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मूलतः प्रकाशित- मीडियाखबर डॉट कॉम

सैंकड़ों सड़ी रही लाशों, हजारों भूखे-प्यासे और अधमरे लोगों को लेकर गंभीरता से कवरेज न करने और अपनी छवि दुरुस्त बनाए रखने की नियत से उत्तराखंड सरकार ने जो विज्ञापन जारी किए थे और इसके लिए वहां के  क्षेत्रीय चैनलों को करीब 1 करोड़ 14 लाख के जो विज्ञापन जारी किए थे, अब उन विज्ञापनों पर रोक लगा दी गई है. सरकार ने सूचना कार्यालय को पत्र लिखकर बाकायदा निर्देश दिया है कि इन विज्ञापनों पर रोक लगायी जाए और इससे संबंधित सारी जानकारियां मुहैया करायी जाए.

उत्तराखंड में हजारों लोगों की मौत और सड़ रही लाशों,गांव के गांव तबाह हो जाने और उनका नामोनिशान नहीं रहने के बीच हमने आपको अपनी पिछली पोस्ट "उत्तराखंड सरकार ने फेंके टुकड़े, टीवी चैनलों ने जुबान बंद कर ली" में बताया था कि कैसे मीडिया वहां मौजूद होने के बावजूद सिर्फ इमारतों खासकर मंदिरों के ढहने की खबर दे रहा है जबकि इन्हीं मंदिरों के बीच इंसानों की लाशों के ढेर लगे हैं और इन पर कोई खबर नहीं हो रही है. इसके पीछे सरकार की ओर से मीडिया की तरफ फेंके गए टुकड़े का असर था. कल उत्तराखंड सरकार और प्रशासन के बीच हुई बैठक में इन सारे सवालों पर गंभीरता से विचार हुआ और उन्हें ये संकेत मिले कि विज्ञापन दिए जाने के बावजूद इस विपरीत परिस्थिति में सरकार की साफ-सुथरी या मनमुताबिक छवि बनाए रखना आसान नहीं है. पैसे लेकर मुख्यधारा मीडिया तो फिर भी मैनेज हो जाएगा लेकिन वर्चुअल स्पेस पर सोशल मीडिया और दूसरे मंच जो काम कर रहे हैं, उन्हें साधना आसान काम नहीं है. लिहाजा लाखों खर्च करने के बावजूद अगर सरकार अपनी छवि बचाए रखने में नाकाम रही है तो इससे बेहतर है कि दूध की मक्खी निगलकर भी ये घोषणा करे कि ऐसे विज्ञापन नहीं दिखाए जाएंगे.

सरकार ने ये जो फौरी कदम उठायी है, उसका निश्चित रुप से स्वागत किया जाना चाहिए कि देर ही सही, उन्हें ये बात समझ आयी कि अब मीडिया का मतलब वहां के चमकानेवाले कुछ क्षेत्रीय चैनल ही नहीं है, मीडिया वो भी है जो सीधे-सीधे दिखाई नहीं देते लेकिन अपना काम करते हैं बल्कि कई बार इन टेंट-तंबूवाले मीडिया संस्थानों से कहीं ज्यादा कायदे से करते हैं. इस घटना को आप मुख्यधारा मीडिया की हार और उसके बेआबरु होने के रुप में भी देख सकते हैं जबकि दूसरी तरफ सोशल मीडिया की तासीर बनी रहने के रुप में भी. इस बात से बिल्कुल इन्कार नहीं किया जा सकता कि उत्तराखंड से प्रकाशित सांध्य दैनिक लोकजन टुडे ने अपना खासा असर दिखाया गया और सरकार के इस नतीजे तक पहुंचने में उनकी बड़ी भूमिका रही है लेकिन ये अखबार तब तक नोटिस में नहीं था जब तक कि वर्चुअल स्पेस ने इसे नए सिरे से उठाया नहीं. इससे एक बात तो साफतौर पर निकलती है कि अगर लोकजन जैसी क्षेत्रीय स्तर की पत्रकारिता मुस्तैदी से खड़ी रहे और उसकी जानकारी वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय लोगों को मिलती रहे तो राष्ट्रीय स्तर के,क्षेत्रीय स्तर के मैनेज हो जानेवाले मीडिया संस्थानों के बावजूद मीडिया का स्वर जिंदा रहेगा.

दूसरी तरफ, इस पूरी घटना से ये बात खुलकर सामने आयी है कि लोकजन टुडे जैसे क्षेत्रीय अखबारों के बीच दर्जनों राष्ट्रीय स्तर के चैनल लगातार उत्तराखंड को लेकर रिपोर्टिंग कर रहे थे लेकिन किसी भी इन चैनलों ने इस अखबार की खबर को फॉलोअप नहीं किया और देशभर के दर्शकों को नहीं बताया कि असल में वहां हो क्या रहा है ? उल्टे वो धीरे-धीरे उत्तराखंड से शिफ्ट होकर दिल्ली में बाढ़ की आशंका की खबर पर टूट पड़े और इसी में टीआरपी से लेकर सरकार की ओर राजस्व की गुंजाईश देखने लगे. करोड़ों रुपये की स्ट्रक्चर के बीच अगर लोकजन टुडे और व्यक्तिगत स्तर पर सक्रिय वेबसाईट और ब्लॉग अगर इस खबर को प्रमुखता से उठाकर सरकार पर दवाब बना सकते हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि करोड़ों के तामझाम वाले ये मीडिया खबर और पत्रकारिता के नाम पर क्या कर रहे हैं और अगर ये वाकई पत्रकारिता करने की दिशा में सक्रिय हो जाएं तो किस तरह का प्रभाव पैदा कर सकते हैं ?

आजतक जैसे चैनल की सफलता औऱ देखते ही देखते देश का चेहरा हो जाने के पीछे की कहानी की जब भी चर्चा होती है( हालांकि आज ये चेहरा तो बिल्कुल भी नहीं है और अगर विजिविलिटी है तो उसके बेहतर डिस्ट्रीब्यूशन के कारण) तो उसमें एस.पी.सिंह की उस पत्रकारीय समझ को खासतौर से रेखांकित किया जाता है जिसमें वो क्षेत्रीय अखबारों को न केवल प्रमुखता से लेते रहे बल्कि छोटी से छोटी खबरों में छिपी गुंजाईश को भी पकड़ते रहे. अब इसके ठीक उलट है. ब्रांड पोजिशनिंग और तामझाम के बीच मीडिया संस्थानों ने ऐसा करना न केवल लगभग बंद कर दिया है बल्कि बिजनेस और मार्केटिंग के स्तर पर इतने अधिक मैनेज हो गए हैं कि ऐसा करना उनके पेशे का हिस्सा ही नहीं रह गया है.

कल देर दोपहर से जब न्यूज चैनलों ने सवा सौ लोगों के मरने के अटके आंकड़े से खिसककर सीधे हजार के आंकडे पर कूदने लगे तब हमने एफबी टाइमलाइन पर लिखा था कि लगता है सरकार विज्ञापन प्रसारित करने पर रोक लगाने जा रही है- "आज न्यूज चैनलों को देखना इसलिए भी दिलचस्प है कि वो नींद से जागे बेओडे की तरह अचानक से बड़बड़ाने लगे हैं और काफी कुछ वो सच बोल रहे हैं जिस पर सप्ताह भर से कुंडली मारकर बैठे थे. अब हजार से उपर मरनेवालों की संख्या रुपक अलंकार बनकर स्क्रीन पर तैरने लगा है...भक्ति संगीत के टी सीरिज कैसेट की जगह चैनल बदनाम हुआ डार्लिंग तेरे( विज्ञापन) के लिए टाइप की सीडी उफान पर है. हर चैनल इस हजार पर आकर टिका है, मार गोले दाग रहा है. कल तक वस्तुस्थिति को लेकर वो जितने चुप्प थे, अब उतने ही अतिरेकी हो जाएंगे.. अब सबों को धर्मशाला,अस्पताल और बाकी जगहों की याद आने लगी है. लगता है उत्तराखंड सरकार ने विज्ञापन वापस लेने का इरादा बना लिया है." अब देखिए तो सबकुछ ठीक वैसा ही हुआ है.

अब गर्दन की नसें फुलाकर न्यूज 24 से लेकर इंडिया न्यूज जैसे चैनल और आजतक जिसने की बाढ़ की तबाही के बीच रिपोर्टिंग को "वोटिंग फॉर डिजास्टर प्लेजर" में तब्दील कर दिया था, खबरें दिखा-बता रहे हैं. उन खबरों में कहीं से स्वाभाविकता नहीं है. सवाल अब भी है कि अगर आप बाढ़ की कवरेज के लिए वोट पर पैनलिस्ट को बिठाकर यमुना की सैर करोगे तो पानी की जगह क्या फंसे हुए इंसान दिखाई देंगे. जाओ कभी शहादरा,सीलमपुर,भजनपुरा की गलियों में और देखो फंसी हुई जिंदगी के बारे में, बाढ़ की तबाही और मुश्किलें वहां दिखाई देगी..लेकिन नहीं उत्तराखंड हो या दिल्ली...विज्ञापन मिले इससे पहले उस स्थायी मानसिकता के शिकार हो जाना है जहां खबर या तो विज्ञापन( स्वंय चैनल का) बनकर आते हैं या फिर सस्ती सी डी ग्रेड की हॉरर फिल्में. जिंदगी को लेकर गंभीरता दोनों में से कहीं नहीं है.
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1 Response to 'उत्तराखंड सरकार का विज्ञापन बंद, बेपर्द हुआ मीडिया'
  1. SAURABH ARYA
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/06/blog-post_21.html?showComment=1371797233530#c8857378184434046134'> 21 जून 2013 को 12:17 pm बजे

    अच्‍छा लेख है. मीडिया ने एक बार फिर साबित कर दिया कि मेन स्‍ट्रीम मीडिया हमेशा बिकने के लिए तैयार रहता है...सिर्फ खरीदने वाला चाहिए अब चाहे इसमें लाशों का सौदा ही क्‍यों न शामिल हो. मगर ग्रास रूट पत्रकारिता पर अभी भी उम्‍मीद कायम है.

     

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