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"ये जवानी दीवानी" के पीछे दिल्ली इस कदर दीवानी हो जाएगी कि ओडियन( बिग सिनेमा ) के एक टिकट की कीमत 1700 कर दिए जाने के बाद भी वो उश से बुश नहीं करेगी और फन से लेकर वेव तक में हम जैसे डिकार्पोरेट दर्शक के लिए कहीं कोई जुगाड़ नहीं होगा इसका अंदाजा मुझे इन सबों की वेबसाइट खंगालने के बाद हुआ. मैं दीपिका को लेकर थोड़ा सिनिकल हूं. मजाक में अक्सर कहा करता हूं- कोई फिल्म तीन घंटे तक सिर्फ उसकी स्टिल भी दिखाती रह जाए तो मैं पूरी फिल्म बैठकर देखूंगा और कहूंगा- क्या कमाल की एक्टिंग की है बंदी ने और एनर्जी-माशाअल्लाह. लेकिन सच तो ये है कि रणवीर को लेकर भी कुछ इसी तरह महसूस करता हूं लेकिन पॉलिटिकली करेक्ट होने के फेर में कभी जाहिर नहीं करता. बहरहाल, कुल मिलाकर कहानी ये है कि मैं इस फिल्म का लंबे समय से इंतजार कर रहा था. हम लाख बर्गमैन,अलपचीनो और इधर कला सिनेमा देख लें लेकिन भीतर जो एक सिटीमार आदिम दर्शक पैदा हो गया है, इसे हम अपने भीतर से निकालकर फेंक तो नहीं दे सकते न. सो इस आदिम दर्शक की खुराक के लिए ऐसी फिल्में भी उसी तत्परता से देखता हूं जिस तत्परता से बाकी फिल्में कल्चरल स्टडीज को समझने के लिए.

लेकिन इतनी भी दीवानगी तो नहीं कि हम महज एक फिल्म के लिए 1700-1200 फेंक आएं. पीवीआर जैसे मल्टीप्लेक्स का आलम ये है कि बड़ी-बड़ी कार्पोरेट कंपनियां अपने एम्प्लाय के लिए पूरा का पूरा शो कई बार बुक कर लेती है. इन सिनेमाघरों का बड़ा धंधा इसी से चलता है जो कि पैकेज की शक्ल में होता है. इस पैकेज के तहत कभी आपको फिल्में देखने का मौका मिला हो तो आपने महसूस किया होगा कि ये मल्टीप्लेक्स हमारे बाबूजी का है. सबकुछ लगेगा जैसे फ्री में बंट रही हो और गुरुद्वारे की तर्ज पर मनोरंजन की लंगर लगी हो. ये अलग बात है कि सैलरी सिल्प पर नजर डालेंगे तो उसमे इन सब तामझाम का पैसा भी कट चुका होगा. ये नई "सिनेइकॉनमिक्स" है जिस पर कि बात होनी चाहिए और हम सिनेमा पर बात करते हुए रील के भीतर के कंटेंट की व्याख्या करते हैं, उसका एक हिस्सा उसके बाहर का भी है जिसमे मीडिया पार्टनर से लेकर इवेंट पार्टनर और ऐसे कार्पोरेट पार्टनर तक के विश्लेषण किए जा सकते हैं. और जाहिर है इसमें हम दर्शकों की दीवानगी भी शामिल है जो इनके लिए एक राजस्व की शक्ल में कन्वर्ट हो जाती है जो अपने पसंदीदा कलाकारों,निर्देशकों की फिल्म पहले ही देखना चाहती है. इसमें उन एम्प्लाय पर की जानेवाली जबरदस्ती भी है जो फलां फिल्म न देखकर चिलां फिल्म देखना चाहते हैं. फलाना हॉल की जगह ढिमकाना हॉल में देखना चाहते हैं लेकिन चूंकि उनकी संस्था ने उस अमुक हॉल से टाइअप किया है सो ऐसा नहीं कर सकते. ऐसे में जो लोग मल्टीप्लेक्स के आने को सिनेमा देखने के लोकतंत्र बहाल होने े रुप में परिभाषित करते आए हैं, उन्हें फिर से इन तथ्यों पर अपनी राय कायम करनी चाहिए और बल्कि अंदरखाने के तथ्यों को जुटाकर हमसे शेयर करना चाहिए. एक तरफ आप पैसे खर्च करके भी टिकट नहीं पा सकते तो दूसरी तरफ जो नहीं देखना चाहते हैं उन्हें भी फिल्म देखनी होगी क्योंकि उनके देखन-न देखने से सैलरी स्लिप पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने जा रहा. इन दोनों ही स्थितियों में कितना झोल है इसका अंदाजा आप तब बेहतर लगा सकते हैं जब आप किसी फिल्म के लिए दिल्ली जैसे शहर के तमाम फन,बिग,पीवीआर और वेब जैसे मल्टीप्लेक्स से निराश होकर सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों की तरफ मुड़ जाते हैं. ऐसा करते हुए आपको पिक्चर क्वालिटी, सो कॉल्ड चीप ऑडिएंस, साउंड एफेक्ट और काउच जैसी ुसुविधा की चिंता नहीं होती है. दिमाग में बस एक ही बात होती है कि आज की आज फिल्म देखनी है. तब आपको लगेगा कि इन मल्टीप्लेक्स ने कैसा जाल बिछाया है और एक खास किस्म की फैब्रिकेटेड क्राइसिस पैदा की है.

लिहाजा, मैं इन तमाम वेबसाइटों से थोड़ा निराश( कहां जल्दी उत्साह बनता है अब किसी चीज,फिल्म और मौके को लेकर उस अर्थ में) होकर बत्रा सिनेमा की लैंडलाइन पर फोन करके पूछा- अंकल, ये जवानी दीवानी की टिकट मिल जाएगी और उधर बड़े ही इत्मिनान से आवाज आयी- हां बेटे, मिल जाएगी और कुछ आगे पूछता कि फोन रख दिया. मिल जाएगी तो करना क्या है जाकर ले आते हैं. तीन-चार घंटे इस नशे में तो रहेंगे कि जिस शहर में लोग जिस फिल्म की टिकट न मिलने पर आयं-बांय, इधर प्रेस से हैं, हमहुं कटिहारे से हैं टाइप की जुगाड़ लगा रहे होंगे, उधर इन्टरटेन्मेंट बीट के बंदे से एप्रोच कर रहे होंगे, हम घर बैठकर मैंगो शेक पी रहे होंगे, अपना काम कर रहे होंगे और देर शाम जब वो कुछ नहीं तो चलो आज वीकएंड डे रंग-बिरंगा पानी पीकर ही काम चलाते हैं, उस वक्त फिल्म देखकर हम अपना नशा उतार रहे होंगे.

बत्रा सिनेमा,मुकर्जीनगर पर भी दीवानी चढ़ी है इस फिल्म को लेकर लेकिन थोड़ा ठहरकर,थोड़ा सुस्ताकर. गेट पर ही करीब 72-73 साल का एक बुजुर्ग रंगों के अलग-अलग डिब्बे लेकर,हौले से उसमें ब्रुश डालकर फिल्म की टाइमिंग लिख रहा था. पोस्टर तो पूरे देश के लिए एक ही तरह की छपती है लेकिन सबों की टाइमिंग अलग होती है सो हाथ से लिखने का चलन गया नहीं है. हो सकता है, देश के कुछ हिस्से में पूरा का पूरा पोस्टर ही हाथ से बनते हों. रास्ते से गुजरते हुए गोलचा सिनेमा,दरियागंज में तो अक्सर ऐसा दिख जाता है. खैर, वो बुजुर्ग इस कड़कती धूप में भी इतने इत्मिनान से टाइमिंग लिख रहा था कि कहीं से लग ही नहीं रहा था कि वो उस फिल्म की टाइमिंग लिख रहा है जिसका पहला शो अभी से बस आधे घंटे बाद शुरु होगा. भड़भड़ाती भीड़ जब घुसेगी तो इनका डिब्बा और ब्रुश कहां होंगे, पता नहीं लेकिन लगे हुए थे.

अंकल आप सीधे-सीधे भी तो लिख सकते हैं लेकिन इस तरह थोड़ा घिसटकर लिख रहे हैं कि लग रहा है कुछ गलती हो गई है और फिर ओवरराइटिंग कर रहे हों. दूर से देखने से ऐसा लग रहा है कि आपने ब्रुश से नहीं रस्सी डुबोकर लिख दी हो. तस्वीर लेते देख वो पहले से थोड़ा असहज हो गए थे लेकिन सोचा है कोई मेंटल तो जवाब भी उसी तरीके से दिया- ये सिनेमा बनने में करोड़ों रुपये लगा है. आर्ट है आर्ट. अब इस आर्ट में हम तो कुछ कर नहीं कर सकते तो पोस्टर में ही सही. उस बुजुर्ग की पूरी बॉडी लैंग्वेज से लग रहा था कि जरुर पहले पूरी फिल्म की पोस्टर बनाते होंगे और अब इसकी गुंजाईश नहीं रह गई तो बस टाइम लिखने का काम करने लग गए. क्या पता आगे छपी तारीख चिपकाने का क्रम जो कि अभी शुरु हो गए हैं तो अपनी दबी किन्तु अभ्यस्त कला का इतना भी इस्तेमाल न कर सकें.

जैसे मैं हल्दी छुड़ाकर टिकट लेने गया था वैसी मुझे कुछ और महिलाएं दिखीं. हवाई चप्पल में,घर के कपड़े में, कुछ भकुआए "यूपीएसिया एसपेरेंट". पीटी परीक्षा की खुमारी उतारने. कुल मिलाकर जिस फिल्म को लेकर पूरे शहर में इस कदर शोर और रेल-पेल मची हो वहां बहुत ही शांत ढंग से शाम के शो की तैयारी चल रही है. क्या ऐसा इसलिए कि बत्रा,अंबा,गोलछा जैसे सिनेमाघरों के साथ कार्पोरेट-साझा नहीं होता और वो अपने भीतर के सिनेमाघर को अभी भी बचाए हुए हैं. जो भी धक्का-मुक्की होगी शो के समय, वेबसाइट पर पीवीआर जैसी अफरा-तफरी नहीं. तभी तो मैं कहता हूं- पीवीआर,वेब में सिनेमा देखने जाना और लौटना मुर्दा फूंकने जाने जैसा है, सारी हाय-तौबा वेबसाइट पर ही हो जाती है तो वहां जोड़-जुगाड़,शर्ट फाड़ाफाडी और अफरा-तफरी के नजारे पैदा ही नहीं होते. हम सिनेमा देखने के बहुत ही श्रूय्ड काल में जी रहे हैं. लेकिन अगर अपनी दीवानगी को थोड़ा लो बजट की तरफ शिफ्ट कर देते हैं तो दो-चार-पांच साल के लिए इस दिल्ली शहर में भी छोटे शहर,कस्बे में सिनेमा देखने के अंदाज को एक्सटेंड कर सकते हैं और 1700 के मुकाबले सौ रुपये में बालकनी की टिकट लिए दिनभर नशे में घूम सकते हैं..:)
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आदि, तू इतना अपसेट क्यों हो रहा है यार ? एक संडे हमलोग नहीं मिलते तो इससे पहाड़ तो नहीं टूट जाता न और फिर आगे हम इतने संडे साथ होंगे कि तुझे याद भी नहीं रहेगा कि कभी एक संडे हमने मिस्स भी किया था. जस्टू कूल डूड.

सद्या,मैं सीरियस हूं और तूझे मजाक सूझ रहा है. इस तरह से बिल्कुल भी नहीं चलेगा.तुम्हें अपनी प्रायरिटी मेरे सामने क्लीयर करनी ही होगी.

तो किस तरह से चलेगा जानेमन. आ जा कमलानगर तू भी. मिलाती हूं तुझको तेरी होनेवाली सासू मां से, आज तू भी डेट कर लियो मेरी तरह. बोल आ रहा है, भेजूं तेरे लिए घोड़ी ?

सद्या, प्लीज बंद करो बकवास नहीं तो फिर अपनी पेशेंस खत्म हो गई तो तुझे सारे लड़के एक से होते हैं के अलावे बोलने के लिए कुछ नहीं बचेगा. तुझे एक जरा भी इस बात की फीलिंग होती कि मैंने डबल शिफ्ट सिर्फ इसलिए की थी कि संडे की शाम तुम्हारे साथ बिता सकूं तो अभी इस तरह लापरवाही से मेरे से बात नहीं कर रही होती. कितना मुश्किल है इस चैनल की नौकरी से एक संडे निकालना, तुम्हें कुछ नहीं मालूम यार. तेरा क्या है, घर से निकलो मटरगश्ती करो और वापस घर.

हैलो डीयर,मैं कोई मस्ती-बस्ती नहीं करती, जीआरई की तैयारी कर रही हूं और जरा करके दिखइयो तो तू. दो घंटे कायदे से बैठा नहीं जाता और चला है हमें ही ताने दे..क्या करता है तू चैनल में, हमें पता नहीं है क्या ? आज दिखाएंगे रात के सात बजे- हिन्दुस्तान का आखिरी मुगल बादशाह अभी भी है जिंदा. आखिर क्यों दीपिका पादुकोण ने पार्टी में जाने से इन्कार. ही ही ही, यही है तेरा मीडिया और यही है तेरी जर्नलिज्म. इसी के लिए तू डबल शिफ्ट करता है, पहाड़ तोड़ता है नोएडा में बैठकर.

सद्या. तुम मेरे काम का इस तरह मजाक उड़ाओगी, डिस्गस्टिंग. यार, इतना घटिया तरीके से तो मेरे दुश्मन भी नहीं लेते मेरे काम को. इसका मतलब है तू मेरे पीठ पीछे इसी तरह से मजे लेती होगी दोस्तों के बीच मेरा.

लग गई न मिर्ची आदि, जरा सा मैंने कह दिया तो और तू पिछले दस मिनट से जो फोन पर बकवास किए जा रहा है वो क्या है ? मेरी मां नहीं बुढ़िया है, सत्तर की दशक की खटारा. बोल, यही बात तू अपनी मॉम के लिए बोल सकता है. मैं बोलूं, तेरी मां किसी एंगिल से मां नहीं लगती, चुड़ैल लगती है मुझे और मैं तो उनके साये से भी डरती हूं. मैंने तो तेरे से शादी के लिए बस इसलिए हां कर दी कि तूने ही कमिट किया है कि हम साथ नहीं रहेंगे. नहीं तो, सास..हूं, दो घंटे में चक्कर खाने लगूं मैं उनके सामने.

सद्या, मैं तेरा खून पी जाउंगा. मेको जो बोलना है बोल पर मेरी मां पर मत जा..ये  जो तू मॉड बन रही है न, सब दो मिनट में भीतर चला जाएगा. बता तो जरा इससे पहले कितनी बार तूने मदर्स डे सिलेब्रेट किया है और कितनी बार मां के साथ बिताए हैं ?

कभी नहीं बिताए हैं तो क्या अब भी नहीं बिताउं और फिर तू होता कौन है यार ये बतानेवाला कि मैं क्या सिलेब्रेट करुं क्या नहीं..और दुनिया में क्या सिर्फ एक ही दिन है सिलेब्रेट करने के..वो तेरी सड़ी सी तीन दिन के बासी गुलाब और क्रेडी नूडल्स में लंगर खाकर मेकआउट करने के. कभी दूसरे दिन का भी ख्याल कर, जिंदगी बहुत बड़ी लगेगी. आज पहली बार अफसोस हो रहा है आदि रियली, विलीव मी कि तू मेरा प्यार है..ssssss

सद्या,सद्या..प्लीज.यार तेरी यही बात मुझे बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती. पहले तो अटैकिंग होती हो और जब मैं पलटकर जवाब देने लगता हूं तो एमसीडी के नल बहाने लग जाती हो. अच्छा लग रहा होगा तू कमलानगर की भीड़ में इस तरह रोकर फोन पर बात कर रही होगी. कमऑन..चुप्प हो जाओ, अब तेरी मां सत्तर की दशक की खटारा है तो क्या श्वेता तिवारी कहूं उन्हें. खैर, जाने दे, तेरी मां को भला-बुरा कहने का मतलब है अपनी ही सासू मां की बेइज्जती करना, लीव इट.

वट एक बात तो है, तू मना तो कर सकती थी न कि आज रहने दो मां, कल चलेंगे कमलानगर, वैसे भी आज भीड़ बहुत होगी ? मेरे लिए तो तूने पहले भी पचासों बहाने बनाए हैं, पहली बार तो होता नहीं.

नहीं बना सकती थी आदि क्योंकि मां ने नहीं कहा था कि मुझे तेरे साथ आज घूमना है. मैं भागकर आयी थी तेरे से मिलने के चक्कर में पार्लर वैक्स कराने. आकर देखा तो कमलानगर का नजारा ही अलग था. आज लड़कियां रोज की तरह ही अदा में थी, उसी तरह से वाउ,कमऑन,मिसिंग यू, कर रही थी लेकिन उनके हाथ किसी दूसरे खुरदरे,कठोर हाथों में नहीं अपनी मां के हाथों में थे. वो उनके साथ मोमोज खा रही थी, एक ही तरह की स्लीपर खरीद रहीं थी, पिक्स लेकर ट्वीट कर रही थी और तो और जबरदस्ती मॉम के लिए एक-दो सेंटी लड़की बिकनी खरीद रही थी. मुझे ये सब बहुत ही फैसिनेटिंग लगा. मैं भूल गई की वैक्स करानी है और फिर जब हमें मिलना ही नहीं था तेरे से तो फिर वैक्स तो बाद में भी करा सकते थे..सो वापस घर आ गयी. मां तो तैयार कराया और आ गयी कमलानगर.

अच्छा, तो तुने जान-बूझकर मिलने का प्रोग्राम कैंसिल किया..तू सच में कितनी कमीनी है सद्या.यार इतना घटिया तरीके से तू ये सब बता भी रही है.तुझे मेरा एक जरा भी ध्यान नहीं आया कि आदि कैसे रातभर की शिफ्ट करके आया होगा, अभी सो रहा होगा और मेरे लिए शाम को आएगा..कुछ भी नहीं सद्या, एक बार भी नहीं.तूने सच में अपनी औकात दिखा दी..तू सच में चालू चीज निकली यार. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि तू इस तरह भी कर सकती है. मां की एनीवर्सरी औऱ बर्थ डे तक छोड़ा है तूने मेरे लिए और आज इस बाजार की ड्रामेबाजी मर्दस डे के लिए मेरी एक वीक पहले मिलने के प्लान को मिट्टी में मिला दिया.

आदि, मैंने मां से पचासों बार तेरे लिए झूठ बोले हैं लेकिन आज नहीं बोल सकती थी और आज क्या कभी नहीं बोलूंगी और पता है पहली बार सच क्या बोलूंगी- मां, तुम्हारी बेटी ने एक लड़के से प्यार किया था जिसने मिलने से पहले ही तुझे बहुत इन्सल्ट किया, तुझे खटारा कहा लेकिन वो अब इतिहास का हिस्सा है, मेरा पहला प्यार तुम ही हो मां. अब फोन रख दे आदि और हां पिछले डेढ़ घंटे से तूने जो व्हॉट्स अप पर जीना हराम कर दिया है न, बंद कर दे.नहीं तो ब्लॉक कर दूंगी.
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क्या हुआ बेटे, कहां चली गयी थी तू ? वेटर कितनी बार आकर लौट गया, पूछ रहा था कौन सा पिज्जा चाहिए आपको, पानी नार्मल लेंगी या मिनरल, मैं तो तेरा इंतजार कर रही थी, समझ नहीं आ रहा था.
कुछ नहीं मां, बस...वो क्या है न कि मेरी एक फ्रैंड है, आज कहा था कि हम मदर्स डे पर ओल्ड एज होम जाएंगे, मैं इधर आ गयी तो वो नाराज हो गयी और कोई बात नहीं.
पगली तो तूने इत्ती सी बात पर अपनी आइलाइनर खराब कर ली रो-रोकर. खैर जाने दे..आर्डर कर फटाफट. अब तो पिज्जा मंगा या पापड़, मुझे तो भूख लगी है जोर से.
एक्सक्यूज मी भइया.
जी मैम.
एक मैक्सिकनन ग्रीन वेव मीडियम और एक डबल चीज मार्केरिटा स्मॉल देना. साथ में दो कोक.
जी.
और बताओ मॉम, कैसी लग रही है मेरे साथ डेटिंग.
अच्छा तो यहां आकर तेरी खटारा मां, मॉम हो गई.
मां, तुम भी न..सारा मजा खराब कर देती हो, तुम तो मुझसे भी ज्यादा स्पायसी लगती हो.
चलो छोड़ो, आज पापा से ही पूछ लूंगी.
 सद्या ने आंख मारकर हल्के से मां के पैर दबा दिए थे..
एक बात बोलूं बेटा..तुझे आज न मेरे साथ नहीं आना चाहिए था, किसी और दिन
क्यों ओल्डएज होम तो कल भी जा सकती हूं न मॉम.
जा तो सकती है लेकिन पता नहीं कल तेरी दोस्त को छुट्टी मिले न मिले.
अरे वो रोज बैली बैठी होती है, मिल जाएगी छुट्टी.
सद्या, बैठा होता है, होती नहीं है............................
मॉम....
मैम,ये रहे आपके आर्डर.
नहीं, पहले मैं खिलाउंगी, आपने तो खिलाकर इतना बड़ा कर ही दिया, आज मैं.
नहीं सद्या मैं,
नहीं मॉम मैं.
एक्सक्यूज मी मैम, क्या हमलोग आपकी ये वीडियो शूट कर सकते हैं. हमारे यहां ऑफर है कि जितने बच्चे अपनी मॉम के साथ आएंगे, उनकी वीडियो बनाकर कॉन्टेस्ट में शामिल करेंगे और जिस वीडियो को सबसे ज्यादा हिट्स मिलेंगे, उन्हें लाइफ टाइम हमारे यहां का पिज्जा फ्री.
क्या भइया, पहले मुझे मॉम को एक-दो टुकड़े खिला तो लेने देते, बीच में ही टोक दिया.
ओह मॉम, इतनी सारी चीजों की टॉपिंग तो पहले से की हुई है, आपने आंसू की टॉपिंग क्यों कर दी..बचा कर रखो मॉम, अभी से ही..अभी तो बाबुल की दुआएं लेती जा की सीडी बजनी बाकी है..
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सहारा श्री से बड़ा देशभक्ति का गवैया इस देश में कोई दूसरा है ? वो बंदा न सिर्फ जन-गण-मन गीत को आत्मा से गाता है बल्कि अपने लाखों कर्मचारियों को गाने के लिए उकसाता( प्रेरित न पढ़ें प्लीज) है. इसकी चर्चा न केवल मीडिया में जमकर होती है बल्कि दर्जनों चैनल के मीडियाकर्मी लखनउ सहाराश्री की इस संबंध में बाइट लेने लखनउ उड़ाए/दौड़ाए जाते हैं, द हिन्दू से लेकर तमाम दूसरे अखबार इस ऐतिहासिक घटना की पूर्ण संध्या पर आधे पन्ने का विज्ञापन छापते हैं. फिर भी है कि आप एक सांसद के वन्दे मातरम् गाए जाने के दौरान उठकर बाहर चले जाने को मुद्दा बनाए दे रहे हैं.

आपलोग वन्दे मातरम् को लेकर जो चर्चा कर रहे हैं और उसमें सहाराश्री( जन-गण-मन के कारण) को किसी भी तरह से शामिल नहीं कर रहे हैं तो एक तरह से गाय पर लेख लिख रहे हैं जिसमे सारी बातें तो बता रहे हैं लेकिन ये लिख ही नहीं रहे हैं कि देशभर में गौमाता सुरक्षित रहे इसके लिए विश्व हिन्दू परिषद् के लोग अथक प्रयास करते रहते हैं. देखिएजी, वैचारिक असहमति अलग जगह पर है लेकिन जो काम जो कर रहे हों, उसकी फुल्ल क्रेडिट देनी चाहिए, इससे अपनी ही आत्मा का विस्तार होता है.


अब कल को ये कहा जाए कि इस देश में लोकसभा/राज्यसभा के अध्यक्ष ज्यादा सम्मानित हैं या सहाराश्री तो स्वाभाविक है कि जवाब में सहाराश्री पर टिक मारा जाएगा क्योंकि ये अकेला बंदा जो लाखों से एक साथ जन-गण-मण और जरुरत पड़े तो वन्दे मातरम् गवा सकता है वो काम अध्यक्ष नहीं कर पाए.कहां से होगा लोकतंत्र बहाल और कैसे होगी राष्ट्रभक्ति ? अब ये मत कर्मचारियों से पूछने लगिएगा कि आपको इस गाने की एवज में कोई और गाने को कहा जाए तो क्या गाएंगे ?


अगर वन्दे मातरम् गाने से ही देशभक्त होना तय है तो यकीन मानिए सहारा श्री, जिंदल, अंबानी, पीवीआर,फन सिनेमा के आगे आपलोग कद्दू हैं. आप खुद भी खखारकर गा लें सो बहुत हैं, ये तो पूरी की पूरी लॉट को एकमुश्त देशभक्त बनाते हैं जी ? जान लीजिए,देशभक्ति इस देश में भाववाचक नहीं जातिवाचक संज्ञा है. जहां अपने मन से भाववाचक के जरिए व्यक्तिवाचक बनने की कोशिश की जिएगा, खट से देशद्रोही करार दे दिए जाइएगा. संविधान और लोकतंत्र का ठेका अब कार्पोरेट के हाथों में है. आउटसोर्सिंग काल में सरकार की भूमिका आउटसोर्सिंग करवाने भर की है. कार्पोरेट इन भावनाओं की भाववाचक संज्ञा में आउटसोर्सिंग करके यानी कच्चे माल को अंतिम उत्पाद की शक्ल में जातिवाचक के रुप में समाज के बीच पेश करती है. भावनाएं जितनी तेजी से जातिवाचक संज्ञा में तब्दील होगी, सरकार और कार्पोरेट के लिए उतना ही आराम होगा और बाकी दिक्कत होने पर स्वयं जनता इस रुप में सक्रिय हो जाएगी कि वो व्यक्तिवाचक बननेवाले को घसीट-घसीटकर अपने पाले में लाएगी. विज्ञापन का शास्त्र बताता है कि उपभोक्ता को इस हालत में कर दो कि वो खुद उत्पादक की रक्षा के लिए मर मिटे और उसके पक्ष में काम करने लग जाए.

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इसलिए बरखा दत्त, बरखा दत्त है

Posted On 10:31 pm by विनीत कुमार | 2 comments


टाइम्स नाउ औऱ सीएनएन-आइबीएन जैसे चैनलों को चाहिए कि वो स्क्रीन पर BOSS ON COMIC RELIEF का स्थायी स्लग चिपका दे ताकि हम यकीन कर सकें कि पाकिस्तान के चुनाव की खबर दिखाए जाने के बजाय जो तालमखनी चैनल बना रहे हैं, उसकी वजह अर्णव औऱ राजदीप के वीकएंड बनाने के कारण है. नहीं तो इन चैनलों के लिए पाकिस्तान में चुनाव के आनेवाले नतीजे और नवाज शरीफ की सरकार बनने की संभावना से बड़ी खबर क्या हो सकती थी ?

इधर यही काम एबीपी,आजतक,आइबीएन7 और इंडिया न्यूज जैसे चैनलों को करना चाहिए- साहब छुट्टी पर हैं लिहाजा "ललित निंबध" से काम चलाइए. जी न्यूज को तो लगता है कायदे से दो-चार चपत लगाएं, कंटेंट के नाम पर कुछ है नहीं लेकिन कार्यक्रम का नाम दिया है- WE HATE DEMOCRACY. ये बात पाकिस्तान के लोग कह रहे हैं. इधर न्यूज24 हमेशा की तरह टीबी नॉट टीवी का शिकार है,वही अनसुनी कहानियां जारी है. आजतक के पास कहने को कुछ है नहीं तो बिना खबर के विस्तार में गए पैनल डिस्कशन शुरु.

अगर आप ये बात गंभीरता से समझना चाहते हैं कि अगर न्यूज चैनल के बॉस वीकएंड या छुट्टी पर होते हैं और दूसरी तरह टीवी क्र्यू जहां की खबर हो वहां भेजने की हैसियत चैनल के पास नहीं होती है तो किस तरह का कचरा स्क्रीन पर फैलाकर राष्ट्रीय खबर बनायी जाती है, तो अभी से लेकर आनेवाले एक-दो घंटे तक न्यूज चैनल जरुर देखिए. आइबीएन-7 के लिए सबसे बड़ी खबर एक तेंदुआ के घुस आने की है और इंडिया न्यूज ने बैंग्लोर के स्वामी की सोने की लंका और अभिषेक-एश्वर्या की शादी के पुरोहित होने के नाम पर अमिताभ बच्चन को घसीटने की जो कोशिश की, क्या बॉस छुट्टी पर नहीं होते तो आज ही ये खबर ब्रेक होती ? औऱ इन सबके बीच इंडिया टीवी के बॉस जो सप्ताह में एक ही दिन दिखाई देते हैं, हमेशा की तरह वर्चुअल अदालत में खी-खी,खी-खी में लगे हैं.

फील्ड की घटती रिपोर्टिंग और कंटेंट के न होने की स्थिति तो चैनल कितनी बेहूदगी के साथ छिपाने का काम करता है, आज रात की प्राइम टाइम में खुलकर देखने को मिला और हम और आप हैं कि वेवजह हलकान हुए जाते हैं. यही काम अगर सरबजीत या फिर क्रिकेट हारने जैसे हायपर इमोशनल मामले को लेकर होता तो चैनल के सारे आका घर की पनीर पसंदा और सांगरिला की वाइन छोड़कर स्क्रीन पर आ जाते लेकिन पाकिस्तान में चुनाव और सरकार बनने की घटना पर जहां हैं, वहीं पड़े हैं. इस पर आप सबों को गंभीरता से नजर रखनी चाहिए कि कैसे कोई खबर बिना ज्यादा मेहनत और लागत न लगाए जाने की स्थिति में राष्ट्रीय मुद्दा बन जाता है और जिसे सच में खबर का हिस्सा होना चाहिए, उसकी कोई चर्चा नहीं होती.

ऐसे ही गिने-चुने मौके पर तमाम आलोचना,असहमति,शक और क्रिटिकल होने के बीच बरखा दत्त,बरखा दत्त लगती है. पिछले एक घंटे से टीवी स्क्रीन पर जो भसड़ देखी, उसके बीच बरखा दत्त की लाहौर से लाइव रिपोर्टिंग और दिनभर की रिपोर्टिंग की फीचर गहन विश्लेषण और चुस्त स्क्रीप्टिंग का बेहतर नमूना है. हम बरखा दत्त की दूसरी वजहों से आगे भी आलोचना करते रहेंगे लेकिन मीडिया में प्रोफेशनलिज्म अगर बचा है तो वो बरखा जैसे चंद लोगों के होने की वजह से ही है.
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आप इस बात पर इथने नाराज क्यों हो रहे हैं कि स्टूडियो में दो जर्नलिस्ट एसी में बैठकर बात कर रहा है ? अच्छा है न कि आप राजनीतिक लोग खुले में, 46 डिग्री तापमान में प्रेस कांन्फ्रेंस कर रहे हैं और हम एसी में. इसमें इतनी तूल देने की क्या जरुरत है ? अर्णव ने कर्नाटक के नतीज को लेकर चल रही बहस में राजीव प्रताप रुढ़ी को बहुत ही हल्के अंदाज में कहा और उसके बाद माहौल इतना हल्का हो गया कि आउटलुक के पूर्व संपादक विनोद मेहता ने कहा- अरे पहले राजीव को एक गिलास पानी तो भिजवाओ, देखो एसी के बाहर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहा है ? फिर टाइम्स नाउ की स्टूडिया में ठहाका गूंज गया जिसमें गाढ़ी मुस्कान लार्ड मेघनाथ देसाई की भी थी.

एसी में जर्नलिस्ट के होने को राजीव प्रताप रुढ़ी ने इतना अधिक तूल दिया कि वो कोई गंभीर मसला होने के बजाय प्रहसन का हिस्सा बन गया और बारी-बारी से लोग मजे लेने लग गए. मैंने आज सुबह पहली बार अर्णव गोस्वामी को इतना खुलकर हंसते देखा. नहीं तो वो न्यूजरुम को एक गंभीर अदालत( रजत शर्मा से अलग और सचमुच गंभीर) बनाने के अलावे कोई दूसरा परिवेश नहीं बनाते और वो अदालत भी ऐसी कि देखते हुए लगे कि ये भारतीय संवैधानिक प्रावधानों के तहत निर्मित अदालत नहीं बल्कि ठाकुरजी के आगे की कोठरी है जहां से वेद,उपनिषद् हटाकर पैनल डिस्कशन कराए जा रहे हैं जबकि अंदर बैठकर ठाकुरजी सब देख रहे हैं. अर्णव उनके अनुचर हैं और जहां किसी ने धर्म के विरुद्ध रवैया अपनाया नहीं कि अर्णव का कोडा हाजिर. इस तरह से अर्णव की अदालत में राज व्यवस्था दैवी सिद्धांत के तहत चलती है जिसमे हिन्दू हर हाल में देवपुत्र हैं. खैर

अर्णव के लगातार मुस्कराने और बाकी के पैनल के लोगों के बारी-बारी से मजे लिए जाने जिनमे कि टाइम्स नाउ की नविका कुमार भी शामिल रहीं, जिनका नीरा राडिया औऱ 2जी स्पेक्ट्रम मामले में खासा नाम चर्चा में रहा, राजीव प्रताप रुढ़ी खुद भी मुस्कराने लग गए और बात आयी-गयी हो गयी. यकीन मानिए राजीव और अर्णव मेरी घोर वैचारिक असहमति होने के बावजूद बहुत ही क्यूट लग रहे थे. लेकिन इस क्यूट लगने और मजे लेने के बीच जर्नलिस्टों के एसी में रहने की बात को राजीव प्रतप रुढ़ी जिस तरह उठाना चाह रहे थे और दर्शकों को ये बताना चाह रहे थे कि आप जिन्हें लोकतंत्र का चौथा खंभा मान रहे हैं वो घोर आरामदेह स्थिति में जीनेवाला तबका है, धरी की धरी ही रह गयी. अर्णव सहित पैनल के बाकी लोगों के हुलेलुलु कर दिए जाने के बाद इस पर आगे बात बढ़ ही नहीं पायी. लेकिन

ये तो टाइम्स नाउ की एक बानगी है. हिन्दी के सेमिनारों में ये मुहावरा इतना घिस चुका है कि बोलनेवाले को पता नहीं एम्बरेसिंग लगती भी है न नहीं, लेकिन हमारे कान अपने आप सुनने के पहले कुनमुनाने लगते हैं. फिर वही एसी वाली बात. एसी मे रहने को एक लेखक के सबसे अधिक विलासी और सुविधाभोगी होने के प्रतीक के तौर पर जमाने से जो स्थापित कर दिया गया है सो कर दिया गया है. ये अलग बात है कि अगर आप फेहरिस्त बनाने बैठें तो कई ऐसे हिन्दी लेखक मिल जाएंगे जो एसी तो छोडिए, कूलर तक की हवा में नहीं रहते लेकिन जीवन स्तर और जो शौक है, उससे कूलर या एसी की खुदरा दूकान जरुर खुल जाएगी. ऐसे में मैं लेखकों के एसी में रहने या न रहने के बजाय विलासिता के प्रतीक को बदलने की अपील जरुर करुंगा. बहरहाल, हिन्दी लेखकों की बातें हिन्दी खित्ते के अनुभवी और कालजयी लोग आगे ज्यादा बेहतर करेंगे.यहां टीवी मीडियाकर्मियों के संदर्भ में एसी के इस मुहावरे को स्पष्ट करना जरुरी समझता हूं.

राजीव प्रताप रुढ़ी जैसे नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और दूसरी बिरादरी से कोसनेवालों की भरमार है जो कुछ नहीं तो टीवी मीडियाकर्मियों को एसी में रहकर बहस करने का मुद्दा बनाकर जमकर कोसते हैं. ये सही है कि पहले के मुकाबले फील्ड की रिपोर्टिंग तेजी से घटी है और आगे ये सिलसिला इस हद तक जारी रहेगा कि ओबी बैन चैनल अफनी नई बनी दैत्याकार बिल्डिंगों में सजाकर रखेंगे. एक हिस्सा म्यूजियम करार देकर उसकी शोभा बढ़ाएंगे या फिर इन ओबी बैन में चाउमिन के काउंटर खुल जाएंगे. लेकिन खासकर टीवी मीडियाकर्मियों के संदर्भ में एसी को लेकर जब बात की जाती है और देश की जनता के आगे उन्हें बहुत ही सुविधाभोगी करार देने की कोशिशें होती है तो मुझे हां में हां मिलाने के पहले अपने उन दिनों की याद आती है जब हम मई-जून की गर्मी में भी घर से शाल-स्वेटर लेकर ऑफिस जाया करते थे.

हम ट्रेनी जिनकी मामूली सैलरी हुआ करती थी और इन्टर्नशिप के दौरान तो अठन्नी भी नहीं, हम तब भी 12 से 14 घंटे उसी एसी में काम करते थे, पटेलनगर के कमरे में वापस आकर सोने पर लगता हम उबले अंडे हो गए हैं. जिन्हें राजीव प्रताप रुढ़ी और हिन्दी सेमिनारों में "ललित निंबध" बांचनेवाले लोग विलासिता का प्रतीक बताकर पूंजीवाद और उसकी गोद में गिरनेवाले लोगों के लिए मानक तैयार करते आए हैं. मेरी तरह मेरी कई दोस्त, सहकर्मी रात के डेढ़-दो बजते ही कंपकपाने लगती थी. यार आज स्वेटर लाना भूल गई, बहुत ठंड लग रही है. आप इसे चैनल का पागलपन कह सकते हैं, ऐसे दर्जनों सर्विस/फ्लोर ब्ऑय मिलेंगे. मीडिया संस्थान के भीतर बिजली की बर्बादी या कुप्रबंधन लेकिन भीतर काम करनेवाले कई ऐसे लोग तब मौजूद होते हैं, जब वो मई-जून की गर्मी में चाहते हैं किसी तरह एक कप चाय या कॉफी मिल जाए. जो लोग डेस्क पर या न्यूजरुम में काम करते हैं, उनके लिए तो फिर भी विकल्प है कि किसी तरह वहां के पंखे, एसी अपने अनुकूल कर लें लेकिन जो सीधे-सीधे न्यूजरुम की मशीनरी सिस्टम के भीतर घुसा है, जहां लाखों के उपकरण रखे हैं, जो एसी के न चलने की स्थिति में गड़बड़ा सकते हैं, गौर करेंगे तो संस्थान ने वहां काम करनेवाले लोगों के लिए नहीं, सिस्टम ठीक-ठाक रहे, उनके लिए इस एसी की व्यवस्था की है जहां मीडियाकर्मियों की मजबूरी है कि वो भीषण गर्मी में भी स्वेटर और कंबल ओढ़कर ही सही लेकिन एसी के बीच ही रहें.

कहने को तो आप इसे बिडंबना कह सकते हैं कि जिस दिल्ली-नोएडा सिटी में लाखों लोगों को पंखे की हवा तक मय्यसर नहीं है, काम करनेवालों का एक वर्ग ऐसा भी है जो एसी की ठंड से बचने के लिए शाल और स्वेटर का इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन इस दूसरे तरह की मजबूरी पर भी गौर करने और मुहावरे के बदलने की जरुरत है. जरुरत न भी हो तो टेक्नीकली टीवी मीडियाकर्मियों को एसी के साथ जोड़कर विलासी करार देना गलता है. अव्वल तो ये कि जो एसी में काम कर रहे होते हैं, कईयों की हैसियत इतनी भी नहीं होती कि घर में भी एसी लगाएं, कूलर तक भी नहीं.( खासकर इन्टर्न और ट्रेनी) ऐसे में अर्णव और नविका कुमार जो की बाकादा सूटलेन्थ में मौजूद थे, पर तो फिर भी ये फिकरा कस सकते हैं लेकिन जब पूरा माहौल सौ साल के हिन्दी सिनेमा का है तो ये मुहावरा भी सिनेमेटोग्राफी के लिहाज से गलत हो जाता है और इस पर राजीव प्रताप रुढ़ी जैसा खेलने की नाकाम कोशिश नहीं बल्कि उस वर्ग के लोगों पर कोई कायदे की स्टोरी करने की है जो दस से बारह घंटे तो एसी में होता है लेकिन घर जाने पर पंखे तक की हवा नसीब नहीं होती.



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रात के अंधेरे में भी हमें दिल्ली का विकास दिखे इसके लिए पूरे शहर में निऑन वल्ब की कीऑस्क से पूरे शहर को पाट दिया गया है. आप जब देर रात शहर से गुजरेंगे तो संभव है इन किऑस्क के आसपास हाथ को हाथ न सूझे लेकिन "यहां विकास दिखता है" के साईनबोर्ड दूधिया रोशनी में नहा रहे होंगे. एक तरह तीन बड़े-बड़े निऑन वल्ब लगे होते हैं और चारों तरफ जोड़ लें तो कुल बारह वल्ब जिससे कि सीलमपुर,तुर्कमान गेट की उन तंग गलियों में जहां हवा भी नहीं घुस पाती, कम से कम डेढ़ से दो दर्जन पंखे चल जाएंगे. कुछ जगहों पर इन किऑस्क के अलावे ग्राउंडबेस पर पूरी सेटअप लगायी गयी है जिनमें कम से कम दो दर्जन ट्यूब लाइट होंगी. अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस एक सेटअप से कम से कम दो दर्जन घरों में पंखे चल सकते हैं, उतनी बिजली में एक मात्र किऑस्क और सेटअप को रोशनी से नहलाया जा रहा है ताकि मतदाताओं को यकीन हो सके कि दिल्ली में विकास दिख रहा है. इन होर्डिंग से गुजरेंगे तो आपको अजीबोंगरीब नजारे देखने को मिलेंगे..या तो विकास देखने के लिए आपको अपनी आंखें फोड़ने की हद तक नजर दौड़ानी होगी या फिर ऐसा भी समय आएगा कि इतनी मशक्कत के वाबजूद अगर आपको दिल्ली में विकास नहीं दिखता है तो सरकार आपकी आंखें फोड़ देगी.

इन किऑस्क में ये बताया गया है कि सरकार ने अस्पतालों में पहले कितने बिस्तर थे और अब कई गुणा बढ़ाकर कितने अधिक कर दिए ? इसी तरह स्वास्थ्य और दूसरी सुविधाओं को लेकर है. अब आप हॉस्पीटल-दर-हॉस्पीटल बेड गिनने तो जाएंगे नहीं. दो ही काम करेंगे या तो यकीन कर लेंगे या फिर अस्पताल में पहले के मुकाबले कम मारामारी की बात जानकर संतोष करेंगे कि हां कुछ तो बेहतर हुआ है. लेकिन ये दोनों काम न भी करें तो सिर्फ उन इलाकों से गुजरिए जहां-जहां ये भारी भरकम किऑस्क लगाए गए हैं. आपको गंदगी, कूड़े का अंबार दिखेगा. इतनी बदबू कि आप अगर पांच मिनट खड़े हो जाएं तो मितली आ जाएगी. लेकिन गुलाबी-ब्लू रंग की युगलबंदी जो कि हिन्दी सिनेमा "दिल तो पागल है" की याद दिलाता है के बोर्ड चमचमाते मिलेंगे. दिन में कचरों के अंबार के बीच ये बोर्ड ठीक वैसे ही दिखाई देते हैं जैसे देश की करोड़ों लाचार, दाने-दाने को तरसती जनता के बीच अंबानी की मुंबई की बिल्डिंग और दर्प में दमकता चेहरा. रात में ये गंदगी नहीं दिखेगी लेकि अगर अंधेरे को ही िइसकी जगह रखकर देखें तो होर्डिंग के आसपास आपको वो अंधेरा दिखेगा कि थोड़ी सी सावधानी नहीं बरती गई तो दुर्घटना तक हो सकती है.


इन नजारों को देखकर आपके मन में सवाल उठेगा कि क्या दिल्ली सरकार को इस बात की थोड़ी भी समझ नहीं है कि शहर की जनता सिर्फ होर्डिंग देखने की ही नहीं, उस गंदगी, अंधेरे और भारी कुव्यवस्था को देखने का माद्दा रखती है. एक बात, दूसरी बात कि गंदगी से गुजरने पर क्या ये महसूस करना मुश्किल है कि सरकार का कामकाज किस तरीके से चल रहा है. हां,यहां पर जरुर है कि इस फैली गंदगी के लिए एक हद तक जनता को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है लेकिन मैं खुद कई बार केले, ब्रेड के छिलके-पैकेट हाथ में लिए आधे-आधे किलोमीटर तक पैदल चलता हूं लेकिन कहीं कोई कूडेदान दिखाई नहीं देता. अधिकांश को तो जाड़े के दिनों में कूड़ा जमाकर जलाने की प्रथा के तरह प्लास्टिक के कूड़ेदान तक को स्वाहा कर दिया जाता है और बाकी कूडेदान में एकाध बार बम फटने की घटना क्या हो गई, कूड़ेदान को ही या तो उलट दिया गया या फिर इसे धीरे-धीरे गायब कर दिया गया. लेकिन कूड़े डम्प करने के विकल्प हम राह चलती जनता को नहीं दिए गए.

ब्रांड,उत्पाद और कंपनियां इन दैत्यों के आकार की होर्डिंग और किऑस्क लगाती है तो बात समझ आती है कि वो ग्राहक के पूरे सपने को अकेले अपने इस उत्पाद से निगलना चाहती है लेकिन सरकार भी इस तरह के आक्रामक विज्ञापन में बेशर्मी से उतरकर क्या साबित करना चाहती है ? जितनी मेगावाट बिजली की खपत इन किऑस्क को दूधिया रोशनी में नहलाने के लिए खर्च किए जाते हैं, उतनी बिजली से अंधेरी गलियों या सामुदायिक संस्थानों में बिजली मुहैया कराने में लगाए जाएं तो सरकार का ये काम क्या जनता को दिखाई नहीं देगा ? ठीक है कि राजनीतिक विज्ञापन के दौर में राजनीतिक पार्टियां और स्वयं मौजूदा सरकार भी ब्रांड की तर्ज पर ही काम करती है लेकिन ब्रांड भी इस हद तक बेशर्मी नहीं करते. आपने सुना है कि जिन शैम्पू ने इस तरह के दैत्याकार होर्डिंग लगाए, उन शैम्पू के इस्तेमाल से अचानक से बाल झड़ने शुरु हो गए, डैन्ड्रफ पहले से कई गुना बढ़ गए, बाल पकने लगे. ऐसी कम्पनियां अपने आत्मविश्वास को पहले के मुकाबले और विस्तार देने के लिए विज्ञापन करती है और उनके पास पहले से कुछ तर्क और परिणाम मौजूद होते हैं न कि सरकार की तरह खोए हुए आत्मविश्वास और नाकामी पर पर्दा डालने के लिए विज्ञापन को हथकंड़े के रुप में इस्तेमाल करने के लिए.

अच्छा, विज्ञापन आप उस बात के लिए करो न, जो कि सचमुच तर्कसंगत हो. आपने होर्डिंग लगायी है कि पहले इतने हजार ही बेड थे, अब बढ़ाकर इतने हजार हो गए. इस होर्डिंग के नीचे जो नरक है, कचरे का अंबार है और उन पर दर्जनों घातक मच्छर,मक्खी पनप रहे हैं क्या बिस्तर की संख्या इसलिए बढ़ायी है कि हम इन होर्डिंग्स को यहां रुककर गौर से देखें और सीधे उन बिस्तरों का लाभ उठाएं ? सरकार इतनी बेशर्म हो भी जाए तो भी जनता को बेसिक चीजों की समझ है जिसे कि राजनीतिक विज्ञापन बनानेवाली और पीआर एजेंसियों के जरिए अपनी छवि चमकानेवाली सरकार और राजनीतिक पार्टियां समझ ही नहीं पा रही हैं. उन्हें इस बात का रत्तीभर भी यकीन नहीं है कि जो सरकार अपनी ही लगायी होर्डिंग्स के आसपास साफ-सफाई का ध्यान नहीं रख पा रही है, वो भला बिस्तर ही बढ़ाकर कौन सा तीर मार लिया होगा या फिर उन बिस्तरों के पीछे का सच  क्या होगा, समझ आता है. करिश्माई तेल,मलहम की बात तो छोड़िए लेकिन कायदे के किसी भी उत्पाद,कंपनी और ब्रांड के विज्ञापन न तो हवा में जारी किए जाते हैं और न हवाई किले की तरह उनके दावे होते हैं. वो अपने ग्राहकों की बौद्धिक क्षमता पर भरपूर यकीन करते हैं और तब उस हिसाब से विज्ञापन जारी करते हैं. सरकार अगर समाज के सच को नहीं भी समझना चाहे तो बेहतर हो कि विज्ञापन के मूलभूत सिद्धांत और तर्क को समझे. नहीं तो ऐसे विज्ञापन तमाशे के साथ-साथ गहरे रुप से नकारात्मक असर करते हैं.
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रेडलाइट होते ही राजघाट पर विकलांग श्रद्धा का दौर शुरु हो जाता है. टिन्टेड ग्लासेज पर दे बाबू की गुहार के साथ थपकियां पड़े कि इसके पहले एक साथ कई सैमसंग गलैक्सी और आइफोन के फ्लैश चमक उठते हैं. शायद टीवी चैनलों में ऐसे नजार दिखते न हों तो घरेलू स्तर पर न्यूज एजेंसी खड़ी करने के लिए,एफबी या ट्विटर पर शेयर करने के लिए या फिर यूट्यूब पर इस नजारे की वीडियो अपलोड करने के लिए. हमारी आंखें आसपास की इन हरकतों पर नजर बनाए रखने में व्यस्त रहती है कि अचानक एक काया सामने आकर खड़ी हो जाती है. जोर से आवाज बिना किसी बाबू, भायजी, मालिक के संबोधन के. ऐसे जैसे किसी शिकारी ने तीर चलायी हो और क्रौंच पक्षी जमीन पर तड़पकर जान देनेवाला हो.

 मौत के अंतिम क्षण की ध्वनि निकालना कितना मुश्किल काम है और वो भी आगे जीने की मुराद पूरी करने के लिए. रात के करीब बारह बजे इस काया को देखकर सिहरन होती है. न बर्दाश्त करने के लिए हाथ जेब की तरफ जाती है लेकिन उधर से कोई हाथ नहीं उठते..एक बार फिर से वही क्रौंच पक्षी के तड़पने जैसी आवाज और सीने को एकदम आगे सटा देने की कोशिश. हम बेबस इसका मतलब समझ नहीं पाते..बिना हाथ पसारे भीख मांगना एक पूरे मुहावरे के लुप्त हो जाने की घटना है लेकिन भीख मांगना लुप्त घटना नहीं होगी शायद कभी. लालबत्ती पर पर 12,11,10,09 संख्या घटती चली जाती है और हम कुछ करने के बजाय भीतर ही भीतर ललित निबंध लिखने लगते हैं कि

सामने दूसरी काया खड़ी नजर आती है. जिसके हाथ इतने आगे बढ़ते हैं कि जैसे पहलेवाले के हाथ बढ़ाने की क्रिया इसमें जुड़ गयी हो लेकिन एक पैर ही नहीं है.वो आगे औऱ बढ़ नहीं सकता. लेकिन पैर की एवज में हाथ आगे बढ़ाना जारी है. कोई कुछ न करे सिर्फ इन अलग-अलग कारणों से अपने शरीर का कोई हिस्सा गंवा देने पर स्टोरी करे तो एक साथ कितनी कहानियां निकलकर आ जाएगी.

 बचपन में हमारी निब की कलम में किसी की निब, किसी की जीभ,किसी का ढक्कन खराब हो जाया करते थे. तब हम मिला-जुलाकर दो बेहतर सेट बना लेते और एक कलम को साइड कर देते. इन दोनों के बारे में हाथ और पैर को लेकर इसी तरह सोचने लगता हूं कि तीसरा जिसका न तो हाथ हैं और न ही पैर और वो ऑटो के नीचे कब और कैसे आ गया, पता ही नहीं चलता. बिना हाथ बढ़ाए,बिना पैर बढ़ाने कैसे आ गया यहां तक..उलझ जाता है मन.4,3,2,1...

जेब में पड़ा सुस्त हाथ सुबह से पड़ी डीटीसी की टिकट को बाहर निकालता है इसके पहले वो इन अलग-अलग जीवों की तरफ बढ़े की जीरो और फिर हरी बत्ती..उधर से तेजी से एक ट्रक, ऑटो को लगभग निकलने की मुद्रा में गुजर जाता है, जिसका हम सिर्फ पिछला हिस्सा पढ़ पाते हैं- लटक मत, पटक देगी, अंदर बैठ मजा देगी..हम ट्रक की इस लाइन को पढ़कर राष्ट्रवादी स्त्री विमर्श में उलझ जाते हैं. वो सारे जीव पहले की तरह कहीं दिखाई नहीं देते. 
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इस तरह सूंघ क्यों रहे हैं सर, ये सत्तू है, बाउनबीटा की लूज पैक नहीं है. दूकानदार ने काउंटर पर रखी सत्तू की पैकेट को सीधे उठाकर सूंघने पर अपनी नाराजगी जाहिर की. मुझे पता है कि सत्तू है लेकिन आपके इस टिपिकल दिल्ली के बाशिंदे,करोलबाग इलाके के बीच देखकर हैरानी हुई. क्या रावलपिंडी के राजमा-चावला और अमृतसरी नान खानेवाले लोग सत्तू भी खाते हैं ? मैंने ये बात बहुत ही हल्के मूड में कही थी लेकिन बंदे ने दिल पर ले लिया. आपसे ज्यादा खाते हैं. चलो छोड़ो, आपको मेरी बात बुरी लगी..अब दाम भी नहीं पूछता-दे दो  दो पैकेट.
आमतौर पर मुझे खुद भी खाने-पीने की चीजें सूंघना बिल्कुल भी पसंद नहीं है. लेकिन कुछ चीजों की क्वालिटी सूंघकर की पता की जा सकती है तो क्या करें और वो भी तब जब तुरंत चखने की गुंजाईश भी न हो..और फिर मैं तो सिर्फ सत्तू की क्वालिटी ही नहीं, उस साईकिलवाले की सत्तू की खुशबू से मिलान करना चाह रहा था, जिसके यहां की सत्तू खाकर करीब सात-आठ साल मार्निंग स्कूल गया.

मेरी स्कूलिंग सोहसराय, बिहारशरीफ के जिस पब्लिक स्कूल में हुई, अप्रैल आते ही सुबह की क्लासेज हो जाती. सुबह सात से साढ़े ग्यारह. कई बार साढ़े छह बजे से ही. क्लास शुरु होने से पहले रोज प्रिंसिपल ए के जमुआर का लघु व्याख्यान होता जिसे आप सुविधा के लिए "उस पब्लिक स्कूल का संपादकीय" कह सकते हैं. कभी-कभी दो छोटे-छोटे संपादकीय होते. एक तो पढ़ाई-लिखाई-चाल-चरित्र और देर से फीस देनेवाले बच्चों को हिदायत देते हुए ज्ञान और धन की देवी के अन्तर्संबंधों पर और दूसरा छात्र जीवन और दिनचर्या पर. मार्निंग स्कूल शुरु होने के अलगे ही दिन प्रिंसिपल इस दूसरी सेग्मेंट में सत्तू की महिमा पर लघु व्याख्यान देना न भूलते. मैंने सत्तू पर उनकी ये व्याखायान कम से कम पांच साल तक तो जरुर सुना होउंगा. खैर

रोज स्कूल आने से पहले एक गिलास सत्तू पीने की आदत डालने के पीछे वो इसके साकारात्मक असर पर गहन चर्चा करते जिनमें स्मरणशक्ति बढ़ने, दिमाग तेज होने, सूखी ककड़ियों जैसे हाथ-पैर के देखते ही देखते लहलहा जाने, धूप में सरसों-पालक साग जैसे मुरछाए चेहरे के खिले रहने से लेकर पौरुष-वृद्धि तक की खास चर्चा करते. तब मैं कक्षा पांच-छह में रहा हाउंगा. हिन्दी खासी कमजोर थी और सेक्स को लेकर रत्तीभर भी ज्ञान न था. लेकिन उस अज्ञानता के मुकाबले भीतर जिज्ञासा की बाढ़ भी उतनी उफान से आती रहती. लिहाजा जो कुछ भी मन में उठता, घर आकर सीधे मां से पूछता. मां ये सत्तू पीने से पौरुष बढ़ता है. ये पौरुष क्या होता है ? मां कहती- ताकत को ही पौरुष कहते हैं. मेरा आगे का सवाल होता- तो फिर सर सिर्फ ये क्यों कहते हैं कि लड़कों का पौरुष बढ़ता है, लड़कियों को सत्तू पीने से क्या फायदा होता है ? मेरी मां का जवाब होता- कपार फायदा होता है. उसको चूल्हा-चाकी का काम करने में ताकत बढ़ता है. तुम्हारा हेडमास्टर क्रेक है. बढ़िया अक्किल-बुद्धि देवे के बदले सतुए पर लेक्चर देता है.सीधे बोल नहीं सकता है कि पेट ठंडा रहता है, पढ़ाई में मन लगता है, समय पर भूख लगता है तो इ कोढ़ा-कपार बतावे के क्या जरुरत है.लखैरा कहीं का.बहरहाल, सत्तू और पौरुष के अन्तर्संबंधों पर मेरी जिज्ञासा जस की तस बनी रही लेकिन मां के लखैरा( चरित्र का ठीक नहीं) शब्द इस्तेमाल करने से इतना अंदाजा लगाता रहता कि ये बुरी चीज है. आज जब प्रिंसिपल की सत्तू पर दिए व्याख्यान के बारे में सोचता हूं तो लगता है- एक लाइन भी खुद से नहीं बोलते थे.सिरप शंखपुष्पी या फिर हीरो फार्मेसी का विज्ञापन हमारे आगे पढ़ देते थे..उनसे कहीं अधिक मेरी मां मौलिक तरीके से सत्तू के बारे में बताया करती जो कि छात्रोपयोगी भी थी..:)

लेकिन सत्तू पर दिए प्रिंसिपल के व्याख्यान का असर मेरे उपर इतना जरुर हुआ था कि जिसे मैं कभी हाथ न लगाता था, उसे धीरे-धीरे घोलकर पीना शुरु किया. असल में वो इसे बनाने की विधि इतने रस लेकर बताते कि ऐसे में सत्तू क्या, नाली का कीचड़ भी घोलकर पीने लग जाए. आप जिस टीचर को पसंद करते हैं, वो आपके उपर नशे जैसा असर करता है.आप उनकी तरह बात करने लग जाते हैं, उन्हीं की तरह कलम पकड़ना, हाथ हिलाना, उच्चारण करना.ब्ला,ब्ला. ऐसे में वो सत्तू पीने की सलाह देते तो हम उसे कैसे नकार देते. सच पूछिए तो हमने उनकी जैसी तोंद बढ़ाने के अलावा बाकी सबकुछ वैसी ही कोशिश लंबे समय तक की..लेकिन बहुत कोशिशों के बावजूद कर न सका जिनमे से एक पानी जैसी अंग्रेजी लिखना और बोलना भी शामिल है. संत जेवियर्स कॉलेज,रांची के आर एन सिन्हा के अलावे मुझे उनसे बेहतरीन अंग्रेजी किसी दूसरे शिक्षक की नहीं लगी. बहरहाल. वो सत्तू को एक रेस्टलेस ड्रिंक बनाने की चर्चा जिस अंदाज में करते, अफसोस होता है कि तब मेरे पास कैमरे क्यों नहीं थे और यूट्यूब पर अपनी अकाउंट क्यों नहीं थी कि ढाई मिनट की वीडियो अपलोड कर देता. घर आकर हम अपनी चचेरी बहना अल्पना के साथ उसी तरह से सत्तू बनाने की नकल करते और बारी-बारी से प्रिंसिपल की वीओ देते.

मेरे सत्तू,चना, घुघनी,लिट्टी जैसी चीजों के नापसंद किए जाने के पीछे खास वजह स्वाद की नहीं, इन सारी चीजों की पापा की बेइतहां पसंद होने के कारण थी. पापा बचपन से ही मेरे लिए विपक्ष रहे हैं. ऐसे में वो जिन मुद्दे को पहले से उठाते और पसंद करते आए हों, हमारी उससे दूरी अपने आप बन जाती. सत्तू भी उनमे से एक था. प्रिंसिपल की सत्तू परिचर्चा के कारण इस एक मुद्दे पर सहमति बनी तो थी लेकिन सत्तू में इतनी भी ताकत नहीं थी कि पापा विपक्ष के बजाय पार्टी विलय का हिस्सा लगने लग जाएं. हमने तब भी सत्ते के इस्तेमाल किए जाने पर अपनी स्वतंत्र पहचान कायम की थी.

पापा को सत्तू आमतौर पर कालीमिर्च पाउडर के साथ पसंद था. मां कहा भी करती- जब एक ही समय में तुम भी पीते हो और पापा भी तो एक ही साथ क्यों नहीं बना लेते. मां, पापा के लिए बनाए सत्तू की शर्बत देती तो मैं पीने से मना कर देता. मुझे जीरेवाली पसंद है, कालीमिर्च नहीं. मां कहती- इ मर्दाना तुम्हारा बाप नहीं, गोतिया है..एक मिनट भी लच्छन से लगता है, इहै तुमको पैदा किए हैं. हम पापा की तरह ही गर्मी के दिनों में सत्तू पीते लेकिन न तो उनकी देखादेखी, न ही उनकी तरह और न ही उनका बेटा बनकर. अपने प्रिंसिपल के बताने पर, उनसे प्रभावित होकर और उनका स्टूडेंट बनकर.

सत्तू के प्रति इस बढ़ते लगाव ने मुझे बिहारशरीफ में मिलनेवाले सत्तू के नए-नए ठिकानों की तरफ खींचा जिनमे पुलपर,खजांची मोहल्ला से लेकर सहोखर,सोहडीह,करुणाबाग, कल्याणी की मां के यहां का सत्तू आदि हैं. लेकिन अड्डापर के साईकिल वाले की सत्तू और उसकी खुशबू अभी भी जेहन में जस की तस बसी है जिसकी फोटकॉपी मिलाने के फेर में मैं करोलबाग की दूकान में रखी सत्तू पैकेट सूंघने से रोक न पाया था. हम और मेरे छोटे भैय्या उसके सत्तू के इतने बड़े मुरीद साबित हुए कि खरीद-खरीदकर दूसरों को भी देने बल्कि बेचने लग गए थे..अपने पैसे से खरीदकर उपहार देने की औकात कहां थी और अगर ऐसा करता तो पापा खाल उधेड़कर रख देते..लुटा दो पूरा घर...

साईकिलवाले की सत्तू का अपना अंदाज था और उस शख्स की अपनी ठसक. उसके आगे क्या यही है असली इंडिया कहनेवाला एमडीएच का मूंछधारी,पब्लिसिटीलोलुप मालिक होगा. उम्र पैंसठ से सत्तर के बीच होगी. साईकिल की पाइप के बीच फंसाकर सौ किलो की बोरी में सत्तू लाता और इत्मीनान से दूकान खोलता. हम जैसे ग्राहक पहले से लाइन लगाकर खड़े रहते. वो अपना सारा काम करता. फिर बिक्री शुरु. मैंने कभी भी उसकी दूकान से दो किलो से कम सत्तू लेते नहीं देखे. जिसे कहते हैं न गुड्डी की तरह उड़ जाना. इस काम में उसे घंटे भर भी नहीं लगते. ग्यारह बजे वो दूकान बढ़ाकर चल देता.

सत्तू इतना चिकना कि अगर रंग छोड़ दें तो पाउडर दूध( व्हाइटनर) की तरह ही चिकना. पानी में घुलने में उतना ही समय लगता जितना कि प्लास्टर ऑफ पेरिस या ग्लूकॉन डी को. कोई छिलके की बुरादें नहीं जमती ग्लास की पेंदी में. मां बिहारशरीफ छूटने पर जमशेदपुर की चौथी मंजिल की फ्लैट में अक्सर उस सत्तू को याद करती और विस्थापन की स्थायी कचोट की व्याख्या में इस सत्तू को प्रमुखता से शामिल करती है.

बिहारशरीफ छूटा, रांची अगले पांच साल के लिए स्थायी ठिकाना बना. गर्मी और सत्तू फिर भी पर्यायवाची शब्द बने रहे. मेरी रजनी दीदी जाने पर अक्सर सत्तू बैग में डाल दिया करती..साथ में जोड़ती- हमको पता है न, और कुछ देंगे तो लेगा नहीं, भाषण झाड़ेगा सो अलगे से तो कम से कम सत्तू ही. भाई-बहन के रिश्ते के बीच सत्तू राखी की तरह चलता रहा. रांची में उस तरह व्यक्ति आधारित दूकान के सत्तू के बजाय जालान सत्तू बहुत मशहूर और स्टैब्लिश ब्रांड की तरह था. बाजार की औसत कीमत से बीस-पच्चीस रुपये ज्यादा..वो भी पैकेट में ही जीरा,नमक मिलाकर देने की शोशेबाजी के लिए बस. मुझे एक दो बार हैरानी हुई कि डॉक्टर ने गैस के मरीज की दवाई लिखते वक्त नीचे जालान सत्तू लिख दिया. ये ठीक उसी तरह से था जैसे कि बिहारशरीफ के डॉक्टर दवाई की पर्ची में ही हार्लिक्स लिख देते जिससे के गरीब इसे दवाई की तरह ही जरुरी मानकर खरीदे. बाद में तो जालान सत्तू दवाई दूकानों पर आसानी से मिलने लगे जैसे अब अंग्रेजी दवाई बेचने की लाइसेंस लिए फार्मेसी बाबा रामदेव की गोली,चूरन धडल्ले से बेच रहे हैं.

एम ए के लिए दिल्ली आने पर लगा कि सत्तू प्रेम छूट जाएगा और बस नास्टैल्जिया का हिस्सा बनकर रह जाएगा. लेकिन हुआ इसका उल्टा. डीयू हॉस्टल में मैं बिहारी दोस्तों से घिरा था. ज्यादातर पटना के आसपास के लोग. तभी जाना कि रांची के जालान सत्तू की तरह ही पटना में कमल मार्का सत्तू बहुत प्रसिद्ध है. शुरुआत में कुछ लोगों ने एकाध पैकेट दिए लेकिन आगे बाकायादा जितना कहता घर जाने पर लेकर आते. इधर दो साल बाद राहुल( युवा आलोचक,कहानीकार) भी जेएनयू से एम.फिल् करने आ गया था और मेरे मुकाबले कई गुना ज्यादा घर जाता. कहें तो जैसे रिफ्यूजी में अभिषेक बच्चन प्रेम में पड़कर हिन्दुस्तान-पाकिस्तान को एक कर दिया था और डेली अप-डाउन करता, राहुल ने उतना नहीं तो उससे थोड़ा ही कम हटिया-दिल्ली को. अंकल को पता था कि मैं सत्तू का पुराना आशिक हूं. राहुल की घर से कुछ भी लाने की आदत नहीं थी. कुछ लाता भी तो उसे उत्सवधर्मी माहौल बनाकर मेरी तरह खाने-खिलाने की नहीं. लेकिन मैं मुंह खोलकर सत्तू लाने कहता और अंकल को अलग से फोन भी कर देता. वो बिला नागा हमेशा राहुल के साथ धुर्वा बस स्टैंड से सत्तू( जो कि उनके घर से कोई सात किलोमीटर है) खरीदकर भेजते.मैं उनके लगाव को शिद्दत से महसूस करता. राहुल का दिल्ली छूटा लेकिन इससे पहले उसके सत्तू लाने का सिलसिला.

इसी तरह गर्मी की दुपहरी थी. प्रभात सर( प्रभात रंजन) से सत्तू को लेकर चर्चा छिड़ी. उन्होंने दिल्ली के कुछ उन इलाकों की चर्चा की जहां कि एक नंबर सत्तू मिलने की संभावना क्या बल्कि गारंटी होती है जिनमे न्यू अशोकनगर से लेकर त्रिलोकपुरी तक शामिल है. मैंने कहा भी कि कहां भटकूंगा सर..उनका वादा उधार कहें या फिर भूली-बिसरी बातें अभी तक बरकरार है. 

इधर अक्सर गोगिया सरकार का जादूवाली रंगों से रंगी पोस्टर पर सत्येन्द्र सत्तू लिखा दिल्ली के रिक्शे के पीछे दिख जाता है. कई बार मन किया- जाकर दो-चार किलो ले आउं लेकिन याद, आलस्य और साईकिलवाले के सत्तू की खुशबू से फोटोकॉपी जैसी मिलान करनेवाली आदत की वजह से कभी गया नहीं. जमाने बाद टकराया भी तो करोलबाग के एक दूकानदार से जिसके सत्तू में चना के छिलके का बुरादा इतना अधिक है कि पीना थोड़ा मुश्किल है.

इस बीच मां गर्मी की इस दुपहरी में बेहिसाब याद आती है. उसकी नसीहतें याद आती रहती है जिसे लेकर वो आश्वस्त है कि मैं सीरियसली नहीं लेता. रोज सत्तू पीने से ठंडा रहता है, बाकी इ नहीं कि पी लिए त नस्ता में सधा दो, अलग से भी कुछ बनाना. पापा और सत्तू के बीच विपक्ष का संबंध नहीं रहा, उनका भी अब मेरी ही पार्टी में विलय हो गया है. पब्लिक स्कूल के प्रिंसिपल ए.के.जमुआर को ये नालायक स्टूडेंट पता नहीं याद भी होगा या नहीं लेकिन हां- आज बैचलर्स किचन पर "सत्तूः ए रेस्टलेस ड्रिंक" का कब्जा रहा. ब्रेकफास्ट और डिनर के बीच यानी बतौर ब्रंच.

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दिल्ली का कबीर है यमुना पार

Posted On 9:37 pm by विनीत कुमार | 3 comments

पिछले चार महीने से डीटीसी 212 से मेरी आशिकी अपने उफान पर रही. एक-दो बार तो मुझे कहीं उतरना भी नहीं था और न कहीं जाना, इस पर बैठा और फिर वापस आ गया. उसी डीटीसी 212 से जिसके लिए मैं अपने एम ए के दिनों में हिन्दू कॉलेज की उस लड़की को तिमारपुर बस स्टैंड तक छोड़ने जाता और बस की हालत और गाजर-मूली की तरह ठुंसी भीड़ को देखकर कहता- तुम कैसे चढ़ पाओगी इस बस में. ऑटो से चली जाओ. कई बार बहुत देर इंतजार के बाद भी बस नहीं आती तो जबरदस्ती ऑटो में छोड़ने की जिद करता. वो बस इतना कहती- एक दिन की बात थोड़े ही है कि ऑटो में चली जाउं, रोज का मामला है और उसके बाद पब्लिक ट्रांसपोर्ट, पूंजीवादी नजरिया, मार्क्सवाद के मूलभूत सिद्धांत के तहत मुझे जितना बुर्जुआ साबित कर पाती, करके उसी डीटीसी 212 में नजरों से ओझल हो जाती. मैं रोज आशंका में रहता, लड़की पता नहीं पहुंची होगी भी या नहीं. किसी ने पर्स न मार लिया हो, किसी ने कुछ कर न दिया हो. हम बिहारी लौंड़े लड़की का दोस्त बनने से पहले उसका बाप बनने या कहें तो मालिक-मुख्तियार बनने से पहले दोस्ती कर ही नहीं सकते. खैर, वो रोज अगली सुबह उसी डीटीसी 212 से धक्की-मुक्की, तुक्का-फजीहत बस के भीतर छोड़कर मुस्कराते हुए माल रोड पर उतरती और मैं उसे सवाल की शक्ल में निहारता- यार, इस लड़की में तो गजब की पेशेंस है. मैं अक्सर कहता- मुझे कभी यमुना पार जाना पड़ा तो मैं तो इस तुम्हारी 212 में कभी नहीं बैठूंगा. वो मुस्कराकर सिर्फ इतना कहती- जरुरत पड़ेगी तो यही 212 तुम्हें गर्लफ्रैंड से भी ज्यादा खूबसूरत लगने लगेगी.

संयोग ऐसा बना कि डीयू नार्थ कैंपस में करीब छह साल रहते हुए मुझे यमुना पार जाने की कभी कोई खास जरुरत नहीं पड़ी. दो-चार बार वाद-विवाद प्रतियोगिता में हिस्सा लेने अंबेडकर कॉलेज जाना हुआ तो अक्सर पुरस्कार में नकद मिले पैसे की गर्मी से ऑटो में ही आया-गया. लेकिन हंसराज कॉलेज के बाद जनवरी से जब अंबेडकर कॉलेज में पढ़ाना शुरु किया तो डीटीसी 212 पहले बहुत ही मजबूरी, अनिच्छा, फिर थोड़ी-थोड़ी दिलचस्पी और इधर दो महीने से मोहब्बत में जिंदगी का हिस्सा बन गयी, पता ही नहीं चला. हां, इस बीच जब ये बस बजीराबाद पुल की जाम में फंसती तो दो-चार बार ख्याल जरुर आया कि इस पुल पर से कूदकर जान दे दूं लेकिन इससे पहले एक सुसाइड नोट लिखूं- मेरी मौत का कारण सिर्फ ये डीटीसी 212 है जिसके लिए मैंने अक्सर 234 और 971 को छोड़ा..वो जाम में फंसकर घंटों झेलाती आयी है. लेकिन ये वजह बने इसके पहले ही मैं बस से उतर जाया करता और उल्टी दिशा में जाकर ऑटो पकड़ता. ऑटोवाले को कहता सीलमपुर की तरफ से चलो या फिर कई बार ऐसा भी होता कि मैं अपने घर न जाकर मयूर विहार में ही रुक जाता. उस दौरान मुझे यमुना पार की वो शक्ल दिखाई देती जो कि आमतौर पर डीटीसी 212 की रुट पर दिखाई नहीं देती.

पश्तो के रास्ते जिसका एक रास्ता गांधीनगर की तरफ जाता है जिसे कि मेरे भइया लोग रेडीमेड कपड़ों की एशिया की सबसे बड़ी मंडी बताते हैं, इससे ठीक उलट दूसरा रास्त मौजपुर की तरफ जिससे होते हुए मैं अंबेडकर कॉलेज जाया करता. रात मयूर विहार रुक जाने की वजह से आज आखिरी बार भी ऐसा ही किया. दिल्ली के मयूर विहार और कैंपस जैसी शांत जगह में रहने की आदत के बीच शुरु-शुरु में तो ये इलाका मुझे बहुत परेशान करता. मार शोर-शराबा लेकिन भरी दुपहरी में कान में तुनतुना टांगे, एफएम गोल्ड सुनते हुए और लॉलीपॉप चूसते हुए धीरे-धीरे इस इलाके से गुजरने में मजा आने लगा. आप जेहन में दिल्ली के नाम पर सिर्फ जीके वन और टू, बसंत विहार, राजपुर रोड़ लेकर घूमते हैं तब तो आप इन इलाकों में कभी कदम रखना भी पसंद नहीं करेंगे और फिर भी दिल्ली को लेकर जब कुछ लिखेंगे तो बाकायदा इन इलाकों के साथ अन्याय करेंगे लेकिन दिल में थोड़ा कबीर लेकर गुजरेंगे तो आप उन नजारों की कल्पना कर सकेंगे जिस बाजार में खड़े होकर लकुटी लेकर अपना घर जलाकर आने की बात करते नजर आते हैं. एम ए दौरान कुछ अतिक्लिष्ट और विश्वविद्यालय खांचे के हिसाब से विशिष्ट साथियों ने इन पंक्तियों में वैराग्य और अव्यावहारिक दर्शक का अंश खोज डाला था लेकिन मुझे इसमें एक खास किस्म की पब्लिक स्फीयर में मौजूद, बने रहने का बोध दिखता है जिसे कि अब की भाषा में प्रोफेशनलिज्म कहते हैं. कबीर जिस बाजार में खड़े हैं वो वैराग्य और कहें तो आध्यात्म के बिल्कुल प्रतिकूल जगह है. एक ऐसी जगह जहां एक ही साथ कई गतिविधियां साथ चल रही होती है और आप ज्यादा सार्वजनिक होते हैं. इस बाजार मे ंचीजों के साथ-साथ अफवाहें भी पैदा की जाती है और आपकी छवि भी. भला इस घोर एक्टिव स्पेस में खड़े होकर कोई वैराग्य की बात कैसे कर सकता है ?

यहीं पर आकर सीलमपुर, यमुना पार के इस इलाके में कबीर नजर आते हैं. कबीर पर मैंने जो कुछ और जितना भी पढ़ा है जिसं- में हजारीप्रसाद द्विवेदी से लेकर पुरुषोत्तम अग्रवाल की अकथ कहानी प्रेम की तक शामिल है, एक शब्द पर आकर बार-बार टिक जाता हू- कर्मचेतस. आप कबीर की चाहे जो,जैसी और जितनी व्याख्या कर लीजिए, उनमें ये शब्द इस तरह गुंथे हैं कि आप अलग नहीं कर सकते. मेरी अपनी समझ है कि अगर कर्मचेतस शब्द हटाकर कबीर पर बात की जाए तो उनका पूरा दर्शन संभव है और अधिक स्वीकृत,गहन और व्यापक करार दिए जाने लग जाएं लेकिन अपने चरित्र में धुरविरोधी बाजार के बीच भी सोचने की प्रक्रिया की गुंजाईश शायद खत्म हो जाए. कबीर की रमैणी,साखी और सबद से गुजरते हुए उनके व्यक्तित्व के विविध रुपों की झलक फिर भी मिल जाती है, सामाजिक संरचना और उसके चरित्र का भी मोटा-मोटी अंदाजा लग जाता है लेकिन वो बाजार कैसा होगा जहां कबीर खड़े होने  की बात करते हैं( प्लीज इसे अभिधात्मक अर्थ में ही फिलहाल रहने दें) ये यमना पार के इन इलाकों में आकर बेहतर अंदाजा लगता है.

आप जिन कचरों, कबाड़ और सेकण्ड हैंड शॉप की दुकानों के बीच गंदगी की अंबार देखते हैं और मोटा-मोटी वही छवि टीवी स्क्रीन पर जाकर जड़ हो गयी है, शायद तभी यमुना पार टीवी सीरियल ने शीर्षक यहां से मार लेने के बावजूद, जीके की लड़की और यमुना पार के लड़के के बीच के प्रेम के बहाने भी इस इलाके को पीछे खिसकाकर चमकदाद दिल्ली में ही ले गए लेकिन यकीन मानिए आप कभी अपनी जेब में, जेहन में एक टुकड़ा कबीर लेकर जाइए, आप इसके पार भी बहुत कुछ देख सकेंगे. इन कचरों के बीच हवा में धुएं नहीं, पसीने के भांप बनकर उड़ते नजर आएंगे. मेहनत खुलेआम सड़कों पर बेआबरु होती नजर आएगी. आपकी सरकार जिस चमकीली दिल्ली पर गुमान करती है, वो किन इलाकों और लोगों की शर्तों की शर्तों पर बन रही है, उसका अंदाजा लग जाएगा. अलग-अलग तरह के काम करते लोग, वो बनती चीजें जो आपके-हमारे कमरे के तापमान को 22 डिग्री पर लाकर खड़ी कर देती है. वो मच्छरदानियां जहां सिलती है तो मच्छरों के बीच ही लेकिन आपके बीच एक भी मच्छर अंदर न घुसने की शर्त में मौजूद रहती है. जो दास्ताने आप दो-चार बार इस्तेमाल के बाद फेंक देते हैं, उसकी लड़ियां बनकर दूकानों में सजी होती हैं और कईयों की पिछाड़ी में कुछ मुलायम के होने का एहसास दिलाती रहती है. तरबूज तो इतने तरबूज की लगे कि आप यूट्यूब की अंतहीन वीडियो फुटेज से गुजर रहे हों. मरिअल सी छोले-भूटरे की रेड़ी के आगे स्कूल से छूटती हजारों लड़कियां. मदर डेरी की आइसक्रीम के ठेले को हसरत से देखते हुए गुजर जानेवाले सैंकड़ों बच्चे. मैं जब इन एक-एक नजारे से गुजतता हूं तो लगता है कि पूछने पर ये क्यों बताते हैं- मैं गद्दे भराई का काम करता हूं, जी मैं गाजर बेचता हूं..साफ-साफ कह दें- हम आपकी चमकीली दिल्ली को खून देने का काम करते हैं.

जिस लाल,हरे,पीले दकदक रंगों को सभ्य समाज लंबे समय तक दिहाती भुच्च रंग करार देकर ग्रे, सफेद और आसमानी पर आकर टिक जाता रहा. यूसीबी और लिवाइस ने जब उन्हीं रंगों में लड़की तो छोड़िए, लड़कों के पाजामे और पैंट सिलनी शुरु कर दी तो अब वो सबके सब रंग हाइप्रोफाइल के हो गए. इन इलाकों से गुजरिएगा तो बुग्गी में लदी हजारों पैंटे, इसी लिवाइस और यूसीबी की स्पेलिंग उच्चारित करती नजर आएगी. जितनी रंगीन ये यूसीबी और लिवाइस मर्द टांगों को रंगीन नहीं करेगी, उससे कई-कई गुना रंगीन ये इलाके पैंटें सिलकर कर देंगे. इस इलाके की हवा में एक शब्द अक्सर गूंजती है- पैंट और जूते क्या, हम पूरा का पूरा डुप्लीकेट आदमी तैयार करके बाजार में पाट देंगे, आप एक बार हुकूम तो कीजिए सरकार.यहीं पर आकर आप पॉपुलर कल्चर के लोकतांत्रिक प्रोजेक्ट में बदलने की घटना और रॉबिन जेफ्री के भारतीय उत्तर-आधुनिक साक्षर समाज के नमून इकठ्ठे देख सकेंगे. अपने जिद्दीपन और कर्मचेतस मिजाज में दिल्ली का ये यमुना पार इलाका कबीर की हठधर्मिता का हिस्सा लगता है..मैं दिल्ली पर बने चमकीले विज्ञापन और भारत निर्माण में शामिल दिल्ली के बीच जब इसे देखता हूं तो लगता है ये उतना ही बहिष्कृत, उपेक्षित और अपमान झेलता आया है जितना कि स्वयं कबीर. सिर्फ समाज में ही नहीं, लंबे समय तक हिन्दी साहित्य में भी. एलएचएस-आरएचएस प्रूव करने के अंदाज में कहूं तो हम जिस समाज में जीते आए हैं वहां जो जितना कर्मचेतस होगा, उतना ही उपेक्षित होगा चाहे वो कबीर हो या फिर शहर का कोई इलाका. 
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