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मिट्टी में मिल गई ओपन मैगजीन की साखः
उदय प्रकाश की कहीं कोई चर्चा नहीं
2G स्पेक्ट्रम घोटाला और मीडिया के दिग्गज चेहरे की गिरती साख को लेकर ओपन मैगजीन की जो लोकप्रियता और क्रेडिबिलिटी बनी थी, वो पिछले दो सालों में तेजी से गिरती रही है. कुछ नहीं तो आप इसकी वेबसाइट पर जाकर प्रिंट एडिशन कवर पेज पर एक नजर मार लें, आपको अंदाजा लग जाएगी कि इसने सरकार के कामकाज और गड़बड़ियों को ढंकने और उल्टे महिमामंडित करने के लिए कितनी स्पेशल स्टोरी की है ? वैचारिक स्तर पर तेजी से हुई गिरावट के बीच भी ये पत्रिका ढांचे के स्तर पर कम से कम पत्रकारिता को बचाकर प्रकाशित होती रही थी...लेकिन
25- 31अक्टूबर अंक में लेखकों के साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए जाने और उस पर चली बहस को लेकर जो कवर स्टोरी प्रकाशित की है वो न केवल पूरी तरह एकतरफी है बल्कि पत्रकारिता के ढांचे के स्तर पर बुनियादी शर्तों की धज्जियां उड़ाती जान पड़ती है. मसलन इस पूरे प्रकरण में उदय प्रकाश जिन्होंने सबसे पहले पुरस्कार वापसी की घोषणा, खत सहित पुरस्कार राशि लौटाकर की, का कहीं कोई नाम नहीं है.. पहला नाम नयनतारा सहगल और उसके बाद अशोक वाजपेयी और फिर बाद के लोग.
दूसरा कि एस प्रसन्नाराजन और सिद्धार्थ सिंह की इसी कवर पेज के अन्तर्गत दो अलग-अलग स्टोरी प्रकाशित हुई है. एस प्रसन्नाराजन को मैं पहले कॉलम से पढ़ता आया हूं. फूकोयामा से लेकर आर्ची ब्राउन, शशि थरूर की किताब की जानकारी और बेहतरीन समीक्षा का कायल रहा हूं..लेकिन प्रसन्नाराजन ने भी अपनी करीब हजार से भी ज्यादा शब्दों की इस स्टोरी( The Banality of Dissent) में घटनाक्रम को तोड़-मरोड़कर पेश किया और उदय प्रकाश की कहीं कोई चर्चा नहीं की.
सिद्धार्थ सिंह की स्टोरी ( Behind The Moral Howl) का उपशीर्षक ही कुछ इस तरह से है- What's their problem-Narendra Modi or intolerance. पूरे लेख में वही सारे तर्क हैं जो राकेश सिन्हा जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक के विचारक और बीजेपी प्रवक्ता टेलीविजन चैनलों पर बोलते आए हैं. ये फिर भी वैचारिक सहमति-असहमति का सवाल है लेकिन सिंह ने भी अपनी स्टोरी में न ही पहली बार उदय प्रकाश के सम्मान वापस करने की चर्चा की और न ही किसी ऐसे साहित्यकार की बात की जो कि पुरस्कार लौटाए जाने के पक्ष में राय रखते हों.
इधर पत्रिका ग्राफिक्स की शक्ल में जिन लेखकों की तस्वीर के साथ उनकी बात शामिल की है, उनमे से एक भी लेखक ऐसे नहीं हैं जो साहित्य अकादमी के रवैये के प्रति असहमति और पुरस्कार लौटानेवाले लेखकों के पक्ष में अपनी राय रखते हों. जाहिर है पत्रिका ने एक भी ऐसे लेखक से बात नहीं की या फिर अगर संपर्क किया हो और उसने बात करने से मना कर दिया हो तो उसकी भी चर्चा नहीं है.
कवर स्टोरी में इस बात की गहन पड़ताल है कि किस लेखक का किस राजनीतिक पार्टी से संबंध रहा है..सिंह का लेख तो इस निष्कर्ष तक जा पहुंचा है कि सबसे सब सोवियत संघ के कम्युनिस्ट माइंड सेट के लेखक हैं लेकिन उन्होंने खुद क्या कहा, इसे शामिल नहीं किया.
अगर कनेक्शन जोड़कर ही हमे लेखकों को पढ़ना है तो उन पर लिखे ऐसे लेख, कवर स्टोरी को पढ़ने के साथ-साथ ये सवाल तो करना ही होगा कि सीइएटी टायर, सारेगम, स्पेंसर के संस्थान से निकलनेवाली इस पत्रिका ने यदि 2G स्पेक्ट्रम पर स्टोरी प्रकाशित करते हुए पहले पन्ने को ये कहते हुए ब्लैंक छोड़ दिया था कि देश में आपात्काल जैसी स्थिति है तो हमें तो पूरी पत्रिका और इस कवर स्टोरी को इसी एंगिल से पढ़ा जाना चाहिए.  ‪#‎मीडियामंडी‬
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मुन्नवर राणा साहब ! न्यूज चैनल के टीआरपी के बताशे बनानेवाले लोग आपकी शायरी, मुशायरा के लिए कम सास-बहू सीरियल के मेलोड्रामा पैदा करने की ताकत रखने के लिए ज्यादा याद रखेंगे..आपको शायद यकीं न हो लेकिन आपने पिछले चार-पांच दिनों में न्यूज चैनलों पर जो कुछ भी जिस अंदाज में कहा वो न्यूज चैनलों की डीएनए से हूबहू मेल खाते हैं.
चैनल के जिन चेहरे ने साहित्य को बासी और उबाऊ चीज मानकर आज से दस साल पहले ही चलता कर दिया वो हैरत में पड़े होंगे कि इसमे भी ऐसे-ऐसे शख्स मौजूद हैं जो कॉमेडी सर्कस से लेकर सास-बहू और साजिश जैसा मजा पैदा कर सकते हैं..आपका रोना सच्चा हो सकता है, जार-जार रोईए, देश की बर्बादी के आंसू इतनी जल्दी वैसे भी थमने नहीं चाहिए लेकिन चैनलों के हाथ खुद को टप्पू के पापा टाइप का चरित्र बनने से न भी रोक पाते हों तो कम से कम साहित्य को कॉमेडी सर्कस मत बनने दीजिए..आप बड़े शायर हैं लेकिन आप अकेले साहित्य की दुनिया के सिरमौर नहीं हैं. कभी तो न्यूजरूम के अलावा अकेले में भी बैठकर रोईए..रोते हुए आप महसूस करेंगे कि चैनलों पर रोने से दुनिया हंसती है, अकेले बैठकर रोने से मन हल्का होता है.
ये देश जिस दौर से गुजर रहा है उसमे आपके आंसू से कहीं ज्यादा उस व्यवस्था के प्रति कठोरता से जूझने, प्रतिरोध करने की जरूरत है जिससे इस बात की ठीक-ठीक समझ बन सके कि लेखक कभी हमारे खित्ते का नहीं हो सकता..वो कई बार खुद के खित्ते के खिलाफ जाकर भी लेखकीय धर्म को बचा ले जाता है.
क्या ये अकारण तो नहीं है कि जिस साहित्य अकादमी पुरस्कार को आपके पहले दर्जनों लेखकों ने लौटा दिए, आज टीवी स्क्रीन पर कहीं नहीं है..इसकी वजह आप भी जानते हैं.. वो अपनी बात रखना जानते हैं.बातों से तमाशे का मजा देने का हुनर नहीं आता. कुदरत ने ये हुनर आपको बख्शा है, इसे सहेजकर रखिए..चैनल से इसके लिए अनुबंध कीजिए..इसी काम के लिए बाकी के प्रोडक्शन हाउस लाखों ले लेते हैं. 
आपसे ये एंकर सवाल की शक्ल में दनादन गोली दाग रहे हैं, आप पलटकर इनसे कभी क्यों नहीं पूछते कि मैंने अपने साहित्य में जिस हिन्दुस्तान की कल्पना की है, आपने कभी अपने चैनल के जरिए कोई ऐसी कल्पना की है..हमारे लेखक साहित्य में जिस हिन्दुस्तान को दर्ज करते हैं क्या आप भी कर सकते हैं ? आपके चैनल पर समाज का सिर्फ सत्ता संस्करण क्यों मौजूद है ?
आपके लिखे से गुजरकर हम जैसे लाखों पाठकों की आंखों में आंसू छलक जाते हैं लेकिन जब टीवी पर आपकी आंखों में आंसू छलकते हैं तो वो चैनलों के प्रोमो मटीरियल बनकर रह जाते हैं..अपने सच्चे आंसू को टीआरपी के बताशे में मत बदलने दीजिए प्लीज.
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अम्मा आपको बहुत दुआएं देतीं हैं भैया,बहुत याद करती हैं..फिर जल्दी आना मिलने लखनऊ..
रुबीना दीदी ने फोन पर जब इतना कहा तो अपने आप आखों में आंसू छलक आए..फफककर रो पड़ा.

ज़रीना बेगम ये नास्तिक आपके लिए प्रार्थना भी नहीं कर सकता. वो पहली मुलाकात में बस आपको एकटक देखता रहा..चेहरे की झुर्रियों में आपकी ठुमरी,रियाज़ और बेगम अख़्तर का अक्स पढ़ता रहा. आप कितना कुछ बोलना चाहती थीं हमसे लेकिन बेबस नज़र आयीं..आपके लड़के ने हमें बताया- अम्मा के आगे अभी तबला-हारमोनियम देय दो तो गाने लग जांगी...फिर कहने लगे,अम्मा ठीके थीं,जब पता पड़ा कि बिजली बिल जमा नहीं करने पर ये घर नीलाम हो जागा तो चिंता में घुलने लगीं.
ज़रीना बेगम,हमें नहीं पता है कि लेखक के,कलाकार के सम्मान में,उसके संघर्ष की आत्मा से गुजरते हुए उनकी कैसे मदद की जाती है..कई बार हम भावुक होकर उलटा उन्हें ठेस पहुंचाकर आ जाते हैं..उस वक़्त भी मेरे मुंह से अनायास निकल गया- तो आप इनकी नज़र के सामने तबला,हारमोनियम और गायन से जुडी चीजें क्यों नहीं रखते? इन्हें अच्छा लगेगा. बाद में अपने प्रति ही हिकारत हुई. एक बार फिर..
आपके कमरे,दीवारों पर टंगी चीजें और आहाते के एक हिस्से को रसोई की शक्ल देने की कोशिश पर नज़र गयी. अखिलेश यादव ने आपको जिस सम्मान से नवाज़ा है, वो भी उसी थैले में खूंटी पर टंगी है. आप पर की गयी तहलका,ओपन,एक्सप्रेस और तमाम मैगज़ीन-अखबारों की रिपोर्ट,बेगम अख़्तर के साथ की आपकी तस्वीरें,भारतीय संस्कृति परिषद् का सम्मान-पत्र,एक-एक करके दीदी ऐसे निकाल रहीं थीं जैसे मेरी माँ बॉक्स पलंग से आज से पचास साल पहले नाना की तरफ से दिए कांसा-पीतल के बर्तन दिखाती हैं.
आपके हिस्से जो भी है,सब अतीत है..सुख के सारे क्षण उसी में सिमट गए गए हैं. आपके वर्तमान में कितनी वेदना है,तड़प है अजीना बेगम. दुनिया आपके गायन को,ठुमरी को,बेगम अख्तर की आखिरी शिष्या की आवाज़ बताकर करोड़पति बन गए..एकाध को छोड़कर किसी ने पलटकर देखा तक नहीं..फिर भी आपको किसी से कोई शिकायत नहीं है. 

शिकायत है तो उस जुनूनी हिमांशु( Himamshu Bajpayee से जो बहुत कम शब्दों में अपना परिचय लखनऊ का आशिक बताकर करता है. आपको लगता है वो आपसे शायद नाराज़ है सो मिलने नहीं आया कई दिनों से. उससे कोई शिकायत नहीं जो आपसे सीखने,इंटरव्यू करने एक कलाकार की हैसियत से,पत्रकार की हैसियत से आए लेकिन आदमी बनकर कभी लौटे नहीं.
आपसे मुलाकात के बाद मुझे बेचैनी थी सीधे अपने कमरे में जाने की जिससे कि मैं दरवाजा बंद करके जी भरकर रो सकूँ..मेरा मन था विधान सभा के आगे जाकर जोर से चिल्लाकर कहने की- अखिलेश साहब, आपको याद है आपने कभी बेगम अख्तर के सम्मान में लाखों रूपये खर्च करके कार्यक्रम कराया था,बड़ी मुश्किल से उनकी आखिरी शिष्या आयीं थी सम्मान लेने? कभी पलटकर आपके कारिंदों ने सुध भी ली.
मतदाता आप जैसे को मंत्री,विधायक बनाते हैं और कलाकार के जरिए आपकी सरकार खुद को ब्रांड लेकिन इन कलाकारों का,मतदाता का क्या होता है,कभी तो पीछे मुड़कर देखिये...
लखनऊ के वाशिंदे,आपने तीन दिनों में मेरे ऊपर जितना प्यार लुटाया,आपसे बड़ी उम्मीद बंधी है..लिखते हुए लग रहा है- आप निराश नहीं करेंगे. आपकी, हमारी ज़रीना बेगम की हालत बेहद खराब है. वो के के हॉस्पिटल,(नबीउल्लाह रोड,लखनऊ सिटी स्टेशन) की इमरजेंसी वार्ड में भर्ती है. आप एक बार उस परिवार से मिलें, उनके साथ हों,डेढ़ घंटे की मुलाकात के भरोसे मैं कह सकता हूँ, बहुत ही खुद्दार लोग हैं ये. कभी इन्हें शिकायत नहीं रही कि उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री रह चुकी शख्सियत से व्यक्तिगत पहचान रही है ज़रीना बेगम की,कभी कुछ करने को नहीं कहा.लेकिन
इस वक़्त उन्हें कई स्तर पर ज़रूरत है..आप आगे आएं..आप साथ नहीं होंगे तो तो इनकी आवाज़ ताउम्र आपके बीच एक कचोट बनकर मौज़ूद रहेंगी बस..
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Posted On 10:48 pm by विनीत कुमार | 0 comments

जिन मिश्र बंधु की हिंदी साहित्य का इतिहास और मिश्र बंधु विनोद जैसी ऐतिहासिक किताबें पढ़कर हम बड़े हुए, उन्हीं मिश्र बंधु की ये हवेली है.
लाइब्रेरी में अब इनकी किताबें धूल चाटती हैं और हवेली को व्यवस्था के दीमक चाट गए..ऐसे लोगों ने इस हवेली पर ऐसा कब्ज़ा जमाया कि आसपास कोई ये जाननेवाला नहीं कि वो हिंदी साहित्य की दुनिया में क्या मायने रखते हैं.
बाकी उत्तर प्रदेश टूरिस्ट स्पॉट तो है ही.
‪#‎दरबदरलखनऊ‬
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लखनऊ का रिफह-ए-आम क्लब, ये वो जगह है जहां 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने साहित्य का उद्देश्य, जनपक्षधरता और साहित्य को राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहकर सभा को संबोधित किया था. रिफह-ए-आम का मतलब ही है जन कल्याण.
उस दौरान अंग्रेजों /रईसों का जो एमबी क्लब था जिसमे कुर्ता-पाजामा पहनकर भीतर घुसने तक की इजाजत नहीं थी, रिफह-ए-आम उसके विरोध में बनाया गया था. यही वो क्लब है जहां 1920 में सभा करके महात्मा गांधी ने लखनऊ वालों से असहयोग आंदोलन में जुड़ने की अपील की थी. खिलाफत काॅन्फ्रेंस भी यहीं हुई थी. हिमांशु वाजपेयी ने अपनी तहलका की रिपोर्ट उपेक्षा का दर्द( http://tehelkahindi.com/rifah-e-aam-club-lucknow/) में इन सबकी विस्तार से चर्चा की है.
देर शाम हिमांशु के साथ जब हमने वहां का नजारा देखा तो आत्मा कलप उठी. मुख्य द्वार बजबजाती ऐसी नालियां, सडांध और कीचड़ हैं कि एकदम से उबकाई आने लगी. उसी से सटे दर्जनों परिवार टहनियां,तिनके बटोरकर खाना पका रहे थे..सबों के बच्चे उसी गंदगी में लोट रहे थे. गुलजार की मुंशी प्रेमचंदः एक तकरीर में जिस खादी ग्रामोद्योग के कपड़े में होरी, झुनिया, गोबर चकाचक दिखते हैं, उनसे बिल्कुल उलट. गंदगी, गरीबी और लाचारी का अंबार.
असल में ये जो एमसीडी की कूड़ेदान से भी बदतर स्थिति इस पूरे परिसर की हुई है, उसकी बड़ी वजह है कि इसके भीतर शादी-ब्याह के जलसे होने लगे हैं. बांड्री वॉल जहां-तहां से तोड़ दी गई है. सामने शामियाने लगे होते हैं और जहां से ये इमारत शुरु होती है, वहां खाना बनाने-पकाने का काम. बर्तन धोने से लेकर साग-सब्जी के छिलके पोलिथीन सब यहीं छोड़ दिया जाता है. लोग आगे से दावत का मजा लेते हैं और हाथ पोंछकर निकल लेते हैं..लेकिन एक बार भी जाकर देख लें कि किस तरह से कीचड़ के बीच आलू छीले जा रहे हैं, दूध उबाले जा रहे हैं तो खाना तो दूर, उल्टियां कर दें.
दूसरी बात ये कि ये पूरा परिसर दादागिरी,जोर-जबरदस्ती और कब्जे का बुरी तरह शिकार हो गया है. सबने अपने-अपने तरीके से इस परिसर पर कब्जा जमा लिया है. स्वच्छ भारत की जो कंठीमाला लेकर देखभर में घुमा जा रहा है और जिस गांधी के चश्मे को इसकी लोगो बनायी गई है, एक बार कोई इसे देख ले तो चित्कार कर उठेगा. ये वो देश है जो अपने इतिहास पर तो रेस्टलेस तरीके से गर्व करता है लेकिन उसकी ऐतिहासिकता जहां सुरक्षित रहनी चाहिए वो इस हालत में है कि आपके दिमाग में बस एक ही सवाल उठेगा- आखिर आजाद होकर भी हमने क्या कर लिया ? १९३६ के होरी महतो की हालत २०१५ में आकर भी वैसी की वैसी ही है. ‪#‎दरबदरलखनऊ‬
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