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अन्ना सीजन वन और सीजन टू में टाटा से लेकर महिन्द्रा कंपनी ने अन्ना का समर्थन करके सरकार को आगाह कर दिया था कि अगर संसद के भीतर की चीजें हमारे मुताबिक नहीं हुई तो हम संसद के बाहर का मौहाल इतनी गर्म कर देंगे कि संसद के भीतर के लोग अपने आप महत्वहीन हो जाएंगे. टाटा डोकोमो ने ब्रांड अन्ना ऑफर और कॉलर ट्यून जारी किए, रतन टाटा ने देश के उद्योगपतियों से इस आंदोलन में साथ आने की अपील की. बजाज हमेशा साथ खड़े होने की बात की. ये वो सारी कार्पोरेट कंपनियां हैं जो तथाकथित भ्रष्ट सरकार के अपने साथ न दिए जाने पर भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ी हो गई थी.



चूंकि मीडिया और कार्पोरेट ममेरे-फुफेरे भाई हैं तो मीडिया ने भी जमकर इस अन्ना सीजन 1 और 2 का साथ दिया. न्यूजरुम के सारे सूरमा शीतप्रभाव(एसी) से निकल जंतर-मंतर पर जमा हुए. कटिंग चाय और कीन्ले की दम पर घंटों पीटूसी देते-करते रहे..चैनल के मालिकों के लिए ये भले ही मिले सुर मेरा तुम्हारा था लेकिन कुछ मीडियाकर्मियों के लिए जंतर-मंतर और रामलीला मैंदान कॉन्फेशन सेंटर थे जहां वे अपनी गर्दन की नसें फुलाकर पहले के कर्मों की प्रायश्चित इस सीजन के पक्ष में बात करके कर रहे थे. एक ही साथ कई सुरमाओं ने आवाज लगायी जिसमें सबसे उंचा स्वर अर्णव गोस्वामी का था. वो इसलिए भी कि उनकी मदर कंपनी की साख राष्ट्रमंडल खेल की ठेकेदारी न मिलने और पेड न्यूज प्रस्ताव की बात कैग की रिपोर्ट में सामने आने के बाद बुरी तरह मिट्टी में मिल चुकी थी और उन्हें ये दाग धोने थे. इस उंचे स्वर में अपने आइबीएन7 के आशुतोष का स्वर इतना गहरा गया कि जॉन रीड की "दस दिन दुनिया जब हिल उठी" की तर्ज पर अन्ना आंदोलन के पक्ष में पूरी की पूरी एक किताब ही लिख डाली और अगर उस दौरान की बहसों की फुटेज देखें तो आशुतोष आपको अन्ना कार्यकर्ता की भूमिका में नजर आएंगे. आशुतोष को अगर अपनी सैलरी की चिंता नहीं व्यापती तो जिस तरह जे पी आंदोलन में कई पेशेवर पत्रकार शामिल हुए थे, सब छोड़-छाड़कर वो भी इस सीजन में कूदते. लेकिन

अब यही चैनल आइबीएन7 भरी-पूरी भीड़ दिखाते हुए भी कह रहा है कि मैंदान खाली है. लोग नहीं जुट रहे हैं. आम आदमी नजर नहीं आ रहा. सवाल ये नहीं है कि लोग जुट रहे हैं कि नहीं. सवाल है कि क्या अब तक मीडिया जिस भ्रष्टाचार की मुहिम का साथ दे रहा था( हालांकि वो सिर्फ डैमेज कंट्रोल का हिस्सा था), अब सब दुरुस्त हो गया. हमें तो लगा था कि कोई नहीं तो कम से कम नेटवर्क18 ग्रुप के चैनल सरकार के विरोध में खड़े होंगे क्योंकि उस पर सीधे अंबानी का हाथ है लेकिन नहीं. उसकी वेबसाइट ने रिपोर्ट प्रकाशित की है कि अन्ना आंदोलन के बाद भ्रष्टाचार बढ़ा है..तो जनाब ये होती है सत्ता के पक्ष की जुबान. भूतपर्व स्टार न्यूज जो अब एबीपी न्यूज है ने सुपर लगाया- अन्ना का फ्लॉप शो ? जिस मीडिया और चैनल के लिए पिछले साल अन्ना का रियलिटी शो आंदोलन था और जब ये बात हम-आप कहते थे लोग कोडे बरसाने की मुद्रा में आ जाते थे. आज एक चैनल इस आंदोलन को शो बता रहा है तो कोई उससे सवाल करनेवाला नहीं है कि जिस आंदोलन में हजारों लोग शामिल हैं, उसे आप शो कैसे कह सकते हैं और सारी बहस परफॉर्मेंस पर क्यों हो रही है, मुद्दों पर बात क्यों नहीं हो रही ? क्या लोगों के कम जुटने से सारे मुद्दे खत्म हो गए और फिर जो बेशर्म मीडिया बार-बार सवाल कर रहा है कि लोग कहां गए, कोई उनसे भी तो पूछे कि लोगों का तो छोड़िए, आप कहां गए ? कल तक तो आप टीम अन्ना के चीयरलीडर और कार्यकर्ता बने फिरते थे.

अब कोई अर्णव से जाकर पूछे कि मीडिया इज अन्ना और अन्ना इज मीडिया का नारा कहां गया. वी सपोर्ट अन्ना के सुपर कहां गए और द टाइम्स ऑफ इंडिया का इश्तहार. भाईजी, हम ऐसे ही नहीं कहते हैं कि मीडिया शरीर का बुखार तक मुफ्त में नहीं देता,कवरेज कहां से देगा ? अब देखिएगा केजरीवाल और उनके वृंदों की जुबान उस मीडिया के खिलाफ जल्द ही खुलेगी जिसे अब तक मसीहा मानकर थै-थै कर रहे थे. चैनलों के एक-एक स्लग,सुपर,पीटूसी और एंकर लाइन अन्ना सीजन4 को कमजोर करने में जुटे हैं और इस हालत तक ला छोड़ेगे कि विजयादशमी तक केजरीवाल के पुतले फूंके जाएंगे और क्या पता अबकी बार सोनियाजी लाल किला जाकर रावण के पुतले में नहीं, उनके ही पुतले में बत्ती लगा आए.
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जिसकी निष्ठा खुद कटघरे में हो

Posted On 12:19 pm by विनीत कुमार | 3 comments

नौ जुलाई को गुवाहाटी की बीस साल की छात्रा के साथ हुई छेड़छाड़ और हमले के मामले में मीडिया को बराबर का अपराधी माना जा रहा है। सूचना अधिकार कार्यकर्ता और अण्णा समूह के सदस्य अखिल गोगोई ने गुवाहाटी के समाचार चैनल न्यूज लाइव के संवाददाता गौरव ज्योति नेओग पर आरोप लगाया कि उसने लोगों को उकसाया और फिर उसकी वीडियो रिकार्डिंग की। गोगोई ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस और फिर वीडियो स्क्रीनिंग के जरिए इसे सार्वजनिक किया, जिसमें इस घटना में शामिल बीस से ज्यादा लोगों के बीच गौरव ज्योति को पहचाना जा सकता है। फिलहाल दबाव बनने की स्थिति में 19 जुलाई को जमानत याचिका खारिज होने के एक दिन बाद उसे गिरफ्तार कर लिया गया।


समाचार चैनलों के हितों की रक्षा करने वाली संस्था बीइए (ब्रॉडकास्टर एडीटर्स एसोसिएशन) ने 17 जुलाई को प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए बताया कि गुवाहाटी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय (वरिष्ठ टीवी एंकर दिबांग, बीइए के सचिव एनके सिंह और आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष) जांच समिति गठित की गई है। यह समिति वहां जाकर पता लगाएगी कि इस पूरे मामले में क्या वाकई किसी मीडियाकर्मी की भूमिका शामिल है। जरूरत पड़ने पर वह निर्देश भी जारी करेगी कि ऐसे मामलों में पत्रकारिता-धर्म का किस तरह से निर्वाह किया जाना चाहिए?

बीइए की इस पहल पर गौर करें तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि गौरव ज्योति, गोगोई और न्यूज लाइव चैनल का जो मसला पूरी तरह कानूनी दायरे में आ चुका है, उसके बीच वह अपनी प्रासंगिकता स्थापित करने की कोशिश में है। आमतौर पर मीडिया की आदतन और इरादतन गड़बडि़यों को नजरअंदाज करने वाली संस्था बीइए अगर ऐसे कानूनी मामले के बीच अलग से जांच समिति गठित करने और रिपोर्ट जारी करने की बात करती है तो इसके आशय को गंभीरता से समझने की जरूरत है। इसके साथ ही ऐसे कानूनी मामले में बीइए अब तक क्या करती आई है, इस पर गौर करें तो स्थिति और साफ हो जाती है। 


13 अगस्त, 2010 को दिन के करीब डेढ़ बजे उनतीस वर्षीय कल्पेश मिस्त्री ने गुजरात के मेहसाणा जिला के उंझा पुलिस स्टेशन परिसर में आत्मदाह कर लिया। उसी शाम करीब सवा चार बजे उसकी मौत हो गई। घटना के दो दिन बाद पंद्रह अगस्त को उंझा पुलिस स्टेशन में दो मीडियाकर्मियों कमलेश रावल (रिपोर्टर, टीवी 9, मेहसाणा) और मयूर रावल (स्ट्रिंगर, गुजरात न्यूज) के खिलाफ कल्पेश मिस्त्री को आत्मदाह के लिए उकसाने के मामले में एफआईआर दर्ज की गई। इस घटना को लेकर भी बीइए ने सात सदस्यीय जांच समिति गठित की थी, जिसमें टाइम्स नाउ के अभिषेक कपूर और आईबीएन 7 के जनक दवे अपने व्यक्तिगत कारणों से इस पूरी प्रक्रिया से दूर रहे। समिति ने इस घटना से जुड़े लोगों से बात करने, घटनास्थल का जायजा लेने और कल्पेश मिस्त्री के परिवार वालों से मिलने में कुल एक दिन का समय लगाया और अगले दो दिन बाद रिपोर्ट तैयार कर दी। 25 से 27 अगस्त के बीच यह सारा काम हो गया और दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में आधे-अधूरे मीडियाकर्मियों की मौजूदगी में रिपोर्ट जारी कर दी गई। कल्पेश मिस्त्री और मयूर रावल का जो मामला पूरी तरह कानूनी दायरे में था, उसे बीइए की समिति ने मीडिया की नैतिकता और पत्रकारों का दायित्व जैसे मुद्दों में तब्दील करने की कोशिश की। उसने जो तथ्य दिए उससे कहीं से भी इन दोनों मीडियाकर्मियों को कानूनी प्रावधान के तहत सजा देने की जरूरत नहीं रह जाती है।

इस घटना के अलावा बीइए गठित होने के बाद से पिछले साल तक, सवा दो सालों में, किए गए उसके कुल नौ फैसलों पर गौर करें तो एक भी ऐसा नहीं है जिसकी बिना पर बीइए यह दावा कर सकती है कि उसने मीडिया के भीतर की गंदगी और गड़बडि़यों को दूर करने का काम किया है। उसका एक ही उद्देश्य है- इस बात की पूरी कोशिश कि पत्रकारों और टीवी चैनलों से जुड़े मामले किसी भी रूप में कानूनी प्रावधान के अंतर्गत न आएं और अगर आ जाते हैं तो उन पर आनन-फानन में रिपोर्ट जारी कर या फिर मामूली सजा देकर पूरे मामले को मीडिया की नैतिकता की बहस में घसीट लाओ। इस कोशिश में इंडिया टीवी पर किया गया फैसला भी शामिल है।

बीइए की ओर से अब तक की सबसे सख्त सजा इंडिया टीवी पर लगाया गया एक लाख रुपए का जुर्माना है। 26/11 के मुंबई हमले के दौरान इंडिया टीवी ने पाकिस्तानी मूल की फरहाना अली से इंटरव्यू प्रसारित किया। यह इंटरव्यू रायटर न्यूज एजेंसी से कॉपीराइट का उल्लंघन करते हुए लिया गया था, जिसमें उसे सीआईए की आतंकवादी घटनाओं की विशेषज्ञ के बजाय पाकिस्तान का जासूस बताया गया। फरहाना अली की शिकायत के बाद बीइए ने जब एक लाख रुपए का जुर्माना किया तो रजत शर्मा, (सीइओ और एडीटर इन चीफ, इंडिया टीवी) ने बीइए के कामकाज के प्रति अविश्वास जताते हुए अपनी सदस्यता वापस ले ली। बाद में बीइए के मान- मनौव्वल पर उन्होंने कुछ शर्तें रखते हुए स्थायी सदस्यता ली।

 इस पूरे घटनाक्रम में इंडिया टीवी ने साबित कर दिया कि बीइए की हैसियत क्या है! कोई मीडिया संस्थान बीइए के फैसले को नहीं मानता या फिर उसकी सदस्यता नहीं लेता तो उसके पास ऐसा कोई प्रावधान या अधिकार नहीं है कि वह इसके लिए बाध्य करे। इससे ठीक विपरीत जब वह किसी एक मीडिया संस्थान के खिलाफ फैसले करता है तो उसकी कमजोर स्थिति खुल कर सामने आ जाती है। ऐसे दर्जनों चैनल हैं, जिन्हें बीइए की गतिविधियों और फैसले से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि उल्टे उसके द्वारा जारी निर्देशों का जब-तब खुलेआम धज्जियां उड़ाने से भी नहीं चूकते। लेकिन बीइए है कि ऐसे मामलों में अपनी प्रासंगिकता साबित करने की भरपूर कोशिश करता है। शायद यही कारण है कि जो मीडिया संस्थान और चैनल उसके सदस्य नहीं होते, उनके मामलों में भी हस्तक्षेप करता है। जो मीडिया संस्थान कानूनी मामलों में फंसा रहता है, वह इस उम्मीद से उसकी कार्यवाही को स्वीकार कर लेता है कि उसके पहले के फैसले और रिपोर्टों से समझ आ रहा होता है कि संगठन कानूनी मसले को नैतिकता के सवाल में तब्दील करने की पूरी कोशिश करेगी।
सपाट शब्दों में कहें तो ऐसा करके बीइए दरअसल, अपने को कानून और न्यायिक जांच प्रक्रिया से अपने को ऊपर स्थापित करना चाहता है, जबकि खुद मीडिया संस्थानों के बीच न तो उसकी मजबूत पकड़ है, न ही साख है और न ही कोई विशेष अधिकार। अगर ऐसा होता तो वह मीडिया की उन गड़बडि़यों को सबसे पहले दुरुस्त करने का काम करता। इससे लोगों में यह संदेश जा रहा है कि मीडिया में जो जितना गलत तरीके से काम करता है, वह उतना ही आगे जाता है। जो जितना नैतिकता और पत्रकारीय दायित्व की धज्जियां उड़ाता है, उतना ही तरक्की पाता है।

 अगर ऐसा नहीं होता तो 2007 में लाइव इंडिया के जिस रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया, वह मामूली सजा के बाद रसूखदार व्यवसायी और सांसद का मीडिया सलाहकार नहीं बन जाता। उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन की फुटेज से अगर गुवाहाटी वाली घटना की फुटेज का मिलान करें तो दोनों में एक ही तरह से स्त्री के कपड़े फाड़ने की कोशिश हो रही है। एक में स्कूली छात्राओं की इज्जत बचाने के नाम पर और दूसरे में एक स्कूली छात्रा के साथ सरेआम यौन उत्पीड़न के लिए। तब दिल्ली के तुर्कमान गेट की भीड़ को नियंत्रित नहीं किया जाता तो दंगे की प्रबल संभावना थी। लेकिन चैनल के जिस सीइओ और प्रधान संपादक सुधीर चौधरी ने इस पूरे मामले से पल्ला झाड़ते हुए मीडिया में बयान दिया कि उसके रिपोर्टर ने उसे अंधेरे में रखा वही बाद में उस चैनल के रियल इस्टेट के हाथों बिक जाने के बाद तरक्की पाकर जी न्यूज का संपादक और बिजनेस हेड नहीं बन पाता। इतना ही नहीं, यही संपादक सालों से बीइए का खजांची भी है। दिलचस्प है कि यह सब उसी महीने हुआ जब चैनलों पर गुवाहाटी मामले के बहाने मीडिया की नैतिकता पर बहस हो रही है।
मामला बहुत साफ है कि जो संस्था मीडिया के धतकर्मों पर परदा डालने और कानूनी मामले को नैतिकता के दायरे में लाने पर अक्सर आमादा रही है, उससे गुवाहाटी जैसे मामलों में निष्पक्षता की कितनी उम्मीद की जा सकती है? खुद ऐसे संगठन कब तक मीडिया की साफ़- सुथरी छवि का भ्रम बनाए रख सकते हैं? 

( मूलतया जनसत्ता 22 जुलाई 2012 में प्रकाशित. )
फांट परिवर्तन और तस्वीर- मीडियाखबर.कॉम
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मंटो पर फ्रॉड शब्द चढ़ा रहता. वो बात-बात में फॉड है, कहते. ये मीराजी के दोनों हाथों में गोले क्या हैं ? सब फ्रॉड है..कुछ हेपतुल्ला करो यार, इसमें हेपतुल्लइज्म नहीं है, थोड़ा हेपतुलाइजेशन होनी चाहिए. ये हेपतुल्ला क्या है ?..मंटो मानते थे कि एक बार शब्द चल निकला तो वो शब्द अर्थ तो अपने आप अख्तियार कर लेगा. एक मंटो बम्बई में है तो एक मंटो पाकिस्तान में भी होना चाहिए ताकि वहां के हराम हुकुमरान की भी नुक्ताचीनी कर सके.



ये है महमूद फारुकी और दानिश हुसैन की "मंटोइयत". मंटों पर दास्तानगोई जिसे हमने आज शाम सुना. यकीन मानिए मंटो पर इससे बेहतरीन शायद ही कुछ हो. मंटो को लेकर आमतौर पर जो स्टीरियोटाइप की छवि लिए हम घूमते हैं, उससे काफी कुछ अलग और विस्तृत जिसमें उनकी आवारगी के बीच भी एक चिंता मौजूद रहती है. एक लेखक और फक्कड़ इंसान के बीच ये एहसास बराबर बना रहता है कि वो सोफिया का पति और तीन बच्चों का बाप है. जो शादी की रात जब थककर सो जाता है और सुबह उठता है तो महसूस करता है कि उसके शरीर का एक हिस्सा शौहर हो चुका है और वो इस बात से संतुष्ट है. आगे वो लगातार इस चिंता में होता है कि अगर उसे कुछ हो गया तो ये मुश्किल में पड़ जाएंगे. एक शख्स जो सबकुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन बेकद्री बिल्कुल भी नहीं. 

एक शख्स जो हमेशा विलोम में जीता है, जीना चाहता है लेकिन व्यवस्था की तथाकथित व्यवस्थित ढांचे के भीतर की अश्लीलता को उघाड़कर रख देता है. जिसकी अश्लीलता के आगे आप मंटो की भाषा पर एतराज करने के बजाय स्वयं से सवाल करेंगे- तो क्या इसके अलावे भी कोई शब्द और भाषा है जिसके जरिए कोई अपनी बात रख सकता है ? जिसका जीवन एक ही साथ दुनियाभर के उपन्यासों,कहानियों के बीच उलझा हुआ था लेकिन वो इतना जरुर जानता था कि अगर उसका नायक कोई आदर्श रुप धारण करता है,नैतिक दिखने लगता है तो उसका कैसे मुंडन किया जा सकता है और उन्होंने ये रस्म बहुत ही खूबसूरती से निभायी. और ये सब किसी दावे के साथ नहीं, यूं ही. जिसका कि एक सवाल के साथ कि हर बात पर रुस क्यों, हम जिस जमीन पर खड़े हैं उस हिस्से की बात क्यों नहीं सीधा मानना है कि जमाने को सिखाने से बेहतर है उससे बहुत कुछ सीखा जाए.

इस"मंटोइयत" में सिर्फ मंटो नहीं है. स्वयं महमूद फारुकी के शब्दों में जो यहां इस उम्मीद से पहुंचे हैं कि इस दास्तानगोई सुनने के बाद मंटों की किताब पढ़ने से बच जाएंगे, उनसे गुजारिश है कि द एट्टिक,कनॉट प्लेस, नई दिल्ली( जहां दास्तानगोई हो रही थी) के नीचे चले जाएं, वहां उन पर कुछ किताबें रखी है. इस मंटोइयत में दरअसल मंटो का वो मिजाज है जिसके जरिए वो एक ही साथ मनमोहन सिंह द्वारा शासित भारत,जरदारी की हुकुमत का पाकिस्तान और बराक ओबामा के अमेरिका को देखता है. हिन्दी पाठों की चर्चा करते हुए हम अक्सर कहते हैं न- व्यक्ति नहीं विचार है, कालखंड की घटना नहीं पूरी प्रक्रिया है, कुछ-कुछ वैसा ही.

इस "मंटोइयत" में एक वो लेखक और पिता शामिल है जिसे एक समय के बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों के प्रति मन उचट जाता है. जो दोनों देशों के भौगोलिक विभाजन के बावजूद संस्कृति और जीवन के स्तर पर जिंदगी भर भेद नहीं कर पाता..जो अक्सर अपनी बेचैनी को लेखन के बीच खत्म करना चाहता है. वो पैसे के लिए लिखता है,यारों के सपनों के लिए लिखता है,जीने के लिए लिखता है, बेचैन होने पर लिखता है..वो हर मौके पर लिखता है लेकिन कभी इस दावे से नहीं लिखता कि वो लिखकर समाज को बदल देगा..एक फ्रीलांसर की हैसियत से,पेशेवर लेखक के तौर पर जिसके भीतर जिंदगी के फलसफे अपने आप समाते चले जाते हैं.

सिनेमा की दुनिया, विभाजन, एक पेशेवर लेखक के बीच स्वतंत्र और अपने मन का लेखन और पेशगी लेकर लिखने की बीच के मानसिक तनाव को समझने के लिए चाहे देश के किसी भी हिस्से में ये "मंटोइयत" हो, जरुर देखा जाना चाहिए.

हमने महमूद और दानिश की बिना इजाजत लिए करीब दो घंटे की इस "मंटोइयत" की रिकार्डिंग कर ली है लेकिन बिना उनकी इजाजत के साझा नहीं करेंगे.ये शायद सही भी नहीं होगा. फिलहाल इतना ही. मंटो की इस गिरफ्त में चूल्हे पर चढ़ी मैगी जलकर राख हो गई और रसोई धुएं से भर गया है. आंखें नींद से बोझिल हो जा रही है.पूरी रात में इसे "मंटोइयत" में कैद रहना है. सच में मंटो से मोहब्बत करने के लिए आपको कुछ न कुछ बर्बाद करना होता है. अगर मैगी क्या खुद को ही बर्बाद कर लें तो इससे बेहतर शायद ही कुछ हो. विस्तृत रिपोर्ट और महमूद से इजाजत मिलने पर ऑडियो वर्जन जल्द ही.

तस्वीर- मिहिर की ट्वीट से सेंधमारी
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दीदी अपना काम खत्म कर चुकी थी और रोज की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही जल्दी में थी. रोज काम के बाद थोड़ी ही देर सही, मेरे पास बैठती. दुख-सुख, गर गृहस्थी की बातें बताती. मेरी हरकतों पर हंसती. विम जब खत्म हो गया है भइया तो इसकी शीशी रखकर क्या करोगे. अरे दीदी, मैंने सुप्रीम एन्क्लेव के सामने देखा कि झालमूढ़ी बनानेवाले ने इसमें सरसों तेल रखे हुए है और उससे पहली की कफ सिरप की बोतल के ढक्कन पर छेद नहीं करने होते. मेरी उससे बात हुई तो उसने कहा आपके पास खत्म होगा तो हमें दे दीजिएगा इसलिए ऱकने कहा था.हा हा...


रुक जाइए दीदी, बस ये नींबू-पानी पीकर चले जाइएगा. नहीं भइया, आज नहीं. घर में बिटिया अकेली है, इंतजार कर रही होगी. घर के काम निबटाने के बाद मैं उनके साथ चाय,नींबू-पानी या ऐसा ही कुछ साथ पीना अच्छा लगता.

 लेकिन आज रुकने के लिए तैयार नहीं थी. साढ़े दस बजे से मुझे हर हाल में टीवी देखनी थी,मैं देखने लगा. थोड़ी देर तो वो पर्दे पकड़कर खड़ी रही फिर मोढ़े पर इत्मिनान. से बैठ गयी. आमतौर पर मैं किसी के साथ टीवी देखना पसंद नहीं करता. हो-हल्ले या किसी के साथ मैं पढ़ाई तो कर सकता हूं लेकिन टीवी नहीं देख पाता लेकिन दीदी का साथ बैठकर देखना अच्छा लग रहा था. इससे पहले मेरे साथ वो सत्यमेव जयते के तीन एपीसोड देख चुकी है.

 राजेश खन्ना की शवयात्रा देखकर उनकी आंखें छलछला जा रही थी. हम बदल-बदलकर हिन्दी चैनल देख रहे थे लेकिन सबसे सही आइबीएन7 लग रहा था..न्यूज24 के पास पचास उनसुनी कहानियां का पहले से माल पड़ा है सो बार-बार उसे ही दिखाए जा रहा था. आजतक पर अभिसार का कुछ खास असर था नहीं.हम आइबीएन7 पर ही टिके रहे.
जानते हैं भइया, जब अराधना फिल्म आयी थी न तो हमारा रिश्ता आया था. देख-सुन लेने के बाद हमारी होनेवाली नन्दें हमें सिनेमाहॉल ले गई थी दिखाने. हम चौदह साल के थे, शर्ट और पैंट पहनते थे. अम्मी से पूछकर चले गए देखने.नन्दें बाहर निकलकर मजाक करने लगी. निकाह तो नहीं हुई थी लेकिन तभी से भाभी मानने लगी थी..मैं चैनल की वीओ भूल चुका था और स्क्रीन पर चल रही फुटेज में दीदी की कहानी समाती चली जा रही थी. एक बार लगा भी कि इसीलिए मैं किसी के साथ टीवी नहीं देख पाता लेकिन जब चैनल पर सब मोनोटोनस होता गया, दीदी की बातों को ज्यादा गौर से सुनने लगा.
शवयात्रा में पता नहीं क्या सम्मोहन होता है कि लगता है एक-एक चीज देखें. जीवन में पहली बार राजीव गांधी की शवयात्रा की पल-पल की तस्वीरें दूरदर्शन पर देखी थी. उसके बाद तो निजी समाचार चैनलों पर कई हस्तियों की. खैर, टीवी देखते हुए दीदी के चेहरे पर कई तरह के भाव चढ़ते-उतरते जा रहे थे. इंसान कहां सब दिन रह जाता है भइया, जो करके जाता है, वही याद रह जाता है.

अरे,साढ़े ग्यारह बज गया. हम चलते हैं अब भइया, मरा आदमी को तो इतनी देर देख ही लिया, हम तो ये देखने बैठे थे कि आपलोगों में अंतिम विदाई कैसे करते हैं,टीवी पर देखते इनको. ये तो दिखाया ही नहीं. अब घर जाकर जिंदा लोगों को देख लें,छोटा लड़का स्कूल से आता होगा.

दीदी के जाने पर अंग्रेजी चैनलों पर शिफ्ट होता हूं. हिन्दी चैनलों में खराब पैकेज और अतिवाद के बावजूद तरलता ज्यादा है. अंग्रेजी चैनलों पर प्राइम टाइम जैसी बहस होने लगी है. मसलन आप ये नहीं कह सकते कि शरीर राजेश खन्ना का था जबकि आत्मा किशोर कुमार. किशोर कुमार ने देवानंद के लिए भी गाया है. मीडिया को एक निश्चित सीमा के बाद आगे जाने की इजाजत नहीं है. जाहिर है वो बची-खुची सामग्री से ही काम चला रहे थे. जिससे एक समय बाद संवेदना के बजाय खीज पैदा होने लगी. रात में तो उनके निजी संबंधों और रिश्तों को लेकर जैसी-जैसी और जिस तरीके से बात कर रहे थे, घिन आ रही थी. ऐसा क्यों है कि सिनेमा,कला, रंगमंच का कोई शख्स हमारे बीच से चला जाता है तो सबसे ज्यादा गंध उसके संबंधों को लेकर मचाई जाती है जबकि भ्रष्ट से भ्रष्ट नेता के गुजरने पर चैनल महानता के कसीदे गढ़ने में कहां से शब्द ढूंढ लाते हैं ? कल से अब तक चैनलों ने राजेश खन्ना को लेकर जो कुछ भी दिखाया, कहीं से वो श्रद्धांजलि जैसा नहीं लग रहा था या तो मास हीस्टिरिया पैदा करने की कोशिश थी या फिर चैनलों का वो फूहड़पन जो ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज या कॉमेडी सर्कस जैसे शो से तैरकर इधर आ गया था.

इन सबके बीच हेडलाइंस टुडे को देखना अच्छा लगा. स्टूडियो से एंकर अपनी रिपोर्टर को राजेश खन्ना के अंदाज में ही पुष्पा की जगह बार-बार रश्मा-रश्मा संबोधित कर रहा था.
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रुपक कभी मरते नहीं पुष्पा

Posted On 4:00 pm by विनीत कुमार | 10 comments

दोस्तों और अपनी पत्नी के काका और हमारे राजेश खन्ना हमारे बीच नहीं रहे. महेश भट्ट के शब्दों में आज थोड़े-थोड़े हम भी मरे हैं. मेरी आंखें भी छलछला गई हैं. सिर्फ राजेश खन्ना के लिए नहीं, सत्तर-अस्सी के दशक में शादी हुई उन दीदी और बुआ के लिए जिनसे एक बार बिना पूछे कि उनके पापा और भाईयों ने एक अंजान शख्स से जिंदगी भर के लिए बांध दिया. आज वो हम सबसे ज्यादा रोएगी, वो आज राजेश खन्ना को कुछ ज्यादा ही मिस करेगी.


अरेंज मैरिज का चलन ऐसा जिसमें फूल जैसी दीदी, मासूम,निर्दोष लेकिन पढ़ी-लिखी तेजतर्रार दीदी का पल्लू उमरदराज, आगे के उड़े हुए बाल, एक पैर से भटक कर चलनेवाला, एक आंख से तिरछी देखनेवाला, थुलथुल मोटे और इन सबसे कहीं ज्यादा हैवान के साथ बांध दिया जाता. इन दीदीयों को जब विदा होते देखता तो वो बछड़े की तरह मां से, हमसे बिलख-बिलखकर रोती. मेरे घर के आगे गायें काटी जाती थी तो मैं उस सीन से अक्सर इस विदाई के दृश्य को जोड़कर देखता था. कितना चिपटकर रोती थी दीदी हमसे. बुआ लोगों का अल्हड़पन कैसे इस अकेली एक घटना के बाद हमेशा के लिए खत्म हो जाता था. आज देश में जिन-जिन महिलाओं का बेमल विवाह हुआ है, उनकी इच्छा को जाने बिना या उसके विरोध में हुआ है, वो सबके सब राजेश खन्ना की मौत पर बहुत रोएगी. वो ये सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाएगी.

दीदी,बुआ बुझे मन से पहली बार मायके आती. उन्हें अपनी सहेलियों से जीजाजी,फूफा को मिलवाने में शर्म आती. क्या कहेंगी,मोहल्ले की लड़कियां ? ये जानते हुए भी कि सबों के साथ लगभग ऐसा ही होना है, फिर भी कितनी चिंतिंत रहती दीदी. कई बार बिना बुलाए ही मोहल्ले की लड़कियां इस नए-नवेले जीजाजी से मिलने आ जाती..मैंने कई बार जब दूसरे के घरों में होता तो उनकी मांए हिदायत देती- जा रही हो जूली,जीजाजी अधभैसु( दीदी से उम्र में लगभग दुगुना) हैं, कुछ ऐसा हंसी-ठठ्ठा मत कर देना कि मीरा अफड़ने लगे( बिलख-बिलखकर रोने लगे). ऐसा सबों के साथ होता..लेकिन जब एकमुश्त दस-बारह सालियां जुटती तो ये हिदायतें कहां याद रह जाती हैं. हां उन लड़कियों को इस बात का ध्यान जरुर रह जाता कि जीजाजी कि किसी एक बात की ऐसी तारीफ की जाए कि दीदी को लगे कि ये शख्स मेरे लिए सही है...और किसी भी एक खूबी को बताने के लिए उदाहरण देती- दीदी, जीजाजी तो बिल्कुल राजेश खन्ना हैं.

आज अगर एक पैर से भटककर चलनेवाले या सिर के बाल उड़े हुए जीजाजी के बारे में कोई साली कह दे कि दीदी, जीजाजी तो बिल्कुल शाहिद कपूर या जॉन इब्राहिम लग रहे हैं तो दीदी इस अश्लील मजाक से सदमे में आ जाएगी लेकिन राजेश खन्ना से तुलना करने का मतलब ऐसा नहीं था. राजेश खन्ना से तुलना करने का मतलब होता था कोई एक ऐसी बात है जो जीजाजी में कि वो बिल्कुल राजेश खन्ना जान पड़ते हैं. उनकां हंसना, उनका बोलना, दर्जनों सालियों के बीच भी बात करने का एक खास सलीका. कुछ नहीं तो बाल ही, बाल न सही तो अपनी बात पर गौर फरमाने के लिए दीदी की ठुड्डी पकड़कर उपर की ओर उठाना. अधेड़ उम्र का, अनपढ़, दीदी के आगे राक्षस दिखनेवाला शख्स कैसे एक रुपक से इतना बेहतर दिखने लग जाता कि दीदी जब मायके से विदा होकर जाने लगती तो कहती- जाने दो, जो हैं जैसे हैं, जिंदगी तो इन्हीं के साथ बितानी है न. ऐसे में आप कह सकते हैं कि राजेश खन्ना ने ऐसी हजारों,लाखों लड़कियों के मन में अरेंज मैरिज के प्रति आस्था बनाए रखा और उसका विस्तार ही किया. तब आप राजेश खन्ना को शायद माफ भी नहीं कर पाएं. लेकिन एक अकेले रुपक के भरोसे इन लड़कियों पूरी जिंदगी अपनी पसंद से बिल्कुल उलट शख्स के साथ बिता देना स्वयं राजेश खन्ना के व्यक्तित्व का कितना बड़ा जादुई हिस्सा है, इस पर सोचने की जरुरत है.

क्या दीदी और बाकी लड़कियां राजेश खन्ना के बाल, मुस्कराहट,चलने के तरीके, छवि, आवाज आदि से तुलना किए जाने भर से अपने उस जीवनसाथी से प्यार करने लग जाती थी जिसे कि न तो उसने चुना था और न पहले कभी जाना था. जो दीदी स्कूल-कॉलेज के अच्छे से अच्छे और एक से एक स्मार्ट लड़के को फटीचर कहकर हड़का दिया करती, एक से एक होनहार और मेधावी लड़के को बात-बात में गदहा कहा करती,आखिर वो सचमुच के लद्दड़, घाघ से बंधकर कैसे पूरी जिंदगी काटती आयी ? नहीं, ये सिर्फ राजेश खन्ना कद-काठी और हुलिए से की जानेवाली तुलना का असर नहीं था. आखिर दीदी मासूम जरुर होती, इतनी भी वेवकूफ नहीं कि जिसके पति के सिर पर बाल ही नहीं, वो राजेश खन्ना की तुलना पाकर कैसे खुश हो जाती. सच बात तो ये है कि कभी चाचियों के साथ, कभी दबे-छुपे ढंग से सहेलियों के साथ राजेश खन्ना की उन सारी फिल्मों को देखती आयी थी जिसमें राजेश खन्ना एक भरोसा हुआ करता- इस शख्स से प्यार करोगे तो जिंदगी भर निभा ले जाएगा, दगा नहीं देगा. अभी चंकी पांडे की बाइट सुनी. उन्होंने कहा- जो एक बार राजेश खन्ना का हो गया, किसी और का हो ही नहीं सकता. सत्तर-अस्सी के दशक की दबी और अपनी इच्छाओं की दबाकर रखनेवाली हमारी दीदी कभी कह नहीं सकती थी खुलकर कि वो राजेश खन्ना की दीवानी है लेकिन हां उसके भीतर के बनने और परिपक्व होनेवाले सपने में किसी भी शख्स को राजेश खन्ना मानकर तो देखा ही जा सकता था न. इसकी क्रेडिट आप चाहें तो उस दौर की फिल्मों को दे लें जहां प्यार,समर्पण,एकनिष्ठा,प्रतिबद्धता एक दूसरे से इस कदर गुथे होते कि लगभग एक-दूसरे के पर्याय जान पड़ते. इसे प्रेम का मूल्य भी आप प्रस्तावित कर सकते हैं जो कि अब विमर्श की दुनिया में बौद्धिक पिछड़ापन और प्रेम जैसा बुनियादी विद्रोह कर्म करते हुए भी दकियानूस हो जाना है.

लेकिन दीदी, प्यार के इस रुप और निभा ले जाने की क्रेडिट निर्देशक को नहीं दे सकती थी. सिनेमा में जो हीरो है, वही सबकुछ है कि तर्ज पर राजेश खन्ना का व्यक्तित्व उनके दिलोदिमाग पर छाया रहता. वो दो ही काम कर सकती थी या तो अपने जैसे-तैसे जो भी मिले पति को राजेश खन्ना मान ले या फिर भीतर की उस भावना को संजोए जीती रहे- जाने दो, जीना ही है न, इसी के साथ जी लेती हूं, राजेश खन्ना से प्यार करने से हमें कौन रोक सकता है ? आप सोचें तो राजेश खन्ना ने कैसा असर अपने इन दर्शकों पर छोड़ा जो कि आज के सलमान,शाहरुख, ऋतिक के खंड़ित व्यक्तित्व और क्रश से बिल्कुल जुदा है. आपको मैचोमैन पसंद है तो जॉन इब्राहिम,चॉकलेटी पसंद है तो शाहिद कपूर, फैमिली-फैमिली मैरिज मटिरियल भाता है तो शाहरुख खान..राजेश खन्ना को जिसने पसंद किया,टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं, एक कम्प्लीट मैन के रुप में जिसका एक हिस्सा भी अपने जीवनसाथी से मैच कर जाए तो जिंदगी निकाल ली जा सकती है.

अभी से लेकर कल-परसों तक न्यूज चैनलों पर उनकी फिल्मों की क्लिप्स चलेंगी, फिल्माए गाने चलेंगे, वॉलीवुड की दिग्गज हस्तियों की बाइट चलेगी. पूरा का पूरा वीकिपीडिया टीवी स्क्रीन पर तैरने लग जाएगा लेकिन उन महिलाओं की बात शायद ही हो जो अपने जीवनसाथी में राजेश खन्ना का अक्स देखकर उसके साथ निभाती रही..जिसका मुर्झाया चेहरा सिर्फ इस एक रुपक से खिल गया कि दीदी,जीजाजी तो राजेश खन्ना जैसे दिखते हैं. जिन मांओं का कलेजा सूप की तरह बड़ा हो गया कि पड़ोस में सबसे ज्यादा डाह रखनेवाली ने भी कमेंट किया- खुद ही चाहे कितनी भी लड़ाकिन हो लेकिन दामाद राजेश खन्ना खोजकर लाई..देश के लाखों राजेश खन्ना, आज तुम्हारी पत्नी तुम्हारे थोड़े-थोड़े मरने का मातम मना रही है, उसे एकदम से मर जाने मत देना. 
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पहलवान-अभिनेता दारा सिंह हमारे बीच नहीं रहे. उनके जाने की खबर के तुरंत बाद से ही फेसबुक की दीवारों पर सदमे की अभिव्यक्ति होने लगी है. इस बीच मशहूर टीवी एंकर बरखा दत्त की ट्विट से भी गुजरा-Dara Singh. Our IronMan, Our SuperMan, Our Hanuman. R.I.P. फेसबुक पर उनकी याद में जो तस्वीरें टांगी जा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि हम दारा सिंह को कम, दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण को लेकर ज्यादा नास्टॉल्जिक हो रहे हैं. कुछ लोगों को अयोध्या-बाबरी मस्जिद कांड और उसका शौर्य ज्यादा याद आ रहा है. याद करने की कवायद जिस दिशा में बढ़ती नजर आ रही है कि शाम होते-होते उन्हें "अखिल भारतीय हिन्दू प्रतीक" साबित कर दिया जाएगा. एक बेहतरीन पहलवान, कुश्ती खिलाड़ी और कलाकार की छवि कैसे कांट-छांटकर छोटी की जाती है, इसे समझना हो तो एक तरफ न्यूज चैनल्स और दूसरी तरफ फेसबुक खोले रखिए तो आप बहुत ही आसानी से समझ सकते हैं.


ये सही है कि दारा सिंह ने दुनियाभर की फिल्मों में काम किया हो, अनेक तरह के प्रोजेक्ट में शामिल रहे लेकिन सबसे ज्यादा मशहूर रामानंद सागर के रामायण का हनुमान बनकर हुए. हम जब भी हनुमान का ख्याल करते हैं, दारा सिंह का ही ख्याल करते हैं. आप दारा सिंह से अलग हनुमान की कल्पना नहीं कर सकते. खासकर तब जब आप देशभर में स्थापित हनुमानों की मूर्ति के संदर्भ में बात न करके बस हनुमान को याद कर रहे हों तो..इस समाज के एक तबके ने दारा सिंह को जो अतिरिक्ति सम्मान दिया, उसकी वजह भी यही रही कि रामायण में उन्होंने हनुमान की भूमिका अदा की. लेकिन सवाल है कि क्या हम उन्हें सिर्फ हनुमान के संदर्भ में इसलिए याद कर रहे हैं कि सबसे मजबूती से हमें सिर्फ उनका वही अभिनय याद है या फिर ये वही मौके होते हैं जब हमारे भीतर की तंग सोच सक्रिय होने लग जाती है और हम उसके आगे जाना नहीं चाहते. हर तीन में से दो शख्स रामायण की ही यूट्यूब लिंक और हनुमान की ही तस्वीर टांग रहा है, क्या ये सब अकारण है और अगर हां तो अफसोस कि दारा सिंह ने ऐसे हनुमान का किरदार निभाया जिनके आगे उनके बाकी के सारी काम भुला दिे गए.

मुझे लगता है कि उन्हें याद करने के क्रम में उनके टीवी विज्ञापनों को अलग से याद करना चाहिए. उन विज्ञापनों में छिपे संदेशों की व्याख्या होनी चाहिए. जो दूरदर्शन शीलता-अश्लीलता का बारीक परीक्षण करते हुए भी लिरिल के विज्ञापन को उसी खुलेपन के साथ प्रसारित करता रहा, उन उत्पादों के लिए स्त्री-देह का इस्तेमाल किया, उन सबके बीच दारा सिंह ने विज्ञापनों के लिए काम किया. विको वज्रदंती से लेकर संडे हो या मंडे,रोज खाए अंडे के विज्ञापनों पर गौर करें तो आपको अंदाजा लग जाएगा कि उन्होंने अपने इन सारे विज्ञापनों में अपने शरीर का इस्तेमाल नहीं किया जैसा कि आज बैट घुमानेवाले, रैम्प पर चलनेवाले, कहकर लेनेवाले और जिम जाकर शरीर धंसाने-फुलाने और हांफनेवाले लोग करते हैं. वो विज्ञापनों में एक घरेलू स्त्री या फिर घर के सबसे सम्मानित व्यक्ति के रुप में आते हैं. उनके संवाद प्रस्तुत करने की शैली गृहणियों जैसी हुआ करती थी. दादाजी थे तो उस दादाजी की घर में सुनी जाती थी, उनकी इज्जत होती थी. आज की तरह नहीं कि विज्ञापन के सारे दादाजी सिर्फ अपने पोते-पोतियों की चाइल्ड प्लान खरीदवाने के काम आते हैं या फिर नई पीढ़ी को ज्यादा स्मार्ट बताने के लिए इन्हें खटारा घोषित करने के काम में लगाए जाते हैं.

दरअसल अस्सी-नब्बे और उसके बाद भी दारा सिंह का उपयोग विज्ञापनों में जिस तरह से किया गया, वो उनके शारीरिक क्षमता और पहलवान की छवि से कहीं ज्यादा एक वजनदार घर के सदस्य के रुप में किया गया. आप इस तरह के मूल्यों से असहमत हो सकते हैं लेकिन उन्होंने अपने शारीरिक सौष्ठव का विज्ञापनों के जरिए दोहन होने नहीं दिया. हां, कुछेक विज्ञापन ऐसे जरुर हैं जिसमें ताकत को बहुत ही आक्रमक तरीके से स्टैब्लिश करने की कोशिश की गई है, कहीं-कहीं चमत्कारिक भी लेकिन आज पुरुष का स्वस्थ शरीर जो सिर्फ सेक्स अपील और सेक्सुअल सैटिस्फैक्शन तक जाकर सिमट गया है चाहे वो चड्डी बेचनी हो या फिर चाइल्ड डियो, दारा सिंह के शरीर का इस्तेमाल उस रुप में नहीं हुआ. विज्ञापन के केन्द्र में उनका बलशाली होना ही रहा, सेक्स अपील ऑब्जेक्ट नहीं. आप कह सकते हैं कि दारा सिंह का ये शरीर कभी पुरुष प्रोड्यूसरों के छिछोरेपन का शिकार नहीं हुआ. उसके हाथ का झुनझुना नहीं बना जिसे हर कमजोर उत्पाद के पीछे बजाकर ताकतवर कर दिया जाए. नहीं तो सीमेंट, छड़,बिल्डिंगों के विज्ञापनों के जो अंबार है, उसके बीच ऐसे ही "विज्ञापन पुरखे" की सबसे ज्यादा जरुरत होती है.

विज्ञापनों में दारा सिंह दरअसल देसी शरीर और सेहत का प्रतिनिधित्व करता रहा है जो कि मोबिल डीजल जैसे बड़े-बड़े डिब्बों में आनेवाले हेल्थ ड्रिंक पीकर नहीं बनते हैं और न ही बंद कमरे में पैडल पर हांफते हुए और कान में कनठेपी लगाकर आइ वना फक यू, आइ वना किस्स यू की रिद्म पर हाथ-पैर घुमाते हुए बनती है. वो सच्चे अर्थों में देसी तरीकों और संसाधनों के बीच रहकर देह बनाने की परंपरा का प्रतिनिधित्व करते थे. समय के साथ ये तरीके शायद मर भी जाएं और उसकी मजबूरी भी हो लेकिन उनके विज्ञापनों में, यूट्यूब पर अगर वो अब भी मौजूद हैं तो हमें चाहिए कि रामायण से हटकर उन तमाम लिंकों को भी एक बार क्लिक करके देख लें.


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आज पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित मीडिया सेमिनार में जाना हुआ. विषय था- बदलते दौर में मीडिया की भूमिका. लेकिन अफसोस कि जो मीडियाकर्मी क्लास मॉनिटर की तरह अपने टॉक शो और प्रेस कॉन्फ्रेंस में डपटते आए हैं कि मुद्दे की बात कीजिए सर, ऐसे मौके पर वो नेताओं से भी कहीं ज्यादा अश्लील ढंग से भाषणबाजी पर उतर आते हैं और मुद्दे किस खोह में चले जाते हैं, पता ही नहीं चलता. खैर,
मैं पिछले चार सालों से इस सेमिनार में जा रहा हूं और उदयन शर्मा के संदर्भ में मंच से और मंच से आजू-बाजू भी इस बात की लगातार चर्चा होती रही है कि उनके कांग्रेस के नेताओं से अच्छे संबंध रहे हैं. मैं फिलहाल इस बहस में बिल्कुल नहीं जाना चाहता कि किसी पत्रकार के लिए व्यावहारिक जरुरत होने के बावजूद किसी खास राजनीतिक पार्टी से गहरे और अच्छे संबंध होना अच्छा है या बुरा. लेकिन हां उदयन शर्मा की जो स्मारिका "छवि उदयन" जो हमें दी गई, उसमें कांग्रेस के अलावे भी बाकी पार्टी के नेताओं के साथ उनकी तस्वीर लगी है. ये अलग बात है कि शायद एक भी तस्वीर ऐसी नहीं है जिससे ये समझा जा सके कि उदयन शर्मा के अपने दौर के बुद्धिजीवी, प्रोफेसर,पत्रकार,कलाकार जैसे लोगों से भी गहरा लगाव-जुड़ाव रहा था.

 इन सबके बीच कौन सी समझ काम करती है,ये तो नहीं मालूम लेकिन इस बात का अफसोस लंबे समय तक रहेगा कि मंच संचालक विनोद अग्निहोत्री( मैनेजिंग एडीटर, नेशनल दुनिया) और वक्ता सुमित अवस्थी ( एंकर, आजतक) इन दोनों ने इस सेमिनार को "कांग्रेस पार्टी चाकर सम्मेलन" बनाने में कहीं से कोई कसर नहीं छोड़ी. विनोद अग्निहोत्री जैसे-जैसे कांग्रेस पार्टी से जुड़े लोग आ रहे थे, मंच से कमेंटरी और स्वागत बाइट दिए जा रहे थे, वहीं सुमित अवस्थी बात पीछे वक्ता की हैसियत से बैठे कांग्रेस मंत्री आर.पी. एन.सिंह के जरिए सरकार से गुहार लगा रहे थे कि ये नीति लाए,वो नीति लाए, इकॉनमी मॉल तैयार करे ब्ला...ब्ला.

दूसरा कि आप किसी भी मीडिया सेमिनार में चले जाइए, दस मिनट के भीतर ऐसा माहौल बनाया जाता है कि जैसे आप "हृदय परिवर्तन या शुद्धीकरण यज्ञ" में आ गए हों. मीडिया में ईमानदारी नहीं रह गई है,ये बात तो बच्चों तक को समझ आने लगा है लेकिन मीडियाकर्मियों में इतनी भी ईमानदारी भी नहीं बची है कि क्या मौजूदा हालात है, वस्तुस्थिति है, कायदे से उसे ही उन श्रोताओं तक पहुंचा दें जो सौ-सवा सौ रुपये भाड़े लगाकर इस भीषण गर्मी में चलकर सुनने जाता है. अब बताइए, सुमित अवस्थी ने कहा कि हमें मीडिया में अच्छे लोग चाहिए, हमें मीडियोकर लोग नहीं चाहिए, जिनके पास विषय का ज्ञान हो, समझदारी हो. कौन नहीं जानता कि मीडिया में मीडियोकर लोग जितनी आसानी और बेहतर तरीके से खप सकते हैं, पढ़े-लिखे संजीदा और ईमानदार शख्स का खपना उतना ही मुश्किल है. प्रकाश सिंह जैसा शख्स फर्जी स्टिंग ऑपरेशन करता है, जेल जाता है और कुछ ही महीने बाद दूसरे चैनल में न केवल फिट हो जाता है बल्कि रसूकदार मंत्री का मीडिया सलाहकार हो जाता है. ऐसे दर्जनों उदाहरण सामने हैं. जो थोड़े ईमानदार मीडियाकर्मी बचे हैं, वो कैसे किस्तों में मर रहे हैं, इस पर भी कभी नजर डाला जाना चाहिए. सवाल सिर्फ ये नहीं है कि अच्छे औऱ पढ़े-लिखे लोग नहीं आते. सवाल है कि अगर वो आते भी हैं तो उसके लिए मीडिया में कितना स्पेस बचा है? माफ कीजिएगा सुमित अवस्थी साहब. आइआइएमसी,जामिया मीलिया और खुद आपके संगठन के मीडिया संस्थान टीवीटीएमआई से जो दर्जनों मीडिया छात्र हर साल बाहर आते हैं, वो सबके सब डफ्फर नहीं होते और न ही सिर्फ चिकनी चमेली और ढ़ाई करोड़ में ठुमके लगाएगी मुन्नी जैसी स्टोरी कर सकते हैं. वो बस्तर, झारखंड और लुटियन जोन के बाहर की भी पत्रकारिता भी उतनी काबिलियत और संवेदनशीलता के साथ कर सकते हैं.

मुझे हंसी आ रही थी सुमित अवस्थी की समझ पर और बाहर निकलकर दूसरे कई लोग मजाक भी उड़ा रहे थे कि जिस मीडिया में अच्छे-अच्छे अनुभवी और पुराने पत्रकारों के साथ बदसलूकी और निकाल-बाहर किया जाता रहा है, वहां सुमित अवस्थी फच्चे की तरह लोगों को ज्ञान दे रहे थे. क्या सुमित अवस्थी बताएंगे कि आप कायदे के लोगों को लेकर क्या करेंगे या फिर आप जैसे ओहदेदार मीडियाकर्मी सक्षम हैं कि इन्डस्ट्री में उन्हें खपा सकें ?

ऐसे मीडिया सेमिनारों में जब पुराने मीडियाकर्मियों का जमावड़ा होता है, उनके मुख से पंडित, पंडितजी का उच्चारण इतनी बार होता है कि जैसे वो हमारे सामने हिन्दी पत्रकारिता का कोई ऐसा मौखिक इतिहास पेश करना चाह रहे हों, जिसे कि बस चले तो वर्तमान पर भी लाद दें. उनके इस पंडित उच्चारण के अंदाज से ही लग जाएगा कि पत्रकारिता के भीतर में जाति विशेष को लेकर कितने आग्रही रहे हैं. संचालन ने इसे हमें बार-बार एहसास कराया.

राहुल देव ने जरुर कुछ आधे-अधूरे सच को हमारे सामने रखने की कोशिश की. सबसे अच्छी बात लगी कि जो मीडिया और हम जैसे पत्रकार जिस वैश्वीकरण औऱ बाजारवाद का विरोध कर रहे हैं, कहीं न कहीं हम खुद भी इसके शिकार हो जा रहे हैं और उसमें शामिल है. शायद यही वजह है कि हम मजबूती से इन सबका विरोध नहीं कर पाते..समय के साथ-साथ हमारे औजार और भी अस्पष्ट और कमजोर होते चले जाएंगे. लेकिन आगे वो जिस आशावाद के तहत एक नए भारत की परिकल्पना में अक्सर उलझते नजर आते हैं- संस्कार भारती, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् जैसे संगठन के पर्चे और एक अनुभवी पत्रकार की परिकल्पना के बीच की विभाजन रेखा विलीन होती दिखती है.

रवीश कुमार ( एक्जीक्यूटिव एडिटर एनडीटीवी इंडिया) की बात लंबे समय नोट करनेवाली है कि हमने पतन को ही अपना पैमाना बना लिया है. जब भी मीडिया के खत्म और कमजोर होने की बात की जाती है हम बाहर के देशों से तुलना करने लग जाते हैं कि अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में भी ऐसा हो रहा है. हम इस बात पर जरा भी नहीं सोचते कि जिन लोगों के हाथों जिम्मेदारी है, उन्होंने हालाता को बदलने में क्या कुछ किया ? दूसरा कि तकनीक के कारण संवेदनशीलता के खत्म होने की बात की गई तो ये समझना चाहिए कि तकनीक का इतिहास से गहरा रिश्ता रहा है और उसी के साथ ही चीजों का विकास हुआ है. सबसे बड़ी दिक्कत है कि इन्टरनल स्ट्रक्चर कहीं न कहीं ध्वस्त हुआ है. हम सब कहते हैं संपादक जैसी संस्था ध्वस्त हुई है लेकिन सार्वजनिक क्या, व्यक्तिगत स्तर पर भी हम इससे दुखी नहीं होते. अपने ड्राइंग रुम में भी जाकर अफसोस नहीं करते कि गलत हआ. सब इस बात से खुश हैं कि हम बने तो हैं ही न किसी न किसी तरह से. आप देखिए न, मीडिया की क्रेडिबिलिटी और उस पर सबसे ज्यादा संकट इस दौर में आया है, मीडिया बदतर हुआ है जबकि सबसे अच्छी तनख्वाह मिलने लगी है. सबों की तो नहीं पर जिन्हें मिल रही है, वो भी कुछ ऐसा नहीं कर रहे कि साख बची रहे...और इन सारी बातों के लिए कोई सरकार जिममेदार नहीं है, वो नहीं कहती कि हर पीटूसी के पीछे इंडिया गेट दिखाओ, हम खुद दिल्ली में ही करावल नगर देखना नहीं चाहते, उसकी बात नहीं करते.

पेड न्यूज के इस दौर में तारीफ करना भी अपनी क्रेडिबिलिटी को संकट में डालना है. रवीश कुमार की इस बात को कांग्रेस के आर.पी.एन.सिंह ने दूसरे तरीके से कहा जिसे कि उपरी तौर पर असहमति लग सकती है कि हमारे बीच सब ऐसे नहीं होते, हमारी तारीफ में लिख देने से आपकी क्रेडिबिलिटी नहीं चली जाएगी बल्कि ऐसा करना एक हद पत्रकारों के लिए जरुरी भी है. यकीन मानिए मंत्री साहब ने कहीं ज्यादा कायदे से विषय के आसपास अपनी बातें कहीं. उन्होंने मीडिया के दो धड़ों में बंट जाने की बात जिस सहज तरीके से कहीं उसे समझा जाना चाहिए. अपने अनुभव साझा करते हुए कहा- खबरों की एक दुनिया ट्विटर, फेसबुक जैसे प्लेटफार्म हैं जहां जिसने जो कहा उसे ही हमने खबर बना दिया.  इस खबर के लिेए कुछ नहीं किया. इसी में अमेरिका की किसी पत्रिका ने भारत के बारे में क्या कहा, इस पर छह घंटे की स्टूडियो में पैनल डिस्कशन करा दी और इसके लिए भी फील्ड में कहीं कुछ नहीं किया..और दूसरा है कि हम पाठक की हैसियत से अभी डिमांड करते रह जाते हैं कि यूपी के ईलाके में क्या हुआ है, इसे दैनिक जागरण और अमर उजाला या वहां से निकलनेवाले अखबारों के जरिए जानें. हम अखबारों में अभी भी हार्डकोर फील्ड से जाकर लायी गई खबरें देखना चाहते हैं जो कि गायब हो रहे हैं. ऐसे में मैं अपने को बिल्कुल डिस्कनेक्ट महसूस करता हूं.

पिछले साल की तरह इस साल भी डॉ. एस. वाई कुरैशी( पूर्व चुनाव आयुक्त) ने पेड न्यूज पर बेहतर बोला. ये अलग बात है कि उनमें से नया कुछ नहीं था अगर एक-दो लाइन पंजाब और उत्तर प्रदेश के संदर्भ को छोड़ दें तो. पेड न्यूज पर चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा कि ये सही व्यवस्था है जहां एक तरह की डेमोक्रेसी है,जहां सारे नेता एक नजर से देखे जाते हैं, कहीं कोई भेदभाव नहीं है. जो पैसा देगा, उसका काम होगा. दूसरी बात जो कहीं उस पर मीडिया को गौर करना चाहिए कि जब चुनाव आयोग ने मीडिया से कहा कि आपलोग मतदान के पक्ष में माहौल बनाए तो उससे महिला मतदातओं के वोट देने में 35-40 फीसदी की बढ़ोतरी हुई. ऐसे में देखें तो इस मीडिया से हमारा मजबूत होता है लेकिन यही मीडिया पेड न्यूज के काम में लग जाता है तो लोकतंत्र की जरुरत से ठीक उलट काम होता है.

वक्ता के तौर पर इंडिया न्यूज के कुर्बान अली भी थे लेकिन देर से पहुंचने की वजह से उन्हें सुन नहीं पाया. ओवरऑल पिछले साल के मुकाबले सेमिनार फ्लॉप था. जो लोग सालों से आ रहे थे, वे अपनी-अपनी वजहों से नदारद थे लेकिन पूरे माहौल को देखते हुए हम अंदाजा लगा पा रहे थे कि ये सेमिनार बदलते दौर पर बात करने के बजाय स्याप और कांग्रेस का चाकर सम्मेलन बनकर रह गया. दूसरा कि जिस बिरादरी से वक्ता बुलाए जाते हैं, श्रोता-दीर्घा में बैठे बहुत ही अलग-अलग फर्टनिटी और मिजाज के होते हैं जिनमें कईयों की वक्ता की बातों से असहमति होती है. ऐसे में एकतरफा और लगभग प्रवचन जैसा होने के बजाय सवाल-जवाब के भी मौके दिए जाने चाहिए जो कि नहीं थे. पहले हुआ करता था लेकिन आशुतोष की बात को लेकर हो-हल्ला होने की वजह से बंद कर दिया गया. मुझे लगता है कि उदयन फाउंडेशन को अपने इस फैसले पर दोबारा से विचार करना चाहिए. आखिर सुमित अवस्थी जैसे वक्ता और विनोद अग्निहोत्री जैसे संचालक जो एकतरफा थै-थै करते हैं, उनसे भी तो कुछ सवाल-जवाब किए जाएं और बताया जाए- हमें भी मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन....जो कहिए, कायदे की लफ्फाजी तो आज हुई जिसका प्रतिरोध करने के लिए पुण्य प्रसून जैसे अनुभवी पत्रकार और दिलीप मंडल जैसे सक्रिय वेब एक्टिविस्ट और अब संपादक का होना जरुरी थी. दिलीप मंडल होते तो इस पंडितजी के संबोधन पर न्यूजरुम डायवर्सिटी पर ज्यादा बेहतर तर्क दे सकते थे.


 
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कल रात एनडीटीवी इंडिया के कार्यक्रम "हमलोग" में लेखक-अभिनेता-गायक पीयूष मिश्रा ने सिनेमा,थिएटर,जिंदगी और तरक्की पर बात करने के अलावे मार्क्सवाद से अपने संबंध और मौजूदा हालात में मार्क्सवाद की शक्ल को लेकर भी टिप्पणी की. यकीन मानिए, जिस बेफिक्राना अंदाज में उन्होंने मार्क्स को लेकर टिप्पणी की, यही काम किसी सेमिनार में अगर कोई गैर मार्क्सवादी ने किया होता तो संभव है कि तथाकथित प्रतिबद्ध मार्क्सवादी और सद्यआक्रांत मार्क्सवादी( जो नया-नया इस शौक के अधीन हुआ है) उन पर थप्पड़ जड़ देता. जेएनयू के हमारे सक्रिय साथी शायद हाथ-पैर तक तोड़ देते.


 कई बार पीयूष मिश्रा जैसे भूतपूर्व मार्क्सवादी को सुनकर लगता है कि ऐसे लोगों की इस विचारधारा( हालांकि पीयूष मिश्रा इसे कोई विचारधारा न मानकर राजनीतिक पार्टी भर मानते हैं) बिना कार्ल मार्क्स को पढ़े मार्क्सवाद पर बात करनेवालों से कहीं ज्यादा सपाट होती जा रही है. ये भी है कि हम उनकी ईमानदारी पर लहालोट भी होने लगें कि बंदे ने आजाद ख्याल के नाम पर जिस मार्क्सवाद को देखा-जिया, वो दरअसल इतना लिजलिजा है कि उसे बार-बार कहने की जरुरत पड़ती है कि हां मैं मार्क्सवादी नहीं हूं. था जब था लेकिन अब नहीं. 

पीयूष मिश्रा ने अपनी पूरी बातचीत में जिस तरीके से इसकी व्याख्या की और अपने को इससे अलग किया, उससे समझना मुश्किल नहीं है कि बाजार के तरल प्रवाह के बीच एक समय के बाद इस पार्टी से अपने को अलग कर लेना न केवल जरुरी होता है बल्कि इसकी घोषणा नए किस्म की संभावना पैदा करती है. ये गैंग्रीन हो जाता है जिससे काटकर अपने को अलग कर लेना ज्यादा फायदेमंद है. खैर, यहां हम इस बात पर बहस करने के बजाय कि थिएटर की दुनिया से आए पीयूष मिश्रा में वॉलीवुड की सीढ़ियों पर चढ़ने के बाद मार्क्सवाद का कितना हिस्सा मौजूद रह गया है, इस पर बात करें कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, उसका आशय क्या है और इसके जरिए हम क्या अंदाजा लगा सकते हैं ?

कल के कार्यक्रम में रवीश कुमार ने दो-तीन बार कोशिश की. इधर-उधर किसी भी तरह से कि मार्क्सवाद को लेकर उनके अनुभव और समझ को हम दर्शकों के आगे किसी तरह से लाया जाए. पीयूष मिश्रा जिस बेफिक्राना अंदाज में इसके जवाब दे रहे थे और लगभग इससे बचने की कोशिश कर रहे थे, हमें हैरानी हो रही थी कि जिस शख्स ने एक खास समझदारी और विचारधारा के साथ सालों तक अपनी जिंदगी की सबसे उर्वरा अवस्था को जिया, वो इसे चंद जुमलों में आखिर क्यों निबटा देना चाह रहा है ? उन्होंने कहा- 1. मैं कम्युनिस्ट नहीं हूं. पहले जब था, तब था. जो गलत है, उसका प्रतिरोध कोई भी कर सकता है और इसके लिए जरुरी नहीं कि कोई मार्क्सवादी ही हो 2. माफ कीजिएगा, मार्क्सवाद कोई विचारधारा नहीं बाकी दूसरी पार्टियों की तरह ही राजनीति पार्टी है. और 3. समय के साथ-साथ मार्क्स और भी बौने होते जा रहे हैं.

 पीयूष मिश्रा ने कल जो कुछ भी कहा, उसमें नया कुछ भी नहीं है. अकादमिक दुनिया में शामिल लोग ये बात पिछले पन्द्रह सालों से कहते आ रहे हैं लेकिन उनकी ये बात अवसरवादिता है, वैचारिक स्तर की दगाबाजी है, समझदारी के नाम पर भद्दा मजाक है. इसी बात को उत्तर-आधुनिक स्थिति बताकर विश्लेषित किया गया तो तर्क प्रस्तावित किए गए कि जिस देश में अभी ठीक से आधुनिकता ही नहीं आयी हो, वहां उत्तर-आधुनिकता की बात करना हास्यास्पद है. लेकिन अब आप और किस तरह की उत्तर-आधुनिकता के चिन्ह देखना चाहते हैं जहां एक शख्स सालों से जिन सिद्धांतों को, विचारधारा को एक समय तक जीवन जीने की पद्धति मानकर जीता रहा, उसके भीतर लड़ता-जूझता रहा, अब वो उसके लिए वो सबकुछ एक राजनीति पार्टी भर का हिस्सा रह गया है, इससे आगे कुछ नहीं है. इससे अपने को अलग करने की घोषणा उतनी ही स्वाभाविक है जैसे कोई मोबाईल प्लान खत्म होने पर दोबारा रिचार्ज न कराना चाहता हो, जीवन बीमा की पॉलिसी की मैच्योरिटी हो जाने पर आगे बढ़वाना नहीं चाहता हो. इन सबसे अलग अगर वो जीने के दूसरे तरीके की तरफ जाता हो तो आप इसे उत्तर-आधुनिक स्थिति नहीं तो क्या दगाबाज कम्युनिस्ट मानकर कोड़े बरसाएंगे और ये शख्स कोड़े खाने के लिए आपकी पकड़ के भीतर होगा. ?

इस कार्यक्रम के बहाने विचारों की प्रतिबद्धता और मार्क्सवाद को लेकर मेरी फेसबुक वॉल पर जो बहस चल रही थी, उसमें कुछ आंशिक और पायरेटेड टाइप के कम्युनिस्ट साथियों ने टिप्पणी की- पीयूष मिश्रा हद तक अपने से कम्युनिज्म को झाड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन ये उनके भीतर इतने गहरे तक धंसा है कि निकल ही नहीं पा रहा. दूसरे साथ की टिप्पणी थी कि उन्होंने जो भी बातें कही है वो बहुत ही व्यावहारिक है. फिर देखिए तो उनके काम में( संवाद,गीत और स्वर ) मार्क्सवाद की समझ उतनी ही गहराई से मौजूद है, जैसे पहले हुआ करती थी.

 मैं इन साथियों की मनःस्थिति समझ सकता हूं. ये ओथेलो की वो पीड़ा है जिसमें वो प्यार और धोखे के बीच झूलता रह जाता है. वो ऐसे कम्युनिस्ट को अपने से पूरी तरह कैसे अलग कर दें जो संगठन के स्तर पर( जिसके लिए आइबीएन7 के प्रबंध संपादक आशुतोष मार्क्सवाद में घेटोवाद शब्द का इस्तेमाल करते हैं) अपने को बिल्कुल जुदा घोषित कर दे लेकिन अपने कॉमरेड साथियों को दर्शक,श्रोता और पाठक की हैसियत से अपने साथ लेकर चलना चाहता है..ऐसे में ऑथेलो की ये पीड़ा मनोरंजन उद्योग में शिफ्ट होती है और हमारे कॉमरेड साथियों का तर्क मजबूत होता दिखाई देता है कि कोई बात नहीं अगर हमारा साथी जीवन के स्तर पर कम्युनिस्ट नहीं रह गया लेकिन उसके काम के भीतर तो वही विचारधारा दौड़ रही है, हमें उनका साथ देना चाहिए. उनका हौसला बढ़ाना चाहिए. लेकिन

इस पूरे तर्क और समझदारी का दूसरा पहलू कुछ और है. अगर आप मीडिया और सिनेमा के भीतर ऐसे भूतपूर्व किन्तु काम के लिहाज से वर्तमान कम्युनिस्ट की मौजूदगी पर गौर करें तो आप बहुत ही दिलचस्प नतीजे तक पहुंचेंगे. आपको लगेगा कि पूंजीवाद और बाजार के तामझाम अब मनोरंजन के भीतर चमकीली दुनिया रचने में थक गया है. उसने पूंजीवाद के तमाम बड़े दैत्य और सुपरमैन दिखा दिए. लोग उससे प्रभावित भी हुए और गिरफ्त में भी आए और एक तबका उदासीन भी होता गया. अब आगे क्या ? आप समझिए कि पूंजीवाद के पास चटख रंग पैदा करने की क्षमता कम गयी, वो ऐसा करते-करते थककर चूर हो गया है. वो जो कुछ भी रच रहा है, उसमें एकाकीपन है, मोनोटोनस होता जा रहा है. अब जरुरी है कि इस काम में मार्क्सवाद और प्रगतिशील विचारों से उकताए लोगों को काम पर लगाया जाए.

 क्या ये अकारण है कि जिस यूटीवी और वायकॉम18 ने देशभर के मनोरंजन उद्योग का बड़ा हिस्सा घेरा हुआ है, जिसमें वही सब तरह से आजमाए बाजार की नीरसता का अंबार लगा है, वही दूसरी तरफ प्रगतिशील डिफरेंट उत्पाद को प्रोत्साहित कर रहा है. सही बात है कि जब ऐश्वर्य का बाजार थक गया है तो विपन्नता अपने भीतर बाजार क्यों न पैदा करे ? ये दरअसल उस ताकतवर बाजार के भीतर की उब है जहां बार-बार घोषणा किए जाने के बाद भी कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं, काम और सांस्कृतिक उत्पाद के नाम पर वहीं की सोच काम में लायी जा रही है. दूसरा कि बाजार को एक हद तक अपने भीतर पैदा हुई उब से मुक्ति का रास्ता मिलता दिखाई देता है, वही दूसरी ओर एक ऐसा पाठक-दर्शक वर्ग जिसने उसे आदिम जमाने से अपना और सरोकारी समाज का दुश्मन मान बैठा है, उसकी न केवल स्वीकृति मिल जाती है बल्कि वो खुद भी ऐसे उबनिरोधक कम्युनिस्ट सांस्कृतिक उत्पाद के मुख( mouth) प्रचारक बनते हैं. बाजार और थके-हारे पूंजीवाद को इसका दोहरा लाभ मिलता है जिसे कि हमारे कॉमरेड साथी सम्मोहन में पूंजीवाद/बाजार के भीतर प्रगतिशील विचारधारा की स्वीकार्यता समझ रहे हैं.

इस बात को स्वीकार करने में अगर थोड़ी भी दिक्कत होती हो तो आप ऐसे डिफरेंट सांस्कृतिक उत्पाद में फर्क करने के अलावे इसके वितरण, लागत, पैकेजिंग, उसके भीतर की प्रतिस्पर्धा पर गौर करें, आपको बाकी कहीं से कुछ भी अलग नहीं लगेगा. ये वही उत्तर-आधुनिक स्थितियां है जिसे तथाकथित प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट या तो दगाबाजी करार देता है और वो इसलिए कि इस सांस्कृतिक उत्पाद का लाभ संगठन की झोली में न जाकर पूंजीवाद की झोली में गिरता है या फिर उन तमाम कॉमरेड के लिए एक मॉडल पेश करता है जहां उसे एक समय के बाद वहां और इसी तरीके से पहुंचना है.

 इन सबके बीच जल्दीबाजी का निष्कर्ष हो सकता है कि मार्क्सवाद( जाहिर है इन प्रैक्टिस) पूंजीवादी ढांचे के भीतर सांस्कृतिक उत्पाद को स्वयं पूंजीवाद के दिमाग से पैदा हुए उत्पाद से अलग,बेहतर और खूबसूरत बनाने का तरीका है जिसका असल काम बाजार की निरसता को भंग करते हुए उसे पहले से और मजबूत करना है. ऐसे में पीयूष मिश्रा या किसी भी भूतपूर्व कम्युनिस्ट को मार्क्सवाद से अपने को अलग बताना उतना ही जरुरी और व्यावहारिक है जितना कि पूंजीवाद के नए करिश्मे के भीतर नए कामगारों का एक समय तक कम्युनिस्ट बने रहना या फिर न भी बन सकें तो उसके आवरण के इर्द-गिर्द रहना.

 जो बात हम कभी मजाक में सुना करते थे कि पच्चीस साल तक जो कम्युनिस्ट नहीं है वो बेकार है और जो पच्चीस साल के बाद भी कम्युनिस्ट रह जाता है वो और भी बेकार है दरअसल ये महज चुटकुला होने से कहीं ज्यादा बाजार के बदलने पैटर्न की अनिवार्यता है क्योंकि रहना तो हर किसी को बाजार में ही है, समाज तो उसकी इच्छा और सहूलियत से बसाई जानेवाली चीज है. इस समाज में तब टीनएज के बुनियादी पाठ का - विचारों की प्रतिबद्धता और दक्षिणपंथियों से हिकारत व्यावहारिक होने के बीच घुल-मिल जाना स्वाभाविक है. तब आप अपने उन तमाम कम्युनिस्ट साथियों पर खुलकर हंस सकते हैं जो सामाजिक स्तर पर तो दक्षिणपंथी-वामपंथी का स्पष्ट विभाजन कर लेते हैं लेकिन जैसे-जैसे उसका सिरा बाजार की तरफ बढ़ता है वे इ देखो, ये रहा दक्षिणपंथी, उधर देखो दक्षिणपंथी जैसे स्थूल विभाजन की काबिलियत खो देते हैं, कई बार उसी बाजार में खुद भी विलीन हो सकते हैं जबकि जो प्रतिबद्ध है वो लथपथ ही रह जाता है.(रवीश से उधार के शब्द)

कार्यक्रम की वीडियो देखने के लिए चटका लगाएं-  एक शाम पीयूष मिश्रा के नाम
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मेरी नानी बहुत गंभीर पाठक है. मैंने उन्हें बचपन से ही एक ही मुद्रा में घंटों बैठकर पढ़ते देखा है. हां, ये जरुर है कि उन्होंने हमलोगों की तरह कभी मार्शल मैक्लूहान की मीडिया थीअरि नहीं पढ़ी, आधे-अधूरे अधकचरे तरीके से देरिदा और फूको को पढ़कर गर्दन की नसें नहीं फुलाती रही, मार्क्सवाद के नाम पर चुटका साहित्य नहीं पढ़ा. उन्होंने जीवनभर, पिछले बीस-बाईस सालों से तो मैं ही देख रहा हूं, विशुद्ध पॉपुलर साहित्य पढ़ती रही जिस पर आज अकादमिक दुनिया का एक धड़ा पल्प लिटरेटचर, पटरी साहित्य के नाम से शोध करने में नया-नया रमा है. उन दर्जनों पत्रिकाओं की सालों से नियमित पाठक रही है जिसमें काम करनेवाले हमारे मीडिया साथियों को दोएम दर्जे का समझा जाता है, जिन पर बौद्धिक समाज नाक-भौं सिकोड़ता है और अगर आप उनके सामने कह दें कि मैं ये सारी पत्रिकाएं पढ़ता हूं तो नजरों से खाल उतारने की मुद्रा में आ जाएं. लेकिन मजाल है कि नानी से नंदन, बालहंस, चंपक, गृहशोभा, निरोगधाम,वनिता,चंदामाम, सरिता,सहेली और सुमन सौरभ का कोई अंक छूट जाए. इन पत्रिकाओं में छपनेवाले स्वेटर की पैटर्न को मेरी नानी जितनी सहजता से उतारती, मामी, भाभी को इसमें माथापच्ची करने में घंटों लग जाते हैं.

मैंने नानी को इन पत्रिकाओं और इसके आसपास के साहित्य को जितनी गंभीरता और तन्मयता से पढ़ते देखा है, उतनी सीआरएल( आर्टस फैकल्टी डीयू की लाईब्रेरी) और रतन टाटा लाइब्रेरी( डीइ स्कूल,डीयू) में भी साहित्य और समाजशास्त्र को पढ़ते हुए बहुत ही कम बार किसी को देख पाता हूं. अंजलि (मेरी ममेरी बहन) और मिलन (मेरा ममेरा भाई) नानी के सप्लायर थे. अब तो अंजलि अपनी गृहस्थी में व्यस्त है और मिलन गृहस्थ बसाने की जमीन तैयार करने में लगा है. खैर, अंजलि "चेतना कला केन्द्र" से सहेली, वनिता और गृहशोभा जैसी पत्रिकाएं लाती और मिलन "जागृति सांस्कृतिक केन्द्र" से चंदामामा,नंदन,चंपक, बालहंस... ये दोनों मंच मेरे नानीघर( शेखपुरा जो कि कभी मुंगेर का हिस्सा हुआ करता था) उन युवा साथियों ने खड़े किए थे जो बड़ी मुश्किल से ग्रेजुएशन करने के बाद किसी तरह की नौकरी या काम के लिए कोशिश में लगे रहते. उधर जो लड़कियां ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी कर लेती और एक तरह का खालीपन होता, उसे काटने के लिए चेतना जैसे मंच खड़े किए थे. अफसोस कि बाद में इस मंच का इस्तेमाल ससुराल में बक्सा भर-भरकर एम्बॉडरी, क्रूस,बुनाई और पेंटिंग की हुई चादरें, पूजा की थाली का झकना(ढंकने के लिए) बनाने-सीखने के लिए किया. ये दोनों मंच जो कि शेखपुरा जैसी जगह के लिए युवाओं के अकेले सामूहिक ठिकाने थे, पता नहीं अब भी काम कर ही रहा है, देशभर की पत्रिकाओं का बड़ा भंडार बना. मिलन और अंजलि यहां से पत्रिकाएं लाते और किसी दूसरे काम में फंस जाते लेकिन नानी नियम से नाश्ता के बाद इसे पढ़ती.

मेरा नानीघर बिल्कुल शेखपुरा के मेनबाजार में है. उपर घर और नीचे अलग-अलग चीजों की दुकानें और शोरुम. सड़क से गाड़ियां गुजरती रहती है. स्नेहा खानवलकर कभी वहां जाती है तो पक्का टैं टैं जैसी कोई धुन या साउंड ट्रिपन का मसाला ढूंढ लेगी. नानी घर के एकदम अगले हिस्से में इन पत्रिकाओं के साथ जाकर बैठ जाती. इसे छतरी कहा करते थे. हम बच्चे जब गर्मियों की छुट्टी में जाते तो वहीं बैठकर "हम्मर बस, हम्मर टरक"( मेरी बस, मेरी ट्रक ) खेला करते. मतलब कि जिसे जो गाड़ी पहले दिख जाए, जोर से बोले- हमर बस, हमर ट्रक. हरेक गाड़ी पर एक प्वाइंट मिलते. मैं छुटपन से ही भाषिक तौर पर थोड़ा बदमाश था. गाड़ियों के बजाय कहता- हम्मर आदमी, हम्मर लेडिज. इस पर प्वाइंट नहीं मिलते लेकिन ठहाकों से छतरी किसी किट्टी पार्टी जैसा गुलजार हो जाता. नानी ने मेरे पापा की तरह कभी नहीं कहा कि बहुत भच्च-भच्च करते हो तुमलोग, हम लिखा-पढ़ी कर रहे हैं. वो पढ़ती रहती और बीच-बीच में भजन गुनगुनाती जिसका कि सुमन सौरभ या गृहशोभा की सामग्री से कोई संबंध न होता.

उस दौरान हमलोगों में इन पत्रिकाओं में छपने का भी भूत सवार हुआ था. हम इन्हीं पत्रिकाओं में छपकर प्रेमचंद, फनीश्वरनाथ रेणु और महादेवी वर्मा होना चाहते थे. मैंने ईमानदारी से कोई कोशिश तो नहीं की लेकिन मिलन की पेंटिंग बालहंस में छपने लगी थी और नानीघर के पड़ोस के कुछ बच्चों की भी. चूंकि नानी सबसे पहले पत्रिका देखती तो उत्साह में कहती- इ ओही अंशुआ के कहानी छपले ह, जे गजोधर के छोटकी बेटिया है.( ये उसी अंशु की कहानी छपी है जो गजोधर की बेटी है ). मिलन या अंजलि कहती- हां मां. दोनों मेरी नानी को दादी न कहकर मां कहा करते. इसी में किसी ने कह दिया कि हां पहिले देखे हैं तो नानी का उत्साह थोड़ा मर जाता. दोपहर का खाना खाने के बाद और ठाकुरबाड़ी जाने के पहले भी नानी इन पत्रिकाओं और घर में मौजूद किताबें पढ़ती.

रसोई में मैंने अक्सर देखा कि नानी अखबारों और रद्दी से बने जो ढोंगे आते जिसमें नाना या पिंटू मामू बर्फी, मुरब्बा या सेब-बुनिया लाते, नानी उसे डिब्बे में डालने के पहले ढ़ोंगे में लिखे को पढ़ती. ये काम मैंने कैलाश भइया की मां को भी करते देखा और अपनी रजनी दीदी को भी. मुझे लगता है कि अगर मेहनत की जाए तो इस देश में हजारों ऐसी महिलाएं मिल जाएंगी जो रसोई में आनेवाले ढ़ोंगे को पढ़ा करती थी. वो "ढोंगा या लिफाफा रीडर" हैं और इस पर अलग से काम करने की जरुरत है. अब जिस तेजी से रसोईघर में इसके बजाय पन्नी या पॉलीथिन पहुंच रहा है, आप सोचिए कि ये कैसे पढ़ने से वंचित रह जाती होंगी. नहीं तो जब तक दाल खदक रही है, एक ढोंगा पढ़ लिया. जो कटा हिस्सा अधूरा रह गया, उसे कल्पना से पूरी कर ली. भात का अध्धन( गर्म पानी) चढ़ा दिया और हल्दी के ढोंगे पढ़ लिए. नानी भी ऐसा ही करती.
मैं दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े लेखकों/साहित्यकारों/ आलोचकों की जीवनचर्या के बारे में पढ़ता हूं, उनके लिखने-पढ़ने की आदतों के बारे में सुनता हूं, उन पर बनी फिल्में देखता हूं तो अक्सर ख्याल आता है- अगर मेरी नानी ये सब पढ़ते हुए यूजीसी नेट की परीक्षा पास कर लेती तो किसी कॉलेज में पॉपुलर लिटरेचर की एक्सपर्ट होती. दिल्ली के इंडिया हैबिटेट और मंडी हाउस के सभागारों में खुदरा-खुदरा पढ़कर जो महानुभाव पॉपुलर जर्नलिज्म औऱ लिटरेचर के नाम पर देह को ऐचाताना करते हैं( show-off), उनके आगे मेरी नानी सालों से पढ़ी जानेवाली सामग्री पर बात करती, मास कल्चर और लिटरेचर पर व्याख्यान देती तो पानी भरते. यकीन मानिए, इतनी गंभीरता से हम नहीं पढ़ते और खासकर वो सब जिसे पढ़ने के बाद न तो हमें किसी पत्रिका के लिए कॉलम लिखना होता है, जिसे पढ़कर हम सेमिनारों में हवा काटनी होती है और जिसे पढ़कर प्राइम टाइम में जाकर टीवी पर चमकाना होता है. हममें से अधिकांश मौके-बेमौके के पाठक हैं. परीक्षा आने पर कोल्हू की तरह पन्द्रह-बीस दिन पढ़ते हैं. ऑफिसों में बाबू और कार्पोरेट में "एग्जिक्यूटिव" बनने के लिए जिस कट्टरता से पढ़ते हैं कि आंख के साथ-साथ देह की सारी हड्डियों को भी पढ़ने में लगा दें, बाद में उतनी ही लापरवाही से सब छूट जाता है. नानी और उनकी जैसी हजारों पाठक सिर्फ इसलिए पढ़ती रही क्योंकि उन्हें पढ़ना अच्छा लगता है..संभव है कि इसलिए वो हमसे कहीं ज्यादा पढ़ने को इन्ज्वाय करती होगी. स्कूल-कॉलेज कब का छूट गया, कईयों ने तो मुंह तक नहीं देखा लेकिन पढ़ना जारी रहा. बड़े-बड़े सिद्धांत औऱ दर्शन न सही, क्या सिर्फ पढ़ना अपने आप में कम सुखद है. पढ़ना क्यों सिर्फ पढ़ने के लिए. ये कुछ इसी तरह से है जैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने "हिन्दी साहित्यः उद्भव और विकास" में भक्तिकाल का विश्लेषण करते हुए लिखा है- लीला,लीला के लिए. ये जस्ट फॉर फन से कितनी आगे की चीज है.

मेरी नानी इन दिनों मेरी लिखी किताब "मंडी में मीडिया" पढ़ रही है. कितना पढ़ा है और आगे पढ़ेगी, नहीं पता लेकिन पढ़ते हुए तस्वीरें मेरे पास है. मेरा मन करता है कुछ दिनों के लिए नानी को अपने पास बुलाउं. उनके आगे रेणु, निराला, अमृतलाल नागर, नागार्जुन, शमशेर, मुक्तिबोध,अज्ञेय, उदय प्रकाश, मैक्लूहान, अडोर्नो,ग्राम्शी, वर्जिनिया की किताबें रख दूं. समय-समय पर नींबू-पानी, शर्बत, जूस, लस्सी सर्व करता रहूं और एकांत में छोड़ दूं. नानी आप सिर्फ पढ़िए. संयोग से मेरा घर बिल्कुल शांत है, कोई बस-कोई ट्रक खेलनेवाला नहीं है, कोई कितना आदमी का चावल बनेगा मांजी पूछ-पूछकर तंग करनेवाली बहुएं नहीं, कोई ससुराल से आई बेटी नहीं जिसकी विदाई की टेंशन में नानी के पढ़ने का क्रम टूट जाए. कोई बिगडैल पोता नहीं जो वैसे तो इधर-उधर खेलता रहता है लेकिन जब मूतना होता है तो नानी की झकझक साड़ी से बेहतर कोई जगह नहीं मिलती. यकीन मानिए, मैं ऐसा करके नानी को नहीं, उस एक गंभीर पाठक के साथ कुछ वक्त बिताना चाहता हूं जिसके लिए पढ़ना स्वांतः सुखाय है, कोई लोभ-लाभ नहीं.

नानी की तस्वीर मेल करने के लिए रुचि( रुचि प्रबोधिनी) का बहुत-बहुत शुक्रिया.
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साल 2002 में हमने रांची शहर छोड़ दिया था. झारखंड जब बिहार से अलग राज्य बना था, हमारे  संत जेवियर्स कॉलेज रांची में उत्सव का माहौल था. पूरे दिन हम पेड़ों की टहनियां तोड़कर आदिवासी नृत्य करने की कोशिश करते रहे. उंचा-नीचा पहाड-पर्वत नदी-नाला गाते रहे..कितने दोस्तों ने न जाने कितनी मिठाईयां खायी होगी. पता ही नहीं चल रहा था, किसने मंगाई है ये मिठाइयां. फादर प्रिंसिपल ने हमलोगों को बाहर मैंदान में बुलाया था, शुभकामनाएं दी थी और कहा था- और इस राज्य को सुंदर और बेहतर बनाने की बात कही थी.

प्रभात खबर ने अपने विशेषांक में लिखा था- झारखंड, जहां बोलना ही संगीत है और चलना नृत्य. उसके बाद अस्मिता की जो लड़ाई सालों से लड़ी जाती रही और जिस संभावना को ध्यान में रखकर बिहार से अलग होने की मांग की गई थी, उस पर सेंधमारी का भी काम तेजी से शुरु हो गया.

एचइसी का इलाका जो सबसे शांत और खूबसूरत इलाका हुआ करता था, रसियन हॉस्टल के विधान सभा बन जाने के बाद राजनीति,दलाली और गुंडागर्दी का अखाड़ा हो गया. मेरे इस शहर को छोड़ते-छोड़ते आभास हो गया था कि कैसे इस राज्य में लूटपाट और तबाही होनी है. कार्पोरेट के डिब्बाबंद चमकीले इरादे जहर की तरह फैलेंगे..आज वो सबकुछ हो रहा है. इन सबके बीच यूट्यूब पर इस वीडियो को जरुर देखिए. इसकी सीडी आज से कोई तीन साल पहले इंसाफ के साथियों ने बेर सराय,दिल्ली में वीडियो दिया था. हम वहां जल,जंगल,जमीन की लड़ाई लड़ती आयी दयामणि बारला दीदी से मिलने गए थे.
गांव छोड़ब नहीं, जंगल छोड़ब नहीं
 माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाय छोड़ब नहीं..
 बांध बनाए, गांव डुबोए,कारखाना बनाए
 जंगल काटे, खदान कोडे, सेंचुरी बनाए
जल,जंगल जमीन छोड़ी हमिन कहां कहां जाए
 विकास के भगवान बता हम कैसे जान बचाएं.
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सॉरी दिल्ली की पहली बारिश !

Posted On 10:47 pm by विनीत कुमार | 5 comments

सॉरी दिल्ली की पहली बारिश ! मैं तुम्हारे साथ रेन डांस नहीं कर सका. तुम्हारे साथ भीगते हुए, नाजायज सी दिखती टमी को अंदर करके, सीने को लपलपाती जीभ सी आगे करके, लोकट शार्टस और स्लीवलेस टी में इरॉटिक पिक खिंचवाकर एफबी वॉल पर नहीं टांग सका. मुझे न त पकौड़े का ध्यान आया और न ही कॉफी की तलब हुई.


जब तुम बरस रही थी, मैं "सबसे तेज" की गलियों से गुजर रहा था. वहां ऑफिस में तब एंकर ब्रेकिंग न्यूज की कडाही में गर्मागरम खुशखबरी तल रहे थे. क्या पता चैनल का एक धड़ा इंडिया गेट,जीके-1, बसंत कुंज में बॉक्स पॉप लेने चला गया हो. मैं डीटीसी की ठुकदम-ठुकदम चाल से आजीज आकर पैदल ही चलने लग गया था. बाइक पर रेंगती हजारों गृहस्थियों को बड़े गौर से निहार रहा था. हाथ में दूध की थैली, कागज के ढोंगे पर तेल के निशान, क्या पता अंदर समोसे या पकौड़े हों. सैकड़ों माएं चिकनी फैब्रिक की सलवार सूट पर से फिसलते बच्चे को तौलिए की तरह खींच-खींचकर गोद में अटकाने की कोशिश कर रही थी. 

तभी ठीक बगल से होंडा सीटी, तवेरा गुजरती और पेशाब,थूक,खखार, गोबर, पोट्टी से सनी सेनेटरी नैपकिन से छनकर आयी तुम्हारी बूदें उनके चेहरे पर जाकर थप्पड़ से लगते. वो एक हाथ से बच्चे और दूध की थैली संभालती और दूसरे हाथ से पोछने की कोशिश करती..मैं धक्क से कर जा रहा था. वो गिर जाती तो ? क्या पता, आज घर जाकर फिर अपने जीवनसाथी को उलाहने देगी- कब से कह रही हूं, अपनी हैसियत बढ़ाओ, चौपाया गाड़ी लो. आखिर मैं कब तक जिसके-तिसके गू-मूत को चेहरे पर झेलती रहूंगी ? तुम रिक्शेवाले के पसीने के साथ ऐसे घुल-मिल गयी थी कि उसका कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया था. गाड़ियों के बाहर से लगातार पों-पों की आवाज आ रही थी और भीतर से बैनचो.. ये रिक्शेवाले भी न ... की लौड़ी, कहां बीच में अटका देते हैं. तुम्हारे आने पर सबसे ज्यादा यही परेशान नजर आ रहे थे.

पिंड बालुची में बिरयानी और फ्राइ चिकन के लिए लगी लाइन देखकर लगा सबके सब एफ एम चैनलों से मिले जैसे मुफ्त के टोकन इन्कैश कराने आए हों. सामने की फुटपाथ पर पड़ी मुन्नी बुझे कोयले के बीच से अधपके भुट्टे समेटकर जाने की तैयारी कर रही थी. एफ एम की लगातार कमेंटरी और ठहाकों के बीच मैं अपने इस अपडेटस को घुसाना चाह रहा था लेकिन गुंजाईश नहीं थी. 

विडियोकॉन टॉवर की भट्टी से निकले डे शिफ्ट के मीडियाकर्मी कॉफी में थकान घोलने में लग गए थे. मैं उनके चेहरे पर नजर टिकाए था. मन किया पूछूं- क्या चला रहे हो उपर ? सिर्फ हैप्पी-हैप्पी और यूट्यब के बताशे और बैक से रोमैंटिक गाने या फिर इन हजारों रेंगती गृहस्थी के विहवल कर देनेवाले नजारे भी. फिर लगा- पता नहीं उनमें से कोई कह दें- अव्वल दर्जे का फ्रस्टू है. गर्मी होती है तो एफबी रंग देता है और अब बारिश हुई तो विधवा विलाप लेकर बैठ गया..

लेकिन एक बात बताउं. तुम जब तक नहीं आती हो न, यहां के लोग,मीडिया से लेकर सरकार तक तुम्हारा ऐसा इंतजार करते हैं, जैसे तुम पेड न्यूज जैसी बेशकीमती हो. गर्लफ्रैंड या ब्ऑयफ्रैंड से भी ज्यादा मोहब्बत है तुमसे. जैसे कि सारी राजनीति तुम पर ही टिकी हो. लेकिन देखो न. कायदे से तुम्हें आए दो घंटे भी नहीं होते हैं कि लोग बेहाल हो जाते हैं. सड़कें जाम हो जाती है, शहर हांफने लग जाती हैं. सरकार की सारी धोखेबाजी सीवर,सड़कों और गलियों में तैरने लग जाती है. मीडिया की सारी काबिलियत और जुमले टांय-टांय फिस्स हो जाते हैं. लोग बेदम हो जाते हैं. ये शहर तुम्हारे साथ फ्लर्ट करता है कि उसे तुम्हारे आने का बेसब्री से इंतजार रहता है. तुम शाम आयी नहीं कि शीघ्रपतन का शिकार हो गया. इस शहर में तुम्हें कैरी करने की हैसियत ही नहीं है, बस हवाबाजी करता है.
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खिलौने पर अरविंद गुप्ता के प्रयोग और विश्लेषण सुनकर लगा कि हम जिस समाज में रह रहे वो बड़ी तेजी से हमारी क्रिएटिविटी को बाजार के हाथों बहुत ही औने-पौने दामों पर बेच आते हैं जिसमें कि हमारे मां-बाप और टीचर सबसे ज्यादा शामिल हैं.


ये क्रिएटिविटी बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, एसी ट्वायज शोरुम और आखिर में कार के पिछवाड़े, अस्त-व्यस्त ड्राइंगरुम और मेड के बच्चों के हाथों जाकर तिरोहित हो जाती है. ऐसा करते हुए विज्ञान के नाम पर हम सिर्फ और सिर्फ कबाड़ पैदा करते हैं और समाज के नाम पर उतरन. इस कबाड़ और उतरन के बीच हमारी कल्पना के, हमारी रचनात्मकता के चिथड़े-चिथड़े न हो जाए, इससे बचने के लिए हजारों अरविंद गुप्ता का होना जरुरी है. अरविंद गुप्ता ने कबाड़ के बीच खिलौने, कला, विज्ञान और उत्साह को खोजने का काम किया और रवीश ने टीवी के कबाड़ कार्यक्रमों के बीच अरविंद जैसे शख्स को लाने का. दोनों का बहुत-बहुत शुक्रिया. 

अरविंद गुप्ता के इस शो को अगर थोड़ी भी सावधानी के साथ देखें तो ये समझना मुश्किल नहीं है कि वो हिन्दुस्तान जैसे मुल्क के बीच किस जिद के साथ अपना काम कर रहे हैं ? रोटी में सबों की हिस्सेदारी, कविता में रोटी की तरह सबों की हिस्सेदारी कहनेवाले फिर भी सभ्य समाज में हजारों लोग मिल जाएंगे लेकिन बार्बी,पोकेमॉन( ऑरिजनल और पायरेटेड) के बीच गरीब बच्चों का हक कैसे मारा जाता है, उनके बचपन पर कैसे सभ्रांत समाज से आनेवाला बच्चा कब्जा कर जाता है और तब वह अवस्था की मासूमियत के बावजूद अपनी स्टेटस में उतना ही क्रूर हो जाता है, जितने उनके मां-बाप, अरविंद को सुनते हुए आप शिद्दत से महसूस करेंगे...दो पैसे-चैर पैसे की पन्नी,स्ट्रॉ,माचिस की तिल्ली और रिफिल से उन्होंने जिन खिलौने को बनाकर दिखाया और हम जैसे ठस चेहरे पर भी लगातार खुशी और कई बार आंखों में आंसू आते रहे. आमिर खान अगर इस शो को देखते हैं तो उनकी जुबान से पता नहीं कितनी बार "ओ तेरी की" निकलेंगे.
आपको अनायास राजेश जोशी की कविता "बच्चे काम पर जा रहे हैं" याद आने लगेगी.

कोई सौ बच्चों के बीच एक प्रयोग करके देखे- आधे बच्चे को डोरेमॉन,पोकेमॉन,स्पाइडर और बार्बी के खिलौने दे दे और आधे को अरविंद के खिलौने के साथ छोड़ दे और फिर उनकी खिलखिलाहट और मुस्कान की नाप इंच में करे..यकीन मानिए, इस नतीजे के बीच शॉपिंग मॉल के खिलौने के शोरुम ध्वस्त नजर आएंगे. कॉन्वेंट स्कूलों की साइंस क्लासेज इनह्यूमन बनाने के कारखाने लगेंगे और स्टेटस के साथ जीनेवाला मां-बाप का घर कन्ज्यूमर बनाने की फैक्ट्री लगेगी.

 
आप भी इस शो को देखिए और उस सभावना के साथ खुश होइए..कोई तो है जो कबाड़ के भीतर सोई आत्मा को जगाने का काम कर रहा है. कोई तो है जिसे इस कबाड़ को पैदा करनेवाले से शिकायत नहीं, वो अकादमिक समाज के बाकी लोगों की तरह पर्यावरण बचाओ के नाम पर सेमिनार करके हजारों किलो कचरा पैदा नहीं करता. कला और कविता की तरफदारी करते हुए भी इंडिया हैबिटेट और इंडिया इंटरनेशल जैसे ठिकाने को "उपभोग करने के अड्डे" नहीं बना डालता बल्कि उसके भीतर "मतलब" पैदा करने की कोशिश करता है. जिस शख्स का वजूद कबाड़ के बीच ही है. पता नहीं क्यों मुझे अरविंद सौंदर्य विधान,नायिका भेद करनेवाले और मोटे-मोटे पोथे लिखनेवाले सैंकड़ों कवि-आचार्यों के बीच भी ज्यादा करीब और विश्वसनीय लगे. हक और सरोकार की बात करनेवाले जनवादी कवियों के बीच के लगे. फर्क सिर्फ इतना है कि ये कवि हमारे कोर्स में आकर बेदखल होने से (छोटे ही सही हिस्से में) बच गए जबकि अरविंद कबाड़ होती जिंदगी के बीच जहां हम खुद ही बेदखल होते जा रहे हैं, उसमें बहुत कुछ बचा लेने की बात कर रहे हैं. यकीन मानिए अरविंद गुप्ता का काम और उसके पीछे का तर्क उन तमाम रचनाकारों के लिए खुली चुनौती है जो कविता और साहित्य के जरिए आए दिन एक खूबसूरत दुनिया की कल्पना करते हैं. हम निराशावादियों के लिए कबाड़ के बीच खिलौने यानि उत्साह यानि जिजीविषा बनाए रखनेवाले अरविंद गुप्ता बच्चों के "बाबा नागार्जुन" जैसे लगे. पूरी बातचीत और एप्रोच में भी और काफी हद तक कद-काठी और हुलिए से भी.

पूरा शो देखने के लिए चटकाएं- कबाड़ के जुगाड़ से बने अरविंद के खिलौने
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पिछले दिनों 27 जून को मीडियाखबर डॉट कॉम द्वारा आयोजित कार्यक्रम "एस पी सिंह स्मृति समारोह" का कार्ड देखकर पुण्य प्रसून वाजपेयी बुरी तरह आहत हुए. आहत होने की मुख्य वजह थी कि जिस गेस्ट लिस्ट में रामबहादुर राय जैसे वरिष्ठ पत्रकारों के नाम शामिल थे, उसी लिस्ट में कार्पोरेट से भी जुड़े लोगों के नाम शामिल किए गए थे. पुण्य प्रसून ने मंच पर आते ही अपनी इस नाराजगी को जाहिर करते हुए कहा- "आज एस पी होते तो ऐसा कार्ड नहीं छपवाते." उसके बाद अब उन्होंने अपने ब्लॉग पर एस पी की पत्रकारिता क्यों पीछे छूट गई एस पी को याद करते हुए शीर्षक पोस्ट के जरिए जाहिर की और इसमें कोई शक नहीं कि कुछ बहुत ही बुनियादी सवाल खड़े किए.


ये अलग बात है कि इसके पहले राहुल देव, आशुतोष और शैलेश जो कि एस पी सिंह से लंबे समय तक जुड़े रहे कह चुके थे कि एस.पी. बहुत ही व्यावहारिक पत्रकार थे और जानते थे कि बाजार के बीच रहकर कैसे काम किया जा सकता है. आशुतोष ने तो एस पी सिंह की इस व्यावहारिकता को स्थापित करने के लिए उन वामपंथी रुझान के पत्रकारों का उपहास तक उड़ाया जो वामपंथ का लबादा ओढ़कर रोटी की तरह मीडिया में भी आमजन और हाशिए के समाज की हिस्सेदारी की बात करते हैं. जिनके आगे बाजार भूत नजर आता है. खैर, एक तरह अगर एस पी व्यावहारिक पत्रकार थे और बाजार को साधना जानते थे और दूसरी तरफ पुण्य प्रसून के हिसाब से ऐसा कार्ड नहीं छपवाते वाली बात एस पी की प्रतिबद्ध पत्रकार की छवि स्थापित करते हुए भी एक गंभीर सवाल की तरह पूरे मसले को ले जाता है. सवाल है कि अगर एस पी सिंह एक तरफ बाजार को भी साध लेते थे और दूसरी तरफ अपनी यानि पत्रकारिता की प्राथमिकता को भी ज्यों का त्यों बरकरार रखते थे तो आखिर वो तरीका क्या था ? 

अगर हम गंभीरता से सोचें तो किसी भी मीडिया सेमिनार की पूरी बहस इसी मसले पर आकर ठहर जाती है कि आखिर वो ऐसा कौन सा तरीका हो जिससे कि बाजार के बीच रहकर व्यावहारिक कौशल भी मजबूत होता रहे और इधर पत्रकारिता, सरोकार और सामाजिक प्रतिबद्धता भी बरकरार रहे. मुझे लगता है कि जिस दिन ये फार्मूला चैनलों के हाथों लग गया, उसी दिन मीडिया सेमिनारों में बहस के लिए और मीडिया पर आरोप लगाने के लिए कुछ खास बचेगा नहीं.

लेकिन स्थिति इससे अलग है. बाजार के बीच व्यावहारिक होने की जो तस्वीर हमारे सामने उभरकर आ रही है उसका एक पक्ष तो बहुत ही मजबूत दिख रहा है कि जहां मीडिया संस्थान को घाटा होता दिखाई दे रहा हो तुरंत कार्पोरेट के हाथों अपनी हिस्सेदारी बेच दो या फिर सरकार से सॉफ्ट लोन ले लो. नेटवर्क 18 में रिलांयस इन्डस्ट्रीज का करीब 1700 करोड़ रुपये का निवेश,लीविंग मीडिया जो कि आजतक जैसे चैनल कां सचालन करता है के 27 फीसद शेयर को आदित्य बिड़ला ग्रुप के हाथों बेचा जाना, एनडीटीवी ग्रुप का ओसवाल के हाथों शेयर बेचना और फिर सरकार से सॉफ्ट लोन लेना कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो मीडिया संस्थानों की व्यावहारिक और व्यावसायिक कुशलता को रेखांकित करती है. लेकिन इसका दूसरा पक्ष जिसे कि पुण्य प्रसून ने एस. पी. सिंह की 20 मिनट की बुलेटिन में विज्ञापनों की संख्या बढ़ने के बजाय लगातार उसकी कीमत में बढ़ोतरी के जरिए हमें समझाने की कोशिश की है, वो बिल्कुल अलग है. पुण्य प्रसून ने सही ही कहा है कि एस पी ने विज्ञापन की संख्या बढ़ाने के बजाय 10 सेकंड के विज्ञापन की कीमत 90 हजार तक कर दी. ऐसा किए जाने से उनकी और पत्रकारिता की प्रतिबद्धता बनी रही. अगर आप फिक्की-केपीएमजी की मीडिया और मनोरंजन उद्योग की रिपोर्ट पर गौर करें तो अंग्रेजी-हिन्दी चैनलों के विज्ञापन दर में जो जमीन-आसमान का फर्क है, वो आपको इसी फार्मूले के आसपास की चीज दिखाई देगी लेकिन क्या हिन्दी चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी चैनल ज्यादा सरोकारी है,ये बात दावे के साथ कही जा सकती है ? मुझे इसमें न केवल शक है बल्कि घोर असहमति है. ऐसे में पुण्य प्रसून का ये उदाहरण बेहतर तरीका दिखते हुए भी आज के संदर्भ में न केवल अव्यावहारिक दिखता है बल्कि वे खुद जानते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है ?

जिस आजतक में एस पी सिंह ने ये काम किया, बाकी चैनलों को तो छोड़ दीजिए, स्वयं आजतक इस फार्मूले पर कायम रह सका ? उसने इस रणनीति पर काम किया क्या कि चाहे कुछ भी हो  जाए, विज्ञापन दर कम नहीं करनी है. ऐसा क्यों नहीं हो सका, इसक जवाब हम आजतक के बजाए इंडिया टीवी की केस स्टडी बनाकर बेहतर समझ सकते हैं. हां, इस पूरे प्रसंग में हम एस पी के जमाने में आजतक को शिकस्त देनेवाले कितने कार्यक्रम थे और बाजार के स्तर पर उन्हें कैसी टक्कर मिल रही थी, इसे शामिल किया जाना जरुरी है. कैसेट संस्कृति के दौरान तो लगभग वही स्थिति रही जो स्थिति आज हम न्यूज चैनलों के बीच देख रहे हैं. तब अपनी कैसेट बेचने के लिए कोई कपिल देव की छपी टीशर्ट मुफ्त देता था तो कोई खरीदने के बजाय किराये पर कैसेट ले जाने की सुविधा शुरु कर दी थी लेकिन बतौर एक कार्यक्रम "आजतक" को कितनी चुनौती मिल रही थी, इस पर बात होने से शायद हम कुछ ज्यादा जान-समझ सकें. बहरहाल

 14 अगस्त 2010 को अंग्रेजी पत्रिका ओपन ने इंडिया टीवी को लेकर एक स्टोरी छापी- the world according to india tv. इस स्टोरी में राहुल भाटिया ने इंडिया टीवी के शुरु होने से लेकर मौजूदा स्थिति तक को लेकर अपनी बात तो रखी ही है साथ ही चैनल के सर्वेसर्वा रजत शर्मा का भी वर्जन शामिल किया. रजत शर्मा का कहना था कि शुरुआत में हमने इस चैनल को तरुण तेजपाल की खोजी पत्रकारिता, मेनका गांधी की पशुओं के प्रति गहरी संवेदना और आदिवासी से जुड़े गंभीर मसले को लेकर शुरु किया और हम इसी तरह की जरुरी स्टोरी प्रसारित करते रहे. लोगों के बीच इस बेहतर छवि थी लेकिन हमारे पास विज्ञापन नहीं थे. मार्केटिंग के लोग कहते कि इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे कि विज्ञापनदाताओं का लाभ हो सके. रजत शर्मा ने न्यूज वैल्यू और चैनल इमेज के दम पर बाकी चैनलों के मुकाबले अधिक विज्ञापन दर की कोशिश जरुर की थी लेकिन वो मॉडल पूरी तरह फ्लॉप हो गया. आगे उन्होंने इंडिया टीवी और खुद के बने रहने का जो तर्क दिया वो मेरे हिसाब से अश्लील होते हुए भी व्यावहारिक था. उनका कहना था कि जब हम खुद ही नहीं रहेंगे तो पत्रकारिता करके क्या कर लेंगे ?  मेरी तरह शायद प्रसूनजी भी यही कहेंगे कि तो फिर आपको किस शख्स ने अवतार लेकर पत्रकारिता करते रहने के लिए कहा है ? किसने कहा कि जब आप आदिवासी से जुड़ी खबरों के दम पर चैनल नहीं चला सकते तो यूट्यूब से "शैतान की आंखे" उठाकर दिखाएं और विज्ञापन का सस्ता रास्ता अपनाएं. लेकिन नहीं. इंडिया टीवी की सफलता और नंबर वन होकर आजतक को लगातार ठोकने-पीटने की कलाबाजी के बीच न तो आजतक के भीतर एस पी सिंह का आदर्श बचा रह सका, न ही रजत शर्मा के तर्क को अश्लील करार देने का कोई मतलब रह गया और न ही अब पुण्य प्रसून की रेखांकित आदर्श स्थिति की किसी को परवाह है.

प्रसूनजी, आफ यकीन कीजिएगा, आपकी तरह ही मैं मीडिया के भीतर इस आदर्श स्थिति और बाजार के घिनौनेपन के बीच मीडिया का कमल कैसे खिला रहे, खूब सोचा-समझा. बहुत तनाव में रहा और जिस किसी से भी इस संर्दभ में बात की, मार्क्सवादी यूटोपिया जैसे शाब्दिक प्रयोग से मजाक का हिस्सा बना. मैं बिना किसी निष्कर्ष तक पहुंचे ये नहीं कह सकता कि ऐसा कोई तरीका है नहीं. लेकिन इतना जरुर देख पा रहा हूं कि आप और हम जिस साख की बात कर रहे हैं, मीडिया ने समझ लिया है कि उसे बेहतर स्टोरी, सरोकार से जुड़े कार्यक्रम दिखाकर हासिल करने के बजाय मार्केटिंग और पीआर के लोगों के जरिए ज्यादा आसानी से अर्जित किए जा सकते हैं. ये सचमुच खतरनाक स्थिति है कि जिस मीडिया की बुनियाद ही साख पर टिकी है, वह भी बाजार में खड़ें लंपटों के जरिए ही हासिल किया जा सकता है. अभी मीडिया इसे इन्ज्वॉय कर रहा है लेकिन जिस तरह डिस्ट्रीब्यूशन के मामले में केबल ऑपरेटर के गुंड़ों के हाथों विवश हुआ है, आनेवाले समय में पीआर एजेंसियों के हाथों होगा. गौर से देखें तो टुकड़ों-टुकड़ों में मीडिया अपने को बाजार के हाथों गिरवी रखता जा रहा है. ठीक उसी तरह जैसे हम चैनलों की हिस्सेदारी को टुकड़ों-टुकड़ों में रिलांयस, आदित्य बिड़ला, टाटा म्युचुअल फंड के हाथों बिकते देख रहे हैं. ये संभव है और इसके अपने खतरें भी हैं कि जब भी हम मीडिया के भीतर घुसे बाजार,मुनाफा और इनके बीच होनेवाले धत्तकर्म को छेड़ने की कोशिश करते हैं, एक समय बाद हम खुद ही उसके पक्ष में खड़े होते नजर आते हैं. इस पोस्ट का प्रभाव भी शायद ऐसा ही हो बावजूद इसके मुझे लगता है आदर्श स्थिति की कामना के बीच हमें ऐसी जहमत उठानी चाहिए.

अब थोड़ा पर्सनल हो रहा हूं, इस भरोसे के साथ कि इसे किसी भी दूसरे संदर्भ के साथ जोड़कर नहीं देखा जाएगा. आपने न्यूजलॉड्री में मधु त्रेहन को दिए इंटरव्यू में कहा कि मैंने आजतक छोड़कर सहारा इसलिए नहीं ज्वायन किया कि मुझे पैसे ज्यादा मिल रहे थे. आप पता कर लीजिए, मुझे वहां मुझे आजतक से ज्यादा एक पैसा भी ज्यादा नहीं मिला. मैं वहां सिर्फ इसलिए गया था कि काम करना चाहता था. आखिर जिस चैनल पर भूत-प्रेत चल रहे हों, वहां हम दिन-दिनभर चाय पीकर कैसे काट सकते थे ? सही बात है. मैंने आपको स्क्रीन पर, फील्ड में और यहां तक कि ऑफिस में गंभीरता से अपना काम पूरी प्रतिबद्धता के साथ करते देखा है. मैं आपकी इस बात पर बिना किसी अतिरिक्त श्रद्धा के भरोसा करता हूं कि आपने काम करने के लिए आजतक के बजाय सहारा का चुनाव किया. लेकिन असल सवाल है कि आपके इस फैसले से व्यक्तिगत तौर पर आपको मिली संतुष्टि के अलावे न्यूज चैनल की भीतरी संरचना पर क्या फर्क पड़ा ? 

आपसे मसीहा होने की उम्मीद किए बिना सिर्फ इतना भर जानना चाहता हूं कि अगर देश के नंबर वन चैनल को आप जैसे सजग और दुर्लभ भारतीय टेलीविजन पत्रकार वैसा करने से रोक नहीं सकते थे, अपने लिए स्पेस बरकरार नहीं रख सकते थे तो फिर सहारा में ये जमीन शुरुआती दौर में तैयार किए जाने के बावजूद लंबे समय तक बनी रह सकती थी. मैंने आपके समय के सहारा को लगातार देखा है. सिंगूर और नंदीग्राम की घटना की कवरेज के लिए उस "समय" चैनल को अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए. देशभर में तब जहां भी गया, संसद से बड़ी आपकी तस्वीर भी देखी लेकिन एक उदाहरण के अलावे वो पत्रकारिता मेनस्ट्रीम न्यूज चैनल की रगो में खून बनकर कहां दौड़ सका ? हम उम्मीद भी नहीं करते कि ऐसा हो सकता है. ऐसा इसलिए कि हम आपकी नियत के प्रति शक न करते हुए भी इतना जरुर जानते हैं कि न्यूज चैनलों का जो चरित्र है उसमें किसी पत्रकार की व्यक्तिगत ईमानदारी और प्रतिबद्धता घंटे-आध घंटे के लिए चैनल को फिर भी अलग कर सकती है लेकिन वो चौबीस घंटे के चाल-चलन को नहीं बदल सकती. एस पी सिंह की बीस मिनट की बुलेटिन ही क्यों, मुझे तो घंटे भर का आपका शो "बड़ी खबर" और रवीश कुमार का "प्राइम टाइम" उतना ही प्रभावी,बेबाक और साफ-सुथरा लगता है. तो क्या हम इस बिना पर एनडीटीवी इंडिया और जी न्यूज के प्रति एकतरफा राय कायम कर सकते हैं ?

दूसरी बात. आप जब कार्यक्रम में आए, आपके सामने ही आशुतोष और एकाध वक्ता बाजार का नगाड़ा पीट रहे थे. आशुतोष के साथ दिक्कत है कि वो राजदीप सरदेसाई की तर्ज पर अपने को मालिकों के हाथों मजबूर बताते और ईमानदार जाहिर करते हुए भी( जो कि निश्चिंत रुप से हो सकते हैं) आखिर में उसी मालिक का चारण करने लग जाते हैं जो उन्हें गंध मचाने के लिए मजबूर करता है. ये तीसरा मौका था जब उन्होंने भारतीय टेलीविजन के आधुनिक होने और भाषायी तरलता के लिए अरुण पुरी की जमकर तारीफ की. आशुतोष को इतना तो समझना ही चाहिए कि जब मालिक शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उसका मतलब सिर्फ अरुण पुरी या राघव बहल नहीं होता बल्कि एक व्यापक स्तर पर उस चरित्र की बात होती है जिसके लिए मुनाफा अंतिम सत्य है...और इसके बीच पत्रकार सेल्फ रेगुलेशन,बीइए और एनबीए के जरिए मीडिया के दुरुस्त होने की बात करते नजर आते हैं तो समझना मुश्किल नहीं है कि वे किसकी खाल बचा रहे हैं. सच बात तो ये है कि मीडिया के भीतर जिस किस्म का धंधा और उसकी संरचना बन रही है, ऐसे में चैनल और अखबार के संपादकों की रत्तीभर की औकात नहीं रह जाती कि वो इस मामले में दखल दे. मुझे नहीं लगता कि पांच सौ करोड़ के कर्ज में डूबे नेटवर्क 18 में रिलांयस इन्डस्ट्रीज का खून चढ़ाने के पहले आइबीएन7 के संपादक आशुतोष से राय ली गई होगी. खैर, आपने अपने पूरे वक्तव्य में उनलोगों की बातचीत का सीधे तौर पर कोई विरोध नहीं किया. कायदे से आपको बाजार की दुदुंभी बजानेवाले इन महान संपादकों के प्रति अपनी असहमति जाहिर करनी चाहिए थी. लेकिन आपने पूरी बातचीत एस पी सिंह के मीडिया और उसके राष्ट्रीय होने की समझ तक केंद्रित रखा. निस्संदेह, वो सब भी बहुत जरुरी था और हमें इसे हर हाल में जानना चाहिए. कार्ड पर नाम और मौजूदा वक्ताओं के विचार से आपको झल्लाहट हुई थी. आपने कार्ड की बात की, वक्ताओं की नहीं की. अचानक से उठकर चल दिए.

दरवाजे से बाहर जाने के क्रम में कार्यक्रम के संयोजक ने आपसे पूछा- सर, आप जा रहे हैं? आपने जवाब में कहा- तो क्या यहां बैठकर लफ्फेबाजी करें ? उसी से काम चल जाएगा. जाहिर है, उससे काम नहीं चलेगा. लेकिन मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि अगर मंच पर बैठे लोग लफ्फाजी ही कर रहे थे तो ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि आपने कार्ड का तो विरोध किया लेकिन इस पर चुप्पी मार गए ? मुझे ये बात थोड़ी अटपटी इसलिए लगी और आपके व्यवहार से सिर्फ इसलिए आहत हुआ कि आपके जिस तेवर का मुरीद रहा हूं और पिछले साल आपने जिस तरह से उदयन शर्मा के कार्यक्रम में भाषिक चारण कर रहे पत्रकारों की धज्जी उड़ायी, एस पी सिंह के इस कार्यक्रम में आपने तेवर के बजाय रुखापन दिखा. आपने सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को अपनी बात सुने बिना वहां से न जाने के लिए मजबूर कर दिया था और उनके रुकने पर उनके सामने मंत्रालय की नाकामी का तार-तार कर दिया. ये सब देखकर आयोजक ने जिस भावना में आकर आपको आमंत्रित किया और आपके इस जवाब से उसकी आंखों में आंसू छलछला गए,इन सबकी गिरफ्त में पड़े बिना मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि सोशल मीडिया में सक्रिय लोगों की कीबोर्ड अभी इतनी भोथरी नहीं हुई है कि अभी ये कार्यक्रम अगर गहरी भावुकता और ईमानदार कोशिश के साथ शुरु हुआ है, कल को चमकीले चेहरे का रैंप शो और महज धंधा बनने लग जाएगा तो दबने से मना कर देगी. हमने जब आपको पिछले 15 सालों से सुना-पढ़ा है तो अब हम पर आपको इतनी उम्मीद तो करनी हो होगी.

आपने इस कार्यक्रम से जुड़ी रिपोर्टिंग की चर्चा के क्रम में लिखा कि सोशल मीडिया पर वो सारी बातें क्यों नहीं आयी जो समारोह में श्रोताओं की ओर से सवाल की शक्ल में आईं थी ? मुझे लगा कि इन रिपोर्टों के बीच मेरी पोस्ट ताकि एस.पी.सिंह के आगे बाकी पत्रकार भी छाती कूट सकें पढ़ी होगी. लेकिन आपकी पोस्ट की तासीर से ऐसा लगा नहीं. ऐसी बहुत सारी चीजें हम कई बार पढ़ नहीं पाते और राय कायम कर लेते हैं. इसी सोशल मीडिया पर सालों से मेनस्ट्रीम मीडिया के चमकीले चेहरे और मंडी को लेकर काफी कुछ लिखा जा रहा है.दूसरा कि आपके तमाम गंभीर सवालों के बीच मैं ऐसा महसूस कर रहा हूं कि आपने फोटो न खिंचवाने,आयोजक को झिड़क देने का जो काम किया, वो आपका एरोगेंस है जिसे कि आप वैचारिक असहमति के नाम पर ढंकना चाह रहे हैं. ये बहुत स्वाभाविक है और उतना ही स्वाभाविक कि स्क्रीन पर मौजूद मीडियाकर्मियों के काम और भाषा के हिसाब से दर्शक राय कायम कर लेते हैं. उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. .लेकिन मैं आपकी इस राय से निराश नहीं हूं. उम्मीद करता हूं कि आगे आप इस पर गौर करेंगे. 
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