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पिछले तीन-चार दिनों से रेल बजट के नाम पर चैनल के एंकरों और रिपोर्टरों द्वारा दालमखनी बनाने का काम शुरु हो गया है जिसे कि दिल्ली में मां की दाल कहते हैं. जिन रेल को सालभर तक कोई पूछता नहीं है, उन रेलों पर मंत्रियों को चढ़ाकर एंकर पीटूसी करने में मशगूल हैं. तुर्रा ये कि इतनी फुटेज तो खपा दी, अब नहीं सुधरेगी हमारी रेल तो कब. ? पेश है चंद फेसबुक अपडेट्स-



  1.टीवी एंकरों के लिए भारतीय रेल गांव की छूटी हुई भौजाई की तरह है जिसकी याद सिर्फ होली में आती है..बाकी के दिन वो मर रही है,जी रही है..कुछ नहीं. भौजाईयों को भी पता होता है, ये याद भी खानापूर्ति की ही है या हमारे बहाने चिपके हुए छुटपन के दिनों की याद..अभी कुछ एंकर जो कि जाहिर है रिपोर्टरों की हक मारते हैं, कभी रेल की आर नहीं पर नहीं बोला, आज बसंल साहब के साथ चाय-नाश्ता,पान-सुपारी करेंगे. कोई पूछनेवाला नहीं है कि भायजी ऑब्लिक मैडमजी आप तो सॉफ्ट न्यूज करते रहे हैं, आज रेल कहां से ? खैर, वो करेंगे और ऐसा करके मीडिया में अपने छुटपन यानी इन्टर्नशिप और ट्रेनी के दिन याद करेंगे. भारतीय रेल और बजट जैसे गंभीर मसले पर इस तरह बात करेंगे जैसे रेल मंत्रालय बिग बॉस का घर हो जहां चड्डी सुखाने से लेकर गीले बाल फटकारने तक की फुटेज दिखाई जाएगी. आप उनकी इस बारीकी पर मोहित हो सकते हैं लेकिन मीडिया में जिसे बीट कहते हैं वो भटिंडा से रतलाम कम चली जाएगी, पता भी नहीं चलेगा. आजतक पर तो देख ही रहे हैं, लेडिज वर्सेज पवन बंसल..जैसे अपने रेलमंत्री लेडिज कम्पार्टमेंट में फुटबाल खेलने जा रहे हों.


2. साल में दो दिन ऐसा होता है जब मुझे अपनी हिन्दी से अंग्रेजी कई गुना ज्यादा सहज और ठीक-ठीक समझ आनेवाली भाषा लगती है. एक तो रेल बजट पेश किए जाने के दिन और दूसरा आम बजट. मैं इन दोनों दिनों प्रसारित कार्यक्रमों और खबरों को अंग्रेजी में पेश किए जाने पर ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाता हूं जबकि हिन्दी चैनलों पर जाते ही मुझे कुछ समझ नहीं आता. यहां पर आकर हिन्दी भाषा और अनुवाद के बजाय शोर लगने लगती है. इसकी बड़ी वजह है कि हिन्दी चैनल जिस ढोल-नगाड़े के साथ आपकी जुबान में आपकी बजट की तर्ज पर बजट पेश किए जाने और उससे जुड़ी खबरों का हिन्दी तर्जुमा करते हैं वो भाषा के नाम पर कठिन काव्य के प्रेत लगते हैं.
जाहिर है जिस सरकारी हिन्दी या कार्यालयी हिन्दी वो हमारे सामने पेश करते हैं, उनका न तो उन्हें अभ्यास है और न ही वो इसका अर्थ ठीक-ठाक समझ पाते हैं. ये तो छोड़िए, कल शैलेन्द्र ने ठीक ही लिखा था कि अपेक्षा को उपेक्षा और उपेक्षा को अपेक्षा बोल रहे हैं धड़ल्ले से एंकर और अफसोस में लिखा कि आपलोग कोई दूसरा धंधा क्यों नहीं कर लेते. इस तरह का प्रयोग हड़बड़ी के कारण नहीं है बल्कि छूटे हुए अभ्यास या कभी अभ्यास न किए जाने का परिणाम है. कुल मिलाकर इन दो दिनों में हिन्दी भाषा के बदले एक पाखंड़ रचती नजर आती है और इस पाखंड़ में करोड़ों दर्शक छले जाते हैं. आप बुरा नहीं मानिएगा तो एक बात कहूं, प्लीज आप इसे प्रोमोशन का हिस्सा मत लीजिएगा..आप बजट के लिए सीएनबीसी आवाज देखिए और खासकर संजय पुगलिया को..और अगर ये कहूं कि टाइम्स नाउ से लेकर इटी नाउ,एनडीटीवी प्रॉफिट किसी भी चैनल पर बजट देखेंगे तो ग्राफिक्स इस तरह से तैयार किए जाते हैं कि भाषा बहुत पीछे चली जाती है..तो हर्ट न हों..आपको हिन्दी सिनेमा की तरह जिसमें भोलेनाथ के पीछे से धर्मेन्द्र की वीओ- मैं भगवान बोल रहा हूं जैसे भौंड़ेपन से गुजरने की नौबत नहीं आएगी.

3. रेल बजट और आम बजट पेश किए जाने के दिन टीवी समाचार चैनलों की भाषा का विश्लेषण और उस पर अलग से चर्चा होनी चाहिए. आप गौर करेंगे कि इस दौरान समाचार चैनल उस हिन्दी,भाषा का इस्तेमाल करने की नाकाम कोशिश करते हैं जिसे वे कठिन,अकादमिक,साहित्यिक,ज्ञान देनेवाली भाषा कहकर,उपहास उड़ाते हुए छोड़ आए हैं. आप चाहें तो उनकी इस अदा पर लट्टू हो सकते हैं लेकिन जिस कोशिश में वो ऐसी हिन्दी बोलते नजर आते हैं लगेगा ही नहीं कि वो बक्सर,बलिया, भटिंडा की पैदाईश हैं. एक भारतीय का भाषा के स्तर पर इटैलियन हो जाने की घटना आपको इस क्रम में देखने को मिलेंगे और अगर आप शब्दों को एक स्वतंत्र जीव मानते हैं तो इन दो दिनों में न जाने कितनी कब्र की जरुरत पड़ जाएगी. ऐसा लगता है जैसे एंकरों और रिपोर्टरों ने कल रात ही भाषा एवं तकनीकी शब्दावली आयोग से शब्दकोश खरीदें हों और रतजग्गा करके कुछ-कुछ पलटने की कोशिश की हो. हैरानी होती है कि वो बजट के नाम पर रघुवीरी हिन्दी बोलने पर आमादा क्यों हो जाते हैं ? इन दो दिनों में हिन्दी आपको सबसे लाचार,कमजोर और उबा देनेवाली भाषा के रुप में आपके सामने होगी और आप कई बार नाराज भी होंगे कि टीवी ने हमारी जीती-जागती भाषा के साथ क्या किया ?

4. समाचार चैनलों के लिए रेल बजट बीकॉम पढ़नेवाले छात्रों के लिए हिन्दी जैसी है जिसे एक रात चैम्पियन और अशोक प्रकाशन पढ़कर पास भर हो जाना है. इस एक रात में वो प्रेमचंद साहित्य और किसानों की कर्ज समस्या के साथ कार्पोरेट गवर्नेस,रेणु के उपन्यास को कल्चरल डेमोग्रेफी से और जैनेन्द्र की मृणाल और कट्टो में स्ट्रेट मैनेजमेंट के जितने सूत्र खोज सकते हैं,खोज लें बाकी का क्या है..सरकारी काम जब ऐसे ही चलते हैं तो खबर का क्या है ? हां ये जरुर है कि आपके मन में सवाल उठेंगे- यार इतनी हड़बड़ी में तो हम टमाटर भी नहीं खरीदते जितनी हड़बड़ी में ये बजट पर खबर दिखा रहे हैं.

5. जिन टीवी चैनलों पर सालभर बाजार सवार रहता है, वो कितना लाचार नजर आ रहा है कि हमें बाजार और बजट पर समझ नहीं दे पा रहा है. ऐसे ही समय आप महसूस करेंगे कि किसी भी अनुशासन के शास्त्र से नहीं गुजरने की क्या पीड़ा होती है ? जिन एंकरों ने सालभर तक आम उत्सव,ताज उत्सव और कुंभ स्नान पर एंकरिंग की हो, वो आज रेल बजट पर बोलेगा ही नहीं बाकायदा रिपोर्टिंग करेगा तो कैसा करेगा ? टीवी में मुद्दे कहां,चेहरे पेश किए जाते हैं और जरुरी नहीं कि हर चेहरा आम पर भी और आम बजट पर भी फिट बैठ जाए.

6. तब मेरी मां मेरी किताबों में लिखी बात ठीक-ठीक नहीं समझने लगी थी. कहती- अब तुम उंचा क्लास में चले गए न, हमको नहीं ओरिआता( समझ आता है) है, अपने से कर लो, दीदी से पूछ लो. मैं तब भी जिद करता- नहीं मां तुम ही बताओ. मां के प्रति लगाव और श्रद्धा इतनी होती कि लगता मां है कुछ न कुछ तो ठीक ही बताएगी. रेल बजट,आम बजट और आतंकवाद जैसे गंभीर मसले पर आप चाहें तो इसी श्रद्धा से टीवी देख सकते हैं..मैंने तब दीदी से नहीं पूछा था, आप चाहें तो दीदी यानी दूसरे माध्यमों से गुजर सकते हैं.
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1 Response to 'टीवी के लिए रेल गांव की छूटी हुई भौजाई है'
  1. प्रवीण पाण्डेय
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/02/blog-post_26.html?showComment=1361848717298#c7214048079006746155'> 26 फ़रवरी 2013 को 8:48 am बजे

    प्रतिस्पर्धा तो नहीं पर महत्व तो है ही..यात्रा सबको करनी ही होती है।

     

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