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मंटो पर फ्रॉड शब्द चढ़ा रहता. वो बात-बात में फॉड है, कहते. ये मीराजी के दोनों हाथों में गोले क्या हैं ? सब फ्रॉड है..कुछ हेपतुल्ला करो यार, इसमें हेपतुल्लइज्म नहीं है, थोड़ा हेपतुलाइजेशन होनी चाहिए. ये हेपतुल्ला क्या है ?..मंटो मानते थे कि एक बार शब्द चल निकला तो वो शब्द अर्थ तो अपने आप अख्तियार कर लेगा. एक मंटो बम्बई में है तो एक मंटो पाकिस्तान में भी होना चाहिए ताकि वहां के हराम हुकुमरान की भी नुक्ताचीनी कर सके.



ये है महमूद फारुकी और दानिश हुसैन की "मंटोइयत". मंटों पर दास्तानगोई जिसे हमने आज शाम सुना. यकीन मानिए मंटो पर इससे बेहतरीन शायद ही कुछ हो. मंटो को लेकर आमतौर पर जो स्टीरियोटाइप की छवि लिए हम घूमते हैं, उससे काफी कुछ अलग और विस्तृत जिसमें उनकी आवारगी के बीच भी एक चिंता मौजूद रहती है. एक लेखक और फक्कड़ इंसान के बीच ये एहसास बराबर बना रहता है कि वो सोफिया का पति और तीन बच्चों का बाप है. जो शादी की रात जब थककर सो जाता है और सुबह उठता है तो महसूस करता है कि उसके शरीर का एक हिस्सा शौहर हो चुका है और वो इस बात से संतुष्ट है. आगे वो लगातार इस चिंता में होता है कि अगर उसे कुछ हो गया तो ये मुश्किल में पड़ जाएंगे. एक शख्स जो सबकुछ बर्दाश्त कर सकता है लेकिन बेकद्री बिल्कुल भी नहीं. 

एक शख्स जो हमेशा विलोम में जीता है, जीना चाहता है लेकिन व्यवस्था की तथाकथित व्यवस्थित ढांचे के भीतर की अश्लीलता को उघाड़कर रख देता है. जिसकी अश्लीलता के आगे आप मंटो की भाषा पर एतराज करने के बजाय स्वयं से सवाल करेंगे- तो क्या इसके अलावे भी कोई शब्द और भाषा है जिसके जरिए कोई अपनी बात रख सकता है ? जिसका जीवन एक ही साथ दुनियाभर के उपन्यासों,कहानियों के बीच उलझा हुआ था लेकिन वो इतना जरुर जानता था कि अगर उसका नायक कोई आदर्श रुप धारण करता है,नैतिक दिखने लगता है तो उसका कैसे मुंडन किया जा सकता है और उन्होंने ये रस्म बहुत ही खूबसूरती से निभायी. और ये सब किसी दावे के साथ नहीं, यूं ही. जिसका कि एक सवाल के साथ कि हर बात पर रुस क्यों, हम जिस जमीन पर खड़े हैं उस हिस्से की बात क्यों नहीं सीधा मानना है कि जमाने को सिखाने से बेहतर है उससे बहुत कुछ सीखा जाए.

इस"मंटोइयत" में सिर्फ मंटो नहीं है. स्वयं महमूद फारुकी के शब्दों में जो यहां इस उम्मीद से पहुंचे हैं कि इस दास्तानगोई सुनने के बाद मंटों की किताब पढ़ने से बच जाएंगे, उनसे गुजारिश है कि द एट्टिक,कनॉट प्लेस, नई दिल्ली( जहां दास्तानगोई हो रही थी) के नीचे चले जाएं, वहां उन पर कुछ किताबें रखी है. इस मंटोइयत में दरअसल मंटो का वो मिजाज है जिसके जरिए वो एक ही साथ मनमोहन सिंह द्वारा शासित भारत,जरदारी की हुकुमत का पाकिस्तान और बराक ओबामा के अमेरिका को देखता है. हिन्दी पाठों की चर्चा करते हुए हम अक्सर कहते हैं न- व्यक्ति नहीं विचार है, कालखंड की घटना नहीं पूरी प्रक्रिया है, कुछ-कुछ वैसा ही.

इस "मंटोइयत" में एक वो लेखक और पिता शामिल है जिसे एक समय के बाद हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों देशों के प्रति मन उचट जाता है. जो दोनों देशों के भौगोलिक विभाजन के बावजूद संस्कृति और जीवन के स्तर पर जिंदगी भर भेद नहीं कर पाता..जो अक्सर अपनी बेचैनी को लेखन के बीच खत्म करना चाहता है. वो पैसे के लिए लिखता है,यारों के सपनों के लिए लिखता है,जीने के लिए लिखता है, बेचैन होने पर लिखता है..वो हर मौके पर लिखता है लेकिन कभी इस दावे से नहीं लिखता कि वो लिखकर समाज को बदल देगा..एक फ्रीलांसर की हैसियत से,पेशेवर लेखक के तौर पर जिसके भीतर जिंदगी के फलसफे अपने आप समाते चले जाते हैं.

सिनेमा की दुनिया, विभाजन, एक पेशेवर लेखक के बीच स्वतंत्र और अपने मन का लेखन और पेशगी लेकर लिखने की बीच के मानसिक तनाव को समझने के लिए चाहे देश के किसी भी हिस्से में ये "मंटोइयत" हो, जरुर देखा जाना चाहिए.

हमने महमूद और दानिश की बिना इजाजत लिए करीब दो घंटे की इस "मंटोइयत" की रिकार्डिंग कर ली है लेकिन बिना उनकी इजाजत के साझा नहीं करेंगे.ये शायद सही भी नहीं होगा. फिलहाल इतना ही. मंटो की इस गिरफ्त में चूल्हे पर चढ़ी मैगी जलकर राख हो गई और रसोई धुएं से भर गया है. आंखें नींद से बोझिल हो जा रही है.पूरी रात में इसे "मंटोइयत" में कैद रहना है. सच में मंटो से मोहब्बत करने के लिए आपको कुछ न कुछ बर्बाद करना होता है. अगर मैगी क्या खुद को ही बर्बाद कर लें तो इससे बेहतर शायद ही कुछ हो. विस्तृत रिपोर्ट और महमूद से इजाजत मिलने पर ऑडियो वर्जन जल्द ही.

तस्वीर- मिहिर की ट्वीट से सेंधमारी
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1 Response to 'हजरात ! तो पेश है महमूद-दानिश की "मंटोइयत"'
  1. सागर
    http://taanabaana.blogspot.com/2012/07/blog-post_20.html?showComment=1342942907805#c1503705134608537513'> 22 जुलाई 2012 को 1:11 pm बजे

    palken bichaaye intzaar... please jaldi...

     

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