कितनी सारी बातें मैं उनसे साझा करता हूं. लंबे समय तक जीमेल से उनसे चैट होती रही है इसलिए अब वे इस मंच से छूट भी गए हैं तो भी फोन करते हुए रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि हम जबलपुर फोन कर रहे हैं कि गिरीन्द्र अब पूर्णिया चला गया है कि पीडी जब किस्सा सुनाना शुरु करता है तो कब चेन्नई से उठाकर पटना की जलेबीनुमा सड़कों और उतनी ही घुमावदार यादों की तरफ लेकर चला जाता है. मैं इन सबसे बिना पूछे रिश्तेदारी क्लेम करने लग जाउं तो आज इस देश का कोई भी ऐसा शहर/कस्बा नहीं है जहां कोई दोस्त न मिल जाए. मुझे तो अब देश के किसी भी कोने में जाने में हिचक ही नहीं होती..लगता है, मुसीबत आने पर उस शहर में ब्लॉगर तो होगा. हम इस अर्थ में अतिजातिवादी हो गए हैं और ब्लॉग नाम की जाति की तलाश और उम्मीद से पूरे देश में भटकते रहते हैं. अब तो फेसबुक ने पहले से भी ज्यादा मामले को आसान कर दिया है.

पिछले पांच साल की तरफ पलटकर देखता हूं तो लगता है इसी ब्लॉगिंग ने मेरे भीतर कितना साहस, कितने सारे जिद्दी धुन भर दिए हैं. सोचिए न, संत जेवियर्स कॉलेज,रांची के स्कूल जैसी सख्ती भरे माहौल से निकलकर आया ग्रेजुएट, हिन्दू कॉलेज दिल्ली में आकर सबकुछ नए सिरे से समझने की कोशिश करता है. बनने से पहले उसके भीतर की कई सारी चीजें टूटती है, चटकती है..इसी जद्दोजहद में कब पैसे कमाने की जरुरत होने लगी,पता तक नहीं चला. ये वो समय था जब जोड़-तोड़,चेला-चमचई, अग्गा-पिच्छा को आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता बताया जा रहा था. हम एक बेहतर लेखक,पत्रकार,रिसर्चर बनने के सपने लेकर,ट्रेनिंग लेकर तैयार हुए थे और अब हमें बने रहने और सफल होने के लिए निहायत अव्वल दर्जे का हरामी,कमीना, चाटुकार,सेटर बनना था. ऐसे में मुझे गहरी उदासी के बीच भी अपने ब्लॉग पर बेइतहां प्यार उमड़ता है- हुंकारः हां जी सर कल्चर के खिलाफ.

कभी-कभी तो मैं सोचकर कांप जाता हूं कि अगर मैंने ब्लॉगिंग न की होती तो देश-दुनिया और समाज को देखने का तरीका मेरा कितना अलग होता. अलग अभी जिस तरह से देख पा रहा हूं, उससे . नहीं तो जमाने के हिसाब से तो अधिकांश लोगों की तरह ही होता. हम हर शख्स को अकादमिक चश्में में कैद करके देखते- वो ब्राह्मण है, वो राजपूत है, वो भूमिहार है, ओबीसी है,दलित है. उसकी गर्लफ्रैंड एससी है, जान-बूझकर पटाया है कि कोई नहीं तो कम से कम एक की तो नौकरी पक्की हो जाए. उसका गाइड यूपी का है, बनारस-बनारस कार्ड खेला है. वो हरियाणा का है, वो जाट है, ये लड़की ओबीसी है..ब्ला,ब्ला. इस अकदामिक चश्मे से जो कि जाहिर तौर पर तमाम तरह के वैचारिक खुलेपन और देरिदा,फूको,ल्योतार की किताबों को सेल्फ में सजा लेने और वैल्यू लोडेड वर्ड्स के बीच-बीच में झोंकते रहने के बावजूद अलग से कुछ समझ नहीं आता. पूर्ववर्ती साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के डिब्बाबंद विचार बस क्लासरुम और आगे चलकर उत्तर-पुस्तिकाओं/थीसिस तक में जाकर सिमट जाती है, मुझे लगता है इस ब्लॉग ने ही मुझे लोगों को,चीजों को इस चश्मे से देखने से मना कर दिया. इसे ऐसे कह लें कि अकादमिक दुनिया की वो बारीकी मेरे भीतर पैदा ही नहीं होने दी जिसमें इस तरह के भेदभाव को बरतते हुए भी ज्ञान की बदौलत प्रगतिशील होने के कला सीख-समझ सकें. ब्लॉगिंग ने एक ही साथ हमें साहसी और ठस्स बना दिया.

साहसी इस अर्थ में कि जब हम अपनी लैपटॉप पर घुप्प अंधेरे में बैठकर किसी भी मठाधीश पर लिख रहे होते हैं तो दिमाग में रत्तीभर भी ख्याल नहीं आता कि वो मेरा किस हद तक नुकसान करेंगे ? बस एक किस्म का इत्मिनान होता है कि इस कमरे तक किसी की पहुंच नहीं है और अगर हो भी तो तब तक हम अपनी बात तो कह लेंगे. दुनिया की व्यावहारिकता से पूरी तरह निस्संग तो नहीं लेकिन हां एक हद तक इसने हमें पूरी तरह उसमें लिथड़ने से बचा लिया..आज हम ब्लॉगिंग करते हुए अच्छा चाहे खराब जो कि बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है, वो हो पाए जो कि खालिस रिसर्चर होते हुए शायद कभी नहीं हो पाते..इसने हमारे भीतर वो अकूत ताकत पैदा की है कि हम किसी भी घटना और व्यक्ति के प्रति असहमत होने की स्थिति में लिख सकते हैं, प्रतिरोध जाहिर कर सकते हैं. निराला, बाबा नागार्जुन, मुक्तिबोध, प्रेमचंद, रेणू जैसे  अपने पुराने साहित्यकारों में अस्वीकार का जो साहस रहा है, अभिव्यक्ति के खतरे उठाने का जो माद्दा रहा है, वो उनकी रचनाओं के पढ़ने के बाद क्लासरुम और अकादमिक दुनिया से नहीं, इसी ब्लॉगिंग से थोड़ा-बहुत ही सही अपने भीतर संरक्षित रह पाया.

और ठस्स इस अर्थ में कि इसने मेरे भीतर वो कभी कलात्मक बोध पैदा नहीं होने दिया जिसका इस्तेमाल हम भाषिक सौन्दर्य विधान पैदा करने के बजाय उस झीने पर्दे की तरह करते जो हमें स्टैंड राइटिंग के बजाय मैनेज्ड राइटिंग की तरफ ले जाता. हम सिर्फ उन्हीं रचनाओं,लेखकों और मूर्धन्यों के बारे में लिखते जो हमारी जेब की सेहत और बौद्धिक छवि दुरुस्त करने के काम आते. मतलब हम चूजी राइटर होने से बच गए और इससे हुआ ये कि हमारे हिस्से कई ऐसे मुद्दे,कई ऐसे लोग आ गए जो मेनस्ट्रीम मीडिया की डस्टबिन में फेक दिए गए थे, जो अकामदिक दुनिया में सिरमौर करार दे दिए गए थे, जो मीडिया में मसीहा नाम से समादृत थे. हमने लेखन के नाम पर ठिठई ज्यादा की है और ये सब बस इसलिए कि ब्लॉग नाम की एक चीज हमारे पास थी और जिसके उपर किसी की सत्ता नहीं थी. ये अलग बात है कि अब इस विधा में भी एक से एक लड़भक और लड़चट लोग आ गए हैं. मैं तो अपने उन पुराने ब्लॉगर साथियों को याद करता हूं जो अपनी भाषिक खूबसूरती के साथ ऐसी धज्जियां उड़ाते थे कि पायजामे का सिला बुश्शर्ट तक को पता न चले. हम इस अकेले ब्लॉग की बदौलत( आर्थिक रुप से जेआरएफ की बदौलत) लंबे समय तक सिस्टम का कल-पुर्जा,चेला-चपाटी बनने से बचते रहे. नहीं तो हम कभी ब्लॉगर नहीं, चम्पू या फिर जमाने पहले ही एस्सिटेंट/ एसोशिएट पदनाम से सुशोभित हो गए होते.

कई बार कुछ घटनाएं,कुछ प्रसंग बहुत ही ज्यादा मन को कचोटती है. लगता है किससे कहें. मोबाइल की टच स्क्रीन पर उंगलियां सरकने लग जाती है. फिर हम उसे साइड कर देते हैं जैसे कि किसी पर यकीन न हो और फिर एक नई पोस्ट लिख देते हैं. कौन ऐसा पात्र खोजने जाए जो ठीक-ठीक मेरी मनःस्थिति को समझ सकेगा,लाओ यहीं उतार दो. आप जो मुझे लगातर पढ़ते हैं न, कई बार वो मेरे मन की कबाड़ है, उचाट मन को उचटने न देने की कवायद. उसमें न तो रिपोर्टिंग है, न खबर है, न कथा है और न ही साहित्यिकता. उसमें वो सब है,जिससे हम छूटना चाहते हैं, जिसके छूटते जाने पर भारी तकलीफ होती है.

अपने इस ब्लॉग के एक कोने में अक्सर मेरी मां होती है. न्यूज बुलेटिन की तरह खेल,राजनीति,मनोरंजन की तरह एक अनिवार्य सेग्मेंट. वो मां जो अक्सर मजाक में कहा करती है- तुमको पैदा तो किए लेकिन चीन्हें( पहचानना) बहुत बाद में. वो इसके जरिए मुझे रोज चीन्ह रही है. जमशेदपुर के चार कमरे की फ्लैट में, बालकनी में बैठकर गुजरती बकरियों,गाड़ियों और डॉगिज को देखते हुए. प्रभात खबर,हिन्दुस्तान,जागरण में छपी मेरी पोस्टों से गुजरते हुए. मुझे लगता है कि अगर मैं ब्लॉगिंग नहीं कर रहा होता तो मां के इस कोने को कहां व्यक्त कर पाता. कौन माई का लाल मेरी इस "बिसूरन कथा" को छापता. बचपन की मेरी उन फटीचर यादों को अपने अखबार और पत्रिकाओं के पन्ने पर जगह देता.

हम सबके बीच साग-सब्जी-दूध-फल-गाड़ी-मोटर के बाजारों के बीच अफवाहों का भी एक बड़ा बाजार है. ये बाजार बिना किसी ईंधन के अफवाहों से गर्म रहता है. इसी बाजार में अक्सर अटकलें लगती हैं. इन्हीं में  ये अटकल अक्सर लगती रही है- ये कुछ दिन का खेल है, देखिएगा लाइफ सेट होते ही ब्लॉग-स्लॉग सब छोड़ देगा. अरे देख नहीं रहे हैं, जनसत्ता,तहलका में लिखने और चैनल पर आने के बाद से कितना कम हो गया है लिखना ? बनने दिए एस्सिटेंट प्रोफेसर, सब ब्लॉगिंग पर बरफ जम जाएगा. इन अटकलों का हम क्या कर सकते हैं ? वैसे भी अफवाहें और अटकलें जब तक जिंदा रहे, उसी शक्ल में जिंदा रहे तो अच्छा है. उनका रुपांतरण घातक ही है..लेकिन

इतना तो जरुर है कि हम ब्लॉगिंग तो तभी छोड़ सकते हैं न जब मीडिया में किसी घटना से गुजरने के बाद उबाल आने बंद हो जाएं. आसपास की चीजों के चटकने के बाद भीतर से कुछ रिसने का एहसास खत्म हो जाए. मां के फोन पर यादों की गलियों में गुम होने बंद हो जाए..जब तक ये होते रहेंगे, आखिर विचारों के कबाड़ और कचोट को कहां रखेंगे. यहीं न. ऐसे में तो हम बस इतना ही कह सकते हैं न कि हमारी निरंतरता भले ही टूटती-अटकती रहे लेकिन तासीर बनी रहे, मैं अपनी कोशिश तो बस इतनी ही कर सकता हूं और अटकलों के बाजार के बीच आप मेरे लिए यही कामना कर सकते हैं, बाकी का क्या है ?

मेरे इस ब्लॉग में और ब्लॉगिंग करते हुए कई संबंध दर्ज है, कईयों से जुड़ने के संबंध और कईयों से जुड़कर अलग होने के संदर्भ. कुछ हमारे रोज के टिप्पणीकार हुआ करते थे, अब वे भूले-बिसरे गीत की तरह बनकर रह गए हैं. कुछ हमारे लेखन के बीच अचानक से संदर्भहीन हो गए हैं. अगर किसी रात मैं उन तमाम पुरानी पोस्टों को एक-एक करके पढ़ना शुरु करुं तो ऐसा लगेगा कि हम किसी कस्बे से गुजर रहे हैं जहां कभी हमारी गली हुआ करती थी, अब वो किसी का मकान हो गया है. जिसके साथ कभी हम अक्सर लुकाछिपी खेला करते थे वो हमारी पकड़ से छूट गए हैं. ये इतिहास जैसा प्रामाणिक न होते हुए भी, उससे कम दिलचस्प नहीं है. देर रात उन सबको याद करना कभी पागलपन लगता है और कभी हाथ गर्दन की तरफ बढ़ते हैं कि कोई दुपट्टा रखा होगा कि हम भभका मारकर रोने से पहले ही उसे अपने मुंह में ठूंस लें. संभावनाओं का ऐसा एल्बम सच में कितना दिलचस्प है न. !
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