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दुबेजी की शिमला स्कूल

उस सबूत की शक्ल में कि हां मैंने भी शिमला में "टेलीविजन की भाषा" पर पर्चा पढ़ा था और लोगों के सवालों के जवाब दिए थे "हिन्दी-आधुनिकताः एक पुनर्विचार 1,2,3" किताब आज मिली ये शृंखला तो इसी साल की वर्ल्ड बुक फेयर में ही आ गयी थी और तभी मैंने उलट-पलटकर देख लिया था लेकिन आज जाकर अपनी प्रति हाथ लगी..

कहने को तो हम IIHC ( Indian Institute Of Advance Studies ), शिमला में थे लेकिन कायदे से ये दुबेजी ( अभयकुमार दुबे) की पाठशाला थी जहां बाकी के लोग अपने-अपने से स्वयं अनुशासित रहते जबकि मेरे जैसा चंचल चित्तधारी उनके अंदाज को देखकर जिसकी हमें पढ़ाई को गंभीरता से लेने के बावजूद इस तरह के अनुशासन में रहने की आदत नहीं रही है.

दुबेजी सुबह के आठ बजे फिट-फाट तैयार होकर हमारा एक राउंड लगाकर हाल-चाल ले लेते. मेरे चेहरे पर उस वक्त जिस तरह कबीर की रमैणी तैरती रहती, उन्हें अक्सर दुविधा होती कि ये लड़का अभी सोकर उठा है या फिर अभी सोने जाएगा. ब्रेकफास्ट छूटने का हवाला देते और मैं तत्परता दिखाता लेकिन चार साल तक हॉस्टल में मैं रेगुलर ब्रेकफास्ट छोड़नेवाला रेसीडेंट रहा था सो वहां भी नहीं ही करता. ठीक नौ बजे से सत्र शुरु हो जाते.

दुबेजी बहुत ही सिनेमाई( समांतर सिनेमा के संवाद) में एन्ट्रो देते- आप यहां अपने विषय को लेकर कुछ भी बोलने के लिए आजाद हैं, किसी से भी सवाल करने के लिए स्वतंत्र हैं. इस संस्थान की छतें इतनी उंची है कि आपके विचार टकराएंगे नहीं. उसके बाद सत्र की जो अध्यक्षता कर रहे होते, अपनी बात रखते हुए एक-एक करके वक्ता को आमंत्रित करते. वक्ता को अपनी बात रखने का पूरे 50 मिनट का समय दिया जाता और उसके बाद करीब डेढ़ घंटे तक आप उनसे सवाल-जवाब कर सकते हैं. इस दौरान एक-एक बात पर जिरह होती और वक्ता की कही बातों और तथ्यों की ऐसी मथाई होती कि हिन्दी के अधिकांश सेमिनारों को जिन लोगों ने समधी-समधन मिलावा समारोह में तब्दील कर दिया है या फिर शहर के बाहर के सेमिनार हमीमून ट्रेवल बनकर रह गए हैं,वो देखकर छितरा जाएं. वो ऐसे मौके पर बस एक ही बात कहते- हमको यहां से जाने दीजिए, हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई. आगे से हम नहीं कहेंगे कि हम स्त्री-विमर्श/दलित विमर्श या फलां विमर्श के प्रतीक पुरुष ऑब्लिक महिला है. एक-दो के साथ ऐसा हुआ भी. हम अपने अंतिम दिन के सत्र की कल्पना करके दहल जाते और रोंगटे खड़े हो जाते कि भाईलोग जीवित और सही सलामत रहने देंगे कि नहीं.खैर

शुरु के दो दिन तो चाय-पानी के बहाने हम बीच-बीच में कट लेते. इतनी लंबी सीटिंग की आदत नहीं रही कभी. घर में पढ़ते हुए हम हर आधे घंटे में उठ जाया करते हैं ताकि हमारी बम्ब ऑक्सीजन ले सके. शिमला में जब भी मैं कुर्सी से उठता, पीछे हाथ फेरकर देख लेता जैसे छोटे बच्चे की माएं ड्रायपर पूर्वयुग में बार-बार छूकर देखा करती थीं कि मटरू ने शु-शु तो नहीं कर दी है. सितंबर की गुलाबी ठंड में भी बम्प पिल-पिले से होने को आते. लेकिन दो दिन के बाद चाय-पानी का इंतजाम डेस्क पर ही कर दिया गया. अब हम बहुमूत्र के रोगी तो थे नहीं कि बार-बार वॉशरूम जाते और गर जाते भी तो एक से सहृदय मौजूद थे कि तुरंत वैद्यसी पर उतर आते. लिहाजा कुर्सी पर देह रोपने की आदत डालनी शुर कर दी और धीरे-धीरे अच्छा लगने लगा. दिमाग में तब एक ही चीज घूमती- शिमला से दिल्ली जाकर खूब थीअरिज पढ़नी है. मीडिया के अलावा भी बाकी चीजों पर समझ दुरुस्त करनी है. इस बीच सुट्टाबाज आलोचक जरुर किलसकर रह जाते.

सात बजे सत्र खत्म होने के बावजूद दुबेजी उत्तर-विमर्श के लिए तैनात रहते और उस दिन जिनका पर्चा होता, वो भी उनसे बातचीत के लिए तत्पर. लिहाजा बहस अकादमिक सत्र से निकलकर आचमन सत्र तक में समा जाती. मैं उनलोगों के बीच सबसे छोटा वक्ता था और आचमन क्रिया का अभ्यस्त भी नहीं. सो ट्रॉपिकाना की नदी बहायी जाती मेरे लिए. पियो जितना पी सको, मिक्स से लेकर पाइन एप्पल तक, सब.

दिनभर के सत्र के बीच सुबह के नौ बजे से शाम के नौ कब बज जाते, पता ही नहीं चलता. मैं रोज अंडे खाने के बहाने माल रोड चला जाता...और लौटकर ओमप्रकाश वाल्मीकिजी के साथ की गप्प में लग जाता. आचमन क्रिया में ट्रॉपिकाना की गिलास लेकर तभी तक शामिल हुआ जब तक कि संजीव, रविकांत, आदित्य दा ही होते, बाद में जब हमारे शिक्षक भी अपनी बात रखने आ गए तो लिहाज सा होने लगा और हमने खुद ही आचमन सत्र से अपने को अलग कर लिया. लेकिन

इन दस दिनों में दुबेजी के शिमला स्कूल का अजीब सा नशा लेकर दिल्ली लौटा. लौटते हुए खूब किताबें खरीदी. गिलल, गिगापीडिया से खूब सारी किताबें डाउनलोड की और काफी हद तक पढ़ा भी. दुनिया के लोगों के लिए शिमला हनीमून बनाने का एक बेहतर विकल्प और लो बजट के आशिक के लिए वक्त बिताने और इजहार करने का बेहतरीन शहर है लेकिन मेरे लिए शिमला देसी ऑक्सफोर्ड सिटी जैसा हो गया. अब जबकि लोग कहते हैं- चलोगे शिमला घूमने तो मन करता है, कहूं- घूमने या पढ़ने..मुफ्त का दस दिन जिस शहर में सबसे बेहतरीन सुविधाओं के साथ जिस शिमला शहर में बिताया, वहां तफरी के लिए कैसे जाना हो सकेगा ? फिर कभी जाने का मन हुआ तो पढ़ने ही के लिए..शहर के साथ के निजी अनुभव कैसे आपके लिए बिल्कुल अलग अर्थ पैदा कर जाते हैं, सोचता हूं तो लगता है टूरिस्ट बुक से अलग इन अनुभवों की संचयिता निकलनी चाहिए.

एक बात और छूट गयी..माल रोड से जब भी मैं गुजरता था तो साथ ही मुझे उसके नीचे से सरकती कई गलियों के प्रति दिलचस्पी बनती. एक-दो फिल्मों में बल्कि लुटेरा में भी इन गलियों की सीन है..मैं इन संकरी सड़कों और गलियों में उतर जाता. देश के अलग-अलग हिस्से से बिल्कुल न्यूली मैरिड या यंग कपल एक-दो दिन बिताने यहां आए होते..होटलों के आगे मोल-तल करते या फिर आपस की बातचीत से अंदाजा लग जाता कि इन्हें कमरे की सख्त जरुरत है लेकिन मिल नहीं पा रहा. ऐसे समय में मुझे आइआइएससी में मिला मेरा कमरा, कमरा क्या पूरा घर कहिए. दो कमरे, लिविंग स्पेस, किचन की जगह सब, का ध्यान आता. मेरे साथ लिस्ट में अब्दुल बिस्मिल्लाह का भी नाम था लेकिन अपने निजी कारण से आ नहीं पाए तो वो पूरी जगह में मैं अकेला ही रह रहा था, रात में डर भी लगता..मेरा मन करता, पूछूं- आपलोग कितने दिनों के लिए यहां है, एक-दो दिन तो मेरे यहां रह सकते हैं..जो पैसे आप रहने पर खर्च करेंगे, उतने में एक-दूसरे के लिए कुछ खरीद सकेंगे..लेकिन मामला सरकारी था सो कभी साहस नहीं कर सका.. हम खुद परदेसी शिमला के लिए लोकल हो गए थे..बहरहाल
आज से कोई चार साल पहले की कही टेलीविजन की भाषा पर बात है, इस बीच मैंने खुद भी कई मान्यताओं को खारिज किया है, सुधारा है..फिर भी पढ़कर बताइएगा कैसी रही थी बातचीत ?
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