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अपूर्वानंद ने आज( 16 जून 2013 जनसत्ता के अपने स्तंभ "अप्रासंगिक" में एक प्रभावशाली संपादक और एक लोकप्रिय चिंतक( हम जैसे लोग व्यक्तिवाचक संज्ञा की लत के शिकार रहे हैं तो जरुर चाहेंगे कि वो सर्वनाम को अपदस्थ करके इसी नाम से प्रयोग किए जाते,खैर) के संदर्भ को शामिल करते हुए जेएनयू के संदर्भ में जो कुछ भी लिखा है, वो अपने ढंग का सच है. नामांकन फार्म भरने के पहले ऐसे लेखों की सख्त जरुरत होती है, देशभर के छात्र ऐसे लेखों को खोज-खोजकर पढ़ते हैं.

हम जेएनयू को आत्मीय लगाव और फैंटेसी की निगाह से देखें तो ऐसे हजारों तत्व सामने आएंगे जो इसे "अनूठा परिसर" साबित करने में रत्तीभर भी कसर नहीं रहने देंगे. निस्संदेह ये प्रतिभाशाली के लिए कई बार अंतिम शरणस्थली बनकर सामने आता है. देखने का ये तरीका बिहार-उत्तर प्रदेश के लगभग उपेक्षित और हाशिए पर जा चुके किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज पर भी लागू होने से इस तरह के नतीजे तक पहुंचे जा सकते हैं..हां ये जरुर है कि इन विश्लेवविद्यालयों को इस निष्कर्ष तक पहुंचाने में हम 16 दिसंबर से बहुत पीछे जाना होगा. मसलन पटना यूनिविर्सिटी के लिए तो इमरजेंसी तक. लेकिन ऐसे नतीजों को वस्तुनिष्ठ शक्ल देने के पहले ये बहुत जरुरी है कि इन निष्कर्षों को डिकन्सट्रक्ट करके भी देखा जाए.

अपूर्वानंद अपने पूरे लेख में जिस जेएनयू को एक रुपक के रुप में देख रहे हैं, क्या ये रुपक भर है या फिर जिस परिवेश में हम उस जेएनयू को जी रहे हैं, उस रुपक को एक ब्रांड की शक्ल और मार्केटिंग के सिरे से भी समझने की जरुरत है? साहित्य में जो रुपक है, मार्केटिंग में वो ब्रांड के नाम से जाना जाता है.दोनों में समानता इस स्तर पर होती है कि अगर आपने रुपक के तहत आपने किसी चीज का विश्लेषण कर दिया तो फिर वो सवालों के घेरे से बाहर आ जाता है( चांद का मुंह टेढ़ा है जैसे अपवाद फिर भी हैं) और बाजार में जो ब्रांड है वो पहली ही रणनीति में ग्राहकों को सवालों के घेरे से अलग कर देता है. मसलन, नाईकी के जूते आपको ये पूछने की इजाजत नहीं देता- पैर काटेंगे तो नहीं, टिकाउ तो है न, पानी में खराब तो नहीं हो जाएंगे ? बहरहाल

आखिर ऐसा क्या है कि वहां के मेस में होनेवाली रात की बहसों जब कि टेबल कई बार चावल-दाल से सने होते हैं, वो वक्ता भी सहज रुप से तैयार हो जाता है जो कि बाकी जगहों पर जाने के लिए दुनियाभर के तामझाम करता है. बुद्धिजीवियों की तो लंबी फेहरिस्त है लेकिन इरफान खान से लेकर मनोज वाजपेयी खुले टीले में अपनी बात करने के लिए न केवल तैयार बल्कि लालायित रहते हैं. इस संदर्भ में मैंने पहले भी पोस्ट लिखी थी. अगर हम इन सवालों पर थोड़ी मेहनत करें तो हम जेएनयू की उस टैबू को बेहतर समझ सकेंगे जिसके तले न केवल वहां के छात्र बल्कि बाहर के लोग भी एन्डोर्स होते हैं. ये "अपूर्वानंद के जेएनयू रुपक" से बिल्कुल अलग "जेएनयू की ब्रांड इमेज" का मसला ज्यादा है जिस पर अलग से बात होनी चाहिए. मैंने एक नहीं कई बार देखा है, राह चलते वहां के दो-चार छात्रों से बात कर ली गई और फिर स्क्रीन पर फ्लैश होने लग गया- जेएनयू स्कॉलर ने किया इसका विरोध, जेएनयू फलां के खिलाफ. आज अगर अपूर्वानंद 16 दिसंबर की घटना को जिस अंदाज और संदर्भ में याद कर रहे हैं तो उसमें सिर्फ उस वक्त का वर्तमान शामिल नहीं है, उसमें वह इतिहास भी शामिल है जो कि पटना, लखनउ और इलाहाबाद जैसे किसी भी दूसरे विश्वविद्यालय के हिस्से में मौजूद है लेकिन चूंकि उसमे वर्तमान की घटनाओं के साथ छौंक नहीं लगायी जा सकती इसलिए उनसे कोई सुने न सुने, ये सुनेंगे की उम्मीद नहीं लगायी जा सकती. इस "ब्रांड जेएनयू" के कोई न सुनने पर इसके सुनने के अंदाज पर भी गौर करें.

पहले इसी 16 दिसंबर की घटना से. जाहिर है जेएनयू के पोस्टर्स बनाने में जितना दक्ष,अभ्यस्त और तत्पर है, बाकी के संस्थान बहुत ही पिछड़े..ये भी जाहिर है कि कौन उसके आंदोलनों और हांक से प्रेरित होकर जंतर-मंतर, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन जाता है, ये भी पता करना थोड़ा मुश्किल है. लेकिन सवाल ये है कि अपूर्वानंद जैसे स्तंभकार जो अपनी बातों को हम जैसे हड़बड़िया ब्लॉगरों के मुकाबले ठहरकर,बारीकी से अपनी बात रखने में यकीन करते हैं, जेएनयू को एक संस्थान के बजाय एक रुपक, एक अवधारणा, एक विचार और परिवेश बताने से पहले इस सिरे से भी सोचने की जरुरत पैदा तो करते ही हैं कि बाकी लोगों की सक्रियता को इस व्यक्तिवाचक संज्ञा के आगे तिरोहित कर देने या फिर "रेस्ट ऑफ जेएनयू" जैसी शक्ल देने के क्या मायने निकलकर आते हैं ? 16 दिसंबर की घटना में जेएनयू-डीयू तो छोड़ दीजिए, हजारों ऐसे लोग गए थे जिनका कि इस परिसर से न तो कोई लेना-देना है और न ही सीधे-सीधे पढ़ाई-लिखाई( पाठ्यक्रम संबंधित)..क्या ऐसे सारे लोग "जेएनयूमय" होकर वहां पहुंचे थे. अपूर्वानंद का आशय अगर संख्याबल से है तो जेएनयू को हमेशा सिलेब्रेट करना चाहिए कि वो हमेशा आगे रहेगा. लेकिन इसी 16 दिसंबर की एक घटना को शामिल करें तो एक दूसरे संदर्भ भी उतने ही जरुरी हो जाते हैं.

पूरा मीडिया, दर्जनों चैनल कॉन्सटेबल की मौत को प्रदर्शनकारियों के हमले से हुई मौत के रुप में दिखा-बता रहा था. जाहिर है, ऐसे में जेएनयू के लोग क्रांतिकारी नहीं प्रशासन की ओर से हुडदंगिए करार दिए गए. मामला चलता रहा, प्रशासन कठोर होती रही. इसी बीच डीयू के एक छात्र योगेन्द्र सिंह ने बयान दिया कि वो अचेत हो जाने के समय कॉन्सेटबल के न केवल पास था बल्कि उसने ही लोगों को बताया और हॉस्पीटल तक साथ गया..उसे वहीं बाहर रोक लिया गया. योगेन्द्र की इस कोशिश को मीडिया ने पहले तो बहुत अधिक महत्व नहीं दिया लेकिन पहली बार जब एनडीटीवी इंडिया ने इसे दिखाया, योगेन्द्र की पूरी बातचीत को प्रसारित किया तो बाकी चैनलों पर दो दिन तक यही खबर चलती रही.

नतीजा जो प्रशासन जेएनयू और तथाकथित उससे प्रेरित होकर आनेवाले लोगों को हुडदंगिए मान रही थी, थोड़ी नरम क्या कहिए हारा हुआ नजर आने लगी. दुर्भाग्य से दिल्ली पुलिस और प्रशासन के इस चेहरे पर वर्तिका नंदा जैसी मीडिया आलोचक ने इसे "दिल्ली पुलिस के चेहरे पर ममता" का झलकना व्याख्यायित किया.

इस संदर्भ को शामिल करने का ये आशय बिल्कुल नहीं है कि अपूर्वानंद से सवाल किए जाएं कि क्या आपको योगेन्द्र की इस पूरी पहल पर कुछ नहीं लिखना चाहिए था या फिर जब आप "अनूठा कैंपस" जैसा लेख लिख रहे हैं तो उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा और बाकी लोगों को उस व्यक्तिवाचक संज्ञा के भीतर जातिवाचक संज्ञा में तब्दील देने के पहले नहीं सोचना चाहिए था ? हर लेखक का अपना चुनाव और प्राथमिकता होती है, जाहिर है वो वैसा ही लिखेगा. जब पूरा फेसबुक प्रदेश मोदी-आडवाणी विवाद में लिथड़ा होता है, तब मैं अपने रेडियो के मरम्मत हो जाने औऱ चश्मे का पावर घट जाने की खुशखबरी साझा करता हूं. लेकिन जब ठहरकर गंभीरता से कोई बात करने का मूड किसी का बने तो जरुरी है कि उस मूड में भी एक व्यापकता हो.

एक और घटना. डीयू में पढ़नेवाले हममे से कई लोग जानते हैं कि हिन्दी विभाग से एम.फिल् कर रही कनकलता के साथ उसके मकान-मालिक ने जाति जान लेने पर क्या किया और घटना की जानकारी होने पर वर्चुअल स्पेस की सक्रियता की बदौलत ये मामला कैसे मीडिया तक पहुंचा. घटना के 13-14 दिन बाद ही सही सक्रियता खुलकर सामने आयी और न केवल उन्होंने कनकलता सहित उनके साथ के लोगों को भावनात्मक रुप से साथ दिया बल्कि आइटीओ पर सबके साथ विरोध प्रदर्शन किया. मीडिया में आने से तब मामला बढ़ चुका था.लिहाजा जेएनयू छात्र संगठन भी बैनर सहित पहुंचे. हम सब अपने-अपने तरीके से इस मामले को आगे ले जाने और इस पर बात करने के लिए संपर्क करने में लगे थे. जो भी और जितनी खबर मीडिया में आ सकती थी,आयी लेकिन जेएनयू की तरफ से, यहां तक कि मीडिया की तरफ से वो जेएनयू छात्र संगठन की पहल हो गई थी. हम डीयू के उन छात्रों का चेहरा याद कर रहे थे जो एक एसएमएस,फोन कॉल पर अपना सारा काम छोड़कर आए थे.

इतनी बात तो अपूर्वानंद भी जानते हैं कि वो जिस माहौल में जेएनयू को अनूठा कैंपस करार दे रहे हैं, उसकी वायनरी डीयू का बनना तय है. इस माहौल में बिना इसकी बायनरी के इस लेख को नहीं देखा जा सकता..और जिसका नतीजा होगा कि हम जैसे सतही लोग इस रुपक के भीतर की व्यापकता को समझे बिना दो ब्रांड़ों की आपाधापी के बीच से ही अर्थ खींचने की कोशिश करेंगे. ये तो अच्छा है कि एक डीयू का प्रोफेसर जेएनयू को ऐसे ताज से नवाज रहे हैं, ये अधिक ऑफ बीट मार्केटिंग किन्तु ज्यादा अपीलिंग पैटर्न है. लेकिन उस जमीन पर भी तो बात करनी होगी जहां इस ब्रांड के अपने मायने बनते-बदलते हैं.

जेएनयू के छात्र संस्थान से, अधिकारी से सीधे चुनौती लेते दिखाई देते हैं. जाति और लिंग के खिलाफ खुलकर सामने आते और विरोध करते दिखाई देते हैं. ये अलग बात है कि आरक्षण के समर्थन में यूथ फॉर एक्यूअलिटी के ब्रिगेड न केवल गाड़ी भर-भरकर एम्स के आगे नारे लगाने जाते रहे, प्रोफेसर से सेंत-मेत करते रहे बल्कि खुलकर चुनाव भी लड़ा. उसी जेएनयू में जाति आधारित लोकतंत्र बनने की प्रक्रिया भी चरम पर पहुंची. हम जिनके साथ सालों से भक्तिकाल, मनोहरश्याम जोशी, भारतीय अर्थव्यवस्था के जानकार की हैसियत से घूम रहे थे, उस वक्त हमारा ज्ञान इजाफा किया गया कि अरे ये तो कुर्मी है, कहार है, कायस्त या धोबी है. इतना अनूठा कैंपस कहां मिलेगा आपको ? उस वक्त अगर मैं आरक्षण के विरोध में धरना देनेवाले और यूथ फॉर एक्वलिटी को ही जेएनयू की असल आवाज करार देनेवालों की संख्या गिन पाता तो आपको इसी तरह के एक नए निष्कर्ष की तरफ ले जाता- मार्क्स की स्थली इतनी जातिवादी क्यों है ?

आखिरी बात, अपूर्वानंद सहित जेएनयू को रुपक की तरह देखनेवाले साथियों को यहां क्रांति,प्रतिरोध और बदलाव की जो फसल पैदा होती दिखती है, एक बार उस पैदावार और तैयार फसल पर भी निगरानी डालने की जरुरत है. हमने ऐसे दर्जनों साथियों को एम ए,एमफिल् के दिनों में डाउन-डाउन करते देखा, आज डीयू के टीचर इन्चार्ज के आगे जितनी उपर उंगलियां और हाथ डाउन-डाउन करते देखे थे, उससे कई गुना सिर नीचे झुकाते, तलहथी रगड़ते देखता हूं. अपने भीतर को मरते देखता हूं..आप इसे प्रैक्टिकल होना कह सकते हैं और शायद जरुरी भी है. लेकिन ये कलाकारी तो जेएनयू के ही लोग कर सकते हैं न कि कैंपस में प्रतिरोध का पाठ क्योंकि वो इतना जरुर जानते हैं कि अकादमिक दुनिया में इसके लिए स्पेस नहीं है( शुरु होने जा रहे हैं बहुत सारे बीए स्तर के पाठ्यक्रम, उसके बाद जेएनयू के अंदाज और चरित्र पर अलग से विश्लेषण दिलचस्प होगा) तो ये सब करना जोखिम नहीं बल्कि ब्रांडिंग और अवसर उगाही की प्रक्रिया है. सवाल बकवास लगे फिर भी, पिछले पांच सालों मे जेएनयू के लोगों का डीयू में तदर्थ औऱ अतिथि प्रवक्ता बनकर पढ़ाना बढ़ा है, यहां के चार साला पाठ्यक्रम से लेकर दुनियाभर की बातों को लेकर हंगामा मचा हुआ है, वो डाउन-डाउन करनेवाले हाथ कहां चले गए ? लेकिन नहीं, इस सवाल पर सोचेंगे कि जूते उसी डीयू से पढ़े लोगों पर पड़ेगी कि सब धीरे-धीरे सिस्टम के कल-पुर्जे बन गए.

प्रतिरोध की जो वैलिडिटी पीरियड होती है, उस आलोक में अपूर्वानंद के इस रुपक और वहां से निकलनेवाले छात्रों पर एक तुलनात्मक अध्ययन तो बनता है. उन कारणों पर भी अध्ययन जरुरी है कि आखिर क्यों जो काम, कम संख्या में ही सही योगेन्द्र जैसे लोग करते हैं, वो कोर्स खत्म होने पर भी धक्के खाते रह जाते हैं और क्यों जेएनयू के छात्र यूथ फॉर एक्टविटी में सक्रिय रहते हुए भी मार्क्सिज्म को उतना ही अधिकारपूर्ण ढंग से एन्ज्वॉय करता है..आपको लगेगा- ये रामप्यारी और मुसद्दीलाल के चाय बेचे जाने के बीच का फर्क है. एक अपने को सबसे घटिया,सबसे रद्दी चाय बोलकर अपनी ब्रांडिंग करता है और दूसरा पी लो बाबूजी- एक कप मारोगे तो पूरी दास कैपिटल पढ़ने तक की उर्जा बनी रहेगी. हम इस ब्रांड के सवाल के साथ ये बिल्कुल नहीं पूछने जा रहे कि ऐसी जमीन तैयार करने में कौन किस तरह लगा है  और इस ब्रांड फेनोमेना में कैसे असल में रद्दी होकर भी वो जेएनयू हो जाता है ? आखिरी क्यों अमेरिका,इटली,इंग्लैंड जैसे देश के शासकों के दिन-रात कोसे जाने के बावजूद अरमानी,बर्साचे,रैडो को भारत में ही अपना बाजार,मुनाफा और भविष्य दिखाई देता है ? जेएनयू के लिए डीयू और देशभर के विश्वविद्यालय कहीं वही भारत की तरह तो नहीं ?
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3 Response to 'प्रोफेसर अपूर्वानंद का जेएनयू रुपक'
  1. sanjeev kumar
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_16.html?showComment=1371365542042#c8606661964335971287'> 16 जून 2013 को 12:22 pm बजे

    Bahut zaroori baaten is post mein aayee hain. Inhen kahaa jaanaa hi chaahiye tha. Par mujhe lagtaa hai, JNU ke daakhile ki vyavasthaa, haath ke bane posteron se chunaav ladaa jaanaa -- in sab ki or Apoorvaanand ne bhi theek hi ishaaraa kiyaa hai. In maamlon mein agar DU ek binary opposite ke roop mein dikhtaa hai to kyaa galat hai! Haan,Kanaklataa issue aur Yogendra waalaa masala uthaakar tumne us prashasti ki kamiyon par sahi unglee rakhee hai.

     

  2. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_16.html?showComment=1371365643577#c3793238654802362203'> 16 जून 2013 को 12:24 pm बजे

    अपूर्वानंद जी का लेख पढ़ा। उसके पहले यह पोस्ट।

    अपूर्वानंद जी से जो कुछ छूट गया वह इस पोस्ट में है।

    मैं यह भी सोच रहा हूं कि देश में क्या जे.एन.यू., डी.यू. ही रह गयी हैं। पटना, इलाहाबाद, मगध. कोलकता यूनिवर्सिटी किस कोने में बिला गयीं?

     

  3. विनीत कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_16.html?showComment=1371370695489#c8291035625698320987'> 16 जून 2013 को 1:48 pm बजे

    संजीव, जिन रात के सभा का जिक्र उन्हें आख्यान के रुप में किया है, मैंने भी दो-तीन बार रातभर जागकर वो सब सुना है और यकीन मानिए, पहला सवाल दिमाग में आया- इन्हीं भाषणों को लेकर बाहर इतना माहौल बनाया जाता है जिसे सुनकर शर्म से माथा झुक जाए..पीछे का मैं उस गौरवशाली परंपरा का गवाह नहीं रहा हूं.

     

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