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तो लीजिए, आज जनसत्ता में इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा की सुसाइड करने की कोशिश और चैनल की डांध पर जो लेख छपा, उसे लेकर नसीहत की शक्ल में प्रतिक्रिया आनी शुरु हो गई. ऐसे मेल में हिन्दी सिनेमा के कुछ डायलॉग हैं जिसके शामिल किए जाने की मंशा सिनेमा की प्लॉट का वो इत्तफाकन है जहां मुसीबत में पड़ी , हताश और उदास को उबारने की नियत से नायक आता है और फिर सिनेमा के बाकी हिस्से में दोनों में प्यार हो जाता है..कोटि-कोटि प्रणाम हिन्दी पब्लिक स्फीयर. मीडिया आलोचना में भी ऐसी तरल कथा की संभावना खोज लाने के लिए. मेल का मजमून ऐसा कि जैसे गुरुदत्त की किसी फिल्म की पटकथा का कायाकल्प करके पेश किया गया हो..और नसीहत

नसीहत ये कि किसी भी सिक्के के दो पहलू हैं, आप वो भी देखिए..हजूर हम दो क्या, सिक्के के आठों पहलुओं को देखने के लिए तैयार हैं..आप दिखाएं तो सही. हमारी इंडिया टीवी सहित बाकी चैनलों से शिकायत इस बात को लेकर थोड़े ही न है कि क्या दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं इस मसले पर, इसे लेकर है..आखिर हम जैसे दर्शक हर महीने साढ़े पांच सौ टाटा स्काई पर एक्टिव इंग्लिश और कूकिंग सीखने के लिए थोड़े ही झोंकते हैं. फिलहाल आप भी पढ़िए ये लेख और गर नसीहत देने का ही इरादा बने तो सार्वजनिक रूप से दें--

इंडिया टीवी  की एंकर तनु शर्मा ने अपने अधिकारियों द्वारा उत्पीड़ित किए जाने, ऑफिस की गुटबाजी और आखिर में बिना उनके बताए बर्खास्त कर दिए जाने की स्थिति में ऑफिस के सामने ही जहर खाकर खुदकुशी करने की कोशिश की. इससे पहले उन्होंने चैनल के उन अधिकारियों का नाम लेते हुए सुसाइड नोट की शक्ल में फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया जिसमे इस बात को बार-बार दोहराया कि उसकी मौत के जिम्मेदार यही लोग हैं. सही समय पर अस्पताल पहुंचा दिए जाने पर फिलहाल तनु शर्मा की जान तो बच गई और अब वो अपने घर पर सामान्य होने की स्थिति का इंतजार कर रही है लेकिन इस घटना से एक ही साथ इंडिया टीवी सहित बाकी के समाचार चैनलों को लेकर कई सारी चीजें उघड़कर सामने आ गयीं.

पहली बात तो ये कि 22 जून को तनु शर्मा ने फेसबुक पर जिन अधिकारियों का जिक्र किया और बाद के बयान के आधार पर भारतीय दंड सहिता की धारा 306, 501 और 504 के तहत मामला दर्ज कर लिया गया लेकिन इसकी एक लाइन की भी खबर किसी भी चैनल पर नहीं चली. इसी समय प्रीति जिंटा-नेस वाडिया मामले को लेकर इन चैनलों पर क्रमशः अपराध, मनोरंजन और ब्रेकिंग न्यूज जैसे खबरों के अलग-अलग संस्करण लगातार प्रसारित होते रहे. तनु शर्मा का मामला इससे किसी भी रूप में कम गंभीर और झकझोर देनेवाला नहीं रहा.

दूसरा कि तनु शर्मा ने औपचारिक रूप से अपनी तरफ से कोई इस्तीफा नहीं दिया था बल्कि अपने एक सहकर्मी से मानसिक तनाव साझा करते हुए एसएमएस किया था कि वो अब इस चैनल में काम करने की स्थिति में नहीं है. इस शख्स को भेजा गया एसएमएस घूमते-घूमते एचआर डिपार्टमेंट तक गया और इसे तनु शर्मा का इस्तीफा मानकर उनकी बर्खास्तगी की चिठ्ठी तैयार कर दी गयी.
तीसरी कि तनु शर्मा के हवाले से ये बात भी सामने आयी कि पुरुष अधिकारी के साथ-साथ महिला अधिकारी ने भी उन्हें लगातार अलग-अलग तरीके से परेशान करने का काम किया. मसलन उनके कपड़े से लेकर अपीयरेंस तक पर हल्की बातें कही और जिससे असहमति जताने पर तनु शर्मा पर कार्रवाई किए जाने की धमकी दीं.

और चौथी सबसे महत्वपूर्ण बात कि इंडिया टीवी जैसे चैनल के भीतर यह सब होता रहा और इसकी जानकारी चैनल के सर्वेसर्वा और आप की अदालत के प्रस्तोता रजत शर्मा को नहीं हुई, ये बात एक ही साथ हैरान करने के साथ-साथ अफसोसनाक भी है, ये भला कैसे संभव हो सकता है ?

ये सही है कि अपने चैनल के अधिकारियों और वहां के दमघोंटू माहौल से तंग आकर तनु शर्मा ने जहर खाकर खुदकुशी करने की जो कोशिश की, उसे किसी भी रूप में जायज नहीं ठहराया जा सकता. ये सिर्फ एक टीवी एंकर की जिंदगी के प्रति हार जाने को नहीं बल्कि मीडियाकर्मी के उस खोखलेपन को भी उजागर करता है जिसके दावे देश और दुनिया के करोड़ों दर्शकों के आगे करते हैं. तनु शर्मा ने ऐसा करके सांकेतिक रूप से ही सही ये संदेश देने की कोशिश की है कि न्यूज चैनलों की दुनिया में कुछ भी बदला नहीं जा सकता और इससे पार पाने का अंतिम विकल्प आत्महत्या है जो कि सरासर गलत है. वो चाहतीं और शिद्दत से उन विकल्पों की ओर जातीं तो बहुत संभव है कि न केवल उनकी जिंदगी के प्रति यकीन बढ़ता बल्कि संबंधित अधिकारियों और यहां तक की चैनल को भी मुंह की खानी पड़ती. लेकिन ऐसा करके तनु शर्मा ने बेहद ही कमजोर और हताश करनेवाला उदाहरण पेश किया है. कानूनी प्रावधानों के तहत आगे उनके साथ जो भी किया जाएगा, निस्संदेह वह मौत से कम तकलीफदेह नहीं होगे और दूसरा कि प्रोफेशनल दुनिया में भी उनके साथ जो व्यवहार किया जाएगा, वे भी कम दर्दनाक नहीं होंगे.. लेकिन इन सबके बीच न्यूज चैनल की दुनिया की जो शक्ल हमारे सामने उभरकर आती है, वे कहीं ज्यादा खौफनाक, अमानवीय और विद्रूप हैं.

तरुण तेजपाल और महिला पत्रकार यौन उत्पीड़न मामले में टीवी परिचर्चा ( नबम्वर 2013,प्राइम टाइम, एनडीटीवी इंडिया) के दौरान बीइए ( ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) के महासचिव एन.के. सिंह ने कहा था कि क्या लड़की तंग आकर सीधे पंखे से झूल जाए तभी माना जाएगा कि उसका शोषण हुआ है, क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं ? एन.के.सिंह का पंखे से झूलने का आशय आत्महत्या की कोशिश की तरफ बढ़ने से था और दुर्भाग्य से तनु शर्मा ने ये बताने के लिए कि उनका उत्पीड़न किया जा रहा है, वही कदम उठाया..लेकिन बिडंबना देखिए कि ऐसा किए जाने पर भी इंडिया टीवी तो छोड़िए, दूसरे किसी चैनल ने भी एक लाइन की स्टोरी नहीं चलायी. इसी बीइए की तरफ से किसी का कोई बयान नहीं आया और न ही चैनल के रवैये की भर्त्सना की गयी. टेलीविजन के नामचीन चेहरे जो 16 दिसंबर की घटना से लेकर तरुण तेजपाल मामले में लगातार बोलते-लिखते आए, इस मामले में बिल्कुल चुप्पी साध ली. इनमे से अधिकांश जो छोटी से छोटी घटनाओं को लेकर अपनी फेसबुक वॉल पर अपडेट करते रहे हैं, एक-दो को छोड़कर इस पर एक लाइन तक लिखना जरूरी नहीं समझा.

न्यूज चैनलों  का आमतौर पर पैटर्न ये है कि कोई एक घटना पर चलायी गई खबर अगर टीआरपी ट्रेंड में फिट बैठ जाती है तो उसके प्रभाव में उसी मिजाज की एक के बाद एक खबरें प्रसारित होनी शुरु हो जाती है. तब धीरे-धीरे स्थिति ऐसी बनती है कि जैसे देशभर में इसके अलावा कुछ और हो ही नहीं रहा. 16 दिसंबर की घटना से लेकर उत्तर-प्रदेश के बदायूं जिले में लड़कियों के साथ दुष्कर्म के बाद पेड़ से लटका देने की खबर आगे चलकर ऐसे ही पैटर्न बने. इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा की खबर इस लिहाज से भी लगातार चलनी चाहिए थी कि ठीक इसी समय प्रीति जिंटा- नेस वाडिया को लेकर लगातार खबरें प्रसारित होती रहीं जो कि अब भी जारी है..इसके बहाने इस बात पर भी चर्चा होनी शुरु हो गयी कि हाइप्रोफाइल और सिनेमा की दुनिया में स्त्रियों की आजादी कितनी बरकरार है ? ग्लैमर और हाइप्रोफाइल की इस दुनिया तक तो चर्चाएं होतीं रही लेकिन ये कभी टेलीविजन तक खिसककर नहीं आयीं. तनु शर्मा मामले को स्त्री-शोषण, उत्पीड़न और ग्लैमर की चमकीली दुनिया के भीतर की सडांध की बहस से बिल्कुल दूर रखा गया...और ये संयोग न होकर समाचार चैनल उद्योग की रणनीति का हिस्सा है.

इससे पहले भी हेडलाइंस टुडे की मीडियाकर्मी सौम्या विश्वनाथन की आधी रात ऑफिस से लौटते हुए संदेहास्पद स्थिति में मौत हो गई, सबसे तेज होने का दावा करनेवाले इस मीडिया संस्थान ने घंटों एक लाइन तक की खबर नहीं चलायी जबकि पूरा मामला श्रम कानून के उल्लंघन का था. स्टार न्यूज की सायमा सहर ने अपने ही सहकर्मी पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया और मामला महिला आयोग से लेकर हाई कोर्ट तक गया लेकिन कभी एक लाइन की खबर नहीं चली. तनु शर्मा सहित ये वे घटनाएं हैं जिसे लेकर कोर्ट और पुलिस में बाकायदा मामला दर्ज है, जिन पर खबरें प्रसारित किए जाने पर यह सवाल भी नहीं किया जा सकता कि इन्हें महज कानाफूसी के आधार पर प्रसारित की गई है..लेकिन न्यूज चैनलों के इस रवैये को आपसी समझदारी कहें या अघोषित करार कि देश-दुनिया की छोटी से छोटी घटनाएं जिनमे एलियन गाय का दूध पीते हैं जैसे सवाल से टकराने से लेकर सांसद के घर कटहल चोरी होने तक की घटना पर खबरें प्रसारित किया जाएगा. इधर बीइए जैसी संस्था इस पर प्रेस रिलीज जारी करेगी कि ऐश्वर्या राय की शादी की कवरेज में क्या दिखाना, क्या नहीं दिखाना है लेकिन शोषण-उत्पीड़न की किसी भी तरह की घटना अपनी बिरादरी के भीतर घटित होती है तो मौन सहमति का प्रावधान होगा.

ये सवाल सिर्फ चैनलों और उसकी नियामक संस्था की नैतिकता का नहीं है बल्कि उस दोहरे चरित्र का है जहां वो कोर्ट-कचहरी, पुलिस, कानून इन सबों की मौजूदगी के बीच भी अपने को स्वतंत्र टापू मानते हैं. स्वायत्तता के नाम पर दोमुंहेपन की एक ऐसी बर्बर जमीन तैयार करते हैं जहां एक ही घटना दूसरे संस्थान या व्यक्ति से जुड़े होने पर अपराध और उन पर खबरें प्रसारित करना जनसरोकार का हिस्सा हो जाता है जबकि वही घटना स्वयं मीडिया संस्थान के भीतर होने पर घरलू मामला बनकर चलता कर दिया जाता है. ये कितनी खतरनाक स्थिति है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि चैनल पर तो छोड़िए, टेलीविजन के भूतपूर्व चेहरे और अधिकारी जो रोजमर्रा मीडिया नैतिकता और सरोकार की दुहाई सोशल मीडिया सहित अलग-अलग मंचों से दिया करते हैं, वो भी ऐसे मामले में चुप्प मार जाते हैं कि कहीं इसकी आंच में संभावनाओं के रेशे न झुलस जाएं. चैनलों के आपसी सांठ-गांठ सहित व्यक्तिगत स्तर की चुप्पी हमें न्यूज चैनलों की जिस दुनिया से परिचय कराता है, उसकी छवि अपराधी के आसपास की बनती है, सरोकारी की तो कहीं से नहीं..




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आज पवन( Pawan K Shrivastava) और उसकी टीम की फिल्म "नया पता" रिलीज हो रही है. विस्थापन और अपनी ही जमीन पर पहचान के संकट से जूझते रामस्वार्थ दुबे की कहानी जितनी मार्मिक है, इस फिल्म के बनने की पूरी प्रक्रिया कम दिलचस्प और मार्मिक नहीं है. कुछ महीने पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर में इस फिल्म की स्क्रीनिंग के पहले जब पवन ने विस्तार से इस फिल्म के बनने की प्रक्रिया की चर्चा की तो हम फिल्म देखने के पहले ही उस एहसास से भर गए जो कि इसकी अन्तर्वस्तु से गुजरने के बाद और गाढ़ा होता चला गया..

आपने देखा होगा कि मोहल्ले के वो लौंडे-लफाड़े जिन्हें न तो दो अक्षर पढ़ने से कभी मतलब रहा है और न ही कायदे से बात करने की तमीज रही है, चंदा करके सरस्वती की प्रतिमा बिठाते हैं, दादागिरी से चंदे वसूलते हैं और हमारे मन में धर्म और मूर्ति पूजा के प्रति गहरी हिकारत पैदा करते हैं..चंदा लिए जाने और उसे अपने तरीके से लुटाने के दर्जनों कारण और संस्करण है..हालांकि चंदा लिया जाना अपने आप में एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है बर्शते कि कोई जोर-जबरदस्ती न की जाए.

पवन ने चंदे की इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन रखते हुए आपके जैसे सैंकड़ों लोगों से सौ-दो सौ-पचास रुपये, नकदी के अलावा दूसरे संसाधन जुटाए और एक सिनेमा बनाया- नया पता. इस लिहाज से नया पता की समीक्षा करते हुए अनिवार्य रूप से इसके बनने की प्रक्रिया को शामिल किया जाना जरूरी है..एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत साधन जुटाकर सिनेमा जैसी लोकतांत्रिक विधा का विस्तार..और तब आप इन साधनों से आगे बढ़कर इस पर बात करें तो पवन और उसकी टीम का ये दुस्साहस ही है कि अब आज ये फिल्म पीवीआर के जरिए आपके सिनेमाघरों तक पहुंच रही है.

कायदे से ये फिल्म रामस्वार्थ दुबे जैसे चरित्र पर केन्द्रित होने के बावजूद हम जैसे लाखों विस्थापित लोगों की कहानी को अपने भीतर समेटती है जो अपने कंधे के तरफ पैतृक गांव, कस्बे की यादों को ढोते और दूसरी तरफ जीविका के शहर को ढोते हुए जिंदगी की रेलमपेल से गुजरते चले जाते हैं. कई बार हम दोनों कंधे के बीच एक झीना पर्दा टांग देते हैं और बारी-बारी से दोनों को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं..और गर ऐसा नहीं कर पाते हैं जैसा कि रामस्वार्थ बाबू से न हो सका तो पैतृक गांव हमेशा के लिए छाती में अटककर रह जाता है और चाहते हैं कि जिंदगी का जो उर्वर हिस्सा अंजान शहर में खप गया, बचे हिस्से को इसी गांव के लिए लगा दें...और असल पीड़ा यही से शुरु होती ही..हमारे भीतर तो पैतृक गांव भीतर तक धंसा होता है लेकिन स्वयं गांव हमसे बहुत दूर जाकर छिटक जाता है..हम मन के साथ-साथ शरीर से जितने करीब होते जाते हैं वो उतनी ही अधिक त्रासदी स्थल बनता चला जाता है और इन सबके बीच रिश्ते-नाते सब लुगदी बनकर रह जाते हैं. हम गांव में समा जाना चाहते हैं लेकिन गांव हमें रबर की ट्यूब की तरह सतह पर फेंक देता है, हम उपलाते रह जाते हैं..पूरी फिल्म में ये यंत्रणा की हद तक शामिल है..

लेकिन रामस्वार्थ बाबू का दूसरा जो सबसे मजबूत व्यावहारिक पक्ष है जो नयी पीढ़ी के बहुत करीब से समझता है, भले ही ये एक फार्मूला की शक्ल में हमारे सामने असल जिंदगी में अलग-अलग बहाने से आता रहा है और वो ये कि जो हर दौर के गार्जियन दोहराते आए हैं- जो मेरे साथ हुआ है, वो अपने बाल-बच्चों के साथ नहीं होने देंगे. रामस्वार्थ बाबू का ये एप्रोच संवेदना से भरे शख्स के झीजते जाने के बीच भी संभावनाओं को बचा ले जाता है और यही इस फिल्म की ताकत भी है. अवसाद, आंसू और अजनबीपन के बीच जिंदगी को प्रैक्टिकलिटी में देखने की जद्दोजहद..

पवन ने इसमे संगीत के, साहित्यिक पंक्तियों की कई बरायटी शामिल की है.. ये पहली रचना के प्रति एक खास किस्म का मोह होता है जो कविता संग्रह से लेकर आलोचना तक की पुस्तकों में शामिल होता है कि अपनी रचनात्मकता जितनी बन पड़े, झोंक दो..क्या पता आगे क्या स्थिति बने ? ऐसे में कई बार फिल्म से लेकर पुस्तक तक ठुंसी हुई हो जाती है या फिर संदर्भ कोश बन जाती है जिससे आगे काट-काटकर कई पुस्तकें, फिल्में लिखी बनायी जा सके. पवन की इस फिल्म में दूसरा मामला ज्यादा जान पड़ता है. बीच-बीच में हल्की सी उबाउ या शिथिल पड़ने के बावजूद भी( चाहें तो इसे कॉमिक रिलीफ कह लें) आगे के हिस्से के लिए टेम्पट पैदा करती रहती है और हम आखिर तक इसे देखना चाहते हैं. हां ये जरूर है कि उत्तर-आधुनिक मिजाज लेकर इस फिल्म को अगर आप देखने जाते हैं और मेरी तरह दिल्ली को संभावनाओं का शहर बताकर इसमे ही आखिरी मौज खोजकर खुश हो लेते हैं तो आप अपने भीतर की चटकती जाती कई चीजों को या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर उस हद तक प्रैक्टिकल हो गए हैं कि जिंदगी को समसीमांत उपयोगिता ह्रास नियम( law of marginal utility) से थोड़ा भी इधर-उधर करके देखना नहीं चाहतें.

हम जैसे लोग इस फिल्म को बार-बार देखना चाहेंगे कि उषा प्रियवंदा ने अपनी कहानी वापसी में गजोधर बाबू को जिस मोड पर लाकर खड़ा कर दिया था, पवन उस गजोधर बाबू को रामस्वार्थ दूबे की शक्ल देकर कैसे आत्महंता बनाकर भी संभावित सत्य में परिवर्तित कर देते हैं. बाकी जब फिल्म जनता के पैसे से बनी है तो उस फिल्म से के जरिए राजस्व पैदा करने का काम हम जनता दर्शक बनकर नहीं करेंगे तो क्या इसके लिए भी किसी नायक का इंतजार करना होगा कि निजी हौसले को भी नारे की शक्ल दे और हम ऐसे सिनेमा के लिए अच्छे दिन आने के नशे में धुत्त होकर पड़ जाएं..सिनेमा हॉल तक तो हर हाल में जाना ही होगा.
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पिछले तीन सालों से रेडियो सिटी पर संगीत के सितारों की महफिल पेश कर रहे अमीन सायानी का नया शो सितारों की जवानियां रेडियो के कई कार्यक्रमों का मिला-जुला रूप है. सबसे खास बात ये कि शो को जिस आवाज और अंदाज में सायानी पेश कर रहे हैं, उसमे इसके पहले के शो से ज्यादा ताजगी और खनक है. वक्त गुजरने के साथ सायानी की आवाज पहले से अधिक जवान हुआ है. रेडियो सिलोन. बिनाका गीतमाला से सालों पहले अपनी पहचान बना चुके और लगभग रेडियो की आवाज के पर्याय बन चुके सायानी की निजी एफएम चैनल में वापसी सिनेमा में अमिताभ बच्चन की वापसी जैसी है. फर्क सिर्फ इतना है कि बच्चन ने अपने को जहां अपनी उम्र के हिसाब से पर्सनालिटी को स्टेबल किया, सायानी इससे ठीक उलट अपनी आवाज को.

गौर करें तो भाइयों और बहनों से श्रोताओं को संबोधित करने का सायानी का अंदाज अब भी बरकरार है लेकिन जिन शब्दों का प्रयोग वो अपने इस नए शो में कर रहे हैं, साफ झलक जाता है कि वो जमाने की चलन और रेडियो जॉकी की ट्रेंड से वाकिफ हैं और यही कारण है कि पूरी बातचीत में चुलबुलापन शामिल होता जाता है. इसे आप चाहें तो इस माध्यम की शर्त भी कह सकते हैं.


सितारों की जवानियां अन्नू कपूर के शो सुहाना सफर के काफी करीब है. फर्क सिर्फ ये है कि अमीन सायानी ने इसमें सिलेब्रेटी की जिंदगी से जुड़ी घटनाओं को और अधिक एक्सक्लूसिव बनाकर पेश करने का काम किया है.  जिस तेजी से एफएम चैनल सिनेमा की पुरानी दुनिया की तरफ लौट रहा है, उम्मीद की जानी चाहिए कि अमीन सायानी का शो उनकी खास प्रस्तुति के अंदाज से कहीं ज्यादा उनके खुद के सिनेमा की वीकिपीडिया व्यक्तित्व के कारण श्रोताओं के बीच मशहूर होगा.

मूलतः प्रकाशित, तहलका 30 जून 2014
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दुबेजी की शिमला स्कूल

उस सबूत की शक्ल में कि हां मैंने भी शिमला में "टेलीविजन की भाषा" पर पर्चा पढ़ा था और लोगों के सवालों के जवाब दिए थे "हिन्दी-आधुनिकताः एक पुनर्विचार 1,2,3" किताब आज मिली ये शृंखला तो इसी साल की वर्ल्ड बुक फेयर में ही आ गयी थी और तभी मैंने उलट-पलटकर देख लिया था लेकिन आज जाकर अपनी प्रति हाथ लगी..

कहने को तो हम IIHC ( Indian Institute Of Advance Studies ), शिमला में थे लेकिन कायदे से ये दुबेजी ( अभयकुमार दुबे) की पाठशाला थी जहां बाकी के लोग अपने-अपने से स्वयं अनुशासित रहते जबकि मेरे जैसा चंचल चित्तधारी उनके अंदाज को देखकर जिसकी हमें पढ़ाई को गंभीरता से लेने के बावजूद इस तरह के अनुशासन में रहने की आदत नहीं रही है.

दुबेजी सुबह के आठ बजे फिट-फाट तैयार होकर हमारा एक राउंड लगाकर हाल-चाल ले लेते. मेरे चेहरे पर उस वक्त जिस तरह कबीर की रमैणी तैरती रहती, उन्हें अक्सर दुविधा होती कि ये लड़का अभी सोकर उठा है या फिर अभी सोने जाएगा. ब्रेकफास्ट छूटने का हवाला देते और मैं तत्परता दिखाता लेकिन चार साल तक हॉस्टल में मैं रेगुलर ब्रेकफास्ट छोड़नेवाला रेसीडेंट रहा था सो वहां भी नहीं ही करता. ठीक नौ बजे से सत्र शुरु हो जाते.

दुबेजी बहुत ही सिनेमाई( समांतर सिनेमा के संवाद) में एन्ट्रो देते- आप यहां अपने विषय को लेकर कुछ भी बोलने के लिए आजाद हैं, किसी से भी सवाल करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस संस्थान की छतें इतनी उंची है कि आपके विचार टकराएंगे नहीं. उसके बाद सत्र की जो अध्यक्षता कर रहे होते, अपनी बात रखते हुए एक-एक करके वक्ता को आमंत्रित करते. वक्ता को अपनी बात रखने का पूरे 50 मिनट का समय दिया जाता और उसके बाद करीब डेढ़ घंटे तक आप उनसे सवाल-जवाब कर सकते हैं. इस दौरान एक-एक बात पर जिरह होती और वक्ता की कही बातों और तथ्यों की ऐसी मथाई होती कि हिन्दी के अधिकांश सेमिनारों को जिन लोगों ने समधी-समधन मिलावा समारोह में तब्दील कर दिया है या फिर शहर के बाहर के सेमिनार हमीमून ट्रेवल बनकर रह गए हैं,वो देखकर छितरा जाएं. वो ऐसे मौके पर बस एक ही बात कहते- हमको यहां से जाने दीजिए, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आगे से हम नहीं कहेंगे कि हम स्त्री-विमर्श/दलित विमर्श या फलां विमर्श के प्रतीक पुरुष ऑब्लिक महिला है. एक-दो के साथ ऐसा हुआ भी. हम अपने अंतिम दिन के सत्र की कल्पना करके दहल जाते और रोंगटे खड़े हो जाते कि भाईलोग जीवित और सही सलामत रहने देंगे कि नहीं.खैर

शुरु के दो दिन तो चाय-पानी के बहाने हम बीच-बीच में कट लेते. इतनी लंबी सीटिंग की आदत नहीं रही कभी. घर में पढ़ते हुए हम हर आधे घंटे में उठ जाया करते हैं ताकि हमारी बम्ब ऑक्सीजन ले सके. शिमला में जब भी मैं कुर्सी से उठता, पीछे हाथ फेरकर देख लेता जैसे छोटे बच्चे की माएं ड्रायपर पूर्वयुग में बार-बार छूकर देखा करती थीं कि मटरू ने शु-शु तो नहीं कर दी है. सितंबर की गुलाबी ठंड में भी बम्प पिल-पिले से होने को आते. लेकिन दो दिन के बाद चाय-पानी का इंतजाम डेस्क पर ही कर दिया गया. अब हम बहुमूत्र के रोगी तो थे नहीं कि बार-बार वॉशरूम जाते और गर जाते भी तो एक से सहृदय मौजूद थे कि तुरंत वैद्यसी पर उतर आते. लिहाजा कुर्सी पर देह रोपने की आदत डालनी शुर कर दी और धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा. दिमाग में तब एक ही चीज घूमती- शिमला से दिल्ली जाकर खूब थीअरिज पढ़नी है. मीडिया के अलावा भी बाकी चीजों पर समझ दुरुस्त करनी है. इस बीच सुट्टाबाज आलोचक जरुर किलसकर रह जाते.

सात बजे सत्र खत्म होने के बावजूद दुबेजी उत्तर-विमर्श के लिए तैनात रहते और उस दिन जिनका पर्चा होता, वो भी उनसे बातचीत के लिए तत्पर. लिहाजा बहस अकादमिक सत्र से निकलकर आचमन सत्र तक में समा जाती. मैं उनलोगों के बीच सबसे छोटा वक्ता था और आचमन क्रिया का अभ्यस्त भी नहीं. सो ट्रॉपिकाना की नदी बहायी जाती मेरे लिए. पियो जितना पी सको, मिक्स से लेकर पाइन एप्पल तक, सब.

दिनभर के सत्र के बीच सुबह के नौ बजे से शाम के नौ कब बज जाते, पता ही नहीं चलता. मैं रोज अंडे खाने के बहाने माल रोड चला जाता...और लौटकर ओमप्रकाश वाल्मीकिजी के साथ की गप्प में लग जाता. आचमन क्रिया में ट्रॉपिकाना की गिलास लेकर तभी तक शामिल हुआ जब तक कि संजीव, रविकांत, आदित्य दा ही होते, बाद में जब हमारे शिक्षक भी अपनी बात रखने आ गए तो लिहाज सा होने लगा और हमने खुद ही आचमन सत्र से अपने को अलग कर लिया. लेकिन

इन दस दिनों में दुबेजी के शिमला स्कूल का अजीब सा नशा लेकर दिल्ली लौटा. लौटते हुए खूब किताबें खरीदी. गिलल, गिगापीडिया से खूब सारी किताबें डाउनलोड की और काफी हद तक पढ़ा भी. दुनिया के लोगों के लिए शिमला हनीमून बनाने का एक बेहतर विकल्प और लो बजट के आशिक के लिए वक्त बिताने और इजहार करने का बेहतरीन शहर है लेकिन मेरे लिए शिमला देसी ऑक्सफोर्ड सिटी जैसा हो गया. अब जबकि लोग कहते हैं- चलोगे शिमला घूमने तो मन करता है, कहूं- घूमने या पढ़ने..मुफ्त का दस दिन जिस शहर में सबसे बेहतरीन सुविधाओं के साथ जिस शिमला शहर में बिताया, वहां तफरी के लिए कैसे जाना हो सकेगा ? फिर कभी जाने का मन हुआ तो पढ़ने ही के लिए..शहर के साथ के निजी अनुभव कैसे आपके लिए बिल्कुल अलग अर्थ पैदा कर जाते हैं, सोचता हूं तो लगता है टूरिस्ट बुक से अलग इन अनुभवों की संचयिता निकलनी चाहिए.

एक बात और छूट गयी..माल रोड से जब भी मैं गुजरता था तो साथ ही मुझे उसके नीचे से सरकती कई गलियों के प्रति दिलचस्पी बनती. एक-दो फिल्मों में बल्कि लुटेरा में भी इन गलियों की सीन है..मैं इन संकरी सड़कों और गलियों में उतर जाता. देश के अलग-अलग हिस्से से बिल्कुल न्यूली मैरिड या यंग कपल एक-दो दिन बिताने यहां आए होते..होटलों के आगे मोल-तल करते या फिर आपस की बातचीत से अंदाजा लग जाता कि इन्हें कमरे की सख्त जरुरत है लेकिन मिल नहीं पा रहा. ऐसे समय में मुझे आइआइएससी में मिला मेरा कमरा, कमरा क्या पूरा घर कहिए. दो कमरे, लिविंग स्पेस, किचन की जगह सब, का ध्यान आता. मेरे साथ लिस्ट में अब्दुल बिस्मिल्लाह का भी नाम था लेकिन अपने निजी कारण से आ नहीं पाए तो वो पूरी जगह में मैं अकेला ही रह रहा था, रात में डर भी लगता..मेरा मन करता, पूछूं- आपलोग कितने दिनों के लिए यहां है, एक-दो दिन तो मेरे यहां रह सकते हैं..जो पैसे आप रहने पर खर्च करेंगे, उतने में एक-दूसरे के लिए कुछ खरीद सकेंगे..लेकिन मामला सरकारी था सो कभी साहस नहीं कर सका.. हम खुद परदेसी शिमला के लिए लोकल हो गए थे..बहरहाल
आज से कोई चार साल पहले की कही टेलीविजन की भाषा पर बात है, इस बीच मैंने खुद भी कई मान्यताओं को खारिज किया है, सुधारा है..फिर भी पढ़कर बताइएगा कैसी रही थी बातचीत ?
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