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आज पवन( Pawan K Shrivastava) और उसकी टीम की फिल्म "नया पता" रिलीज हो रही है. विस्थापन और अपनी ही जमीन पर पहचान के संकट से जूझते रामस्वार्थ दुबे की कहानी जितनी मार्मिक है, इस फिल्म के बनने की पूरी प्रक्रिया कम दिलचस्प और मार्मिक नहीं है. कुछ महीने पहले इंडिया हैबिटेट सेंटर में इस फिल्म की स्क्रीनिंग के पहले जब पवन ने विस्तार से इस फिल्म के बनने की प्रक्रिया की चर्चा की तो हम फिल्म देखने के पहले ही उस एहसास से भर गए जो कि इसकी अन्तर्वस्तु से गुजरने के बाद और गाढ़ा होता चला गया..

आपने देखा होगा कि मोहल्ले के वो लौंडे-लफाड़े जिन्हें न तो दो अक्षर पढ़ने से कभी मतलब रहा है और न ही कायदे से बात करने की तमीज रही है, चंदा करके सरस्वती की प्रतिमा बिठाते हैं, दादागिरी से चंदे वसूलते हैं और हमारे मन में धर्म और मूर्ति पूजा के प्रति गहरी हिकारत पैदा करते हैं..चंदा लिए जाने और उसे अपने तरीके से लुटाने के दर्जनों कारण और संस्करण है..हालांकि चंदा लिया जाना अपने आप में एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है बर्शते कि कोई जोर-जबरदस्ती न की जाए.

पवन ने चंदे की इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया में यकीन रखते हुए आपके जैसे सैंकड़ों लोगों से सौ-दो सौ-पचास रुपये, नकदी के अलावा दूसरे संसाधन जुटाए और एक सिनेमा बनाया- नया पता. इस लिहाज से नया पता की समीक्षा करते हुए अनिवार्य रूप से इसके बनने की प्रक्रिया को शामिल किया जाना जरूरी है..एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत साधन जुटाकर सिनेमा जैसी लोकतांत्रिक विधा का विस्तार..और तब आप इन साधनों से आगे बढ़कर इस पर बात करें तो पवन और उसकी टीम का ये दुस्साहस ही है कि अब आज ये फिल्म पीवीआर के जरिए आपके सिनेमाघरों तक पहुंच रही है.

कायदे से ये फिल्म रामस्वार्थ दुबे जैसे चरित्र पर केन्द्रित होने के बावजूद हम जैसे लाखों विस्थापित लोगों की कहानी को अपने भीतर समेटती है जो अपने कंधे के तरफ पैतृक गांव, कस्बे की यादों को ढोते और दूसरी तरफ जीविका के शहर को ढोते हुए जिंदगी की रेलमपेल से गुजरते चले जाते हैं. कई बार हम दोनों कंधे के बीच एक झीना पर्दा टांग देते हैं और बारी-बारी से दोनों को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं..और गर ऐसा नहीं कर पाते हैं जैसा कि रामस्वार्थ बाबू से न हो सका तो पैतृक गांव हमेशा के लिए छाती में अटककर रह जाता है और चाहते हैं कि जिंदगी का जो उर्वर हिस्सा अंजान शहर में खप गया, बचे हिस्से को इसी गांव के लिए लगा दें...और असल पीड़ा यही से शुरु होती ही..हमारे भीतर तो पैतृक गांव भीतर तक धंसा होता है लेकिन स्वयं गांव हमसे बहुत दूर जाकर छिटक जाता है..हम मन के साथ-साथ शरीर से जितने करीब होते जाते हैं वो उतनी ही अधिक त्रासदी स्थल बनता चला जाता है और इन सबके बीच रिश्ते-नाते सब लुगदी बनकर रह जाते हैं. हम गांव में समा जाना चाहते हैं लेकिन गांव हमें रबर की ट्यूब की तरह सतह पर फेंक देता है, हम उपलाते रह जाते हैं..पूरी फिल्म में ये यंत्रणा की हद तक शामिल है..

लेकिन रामस्वार्थ बाबू का दूसरा जो सबसे मजबूत व्यावहारिक पक्ष है जो नयी पीढ़ी के बहुत करीब से समझता है, भले ही ये एक फार्मूला की शक्ल में हमारे सामने असल जिंदगी में अलग-अलग बहाने से आता रहा है और वो ये कि जो हर दौर के गार्जियन दोहराते आए हैं- जो मेरे साथ हुआ है, वो अपने बाल-बच्चों के साथ नहीं होने देंगे. रामस्वार्थ बाबू का ये एप्रोच संवेदना से भरे शख्स के झीजते जाने के बीच भी संभावनाओं को बचा ले जाता है और यही इस फिल्म की ताकत भी है. अवसाद, आंसू और अजनबीपन के बीच जिंदगी को प्रैक्टिकलिटी में देखने की जद्दोजहद..

पवन ने इसमे संगीत के, साहित्यिक पंक्तियों की कई बरायटी शामिल की है.. ये पहली रचना के प्रति एक खास किस्म का मोह होता है जो कविता संग्रह से लेकर आलोचना तक की पुस्तकों में शामिल होता है कि अपनी रचनात्मकता जितनी बन पड़े, झोंक दो..क्या पता आगे क्या स्थिति बने ? ऐसे में कई बार फिल्म से लेकर पुस्तक तक ठुंसी हुई हो जाती है या फिर संदर्भ कोश बन जाती है जिससे आगे काट-काटकर कई पुस्तकें, फिल्में लिखी बनायी जा सके. पवन की इस फिल्म में दूसरा मामला ज्यादा जान पड़ता है. बीच-बीच में हल्की सी उबाउ या शिथिल पड़ने के बावजूद भी( चाहें तो इसे कॉमिक रिलीफ कह लें) आगे के हिस्से के लिए टेम्पट पैदा करती रहती है और हम आखिर तक इसे देखना चाहते हैं. हां ये जरूर है कि उत्तर-आधुनिक मिजाज लेकर इस फिल्म को अगर आप देखने जाते हैं और मेरी तरह दिल्ली को संभावनाओं का शहर बताकर इसमे ही आखिरी मौज खोजकर खुश हो लेते हैं तो आप अपने भीतर की चटकती जाती कई चीजों को या तो नजरअंदाज कर जाते हैं या फिर उस हद तक प्रैक्टिकल हो गए हैं कि जिंदगी को समसीमांत उपयोगिता ह्रास नियम( law of marginal utility) से थोड़ा भी इधर-उधर करके देखना नहीं चाहतें.

हम जैसे लोग इस फिल्म को बार-बार देखना चाहेंगे कि उषा प्रियवंदा ने अपनी कहानी वापसी में गजोधर बाबू को जिस मोड पर लाकर खड़ा कर दिया था, पवन उस गजोधर बाबू को रामस्वार्थ दूबे की शक्ल देकर कैसे आत्महंता बनाकर भी संभावित सत्य में परिवर्तित कर देते हैं. बाकी जब फिल्म जनता के पैसे से बनी है तो उस फिल्म से के जरिए राजस्व पैदा करने का काम हम जनता दर्शक बनकर नहीं करेंगे तो क्या इसके लिए भी किसी नायक का इंतजार करना होगा कि निजी हौसले को भी नारे की शक्ल दे और हम ऐसे सिनेमा के लिए अच्छे दिन आने के नशे में धुत्त होकर पड़ जाएं..सिनेमा हॉल तक तो हर हाल में जाना ही होगा.
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1 Response to 'आज रिलीज हो रही है पब्लिक के पैसे से बनी फिल्मः नया पता'
  1. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2014/06/blog-post_27.html?showComment=1403876769300#c3668248154423217773'> 27 जून 2014 को 7:16 pm बजे

    अच्छा लिखा पिक्चर के बारे में।
    देखने का मन कर आया फ़िल्म।
    पवन के हौसले को सलाम।

    शुभकामनायें।

     

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