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मेरे घर में कांटा-चम्मच से लेकर कूकर,कडाही, डब्बा-डिब्बी, एसी,फ्रीज,टीवी,वॉशिंग मशीन सब हिन्दी की कमाई से है. पूंजी के नाम पर मीडिया और कल्चरल स्टडीज की जो सैंकड़ों अंग्रेजी में किताबें हैं, वो सबकी सब हिन्दी की कमाई है..आपको मेरा लिखा, मेरी जो भी जैसी समझ है जिसे आप वक्त-वेवक्त सराहते हैं, वाया हिन्दी ही बनी है. मुझे नहीं पता कि गर मैं इकॉनमिक्स का छात्र होता, पॉलिटिकल साइंस पढ़ा होता, एमबीए,बीबीए, बीसीए किया होता तो आज कहां होता या क्या कर रहा होता ? लेकिन ये जरूर महसूस करता हूं कि शायद इतना आजाद, बिंदास और छोटी-छोटी चीजों में खुशियां निकालकर आपके आगे धर देने का न तो वक्त होता और न ही शायद मिजाज. किसी मजबूरी के तहत हिन्दी नहीं पढ़ी, एक से एक डफर साइंस का बिल्ला लटकाकर चौड़ा होते रहे..लेकिन
मैंने अपने जिस संत जेवियर्स कॉलेज से ग्रेजुएट तक की पढ़ाई की, अपने इकॉनमिक्स, पॉलिटिकल साइंस, हिस्ट्री और यहां तक कि अंग्रेजी साहित्य के शिक्षकों का दुलारा था. मेरे बाकी के दोस्त ग्रेजुएशन के वक्त आए थे जबकि मैंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई भी इसी कॉलेज से की थी..श्रीवास्तव सर जो कि अब इस दुनिया में नहीं रहे, मुझे अलग से इंग्लिश लिटरेचर दिया करते. पॉलिटिकल साइन्स के आर.एन सिन्हा को यकीन था कि मैं पॉलिटिकल साइंस के अलावा कुछ और ऑनर्स ले ही नहीं सकता. चौबे सर की मैक्रो इकॉनमिक्स का मैं अच्छा छात्र था. फ्रैकलिन बाखला को लगता था मैं वर्ल्ड हिस्ट्री में पीएचडी करुंगा..लेकिन मैंने इन सबको निराश किया. सीधा गिरा हिन्दी विभाग में
मरने के कुछ वक्त पहले श्रीवास्तव सर ने एक दिन कहा- आइ एम रियली प्राउड ऑफ यू..यू विल डू वेटर इन योर लाइफ..यू वेटर अन्डर्स्टैंड द साउंड ऑफ द सोल..मैं मेलटिना मैम, सुनील भाटिया और कमल बोस का छात्र हो गया...इसी तरह हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय और रचना मैम का विद्यार्थी. मुझे सच में कभी अफसोस नहीं हुआ कि क्यों हिन्दी की पढ़ाई की, कुछ और क्यों नहीं पढ़ा ?
सच पूछिए तो मैंने वही किया जो करना चाहता था, कुछ भी सपने के हिस्से का छूटा नहीं है..ऐसे में हिन्दी दिवस मेरे लिए स्यापा का नहीं, संभावना का दिन है..अपने टुकड़ों-टुकड़ों में फैले सपने पर एक नजर मार लेने का दिन..बिंदास होने का दिन..एक ऐसी भाषा का दिन जिसमे बोलता हूं तो जितनी सहजता से मेरी मां को बात समझ आती है उतनी ही लंदन की प्रोफेसर फ्रेंचेस्का को भी. हमने हिन्दी साहित्य और भाषा की पढ़ाई इसलिए की क्योंकि हम अपनी जिंदगी की सहजता बचाए रखना चाहते थे..और फिर वही बात, हम कुछ और पढ़ रहे होते तो दूसरे के मोहताज होते, यहां तो जब तक उंगलियों में जान है, बैचलर्स किचन आबाद रहेगा..जिंदगी में बहुत नहीं चाहिए होता है, बस इतना चाहिए होता है कि ज्यादा चाह की मानसिकता के प्रति विरक्ति होने लगे. कल का दिन अपने बर्थडे से भी ज्यादा अच्छे से सिलेब्रेट करुंगा.
हिन्दी पर स्यापा वो करें जो इसे केवल सरकारी संस्थानों, पुरस्कारों और हिन्दी विभाग की जागीर समझ कर बैठे हैं..हमें पता है कि अपनी इस हिन्दी के साथ जिसके पीछे पड़ने पर घर से लेकर बाहर के लोगों के ताने सुने, क्या करना है ? मेरा पिछले 15 सालों में ये भ्रम भी टूटा है कि बाकी के सब्जेक्ट के लोग तीर मार ले रहे हैं. एक बात और बताउं, जिस हिन्दी को लोग पानी पी-पीकर कोसते, गरिआते हैं न, अभी फैशन में ये है कि उसी की दुनिया की सामग्री पकड़कर अंग्रेजी में रिराइट कर दे रहे हैं, चिंतन की हिन्दी की विशाल परंपरा रही है, कुछ नामवरों की मठाधीशी और सामंती लठैती के आगे हम उस दिशा में सोच ही नहीं पाते ज्यादा..
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ए राजा ! दो न रे, एकदम करीना जैसी बहू मिलेगी तेको. जोड़ी सलामत रहे राजा. ए चिकने, गर्लफ्रेंड को लेकर कहा उड़ा जा रहा है रे, इधर भी तो देख, क्या कमी है ?
रेडलाइट पर ऑटो के ठीक आगे आकर इस तरह के संवाद और तालियों के बीच ट्रैफिक की चिल्ल-पों जैसे थोड़े वक्त के लिए फ्रीज हो जाती है.

साथ में दोस्त की पत्नी बैठी हो, भाभी हो, दीदी बैठी हो, कभी पलटकर बहस नहीं करता कि जिसे आपने मेरी गर्लफ्रेंड कहा है वो असल में क्या लगती है मेरी और जिस करीना जैसी बहू की कामना मेरे लिए कर रही हैं, वो मेरे एजेंड़े में है नहीं. चुपचाप दस का नोट आगे बढ़ाते हुए मुस्करा देता हूं. कभी ऐसा नहीं हुआ कि दस का नोट बढ़ाने के बाद सिर पर हाथ फेरने की कोशिश न की हो. एकाध बार तो गाल कुछ इस तरह छुए कि एस्नो-पाउडर की महक के आगे अर्मानी की खुशबू दब गई.
आज आजाद मार्केट रेडलाइट पर जैसे ही ऑटोवाले भइया ने ब्रेक लगायी. वो आयी और रे..चिक..अभी रे चिकने वाक्य पूरा करती कि मैंने बीस के नोट पकड़ा दिए. वो अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पायी. चेहरे के भाव अजीब से बन गए कि पैसे तो मिल गए लेकिन वो जो कहना चाह रही थी, वो अधूरा ही रह गया. सामने रुकी होंडा सिटी के शीशे पर हाथ से कई बार थपकी दी, हारकर पीछे बैठी एक महिला ने शीशा नीचे किया और कहा, आगे जाओ. वो आगे न जाकर वापस मेरे पास आ गयी और सीधा पूछा- अरे चिकने, स्साले तुम्हारे पास ज्यादा पैसा है क्या, बिना पूछे बीस रुपये पकड़ा दिए और वो देखो बैन की..इतने जेवर लादे बैठी है, साफ मना कर दिया.
आपको मेरे पैसे देने से बुरा लगा तो वापस कर दीजिए, एक पाव भिंडी तो आ ही जाएगी.
बैनचो..तेरे पर गुस्सा नहीं हो रही हूं बस ये जानना चाह रही थी कि तू पहले से नोट निकालकर क्यों बैठा था ?

सामने सिग्नल की ओर देखा 97 यानी कुछ बात इनसे की जा सकती है..देखिए, मैंने आपको पैसे आप पर रहम खाकर नहीं दिए. आपने मेरे आगे भले ही ताली न बजाई हो और मैंने आपको रे..चिक..के आगे बोलने का मौका न दिया हो लेकिन मैंने जब सामने आपको ताली बजाकर पैसे मांगते देखे तो मुझे क्लास नाइंथ में अपने उपाध्याय सर की शास्त्रीय संगीत की क्लास याद आ गयी. एकताल, तीनताल, झपताल. हम जैसे लोग उस संगीत को पढ़कर अच्छे नंबर लाए और भूल गए लेकिन आप पता नहीं क्लास गई भी होंगी या नहीं लेकिन इसे दिल्ली की सड़क पर जिंदा रखी हुई हैं सो दिया...और जिस अंदाज में आप पैसे मांग रही थी न सामने बाइकवाले से..लगा आप मेरी कोम टाइप से डायलॉग डिलिवरी कर रही हों, सो उसके लिए दस ज्यादा दिए..आपकी रंगों में शास्त्रीय संगीत औऱ हिन्दी सिनेमा का टुकड़ा दौड़ता है और मैंने बस एक मीडिया के छात्र की हैसियत से एक अध्याय के लिए पैसे दिए..
बैनचो..बड़ी लंबी-लंबी छोड़ने लगा तू तो, बीस रुपये देकर ही..स्साला तेरे ही जैसे सनकी औलाद सबके पैदा हो जाएं तो हमरी जात भी कलाकार कहलावेगी..स्साले ने दिन बना दिया.. औलाद वाली बात कहकर उन्होंने रे चिक..अधूरे वाक्य पूरे कर लिए थे.
डिस्क्लेमरः- ये उनकी तस्वीर नहीं है जिनसे अभी थोड़ी देर पहले बात हुई, ये गूगल से ली गई तस्वीर है लेकिन ऑटो के आगे बिल्कुल इसी अंदाज में खड़ी हुई थी तो बस उस भाव के लिए इस तस्वीर को लगा रहा हूं. ‪#‎दरबदरदिल्ली‬
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"आपको जब सिंपल भाषा इतनी ही पसंद हो तो आप आर्टस या कॉमर्स कॉलेज ज्वायन कीजिए"- 
फिजिक्स टीचर, थ्री इडियट्स

इचक-दाना, बिचक-दाना( श्री 420 ) गाने में मिरची लिखा देख आप दुविधा में पड़ सकते हैं कि "मिर्ची" सही है या फिर सिनेमा की इस टीचर ने जो "मिरची" लिखा है, वो सही है.शायद शब्दकोश पलटने की जरुरत पड़ जाए. लेकिन इस गाने का ब्लैकबोर्ड आपको खींचता है, साथ ही साथ बहुत कुछ बताता चला जाता है.
लकड़ी के पाट से जोड़कर बनाया गया ये ब्लैकबोर्ड किसी सरकारी स्कूल का, बढ़ई लगाकर नहीं बनवाया गया है और न ही आज के स्कूलों की तरह इसके लिए लाखों में इसकी बजट होती है. आमतौर पर फलों की पेटियों से निकली तख्ती या इधर-उधर फेंकी गई लकड़ी की तख्ती से जोड़कर बनाया ये ब्लैकबोर्ड साफ इशारा करता है कि ये क्लासरूम अपनी सुविधा, पढ़ाने की ललक और इसी बहाने जीवकोपार्जन के लिए लगायी गयी है. इस ब्लैकबोर्ड में कितने जोड़ हैं, बिल्कुल सपाट नहीं है. चित्रों के जरिए वर्णमाला का ये वो पाठ है जिसे सिखाया तो जो रहा है उन बच्चों को जो खेल और पढ़ाई के बीच डूब-उतर रहे हैं लेकिन एक व्यापक संदर्भ में नए सिरे से पढ़ने( स्वाभाविक है जिंदगी) की कोशिश कर रहा है हवेली की खिड़की पर खड़ा वो श्री 420 जिसकी जिंदगी में ये वर्णमाला कब आए होंगे और कब गुजर गए होंगे. ये खुली पाठशाला संस्थान नहीं, समाज को शिक्षित करने की एक प्रक्रिया ज्यादा है.

इन विजुअल में पूरी की पूरी वायनरी है. वर्णमाला जैसे सहज चीज सीखाने के लिए जिस जुगाड़ और मुश्किल स्थितियों में बच्चों को सिखाने की कोशिश है, बड़े के लिए वो पाठ उतना ही दुरुह( सुविधाजनक स्थिति में रहकर भी दिमागी तौर पर उद्धत हो जाने की स्थिति). क्या पाठ के सहज होने के साथ ही संदर्भ की ये दुरुहता आगे की फिल्मों के क्लासरूम में इसी तरह दिखाई देते हैं ?

मैं हूं न में इचक दाना की तरह वर्णों की पहेलियां नहीं है और न ही क्लासरूम के बच्चे वर्णमाला का ज्ञान लेने आए हैं. यहां सवाल है कैल्शियम की एटॉमिक वेट क्या है ? इस एक सवाल के साथ-साथ ब्लैकबोर्ड का रंग, चॉक जो पेंसिल की तरह न होकर इचक दाना में पत्थर के टुकड़े की तरह थे, हम जिसे अपनी मगही भाषा में खल्ली कहा करते हैं, वो भी रंगीन, ग्लैमरस शिक्षक( सुष्मिता सेन) जिसकी केमेस्ट्री की क्लास में ही खुले बाल पर सौन्दर्य चर्चा की कोशिश की जाती है. ये भारी लागत से बने बोर्ड हैं जिन्हें ब्लैकबोर्ड कहने पर इसका समुद्री हरे रंग का होना शामिल नहीं हो पाया लेकिन अफसोस कि बोर्ड का रंग बदल जाने पर भी इसके लिए कोई नया नाम नहीं रखा गया है. क्लासरूम की पूरी कोशिश इसे मस्ती की पाठशाला में बदल देने की है और आगे चलकर ऐसा होता भी है और तब बोर्ड पर केमेस्ट्री के लिखे फॉर्मूले और कर्सिव इंग्लिश में लिखी परिभाषाओं को छोड़ दें तो पूरा नजारा किसी डिस्को थेक का हो जाता है.( फैंटेसी में ही सही )..इस बात के लिए आप हिन्दी सिनेमा पर आरोप लगा सकते हैं कि कॉलेजों, विश्वविद्यालयों को जो बाजार, ब्रांड और मीडिया के इवेंट स्पॉट भर बनाकर छोड़ देने की कवायद चल रही है, उसके ब्लूप्रिंट यही सिनेमा तैयार कर रहे हैं. खैर,

थ्री इडियट्स का सवाल भी अ से क्या होता है जैसा ही सरल है, मशीन क्या है ? रणछोड़दास( आमिर खान) इसे बाकायदा न केवल हिन्दी में बल्कि अपने रोजमर्रा के अनुभव से इसे परिभाषित करने की कोशिश करता है जिसका मजाक सारे स्टूडेंट्स तो उड़ाते ही हैं, फिजिक्स का शिक्षक अपनी पैंट की जिप उपर-नीचे करके ये कहते हुए कि अप-डाउन,अप-डाउन ये मशीन है, इग्जाम में यही लिखोगे.( हालांकि रणछोड़ पहले ये काम कर चुका होता है). यहां ब्लैकबोर्ड काले रंग का तो है लेकिन वही ब्लैकबोर्ड नहीं जो लकड़ी की तख्ती या पत्थर, सीमेंट को काले रंग से रंगकर बनाए जाते रहे हैं. बाकायदा लकड़ी के फ्रेम में जड़े जिस पर बार्निश की पॉलिश है. लिखा जिस पर अंग्रेजी में सिर्फ मशीन है..बाकी फिल्म के बीच-बीच में वो हिस्सा जरूर है जहां साइन थिटा, बिटा, पाइ, अंडरस्कोर जैसे चिन्हों से बोर्ड भरे हैं क्योंकि ये इंजीनियरिंग कॉलेज का नजारा है...यही नजारा तारे जमीन पर का भी है जिससे ये सारे चिन्ह उड़-उड़कर बाहर निकलते दिखाए जाते हैं.

स्टूडेंट ऑफ दि इयर में शक्ल तो बोर्ड जैसी ही दिखाई देती है लेकिन है वो पीपीटी( पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन) और इस पर जो कुछ भी लिखा है वो सिर्फ अंग्रेजी में लिखी परिभाषाएं, ये मैनेजमेंट की क्लास है. बोर्ड का आकार पूरी क्लासरूम की चौड़ाई जितनी है जिस पर कि बड़े आराम से "मेरी कोम" फिल्म प्रदर्शित की जा सकती है.

थोड़ी देर के लिए ये छोड़ दे कि हिन्दी सिनेमा के क्लासरूम में शिक्षक क्या पढ़ा रहे होते हैं, किस सब्जेक्ट की क्लास होती है तो भी सिर्फ ब्लैकबोर्ड के हुलिए से वो सबकुछ अंदाजा लग जाता है जो फिल्म स्टैब्लिश करना चाहती है. एकबारगी तो आपके मन में सवाल उठेगा कि 1955 में विद्य़ा( नरगिस) ने जो हिन्दी वर्णमाला सिखायी थी, वो बच्चे बाद में गए कहां ? क्या उन सबके सब ने साइंस या मैनेजमेंट ले लिया और उऩ्हीं कॉलेजों में घुस गए जहां करिअर का दवाब तो है लेकिन वो सहजता नही है जो वो अपनी विद्या मैम से सीखकर आए थे. क्या ये वो बच्चे हैं जो फिजिक्स, केमेस्ट्री की क्लास में भी मजाक का पात्र बनने की हद तक इंसानियत, जिंदगी जीने की कला और सौन्दर्यबोध की बात करते हैं. अब के हिन्दी सिनेमा में वर्णमाला, साहित्य और आर्ट्स विषय की कोई क्लास नहीं होती है..सिर्फ साइंस, मैनेजमेंट, इंंजीनियरिंग, मेडीकल की और अगर साहित्य या आर्ट्स की गलती से क्लास हो भी तो शिक्षक औऱ इस विषय का उपहास उड़ाने के लिए. आपको एक वक्त के लिए हताशा होती है लेकिन

दिलचस्प है कि इन साइंस, इंजीनियरिंग औऱ मैनेजमेंट की क्लास में भी कहानी उन्हीं मुद्दों पर जाकर घूमती है जो कि विषय नैतिक शिक्षा, साहित्य या समाज विज्ञान के होने पर घूमती. मुन्नाभाई एमबीबीएस से लेकर थ्री इडियट और स्टूडेंट ऑफ द इयर की यही कहानी है..तब आपको लगेगा कि इचक दाना के विद्या मैम के ये विद्यार्थी इंजीनियरिंग तो इन कॉलेजों में पढ़ रहे हैं लेकिन उनका पढ़ना एकतरफा नहीं है, वो अपने उन सारे साइंस शिक्षकों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं जो रिजल्ट, प्लेसमेंट, तरक्की के आगे न केवल भूल चुके हैं बल्कि इन सबको दो कौड़ी की चीज समझते हैं. विषय के गायब होने के बावजूद विषय की तासीर बचाए रखने के बीच हिन्दी सिनेमा के ब्लैकबोर्ड और क्लासरूम काफी कुछ कह जाते हैं. हम जैसे आर्ट्स के सिकंस के लिए कहिए तो खुशफहमी का एक पुड़िया तो थमा ही जाते हैं कि कल को हमारे बच्चे भले ही मैनेजमेंट, पीआर प्रैक्टिस और मीडिया बिजनेस के कोर्स में चले जाएंगे लेकिन अपनी इसी विद्या मैम और कोठी की खिड़की पर खड़े होकर रणवीर राज( राज कपूर) के बीच की इंटरटेक्टचुअलिटी( अंतर्पाठियता) को भी सहेजने, समेटने की कोशिश करेंगे..आखिर श्री 420 का रणवीर, मैं हूं न में मेजर रामप्रसाद शर्मा( शाहरुख खान) केमेस्ट्री का छात्र तो बनकर घुस ही आया है. 

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शिक्षक और छात्र के भावनात्मक संबंध( हालांकि इसकी बेतहाशा धज्जियां उड़ती रही है और जारी है, फिर जो थोड़ा-बहुत बचा है) के बीच और जिसे कि अलग से व्यक्त करने के लिए शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता रहा हो, देश के प्रधानमंत्री का घुस आना क्या इतना ही स्वाभाविक है ? यदि आपको ये सवाल अटपटा लगता है तो इसका मतलब है कि आपको संबंधों के बीच के स्पेस और उस स्पेस के हथिया लिए जाने की राजनीति समझने में न दिलचस्पी है और न ही आपको ऐसा किया जाना अनैतिक ही नहीं, अमानवीय भी लगता है. आप इसे इसी रूप में ले रहे हैं कि घर के अभिभावक को किसी के भी कमरे में, किसी दो के बीच की बातचीत, अंतरंग पलों के बीच घुस आने का हक है, इसे किसी भी हाल में गलत ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए. संभव है कि आप श्रद्धावश अपने प्रधानमंत्री या सांसद को ऐसा करने का मौका भी दें. लेकिन

आपको नहीं लगता कि स्पेस के सिकुड़ते जाने और जगह की भारी किल्लत होते जाने के बीच हम संबंधों के मामले में हम उतने ही ज्यादा खुल रहे हैं, पहले से ज्यादा व्यापक संदर्भ में संबंधों को समझ रहे हैं. हमें अब ये बात समझ आने लगी है कि आठ साल-दस साल के हमारे घर के बच्चे हैं तो उनकी भी अपनी प्रायवेसी है, उन्हें भी अपने तरीके के लोग, दोस्त चुनने का हक है और रोज का कुछ वक्त और साल के कुछ दिन अपने तरीके से बिताने की उसी तरह की आजादी है, जितना ही हम वयस्क लोगों को है..आप अगर इस समझदारी के साथ उन्हें स्पेस देते हैं तब तो ठीक है लेकिन संस्कारित किए जाने, नैतिकता का पाठ पढ़ाने के नाम पर अगर आप दिन-रात उनके पुच्छल्ले बन जाएंगे और घड़ी-घड़ी दुहाई देते फिरेंगे कि हम ये सब आपके भले के लिए कर रहे हैं तो यकीन मानिए यही बच्चे बड़ी ही बेशर्मी से आपसे स्पेस की मांग करेंगे, कुछ वक्त अपने तरीके से बिताने की बात करेंगे और आखिर में ये भी जोड़ देंगे कि अब मैं बच्चा/बच्ची नहीं हूं, प्लीज.

कहानी बस इतनी है कि बच्चों की दुनिया अब उतनी सपाट रही नहीं है कि जिसे हम वयस्क जैसे और जिस हिसाब से चाहें ड्राइव कर दें. लोहे-लक्कड़ के कबाड़ को हमने विकास का नाम दिया है और जितनी उनकी ज्यादा कॉम्प्लीकेटेड हो गयी है. ऐसे में वो मां-बाप के अलावा टीचर को सिर्फ ज्ञान और संस्कार का जरिया नहीं समझता बल्कि उसे एक ऐसे शख्स के रूप में लेता है जिससे वो जो चाहे, जैसे चाहे शेयर करे.. अच्छा होता मोदी सरकार इस शिक्षक दिवस को "शेयरिंग डे"( अंग्रेजी से परहेज है तो अन्तर्मन दिवस) के रूप में मनाने की बात करती ताकि इस दिन बच्चे अपने मन की कोई भी बात खुलकर अपने पसंदीदा शिक्षक से कर पाते. आज के बच्चों को ज्ञान, संस्कार से कहीं ज्यादा शेयर करने, उन्हें सुनने की जरूरत है. हंसते-खेलते और बिंदास दिखते ये स्कूली बच्चे मन के स्तर पर कितने बंद, बीमार और दबे होते हैं, शायद इसका अंदाजा न तो मोदी सरकार को है और न ही भाषण देने के लिए आतुर स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साहब को. 364 दिन के भाषणनुमा क्लासरूम से ये बच्चे तो वैसे ही उबे, हारे होते हैं, एक दिन तो शेयर करने के दिन होते. लेकिन

इन सारी बातों की उम्मीद हम एक ऐसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार से नहीं कर सकते जो खुद "ब्रांड पोजिशनिंग" के बिजनेस फार्मूले से यहां तक आया हो. ये फार्मूला साफ-साफ कहता है कि पहले अपने को मदर ब्रांड के रूप में स्थापित करो और फिर धीरे-धीरे उन सभी क्षेत्र में सिस्टर ब्रांड पैदा करके घुस जाओ, जो तुम्हारा इलाका नहीं रहा हो. मसलन अगर टाटा कंपनी पर आप यकीन करते हैं और उसकी बनायी ट्रक को मजबूत मानते हैं तो केबल, बाल्टी और फोर व्हीलर को क्यों नहीं ? आप देखते हैं, ब्रांड की पूरी राजनीति इसी तरह काम करती है. चुनाव के दौरान वोटर को खुलेआम कहा गया- आप जो वोट देंगे वो सीधे मुझ तक आएंगे यानी आप बीजेपी को नहीं मोदी को वोट दे रहे हैं और इस तरह एक बार बहुमत हासिल करके जब नरेन्द्र मोदी ब्रांड बन गए तो अमित साह से लेकर जोगी आदित्यनाथ जैसे दागदार भी सिस्टर ब्रांड होते चले गए. अब ऐसा होगा कि ब्रांड मोदी ने जिस पर हाथ रख दिया, वो ब्रांड.

ब्रांड पोजिशनिंग की ये राजनीति मार्केट में अपनी मोनोपॉली कायम करने के लिए ऐसे-ऐसे सेक्टर में घुस आती है जिसका कि पहले से उसे कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन आपने कभी सोचा होगा कि तेल निकालनेवाली कंपनी रिलांयस सब्जी भी बेचेगी और आम-लीची के बागान तक खरीदकर धंधा करेगी. लेकिन अब लिस्ट बनाइए तो दस में कम से कम चीन से चार चीजें ऐसी आप इस्तेमाल करते हैं जो इनके होते हैं यानी आपकी जिंदगी में ये ब्रांड काबिज हो गया है.

चूंकि नरेन्द्र मोदी ब्रांड पोजिशनिंग कोई उत्पाद के लिए नहीं कर रहे बल्कि राजनीति के लिए खुद को ही ब्रांड में तब्दील किया है, ऐसे में उनके मामले में ये काम राजनीति, सेवा,संस्कृति, संस्कार जैसे ऐसे शब्दों के साथ घुल-मिलकर आ रहे हैं ताकि ये कहीं से धंधे का हिस्सा न लगकर राष्ट्र के विकास का अनिवार्य पहलू लगे. नहीं तो जो देश का प्रधानमंत्री है उसे उतने ही अधिकार से शिक्षक दिवस में, उतने ही अधिकार से परवरिश और उन सामाजिक पहलुओं पर दिशा-निर्देश देने का अधिकार नहीं मिल जाता जो कि स्वाभाविक रुप से सोशल इंजीनियरिंग और सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा है और जिसके निर्वाह में पूरी प्रक्रिया काम करती है, रातोंरात की हवाबाजी नहीं.

अब जबकि उन्होंने बतौर प्रत्याशी बहुमत हासिल कर लिया है तो ऐसे में वो उसी ब्रांड पोजिशनिंग स्ट्रैटजी के तहत शिक्षक, अभिभावक, आदर्श भाई होने की अतिरिक्त छूट जिसे पाखंड कहना ज्यादा सही होगा, हासिल करना चाहते हैं जैसे ब्रांड अपने कमतर कंपनियों को कुचलकर स्पेस खत्म करता है. शिक्षक दिवस के मामले में क्या ये सवाल नहीं है कि छात्र और शिक्षक के बीच संबंध चाहे जो भी रहे हों, जबरिया घुसकर एक स्वाभाविक संबंध के बीच के स्पेस को पहले के मुकाबले और खत्म कर रहे हैं ? नहीं तो एक बार इस व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो अंदाजा लग जाएगा कि प्रधानमंत्री क्या, इस दिन छात्र प्रिंसिपल छोड़कर इतिहास, अंग्रेजी, हिन्दी या सोशल साइंस के शिक्षक के साथ वक्त बिताना चाहता है, उनकी बात सुनना चाहता है, जिसके हाथ में देने के लिए और न ही बिगाड़ने के लिए कुछ है. मोदी की भाषण देने की ये ललक ऐसे शिक्षक को बौना बनाने के अलावा कुछ नहीं करेगी. छात्रों से पसंद की बहुलता का ये हक एक झटके में छीन लेगी.

रही बात भाषण के जरिए संस्कार देने की तो जनाब जब आपने विकास का पूरा पैमाना ही ज्यादा से ज्यादा प्रोडक्ट और सर्विसेज के इस्तेमाल किए जाने पर लाकर टिका दिया है और एक सफल व्यक्ति होने का आधार ही अपनी गाड़ी, अपना घर और मजबूत बैंक बैलेंस हो गया है तो आपके इस भाषण से कॉमिक रिलीफ भले ही मिल जाए लेकिन छात्र के पैर उसी प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ेंगे जहां से इस कबाड़ जुटाने को सफल होने का पर्याय बनाया जाता हो..फिर जबरिया अगर आज ये आपका ज्ञान सुन भी लें तो उन्हें आपके प्रति भला सम्मान कैसे पैदा हो सकेगा कि जो शख्स खुद देशा का पैसा पानी की तरह बहाकर, कार्पोरेट और पूंजीपतियों के दम पर सत्ता तक पहुंचा है, उसकी सादगी के पाठ में कितनी दरारें होंगी. सादगी और संस्कार के पाठ का असर उसके जीने में है, किऑस्क बनाकर चमकाने में नहीं.

कुल मिलाकर बात सिफत बस इतनी है कि शिक्षा की दुनिया वैसे भी कारोबार की दुनिया पहले से ही विलीन होती जा रही है जहां शिक्षक सिर्फ सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) बनकर रह गया है..ऐसे में ब्रांड नरेन्द्र मोदी का हर क्षेत्र, पेशे और संबंध के आदर्श पुरुष बनने की उत्कंठा ऐसे सिकंस को और पराजित, बौना और टीटीएम का शिकार बनाएगी.. माफ कीजिएगा, हमने देश चलाने के लिए सांसद और उनके मार्फत प्रधानमंत्री चुना था, अपनी जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को तय करनेवाला मालिक-मुख्तयार नहीं, हम इतने गार्जियनों के बीच घिरकर नहीं जी सकते.

तस्वीर, साभारः ओपन मैगजीन, 28 अगस्त 2014
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पसीने से तरबतर और पूरी तरह भीग चुकी टी को धोने के लिए जब टब में डालने ही जा रहा था कि बिल्कुल गर्दन के नीचे लिखे निर्देश पर नजर गयी और हैरानी तब हुई, जब एक ही साथ दो परस्पर विरोधी बातें लिखी थी-
एक तो ये कि आप तन्त्रा की ज्यादा से ज्यादा टीज खरीदें जिससे कि जरूरतमंद कलाकार को मदद मिल सके.( buy more tees. help hungry artists.) और दूसरा
धोबी को देने में सतर्कता बरतें( beware of dhobi)

लोगों के दरवाजे के आगे विवेयर ऑफ के साथ जिन शब्दों के प्रयोग किए जाते हैं, उसी अंदाज में अगर यहां भी अनुवाद कर दिया जाए तो आप "धोबी से सावधान" कर दे सकते हैं और जिसका सीधा मतलब है कि आप इस टी को धोबी के हाथ में न पड़ने दें.

जैसे ही मेरी नजर इन पंक्तियों पर गई, ख्याल आया क्या ऐसा नहीं है कि एक तरफ ज्यादा से ज्यादा खरीदने की गुहार लगाकर ये कंपनी जहां कलाकारों को ज्यादा से ज्यादा काम देने की बात कर रही है वही धोबी के प्रति सावधान रहने की बात करके एक तरह से उनकी पेट पर लात मारने का काम भी. आगे जातिसूचक शब्द का इस तरह प्रयोग करके, उनके प्रति संदेह पैदा करके कि वो कपड़े खराब कर देते हैं, सीधा-साधा अपमान और भेदभाव तो है ही. आप भी सोचिए तो पहला ही सवाल दिमाग में आएगा- क्या इस पंक्ति को अलग से लिखने की जरूरत है ?

हमारा समाज कोई पेरिस से उठकर नहीं आया है कि जिस एक वाक्य का प्रयोग पीढ़ी दर पीढ़ी करती आयी है, वो एक अकेली इस टी के मामले में भूल जाए. हममे से कितने घरों में जब धोने के लिए कपड़े दिए जाते हैं तो उसके पहले तीन से चार बार एक ही बात को कि देखो भइया, सावधानी से धोना, रंगीन कपड़े हैं, रंग उतर सकते हैं, अलग से धोना नहीं बोले जाते. भइया बड़ी मेहनत से खरीदी है, महंगी शर्ट है, ध्यान से धोना, किसी के साथ मिक्स मत करना. लेकिन इस अकेले वाक्य के प्रयोग से मामला इतना तो जरूर बन जाता है कि कोई चाहे तो इस तंत्रा कंपनी पर मान हानि और जाति विशेष पर शक जाहिर करके कानूनी मामला दर्ज करा सकता है. रही बात "धोबी" शब्द के प्रयोग की और सावधानी से कपड़े धोने की तो इस संबंध में मुझे दो वाक्या याद आता है.

हमारे डीयू कैंपस में श्रीराम हैं. साल 2002 से जब से मैं दिल्ली में रह रहा हूं जिसका एक हिस्सा हॉस्टल में भी बिताया, श्रीराम रोज नियम से हमारे हॉस्टल में गंदे कपड़े लेने और धुले कपड़े लौटाने आते. ज्यादातर लोग उन्हें उनके नाम से ही पुकारते. वैसे वो खुद कॉरीडोर में जोर से आवाज लगाते और आज भी आप डीयू के किसी भी व्ऑयज हॉस्टल जाएं तो उनकी आवाज सुनाई देगी- वाशर, वाशरमैन..लेकिन कुछ जो नए लड़के आते वो न तो उन्हें नाम से बुलाते और न ही वॉशरमैन. एक दो बार मैंने देखा कि श्रीराम को जैसे ही किसी ने धोबी कहा- वो ऐसे आगे बढ़ गए जैसा कि कुछ सना ही न हो. हमलोगों का अब भी श्रीराम से इतना अपनापा है कि घर-परिवार, मां-नौकरी सबकुछ के बारे में पूछते हैं. जो लड़के जिस अंदाज में धोबी बोलते उससे साफ अंदाजा लग जाता कि इनके सामंती नाखून डीयू में आकर झड़े नहीं हैं. आप जितनी मर्जी चाहे अंग्रेजी को कोसिए लेकिन श्रीराम का खुद के लिए वॉशरमैन प्रयोग मुझे कहीं ज्यादा सुखद लगता है. दूसरा

मेरे घर में जब भी राकेश की माई जिसे ज्यादातर लोग गोंगा के माय बुलाते,आती, कभी ऐसा नहीं होता कि कोई न कोई कपड़े को लेकर शिकायत नहीं करता लेकिन जब तक हमारा घर बिहारशरीफ में रहा, किसी दूसरे से कपड़े नहीं धुलवाए गए..अब भी मां चार-पांच साल में जाती है तो भौजी-भौजी बोलकर पकड़कर रोने लग जाती है. मैंने उनके साथ के भी कपड़े धोने का काम करनेवाली महिलाओं को बात करते सुना है- देख, भौजी इ साड़ी हमरा बहुत पसंद आ गेलो ह. एक बार पहिन के वापस करवौ.( देखो भौजी, ये साड़ी मुझे बहुत पसंद आ गयी है और इसे हम एक बार पहनकर ही वापस करेंगे.) और मैंने देखा भी कि मां, चाची के सामने ही वो उनकी ही साड़ी पहनक घूम रही है. जो कपड़े देर से घुलकर आए तो इसका मतलब है कि उसे कोई न कोई उनके परिवार का सदस्य पहना रहा है. मेरी बात पर यकीन न हो तो आप हिन्दी सिनेमा और नाटक के उन दृश्यों को याद करें जहां हमउम्र नौजवान की नौकरी नहीं होती है, न ढंग के कपड़े होते हैं और इंटरव्यू के लिए उन्हें मोहल्ले के वॉशरमैन चकाचक कपड़े और शुभकामनाएं देते हैं. ये किनके कपड़े होते हैं ?

कपड़े धोने और धुलवाने का हमारे यहां इतना समरस माहौल रहा है कि कपड़े खराब कर देने के बावजूद न तो किसी ने उनसे कपड़े धुलवाने बंद करवाए और न ही धोनेवाले ने पैसे काट लेने तक कि स्थिति में बुरा माना. लेकिन इस तरह अंग्रेजी में धोबी से सावधान लिखकर ग्राहक को सचेत करने का सीधा मतलब है कि कंपनी को इस संस्कृति का अंदाजा नहीं है और पूर्वाग्रह की शिकार पहले से उनके प्रति शक पैदा कर रही है. जो सामाजिक रूप से न केवल गलत है बल्कि कानूनी प्रावधान के तहत अपराध की श्रेणी में आते हैं. जब इसे बाकी बातें अंग्रेजी में लिखनी आती है तो "dhobi" लिखने का क्या अर्थ है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इससे वो वॉशरमैन को अलग रखना चाहती है ?

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स्मृति इरानी की अंग्रेजी जितनी अच्छी है और जितना धैर्य है( आठ साल तक देश की आदर्श बहू बने रहना आसान काम नहीं है) डिग्री जुटाने और पढ़ी-लिखी साबित करने की चुटकुलेबाजी में फंसने के बजाय एक बार अंतोनियो ग्राम्शी की "प्रीजन नोटबुक्स" जरूर पढ़नी चाहिए.पूरी नोटबुक तो तीन हजार पन्ने से भी थोड़ी ज्यादा है लेकिन रोज सुबह उठकर दो-दो पन्ने करके भी पढ़ती है तो अपने कार्यकाल तक बहुत ही आराम से पूरा पढ़ लेंगी. पूरी न भी पढ़ पाती हों तो सिर्फ "इन्टलेक्चुअल एंड एडुकेशन" अध्याय ही अच्छी तरह पढ़ लें. यकीन मानिए ये जो हर महीने-दो-महीने में कोई न कोई डिग्री दिखानी पड़ जाती है, जिससे कि न तो उनकी प्रतिष्ठा में इजाफा होता है और न ही लोगों का यकीन बढ़ता है बल्कि उल्टें ट्विटर पर ट्रेंड होकर रह जाता है, सोशल मीडिया पर संता-बंता रहकर जाता है, उससे मुक्ति मिल जाएगी. 
ग्राम्शी ने इन्टलेक्चुअल की विस्तार से चर्चा की है और जिस तरह से अकादमिक डिग्री हासिल करके बुद्धिजीवी होने का दंभ लोगों के बीच पनपता है, उस पर गहरा चोट किया है. वहीं दूसरी तरफ जो जीवन की सहजता, संघर्ष और अनुभव के बीच से ज्ञान हासिल किया है उसे ऑर्गेनिक इन्टलेक्चुअल के रुप में परिभाषित करते हुए समाज में ऐसे लोगों की जरूरत को अलग से रेखांकित किया है. जो पैटर्न इन्टलेक्चुअल नहीं हैं.जो सचमुच रचनात्मकता, आलोचकीय पक्ष और तार्किकता को गहराई से समझ पाते हैं.
ऐसा नहीं है कि ग्राम्शी ने ऑर्गेनिक इन्टलेक्चुअल को जिस रूप में परिभाषित किया है, उन तर्कों को स्मृति इरानी को आनन-फानन में भी ऐसा ही घोषित कर दिया जाए लेकिन इतना जरूर है कि अगर इत्मिनान से इस अध्याय को पढ़ जाती हैं तो अपने तर्क को और बेहतर ढंग से लोगों के बीच रख पाएंगी और जो डिग्री को ही ज्ञानवान होने के अंतिम सत्य के रूप में निर्धारित करते हैं, उनकी इस समझ को सीमित साबित कर सकती हैं..और वैसे भी ये बात ग्राम्शी में कही जरूर है लेकिन "मसि-कागद छुओ नाहिं" की घोषणा के साथ ज्ञानी तो अपने यहां हुए ही हैं. स्मृति इरानी को अगर ग्राम्शी से दिक्कत है( हो सकता है क्योंकि एक तो विदेशी हैं और दूसरा कि हार्डकोर कम्युनिस्ट) तो कायदे से बैठकर कबीर की रमैणी, साखी और सबद ही पढ़ लें..तर्क के नए आधार मिलेंगे.. ये डिग्री की चुटकुलेबाजी में फंसने से तो अच्छा ही है न..
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रेडियो पर लेख लिखते हुए

Posted On 10:31 am by विनीत कुमार | 2 comments


लेख अगर शोधपरक न हो और किसी भारी-भरकर पत्रिका में न छपनी हो तो रेडियो पर लिखते वक्त हम थोड़ा तो भावुक हो ही जाते हैं. रिसर्च ऑर्टिकल लिखते वक्त जहां हम कठोरतापूर्वक एक-एक तथ्य,तारीख,फैसले और सरकारी रवैये को ध्यान में रखते हैं, दुनियाभर के संदर्भों को शामिल करते हैं, वहीं किसी अखबार के पाठकों के लिए लेख लिखते वक्त दुनिया से सिमटकर अपने बचपन की, कॉलेज की दुनिया में चले जाते हैं. मसलन

अखबार के लिए रेडियो पर लेख लिखते वक्त पापा का लीड रोल में आना जरूरी हो जाता है. बिना दर्जी,लुहार,बढ़ई, पंक्चर बनानेवाले भइया, साइकिल की टायर बदलनेवाले नरेशवा को याद किए हम लेख लिख ही नहीं सकते. छाती से रेडियो चिपकाई एक ही साथ कितनी दीदी, बुआ, भाभी याद आने लगती है. रेडियो की ये नास्टॉल्जिक दुनिया है जहां आप मुझसे तटस्थता की उम्मीद नहीं कर सकते और सच कहूं तो तथ्यात्मक होने की भी नहीं. मेरे दिए तथ्य गलत हो सकते हैं क्योंकि उस वक्त मैं तारीख नहीं उन धागों का मिलान कर रहा होता हूं जो बिल्कुल ठीक आज से अठारह-बीस साल पहले दिखे थे. हम तब आंकड़ेबाजी में फंसने के बजाय उन दृश्यों में खो जाते हैं जहां रेडियो सिनेमा की रील बनकर घूमने लग जाता है.

ऐसे लेख लिखते वक्त मेरी मां की वो रसोई शामिल होती है जो उसके लिए औरत जात के मरने-खपने की जगह और मेरे लिए तीनमूर्ति की एयरकंडीशन लाइब्रेरी से भी ज्यादा एकांत की जगह. तब हम जिस आत्मविश्वास से सिकंस की हैसियत से मीडिया के छात्रों से कह रहे होते हैं- रेडियो सिर्फ माध्यम नहीं, एक सांस्कृतिक पाठ है, वो आत्मविश्वास टूट रहा होता है जब टार्च की बैटरी निकालकर रेडियो सुन लेने और बेल्ट से पापा की मार का ध्यान आता है. इस रेडियो में बिहारशरीफ से लेकर दिल्ली वाया रांची की एक ऐसी चौहद्दी बनती दिखाई देती है जिसमे हम रेडियो श्रोता नहीं, हाफिज मास्टर हो जाते हैं जिसके तार टूटने का मतलब होता है- गान्ही महतमा की आजादी की उस तार का टूट जाना जिससे अब रघुपति राघव राजाराम की धुन नहीं निकलेगी.

लिखकर भॆज तो दिया है, गर छप गया तो आपसे साझा करुंगा जल्द ही
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मेरे पास क्रिस बार्कर की एक किताब है- कल्चरल स्टडीजः थीअरि एंड प्रैक्टिस. मूलतः ये रीडर है जो सांस्कृतिक विमर्शों को समझने के लिए बेहद जरूरी किताब है. वैसे भी क्रिस बार्कर मीडिया और कल्चरल स्टडीज की दुनिया में वो नाम है जिनकी किताब एक बार हाथ में आ जाए तो आपको एक-एक पंक्ति चाट जाने का मन करेगा. खैर
बार्कर की इस किताब की जो कवर है वो राजकुमार हीरानी की आनेवाली फिल्म पीके की पोस्टर से कहीं ज्यादा अश्लील है. ऐसा इसलिए कि इस पोस्टर में आमिर खान जहां अपनी लिंग के आगे टेपरीकॉर्डर लटकाए हैं वहीं इस कवर पेज में लिंग के आगे महज एक सीडी चिपका दी गई है. यानी टेपरीकॉर्डर में जितना गोल हिस्सा जो कि संतोष और पैनसॉनिक का मॉडल है और स्पीकर का हिस्सा हुआ करता था, बस उतना ही. सीडी चिपकाने के बावजूद प्यूबिक हेयर साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं जबकि आमिर खान की लिंग के आसपास का हिस्सा पूरी तरह ढंका है.

इस किताब पर मेरी पहली नजर डीयू की आर्ट्स फैकल्टी की लाइब्रेरी सीआरएल में सोशियलॉजी सेक्शन में रखी होने पर पड़ी थी. मैंने क्रिस बार्कर की इससे पहले "टेलीविजनः ग्लोबलाइजेशन और कल्चरल स्टडीज" पढ़ ली थी और रेमंड विलियम्स, जॉन स्टोरे की तरह ही ये नाम मेरे जेहन में इस तरह से बैठ गया था कि इनका लिखा कुछ भी हो तो जरूर पढ़ता. मैंने किताब इश्यू करायी. काउंटर पर लाइब्रेरियन ने उलट-पलटकर देखा और फिर इश्यू कर दिया. किताब पढ़ने के बाद अपने मेंटर से इस पर चर्चा की. बाद में मंहगी होने के बावजूद इसे खरीद ली. कुछ दिन बाद देखा तो विभाग के कुछ लोगों के हाथ में इसकी फोटोकॉपी दिख गयी. लेकिन तब किसी ने इस किताब की कवर पेज को लेकर ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और न ही कवर पेज की ललक के कारण इसकी फोटोकॉपी करायी थी.

सवाल है कि क्या क्रिस बार्कर की इस अतिगंभीर किताब के लिए कोई दूसरा कवर नहीं मिला था और गर कोई दूसरी कवर लगाते तो इसकी बिक्री पर फर्क पड़ जाता ? शायद नहीं..लेकिन इस कवर पर गौर करें तो सूचना संजालों के बीच फंसे ये उस इंसान की छवि को स्थापित करता है जिसके जीवन का बड़ा हिस्सा इन माध्यमों और उनसे निर्मित छवियों के बीच निर्धारित होता है. गौर करें तो बिना किताब पढ़े काफी कुछ समझा जा सकता है. लेकिन आमिर खान की इस तस्वीर को जिस आधार पर अश्लील कहकर आलोचना की जा रही है, उसके मुकाबले इस किताब की प्रतियां जला देनी चाहिए थी लेकिन मुझे यकीन है कि अब भी इस किताब की प्रति डीयू सहित देश की बाकी लाइब्रेरी में भी होगी.

आखिर मामला क्या है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारा समाज पुरुष देह को इस रूप में देखने का अभ्यस्त नहीं रहा और स्त्री देह की नग्नता ही सौन्दर्य के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है तो अब ये नजारा कुछ ज्यादा ही अश्लील जान पड़ रहा है..या फिर किताबों की दुनिया इतनी बंद है कि उनलोगों की इस पर नजर नहीं गई जिन्हें ऐसे पोस्टर से आपत्ति है. मतलब अज्ञानतावश उन्होंने लाइब्रेरी में आग लगाने का सुनहरा अवसर खो दिया. इन सबके बीच आमिर खान के समानांतर एक तस्वीर वर्चुअल स्पेस पर साझा की जा रही है और बताया जा रहा है कि ये उसी की नकल है. लेकिन किताब की कवर पेज पर गौर करें तो पीके की पोस्टर न केवल इसके ज्यादा करीब है बल्कि कन्सेप्चुअली भी इसके अर्थ को ध्वनित करता है.

ये बात अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि अब इस पोस्टर को जहां सिनेमा की पीआर एजेंसी पब्लिसिटी स्टंट के रूप में इस्तेमाल करेगी जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया में भारतीय संस्कृति को लेकर एक बार फिर से उफान आएगा..और इन सबके बीच तथाकथित इससे कहीं ज्यादा अश्लील कवर लाइब्रेरी की सेल्फ से चलकर हमारे-आपके हाथों तक पहुंचती रहेगी.
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मयूर विहार में वो मेरी इक्सक्लूसिव और आखिरी मेड थी. वो मजाक में कहा करती- भइया, आप हमको काम करने के नहीं, बात करने के पैसे देते हो ? बताओ, हमको खाना टाइम से बनाना चाहिए तो आते ही चाय बनाकर मेरे साथ चाय पीने लग जाते हो. बदले में मैं पलटकर कहता-

आप मेरे यहां पैसे के लिए काम करने आती हैं दीदी या फिर टाइम पास करने. बताइए तो जरा, इस सोसायटी में किस घर की मेड टाटा सूमो से आती है ?

मयूर विहार का वो मेरे लिए बेहद खराब दौर था. घर का एक-एक काम खुद करने की आदत और जिद के आगे हालात ने ऐसा कर दिया था कि उठकर पानी तक नहीं ले सकते थे. हारकर सोसायटी की गेट पर गार्ड से ये कहने के लिए कि कोई काम के लिए आए तो भेजना. तभी ये दीदी वहां खड़ी मिल गई. मैंने पूछा- आप करेंगी दीदी मेरे यहां काम ? अकेले रहता हूं. बस एक बार खाना बनाना होगा और थोड़ी सफाई. कहीं आता-जाता नहीं सो कपड़े न के बराबर ही.

हम मुसलमान हैं भइया, आप मेरे हाथ का बना खाएंगे ? यहां तो कोई काम देने को राजी नहीं हैं.
मुसलमान हैं, तभी तो पूछा..पुलाव तो जोरदार बनाते होंगे और गर आज साथ चलती हैं तो झन्नाटेदार परांठे बनाइएगा न, आलू-भुजिया के साथ.

वो मेरे साथ मेरे घर आ गयी और पूरे तीन घंटे लगाए उसने. घर का हाल देखा तो मुफ्त की सलाह दे दी- हम तो ठीक किए दे रहे हैं भइया, बाकी कुछ चीजें ऐसी है जो लुगाई ही ठीक कर सके है सो जल्दी से ब्याह कर लो.

उसके बाद दीदी के साथ एक नया और बल्कि तार सप्तक ही शुरु हो गया. रोज उनका आना, पहले चाय पीना. फिर खाना क्या बनेगा भइया और पलटकर- आपका क्या मन है बनाने का सीधा जवाब. जो बोलिए. अच्छा तो लौकी की सब्जी और रोटी..और उनका मीठी झिड़की के साथ कहना- क्या भइया, रोज-रोज वही घिया, तोरी..आपको अच्छा खाने का मन नहीं करता, कोफ्ता बना देती हूं. आपको कढी पसंद है तो वही और बनाने लग जाती.

मैं तब तक लेटे-लेटे ही लैपटॉप पर कुछ करने लग जाता और वो बीच में आकर हाथ से लैपटॉप उठाकर मेज पर रख देती- काहे आंख फोड़ते हो भइया, सांस लेने की तो ताकत है नहीं देह में और लगे रहते हो. फिर जमीन पर बैठ जाती.

अपनी बहुओं की कहानी, एक बेटे के प्रेम विवाह करने के किस्से. दो साल की पोती के नखरे..सबकुछ. मेरी फोन की बातचीत से ही समझ लिया था कि मैं अपनी किस दीदी के सबसे ज्यादा करीब हूं, कौन लड़की है जिसकी बात मैं टाल नहीं पाता, किस आदमी के फोन आने पर मैं भड़क जाता हूं. ये कौन प्रोफेसर हैं जो मेरे गार्जियन की तरह हैं. ये जो पत्रकार है वो कितना ईमानदार है..जब वो देखती कि मैं किसी से प्यार से बतिया रहा हं तो कहती- बुला लीजिए न भइया घर, लखनउ वाली बिरयानी खिलाते हैं बनाकर...

होली आती,दीवाली, नवरात्र...और मैं वही लाइन दोहराता- दीदी, मैं कोई पर्व-त्योहार नहीं मनाता, सो बख्शीश नहीं दे सकता. वो कहती- भइया, हम आपसे मांग रहे हैं लेकिन जो हम ईद आपके घर मनावें तो...वैसे एक बात बोले भइया, मेरे घर में न सब कहतीं है कि ऐसा कौन पगलेट है जो तुमही को चाय बनाकर पिआता है, एक दिन आपसे सब मिलना चाहते हैं..हम टीवी पर दिखाए एक बार आपको..पोती के जलमदिन पर आइएगा न इ बार.

तो एक दिन ईद आ ही गई.

भइया, ऐसा है कि हम छुट्टी तो नहीं करेंगे, बाकी एकदम से आठ बजे आवेंगे और आधे घंटे में चले जांगे.
आधे घंटे क्यों, मत ही आइएगा न, हम कुछ कर लेंगे अपने से..
आप न, खूब पता है क्या कर लेंगे, दिनभर में कॉफी मग की बारात सजा देंगे टेबल पर और बहुत होगा तो मैगी सेहरा बांध जाएगा. हम आवेंगे, मना मत करना.

तो वो ईद की सुबह आ ही जाती. आधा लिटर मदर डेरी की फुलक्रीम दूध. कटे हुए ड्राई फ्रूट्स. जामा मस्जिद बाजार की खास भूरे रंग की सेवइयां और पूरे मनोयोग से पूरे आधे घंटे किचन में. उस दिन और कोई बात नहीं करती..और न ये पूछती- ब्रुश किया है आपने, खाना लाउं. बस एक बार आते ही, नहा लेते न भइया और फिर सीधे रसोई.

बाहर निकलती तो पूरी थाली सजाकर खास भोजन. मेरी आदत सुबह खाने की बिल्कुल नहीं है लेकिन बिना कुछ कहे ईद मुबारक दीदी करके शुरु हो जाता. वो माथे पर पल्लू रखकर मेरे सामने तब तक बैठी रहती, जब तक पूरी तरह खा न लूं.

देखिए भइया, आज इतना कुछ है किचन में कि यार-दोस्त भी बुला सकते हैं. ये नहीं कि सब पड़े रहने दीजिएगा और अगले दिन फेंकनी पड़े. हम कल नहीं आवेंगे. बोलिएगा तो अपने लड़के के हाथ कुछ पूरियां भिजवा देंगे..
अरे नहीं दीदी..आप परेशान मत हो.

दीदी की मुझे आदत हो गई थी..52 साल की महिला जिसके घर दो-दो टाटा सूमो, ट्रक, घर की सारी चीजें, जींस लाइए आपकी वॉशिंग मशीन से धोकर ले आउंगी कहते वक्त मेरा उस रहस्य में खो जाना कि आखिर ये मेरे यहां काम क्यों करती है और जितने पैसे मुझसे लेती है, आधी रकम तो मुझ पर ही लुटा देती है, कभी किचन की चीजें, सिलबट्टा, कभी मेरे लिए खाने की चीजें, समझना मेरे लिए मुश्किल था. उस बीमारी और अकेलेपन के दौर में घर का काम कितना पीछे छूट गया था..आप जो ये मुझे रोज-रोज शादी कर देने की नसीहतें दिया करती हैं न, कल अकेले मत आइएगा, साथ अपनी पसंद की लड़की के साथ आइएगा, या तो मत आइएगा..मेरी झल्लाहट के बीच से उनकी फूटती हंसी, कितना कुछ सामान्य तो जो हमने बचपन में मां के आसपास घिरी महिलाओं में देखा था. मैं अक्सर कहता- आप लखनउ की नही,मेरे बचपन के शहर बिहारशरीफ की हैं.

आज छोड़ दीजिए दीदी, कुछ मत कीजिए. बैठिए और चाय पीजिए. ये बताइए, आपकी पोती टीवी देखती है. वो इस बात से हैरान भी होती कि अभी तो फोन पर किसी को कहा- बहुत बिजी हूं, बाद मं बात करता हू..हमसे गपिआने का समय कहां से निकल आया.
सिफत, हमदोनों एक-दूसरे को लेकर हैरान थे कि एक पैसे लेकर आधी रकम मुझ पर ही खर्च करती है और दूसरा पैसे देकर भी काम न करवाकर गप्प करता है, मेरे लिए ही चाय बनाता है. हम दिल्ली शहर के दो ऐसे वाशिंदे थे जिसने अपने भीतर के खालीपन को एक-दूसरे में खोज लिया था.

दीदी एक महीने के लिए लखनउ चली गई. जाते वक्त नसीहतों का पुलिंदा और आंचल से आंख की कोर पोछती हुई. वापस आवेंगे तो लुगाई तो आ ही जाएगी भइया, हम तब काहे आवेंगे रोज-रोज. इस बीच मेरी दोस्त वंदना ने अपनी मेड एक महीने के लिए भेज दिया. जिसे दीदी कहा तो जाते वक्त टोक दिया- हम दीदी नहीं है, मेरा नाम मुन्नी है. खुद ही बता दिया, इस शहर में मेरी दूसरी दीदी नहीं हो सकती.

मयूर विहार का घर छूट रहा था और दीदी फफक-फफककर रो रही थी..भइया, आप जहां जा रहे हैं, हम बस से आ सकते हैं ?

आप जितना बस में खर्च करेगी, उतने पैसे मैं दूंगा भी नहीं.

कोई बात नहीं. पास बनवा लेंगे. आप हमरा काम छोड़वा देते भइया, बाकी यहीं रहते.

नहीं दीदी, कॉलेज बहुत दूर है न यहां से.

मयूर विहार आवेंगे आप तो बस एक फोन कर दीजिएगा, जहां कहेंगे हम वहीं आ जाएंगे.
ठीक है दीदी.
जाते वक्त मैंने सारा हिसाब कर दिया. वो एक पैसे लेने के लिए तैयार न थी.
जाते-जाते सितम काहे ढाह रहे हो भइया ?
बहुत मनाने पर ले लिया.
गेट बंद करता कि वापस आ गयी और हाथ में मचोड़कर सौ के नोट पकड़ा दिए-
आपके लिए चॉकलेट लाना भूल गई थी.

मयूर विहार छूटा, दीदी का नियमित फोन आना जारी रहा, हाल-चाल, तबीयत..लेख, तहलका,टीवी शो..अगली बार टीवी पर कब आवेंगे, सबकी खोज खबर..हमरी बहू पूछती रहती है आपके बारे में- आपके भइया तो धोखेबाज निकले अम्मी, बोलकर आए नहीं कभी घर ?

कहां गया मेड,कामवाली,मुस्लिम औरत, संभलकर विनीतजी, आजकल जमाना खराब है, किसी का भरोसा नहीं की नसीहतें...सब कबाड़ में तभी चले गए थे.याद रह गया तो बस इतना कि सब काम करनेवाली दीदी नहीं होती और कभी न ब्रेकफास्ट करनेवाला ये शख्स ईद की सुबह हचड़कर ब्रेकफास्ट कर सकता है और बाहर प्लीज डॉन्ट नॉक की चिट लगाकर देर दोपहर तक सो सकता है और वो भी बिना कोई दवाई लिए.

क्षोभ- चलते-चलते दीदी के साथ एक तस्वीर ली थी. कुछ ही महीने बाद मोबाईल चोरी हो गया तो तस्वीर भी गई और उनका नंबर भी. बस गूगल इमेज से हमने उनकी शक्ल मिलान करने की कोशिश की है.
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तो लीजिए, आज जनसत्ता में इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा की सुसाइड करने की कोशिश और चैनल की डांध पर जो लेख छपा, उसे लेकर नसीहत की शक्ल में प्रतिक्रिया आनी शुरु हो गई. ऐसे मेल में हिन्दी सिनेमा के कुछ डायलॉग हैं जिसके शामिल किए जाने की मंशा सिनेमा की प्लॉट का वो इत्तफाकन है जहां मुसीबत में पड़ी , हताश और उदास को उबारने की नियत से नायक आता है और फिर सिनेमा के बाकी हिस्से में दोनों में प्यार हो जाता है..कोटि-कोटि प्रणाम हिन्दी पब्लिक स्फीयर. मीडिया आलोचना में भी ऐसी तरल कथा की संभावना खोज लाने के लिए. मेल का मजमून ऐसा कि जैसे गुरुदत्त की किसी फिल्म की पटकथा का कायाकल्प करके पेश किया गया हो..और नसीहत

नसीहत ये कि किसी भी सिक्के के दो पहलू हैं, आप वो भी देखिए..हजूर हम दो क्या, सिक्के के आठों पहलुओं को देखने के लिए तैयार हैं..आप दिखाएं तो सही. हमारी इंडिया टीवी सहित बाकी चैनलों से शिकायत इस बात को लेकर थोड़े ही न है कि क्या दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं इस मसले पर, इसे लेकर है..आखिर हम जैसे दर्शक हर महीने साढ़े पांच सौ टाटा स्काई पर एक्टिव इंग्लिश और कूकिंग सीखने के लिए थोड़े ही झोंकते हैं. फिलहाल आप भी पढ़िए ये लेख और गर नसीहत देने का ही इरादा बने तो सार्वजनिक रूप से दें--

इंडिया टीवी  की एंकर तनु शर्मा ने अपने अधिकारियों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, ऑफिस की गुटबाजी और आखिर में बिना उनके बताए बर्खास्त कर दिए जाने की स्थिति में ऑफिस के सामने ही जहर खाकर खुदकुशी करने की कोशिश की. इससे पहले उन्होंने चैनल के उन अधिकारियों का नाम लेते हुए सुसाइड नोट की शक्ल में फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया जिसमे इस बात को बार-बार दोहराया कि उसकी मौत के जिम्मेदार यही लोग हैं. सही समय पर अस्पताल पहुंचा दिए जाने पर फिलहाल तनु शर्मा की जान तो बच गई और अब वो अपने घर पर सामान्य होने की स्थिति का इंतजार कर रही है लेकिन इस घटना से एक ही साथ इंडिया टीवी सहित बाकी के समाचार चैनलों को लेकर कई सारी चीजें उघड़कर सामने आ गयीं.

पहली बात तो ये कि 22 जून को तनु शर्मा ने फेसबुक पर जिन अधिकारियों का जिक्र किया और बाद के बयान के आधार पर भारतीय दंड सहिता की धारा 306, 501 और 504 के तहत मामला दर्ज कर लिया गया लेकिन इसकी एक लाइन की भी खबर किसी भी चैनल पर नहीं चली. इसी समय प्रीति जिंटा-नेस वाडिया मामले को लेकर इन चैनलों पर क्रमशः अपराध, मनोरंजन और ब्रेकिंग न्यूज जैसे खबरों के अलग-अलग संस्करण लगातार प्रसारित होते रहे. तनु शर्मा का मामला इससे किसी भी रूप में कम गंभीर और झकझोर देनेवाला नहीं रहा.

दूसरा कि तनु शर्मा ने औपचारिक रूप से अपनी तरफ से कोई इस्तीफा नहीं दिया था बल्कि अपने एक सहकर्मी से मानसिक तनाव साझा करते हुए एसएमएस किया था कि वो अब इस चैनल में काम करने की स्थिति में नहीं है. इस शख्स को भेजा गया एसएमएस घूमते-घूमते एचआर डिपार्टमेंट तक गया और इसे तनु शर्मा का इस्तीफा मानकर उनकी बर्खास्तगी की चिठ्ठी तैयार कर दी गयी.
तीसरी कि तनु शर्मा के हवाले से ये बात भी सामने आयी कि पुरुष अधिकारी के साथ-साथ महिला अधिकारी ने भी उन्हें लगातार अलग-अलग तरीके से परेशान करने का काम किया. मसलन उनके कपड़े से लेकर अपीयरेंस तक पर हल्की बातें कही और जिससे असहमति जताने पर तनु शर्मा पर कार्रवाई किए जाने की धमकी दीं.

और चौथी सबसे महत्वपूर्ण बात कि इंडिया टीवी जैसे चैनल के भीतर यह सब होता रहा और इसकी जानकारी चैनल के सर्वेसर्वा और आप की अदालत के प्रस्तोता रजत शर्मा को नहीं हुई, ये बात एक ही साथ हैरान करने के साथ-साथ अफसोसनाक भी है, ये भला कैसे संभव हो सकता है ?

ये सही है कि अपने चैनल के अधिकारियों और वहां के दमघोंटू माहौल से तंग आकर तनु शर्मा ने जहर खाकर खुदकुशी करने की जो कोशिश की, उसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराया जा सकता. ये सिर्फ एक टीवी एंकर की जिंदगी के प्रति हार जाने को नहीं बल्कि मीडियाकर्मी के उस खोखलेपन को भी उजागर करता है जिसके दावे देश और दुनिया के करोड़ों दर्शकों के आगे करते हैं. तनु शर्मा ने ऐसा करके सांकेतिक रूप से ही सही ये संदेश देने की कोशिश की है कि न्यूज चैनलों की दुनिया में कुछ भी बदला नहीं जा सकता और इससे पार पाने का अंतिम विकल्प आत्महत्या है जो कि सरासर गलत है. वो चाहतीं और शिद्दत से उन विकल्पों की ओर जातीं तो बहुत संभव है कि न केवल उनकी जिंदगी के प्रति यकीन बढ़ता बल्कि संबंधित अधिकारियों और यहां तक की चैनल को भी मुंह की खानी पड़ती. लेकिन ऐसा करके तनु शर्मा ने बेहद ही कमजोर और हताश करनेवाला उदाहरण पेश किया है. कानूनी प्रावधानों के तहत आगे उनके साथ जो भी किया जाएगा, निस्संदेह वह मौत से कम तकलीफदेह नहीं होगे और दूसरा कि प्रोफेशनल दुनिया में भी उनके साथ जो व्यवहार किया जाएगा, वे भी कम दर्दनाक नहीं होंगे.. लेकिन इन सबके बीच न्यूज चैनल की दुनिया की जो शक्ल हमारे सामने उभरकर आती है, वे कहीं ज्यादा खौफनाक, अमानवीय और विद्रूप हैं.

तरुण तेजपाल और महिला पत्रकार यौन उत्पीड़न मामले में टीवी परिचर्चा ( नबम्वर 2013,प्राइम टाइम, एनडीटीवी इंडिया) के दौरान बीइए ( ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) के महासचिव एन.के. सिंह ने कहा था कि क्या लड़की तंग आकर सीधे पंखे से झूल जाए तभी माना जाएगा कि उसका शोषण हुआ है, क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं ? एन.के.सिंह का पंखे से झूलने का आशय आत्महत्या की कोशिश की तरफ बढ़ने से था और दुर्भाग्य से तनु शर्मा ने ये बताने के लिए कि उनका उत्पीड़न किया जा रहा है, वही कदम उठाया..लेकिन बिडंबना देखिए कि ऐसा किए जाने पर भी इंडिया टीवी तो छोड़िए, दूसरे किसी चैनल ने भी एक लाइन की स्टोरी नहीं चलायी. इसी बीइए की तरफ से किसी का कोई बयान नहीं आया और न ही चैनल के रवैये की भर्त्सना की गयी. टेलीविजन के नामचीन चेहरे जो 16 दिसंबर की घटना से लेकर तरुण तेजपाल मामले में लगातार बोलते-लिखते आए, इस मामले में बिल्कुल चुप्पी साध ली. इनमे से अधिकांश जो छोटी से छोटी घटनाओं को लेकर अपनी फेसबुक वॉल पर अपडेट करते रहे हैं, एक-दो को छोड़कर इस पर एक लाइन तक लिखना जरूरी नहीं समझा.

न्यूज चैनलों  का आमतौर पर पैटर्न ये है कि कोई एक घटना पर चलायी गई खबर अगर टीआरपी ट्रेंड में फिट बैठ जाती है तो उसके प्रभाव में उसी मिजाज की एक के बाद एक खबरें प्रसारित होनी शुरु हो जाती है. तब धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनती है कि जैसे देशभर में इसके अलावा कुछ और हो ही नहीं रहा. 16 दिसंबर की घटना से लेकर उत्तर-प्रदेश के बदायूं जिले में लड़कियों के साथ दुष्कर्म के बाद पेड़ से लटका देने की खबर आगे चलकर ऐसे ही पैटर्न बने. इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा की खबर इस लिहाज से भी लगातार चलनी चाहिए थी कि ठीक इसी समय प्रीति जिंटा- नेस वाडिया को लेकर लगातार खबरें प्रसारित होती रहीं जो कि अब भी जारी है..इसके बहाने इस बात पर भी चर्चा होनी शुरु हो गयी कि हाइप्रोफाइल और सिनेमा की दुनिया में स्त्रियों की आजादी कितनी बरकरार है ? ग्लैमर और हाइप्रोफाइल की इस दुनिया तक तो चर्चाएं होतीं रही लेकिन ये कभी टेलीविजन तक खिसककर नहीं आयीं. तनु शर्मा मामले को स्त्री-शोषण, उत्पीड़न और ग्लैमर की चमकीली दुनिया के भीतर की सडांध की बहस से बिल्कुल दूर रखा गया...और ये संयोग न होकर समाचार चैनल उद्योग की रणनीति का हिस्सा है.

इससे पहले भी हेडलाइंस टुडे की मीडियाकर्मी सौम्या विश्वनाथन की आधी रात ऑफिस से लौटते हुए संदेहास्पद स्थिति में मौत हो गई, सबसे तेज होने का दावा करनेवाले इस मीडिया संस्थान ने घंटों एक लाइन तक की खबर नहीं चलायी जबकि पूरा मामला श्रम कानून के उल्लंघन का था. स्टार न्यूज की सायमा सहर ने अपने ही सहकर्मी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और मामला महिला आयोग से लेकर हाई कोर्ट तक गया लेकिन कभी एक लाइन की खबर नहीं चली. तनु शर्मा सहित ये वे घटनाएं हैं जिसे लेकर कोर्ट और पुलिस में बाकायदा मामला दर्ज है, जिन पर खबरें प्रसारित किए जाने पर यह सवाल भी नहीं किया जा सकता कि इन्हें महज कानाफूसी के आधार पर प्रसारित की गई है..लेकिन न्यूज चैनलों के इस रवैये को आपसी समझदारी कहें या अघोषित करार कि देश-दुनिया की छोटी से छोटी घटनाएं जिनमे एलियन गाय का दूध पीते हैं जैसे सवाल से टकराने से लेकर सांसद के घर कटहल चोरी होने तक की घटना पर खबरें प्रसारित किया जाएगा. इधर बीइए जैसी संस्था इस पर प्रेस रिलीज जारी करेगी कि ऐश्वर्या राय की शादी की कवरेज में क्या दिखाना, क्या नहीं दिखाना है लेकिन शोषण-उत्पीड़न की किसी भी तरह की घटना अपनी बिरादरी के भीतर घटित होती है तो मौन सहमति का प्रावधान होगा.

ये सवाल सिर्फ चैनलों और उसकी नियामक संस्था की नैतिकता का नहीं है बल्कि उस दोहरे चरित्र का है जहां वो कोर्ट-कचहरी, पुलिस, कानून इन सबों की मौजूदगी के बीच भी अपने को स्वतंत्र टापू मानते हैं. स्वायत्तता के नाम पर दोमुंहेपन की एक ऐसी बर्बर जमीन तैयार करते हैं जहां एक ही घटना दूसरे संस्थान या व्यक्ति से जुड़े होने पर अपराध और उन पर खबरें प्रसारित करना जनसरोकार का हिस्सा हो जाता है जबकि वही घटना स्वयं मीडिया संस्थान के भीतर होने पर घरलू मामला बनकर चलता कर दिया जाता है. ये कितनी खतरनाक स्थिति है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि चैनल पर तो छोड़िए, टेलीविजन के भूतपूर्व चेहरे और अधिकारी जो रोजमर्रा मीडिया नैतिकता और सरोकार की दुहाई सोशल मीडिया सहित अलग-अलग मंचों से दिया करते हैं, वो भी ऐसे मामले में चुप्प मार जाते हैं कि कहीं इसकी आंच में संभावनाओं के रेशे न झुलस जाएं. चैनलों के आपसी सांठ-गांठ सहित व्यक्तिगत स्तर की चुप्पी हमें न्यूज चैनलों की जिस दुनिया से परिचय कराता है, उसकी छवि अपराधी के आसपास की बनती है, सरोकारी की तो कहीं से नहीं..




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आज पवन( Pawan K Shrivastava) और उसकी टीम की फिल्म "नया पता" रिलीज हो रही है. विस्थापन और अपनी ही जमीन पर पहचान के संकट से जूझते रामस्वार्थ दुबे की कहानी जितनी मार्मिक है, इस फिल्म के बनने की पूरी प्रक्रिया कम दिलचस्प और मार्मिक नहीं है. कुछ महीने पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर में इस फिल्म की स्क्रीनिंग के पहले जब पवन ने विस्तार से इस फिल्म के बनने की प्रक्रिया की चर्चा की तो हम फिल्म देखने के पहले ही उस एहसास से भर गए जो कि इसकी अन्तर्वस्तु से गुजरने के बाद और गाढ़ा होता चला गया..

आपने देखा होगा कि मोहल्ले के वो लौंडे-लफाड़े जिन्हें न तो दो अक्षर पढ़ने से कभी मतलब रहा है और न ही कायदे से बात करने की तमीज रही है, चंदा करके सरस्वती की प्रतिमा बिठाते हैं, दादागिरी से चंदे वसूलते हैं और हमारे मन में धर्म और मूर्ति पूजा के प्रति गहरी हिकारत पैदा करते हैं..चंदा लिए जाने और उसे अपने तरीके से लुटाने के दर्जनों कारण और संस्करण है..हालांकि चंदा लिया जाना अपने आप में एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है बर्शते कि कोई जोर-जबरदस्ती न की जाए.

पवन ने चंदे की इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन रखते हुए आपके जैसे सैंकड़ों लोगों से सौ-दो सौ-पचास रुपये, नकदी के अलावा दूसरे संसाधन जुटाए और एक सिनेमा बनाया- नया पता. इस लिहाज से नया पता की समीक्षा करते हुए अनिवार्य रूप से इसके बनने की प्रक्रिया को शामिल किया जाना जरूरी है..एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत साधन जुटाकर सिनेमा जैसी लोकतांत्रिक विधा का विस्तार..और तब आप इन साधनों से आगे बढ़कर इस पर बात करें तो पवन और उसकी टीम का ये दुस्साहस ही है कि अब आज ये फिल्म पीवीआर के जरिए आपके सिनेमाघरों तक पहुंच रही है.

कायदे से ये फिल्म रामस्वार्थ दुबे जैसे चरित्र पर केन्द्रित होने के बावजूद हम जैसे लाखों विस्थापित लोगों की कहानी को अपने भीतर समेटती है जो अपने कंधे के तरफ पैतृक गांव, कस्बे की यादों को ढोते और दूसरी तरफ जीविका के शहर को ढोते हुए जिंदगी की रेलमपेल से गुजरते चले जाते हैं. कई बार हम दोनों कंधे के बीच एक झीना पर्दा टांग देते हैं और बारी-बारी से दोनों को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं..और गर ऐसा नहीं कर पाते हैं जैसा कि रामस्वार्थ बाबू से न हो सका तो पैतृक गांव हमेशा के लिए छाती में अटककर रह जाता है और चाहते हैं कि जिंदगी का जो उर्वर हिस्सा अंजान शहर में खप गया, बचे हिस्से को इसी गांव के लिए लगा दें...और असल पीड़ा यही से शुरु होती ही..हमारे भीतर तो पैतृक गांव भीतर तक धंसा होता है लेकिन स्वयं गांव हमसे बहुत दूर जाकर छिटक जाता है..हम मन के साथ-साथ शरीर से जितने करीब होते जाते हैं वो उतनी ही अधिक त्रासदी स्थल बनता चला जाता है और इन सबके बीच रिश्ते-नाते सब लुगदी बनकर रह जाते हैं. हम गांव में समा जाना चाहते हैं लेकिन गांव हमें रबर की ट्यूब की तरह सतह पर फेंक देता है, हम उपलाते रह जाते हैं..पूरी फिल्म में ये यंत्रणा की हद तक शामिल है..

लेकिन रामस्वार्थ बाबू का दूसरा जो सबसे मजबूत व्यावहारिक पक्ष है जो नयी पीढ़ी के बहुत करीब से समझता है, भले ही ये एक फार्मूला की शक्ल में हमारे सामने असल जिंदगी में अलग-अलग बहाने से आता रहा है और वो ये कि जो हर दौर के गार्जियन दोहराते आए हैं- जो मेरे साथ हुआ है, वो अपने बाल-बच्चों के साथ नहीं होने देंगे. रामस्वार्थ बाबू का ये एप्रोच संवेदना से भरे शख्स के झीजते जाने के बीच भी संभावनाओं को बचा ले जाता है और यही इस फिल्म की ताकत भी है. अवसाद, आंसू और अजनबीपन के बीच जिंदगी को प्रैक्टिकलिटी में देखने की जद्दोजहद..

पवन ने इसमे संगीत के, साहित्यिक पंक्तियों की कई बरायटी शामिल की है.. ये पहली रचना के प्रति एक खास किस्म का मोह होता है जो कविता संग्रह से लेकर आलोचना तक की पुस्तकों में शामिल होता है कि अपनी रचनात्मकता जितनी बन पड़े, झोंक दो..क्या पता आगे क्या स्थिति बने ? ऐसे में कई बार फिल्म से लेकर पुस्तक तक ठुंसी हुई हो जाती है या फिर संदर्भ कोश बन जाती है जिससे आगे काट-काटकर कई पुस्तकें, फिल्में लिखी बनायी जा सके. पवन की इस फिल्म में दूसरा मामला ज्यादा जान पड़ता है. बीच-बीच में हल्की सी उबाउ या शिथिल पड़ने के बावजूद भी( चाहें तो इसे कॉमिक रिलीफ कह लें) आगे के हिस्से के लिए टेम्पट पैदा करती रहती है और हम आखिर तक इसे देखना चाहते हैं. हां ये जरूर है कि उत्तर-आधुनिक मिजाज लेकर इस फिल्म को अगर आप देखने जाते हैं और मेरी तरह दिल्ली को संभावनाओं का शहर बताकर इसमे ही आखिरी मौज खोजकर खुश हो लेते हैं तो आप अपने भीतर की चटकती जाती कई चीजों को या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर उस हद तक प्रैक्टिकल हो गए हैं कि जिंदगी को समसीमांत उपयोगिता ह्रास नियम( law of marginal utility) से थोड़ा भी इधर-उधर करके देखना नहीं चाहतें.

हम जैसे लोग इस फिल्म को बार-बार देखना चाहेंगे कि उषा प्रियवंदा ने अपनी कहानी वापसी में गजोधर बाबू को जिस मोड पर लाकर खड़ा कर दिया था, पवन उस गजोधर बाबू को रामस्वार्थ दूबे की शक्ल देकर कैसे आत्महंता बनाकर भी संभावित सत्य में परिवर्तित कर देते हैं. बाकी जब फिल्म जनता के पैसे से बनी है तो उस फिल्म से के जरिए राजस्व पैदा करने का काम हम जनता दर्शक बनकर नहीं करेंगे तो क्या इसके लिए भी किसी नायक का इंतजार करना होगा कि निजी हौसले को भी नारे की शक्ल दे और हम ऐसे सिनेमा के लिए अच्छे दिन आने के नशे में धुत्त होकर पड़ जाएं..सिनेमा हॉल तक तो हर हाल में जाना ही होगा.
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पिछले तीन सालों से रेडियो सिटी पर संगीत के सितारों की महफिल पेश कर रहे अमीन सायानी का नया शो सितारों की जवानियां रेडियो के कई कार्यक्रमों का मिला-जुला रूप है. सबसे खास बात ये कि शो को जिस आवाज और अंदाज में सायानी पेश कर रहे हैं, उसमे इसके पहले के शो से ज्यादा ताजगी और खनक है. वक्त गुजरने के साथ सायानी की आवाज पहले से अधिक जवान हुआ है. रेडियो सिलोन. बिनाका गीतमाला से सालों पहले अपनी पहचान बना चुके और लगभग रेडियो की आवाज के पर्याय बन चुके सायानी की निजी एफएम चैनल में वापसी सिनेमा में अमिताभ बच्चन की वापसी जैसी है. फर्क सिर्फ इतना है कि बच्चन ने अपने को जहां अपनी उम्र के हिसाब से पर्सनालिटी को स्टेबल किया, सायानी इससे ठीक उलट अपनी आवाज को.

गौर करें तो भाइयों और बहनों से श्रोताओं को संबोधित करने का सायानी का अंदाज अब भी बरकरार है लेकिन जिन शब्दों का प्रयोग वो अपने इस नए शो में कर रहे हैं, साफ झलक जाता है कि वो जमाने की चलन और रेडियो जॉकी की ट्रेंड से वाकिफ हैं और यही कारण है कि पूरी बातचीत में चुलबुलापन शामिल होता जाता है. इसे आप चाहें तो इस माध्यम की शर्त भी कह सकते हैं.


सितारों की जवानियां अन्नू कपूर के शो सुहाना सफर के काफी करीब है. फर्क सिर्फ ये है कि अमीन सायानी ने इसमें सिलेब्रेटी की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं को और अधिक एक्सक्लूसिव बनाकर पेश करने का काम किया है.  जिस तेजी से एफएम चैनल सिनेमा की पुरानी दुनिया की तरफ लौट रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि अमीन सायानी का शो उनकी खास प्रस्तुति के अंदाज से कहीं ज्यादा उनके खुद के सिनेमा की वीकिपीडिया व्यक्तित्व के कारण श्रोताओं के बीच मशहूर होगा.

मूलतः प्रकाशित, तहलका 30 जून 2014
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दुबेजी की शिमला स्कूल

उस सबूत की शक्ल में कि हां मैंने भी शिमला में "टेलीविजन की भाषा" पर पर्चा पढ़ा था और लोगों के सवालों के जवाब दिए थे "हिन्दी-आधुनिकताः एक पुनर्विचार 1,2,3" किताब आज मिली ये शृंखला तो इसी साल की वर्ल्ड बुक फेयर में ही आ गयी थी और तभी मैंने उलट-पलटकर देख लिया था लेकिन आज जाकर अपनी प्रति हाथ लगी..

कहने को तो हम IIHC ( Indian Institute Of Advance Studies ), शिमला में थे लेकिन कायदे से ये दुबेजी ( अभयकुमार दुबे) की पाठशाला थी जहां बाकी के लोग अपने-अपने से स्वयं अनुशासित रहते जबकि मेरे जैसा चंचल चित्तधारी उनके अंदाज को देखकर जिसकी हमें पढ़ाई को गंभीरता से लेने के बावजूद इस तरह के अनुशासन में रहने की आदत नहीं रही है.

दुबेजी सुबह के आठ बजे फिट-फाट तैयार होकर हमारा एक राउंड लगाकर हाल-चाल ले लेते. मेरे चेहरे पर उस वक्त जिस तरह कबीर की रमैणी तैरती रहती, उन्हें अक्सर दुविधा होती कि ये लड़का अभी सोकर उठा है या फिर अभी सोने जाएगा. ब्रेकफास्ट छूटने का हवाला देते और मैं तत्परता दिखाता लेकिन चार साल तक हॉस्टल में मैं रेगुलर ब्रेकफास्ट छोड़नेवाला रेसीडेंट रहा था सो वहां भी नहीं ही करता. ठीक नौ बजे से सत्र शुरु हो जाते.

दुबेजी बहुत ही सिनेमाई( समांतर सिनेमा के संवाद) में एन्ट्रो देते- आप यहां अपने विषय को लेकर कुछ भी बोलने के लिए आजाद हैं, किसी से भी सवाल करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस संस्थान की छतें इतनी उंची है कि आपके विचार टकराएंगे नहीं. उसके बाद सत्र की जो अध्यक्षता कर रहे होते, अपनी बात रखते हुए एक-एक करके वक्ता को आमंत्रित करते. वक्ता को अपनी बात रखने का पूरे 50 मिनट का समय दिया जाता और उसके बाद करीब डेढ़ घंटे तक आप उनसे सवाल-जवाब कर सकते हैं. इस दौरान एक-एक बात पर जिरह होती और वक्ता की कही बातों और तथ्यों की ऐसी मथाई होती कि हिन्दी के अधिकांश सेमिनारों को जिन लोगों ने समधी-समधन मिलावा समारोह में तब्दील कर दिया है या फिर शहर के बाहर के सेमिनार हमीमून ट्रेवल बनकर रह गए हैं,वो देखकर छितरा जाएं. वो ऐसे मौके पर बस एक ही बात कहते- हमको यहां से जाने दीजिए, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आगे से हम नहीं कहेंगे कि हम स्त्री-विमर्श/दलित विमर्श या फलां विमर्श के प्रतीक पुरुष ऑब्लिक महिला है. एक-दो के साथ ऐसा हुआ भी. हम अपने अंतिम दिन के सत्र की कल्पना करके दहल जाते और रोंगटे खड़े हो जाते कि भाईलोग जीवित और सही सलामत रहने देंगे कि नहीं.खैर

शुरु के दो दिन तो चाय-पानी के बहाने हम बीच-बीच में कट लेते. इतनी लंबी सीटिंग की आदत नहीं रही कभी. घर में पढ़ते हुए हम हर आधे घंटे में उठ जाया करते हैं ताकि हमारी बम्ब ऑक्सीजन ले सके. शिमला में जब भी मैं कुर्सी से उठता, पीछे हाथ फेरकर देख लेता जैसे छोटे बच्चे की माएं ड्रायपर पूर्वयुग में बार-बार छूकर देखा करती थीं कि मटरू ने शु-शु तो नहीं कर दी है. सितंबर की गुलाबी ठंड में भी बम्प पिल-पिले से होने को आते. लेकिन दो दिन के बाद चाय-पानी का इंतजाम डेस्क पर ही कर दिया गया. अब हम बहुमूत्र के रोगी तो थे नहीं कि बार-बार वॉशरूम जाते और गर जाते भी तो एक से सहृदय मौजूद थे कि तुरंत वैद्यसी पर उतर आते. लिहाजा कुर्सी पर देह रोपने की आदत डालनी शुर कर दी और धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा. दिमाग में तब एक ही चीज घूमती- शिमला से दिल्ली जाकर खूब थीअरिज पढ़नी है. मीडिया के अलावा भी बाकी चीजों पर समझ दुरुस्त करनी है. इस बीच सुट्टाबाज आलोचक जरुर किलसकर रह जाते.

सात बजे सत्र खत्म होने के बावजूद दुबेजी उत्तर-विमर्श के लिए तैनात रहते और उस दिन जिनका पर्चा होता, वो भी उनसे बातचीत के लिए तत्पर. लिहाजा बहस अकादमिक सत्र से निकलकर आचमन सत्र तक में समा जाती. मैं उनलोगों के बीच सबसे छोटा वक्ता था और आचमन क्रिया का अभ्यस्त भी नहीं. सो ट्रॉपिकाना की नदी बहायी जाती मेरे लिए. पियो जितना पी सको, मिक्स से लेकर पाइन एप्पल तक, सब.

दिनभर के सत्र के बीच सुबह के नौ बजे से शाम के नौ कब बज जाते, पता ही नहीं चलता. मैं रोज अंडे खाने के बहाने माल रोड चला जाता...और लौटकर ओमप्रकाश वाल्मीकिजी के साथ की गप्प में लग जाता. आचमन क्रिया में ट्रॉपिकाना की गिलास लेकर तभी तक शामिल हुआ जब तक कि संजीव, रविकांत, आदित्य दा ही होते, बाद में जब हमारे शिक्षक भी अपनी बात रखने आ गए तो लिहाज सा होने लगा और हमने खुद ही आचमन सत्र से अपने को अलग कर लिया. लेकिन

इन दस दिनों में दुबेजी के शिमला स्कूल का अजीब सा नशा लेकर दिल्ली लौटा. लौटते हुए खूब किताबें खरीदी. गिलल, गिगापीडिया से खूब सारी किताबें डाउनलोड की और काफी हद तक पढ़ा भी. दुनिया के लोगों के लिए शिमला हनीमून बनाने का एक बेहतर विकल्प और लो बजट के आशिक के लिए वक्त बिताने और इजहार करने का बेहतरीन शहर है लेकिन मेरे लिए शिमला देसी ऑक्सफोर्ड सिटी जैसा हो गया. अब जबकि लोग कहते हैं- चलोगे शिमला घूमने तो मन करता है, कहूं- घूमने या पढ़ने..मुफ्त का दस दिन जिस शहर में सबसे बेहतरीन सुविधाओं के साथ जिस शिमला शहर में बिताया, वहां तफरी के लिए कैसे जाना हो सकेगा ? फिर कभी जाने का मन हुआ तो पढ़ने ही के लिए..शहर के साथ के निजी अनुभव कैसे आपके लिए बिल्कुल अलग अर्थ पैदा कर जाते हैं, सोचता हूं तो लगता है टूरिस्ट बुक से अलग इन अनुभवों की संचयिता निकलनी चाहिए.

एक बात और छूट गयी..माल रोड से जब भी मैं गुजरता था तो साथ ही मुझे उसके नीचे से सरकती कई गलियों के प्रति दिलचस्पी बनती. एक-दो फिल्मों में बल्कि लुटेरा में भी इन गलियों की सीन है..मैं इन संकरी सड़कों और गलियों में उतर जाता. देश के अलग-अलग हिस्से से बिल्कुल न्यूली मैरिड या यंग कपल एक-दो दिन बिताने यहां आए होते..होटलों के आगे मोल-तल करते या फिर आपस की बातचीत से अंदाजा लग जाता कि इन्हें कमरे की सख्त जरुरत है लेकिन मिल नहीं पा रहा. ऐसे समय में मुझे आइआइएससी में मिला मेरा कमरा, कमरा क्या पूरा घर कहिए. दो कमरे, लिविंग स्पेस, किचन की जगह सब, का ध्यान आता. मेरे साथ लिस्ट में अब्दुल बिस्मिल्लाह का भी नाम था लेकिन अपने निजी कारण से आ नहीं पाए तो वो पूरी जगह में मैं अकेला ही रह रहा था, रात में डर भी लगता..मेरा मन करता, पूछूं- आपलोग कितने दिनों के लिए यहां है, एक-दो दिन तो मेरे यहां रह सकते हैं..जो पैसे आप रहने पर खर्च करेंगे, उतने में एक-दूसरे के लिए कुछ खरीद सकेंगे..लेकिन मामला सरकारी था सो कभी साहस नहीं कर सका.. हम खुद परदेसी शिमला के लिए लोकल हो गए थे..बहरहाल
आज से कोई चार साल पहले की कही टेलीविजन की भाषा पर बात है, इस बीच मैंने खुद भी कई मान्यताओं को खारिज किया है, सुधारा है..फिर भी पढ़कर बताइएगा कैसी रही थी बातचीत ?
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दीपिका,

बेहद तकलीफ से लिख रहा हूं. ये सही है कि हम बोतल की गर्दन पर लिखा सही दाम कभी नहीं देखते.क्यों देखें, जो गांव जाना ही नहीं है, उसका रास्ता जानकर क्या हासिल हो जाएगा ! लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि हर बखत( जब भी टीवी देखना होता है) हम तुम्हारी गर्दन ताड़ते रहते हैं. हम उन फ्रस्टुओं में से नहीं हैं कि जो पूरी दुनिया को तिल नजर आता है, हम छूकर कहें कि चींटी रेंग रही थी, सो हटा दिया. इस कुंठा को ढोकर क्या हासिल कर लेंगे ?https://www.youtube.com/watch?v=YRIJoBprqNM


ये सही है कि हमारे एक अंकल( धर्मवीर भारती ) ने एक बार लिख दिया था- इन फिरोजी होंठों पर बर्बाद मेरी जिंदगी और इसके पहिले भी हमारे बाबा लोगन नख-सिख वर्णन करके सिधार गए..लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि हम नई पीढ़ी के लोगों में कोई सुधार नहीं हुआ है. हम इस तरह से तुमको किराना दूकान की रैक की तरह अलग-अलग बांटकर नहीं देखते. सच कहें, यकीन करोगी..जब भी तुम स्क्रीन पर आती हो, हम बस तुम्हें देखते हैं. क्या देखते हैं, उसका आज तलक मेरे पास जवाब नहीं है. कोई पूछ देगा बता ही नहीं सकेंगे कि क्या देखते हैं ? ऐसे में तुम बार-बार बोलती हो कि गर्दन क्यों देख रहे हो तो बुरी तरह हर्ट हो जाता हूं. लगता है हम तुमसे अनुराग रखते हैं औ तुम उसे जबरिया इव टीजिंग में कन्भट करने पर तुली हो. तुम्हारी सिनेमाई भावना करोड़ो में बिक जाती है लेकिन हम भकुआए टीवी दर्शक की भावना बिकती नहीं इसका मतलब ये तो नहीं कि इसका कोई मोल नहीं है. हम अनुराग रखते हैं तो रखते हैं..इसको अलग से बेगरिआने( गिनने) की कभी जरूरत महसूस नहीं हुई.

हम साहित्य का छात्र रहा हूं. एक से एक माटसा मिले जो लड़की के शरीर के एक-एक अंग की उपमाओं की थोक भाव में सप्लाय करते थे. व्यावहारिक जीवन में किसी की आंख बताते हिरणी जैसी, किसी की चाल..लेकिन कम्प्लीट किसी को सुंदर नहीं बताते..हम भुचकुलवा सब पूरा बीए-एम में इसी तरह अलगे-अलगे सबका ब्यूटी खोजने में खेप दिए..लगा नेहरु प्लेस की तरह सैमसंग की मॉनिटर, आइबीएम की सीपीयू, लॉजिटेग की माउस और टीवीएस की कीबोर्ड एस्बेंल करके पीसी बना लेंगे. हम गलत थे. ऐसा अनुराग में थोड़े ही न होता है.

तुम नई-नई सिनेमा में आयी औ एकदम से भांग के माफिक कपार पर चढ़ गई..अब कोई तुम्हारा रंग दबा हुआ कहके उतार दे, सिनेमा में रोल थर्ड क्लास बताके उतार दे, असंभव है..तुमको देखे तो पहली बार उ खंडित-खंडित सौन्दर्य का कॉन्सेप्ट दिमाग से निकला और लगा नहीं..शारीरिक अंगों के अलावा उसकी चेष्टाएं भी सौन्दर्य पैदा करती है..ऐसे में हमारे बाबा-अंकल जो शारीरिक सौष्ठव के जो प्रतिमान बनाके सिधारे, उ सब नहीं भी है तो भी सौन्दर्य संभव है बल्कि और मजबूती से. उसी को आजकल गेस्चर,ऑरा, अपीयरेंस सब बोला जाता है..तो हम तुममे सबसे ज्यादा गौर से देखे एनर्जेटिक अपीयरेंस. ऐसा लड़की जो तार-तार मिजाज को भी सितार बना दे औ फी मन करे तो खुदै ही तार छेड़ो नहीं तो इ कुछ न कुछ ऐसा बोल जाएगा कि अपने आप भीतर कोमल स्वर और वर्जित स्वर का विभाजन होके राग मालकोश बजने लगा. इ कोकवाला विज्ञापन में भी ऐसा ही हुआ है.

तु हमको उपर लाख गर्दन ताड़ने का आरोप लगावो, हट्ट तो हुए ही हैं बुरी तरह औ ज्यादा इस बात से भी कि जो इव टीजिंग का घिनौना काम हम कर ही नहीं रहे हैं, उ इललेम हम पर लगा रही हो और इ बात पर भी कि हम क्या सोचके तुमको औ तुम क्या अलाय-बलाय सोचती हो..हम सपने में भी तुमको लेके ऐसा नहीं सोच सकते हैं..देखेंगे तो ऐसे कोना-भुजड़ी( टुकड़ों-टुकड़ों में) करके तुम्हारा सिरिफ गर्दन.. तुम्हारा टीवी स्क्रीन पर होना छह सौ पचास एमजी का क्रोसिन होना है जो असल जिंदगी का बोखार उतारकर राहत देता है. तुम्हारा होना सौन्दर्य होना है..बाकी सब मचउअल्ल मामला है.

इ एगो चरन्नी सीसी के चक्कर में कहां अपनी गर्दन टिकाकर रूपक अलंकार के बखेड़ा में पड़ गयी..अब इ सब कुच्छो नहीं देखते हैं..पैसा-कौड़ी से कुछ लेना-देना है हमको..न तुमसे हाथ मिलाना है औ न अजय सर( Ajay Brahmatmaj) की तरह सटके फेटू घिचाना है. हमको बस तुमको उस बबली-जबली अंदाज में बस देखते रहना है औ उ भी शारीरिक रूप में नहीं, आंगिक चेष्टाओं के रूप में.

सच बोले, हमको कोक-शोक पीते नहीं हैं औ अबकी लगाके 122 बार बोल चुकी को बोतल की गर्दन पर दाम देखने लेकिन तब्बभी हम उ सब कुछ नहीं देखके एक ही बात का इंतजार में इ विज्ञपन देखते हैं- पागल नहीं तो.. इहै एक लाइन पूरा जान ला देता है विज्ञापन में. नहीं तो पैसा फूंक के नाला के पानी के रंग का इ कोढ़ा-कपार किसको पीना रहता है. संभव हो सके तो इ गर्दन ताड़े-बाला बात कहके मालिक से हटवा दो न, वेवजह का अपने उपर इल्जाम जैसा लगता है. एगो बात औ रह ग गया. हियां दिल्ली में पियास से मार गला रेगिस्तान हो गया है औ तुम हुआं बम्बै में बैठके पहिले अपने हड़हड़ाके कोक पीती हो औ फिर डांटने दबारने लग जाती हो. बिना पिए भी तो सब बात बोल सकती हो या फिर सिर्फ पीकर औ बिना कुछ बोले भी तो कोक बेच सकती हो. इ भी देख लेना तनी.
तुम्हारा
मीसिकंस( मीडिया सिलेबस कंटेंट सप्लायर)
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हजार-दो हजार की रकम की चेक पर साइन करते वक्त पापा ऐसे कराह उठते कि जैसे अपनी पूरी मिल्कियत एक ऐसे नालायक लौंड़े के नाम करने जा रहे हों जो पूरी की पूरी एकाध दिन में कविता, कहानी, उपन्यासों की किताबों पर लुटाकर हाथ झाड़कर खड़ा हो जाएगा और बीच सड़क पर बोकराती छांटने लगेगा-
जिंदगी में पैसा-वैसा कुछ नहीं है, असल चीज है इमोशनल थस्ट. पैसा अगर ये कर पा रहा है तो वेल एंड गुड और अगर नहीं कर पा रहा है तो उड़ा दो. वैसे ये थस्ट पूरी होती है मैला आंचल जैसे उपन्यास पढ़ने और खरीदकर बांटने से. ऐसे में मैला आंचल उपन्यास नहीं, विचारधारा है.

पापा जब चेक के कर्मकांड जिसमे तारीख डालने से लेकर, रकम की कई स्तरों पर जांच तक शामिल होती तो निगाहें इतनी गहरी टिकी होती कि हमने कभी यूजीसी-जेआरएफ की बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ सवालों के आगे भी न डाले होंगे. इस चुस्त निगाहों की देखरेख में जबरदस्त सुंदर लिखावट जैसे कि मां की मूंगाकोटा साड़ी का फूलदार पल्लू कागजों पर उतर आया हो. रोशानाई को मोतियों की शक्ल में ढलते हमने पापा के हाथों जी-भरकर देखा है. लेकिन इस सुंदर लिखावट और चुस्त निगाहों के बीच तल्लीनता से रचे जिस सौन्दर्य का विस्तार होता, उसी के बीच एक खास किस्म के काईयांपन की कछारें भी पनपती नजर आती और तभी मेरे भीतर उनका वो काईंयापन धकियाकर सौन्दर्य को धीरे-धीरे दरकिनार कर देता. ऐसा लगातार होता रहा.

कॉलेज तक आते-आते पापा मुझे पूंजीवाद के प्रतीक पुरुष लगने लगे और उनकी दी गई राशि/चेक सीएसआर का हिस्सा. लिहाजा भीतर प्रतिरोध के स्वर पनपने शुरु हो गए और एक टीनएजर फैंटेसी आकार लेने लगा- किसी दिन इससे सौ गुणा रकम की चेक काटकर इऩ्हें दूंगा बल्कि चेक काटूंगा भी उनके ही सामने. उनकी तरह इत्मिनान से नहीं. एकदम घसीटा मारकर ताकि कोई भी राइटिंग देखकर ही अंदाजा लगा ले कि इसकी जिंदगी में दस-बीस लाख कोई मायने नहीं रखता और इतनी व्यस्तता होती है कि ठीक से लिखने का सामय तक नहीं होता. एकाध भूल हो तो हो सही, पापा को मिर्ची लगे तो लगे अपनी बला से.

जिंदगी में आज पहली बार अपने नाम चेकबुक मिली और वो भी बारह ततबीर( झंझट) के बाद. हाथ में लेते ही लगा- पहली चेक तो पापा के नाम ही बनता है, वही इमोशनल थस्ट वाला चक्कर. मन तो किया कि सीधे पांच करोड़ की कांटू, घर जाने पर उनके हाथों में पकड़ाउं और आगे अमिताभ बच्चन की केबीसी की डायलॉग ठेल दूं..छूकर देखिए, कैसा महसूस कर रहे हैं. फिर अकाउंट की प्रकृति के अनुसार चेकबुक की हैसियत देखी तो समझ आया, दस लाख से ज्यादा की काट नहीं सकते. खैर कोई बात नहीं. केबीसी डायलॉग की गुंजाईश यहां भी है. तो मैं आपको दे रहा हूं पूरे दस लाख. लेकिन हमारे और आपके बीच गेम अभी यहीं खत्म नहीं हुआ है. इसे मैं अपने पास रख ले रहा हूं और अगली बार जब घर आया तो आपको दूंगा पूरे पांच करोड़ की चेक... हां, ये जरूर है कि वो इस रकम को मजाक के बदले संस्कार से जोड़ देगे- रक्खो, अपने पास, हम हराम का एक रुपया नहीं लेते, जिसकी कमाई का साधन ही गलत हो, उसके लिए रुपया ढेला-पत्थर है.( सिकंस इमानदारी और एपेशेवर होकर भला पांच करोड़ रुपये कहां से लाएगा ?) 

मुझे पता है कि गलती से इस चेक को अगर पापा ने जमा कर दिया तो बाउंस होने और उसके बाद की कानूनी कार्रवाई होने से मुझे कोई रोक नहीं सकता. लेकिन फिर टीनएज की मेरी उस थस्ट का क्या और फिर शुद्ध हवाबाजी इतना सोच-समझकर थोड़े न की जाती है.
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